Monday 11 February 2019

मिश्रित उपलब्धियों का गणतंत्र (मृदुला मुखर्जी प्रसिद्ध इतिहासकार) (साभार हिंदुस्तान )


आज हम संविधान लागू होने के 70वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। इन सात दशकों में तमाम उपलब्धियां हमारे हिस्से आई हैं। यह कतई आसान नहीं था कि करीब 200 वर्षों तक पराधीन रहने और ब्रिटिश राज में तमाम तरह के दमन झेलने वाला यह देश इतनी जल्दी दुनिया की उभरती हुई ताकतों में शुमार हो जाए। आजादी के समय तो हमारी जीवन प्रत्याशा महज 32 वर्ष थी और साक्षरता दर नाममात्र, लेकिन आज हमारी औसत उम्र बढ़कर 65 हो गई है और देश की करीब 75 फीसदी आबादी साक्षर में गिनी जाने लगी है। इन तमाम सफलताओं का आधार निश्चय ही हमारा संविधान है।
दरअसल, हमारे संविधान में स्वतंत्रता संग्राम की मूल भावनाओं को ही समेटा गया है। आजादी की जंग इस सोच के साथ लड़ी गई थी कि हमें अपनी पसंद का भारत बनाना है। संविधान में इस सोच को बखूबी शामिल किया गया। जैसे कि कांग्रेस की संकल्पना। कांग्रेस शब्द असल में अमेरिकी कांग्रेस यानी संसद से लिया गया है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन के समय लोगों को यही बताया गया था कि जिसकी स्थापना हो रही है, वह कोई राजनीतिक पार्टी नहीं, बल्कि हम जिस राष्ट्र की कल्पना कर रहे हैं, उसकी संसद है, इसीलिए उसमें लोकतांत्रिक भारत की सोच निहित थी।
धर्मनिरपेक्षता भी ऐसी ही एक अन्य भावना है। भले ही 42वें संविधान संशोधन द्वारा ‘सेक्युलर’ शब्द को बाद में प्रस्तावना का हिस्सा बनाया गया, लेकिन संविधान के तमाम अनुच्छेदों में यह शब्द बराबर से शामिल रहा है। मसलन, अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का अधिकार देना, लोकतांत्रिक राष्ट्र की संकल्पना, मौलिक अधिकार आदि। इन सबका उद्भव भी हमारा स्वतंत्रता संग्राम है। हमारे स्वाधीनता सेनानी इस भावना को पूरी ईमानदारी से जीते रहे कि जंग-ए-आजादी में हिन्दुस्तान के सभी धर्मों- तबकों के लोग शामिल रहे हैं, इसीलिए आजाद मुल्क में सबके लिए समान अधिकार होंगे।
इसकी तस्दीक सन 1928 की मोतीलाल नेहरू कमेटी की रिपोर्ट भी करती है। जब अंग्रेजों ने भारतीयों को एकमत होने की चुनौती दी, तो देश में ऑल पार्टी कॉन्फ्रेंस आयोजित की गई और मोतीलाल नेहरू को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि कॉन्फ्रेंस के विचारों को समेटते हुए वह एक रिपोर्ट तैयार करें, जो यह बताए कि भारत का संविधान कैसा होना चाहिए? इस रिपोर्ट में कई मौलिक अधिकारों की चर्चा है, जो बाद में हम अपने संविधान में भी देखते हैं। ‘वी द पीपुल’ यानी हम भारत के लोग की संकल्पना भी आजादी के आंदोलन की ही देन है।
साफ है, हमारा संविधान महज एक असेंबली और चंद लोगों द्वारा तैयार नहीं किया गया है। यह पिछले पांच-छह दशकों से आकार ले रहा था। इसमें आम लोगों के संघर्षों को जगह दी गई है। किसी भी संविधान की जीवंतता तभी तक सुनिश्चित होती है, जब तक कि उसमें लोगों की जिंदगी से जुड़ने की ताकत रहती है। हमारा संविधान इस मामले में दुनिया भर में अलहदा है और लगातार मजबूत हो रहा है। यहां लोग लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में स्वयं हिस्सा लेते हैं। यह लोगों में विश्वास जगाता है कि सरकार उनकी है। वे जानते हैं कि सरकार उनके वोट से बनती-बिगड़ती है। वे संसद, विधानसभा और पंचायत का फर्क जानते हैं। यानी, विषमताओं से परिपूर्ण और इतना विशाल देश होने के बावजूद लोग लोकतंत्र को गहराई से समझते हैं और उन्हें इसकी आदत लग चुकी है, जिसे बदलना काफी मुश्किल है।
अपने वोट की यह कीमत लोगों ने यूं ही नहीं समझी। संविधान में मौजूद वयस्क मताधिकार ने उन्हें यह ताकत दी है। शायद ही दुनिया के किसी देश में सभी लोगों को वोट देने का अधिकार एक साथ मिला हो। इंग्लैंड में तो प्रथम विश्व युद्ध के बाद महिलाओं को यह मौका मिला। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान भारत में भी 1945-46 में हुए चुनाव में सिर्फ 13 फीसदी लोगों को ही यह अधिकार मिला था, लेकिन आजाद भारत ने सबको बराबर से वोट डालने का अधिकारी माना। यह संदेश देता है कि गरीब से गरीब इंसान भी कठिन से कठिन लड़ाई लड़ सकता है और उसकी समझ कहीं से भी कमतर नहीं मानी जाएगी। आपातकाल के समय इस भावना को जरूर धक्का लगा, लेकिन उसके बाद देश में लोकतांत्रिक परंपरा शायद कहीं ज्यादा मजबूत हुई है।
बहरहाल, हमारे गणतंत्र के सामने कई चुनौतियां भी हैं, जिन पर विजय पाना जरूरी है। सबसे पहले तो लोगों की इस सोच से पार पाना होगा कि ‘हर नेता एक जैसा (बेईमान) होता है’। यह भावना लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा सकती है। मैं इसकी वजह देश में मौजूद असमानता को मानती हूं। संविधान में बेशक समानता की वकालत की गई है और पिछले सात दशकों में गरीबी काफी घटी भी है, लेकिन यह भी सच है कि अमीर और गरीब का फासला बढ़ता गया है। विशेषकर पिछले 15-20 वर्षों में पूंजी चंद लोगों के हाथों में सिमटती गई है। ऑक्सफैम की हालिया रिपोर्ट भी बता रही है कि देश के नौ पूंजीपतियों के पास अपार संपत्ति है। ऐसी असमानता के साथ कोई भी समाज ज्यादा दिनों तक स्वस्थ नहीं बना रह सकता।
ऐसी ही दूसरी समस्या लैंगिक विषमता से पार पाने की है। खासतौर से महिलाओं पर जिस तरह हमले बढ़े हैं, वे काफी चिंतनीय हैं। औरतों की सुरक्षा, गरिमा के साथ उनके जीने जैसे महिला-अधिकारों पर खास ध्यान देने की जरूरत है। समानता और सामाजिक बदलाव हमारे संविधान में निहित हैं, लेकिन इसे बढ़ावा देने के लिए जैसे प्रयास होने चाहिए, वे नहीं हुए। इसे लेकर विशेष अभियान चलाने, कानून बनाने और उसे संजीदगी से लागू करने की जरूरत है।
बीते वर्षों में वैश्विक मंचों पर भले ही हमने काफी नाम कमाया है, लेकिन कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं, जहां हम बेहतर कर सकते थे, लेकिन कर नहीं पाए, और इसके लिए हमारे सत्ता-प्रतिष्ठान कहीं ज्यादा दोषी हैं। कुछ बुराइयों को तो उसने खासतौर से पैदा किया है। उसका ध्यान हालात सुधारने की बजाय उन्हें बिगाड़ने पर ज्यादा रहा। लोगों को धर्म के आधार पर बांटना और शिक्षण संस्थानों पर चोट कुछ ऐसी ही कुचेष्टाएं हैं, जिनसे हरसंभव बचने की जरूरत है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

सिर्फ अधिकारों से नहीं खत्म होगी लैंगिक असमानता (ऋतु सारस्वत) (समाजशास्त्री) (साभार हिंदुस्तान)


ब्रिटेन की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में फाइन आर्ट्स, म्यूजिक और साहित्य में पिछले सौ साल से सिर्फ लड़कियों को स्कॉलरशिप दी जा रही थी, परंतु बीते कुछ समय से इस भेदभाव पर विरोध के बाद इसे पुरुषों के लिए भी खोल दिया गया। लैंगिक समानता की पहली शर्त ही लिंग भेद के हर स्वरूप को समाप्त करना है, परंतु महिला अधिकारों की लड़ाई में पुरुषों के समानता के अधिकारों की चर्चा गायब हो जाती है। हम उन्हें सर्वाधिकार संपन्न मान बैठे हैं, जबकि यह अधूरा सच है। खेलों से लेकर शिक्षा तक, तमाम उदाहरण हैं, जो एक सिरे से इस मिथक को नकारते हैं।
1984 के लॉस एंजेलिस ओलंपिक में सिंक्रोनाइज्ड ड्राइविंग की शुरुआत तो हुई, पर आज तक यह सिर्फ महिलाओं के लिए है। खेलों में लैंगिक समानता पर काम कर रही बिली जीन किंग ने पुरुष खिलाड़ियों की समानता के लिए पहल करते हुए टेनिस में पुरुष खिलाड़ी के पांच सेट का विरोध किया है। वह कहती हैं, ‘महिला खिलाड़ी की तरह पुरुष खिलाड़ियों का मैच भी बेस्ट ऑफ थ्री सेट होना चाहिए।’ उन्होंने साल 2012 में जोकोविच और नडाल के बीच के ऑस्टे्रलियन ओपन मैच का उदाहरण दिया, जो करीब छह घंटे तक चला था। मैच के बाद ये दोनों खिलाड़ी ढंग से चल भी नहीं पा रहे थे। बिली ने तो महज वह आवरण हटाने का प्रयास किया है, जो दुनिया भर के पुरुषों पर खुद को बलशाली सिद्ध करने का दवाब बनाता है।
बीते दशक से लैंगिक समानता का सवाल दुनिया भर में उठ रहा है। ‘लैंगिक समानता’ का अर्थ सीधे-सीधे ्त्रिरयों की दोयम स्थिति से लिया जाता है, लेकिन क्या यह वाकई ‘लैंगिक समानता’ की सही परिभाषा है? लैंगिक समानता का वास्तविक अर्थ महिलाओं की कमतर स्थिति या उनके अधिकारों का संघर्ष नहीं, बल्कि पुरुष-स्त्री में बिना किसी भेदभाव के हर क्षेत्र में समानता है। ऐसी समानता, जहां दोनों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियां समान हों। सच है कि विश्व भर में महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति गंभीर है और वे अपने अधिकारों को लेकर संघर्ष भी कर रही हैं, परंतु बड़ा सवाल यह है कि लंबे संघर्ष के बाद भी समानता का अपेक्षित स्वरूप स्थापित क्यों नहीं हो पा रहा? इसका बड़ा कारण, स्त्री-पुरुष को दो धड़ों में बांटने के साथ पुरुष को असंवेदनशील और हिंसक स्थापित करने की कुचेष्टा है। इसी से महिलाओं को समानता नहीं मिल पा रही। मगर समानता स्थापित करने के लिए इस अधूरे सत्य का प्रसार असमानता की जड़ों को और गहरा करेगा। महिलाओं की तरह, पुरुषों में भी संवेदना, पीड़ा, ईष्र्या,त्याग और स्नेह के भाव होते हैं। अंतर यह है कि पुरुषों को अपनी भावनाएं दबाने की सीख दी जाती और हम इस सच से अनभिज्ञ हैं कि पुरुष भी दबाव में हैं।
अभिनेता जस्टिन बाल्डोनी ने अनायास नहीं कहा कि- ‘मुझे भिन्न चरित्र निभाने को मिले, अधिकतर ऐसे पुरुषों की भूमिका निभाई, जिनमें मर्दानगी, प्रतिभा और शक्ति कूट-कूटकर भरी है... मैं ताकतवर बनने का नाटक करता रहा, जबकि मैं कमजोर महसूस करता था, हर समय सबके लिए साहसी बने रहना अत्यंत थकाऊ होता है।... लड़कियां कमजोर होती हैं और लड़के मजबूत। संसार भर में लाखों लड़कों और लड़कियों को अवचेतन ढंग से यही बताया जा रहा है। परंतु यह गलत है।’ जस्टिन का वक्तव्य समाज की उन परतों को उघाड़ता है, जो लैंगिक असमानता की जड़ है। पुरुष और स्त्री बनाए जाते हैं। पुरुष को दंभी, प्रभुत्वशाली होना सिखाया जाता है। वह ऐसा नहीं करता, तो उसे अपने ही वर्ग से अलग कर दिया जाता है। हमारी संपूर्ण व्यवस्था ने स्त्री पुरुष को विरोधी बनाकर खड़ा कर दिया है, जिसके चलते लैंगिक समानता का संघर्ष अनवरत जारी है। इस व्यवस्था का मकड़जाल इतना गहरा है कि खुद को आधुनिक कहने वाले भी स्वाभाविक रूप से लड़के-लड़कियों में अंतर करते हैं, उन्हें यह परंपरागत और सही लगता है। लैंगिक समानता स्थापित करने का आरंभ उस सोच में बदलाव से करना होगा, जो दो जैविक शरीर को सामाजिक रूप से स्त्री और पुरुष में परिवर्तित करती हो।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

डिजिटल कंटेन्ट पर असर डालेंगे ये पांच ट्रेंड (उमंग बेदी) (प्रेसीडेंट, डेली हंट व पूर्व मैनेजिंग डायरेक्टर, फेसबुक इंडिया) Copyright@2018-19 DB Corp Ltd. All Rights Reserved


जियो के लॉन्च ने डेटा की कीमतें एकदम से नीचे ला दीं। इससे इंटरनेट सारे भारतीयों के दायरे में आ गया और डिजिटल बिज़नेस में निवेश बढ़ गया। आज डिजिटल क्षेत्र 30-35 फीसदी की संयुक्त एकीकृत वृद्धि दर (सीएजीआर) से बढ़ रहा है और वृद्धि का अगला चरण मोबाइल आधारित क्षेत्रीय बाजारों से अपेक्षित है। अब जब क्षेत्रीय बाजार डिजिटल बिज़नेस का मुख्य फोकस बन रहा है तो क्या क्षेत्रीय भाषाओं के कंटेन्ट की अत्यधिक मांग है? इसका जवाब तो असंदिग्ध रूप से 'हां' ही है। 2017 तक डिजिटल प्लेटफॉर्म पर मुख्यत: अंग्रेजी भाषा के कंटेन्ट की मांग थी। लेकिन, 2018 से स्थानीय भाषा का कंटेन्ट न सिर्फ निर्मित हो रहा है बल्कि इसकी खपत भी हो रही है। 2019 में भी कंटेन्ट निर्मिति और उसकी खपत के पैटर्न में बदलाव होता रहेगा। इस पृष्ठभूमि में आइए, पांच ऐसे इंटरनेट ट्रेंड्स पर विचार करें, जो 2019 में मोबाइल आधारित डिजिटल कंटेन्ट बिज़नेस को प्रभावित करेंगे।
भारतीय भाषाओं के इंटरनेट यूज़र में ही डिजिटल भविष्य: भाषाई कंटेन्ट डिजिटल भारत का भविष्य सिद्ध हो रहा है। इन संभावनाओं के दोहन के लिए कई स्थानीयकृत एप्स और सेवाओं की एकदम जमीन से शुरुआत की गई है। जैसे Circle और Lokal जैसे हाईपर लोकल वर्नाक्यूलर न्यूज़ एप। इन्होंने वीडियो स्निपेट्स का इस्तेमाल शुरू भी कर दिया है, क्योंकि वीडियो कंटेन्ट की अत्यधिक मांग है। फिर यह भी है कि सोशल नेटवर्क हो या न्यूज़ एग्रीगेटर्स शायद ही ऐसा होता हो कि यूज़र एक भी वीडियो देखे बिना उनके कंटेन्ट को देखता हो। केपीएमजी की रिपोर्ट के मुताबिक 2019 तक 80 फीसदी वैश्विक इंटरनेट खपत वीडियो कंटेन्ट के रूप में होगी। स्पष्ट है कि सारे ट्रेंड यही बताते हैं कि ऑनलाइन खपत वाले कंटेन्ट में वीडियो सबसे पसंदीदा स्वरूप होगा। इसके साथ-साथ हम इंटरनेट का पहली बार उपयोग करने वाले गैर-अंग्रेजी यूज़र का सैलाब आते देख रहे हैं। इसे देखते हुए कई कंटेन्ट प्लेटफॉर्म्स ने ऐसे ग्राहकों की विविध जरूरतों व चुनौतियों से निपटने के लिए बहु-भाषा नीति लागू की है। मसलन, नेटफिल्क्स ने आमदनी में हिस्सेदारी और रिकॉल बढ़ाने के लिए भाषाई सब-टाइटल्स के माध्यम से स्थानीयकरण पर फोकस किया है।
वीडियो के साथ डिजिटल एडवर्टाइजिंग का बढ़ना जारी : डिजिटल एडवर्टाइजिंग में क्रांति आ गई है, इसलिए इसमें आगे रहना महत्वपूर्ण है। व्यावसायिक घरानों को अहसास हो रहा है कि उच्च प्रभाव वाले मीडिया का होना अब सिर्फ अच्छी बात नहीं रह गई है बल्कि इसका होना ब्रैंड्स के लिए निर्णायक हो गया है। संभावना है कि वीडियो एडवर्टाइजिंग का सबसे शक्तिशाली माध्यम रहेगा, क्योंकि वे सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित करने वाले प्लेटफॉर्म हैं। यह कनवर्शन रेट (व्यूवर से खरीददार बनने की दर) भी बढ़ाता है।
नवीनतम 'ग्रुप एम' रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में देश में विज्ञापन खर्च 14.2 फीसदी की दर से बढ़ेगा। इसकी तुलना में औसत वैश्विक वृद्धि दर 3.9 फीसदी रहेगी। विज्ञापन बजट में डिजिटल वीडियो विज्ञापनों का बड़ा हिस्सा होगा। इसमें भी मोबाइल व सोशल वीडियो एडवर्टाइजमेंट विज्ञापनदाताओं की पसंद में शीर्ष पर होंगे। इसके अलावा अपेक्षा है कि ब्रैंड्स 'मोमेंट्स मार्केटिंग' पर फोकस करेंगे। यह संदर्भ को संबंधित संकेतों से जोड़कर लक्षित ग्राहकों के लिए अत्यधिक प्रासंगिक वीडियो एडवर्टाइजिंग कंटेन्ट डिलीवर करता है।
एआई, एमएल और ब्लॉकचेन व्यवसायों में उथल-पुथल मचा देंगे : डेटा संचालित अंतर्दृष्टि, डिजिटल टेक्नोलॉजी और हर जगह मौजूद मोबाइल कंप्यूटिंग भारतीय डिजिटल कंटेन्ट बिज़नेस का स्वरूप बदल रही है। जहां 2018 ऐसा साल था, जिसमें ब्रैंड्स ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई), मशीन लर्निंग (एमएल) और ब्लॉकचेन अप्लिकेशन में प्रयोग शुरू किए, वहीं 2019 के साल में वे इसे व्यवस्थित रूप दे देंगे। एआई/एमएल संचालित टेकनीक बेहतर ट्रेंड विश्लेषण, कस्टमर की बेहतर प्रोफाइलिंग, पर्सनलाइजेशन की अत्याधुनिक रणनीतियों के जरिये ग्राहक केंद्रित हो जाएगी। ये सब और ब्लॉकचेन टेक्नोलॉजी के मुख्यधारा में आने की संभावना है। कंपनियां अब यह देख रही हैं कि वे टेक्नोलॉजी का उपयोग यह जानने के लिए कैसे कर सकती हैं कि संभावित ग्राहक किस प्रकार का कंटेन्ट पसंद कर रहे हैं ताकि ग्राहकों को अधिक व्यक्तिगत अनुभव और अत्यधिक संतुष्टि दी जा सके।
डिजिटल प्लेटफॉर्म पर कंटेन्ट अब भी किंग : भारतीय बाजार इस बारे में अनूठा है कि इसमें ऐसे कंटेन्ट की पहचान करनी होती है, जो उसकी विविध आबादी का ध्यान खींच सके। 2019 में भारत में ऑनलाइन कंटेन्ट की खपत बढ़ेगी और इसमें 'खबर' के सेगमेंट का महत्वपूर्ण हिस्सा होगा। फिर भारत में कंटेन्ट कंजम्प्शन के पैटर्न को सावधानी से देखें तो पता चलता है कि कंटेन्ट की गति, मात्रा और सत्यता ही इसकी सफलता पर असर डालेगी। अधिकाधिक डिजिटल कंपनियां फर्जी व सच्चे न्यूज़ कंटेन्ट के अंतर जैसे कारकों का संज्ञान लेंगी। यह प्रमुख तत्व होगा, जो चुनावी वर्ष में कंटेन्ट की दीर्घावधि टिकाऊ सफलता तय करेगा।
एमटीटीएच के साथ इंटरनेट और विकसित होगा: भारतीय टेलीकॉम सेक्टर में अपने अत्यंत किफायती डेटा व वॉइस ऑफरिंग से उथल-पुथल मचाने के बाद 2019 में सारी निगाहें रिलायंस जियो पर हैं, जो अब ब्राडबैंड मार्केट में तूफान लाने के लिए तैयार है। व्यापक बाजार, हाई स्पीड, इंटरनेट आधारित टेलीविजन प्रोग्राम (फाइबर टू द होम यानी एफटीटीएच) के साथ वायर्ड ब्राडबैंड सर्विस भारत में टेलीविजन देखने या इंटरनेट कंटेन्ट के इस्तेमाल के तरीके में बदलाव ला देगी।
कुल-मिलाकर उम्मीद है कि जियोगिगाफाइबर ब्राडबैंड सेवाएं देश में एफटीटीएच इंडस्ट्री के मौजूदा स्वरूप को बदल देंगी। फिर जियोगिगाफाइबर के उभरने को एप या सॉफ्टेवयर आधारित कंटेन्ट फॉर्मेट की बढ़ती लोकप्रियता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। 2019 टीवी चैनल्स से एप आधारित कंजम्प्शन में बदलाव का है। यह वर्ष 5 जी लाने की तैयारी का भी है। यह महत्वपूर्ण ट्रेंड भारत के मीडिया व मनोरंजन उद्योग में उथल-पुथल मचा देगा। निष्कर्ष यह है कि इस साल कंपनियां नवीनतम टेक्नोलॉजी के माध्यम से कंटेन्ट की शक्ति का दोहन करेंगी। उभरते इंटरनेट और नई रणनीतियों के सहारे मोबाइल आधारित 'डिजिटल इंडिया' का सपना साकार किया जाएगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

चीन-नेपाल धुरी : चिंता का सबब (रहीस सिंह)


जनवरी के तीसरे सप्ताह में नेपाल के केंद्रीय बैंक नेपाल राष्ट्र बैंक (एनआरबी) ने एक सकरुलर जारी कर 100 रुपये के नोट के ऊपर के भारतीय नोटों पर पाबंदी लगा दी। नेपाल राष्ट्र बैंक ने यह सकरुलर 13 दिसम्बर 2018 के नेपाल की कैबिनेट द्वारा लिये गए निर्णय के आधार पर जारी किया है। महत्त्वपूर्ण तय यह है कि नेपाल की कैबिनेट ने 100 से ऊपर के भारतीय करेंसी नोटों को प्रतिबंधित करने का निर्णय उस समय लिया था जब एनआरबी ने भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) से आग्रह किया था कि नेपाल को सभी करेंसी नोटों को इस्तेमाल करने की अनुमति दे। नेपाल राष्ट्र बैंक ने अपने सकरुलर में कहा है कि 200, 500 और 2000 रुपये के नोट न ही कोई अपने साथ ले जा सकेगा और न ही उनका किसी प्रकार के कारोबार में प्रयोग कर सकेगा।
सवाल यह उठता है कि नेपाल की सरकार और नेपाल राष्ट्र बैंक ने यह कदम क्यों उठाया? क्या यह भारत सरकार द्वारा किए गए विमुद्रीकरण के पश्चात एनआरबी में रखी भारतीय करेंसी नोट को न बदलने का परिणाम है अथवा कारण कुछ और हैं? एक बात और नेपाल में बड़े पैमाने पर कारोबारी भारतीय मुद्रा का प्रयोग करते हैं, इसलिए 100 से ऊपर के भारतीय करेंसी नोटों पर प्रतिबंध लगाने से उसका कारोबार भी प्रभावित होगा, फिर भी नेपाल सरकार यदि ऐसा कदम उठा रही है तो कोई ठोस वजह अवश्य होनी चाहिए? क्या यह भारत की कूटनीतिक असफलता का परिणाम है या फिर नेपाल के चीनी प्रेम का? दरअसल, आरबीआई ने फरवरी 2015 में फॉरेन एक्सचेंज मैनेजमेंट (एक्सपोर्ट एण्ड इम्पोर्ट ऑफ करेंसी) रेग्युलेशंस के अंतर्गत नेपाली और भूटानी नागरिकों को यह अनुमति दी थी कि वे भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी 500 और 1000 के करेंसी नोटों को 25000 रुपये की सीमा तक अपने साथ लेकर चल सकते हैं और उसका कारोबारी इस्तेमाल कर सकते हैं। इस कारण से नेपाल में 500 और 1000 के भारतीय करेंसी नोटों का सर्कुलेशन तेजी से बढ़ा और 8 नवम्बर 2016 के भारत के विमुद्रीकरण के निर्णय के पश्चात करेंसी एक्सचेंज के कारण नेपाल राष्ट्र बैंक के पास अरबों की मात्रा में रुपया जमा हो गया।
भारतीय रुपयों का यह स्टॉक अभी भी एनआरबी के पास पड़ा है। संभवत: नेपाल की यही खीझ अब भारत के नोटों पर प्रतिबंध लगाने के रूप में दिख रही है। लेकिन असल बात यह नहीं है। जिन 950 करोड़ रुपये की वापसी को लेकर नेपाल सरकार, नेपाल राष्ट्र बैंक और भारतीय वित्त मंत्रालय व आरबीआई के बीच एक तनाव की स्थिति है, वह इतनी साधारण नहीं जितनी कि नेपाल दिखाना चाहता है। यहां पर दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली यह कि नेपाल राष्ट्र बैंक अब इन पुराने नोटों का भुगतान डॉलर में चाहता है, नये भारतीय करेंसी नोटों में नहीं। उसकी तरफ से कहा गया था कि बदल चुके नोटों का यह स्टॉक भारत वापस ले और बदले में उसे 14 करोड़, 60 लाख डॉलर भुगतान करे। चूंकि पिछले कुछ समय से रुपया डॉलर के मुकाबले अवमूल्यित हो रहा है, जाहिर है यदि भारत उसे डॉलर में चुकता करता है तो उसे मूल मात्रा से अधिक रुपये व्यय करने होंगे। सवाल यह उठता है कि भारत नेपाल की इस मांग को क्यों स्वीकार करे? दूसरी बात यह है कि एनआरबी के पास पुराने भारतीय नोटों (500 एवं 1000) में कुछ फेक करेंसी (जाली मुद्रा) भी है। सो, भारतीय रिजर्व बैंक एनआरबी में रखे जाली नोट क्यों स्वीकार करे? हम सभी जानते हैं कि भारत में फेक करेंसी भेजने का काम पाकिस्तान करता है और इसके लिए रास्ते हैं-बांग्लादेश और नेपाल।
आईएसआई का नेटवर्क इसे ऑपरेट करता है। यह फेक करेंसी भारतीय अर्थव्यवस्था के आयतन को बढ़ाने का काम करती है, जिससे स्फीति व साख और कानून-व्यवस्था जैसी चुनौतियां उत्पन्न होती हैं। ऐसे में नेपाल के वित्त मंत्रालय या नेपाल राष्ट्र बैंक को यह स्पष्ट करना चाहिए था कि उसके पास बचे 950 करोड़ के भारतीय करेंसी नोटों में से कितनी फेक करेंसी है। गौर करने लायक बात यह है कि नेपाल के वित्त मंत्रालय ने अब तक इसे स्पष्ट नहीं किया है। हालांकि अप्रैल 2018 में जब नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली भारत की यात्रा पर आए थे, तब उन्होंने यात्रा शुरू करने से ठीक पहले नेपाल के नागरिकों को आास्त किया था कि वह इस मुद्दे का समाधान करके आएंगे, लेकिन इस दिशा में कोई प्रगति हुई नहीं। यहां एक तय और ध्यान देने योग्य है कि क्या भारत सरकार और नेपाल सरकार के बीच करेंसी वापसी के लिए कोई लिखित संविदा या समझौता था? नेपाल सरकार इस विषय पर भी कोई उत्तर नहीं दे पाई है। हालांकि कुछ समय पहले नेपाल राष्ट्र बैंक के डिप्टी गवर्नर चिंतामणि शिवकोटी ने साक्षात्कार में कहा था कि विमुद्रीकरण के समय उन्हें नई दिल्ली से मौखिक आदेश मिला था कि नेपाल प्रति व्यक्ति 4,500 रुपये तक के पुराने करेंसी नोट बदल सकता है। इस पूरे मामले में एक बात और है, जो कूटनीति के लिहाज से महत्त्वपूर्ण हो सकती है।
नेपाल को ऐसा लगता है कि इस मामले में भारत ने उसके मुकाबले भूटान को प्राथमिकता दी। ध्यान रहे कि भारत ने मई 2017 में भूटान के रॉयल मॉनेटरी अथॉरिटी (आरएमए) के पास रखे पुराने भारतीय करेंसी नोट वापस ले लिये थे। मगर नेपाल अब तक नोट वापस करने में सफल नहीं हो पाया। इस सिक्के का एक दूसरा पहलू नेपाल या विशेषकर प्रधानमंत्री ओली का चीनी प्रेम है। दरअसल, नेपाल नई दिल्ली के साथ इकोनॉमिक मैनेजमेंट स्थापित करने एवं उसमें अनुकूलन स्थापित करने की बजाय बीजिंग के साथ पींगे बढ़ा रहा है, लेकिन वह अपने चीनी प्रेम को छुपाने के लिए नई दिल्ली को निशाना बनाता है। ओली ने 8 सितम्बर 2018 को ट्वीट में कहा था कि उन्होंने भारत द्वारा 2015 में की गई आर्थिक नाकेबंदी का जवाब ढूंढ़ लिया है।
यह जवाब था नेपाल-चीन ट्रांजिट-ट्रांसपोर्ट एग्रीमेंट, जिसके फलस्वरूप चीन ने उसके लिए अपने चार समुद्री बंदरगाह और तीन शुष्क बंदरगाह खोल दिए थे। चूंकि चीन ने नेपाल को युआन में व्यापार करने की सुविधा दे रखी है इसलिए नेपाल को रुपया और भारत (कलकत्ता पोर्ट) दोनों का ही विकल्प मिल गया। यही नहीं नेपाल में अपना प्रभाव स्थापित करने और इन्फ्रा प्रोजेक्ट को विस्तार देने के लिए चीन नेपाल को हुंडी के जरिए भुगतान की सुविधाएं दे रहा है। यानी कि नेपाल ‘‘ग्रे फेस’ डिप्लोमेसी कर रहा है, जिसे भारत को न केवल समझना चाहिए बल्कि उसे काउंटर करने के तरीकों की खोज करनी चाहिए।

आर्थिक आरक्षण और कृषि कर्ज-माफी की समानताएं (रोशन किशोर) (आर्थिक समीक्षक, हिन्दुस्तान टाइम्स) (साभार हिन्दुस्तान )


नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए घोषित 10 फीसदी आरक्षण कई कारणों से किसानों की कृषि कर्र्ज-माफी की तरह ही है। इन दोनों से क्रमश: सवर्ण बेरोजगारों और किसानों को बहुत कम लाभ होगा। 10 फीसदी आर्थिक आरक्षण का मतलब यह कतई नहीं कि 10 प्रतिशत सवर्ण आबादी को नौकरियां मिल जाएंगी। अव्वल तो सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र में पैदा होने वाली नई नौकरियों का यह बहुत छोटा-सा हिस्सा होगा, फिर सरकारी नौकरियों की संख्या बहुत कम है और यह दिनोंदिन घटती ही जा रही है। उदाहरण के तौर पर, सेंटर फॉर मॉनिर्टंरग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2011-12 में (सबसे ताजा उपलब्ध डाटा यही है) हमारे देश के सार्वजनिक क्षेत्र में सिर्फ 1.76 करोड़ नौकरियां थीं। साल 2001-02 और 2011-12 के बीच सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में 12 लाख की कमी आई। इसी तरह, कर्ज-माफी से भी देश के सभी किसानों को फायदा नहीं होता है। ऐसी योजनाएं साहूकारों आदि से लिए गए कर्ज को माफी के योग्य नहीं मानतीं। यहां तक कि औपचारिक क्षेत्र के सभी कर्जदारों को भी इसका लाभ नहीं मिलता, क्योंकि कृषि भूमि की मालिकाना स्थिति, कर्ज-सीमा और कर्ज की तारीख जैसे कई आधारों पर किसान कर्ज-माफी से वंचित रह जाते हैं। किसानों के एक छोटे-से हिस्से को इसका लाभ मिल पाता है। पर मामूली लाभ के बावजूद आरक्षण और कर्ज-माफी, दोनों जबर्दस्त राजनीतिक अपील रखते हैं।
ये दोनों भद्दे प्रोत्साहन हैं। यदि कोई पार्टी कर्ज-माफी की वजह से राजनीतिक लाभ हासिल कर लेती है, तो वह कृषि क्षेत्र में ढांचागत बदलाव के लिए खास उत्साह नहीं दिखाएगी, क्योंकि ढांचागत बदलाव के लिए अधिक धन की तो जरूरत पड़ेगी ही, उसमें फौरी राहत की गुंजाइश भी कम होती है। मतदाता भी दूरदर्शी कदमों की बजाय लोक-लुभावन फैसलों को ज्यादा पुरस्कृत करते हैं। रोजगार के संकट से जुड़ा परिदृश्य इससे कुछ अलग नहीं है। इस संकट के दीर्घकालिक समाधान के लिए देश की शैक्षिक दुनिया में व्यापक सुधार की जरूरत पड़ेगी। रोजगारपरक शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए काफी संसाधनों, राजनीतिक इच्छाशक्ति और वक्त की दरकार होगी। ऐसे में, सामाजिक आधार पर मिलने वाले आरक्षण के दायरे के बाहर के लोगों की नाराजगी को शांत करने के लिए उन्हें आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की घोषणा एक बेहद आसान रास्ता है। मगर इससे विपरीत परिणाम भी निकल सकते हैं। यह आरक्षण के अन्य आंदोलनों को भड़का सकता है और आबादी के अनुपात में आरक्षण की मांग सामने आ सकती है।
कर्ज-माफी और आरक्षण, दोनों हमारे लोकतंत्र की लगातार गहराती गई कमियों को उजागर करते हैं। आजादी के पहले और बाद में हमारे देश ने किसी तार्किक सामाजिक-आर्थिक सुधार की तरफ कदम नहीं बढ़ाया। भूमि पर एकाधिकार, श्रम बाजार की विषमता जैसी ढांचागत कमियों ने सरकार के आर्थिक बदलाव की मौलिक दृष्टि को बेमानी कर दिया। फिर जाति-आधारित पेशागत बाधाओं ने भारतीय अर्थव्यवस्था को उसकी विशाल श्रम शक्ति से वंचित रखा।
चीन और दक्षिण कोरिया आदि देशों में ऐसी स्थितियां नहीं थीं। निस्संदेह, भारत की संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था इसके भाषाई व सांस्कृतिक मतभेदों के साथ मिलकर देश भर में सुधारवादी राजनीतिक शक्ति के आगे एक बाधा खड़ी करती है। इस व्यवस्था के तहत सियासी पार्टियां जाति समीकरणों के सहारे अच्छी-खासी संख्या में सीटें जीतती हैं। ऐसे में, कर्ज-माफी और आरक्षण जैसे कदम किसी वैचारिक सोच की बजाय विरोधी के हाथों वोट गंवाने के भय से संचालित हैं।
इन दोनों में कुछ हद तक छल शामिल है। कृषि आय का सीधा टकराव कम मुद्रास्फीति की कवायदों से है और जब तक हमारी आर्थिक नीतियां ऊंची मुद्रास्फीति को झेलने की इच्छाशक्ति नहीं सहेजेंगी, यह समस्या बनी रहेगी। इसी तरह, निजी क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप के बिना देश के श्रम बाजार की समानता की कोई भी कोशिश निरर्थक है, क्योंकि अब ज्यादातर अच्छी पगार वाली नौकरियां निजी क्षेत्र में पैदा हो रही हैैं।

कब सुनी जाएगी पिघलते ग्लेशियरों की चेतावनी (ज्ञानेन्द्र रावत पर्यावरण कार्यकर्ता) (साभार हिंदुस्तान )


गंगोत्री ग्लेशियर से जुड़े चतुरंगी ग्लेशियर के बारे में खबर आई है कि यह इतनी तेजी से पिघल रहा है कि निकट भविष्य में इसका अस्तित्व समाप्त हो सकता है। भारत में विज्ञान की प्रतिष्ठित शोध पत्रिका करंट साइंस के फरवरी, 2019 के अंक में छपा एक शोध पत्र बताता है कि पर्यावरण बदलाव का हिमालय के ग्लेशियरों पर तेजी से असर पड़ रहा है, जिसे हम गंगोत्री ग्लेशियर कहते हैं, जो हमारी सदनीरा गंगा नदी का मुख्य स्रोत है, वह दरअसल 300 छोटे-बड़े ग्लेशियरों के मिलने से बना है। चतुरंगी ग्लेशियर इसी का एक हिस्सा है। गोविंद बल्लभ पंत संस्थान का यह अध्ययन बताता है कि यह ग्लेशियर लगातार पीछे हटता हुआ अब गंगोत्री ग्लेशियर से कट गया है, यानी अब यह गंगोत्री ग्लेशियर का हिस्सा नहीं रहा। इसका आकार 22.84 मीटर प्रतिवर्ष की दर से घट रहा है। हालांकि खुद गंगोत्री ग्लेशियर का आकार भी घट रहा है, लेकिन इसके घटने की रफ्तार प्रतिवर्ष नौ से 12 मीटर ही है।
वैसे यह खबर बहुत चौंकाने वाली इसलिए भी नहीं है कि ग्लेशियरों का घटना अब कोई नई बात नहीं रह गई। इसकी चर्चा काफी समय से है, लेकिन दुर्भाग्य से इस पर कुछ नहीं हो रहा। दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत शृंखला माउंट एवरेस्ट, जिसे तिब्बत में माउंट कुमोलांग्मा कहा जाता है, बीते पांच दशकों से लगातार गरम हो रही है। इससे इसके आस-पास के हिमखंड काफी तेजी से पिघल रहे हैं। मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने भी बीते दिनों अपनी रिपोर्ट में इस पर चिंता व्यक्त की थी। उसकी चेतावनियों का क्या हुआ, हमें इसकी जानकारी नहीं है। कई दूसरे शोधों में यह भी बताया गया है कि हिमालय के कुल 9,600 के करीब ग्लेशियरों में से तकरीब 75 फीसदी ग्लेशियर पिघल रहे हैं। सैटेलाइट चित्रों के आधार पर इसकी पुष्टि हो चुकी है कि बीते 15-20 सालों में 3.75 किलोमीटर की बर्फ पिघल चुकी है। इसका सबसे बड़ा कारण समूचे हिमालयी क्षेत्र में तापमान में तेजी से हो रहा बदलाव है। जो स्थिति गंगोत्री ग्लेशियर की है, लगभग वही यमुनोत्री ग्लेशियर की भी है। यमुनोत्री ग्लेशियर गंगोत्री के मुकाबले काफी छोटा है। इसलिए उसका पिघलते जाना ज्यादा परेशान करने वाला है।
संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण रिपोर्ट में भी हिमालय के ग्लेशियरों के गायब होने की बात कही जा चुकी है। जलवायु बदलाव पर बने अंतरराष्ट्रीय पैनल आईपीसीसी ने तकरीबन दस साल पहले अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 2035 तक हिमालय के सभी ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के चलते खत्म हो जाएंगे। हालांकि हिमालय के मामले में सभी विशेषज्ञ इससे सहमत नहीं हैं, लेकिन संकट बड़ा है, इसे सब स्वीकार करते हैं। भारत ही नहीं, हिमालय के दूसरे हिस्सों का भी यही हाल है। दक्षिण-पश्चिम चीन के किंवंघई-तिब्बत पठार क्षेत्र के ग्लेशियर भी ग्लोबल वार्मिंग के चलते तेजी से पिघल रहे हैं। तिब्बत के इस क्षेत्र से कई नदियां चीन और भारतीय उपमहाद्वीप में निकलती हैं। चीन के विशेषज्ञों ने कहा है कि तिब्बत के ग्लेशियरों के पिघलने की दर इतनी तेज है, जितनी पहले कभी न थी। शोध के परिणामों से इस बात की पुष्टि होती है कि 2,400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ग्लेशियरों का एक बड़ा हिस्सा पिघल चुका है।
गौरतलब है कि धरती पर ताजे पानी के सबसे बड़े स्रोत ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन के विश्वसनीय सूचक हैं। प्रांत के सर्वेक्षण और मैपिंग ब्यूरो के इंजीनियर चेंग हेनिंग के अनुसार, यांग्त्सी स्रोत के पांच फीसदी ग्लेशियर पिछले तीन दशक में पिघल चुके हैं। असल में ग्लेशियरों के पिघलने और जलवायु परिवर्तन में सीधा संबंध है। पिछले पचास सालों में तीन मौसम केंद्रों से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, यह साबित हो गया है कि प्रांत की इन तीनों नदियों के औसत तापमान में लगातार इजाफा हो रहा है। वैज्ञानिकों ने इस बात पर जोर दिया है कि जलवायु परिवर्तन के अलावा मानवीय गतिविधियां और जरूरत से ज्यादा दोहन भी ग्लेशियरों के पिघलने का एक बड़ा कारण है। ग्लेशियरों के पिघलने से भी बड़ी समस्या यह है कि हमारे पास फिलहाल इस समस्या का कोई समाधान नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

नेताजी से इतना डरते क्यों थे अंग्रेज (कपिल कुमार) ( निदेशक, स्वतंत्रता संग्राम अध्ययन केंद्र, इग्नू) (साभार हिंदुस्तान )


वे कभी भारत नहीं आए थे। उन्होंने हिन्दुस्तान को कभी देखा तक नहीं था। उन्होंने यहां के बारे में केवल अपने आजा और आजी से कहानियां सुनी थीं। ये वे नौजवान थे, जिनके माता-पिता गिरमिटिया मजदूर बनाकर तमिलनाडु से मलाया ले जाए गए थे, और वे तब भी वहां गिरमिटिया का काम कर रहे थे। इन नौजवानों को जब पता चला कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज का पुनर्गठन किया है, तो उन्होंने आजादी की जंग में उतरने की ठानी। तब न जाने कितने आप्रवासी भारतीय आजाद हिंद फौज में शामिल हुए और देश के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया।
सबसे बड़ी बात यह कि आजाद हिंद फौज के पास अपना पैसा नहीं था। जो खजाना फौज का बना, वह इन्हीं आप्रवासी भारतीयों द्वारा दिए गए पैसों-आभूषणों से बना था। मगर दुर्भाग्य कि वह खजाना खो गया। दो बक्से जरूर 1952 में वापस हिन्दुस्तान आए, जिनमें कुछ जले-बचे सामान थे और यह बताने की कोशिश हुई थी कि नेताजी की मृत्यु विमान हादसे में हो गई है। तत्कालीन नेहरू सरकार ने उन बक्सों को राष्ट्रीय संग्रहालय में रखवा दिया था, पर पता नहीं कि अब बक्से किस दशा में हैं?
इन दोनों घटनाओं का जिक्र इसलिए, क्योंकि हमारे इतिहास में न तो इन आप्रवासी भारतीयों के लिए उचित जगह बन पाई है और न नेताजी सुभाषचंद्र बोस के लिए। आज भी नेताजी की यह कहकर आलोचना की जाती है कि वह इटली, जर्मनी और जापान के तानाशाहों से मिल गए थे। लेकिन आजादी की जंग को आगे बढ़ाने के लिए जब नेताजी हिन्दुस्तान से निकले थे, तो वह रूस जाना चाहते थे। काबुल पहुंचकर उन्होंने यह कोशिश भी की, मगर रूस ने उन्हें मना कर दिया। इसीलिए वह बर्लिन की तरफ बढ़े थे। ऐसे में, उन पर हिटलर या तोजो के साथ सांठगांठ करने का आरोप महज साम्यवादी सोच है। वैसे भी, जब तक दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी ने रूस पर हमला नहीं बोला था, तब तक साम्यवादियों ने न तो हिटलर को फासीवाद बताया और न विश्व युद्ध को जन-युद्ध।
नेताजी जब काबुल में थे, तब अफगानिस्तान की तरफ से अंग्रेज हुकूमत पर हमला करने की योजना उन्होंने बनाई। इस बाबत एक पत्र भी लिखा, जो उस समय तो भारत नहीं पहुंच सका, लेकिन 1948 में यह उनके बड़े भाई शरतचंद्र बोस को सौंपा गया। उस पत्र में आक्रमण का पूरा खाका तैयार दिखता है। मसलन, स्थानीय कबीलों के साथ बैठकें करने, छोटे-छोटे हवाई अड्डे बनाने के लिए जगह ढूंढ़ने, रेडियो स्टेशन जैसे संचार के माध्यम तैयार करने आदि पर उसमें जोर दिया गया है। इस चिट्ठी में सबसे खास बात अंग्रेजों को अंदरूनी चोट पहुंचाने की है। उन्होंने लिखा है कि अंग्रेज अपनी सेना के लिए जो नई भरती कर रहे हैं, उसमें अपने नौजवानों को भेजा जाए, ताकि जरूरत के वक्त वे हमारी मदद कर सकें। आगे जाकर यही हुआ भी। आजाद हिंद फौज में या तो वे लोग शामिल हुए, जो ब्रिटिश सेना से निकले थे या फिर आप्रवासी भारतीय।
नेताजी की सिर्फ एक विचारधारा थी, राष्ट्रवाद। उन्होंने बार-बार अपने भाषणों में यही कहा है कि इटली और जर्मनी जो कुछ कर रहे हैं, उसके लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूं। मेरा उद्देश्य भारत को स्वतंत्र कराना है और इसमें जो भी हमारी मदद करेगा, वह हमारा मित्र है। यह उनका राष्ट्रवाद ही था कि महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से मतभेद होते हुए भी उन्होंने इन दोनों के नामों पर अपनी सेना में रेजिमेंट बनाए। हम अब जाकर सेना की अगली पंक्ति में महिलाओं को रखने की वकालत कर रहे हैं, लेकिन नेताजी ने पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापान की यात्रा के क्रम में ही महिलाओं की रेजिमेंट बनाने की योजना तैयार कर ली थी। रानी झांसी रेजिमेंट आधुनिक युग में औरतों की विश्व की पहली रेजिमेंट मानी जाती है। इस रेजिमेंट में आधी औरतें गिरमिटिया मजदूर थीं, जबकि कई कुलीन वर्ग की महिलाएं।
बड़ा सवाल यह है कि अंग्रेज आखिर नेताजी से इतना डरते क्यों थे? नेताजी को कुल 11 बार जेल जाना पड़ा। मांडले जेल जाने वाले वह बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय के बाद तीसरे भारतीय नेता थे; वह भी महज 25-26 वर्ष की उम्र में। असल में, अंग्रेज इसलिए नेताजी से खार खाए हुए थे, क्योंकि वह ऐसे पहले इंसान थे, जिन्होंने सिविल सेवा यानी आईसीएस में चयन के बावजूद उसमें शामिल होने से इनकार कर दिया था। अंग्रेजों ने परिवार पर दबाव डाला, तो पिता ने अपने बेटे को पत्र लिखकर कहा कि एक बार सहमति दे दो, बाद में इस्तीफा दे देना। मगर जवाब में नेताजी ने यही लिखा कि यदि उन्होंने सहमति दे दी, तो उसका सीधा अर्थ होगा कि उन्होंने अंग्रेजों की सरपरस्ती स्वीकार कर ली है। जाहिर है, नेताजी समझौते के मूड में नहीं थे, इसलिए अंग्रेज उन्हें हमेशा देश से बाहर रखने की कोशिश करते दिखे। कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन से पहले 1929 में सीआईडी की एक रिपोर्ट कहती भी है कि इस व्यक्ति पर नजर रखनी होगी, क्योंकि यह भारत की आजादी के लिए दूसरे देशों से सशस्त्र सहायता ले सकता है। संभवत: इसीलिए, जब इसके बाद उनकी गिरफ्तारी हुई, तो उन्हें बंबई ले जाकर जहाज पर बिठाने के बाद रिहा किया गया। नेताजी ने उस घटना का जिक्र करते हुए लिखा है कि जब तक उन्हें जहाज के अंदर नहीं पहुंचा दिया गया, पुलिसवालों ने उन्हें ऐसे घेरे रखा, मानो शिकारी कुत्तों ने अपने शिकार को घेर रखा हो। हालांकि ब्रिटेन में रहकर भी उन्होंने तमाम संपर्क बनाए और अपने कामों को अंजाम दिया।
नेताजी की मौत हवाई हादसे में होेने की बात कही जाती है। मगर यह एक काल्पनिक कहानी है। जो शख्स कलकत्ता के अपने घर से पुलिस को चकमा देकर पेशावर पहुंच गया, और काबुल-बर्लिन होते हुए जिसने पनडुब्बी की तकलीफदेह यात्रा की, वह भला इतना कमअक्ल कैसे होगा कि जापान पर परमाणु बम गिरने और ब्रिटेन के सामने उसके आत्म-समर्पण के बाद जापान जाने की सोचेगा? जबकि ऐसे दस्तावेज भी हैं, जो बताते हैं कि फॉर्मोसा (अब ताईवान) में उस समय हवाई हादसा हुआ ही नहीं था। आने वाले दिनों में दूसरे तमाम तथ्यों की तरह इस सच से भी शायद परदा उठेगा। बहरहाल, नेताजी आज भी भारतीयों के हृदय में जीवित हैं और सदैव जीवित रहेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)