Monday 11 February 2019

प्राथमिक शिक्षा की चिंताजनक तस्वीर (साभार दैनिक जागरण )


हाल ही में 13वीं एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट-2018 (असर) प्रकाशित की गई। ‘असर’ ग्रामीण भारत के सरकारी स्कूलों में बच्चों के नामांकन और उनकी शैक्षणिक प्रगति पर किया जानेवाला देश का सबसे बड़ा वार्षिक सर्वेक्षण है। शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत देश के सबसे बड़ी स्वयंसेवी संस्था ‘प्रथम’ द्वारा वर्ष 2005 से कराए जा रहे इस सर्वेक्षण के नतीजे सरकार के लिए दर्पण का काम करते हैं। इस बार सर्वेक्षण में देश के 596 जिलों के 3,54,944 घरों और 3 से 16 आयु वर्ग के 5,46,527 छात्रों को शामिल किया गया था। 3 से 16 आयु वर्ग के बच्चों के स्कूलों में नामांकन और 5 से 16 आयु वर्ग के बच्चों की पढ़ने तथा गणित के सवाल हल करने की बुनियादी क्षमताओं के आकलन के लिए देश के 15,998 सरकारी स्कूलों को सर्वेक्षण के दायरे में लाया गया था। ‘असर’ रिपोर्ट न सिर्फ देश में बुनियादी शिक्षा की बदहाली की तस्वीर बयां कर रही है, अपितु शिक्षा व्यवस्था में समाहित बुनियादी समस्याओं तथा प्राथमिक शिक्षा के गिरते स्तर की तरफ देश के नीति-नियंताओं का ध्यान भी खींच रही है।
सर्वेक्षण के बाद जो तस्वीर उभर कर सामने आई है, उसके मुताबिक कक्षा तीन के करीब 73 फीसद बच्चे घटाव के सवाल हल नहीं कर पाते, जबकि क्लास दो के केवल 26.6 फीसद बच्चे ही घटाव का सवाल हल करने में सक्षम हैं। वहीं कक्षा 5 के करीब 70 फीसद बच्चे भाग के सवाल हल नहीं कर पाते हैं। आठवीं पास करने वाले वाले ज्यादातर छात्रों को सामान्य गणित के सवाल भी नहीं आते हैं। इसके अलावा करीब 27 फीसद छात्र हिंदी का पाठ नहीं पढ़ पाते हैं! आठवीं कक्षा के 56 फीसद बच्चों को भाग देने में कठिनाई होती है, जबकि इसी कक्षा के 44.4 फीसद बच्चे ही एक अंक के भाग के सवालों को हल करने में सक्षम हैं। हालांकि ‘असर’ के कई आंकड़े सुकून देने वाले भी हैं। मसलन समग्र नामांकन की बात की जाए तो यह पिछले दस वर्षो में सर्वाधिक दर्ज की गई है। 2018 में 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों का नामांकन 95 फीसद था, जो सुखद आश्चर्य का विषय है। इसके अलावा इसी आयु वर्ग में अनामांकित बच्चों की संख्या में भी पहली बार गिरावट दर्ज की गई है। यह गिरावट 2.8 फीसद है। यह गिरावट सरकारी प्रयासों के प्रतिफल को प्रदर्शित करती है।
‘असर’ रिपोर्ट के मुताबिक 11 से 14 आयु वर्ग की स्कूल न जाने वाली लड़कियों के संख्या में भी भारी गिरावट देखी गई है। 2006 में जहां 10.3 फीसद लड़कियां स्कूल नहीं जा पाती थीं, वहीं 2018 में यह आंकड़ा 4.1 फीसद दर्ज किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि भारत सरकार की ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे कार्यक्रम धरातल पर अच्छा काम कर रहे हैं। वहीं ये आंकड़े इस बात का भी संकेतक हैं कि लड़कियों की शिक्षा के प्रति अभिभावकों की पुरातन सोच भी तेजी से बदल रही है। लड़कियों के स्कूल जाने की रफ्तार बढ़ने का एक बड़ा कारण स्कूलों में शौचालय की व्यवस्था का होना भी है। आमतौर पर विद्यालय में शौचालय के न होने या उसकी बुरी स्थिति में होने से लड़कियां स्कूल जाने से कतराती हैं, जिससे उनकी पढ़ाई बाधित होती हैं। हालांकि ‘असर’ के ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक साल 2018 में 66.4 फीसद स्कूलों में छात्रओं के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था थी, जबकि 2010 में केवल 32.9 फीसद स्कूलों में ही छात्रओं के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था थी।
देश में प्रचलित त्रिस्तरीय शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा को शिक्षा व्यवस्था का मुख्य आधार माना गया है, जिसे दुरुस्त किए बिना माध्यमिक और उच्च शिक्षा के स्वर्णिम भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती! सच तो यह है कि प्राथमिक शिक्षा का गुणात्मक विकास करके ही नागरिकों और फिर राष्ट्र को उन्नति के पथ पर अग्रसर रखा जा सकता है। भारत में बुनियादी शिक्षा की कल्पना सर्वप्रथम महात्मा गांधी ने की थी। उन्होंने 1937 में वर्धा में आयोजित अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलन में भारतीय शिक्षा में सुधार के लिए ‘नई तालीम’ नामक योजना पेश की थी, जिसे बाद में ‘बुनियादी शिक्षा’ और ‘वर्धा योजना’ भी कहा गया। गांधी जी ने बच्चों को राष्ट्रव्यापी, नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का प्रस्ताव रखा था। इसके अलावा वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने तथा रोजगारपरक शिक्षा के हिमायती भी थे।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की संकल्पना को धरातल पर उतारने के लिए भारतीय संसद ने वर्ष 2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई) पारित किया था। इसके तहत देश में 6 से 14 साल के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की संवैधानिक व्यवस्था की गई। यह कानून 1 अप्रैल, 2010 से देशभर में लागू तो कर दी गई, लेकिन बच्चों को विद्यालय से जोड़ने तथा शिक्षकों के रिक्त पदों को भरने में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं देखी गई है। आलम यह है कि देश को जहां अभी भी लाखों शिक्षकों की जरूरत है तो वहीं दूसरी ओर कई राज्यों में शिक्षकों की नियुक्तियां अटकी हुई हैं, जिसे भरने में राज्य सरकारें ढुलमुल रवैया अपनाती रही हैं। जो शिक्षक हैं भी, उनमें से अनेक प्रशिक्षण और गुणवत्ता में कमी से जूझ रहे हैं। जब शिक्षक ही अप्रशिक्षित होंगे तो बच्चों को कैसी शिक्षा मिलेगी, यह आसानी से समझा जा सकता है। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के जिन 74 देशों में शिक्षकों की भारी कमी है, उसमें भारत का स्थान दूसरा है। वैसे तो शिक्षा अधिकार कानून-2009 के तहत प्राथमिक स्तर पर छात्र-शिक्षक अनुपात 30:1 और उच्च प्राथमिक स्तर पर यह अनुपात 35:1 निर्धारित किया है, लेकिन कई सरकारी स्कूलों में यह स्थिति संतोषजनक नहीं है।
विडंबना यह है कि कहीं जरूरत भर के शिक्षक नहीं हैं तो कहीं बच्चों की उपस्थिति ही कम है। समय पर कभी छात्रों तो कभी शिक्षकों का विद्यालय नहीं पहुंचना तथा गैर-शैक्षणिक कार्यो को शिक्षकों के कंधे पर डालना भी शिक्षा व्यवस्था की प्रचलित समस्या रही है, जिसे नकारा नहीं जा सकता। असर रिपोर्ट की मानें तो कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे चंद राज्यों में छात्रों की उपस्थिति 90 फीसद से ऊपर है, जबकि विद्यालयों में शिक्षकों की उपस्थिति के मामले में जो राज्य सबसे आगे हैं, उनमें झारखंड, ओडिशा, कर्नाटक और तमिलनाडु शामिल हैं। शेष राज्यों में स्थिति संतोषजनक नहीं है, जो ग्रामीण शिक्षा की बदहाली की तस्वीर बयां करती है।
सरकारी उपेक्षा की वजह से बुनियादी शिक्षा निरंतर हाशिये पर जा रही है। सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव तथा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में कमी की वजह से अभिभावक अपने बच्चों के लिए निजी स्कूलों की तरफ देख रहे हैं। हालांकि एक समय था, जब सरकारी स्कूलों को सम्मान की नजर से देखा जाता था, पर आज उसे उपेक्षा के भाव से देखा जा रहा है। स्थिति यह है कि प्राथमिक विद्यालय की निकटतम उपलब्धता के बावजूद कक्षा में बच्चों की उपस्थिति कम नजर आ रही है। स्कूल के समय बच्चे या तो खेलते नजर आ जाते हैं या घर के कामों में बड़ों का हाथ बंटाते हैं! आलम यह है कि मध्याह्न् भोजन योजना, छात्रवृति तथा मुफ्त पाठ्य-पुस्तकों के वितरण की व्यवस्था भी बच्चों को स्कूल में रोके रखने में सफल नहीं हो पा रही हैं। वहीं ग्रामीण विद्यालयों में विद्यालय-परित्यक्त छात्रों की संख्या का दिनोंदिन बढ़ना भी चिंता की बात है।
सरकारी स्कूलों में आधारभूत संरचना की कमी और मिड-डे-मील की समुचित व्यवस्था न होने से बच्चे स्कूल जाने से कतराते हैं, जबकि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा न दिए जाने के कारण आज निम्न आय वर्गीय परिवार के अभिभावक भी अपने बच्चों को किसी निजी स्कूल में भेजना ही श्रेयस्कर समझ रहे हैं। सच्चाई यह भी है कि देश के सरकारी विद्यालय दिनोंदिन अपनी चमक खोते जा रहे हैं। इन विद्यालयों से अनियमितता की लगातार शिकायतें आ रही हैं। सवाल गंभीर है कि आखिर सरकारी विद्यालयों में करोड़ों रुपये की फंडिंग के बावजूद गुणवत्तापूर्ण शिक्षा बच्चों की पहुंच से कोसों दूर क्यों है? वह तब जब सरकारी विद्यालयों पर ग्रामीण भारत की एक बड़ी आबादी निर्भर है!
18 अगस्त, 2015 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सरकारी विद्यालयों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा बहाली का एक असाधारण सुझाव दिया था कि नौकरशाह एवं मंत्री अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएं। अगर इक्का-दुक्का अपवाद को छोड़ दिया जाए तो उक्त आदेश व्यवहृत नहीं हो पाया। यदि हमारे राजनेता, नौकरशाह और अन्य अधिकारी अपने बच्चों का इन विद्यालयों में नामांकन करवाते तो निश्चित रूप से चंद माह में ही उनकी स्थिति सुधर जाती, लेकिन ऐसा हो न सका। परेशानी तो यह भी है कि शिक्षा व्यवस्था से जुड़े लोगों का ध्यान केवल बच्चों की विद्यालयी उपस्थिति और राष्ट्र की साक्षरता दर बढ़ाने पर है, लेकिन राज्य में पर्याप्त संख्या में शिक्षकों की नियुक्ति है या नहीं इस पर उनका ध्यान नहीं है? विद्यालयों में नियमित रूप से शिक्षक आते हैं या नहीं? आते हैं तो क्या पढ़ाते हैं? इन सब मुद्दों से किसी नेता या अधिकारी को तनिक भी सरोकार नहीं रहा।
बहरहाल एसोचैम की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत यदि अपनी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में प्रभावशाली बदलाव नहीं करता है तो विकसित देशों की बराबरी करने में उसे करीब सवा सौ साल लग जाएंगे। गौरतलब है कि भारत अपनी शिक्षा व्यवस्था पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 3.83 फीसद हिस्सा ही खर्च करता है, जबकि अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी में यह हिस्सेदारी क्रमश: 5.22, 5.72 और 4.95 प्रतिशत है। हालांकि इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र का मानक यह है कि हर देश शिक्षा व्यवस्था पर अपनी जीडीपी का कम से कम 6 फीसद खर्च करे। देश में शिक्षा सुधारों के लिए डीएस कोठारी की अध्यक्षता में 1964 में गठित कोठारी समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में कुल राष्ट्रीय आय के 6 फीसद हिस्से को शिक्षा पर व्यय करने का सुझाव दिया था, जबकि वास्तविकता यह है कि इस क्षेत्र में महज तीन से चार फीसद ही राशि आवंटित हो पाती है। जाहिर है शिक्षा में समुचित निवेश किए बिना शिक्षा व्यवस्था में सुधार करना दूर की कौड़ी होगी।
शिक्षा नागरिकों की मुलभूत आवश्यकता है। सामाजिक बंधनों, बुराइयों और कुरीतियों के खात्मे की दिशा में शिक्षा एक बड़ा हथियार है। शिक्षा सामाजिक एवं वैयक्तिक शोषण तथा अन्याय के खिलाफ लड़ने और संघर्ष की ताकत प्रदान करती है। हालांकि शिक्षा का उद्देश्य केवल राष्ट्र के नागरिकों को साक्षर बना देना ही नहीं होना चाहिए, बल्कि लोगों में काबिलियत का विकास कर उन्हें अपनी योग्यतानुसार रोजगार की चौखट तक पहुंचाना भी होना चाहिए। शिक्षा व्यवस्था में समाहित समस्याओं से निपटे बिना न तो देश को विकास के पथ पर अग्रसर रखा जा सकता है और ना ही ‘विश्व गुरु’ बनने का गौरव प्राप्त किया जा सकता है।

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