Monday 11 February 2019

आर्थिक आरक्षण और कृषि कर्ज-माफी की समानताएं (रोशन किशोर) (आर्थिक समीक्षक, हिन्दुस्तान टाइम्स) (साभार हिन्दुस्तान )


नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए घोषित 10 फीसदी आरक्षण कई कारणों से किसानों की कृषि कर्र्ज-माफी की तरह ही है। इन दोनों से क्रमश: सवर्ण बेरोजगारों और किसानों को बहुत कम लाभ होगा। 10 फीसदी आर्थिक आरक्षण का मतलब यह कतई नहीं कि 10 प्रतिशत सवर्ण आबादी को नौकरियां मिल जाएंगी। अव्वल तो सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र में पैदा होने वाली नई नौकरियों का यह बहुत छोटा-सा हिस्सा होगा, फिर सरकारी नौकरियों की संख्या बहुत कम है और यह दिनोंदिन घटती ही जा रही है। उदाहरण के तौर पर, सेंटर फॉर मॉनिर्टंरग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2011-12 में (सबसे ताजा उपलब्ध डाटा यही है) हमारे देश के सार्वजनिक क्षेत्र में सिर्फ 1.76 करोड़ नौकरियां थीं। साल 2001-02 और 2011-12 के बीच सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में 12 लाख की कमी आई। इसी तरह, कर्ज-माफी से भी देश के सभी किसानों को फायदा नहीं होता है। ऐसी योजनाएं साहूकारों आदि से लिए गए कर्ज को माफी के योग्य नहीं मानतीं। यहां तक कि औपचारिक क्षेत्र के सभी कर्जदारों को भी इसका लाभ नहीं मिलता, क्योंकि कृषि भूमि की मालिकाना स्थिति, कर्ज-सीमा और कर्ज की तारीख जैसे कई आधारों पर किसान कर्ज-माफी से वंचित रह जाते हैं। किसानों के एक छोटे-से हिस्से को इसका लाभ मिल पाता है। पर मामूली लाभ के बावजूद आरक्षण और कर्ज-माफी, दोनों जबर्दस्त राजनीतिक अपील रखते हैं।
ये दोनों भद्दे प्रोत्साहन हैं। यदि कोई पार्टी कर्ज-माफी की वजह से राजनीतिक लाभ हासिल कर लेती है, तो वह कृषि क्षेत्र में ढांचागत बदलाव के लिए खास उत्साह नहीं दिखाएगी, क्योंकि ढांचागत बदलाव के लिए अधिक धन की तो जरूरत पड़ेगी ही, उसमें फौरी राहत की गुंजाइश भी कम होती है। मतदाता भी दूरदर्शी कदमों की बजाय लोक-लुभावन फैसलों को ज्यादा पुरस्कृत करते हैं। रोजगार के संकट से जुड़ा परिदृश्य इससे कुछ अलग नहीं है। इस संकट के दीर्घकालिक समाधान के लिए देश की शैक्षिक दुनिया में व्यापक सुधार की जरूरत पड़ेगी। रोजगारपरक शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए काफी संसाधनों, राजनीतिक इच्छाशक्ति और वक्त की दरकार होगी। ऐसे में, सामाजिक आधार पर मिलने वाले आरक्षण के दायरे के बाहर के लोगों की नाराजगी को शांत करने के लिए उन्हें आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की घोषणा एक बेहद आसान रास्ता है। मगर इससे विपरीत परिणाम भी निकल सकते हैं। यह आरक्षण के अन्य आंदोलनों को भड़का सकता है और आबादी के अनुपात में आरक्षण की मांग सामने आ सकती है।
कर्ज-माफी और आरक्षण, दोनों हमारे लोकतंत्र की लगातार गहराती गई कमियों को उजागर करते हैं। आजादी के पहले और बाद में हमारे देश ने किसी तार्किक सामाजिक-आर्थिक सुधार की तरफ कदम नहीं बढ़ाया। भूमि पर एकाधिकार, श्रम बाजार की विषमता जैसी ढांचागत कमियों ने सरकार के आर्थिक बदलाव की मौलिक दृष्टि को बेमानी कर दिया। फिर जाति-आधारित पेशागत बाधाओं ने भारतीय अर्थव्यवस्था को उसकी विशाल श्रम शक्ति से वंचित रखा।
चीन और दक्षिण कोरिया आदि देशों में ऐसी स्थितियां नहीं थीं। निस्संदेह, भारत की संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था इसके भाषाई व सांस्कृतिक मतभेदों के साथ मिलकर देश भर में सुधारवादी राजनीतिक शक्ति के आगे एक बाधा खड़ी करती है। इस व्यवस्था के तहत सियासी पार्टियां जाति समीकरणों के सहारे अच्छी-खासी संख्या में सीटें जीतती हैं। ऐसे में, कर्ज-माफी और आरक्षण जैसे कदम किसी वैचारिक सोच की बजाय विरोधी के हाथों वोट गंवाने के भय से संचालित हैं।
इन दोनों में कुछ हद तक छल शामिल है। कृषि आय का सीधा टकराव कम मुद्रास्फीति की कवायदों से है और जब तक हमारी आर्थिक नीतियां ऊंची मुद्रास्फीति को झेलने की इच्छाशक्ति नहीं सहेजेंगी, यह समस्या बनी रहेगी। इसी तरह, निजी क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप के बिना देश के श्रम बाजार की समानता की कोई भी कोशिश निरर्थक है, क्योंकि अब ज्यादातर अच्छी पगार वाली नौकरियां निजी क्षेत्र में पैदा हो रही हैैं।

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