Tuesday 12 May 2015

श्रम कानून और कार्य संस्कृति की डगर (जयंतीलाल भंडारी)

हाल में देश में श्रम कानून की स्थिति और कार्य संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में दो नियंतण्र अध्ययन रिपोर्टे प्रकाशित हुई हैं। एक, विश्व बैंक की रिपोर्ट और दूसरी, अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय कारोबार आयोग (यूएसआईटीसी) की रिपोर्ट। विश्व बैंक की अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक भारत के श्रम कानून दुनिया के सर्वाधिक प्रतिबंधनात्मक श्रम कानून हैं, जबकि यूएसआईटीसी रिपोर्ट का कहना है कि भारत में विदेशी निवेश और कारोबार संबंधी अनुकूल ठोस कदमों की कमी बनी हुई है। इन रिपोटरे के परिप्रेक्ष्य में देश के वर्तमान श्रम और औद्योगिक परिदृश्य के संबंध में सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदमों की ओर देखें तो पाते हैं कि देश के श्रम कानूनों में बदलाव जरूरी है। केंद्रीय श्रम मंत्रालय द्वारा हाल ही में कैबिनेट की मंजूरी के लिए भेजे गए तीन संशोधन विधेयकों के प्रति सरकार का अनुकूल रुख है। इन तीनों के जरिये श्रम कानून, कर्मचारी भविष्य निधि कानून और एक नये कानून को लाया जाएगा जिसके तहत छोटे कारखानों यानी 40 से कम कर्मचारियों वाली फैक्टरियों का नियमन किया जाएगा। बाल श्रम कानून में संशोधन के जरिये कुछ मौजूदा कानूनों के प्रावधान बदले जाएंगे और अनुपालन को आसान बनाया जाएगा। औद्योगिक विवाद अधिनियम को बदलने के लिए एक मसौदा कानून सार्वजनिक बहस के लिए जारी किया गया है। औद्योगिक विवाद अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन में अन्य बातों के अलावा यह भी चाहा गया है कि अब 100 के बजाय 300 कर्मचारियों की छंटनी होने पर ही सरकार हस्तक्षेप कर सके। ऐसे श्रम कानून संशोधन विधेयक से देश के कुल कारखानों में से करीब 70 फीसद को बड़ी राहत मिलेगी। इस विधेयक से उद्यमियों को अपने छोटे कारखानों का पंजीकरण कराने या उन्हें बंद करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक आवेदन देने की अनुमति होगी। यदि किसी कारखाने के लिए आवेदन मिलने पर कोई कार्रवाई नहीं की जाती है, तो 30 दिनों के अंदर उसका स्वत: पंजीकरण हो जाएगा। अब कारखानों के लिए इंस्पेक्टर नहीैंहोंगे, बल्कि उनकी जगह समन्वयक होंगे, जो कारखाना लगाने और कारखाने को गतिशील करने में मदद करेंगे। कारखानों को बंद करने के मामले में उनके मालिक समन्वयक को संयंत्र बंद करने के 15 दिनों के अंदर ऑनलाइन सूचित कर सकते हैं। समन्वयक संयंत्र बंद करने की परिस्थितियों से संतुष्ट होने और कर्मचारियों के वेतन का निपटारा सुनिश्चित होने के बाद से कारखाने को अपनी पंजिका से हटा देंगे। श्रम संबंधी संशोधन विधेयक के तहत यह भी कहा गया है कि इसके तहत कामगारों के हित भी सवरेपरि बने रहेंगे। कामगारों के कल्याण के लिए सामाजिक सुरक्षा से जुड़ीं सभी योजनाएं कारखानों पर लागू रहेंगी। उदाहरण के लिए 20 से ज्यादा कामगारों वाले कारखानों के लिए कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) में योगदान देना अनिवार्य होगा। साथ ही, कामगारों को बैंक खाते के जरिये वेतन भुगतान किया जाएगा। कई वर्षो से अनुभव किया जा रहा है कि श्रम कानून भी उत्पादकता वृद्धि में बाधक बने हुए हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में विधि आयोग ने 1998 में ऐसे कानूनों का अध्ययन किया था और ऐसे कानूनों की लंबी सूची तैयार की थी, जिन्हें समाप्त कर संबंधित कायरे को गतिशीलता दी जा सकती है। उच्चतम न्यायालय भी कई बार अप्रासंगिक हो चुके ऐसे कानूनों की कमियां गिनाता रहा है, जो काम को कठिन और लंबी अवधि का बनाते हैं। कई शोध अध्ययनों में तय उभर कर सामने आया है कि भारत में उदारीकरण की धीमी और जटिल प्रक्रिया के पीछे श्रम सुधारों की मंदगति प्रमुख कारण है। वर्ष 1991 के बाद से भारतीय उद्योगों को विश्वभर में प्रतिस्पर्धात्मक बनाने के उद्देश्य से वित्तीय क्षेत्र, मुद्रा-बैंकिंग व्यवसाय, वाणिज्य, विनिमय दर और विदेशी निवेश क्षेत्र में नीतिगत बदलाव किए गए हैं। इन बदलावों के कारण श्रम कानूनों में बदलाव भी जरूरी दिखाई दे रहे हैं। अब भारत में निवेश बढ़ाने और मेक इन इंडिया अभियान के सफल होने की संभावनाएं साकार करने के लिए श्रम सुधार जरूरी हो गए हैं। यद्यपि अब तक देश में श्रम सुधार के मद्देनजर दो श्रम आयोग बने हैं, लेकिन उनकी सिफारिशों का क्रियान्वयन नहीं हुआ। प्रथम राष्ट्रीय श्रम आयोग का गठन 24 सितम्बर, 1966 को किया गया था। तीन साल बाद प्रथम श्रम आयोग द्वारा प्रस्तुत सिफारिशें मोटे तौर पर श्रम सुधार और श्रम संरक्षण पर केंद्रित थीं। फिर सरकार ने नई औद्योगिक-व्यावसायिक जरूरतों के लिए व्यापक श्रम कानून बनाने के बारे में सिफारिश करने के लिए रविन्द्र वर्मा की अध्यक्षता में 15 अक्टूबर, 1999 को दूसरे श्रम आयोग का गठन किया था। द्वितीय श्रम आयोग ने 29 जून, 2002 को श्रम संरक्षण और श्रम सुधार से जुड़ीं सिफारिशों का मसौदा सरकार को सौंपा था। इनमें से कई सिफारिशें नई श्रम कार्य जरूरतों को रेखांकित करती हैं। मसलन राष्ट्रीय छुट्टियों में कटौती, उद्योगों को बिना सरकार की इजाजत बंद करने और कर्मचारियों की छंटनी करने का अधिकार। इसके साथ-साथ द्वितीय श्रम आयोग ने चीन को मॉडल बनाकर श्रम कानूनों को उपयुक्त बनाने की भी सिफारिशें की हैं। चीन में श्रम कानूनों को अत्यधिक उदार और लचीला बनाकर कार्य संस्कृति विकसित की गई है। लेकिन द्वितीय श्रम आयोग की सिफारिशें सरकार के ठंडे बस्ते में बंद पड़ी रहीं। निस्संदेह अब देश में विदेशी निवेश और कारोबार संबंधी अनुकूलता के लिए कानूनों की सरलता के साथ नई कार्य संस्कृति को अपनाए जाने हेतु अधिक प्रयासों की जरूरत है। इस समय केंद्र सरकार के अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए छठा वेतन आयोग लागू है। इसके तहत अच्छा वेतन एवं सुविधाएं मिल रही हैं। कोई छह वर्ष पहले 24 मार्च, 2008 को न्यायमूर्ति बीएन श्रीकृष्ण की अध्यक्षता वाले छठे वेतन आयोग ने अपनी जो रिपोर्ट तत्कालीन वित्त मंत्री को सौंपी थी, उसमें केंद्रीय कर्मचारियों को अच्छा वेतन देने के साथ-साथ उनसे नई कार्य संस्कृति की अपेक्षा की गई थी। इस रिपोर्ट की सिफारिशों के लागू होने से 40 लाख केंद्रीय कर्मचारियों को लाभ मिला और उनके वेतन औसतन 40 प्रतिशत बढ़ गए। वेतन के साथ मिलने वाले अन्य लाभ भी बेहतर बनाए गए हैं। लेकिन छठे वेतन आयोग ने कार्य संस्कृति, समयबद्धता, अनुशासन, कर्मचारियों की संख्या व खर्च में कटौती, कागजी कायरे में कमी, अल्पावधि जांच, भ्रष्टाचार पर रोक, अनुबंधित सेवा, कार्यकुशलता आधारित पदोन्नति और लेटलतीफ कर्मचारियों की निगरानी पर जो सिफारिशें दी थीं, वे कार्यान्वित नहीं हुई हैं। देश के निजी क्षेत्र की तरह सरकारी सेवक नई कार्य संस्कृति की ओर आगे नहीं बढ़े। सरकारी क्षेत्र उत्पादकता और गुणवत्ता का परचम लहराते हुए दिखाई नहीं दे रहा है। बीते दशकों में भारी वेतन वृद्धियों के बाद भी देश की नौकरशाही के ढांचे में कार्य संस्कृति की कोई विशेष पहल नहीं दिखी है। यह भी उल्लेखनीय है कि देश में केंद्र एवं राज्य सरकारों के कर्मचारियों और अधिकारियों की संख्या देश की कुल आबादी के 1.2 फीसद के लगभग है, लेकिन बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी है, जिनके पास करने को कोई विशिष्ट काम नहीं है, और वेतन के अनुरूप उनकी कोई कार्य उत्पादकता नहीं है। आशा करें कि मोदी सरकार एक वर्ष पूर्ण करने के अवसर पर देश के श्रम कानूनों और कार्य संस्कृति को कारोबार के अनुकूल बनाने के कार्य पर प्राथमिकता से ध्यान देगी। सरकार मेक इन इंडिया अभियान को सफल बनाने और दुनिया के बाजार में भारतीय उद्योगों को पैर जमाने में मदद के लिए श्रम सुधारों की डगर पर तेजी से आगे बढ़ेगी। काम की स्पीड बढ़ाने, काम वक्त पर पूरा करने और जवाबदेही के मद्देनजर मंत्रालयों और विभागों में काम करने के मौजूदा सिस्टम को बदलने के लिए मोदी सरकार ने पिछले एक वर्ष में जो आदेश जारी किए हैं, उनका कारगर और प्रभावी तरीके से क्रियान्वयन किया जाएगा। (लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)(

Monday 11 May 2015

घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 (पीडब्‍ल्‍यूडीवीए) से महिलाओं की सुरक्षा सामान्‍य रूप से पूछे जाने वाले प्रश्‍न – भाग-1 (साभार लायर्स क्‍लेक्टिव वुमेन्‍स राइट्स इनिशिएटिव)

पीडित व्‍यक्ति
v क्‍या नाबालिग इस कानून के अंतर्गत राहत का हकदार है?

हां, कानून के अंतर्गत बच्‍चे की परिभाषा के अनुसार नाबालिग भी 'घरेलू संबंध' की परिभाषा की परिधि में आते हैं। पीडब्‍ल्‍यूडीवीए की धारा 2 (बी) के अंतर्गत कोई भी व्‍यक्ति, जोकि 18 वर्ष से कम आयु का है, बच्‍चा परिभाषित होता है। इसमें कोई भी गोद लिया हुआ बच्‍चा, सौतेला बच्‍चा या पाला-पोषा हुआ बच्‍चा है।

v क्‍या एक नाबालिग लड़का इस कानून के अंतर्गत लाभ का आवेदन कर सकता है?
मां अपने नाबालिग बच्‍चे (चाहे लड़का हो या लड़की) की ओर से आवेदन कर सकती है। ऐसे मामलों में जहां मां न्‍यायालय से अपने लिए राहत मांगती है, पीडब्‍ल्‍यूडीवीए के अंतर्गत बच्‍चों को भी सह-आवेदक के रूप में शामिल किया जा सकता है। न्‍यायालय उचित समय पर अभिभावक या बच्‍चे का प्रतिनिधित्‍व करने के लिए किसी व्‍यक्ति को नियुक्‍त कर सकता है।

v 'घरेलू संबंध (धारा-2एफ) की परिभाषा में इस्‍तेमाल अभिव्‍यक्ति' विवाह की तरह का संबंध का अर्थ क्‍या है?
विवाह की तरह के संबंध का तात्‍पर्य वैसे संबंधों से है जिसमें दो व्‍यक्तियों के बीच किसी कानून के अंतर्गत विवाह की पवित्रता भाव से विवाह नहीं हुआ हो, फिर भी दोनों पक्ष दुनिया की निगाह में एक दूसरे को दंपत्ति दिखाते हैं और उनके संबंध में स्थिरता और निरंतरता है। ऐसे संबंध को समान कानून विवाह के रूप में भी जाना जाता है।
o ऐसे संबंध के साक्ष्‍य होंगे : एक समान नाम का उपयोग, समान राशन कार्ड, एक पता आदि।
o दक्षिण अफ्रीका के इथेल रोबिन्‍स वुमेन्‍स लिगल सेंटर ट्रस्‍ट बनाम रिचर्ड गोर्डन वोल्‍कास आदि (केस नम्‍बर 7178/03, दक्षिण अफ्रीका उच्‍च न्‍यायालय, केप प्रांत) मामले को देखना लाभकारी होगा। इस मामले में यह तय करने के लिए विचार किया गया कि क्‍या कोई संबंध विवाह की तरह का संबंध है। निष्‍कर्ष पर पहुंचने के लिए निम्‍न तथ्‍यों पर गौर किया गया :
· साझी गृहस्‍थी के प्रति पक्षों की प्रतिबद्धता
· महत्‍वपूर्ण अवधि तक साथ-साथ रहना
· पक्षों के बीच वित्‍तीय तथा अन्‍य निर्भरता का अस्तित्‍व। इसमें गृहस्‍थी के संदर्भ में महत्‍वपूर्ण पारस्‍परिक वित्‍तीय प्रबंध शामिल है।
· संबंध से बच्‍चों का अस्तित्‍व
· गृहस्‍थी तथा बच्‍चों की देख-भाल में दोनों पक्षों की भूमिका
· विवाह की तरह संबंधों पर भारतीय मुकदमें-
· बद्रीप्रसाद एआईआर 1978एससी1557 मामले में उच्‍चतम न्‍यायालय ने व्‍यवस्‍था दी कि पति-पत्‍नी की तरह लम्‍बी अवधि तक एक साथ रहने से विवाह के पक्ष में मजबूत धारणा बनती है।
· सुमित्रा देवी (1985) 1 एससीसी 637 में उच्‍चतम न्‍यायालय ने कहा कि प्रासंगिक तथ्‍य जैसे- कितने समय से दोनों पक्ष साथ-साथ रह रहे हैं, क्‍या समाज उन्‍हें पति और पत्‍नी के रूप में मान्‍यता देता है आदि बातों पर यह तय करते समय विचार करना आवश्‍यक है कि संबंध विवाह की तरह का लगता है।
· विवाह की तरह के संबंध में निम्‍न श्रेणी की महिलाएं आती हैं –
· महिलाएं जिनका विवाह अवैध है या कानून के तहत अवैध हो सकता है के मामले में विवाह की कानूनी अवैधता के अतिरिक्‍त वह बाकी सभी मानकों को पूरा करती हैं।
· वैसी महिलाएं जो विवाह किए बिना दाम्‍पत्‍य संबंध में साझी गृहस्‍थी में रह रही हैं।
· समान कानून विवाह – जब दंपति वर्षों से साथ-साथ रह रहे हैं और बाहर की दुनिया को पति-पत्‍नी बता चुके हैं।

v क्‍या अभिव्‍यक्ति 'विवाह की तरह के संबंध' विवाह के बराबर है?
कानून सभी महिलाओं, चाहे वह बहन हो, मां हो, पत्‍नी हो या साझी गृहस्‍थी में सहभागी के रूप में साथ-साथ रह रहे हों, की सुरक्षा का प्रावधान करता है। सुरक्षा प्रदान करने तक कानून विवाहित और अविवाहित का फर्क नहीं करता, लेकिन कानून कहीं भी यह नहीं कहता कि एक अवैध विवाह वैध है। कानून हिंसा से सुरक्षा देता है, साझी गृहस्‍थी में रहने का अधिकार प्रदान करता है और बच्‍चों की अल्‍पकालिक संरक्षा प्रदान करता है। लेकिन पुरूष की संपत्ति के उत्‍तराधिकार या बच्‍चे की वैधता के लिए देश के सामान्‍य कानून और पक्षों की वैयक्तिक कानूनों पर भरोसा करना होगा।
प्रतिवादी

v महिला किसके विरूद्ध शिकायत कर सकती है?
महिला हिंसा का अपराध (धारा-2(क्‍यू) किसी भी वयस्‍क पुरूष के विरूद्ध शिकायत दर्ज करा सकती है। ऐसे मामलों में जब महिला विवाहित है और विवाह की तरह संबंध में रह रही है, तो वह हिंसा, अपराध करने वाले पति/पुरूष के पुरूष या महिला संबंधियों के विरूद्ध भी शिकायत दर्ज करा सकती है। पीडब्‍ल्‍यूडीवीए में भारतीय दंड संहिता की धारा-498ए के अंतर्गत धारा-2(क्‍यू) शामिल किया गया। इससे क्रूरता के लिए पति के संबंधियों, चाहे वह पुरूष या महिला हो, के खिलाफ मुकदमा चलाना संभव है। ऐसे उदाहरणों में सास, ससुर, ननद आदि आते हैं।

v धारा 2 (क्‍यू) के तहत संबंधियों की परिभाषा में कौन आते हैं?
पीडब्‍ल्‍यूडीवीए में संबंधी शब्‍द परिभाषित नहीं किया गया है। इसलिए इसका सामान्‍य अर्थ निकालना होगा। संबंधियों के उदाहरण पिता, माता, बहन, चाचा, ताऊ और प्रतिवादी का भाई अनुच्‍छेद 2(क्‍यू) में संबंधी के रूप में शामिल किये जा सकते हैं। अनुच्‍छेद 498ए संबंधी शब्‍द का इस्‍तेमाल करता है, जोकि परिभाषित नहीं है। इस तरह संबंधी शब्‍द का सामान्‍य अर्थ में महिला संबंधी भी शामिल होंगी।

v क्‍या एक पत्‍नी अपने पति के महिला संबंधियों जैसे सास, ननद के विरूद्ध शिकायत दर्ज करा सकती है?
हां, पति के महिला संबंधियों के विरूद्ध आदेश जारी किये जा सकते हैं। लेकिन अनुच्‍छेद 19(1) के प्रावधान के अनुसार महिला संबंधी के विरूद्ध बेदखली की छूट नहीं दी जा सकती। अनुच्‍छेद 19(1) की राय में अनुच्‍छेद 19 (1 बी) के तहत प्रतिवादी (महिला) को साझी गृहस्‍थी से हटाने का आदेश पारित करने का निर्देश नहीं देता।
पीडि़त महिला अपने पति के पुरूष संबंधियों या अन्‍य पुरूष साथियों के विरूद्ध सुरक्षा प्राप्‍त कर सकती है। भरण-पोषण भत्‍ता (मौद्रिक सहायता के लिए आदेशों के तहत) वही व्‍यक्ति प्राप्‍त कर सकते हैं, जो अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के दायरे में आते हैं।

v क्‍या एक सास अपनी बहू के विरूद्ध राहत के लिए आवेदन कर सकती है?
नहीं, सांस बहू के विरूद्ध आवेदन नहीं कर सकती (अनुच्‍छेद 2 (क्‍यू), लेकिन पुत्र और बहू के हाथों हिंसा झेल रही सास अपने बेटे और बहू के विरूद्ध, बेटे द्वारा किये गये हिंसा अपराध में बढ़ावा देने के लिए, आवेदन दायर कर सकती है। लेकिन सास साझी गृहस्‍थी से बहू की बेदखली की मांग नहीं कर सकती।
घरेलू दुर्घटना रिपोर्ट

v घरेलू दुर्घटना रिपोर्ट (डीआईआर) क्‍या है?
पीडब्‍ल्‍यूडीवीए के फार्म 1 में डीआईआर का प्रारूप दिया गया है। पीडित महिला इसका इस्‍तेमाल संरक्षा अधिकारी और सेवा प्रदाता के समक्ष घरेलू हिंसा का मामला दर्ज कराने के लिए कर सकती है। यह इस तथ्‍य का रिकॉर्ड होता है कि हिंसा की घटना की रिपोर्ट की गई है, यह एनसीआर (गैर दंडनीय अपराध रिपोर्ट) की तरह है। इसे संरक्षा अधिकारी या पंजीकृत सेवा प्रदाता द्वारा करना पड़ता है और हस्‍ताक्षर करना पड़ता है। यह सार्वजनिक दस्‍तावेज है।

v डीआईआर कैसे रिकॉर्ड किया जाता है ?
डीआईआर को महिला के सच्‍चे बयान को विश्‍वास रूप में रिकॉर्ड किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि सभी तरह की शिकायतें पीडब्‍ल्‍यूडीवीए के दायरे में पक्षपात रहित रूप में दर्ज की जानी चाहिए।
अगर कोई महिला अपनी पीड़ा नहीं बता पाती, तब संरक्षा अधिकारी उसे बाद में डीआईआर भरने के लिए बुला सकते हैं। संरक्षा अधिकारी महिला के आगमन संबंधी ब्‍योरों का दैनिक डायरी रखेंगे।

v डीआईआर रिकॉर्ड होने के बाद क्‍या किया जाता है?
संरक्षा अधिकारी डीआईआर को मजिस्‍ट्रेट को अग्रसारित करते हैं। डीआईआर की एक प्रति क्षेत्राधिकार में आने वाले थाने के प्रभारी को अग्रसारित की जाएगी।
यदि महिला चाहे तो सेवा प्रदाता डीआईआर को संरक्षा अधिकारी तथा मजिस्‍ट्रेट को भेज सकता है। ऐसे मामलों में न्‍यायालय में दाखिल आवेदन के साथ डीआईआर संलग्‍न होना चाहिए।

v डीआईआर प्राप्ति पर मजिस्‍ट्रेट को क्‍या करना चाहिए ?
मजिस्‍ट्रेट रिकॉर्ड रखने के लिए डीआईआर सुरक्षित रखेंगे। पीडित महिला द्वारा दाखिल किसी मामले में इसको भेजा जा सकता है। इसका इस्‍तेमाल वैसे मामलों में भी हो सकता है, जो मामला संरक्षा अधिकारी की सहायता से दायर हो और डीआईआर बाद में दिया जाए।

v क्‍या पीडित महिला या उसके वकील द्वारा डीआईआर भरा जा सकता है?
नहीं, संरक्षा अधिकारी या पंजीकृत सेवा प्रदाता फार्म-1 में डीआईआर भरेंगे और इस पर दोनों में से एक का हस्‍ताक्षर होगा। चूंकि डीआईआर सार्वजनिक दस्‍तावेज है, इसलिए इसे कोई सरकारी अधिकारी ही भरेगा। अनुच्‍छेद 30 पीडब्‍ल्‍यूडीवीए के अंतर्गत अपने कार्यों के संपादन में सभी संरक्षा अधिकारियों और सेवा प्रदाताओं को लोक सेवक मानता है।

v क्‍या पीडित महिला डीआईआर के बिना आवेदन भर सकती है?
हां, पीडित महिला राहत के लिए डीआईआर भरे बिना आवेदन दे सकती है।

v जहां महिला राहत के लिए आवेदन करती है, वहां मजिस्‍ट्रेट को केस दर्ज हो जाने के बाद डीआईआर की मांग करनी चाहिए?
न्‍यायालय में आवेदन देते समय डीआईआर की कोई आवश्‍यकता नहीं है, क्‍योंकि डीआईआर का चरण और उद्देश्‍य (हिंसा, घटना की रिकार्डिंग) अस्तित्‍व में नहीं रहता। एक बार न्‍यायालय में आवेदन दाखिल किये जाने के बाद मजिस्‍ट्रेट संरक्षा अधिकारी को घर का दौरा करने का आदेश दे सकता है या नियम 10 (1) के अंतर्गत परिस्थिति के अनुसार रिपोर्ट का आदेश दे सकता है।

v क्‍या संरक्षा अधिकारी डीआईआर रिपोर्ट दर्ज करने के लिए घर जा सकता है?
नहीं, संरक्षा अधिकारी न्‍यायालय के आदेश के बिना घर का दौरा नहीं कर सकता।

न्याय का बड़ा सवाल ( डॉ. निरंजन कुमार)

सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी के गठन का मुद्दा इन दिनों विवादों में है। अनेक जनहित याचिकाओं के द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की सांविधानिकता को चुनौती दी गई है। चुनौती का आधार न्यायपालिका की स्वतंत्रता का हनन और संविधान की आधारभूत संरचना से छेड़छाड़ है। आरोप है कि एनजेएसी के स्वरूप और संघटन से न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका का अनावश्यक हस्तक्षेप होगा। यह दिलचस्प है कि सभी राजनीतिक पार्टियां चाहे वे राष्ट्रीय हों या क्षेत्रीय, उनकी सरकारों ने एनजेएसी पर अपनी मुहर लगाई है। उनका आरोप है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की पूर्व व्यवस्था में कई खामियां हैं।
संविधान के अनुच्छेद 124 (2) के अनुसार राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के बाद, जिनसे वह परामर्श करना उचित समङो, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगा। वैसे न्यायाधीशों की नियुक्ति आरंभ से ही विवाद का विषय रहा है। एडवोकेट्स ऑन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ 1993 और फिर जजेज अपाइंटमेंट रेफरेंस केस 1998 के फैसलों द्वारा सुप्रीम कोर्ट ने यह स्थापित किया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिश एक पांच सदस्यीय कोलेजियम के द्वारा की जाएगी जिसमें प्रधान न्यायाधीश के अतिरिक्त चार वरिष्ठतम न्यायाधीश होंगे। सरकार किसी नाम पर अधिक से अधिक एतराज भर कर सकती है, लेकिन कोलेजियम द्वारा उसे दोबारा भेजे जाने पर राष्ट्रपति अथवा सरकार उसकी नियुक्ति करने के लिए बाध्य है। इस तरह न्यायाधीशों के चयन और नियुक्ति में न्यायपालिका लगभग स्वतंत्र है, बल्कि उसका अपना एकाधिकार है। हालांकि यह व्यवस्था विवादों से परे नहीं रही है। एक तो यही कि कोलेजियम व्यवस्था एक अपारदर्शी व्यवस्था है। न्यायाधीशों जैसे पी. शाह अथवा रूमा पॉल आदि ने इस खामी की ओर इशारा करते हुए कहा है कि इस प्रणाली में यह प्रकट और स्पष्ट नहीं है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की कसौटी क्या हो? दूसरे, कई बार संदिग्ध चरित्र वाले व्यक्तियों की भी सिफारिश की गई। तीसरे, न्यायाधीशों की नियुक्ति में दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के समुचित प्रतिनिधित्व पर ध्यान नहीं दिया गया। यहां योग्यता को परे रखकर किसी आरक्षण या कोटा की वकालत नहीं की जा रही है, किंतु यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इन समुदायों के अनेक सर्वथा योग्य व्यक्ति भी इन नियुक्तियों से क्यों वंचित रहे। हालांकि उपरोक्त सीमाओं के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने कार्यपालिका-विधायिका द्वारा नागरिक अधिकारों के हनन को रोकते हुए जनहित में अनेक ऐतिहासिक फैसले लिए हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि कोलेजियम प्रणाली की कमियों को सुधारा न जाए।
इसी क्रम में सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 124 (2) में संशोधन किया कि राष्ट्रपति राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की अनुशंसा पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करेंगे। साथ ही एक नया अनुच्छेद 124 (ए) लाया गया जिसके अनुसार न्यायिक नियुक्ति आयोग में प्रधान न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम दो न्यायाधीश और केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री के अतिरिक्त दो अति प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल होंगे। इन दो अति प्रतिष्ठित व्यक्तियों का चयन प्रधानमंत्री, संसद में विपक्षी दल का नेता और प्रधान न्यायाधीश की एक समिति करेगी। एक अच्छी बात यह है कि दो अति प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से एक व्यक्ति महिलाओं, पिछड़ों, दलितों आदिवासियों अथवा अल्पसंख्यक समुदायों में से होगा। विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के सदस्य एनजेएसी के गठन में हो रही देरी से अत्यंत उद्वेलित हैं। सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश एचएल दत्तू जो राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के पदेन अध्यक्ष होंगे, ने तो सरकार को साफ कह दिया है कि वह इस पैनल में तब तक नहीं शमिल होंगे जब तक कि इस नई व्यवस्था की सांविधानिक स्थिति स्पष्ट नहीं हो जाती। सुप्रीम कोर्ट के रुख से यह प्रतीत होता है कि एनजेएसी का गठन तब तक नहीं हो पाएगा जब तक कि कुछ प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट न हो जाएं। पहला प्रश्न यही है कि क्या एनजेएसी का संघटन और न्यायाधीशों की नियुक्ति की नई प्रक्रिया न्यायपालिका की स्वतंत्रता का हनन करती है या नहीं?
हमारी सांविधानिक व्यवस्था संघीय प्रणाली पर आधारित है जिसकी एक महत्वपूर्ण विशेषता है स्वाधीन व निष्पक्ष न्यायपालिका की अनिवार्यता। फिर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसलों में यह भी निर्दिष्ट किया है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता भारतीय संविधान की आधारभूत संरचना का एक अंग है। केशवानंद भारती केस और बाद में भी अपने अनेक निर्णयों में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की इस आधारभूत संरचना का सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए कहा कि भारतीय संविधान की आधारभूत संरचना में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। अब सुप्रीम कोर्ट को यह निर्णय करना है कि क्या नई व्यवस्था अर्थात एनजेएसी के प्रस्तावित गठन से न्यायपालिका की स्वतंत्रता बाधित होती है या नहीं? यानी क्या एनजेएसी के पैनल में भारत के कानून मंत्री की उपस्थिति से न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया प्रभावित नहीं होगी? इस संदर्भ में प्रमुख विधिवेत्ता और वर्तमान में भारत के वित्तमंत्री का यह वक्तव्य प्रासंगिक है, जो 2012 में उन्होंने दिया था कि जज दो तरह के होते हैं-एक जो कानून जानते हैं और दूसरे, जो कानून मंत्री को जानते हैं।
न्यायाधीशों की नियुक्ति करने वाले पैनल में कानून मंत्री अर्थात कार्यपालिका की उपस्थिति सचमुच एक गंभीर प्रश्न है और इतिहास इसका गवाह है कि इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका ने सचमुच मनमानी की थी, जिसने न केवल न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खत्म किया, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की निष्पक्षता को भी चोट पहुंचाई थी। आपातकाल को चुनौती देने वाले प्रसिद्ध एडीएम जबलपुर केस में सरकार के सामने घुटने टेक देने वाली वह प्रतिबद्ध न्यायपालिका सुप्रीम कोर्ट के गौरवशाली चमकीले इतिहास में एक धब्बा है। इसके अतिरिक्त कोर्ट ने एक और सवाल सरकार से पूछा है कि दो अति प्रतिष्ठित व्यक्तियों के चयन की कसौटी एवं प्रक्रिया क्या होगी? चयन समिति में राजनेताओं का बहुमत क्या न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बाधित नहीं करेगा? यह याद रहे कि कार्यपालिका-विधायिका के अनेक क्रियाकलापों के कारण भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था से अनेक लोगों का मोहभंग होने के बावजूद व्यापक जनसमुदाय की इसमें आस्था यदि बनी हुई है तो इसका सर्वाधिक श्रेय न्यायपालिका को दिया जाना चाहिए। जनता केइस भरोसे को बनाए रखने की जिम्मेदारी न्यायपालिका की भी है। कोलेजियम वाली पुरानी व्यवस्था वापस नहीं लाई जा सकती। न्यायाधीशों की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट को भी अपनी न्यायशीलता का परिचय देना ही होगा।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं)

डराने लगा है फिसलता रुपया (सतीश सिंह

बीते कुछ दिनों से रूपये के मूल्य में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। भारतीय रिजर्व बैंक ने रूपये में आ रही गिरावट को रोकने का प्रयास किया है, लेकिन अभी तक अपेक्षित परिणाम नहीं दिख रहे हैं, क्योंकि रिजर्व बैंक के पास भी कोई जादू की छड़ी नहीं है कि वह तुरंत रूपये की गिरावट पर लगाम लगा सके। इस वजह से गिरावट का दौर फिलवक्त जारी है। रूपये में गिरावट से आगामी दिनों में जरूरत की बहुत सारी वस्तुएं महंगी हो सकती हैं। इसका सबसे नकारात्मक असर खाद्य पदार्थो पर पड़ सकता है। इधर, ओलावृष्टि से रबी की फसल के बर्बाद होने से महंगाई में और भी तेजी आ सकती है। भारत अब भी अपनी जरूरत का करीब 80 प्रतिशत पेट्रोलियम पदार्थ आयात करता है, इसलिए पेट्रोलियम पदार्थ का आयात महंगा हो सकता है और घरेलू पेट्रोलियम कंपनियां पेट्रोल और डीजल की कीमत में बढ़ोतरी कर सकती हैं। ऊससे माल ढुलाई महंगी हो सकती है। एक अनुमान के मुताबिक सबसे अधिक माल ढुलाई खाद्य पदार्थो की होती है। इससे विदेश में शिक्षा प्राप्त करना भी महंगा हो सकता है। स्पष्ट है कि कच्चे तेल और पेट्रोलियम पदार्थ के महंगे होने से महंगाई और मुद्रास्फीति में उछाल आ सकता है। हालत के मद्देनजर रिजर्व बैंक जून में संभावित नीतिगत दरों में कटौती के विचार को त्याग सकता है, क्योंकि बाजार में पैसों की अतिरिक्त उपलब्धता से महंगाई, मुद्रास्फीति और बिकवाली को बल मिल सकता है। दूसरी तरफ ऐसा होने से औद्योगिक विकास दर प्रभावित होगी, जिससे समग्रता में देश के आर्थिक विकास की राह में रुकावट आएगी। हालांकि रूपये में गिरावट से निर्यातकों मसलन, आईटी, फार्मा, टेक्सटाइल, डायमंड, जेम्स एवं ज्वेलरी आदि क्षेत्रों को थोड़ा फायदा जरूर मिल सकता है, लेकिन लंबी अवधि में इससे आर्थिक विकास को मजबूती नहीं मिल सकती है। विश्लेषकों के मुताबिक रुपया, डॉलर के मुकाबले अभी और फिसल सकता है, क्योंकि दुनिया के सभी देशों में बिकवाली का दौर जारी है। साथ ही, कराधान की चिंता, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में तेजी, निर्यात में लगातार कमी, रपए का अधिक मूल्यांकन, आर्थिक मोर्चे पर सरकार की नाकामी, सुधारवादी विधेयकों के पारित होने में देरी, बड़ी परियोजनाओं के शुरू होने में विलंब तथा कंपनियों के निराशाजनक तिमाही नतीजों की वजह से विदेशी संस्थागत निवेशकों का भरोसा हिल गया है और वे बिकवाली का रास्ता अपना रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि बिकवाली करके ही वे अपना हित सुनिश्चित कर सकते हैं। इसलिए वे डेट और इक्विटी, दोनों में बिकवाली करके अपना पैसा चीन, हांगकांग, कोरिया, ताइवान, जापान आदि देशों के बाजार में लगा रहे हैं। इधर, विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा डेट की बिकवाली से बॉन्ड की प्राप्ति में इजाफा हुआ है। इस वजह से इक्विटी बाजार में भी दबाव का माहौल है। साथ ही स्टॉक एक्सचेंज में गिरावट का रु ख बना हुआ है। मुंबई स्टॉक एक्सचेंज में सेंसेक्स छह माह के निचले स्तर पर पहुंच गया है और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में भी गिरावट दर्ज की गई है। अर्थव्यवस्था में अच्छे दिन तभी आ सकते हैं जब महंगाई दर नियंतण्रमें रहे, क्योंकि महंगाई की वजह से अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने वाले बहुत सारे मानक मसलन, औद्योगिक विकास, प्रति व्यक्ति आय, उत्पादों की बिक्री, रोजगार सृजन आदि कमजोर पड़ सकते हैं। लेकिन महँगाई एक बार फिर से उफान पर आती दिख रही है। रेटिंग एजेंसी मूडीज का भी कहना है कि ऊंची मुद्रास्फीति अर्थव्यवस्था के विकास में बाधक है। मूडीज इंवेस्टर सर्विस की रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा गया है कि मुद्रास्फीतिक दबाव के कारण पूंजी की लागत ज्यादा होती है, जिससे घरेलू खरीद क्षमता एवं बचत दोनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।महंगाई को विकास दर से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता। दोनों में चोली-दामन का रिश्ता है। महंगाई कम होने से लोग बचत करेंगे और बैंक को सस्ती दर पर पूंजी मिलेगी। इससे कर्ज सस्ता हो जाएगा। रिजर्व बैंक का भी मामले में रु ख सकारात्मक रहेगा और वह नीतिगत दरों में कटौती करके कारोबारियों की शिकायत को दूर कर सकेगा। लिहाजा, महंगाई दर के नीचे रहने से विकास को बल मिलना निश्चित है। जरूरत है लंबित परियोजनाओं को अमलीजामा पहनाने की भी, क्योंकि इससे विकास को रफ्तार नहीं मिल पा रही है। एक अनुमान के मुताबिक अभी लाखों करोड़ रपए की परियोजनाएं अधर में लटकी हुई हैं। इसके अंतर्गत बिजली, सड़क, सिंचाई, विनिर्माण आदि से जुड़ी परियोजनाएं शामिल हैं।कहा जा सकता है कि भारत में कारोबारियों के लिए फिलवक्त उनकी अपेक्षा के अनुकूल माहौल नहीं है। विनिर्माण और आधारभूत संरचना के क्षेत्र में सुचारु तरीके से काम नहीं हो रहा है। आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ गई है। हालांकि सरकार चाहती है कि इन क्षेत्रों में आने वाली अड़चनों को दूर किया जाए। पूंजी की कमी के कारण भी बहुत सारी परियोजनाएं अटकी हुई हैं। भारत में भरपूर निवेश की जरूरत है। लेकिन यह तभी संभव हो सकता है जब सरकार केंद्र एवं राज्य स्तर पर विविध परियोजनाओं की राह में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए एकल मंजूरी की राह अपनाए। परंतु इस दिशा में लालफीताशाही एवं भ्रष्टाचार को खत्म नहीं किया जा सका है। सरकार द्वारा कारपोरेट को तमाम सब्सिडी व सहूलियत देने के बावजूद निर्यात का प्रतिशत बहुत ही कम है। बता दें कि आयात और निर्यात के बीच के अंतर को चालू खाते के घाटे या फायदे के रूप में रेखांकित किया जाता है। निर्यात के मुकाबले आयात अधिक होने पर उसे चालू खाते का घाटा कहते हैं और निर्यात अधिक होने पर उसे चालू खाते का मुनाफा कहते हैं। हमारे देश में अब भी खाद्य पदार्थ, आधारभूत संरचना आदि के लिए आवश्यक चीजों का आयात दूसरे देशों से किया जाता है। आमतौर पर रपए की कीमत में कमी आने से निर्यात आधारित उद्योगों को फायदा होता है, लेकिन भारत में बहुत सारे निर्यात आधारित उद्योगों के लिए कच्चे माल का आयात किया जाता है। चूंकि इस तरह के निर्यात आधारित उद्योग भारत में अधिक हैं, इसलिए ऐसे उद्योगों के मुश्किल में आने से अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि नियंतण्र रु ख, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में तेजी, रबी की फसल के बर्बाद होने, निर्यात में कमी आने, सरकारी बांड, शेयर एवं डॉलर की बिकवाली आदि से रपए की हालत खराब हो रही है। लेकिन चालू खाते के घाटे में कटौती, मेक इन इंडिया की संकल्पना को अमलीजामा पहनाने, निवेश में बढ़ोतरी आदि के द्वारा रपए को मजबूत किया जा सकता है। इस दिशा में डॉलर की जमाखोरी पर लगाम लगाने की भी जरूरत है। रपए में गिरावट से विदेशी मुद्रा भंडार में कमी, महंगाई में इजाफा, संस्थागत पूंजी निवेश में कमी आदि की वजह से देश की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए सरकार को तत्काल इस पर लगाम लगाने के लिए कारगर कदम उठाना चाहिए।

21वीं सदी के हिन्दी साहित्य में नारी चेतना (डॉ. प्रभा दीक्षित)

21वीं सदी अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण मानव जीवन के उन उच्चतम शिखरों तक पहुंची है, जहां मनुष्य की कल्पना को पहुंचने में भी लंबा समय लग सकता है। सामाजिक जीवन के विविध आयामों में एक क्रांतिकारी परिवर्तन देने का श्रेय इस सदी को दिया जा सकता है। विज्ञान एवं तकनीक से लेकर सभी सामाजिक विज्ञानों में इस सदी ने बौद्धिक रूप से अपनी उपलब्धियों को दर्ज किया है। साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। संक्षेप में कहा जाए तो मानव जीवन का संपूर्ण विकास ही साहित्य का लक्ष्य होता है। अपने युग के परिप्रेक्ष्य में हर युग के लोकहितकारी साहित्य ने आम आदमी के जीवन को बेहतर रूप देने का प्रयास किया है। 21वीं सदी में जहां आम आदमी के सामने अनेक प्रकार की विसंगतियां हैं, वहीं समस्या के रूप में अनेक सवाल भी सिर उठा रहे हैं। भारत में आजादी के पूर्व साहित्य की मुख्य धारा यही थी कि भारत को विदेशी शासन से कैसे मुक्त किया जाए? यद्यपि सामाजिक समस्याएं भी थीं, क्योंकि समस्याएं एक दिन में पैदा नहीं होतीं, किन्तु हर युग की कुछ विशेष समस्याएं अवश्य होती हैं। साहित्य में शोषक वर्गो को चिह्नित करते हुए पहले जहां किसान-मजदूरों की बात की जाती थी, वहीं, वर्तमान समय में दलित, आदिवासी और स्त्री विमर्श का मुद्दा विशेष रूप से चिह्नित किया जा रहा है। स्त्री विमर्श का मुद्दा इसलिए भी साहित्य का अहम प्रश्न बन जाता है, क्योंकि दुनिया की आधी आबादी आदिमकाल से लेकर आज तक पुरु ष वर्चस्व के अंतर्गत शोषण का शिकार रही है। समाज के सभी वर्गो की स्त्रियां विशेषत: भारतीय परिवेश में पुरु ष की उस अहमवादी मानसिकता का शिकार रही हैं, जिसके अंतर्गत स्त्रियों को पुरु षों के समान कभी भी सामाजिक अधिकार प्राप्त नहीं हुए। माना कि स्त्री विमर्श का मुद्दा आज के दौर में साहित्य की मुख्य धारा में दर्ज किया जाता है, लेकिन आज भी इस कृषि प्रधान देश में स्त्री आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा पुरु ष वर्ग की अधीनता के अन्तर्गत यंतण्रापूर्ण जीवन का निर्वाह कर रहा है। वैसे, इस सदी में पहली बार स्त्री सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में पुरु ष के साथ कदमताल करती हुई अपना हस्तक्षेप दर्ज कर रही है। 21वीं सदी के साहित्य का एक बड़ा प्रतिशत महिला रचनाकारों के सृजन का परिणाम है। यह महिला रचनाकारों के जुझारू एवं प्रतिरोधी लेखन का ही प्रतिफलन है कि स्त्री विमर्श आज साहित्य के केंद्र में आ गया है। स्त्रीवादी विमर्श न तो मनोरंजन है, न अपवाद। यह हमारे समय, देशकाल व पूरे नियंतण्र परिदृश्य से जुड़ा है। सदियों से पुरु षों की अधीनता में जीवन यापन करती स्त्री वर्तमान समय में जहां सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में पुरु ष वर्चस्व को चुनौती दे रही है, वहीं वह अपने आपको भोग्या के रूप में भी नहीं स्वीकारती एवं देह के स्तर पर स्त्री-पुरु ष देह के भेद को खारिज करती है। जैसे, मैत्रेयी पुष्पा के प्रसिद्ध उपन्यास ‘‘चाक’ के सभी स्त्री-पात्र पुरु षों को चुनौती ही नहीं देते उन पर भारी पड़ते हैं। बुद्धि व देह ताप दोनों में अपनी पहल के द्वारा वे नारी को अबला नहीं सबला सिद्ध करते हैं। मैत्रेयी पुष्पा के ‘‘विजन’ उपन्यास की आभा दी विवाह-बंधन को परंपरावादी मानते हुए नेहा को समझाती हैं ‘‘अपनी उस मां जिसने अभाव झेलकर, मुश्किलें सहकर कई विरोधों को पार करके पढ़ाया-लिखाया, उस मां को तीन नाम रसोईदारिन, धोबिन, मोचिन देकर अपने राजमहल को लौट जाओ। वह भी तुम जैसी वेध्या और अहसान-फरामोश लड़की से मुक्ति पाए। शेम टू यू, शेमफुल टू अस।’ वर्तमान समय में स्त्री लेखिकाएं स्वयं अपने बारे में भी मुक्त होकर लिख रही हैं, और कट्टरवादी लोगों के आक्रोश को झेलती हुई उनके हर प्रश्न का सटीक उत्तर भी दे रही हैं। ‘‘अन्या से अनन्या’, ‘‘एक कहानी यह भी’, ‘‘कस्तूरी कुंडल बसे’, ‘‘गुडिया भीतर गुडिया’, ‘‘रसीदी टिकट’, ‘‘लगता नहीं दिल’ जैसी आत्मकथाएं स्त्रियों की जीवनगाथा और स्त्रित्व के संघर्ष का सृजन हैं। साथ ही, अपने जीवन-संघर्ष की चुनौतियों को खुले रूप में प्रस्तुत करती हैं।इन आत्मकथाओं के माध्यम से लेखिकाओं ने स्त्री विमर्श के हर आयाम को स्पर्श करते हुए स्त्री अस्मिता को तर्कपूर्ण ढंग से चित्रित किया है। इस सदी में स्त्री अपनी मुक्ति और स्वायत्तता के लिए तन कर पुरु ष समाज में खड़ी हो, इसकी प्रतिक्रिया में समाज के परंपरागत रूढ़िवादी पुरु ष पहरेदार इन लेखिकाओं के चरित्र पर भी कीचड़ उछाल रहे हैं। पुरु ष आज भी स्त्री को अपने हितों के अनुरूप ढालना चाहता है, किन्तु आधुनिक स्त्री बराबर का हक चाहती है। नासिरा शर्मा कहती हैं-‘‘न जाने पुरु षों को पत्नी के रूप में कैसी स्त्री चाहिए? यदि वह अनपढ़ अनगढ़ है, तो फूहड़ कहलाती है, और पढ़ी-लिखी मिल जाए तो उसकी चुस्ती से आतंकित हो जाते हैं। ठीक ऐसी ही स्थिति भारतीय स्त्रियों की है।’इधर, हाल में स्त्री प्रश्नों में जटिलता का एक कारक भूमंडलीकरण भी है। भूमंडलीकरण संस्कृति एक ओर स्त्री स्वाधीनता का दंभ भरती है, तो दूसरी ओर उसकी देह का उपयोग विज्ञापन के रूप में अपने व्यापारिक हित के लिए करती है। उपभोक्तावाद, वैश्वीकरण, सनातन मूल्य एवं उत्तर आधुनिकता के घालमेल के कारण स्त्री मुक्ति की जटिलताएं बढ़ी हैं। इसके बावजूद स्त्री वह सब लिख पा रही है, जो दो दशक पूर्व वह सोच भी नहीं सकती थी। उपभोक्ता संस्कृति के अर्थवादी रूझान के कारण स्त्री स्वाभाविक रूप से आत्मनिर्भर होने के लिए विवश है। उसका घर की चहारदीवारी से बाहर आना अनिवार्य है। इसीलिए स्त्री हर क्षेत्र में स्वतंत्र होकर पुरु ष के कामों में भागीदारी करना चाहती है। इसके कारण वह घरेलू हिंसा बलात्कार, यौन उत्पीड़न आदि त्रासद स्थितियों से जूझ भी रही है। इन स्थितियों को दृष्टि में रखते हुए मनीषा ने स्त्री की त्रासदी को सही शब्द प्रदान किए हैं- ‘‘औरतों को धर्म, वर्ग, जाति, क्षेत्र में बांटने वाले नहीं जानते कि तीन अरब औरतों की पीड़ा, दुख, क्षोभ, उपेक्षाएं, त्रासदियां सब एक हैं। बस औसत कम या ज्यादा हो सकता है।’यूरोप की स्त्री तो अपने अधिकारों के लिए सत्रहवीं शताब्दी से ही संघर्षरत हैं, और एशिया महाद्वीप की स्त्रियों के बरक्स अधिक स्वतंत्र भी हैं, किन्तु भारतीय नारी का सही अर्थो में जागरण तो 19वीं सदी में प्रारंभ हुआ है। वर्ण-व्यवस्था एवं पितृसत्ता के कारण उसकी दास्ता की जड़ें बहुत गहरी हैं। वर्तमान में नारीवादी लेखिकाएं एक सदी की संपूर्ण त्रासद जटिलताओं को अपने साहित्य में उठाती हुई वर्गीय अधिकारों का लेखकीय संघर्ष चला रही हैं, तथा आंदोलनात्मक स्तर पर भी प्रयासरत हैं। जैसे चित्रा मुद्गल का ‘‘आवां’ एक महाकाव्यात्मक उपन्यास है। इसकी कथावस्तु मजदूर नेता देवीशंकर की बेटी नमिता के मोहभंग, पलायन एवं वापसी की कहानी है। इस उपन्यास में नारी शोषण के कई रूप देखने को मिलते हैं, जिनमें निम्न एवं उच्च वर्ग की यथास्थिति को उजागर किया गया है। उच्चवर्गीय पात्र निम्न वर्ग के पात्रों का शोषण करते हैं। संपूर्ण विश्व तथा विशेष रूप से भारत में स्त्री शोषण का एक बड़ा कारक वर्गीय भी रहा है। भारत का उच्चवर्गीय पुरु ष कई सदियों पूर्व से आज तक निम्न वर्ग की नारी का हर तरह से शोषण करता रहा है। आधुनिक समय की महिला कथाकारों ने इसे स्वानुभूति के आधार पर पूरी स्वाभाविकता के साथ यथार्थ वर्णन किया है। प्रभा खेतान अपने प्रसिद्ध उपन्यास छिन्नमस्ता में लिखती हैं-‘‘औरत कहां नहीं रोती, सड़क पर झाडू लगाते हुए, खेतों में काम करते हुए, एयरपोर्ट पर बाथरूम साफ करते हुए या फिर भोग, ऐश्वर्य के बावजूद मेरी सासू जी की तरह पलंग पर रात-रात भर अकेले करवटें बदलते हुए। हाड़-मांस की बनी हुई ये औरतें..अपने-अपने तरीकों से जिंदगी जीने की कोशिश में छटपटाती हैं। हजारों सालों से इनके आंसू बहते आ रहे हैं। वर्तमान समय में आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर कहलाने वाली स्त्रियों के सामने भी त्रासद समस्याएं हैं। वे घर-बाहर दोहरे दायित्व का निर्वाह करने के बाद भी पुरु षवर्गीय तानाशाह का शिकार होती रहती हैं, जिसकी प्रतिक्रिया में कई बार विद्रोह भी कर बैठती हैं। ‘‘आपके भीतर वही सामंतवादी पति जिंदा है। आप चाहते हैं पत्नी नौकरी करे। साथ ही घर की देखभाल भी करे..चूल्हा-चौका भी करे। फिर पति के पांव दबाए। इसके बाद भी पति को शिकायत है कि वह न तो घर को देखती है, न पति को। अच्छा इतना ही नहीं पति को सारी छूटें हैं।’ वर्तमान समय में पुरु षों की भांति स्त्रियां भी विदेशी नौकरी में जा रही हैं। भारतीय महिला लेखिकाओं ने ऐसी स्त्रियों की समस्याओं को आधार बनाकर अपने उपन्यासों की रचना की है। विशेष रूप से ऊषा प्रियंवदा के तीन उपन्यासों ‘‘शेष यात्रा (1904)’, ‘‘अंतरवंशी (2004)’, ‘‘भया कबीर उदास (2007)’ में प्रवासी भारतीय स्त्री के जीवन के विभिन्न पहलुओं को समग्रता के साथ उजागर किया गया है। इसी तरह अनामिका ने पाश्चात्य और पौवत्यि दोनों संस्कृतियों का गहन अध्ययन करते हुए नारी जीवन की जटिल त्रासदी को अपने उपन्यास ‘‘तिनका तिनके पास’ में उभारा है, तथा अलका सरावगी ‘‘कलि कथा वाया बाईपास’ में नारी के त्रासद मनोविज्ञान को प्रेषित किया है। आधुनिक समय की स्त्री समस्याओं को अपने लेखन का माध्यम बनाने वाली प्रमुख लेखिकाओं में कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, मन्नू भंडारी, अमृता प्रीतम, प्रभा खेतान, चित्रा मुद्गल, कुसुम अंसल, मृणाल पाण्डे, प्रभा शास्त्री, सुधा अरोड़ा, मेहरुन्ननिशा परवेज, ऊषा महाजन, लवलीन, मधु कांकरिया, गीतांजलि श्री आदि के नाम लिए जा सकते हैं। अंत में पूरे भरोसे के साथ आज यह कहने की स्थिति में हैं कि वर्तमान सदी की स्त्री लेखिकाओं ने अपने लेखन में आधुनिक स्त्री जीवन के व्यापक आयामों को स्पर्श करते हुए स्त्री संबंधी अनेक पुराने व नये प्रश्नों को उठाया ही नहीं है, बल्कि उनके विकल्पों को भी चिह्नित किया है। कस्बों, गांवों, शहरों से लेकर दूरदराज के देशों में काम करने वाली स्त्रियों के त्रासद अनुभवों को शब्द प्रदान किए हैं। टीएस इलियट के अनुसार, ‘‘इतिहास जहां प्राचीनता में रमता है, वहीं वह भविष्य में दृष्टि भी रखता है।’ इस सदी की लेखिकाओं ने प्राचीन ग्रंथों के नारी पात्रों का नये चिंतन के अनुरूप उनका मूल्यांकन भी किया है, एवं आधुनिक स्त्री विरोधी रूढ़ परंपराओं का पोस्टमार्टम भी किया है। इस सदी की स्त्री लेखिका वर्तमान संस्कृति का वह इतिहास गढ़ने जा रही है, जहां आधी आबादी की उपेक्षा संभव नहीं होगी।

ब्रिटिश चुनाव का संदेश (स्वप्न दासगुप्ता )

शुक्रवार को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने तमाम ओपिनियन पोल को धता बताते हुए चुनाव में निर्णायक जीत दर्ज की और इसी के साथ आगामी पांच वर्षो के लिए राजनीतिक अनिश्चितता के बादल भी छट गए। इससे केवल यूनाइटेड किंगडम के लोगों को ही राहत की सांस नहीं मिली, बल्कि ज्यादातर ऐसे लोकतंत्रों को भी राहत मिली जहां के लोग केवल चुनाव के दौरान ही राजनीति के बारे में सोचा करते हैं। ब्रिटेन अपना साम्राज्य खो चुका है। वर्तमान में यह महज अमेरिका का एक सहयोगी भर रह गया है, लेकिन लंदन आज भी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार में अपने प्रभाव को बरकरार रखे हुए है। वर्तमान तनावपूर्ण आम चुनाव से इस स्थिति में कोई भी बदलाव नहीं आया है। कोई भी आम चुनाव सैद्धांतिक रूप से या तो राष्ट्रीय मसलों से जुड़ा होता है अथवा स्थानीय मामलों से। हो सकता है कि लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई किसी सरकार के चुनाव के पीछे कुछ अंतरराष्ट्रीय कारण भी हों, लेकिन जिन परिस्थितियों में किसी नेता अथवा पार्टी को जनादेश प्राप्त होता है वे नि:संदेह घरेलू मुद्दों से ही आकार लेती हैं। थोड़े या अधिक रूप में यह कारक दूसरे देशों में भी प्रतिध्वनित हों, यह आवश्यक नहीं। ब्रिटेन में चुनाव के नतीजों के प्रभाव बिल्कुल स्पष्ट हैं। वस्तुत: राजनीति में जो बात अंतिम तौर पर प्रभावी होती है वह है लोगों की अपनी दिलचस्पी और ब्रिटेन में जो लोग महज अपने हितों के लिए आकांक्षी थे उन्हें इस चुनाव से कुछ सबक मिले होंगे। भारत के संदर्भ में भी इसकी प्रासंगिकता बनती है। मैं इस मुद्दे को सोशल मीडिया में कई भारतीयों की दिलचस्पी के रूप में देखता हूं जो ब्रिटिश प्रधानमंत्री कैमरन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति एक जैसे भाव रखते हैं। इन लोगों का सुझाव यही है कि कैमरन की जीत की रणनीति मोदी के लिए भी एक महत्वपूर्ण सीख है। यदि वास्तव में देखें तो ऊपरी तौर पर इसमें कुछ समानता है। मोदी की तरह ही कैमरन को भी एक ऐसी अर्थव्यवस्था विरासत में मिली थी जिसमें तत्काल सुधार की आवश्यकता थी। राजकोषीय घाटा ऐसी स्थिति में पहुंच गया था जहां से इसे नियंत्रित कर पाना काफी मुश्किल था, व्यापक तौर पर व्यावसायिक माहौल उद्यमियों के हितों के विपरीत था, स्कूल से पढ़कर निकलने वाले छात्रों की योग्यता का स्तर उद्योगों की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं था, बेरोजगारी की दर बहुत उच्च थी और राष्ट्र तमाम तरह की क्षेत्रीय असमानताओं का शिकार था। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह कि भारत की तरह ही सार्वजनिक विचार-बहस का केंद्र महज कल्याणकारी और लोकप्रिय योजनाओं तक सीमित था, न कि राष्ट्र के समग्र आर्थिक विकास पर। डेविड कैमरन 2010 से जिस गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे थे वह इन समस्याओं का समाधान कर पाने में पूर्ण रूप से सफल नहीं रही। हालांकि ब्रिटेन की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता में सुधार की दिशा में उन्होंने उल्लेखनीय सफलता हासिल की। एक ऐसे समय में जब पूरा यूरोप उथल-पुथल के दौर से घिरा रहा तब जर्मनी और ब्रिटेन ही दो ऐसी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं थीं जो विकास दर को बनाए रखने और बढ़ाने में सफल हो सकीं।
कैमरन सरकार को घरेलू विपक्ष के विरोध से भी लगातार जूझना पड़ा। हालांकि कैमरन सरकार इस सबके बावजूद कुछ अतिरिक्त व अनावश्यक योजनाओं को खत्म करने में सफल रही। कथित कल्याणकारी योजनाओं में कटौती लोगों के बीच अधिक लोकप्रिय नहीं रही। ब्रिटेन में अभी भी इस संदर्भ में पर्याप्त जागरूकता का अभाव है कि यह देश मुफ्त में प्रदान की जाने वाली योजनाओं और सब्सिडी का बोझ उठा पाने में समर्थ-सक्षम नहीं है। इस तरह की योजनाओं को त्याग पाना निश्चित रूप में कभी भी जनता के बीच लोकप्रिय नहीं रहा। राजनीति में हमेशा यह एक बड़ा जोखिम होता है। पूरे चुनाव के दौरान पुराने दिनों की वापसी के वादे के साथ कैमरन कभी भी अपने इस मुख्य संदेश से विचलित नहीं हुए कि वस्तुस्थिति में सकारात्मक बदलाव हो रहा है और विपक्षी दलों की ओर से लोकप्रिय वादों के माध्यम से ब्रिटेन के लोगों को मूर्ख बनाया जा रहा है। बहुत हद तक इस संदेश को फैलाने में मीडिया से काफी मदद मिली जो राजनीति में आर्थिक नीतियों के मामले में बहुत हद तक भारतीय मीडिया से भिन्न है। हास्यास्पद रूप से इस मामले में बीबीसी एकमात्र अपवाद है जो कंजर्वेटिव विरोधी और वामपंथ के पक्ष में अपने पूर्वाग्रहों से अविचलित बना रहा।
कैमरन के उदाहरण को देखते हुए मोदी सरकार भी इस तथ्य से कभी मुंह नहीं मोड़ सकती कि मुख्य तौर पर उसका चुनाव भारतीय अर्थव्यवस्था को वापस विकास की पटरी पर लाने के लिए किया गया है ताकि हर दिशा में विकास को सुनिश्चित किया जा सके। यह संदेश बहुत प्रासंगिक है। विपक्ष और मीडिया के कुछ मित्रों द्वारा दूसरे तमाम मुद्दों पर बहकाने के प्रयासों के बावजूद मोदी अर्थव्यवस्था को गति देने के लक्ष्य पर केंद्रित हैं। कैमरन की तरह मोदी ने भी ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर की तरह उग्र सुधारवाद का रास्ता अपनाने से परहेज किया है। वह अपने साथ सभी वर्गो को लेकर चलने की कोशिश कर रहे हैं। वह उसी तरह आगे बढ़ रहे हैं जैसा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने करने के लिए सोचा था, लेकिन वह कर नहीं सके थे। यदि कैमरन ने अपना सारा ध्यान आर्थिक एजेंडे पर केंद्रित किया होता तो वह चुनाव में बहुत अच्छा प्रदर्शन कर सकते थे, लेकिन उन्हें बहुमत शायद ही मिलता। कंजर्वेटिव पार्टी को मुख्य जनसमर्थन नि:संदेह अर्थव्यवस्था के बेहतर संचालन के लिए मिला है, लेकिन जिस एक बात ने निर्णायक अंतर पैदा किया वह थी कैमरन की पार्टी को हर तरफ से कुछ न कुछ वोट मिलना। विशेषकर चुनाव के अंतिम दौर में कैमरन की पार्टी के पक्ष में माहौल बन गया। देर से आए इस बदलाव को ओपिनियन पोल भांप पाने में विफल रहे।
कैमरन चाहते तो प्रचार के दौरान अप्रवास के मुद्दे को उभारकर लोगों की चिंताओं को लेकर चुनावी लाभ हासिल कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसलिए नहीं किया, क्योंकि उन्हें अहसास था कि ब्रिटेन की सामाजिकता के लिए यह सही नहीं होगा। मुख्य वोट बैंक को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए और भी तरीके होते हैं। अच्छी राजनीति इस बात में निहित होती है कि विपक्ष का विरोध किए बगैर लोगों को प्रेरित किया जा सके और अपने पक्ष में विश्वास में लिया जा सके। कैमरन अपने पिछले पांच वर्षो के सुशासन के आधार पर ही नहीं जीते, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने चुनाव प्रचार की लय-ताल भी बड़े अच्छे ढंग से तय की। ब्रिटेन के चुनावों से मोदी के सहयोगियों और उनकी पार्टी के लिए यह एक बड़ी सीख है। सुशासन अनिवार्य है, लेकिन चुनाव में जीत के लिए लोगों को अपने साथ जोड़ना भी उतना ही जरूरी है।(DJ)
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

Saturday 9 May 2015

केंद्र सरकार ने अनुसुचित जाति के लिए क्रेडिट संवर्धन गारंटी योजना शुरू की

केंद्रीय सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय ने 6 मई 2015 को अनुसूचित जाति वर्ग के लिए  क्रेडिट संवर्धन गारंटी योजना शुरू की. देश में इस योजना को भारतीय औद्योगिक वित्त निगम (आईएफसीआई ) लिमिटेड द्वारा र्कायान्वित किया जाना है.

अनुसूचित जाति वर्ग के युवा और शुरुआती उद्यमियों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने के लिए क्रेडिट संवर्धन गारंटी योजना तहत 200 करोड़ रुपये की धनराशि आवंटित की गई. यह आवंटन सामाजिक क्षेत्र के अंतर्गत अनुसूचित वर्ग में उद्यमिता प्रोत्साहन के लिए किया गया. इस योजना का मुख्य उद्देश्य समाज के निचले तबके में उद्यमिता को रोजगार प्राप्ति के परिणाम हेतु प्रोत्साहित करना है, साथ ही अनुसूचित जाति वर्ग में विश्वास भी जाग्रत करना है.

अन्य कार्यक्रम

इसके अलावा, मंत्रालय द्वारा 250 महिलाओं के लिए आत्मरक्षा के साथ व्यावसायिक वाहन चालक प्रशिक्षण कार्यक्रम  का शुभारंभ भी किया गया. इसका आयोजन राष्ट्रीय कर्मचारी वित्त एवं विकास निगम (एनएसकेएफडीसी ) द्वारा किया गया. इस प्रशिक्षण को शुरू करने का उद्देश्य सफाई कर्मचारियों के परिवार की महिलाओं को स्वरोजगार अथवा नौकरी के द्वारा उनकी सामाजिक व आर्थिक स्थिति को सशक्त बनाना है

Friday 8 May 2015

अटल पेंशन योजना (एपीवाई) और प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना (पीएमजेजेबीवाई) तथा प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना को कैबिनेट की मंजूरी (,PIB)

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आज यहां प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की अद्यक्षता में हुई बैठक में अटल पेंशन योजना (एपीवाई) और प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना (पीएमजेजेबीवाई) तथा प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना को कैबिनेट की मंजूरी प्रदान की। पीएमजेजेबीवाई और पीएमएसबीवाई के बारे में जागरूकता/प्रचार संबंधी गतिविधियों पर अगले पांच वर्षों में खर्च के लिए सरकारी अंशदान के रूप में 50 करोड़ रुपये वार्षिक धन प्रदान करने के प्रस्ताव को भी कैबिनेट ने मंजूरी दी।
अटल पेंशन योजना के अंतर्गत अंशदाताओं को 60 वर्ष की आयु पूरी होने पर 1000 रुपये से लेकर 5000 रुपये तक प्रतिमाह पेंशन मिलेगी, जो उनके अंशदान पर निर्भर करेगी। यह अंशदान किसी व्यक्ति के योजना में शामिल होने के समय उसकी आयु के अनुसार निर्धारित किया जाएगा। केंद्र सरकार पात्र अंशदाता के खाते में हर वर्ष कुल अंशदान का आधा हिस्सा अथवा 1000 रुपये, इनमें जो भी कम हो, जमा कराएगी। यह अंशदान 31 दिसम्बर, 2015 से पहले नई पेंशन योजना (एनपीएस) में शामिल होने वाले अंशदाताओं के खाते में 5 वर्ष अर्थात 2015-16 से 2019-20 तक जमा कराया जाएगा। किसी भी वैधानिक सामाजिक सुरक्षा योजना के सदस्य और आयकरदाता इस योजना के लाभार्थी नहीं बन सकेंगे। अंशदाता की मृत्यु होने की स्थिति में उसकी पत्नी/पति को पेंशन मिल सकेगी और उसके बाद पेंशन निधि नामित व्यक्ति को लौटा दी जाएगी। अटल पेंशन योजना में शामिल होने के लिए न्यूनतम आयु 18 वर्ष और अधिकतम आयु 40 वर्ष होगी। सरकार न्यूनतम नियत पेंशन लाभ की गारंटी प्रदान करेगी।
प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना के अंतर्गत अंशदाताओं को 330 रुपये वार्षिक प्रीमियम का भुगतान करने पर 2,00,000 रुपये के जीवन बीमा का लाभ मिलेगा। पीएमजेजेबीवाई 18 से 50 वर्ष की आयु समूह के उन लोगों के लिए उपलब्ध होगी, जिनका कोई बैंक खाता होगा जिसमें से ‘‘स्वतः डेबिट’’ सुविधा के जरिए प्रीमियम वसूल किया जाएगा।
प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना के अंतर्गत दुर्घटना में मृत्यु और पूर्ण विकलांगता की स्थिति में 2,00,000 रुपये और आंशिक विकलांगता की स्थिति में 1,00,000 रुपये के बीमा लाभ का प्रावधान किया गया है। यह योजना 18 से 70 वर्ष की आयु समूह के उन लोगों के लिए उपलब्ध होगी जिनका कोई बैंक खाता होगा जिसमें से ‘‘स्वतः डेबिट’’ सुविधा के जरिए प्रीमियम वसूल किया जाएगा। 5 वर्ष की अवधि में एपीवाई के अंशदाताओं के लिए सरकारी अंशदान के रूप में 2520 करोड़ रुपये लेकर 10,000 करोड़ रुपये तक की लागत आने की संभावना है।
उम्मीद की जा रही है कि एपीवाई योजना के अंतर्गत चालू वित्त वर्ष के दौरान करीब 2 करोड़ अंशदाताओं का पंजीकरण किया जाएगा।
2015-16 के बजट भाषण में यह कहा गया था कि भारत की आबादी का बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य, दुर्घटना और जीवन बीमा लाभ से वंचित है। इसलिए सरकार ने सभी भारतीयों, विशेषकर निर्धन और उपेक्षित वर्गों के लिए सामाजिक सुरक्षा प्रणाली की स्थापना करने का फैसला किया है।

आकाश मिसाइल, मेक इन इंडिया की मिसाल (जाहिद खान)

रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन यानी डीआरडीओ, बीडीएल और सेना की अन्य एजेंसियों के अनेक वैज्ञानिकों की तीन दशकों की मेहनत आखिरकार रंग लाई है। जमीन से हवा में मार करने वाली पूरी तरह से स्वदेशी तकनीक पर आधारित सुपरसोनिक मिसाइल ‘‘आकाश’ भारतीय सेना में शामिल हो गई है। यह मिसाइल हवाई हमलों के खिलाफ देश के लिए एक बड़े सुरक्षा हथियार के रूप में काम करेगी। मिसाइल की क्षमता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इससे दुश्मन के लड़ाकू विमान, हेलीकॉप्टर और ड्रोन विमानों को पलक झपकते गिराया जा सकता है। दुश्मन के विमानों को यह मिसाइल 25 किमी दूर से अपना निशाना बना सकती है। आकाश अस्त्र पण्राली की पहली खेप भारतीय थल सेना को सौंप दी गई है और जल्द ही सीमावर्ती इलाकों में इसकी तैनाती भी हो जाएगी। ये मिसाइलें 1970 के दशक में लाई गई मिसाइलों का स्थान लेंगी। आकाश मिसाइल के भारतीय सेना में शामिल होने से निश्चित तौर पर हमारी सेना में एक नया आत्मविास जागेगा। देश की सुरक्षा पहले से और भी ज्यादा अभेद्य होगी। आकाश मिसाइल, डीआरडीओ द्वारा साल 1984 में शुरू किए गए एकीकृत निर्देशित मिसाइल विकास कार्यक्रम की पांच मूल मिसाइल पण्रालियों में से एक है। अस्त्र पण्राली का डिजाइन और विकास पूरी तरह से डीआरडीओ द्वारा किया गया है। एक और सरकारी उपक्रम भारत इलेक्ट्रॉनिक और भारत डायनेमिक्स लिमिटेड आकाश अस्त्र पण्राली का प्रमुख समाकलक है। आकाश मिसाइल की कार्यपण्राली और इसके फीचर आज भले ही सभी को अचंभित करते हों, लेकिन इस मिसाइल को सपने से हकीकत में बदलना आसान नहीं था। मिसाइल निर्माण में तीन दशक से ज्यादा समय लग गया। वैज्ञानिकों के सामने इस दौरान बहुत-सी चुनौतियां, कई उतार-चढ़ाव और बाधाएं आई। पर वे अपने लक्ष्य से बिल्कुल नहीं डिगे। और अंत में उन्होंने मंजिल पा ही ली।। आकाश मिसाइल के देश में बनने से न केवल इसकी लागत तीन गुना कम आई है, बल्कि इसमें फेरबदल और सुधार करने के लिए किसी दूसरे देश पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। इस अनोखी और बेहतरीन मिसाइल की संचार व्यवस्था पूरी तरह सुरक्षित और अभेद्य है। आकाश मिसाइल की सबसे अच्छी बात, इसका अपना ऑटोमेटेड इलेक्ट्रिकल पावर सिस्टम है। 96 फीसद स्वदेशी यह पण्राली सभी मौसमों में एक साथ, एक से अधिक लक्ष्यों को साधने में सक्षम है। यही नहीं, यह मिसाइल सेना को छोटी दूरी के मिसाइल का समग्र कवर उपलब्ध करवाने में भी सक्षम है। पूरी तरह ऑटोमेटिक इस मिसाइल सिस्टम को रेल या सड़क के जरिये कहीं भी लाया-ले जाया जा सकता है। आकाश मिसाइल का वजन 720 किलोग्राम और लंबाई पौने छह मीटर है। मिसाइल एक साथ आठ लक्ष्यों को भेद सकती है। इसकी स्पीड 660 मीटर प्रति सेकेंड है। आकाश अस्त्र पण्राली, मिसाइल को उसके लक्ष्यों के बारे में दिशा-निर्देश देने के लिए परिष्कृत रडारों और नियंतण्रपण्रालियों पर निर्भर है। पण्राली कुछ इस तरह से काम करती है- आकाश अस्त्र पण्राली में सबसे पहले री डी सेंट्रल एक्विजिशन रडार सौ किमी दूर से ही दुश्मन के विमान की टोह ले लेते हैं और इसकी जानकारी फौरन ग्राउंड कंट्रोल सिस्टम को देते हैं। जानकारी मिलते ही 3 से 10 सेकेंड के बीच मिसाइलों को अलर्ट कर दिया जाता है। इसके बाद इंतजार शुरू होता है दुश्मन विमान के 25 किमी के रेंज में आने का। जैसे ही दुश्मन विमान रेंज में आता है, आकाश मिसाइल उसे ढेर कर देती है। गौरतलब है कि भारतीय वायु सेना के पास आकाश मिसाइल पहले से ही है। साल 2012 में डीआरडीओ ने आकाश मिसाइल का हवा से जमीन पर मार करने वाला संस्करण वायु सेना को सौंपा था। थल सेना को सौंपे जाने वाला आकाश मिसाइल का प्रारूप चलायमान है, जो वाहनों पर लगा होता है। आज के समय में देश की सुरक्षा के लिए सरकार और सेना, दोनों को कई मोर्चो पर एक साथ जूझना पड़ता है। हवाई सुरक्षा की जहां तक बात है, इसके लिए सीमाओं पर सिर्फ विमान और हेलीकॉप्टर की तैनाती को ही काफी नहीं माना जा सकता। अब वायु सुरक्षा पहले से कहीं ज्यादा गतिशील और चुनौतीपूर्ण हो गई है। यदि हमारे पास प्रभावी आधुनिकतम वायु रक्षा अस्त्र पण्राली होगी, तो हम दुश्मन के हमलों का भी बेहतरी से मुकाबला कर सकेंगे। आकाश मिसाइलें, सैन्य वायु रक्षा कोर के लिए खास प्रोत्साहन का काम करेंगी। यह कोर वर्षो से पुराने वायु रक्षा हथियारों के साथ काम कर रही है। आकाश के शामिल होने के बाद, अब जाकर उनके सुरक्षा हथियारों में इजाफा हुआ है। भारतीय सेना ने डीआरडीओ को शुरुआत में छह फायरिंग बैटरियों के साथ दो आकाश रेजीमेंट का ऑर्डर दिया है। सैकड़ों मिसाइलों वाले इस ऑर्डर की कुल कीमत लगभग बीस हजार करोड़ रपए है। डीआरडीओ का कहना है कि पहली पूर्ण रेजीमेंट इसी साल जून-जुलाई तक और दूसरी रेजीमेंट साल 2016 के आखिर तक तैयार हो जाएगी। आकाश रेजीमेंट के शामिल होने के बाद न सिर्फ सेना के विभिन्न दस्ते मजबूत होंगे, बल्कि देश के अन्य महत्वपूर्ण ठिकानों की सुरक्षा भी सुनिश्चित हो सकेगी।आकाश अस्त्र पण्राली और आकाश मिसाइल के साथ हमारी सेना को जो जबर्दस्त क्षमता हासिल हुई है, वह सैन्य बल की दीगर कमियों को दूर करेगी। देा के ऊपर आसमान से आने वाले किसी भी खतरे को रोक पाने में भारतीय सेना के सैन्य वायु सुरक्षा कोर पहले से और भी ज्यादा सक्षम होंगे। इस मिसाइल को शामिल कर भारतीय सेना ने मुकम्मल आत्म सुरक्षा की ओर एक बड़ा कदम आगे बढ़ाया है। देश को सचमुच एक बड़ी उपलब्धि हासिल हुई है। इस बेमिसाल उपलब्धि के लिए डीआरडीओ सबसे ज्यादा तारीफ का हकदार है। वह तारीफ का इसलिए भी हकदार है, क्योंकि उसके द्वारा देश में विकसित की गई अन्य अस्त्र पण्रालियों की तुलना में आकाश मिसाइल की तकनीक पूरी तरह से स्वदेशी है। एक लिहाज से देखा जाए तो आकाश अस्त्र पण्राली और आकाश मिसाइल ‘‘मेक इन इंडिया’ सिद्धांत के मुताबिक है। इस पण्राली और मिसाइल पर हम इसलिए भी गर्व कर सकते हैं कि यह विश्वस्तरीय समकालीन अस्त्र पण्राली है। थाईलैंड और बेलारूस जैसे कई देशों का आका मिसाइल में दिलचस्पी लेना इसी बात का परिचायक है।

Thursday 7 May 2015

ब्रिटेन में अनिश्चितता का साया (हर्ष वी. पंत)

सात मई को ब्रिटेन नई सरकार चुनने के लिए मतदान करेगा। यह ब्रिटेन के हालिया इतिहास का सबसे अनिश्चित चुनाव होने जा रहा है। अभी तक कोई अनुमान नहीं है कि जीत किसकी होगी। चुनावी सर्वे दोनों प्रमुख दलों कंजरवेटिव और लेबर में कांटे की टक्कर बता रहे हैं। सर्वो के अनुसार इस बार ब्रिटेन में खंडित जनादेश की उम्मीद है, जिससे कंजरवेटिव और लेबर पार्टियों के नेताओं डेविड कैमरन और एड मिलिबैंड को घबराहट हो रही होगी। दोनों ही दल गंभीर समस्याओं से जूझ रहे हैं। व्यक्तिगत स्तर पर डेविड कैमरन मिलिबैंड से अधिक पसंद किए जाते हैं, किंतु उनकी पार्टी के बारे में धारणा है कि यह सामाजिक क्षेत्र में खर्च में और अधिक कटौती करेगी। मिलिबैंड को उतना प्रभावी नेता नहीं माना जाता और वह लोगों के साथ संपर्क बनाने में अधिक कामयाब नहीं रहे हैं। सात प्रमुख दलों के नेताओं की टीवी पर हुई बहस से कोई खास निष्कर्ष नहीं निकला। यूके इंडिपेंडेंस पार्टी (यूकेआइपी) के निजेल फैरेज और ग्रींस की नातालिया बैनेट, स्कोटिश नेशनलिस्ट पार्टी (एसएनपी) की निकोला स्टजिर्यन, प्लेड साइम्रू (वेल्स नेशनलिस्ट्स) की लीएन वुड ने खासा प्रभावित किया। यह दर्जा हासिल करने के लिए उनके पूर्ववर्तियों ने दशकों तक प्रयत्न किया, किंतु फिर भी कामयाबी हासिल नहीं कर पाए। दोनों प्रमुख दल मतदाताओं को लुभाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। लेबर पार्टी वादा कर रही है कि वह नॉन डोमिसाइल व्यवस्था को भंग कर देगी, जो कुछ अमीर लोगों को देश से बाहर अजिर्त आय पर करों में छूट प्रदान करती है। मिलिबैंड के अनुसार 21वीं सदी में इस कानून को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इससे लगता है कि ब्रिटेन टैक्स हैवन बन चुका है। इस कदम से अरबों पाउंड सरकार को मिल सकते हैं। किंतु यह एक ऐसी पार्टी के लिए बड़ी उलटबांसी है जो एक माह पहले तक यह दलील देती थी कि इस कदम से ब्रिटेन को नुकसान होगा क्योंकि अमीर लोग देश छोड़ देंगे। कंजरवेटिव्ज ब्रिटेन की चहेती नेशनल हेल्थ सर्विस (एनएचएस) के पुनर्निर्माण के वादे से अपनी साख बनाने का प्रयास कर रहे हैं। पहले इस योजना से कदम पीछे खींच लेने वाली कंजरवेटिव पार्टी अब वादा कर रही है कि वह एनएसएस लागू करने के लिए हरसंभव प्रयास करेगी और इसके वित्त पोषण में आने वाली कमी को पूरा करेगी। लेबर पार्टी का आरोप है कि 2010 के बाद से ब्रिटेन में होने वाली शल्यक्रिया के मामले कम हुए हैं और इसके लिए कंजरवेटिव पार्टी जिम्मेदार है। यही नहीं चिकित्सा सुविधाओं की अनदेखी का ही नतीजा है कि अब स्वास्थ्य केंद्रों में लंबी-लंबी लाइनें लगने लगी हैं। यूरोप में ब्रिटिश अर्थव्यवस्था सबसे तेजी से बढ़ रही है। कंजरवेटिव पार्टी चेतावनी दे रही हैं कि लेबर पर भरोसा नहीं किया जा सकता कि वह अर्थव्यवस्था की गति को बनाए रखेगी। कंजरवेटिव्ज और लिबरल डेमोक्रेट्स दोनों वर्तमान घाटे को खत्म करने की बात कर रहे हैं। लेबर वादा कर रही है कि वह हर साल घाटे को कम करेगी किंतु इसके लिए कोई समयसीमा तय नहीं कर रही है। लेबर का कहना है कि वह जल्द से जल्द बजट को लाभ में ले आएगी। इस चुनाव से पता चलता है कि ब्रिटेन पिछले कुछ वर्षो में तेजी से बदला है। कंजरवेटिव्ज को यूकेआइपी के उभार से नुकसान होता दिख रहा है जबकि लेबर पार्टी को इसके गढ़ स्कॉटलैंड में स्कॉटिश नेशनलिस्ट्स चुनौती दे रहे हैं। प्रधानमंत्री डेविड कैमरन यूकेआइपी के समर्थकों को अपने पाले में लाने में जुटे हैं। उनका कहना है कि आम चुनाव विरोध में वोट देने का वक्त नहीं है। एसएनपी नेता निकोला लेबर पार्टी के लिए मुसीबत खड़ी कर रही हैं। उनका कहना है कि एसएनपी मिलिबैंड को तभी प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन देगी जब कंजरवेटिव्ज बहुमत हासिल करने में विफल हो जाएंगे। एसएनपी इस मुद्दे पर जितना जोर देगी, उतने ही वोट लेबर पार्टी से कट जाएंगे। मिलिबैंड इस बात को जानते हैं इसीलिए वह और उनकी पार्टी एसएनपी से दूरी बनाए रखने की कोशिश कर रही है।
1997, 2001 और 2005 में आम चुनाव जीतने वाले और 2007 में प्रधानमंत्री पद छोड़ने वाले लेबर नेता टोनी ब्लेयर भी चुनावी अखाड़े में कूद पड़े हैं। उन्होंने चेताया है कि यूरोपीय संघ की सदस्यता के मुद्दे पर डेविड कैमरन द्वारा जनमत संग्रह कराए जाने की कोशिश आर्थिक उथल-पुथल मचा देगी। ब्लेयर का सुझाव है कि यूरोपीय संघ को छोड़ने से ब्रिटेन विश्व में अपनी अहमियत खो देगा और इससे देश वैश्विक नेतृत्व के खेल से बाहर हो जाएगा। लेबर उद्योग जगत को लुभाने के लिए जनमत संग्रह के विरोध को मुद्दा बना रही है। हालांकि उद्योग जगत ने चेतावनी जारी की है कि जनमत संग्रह से अनिश्चितता फैलेगी, किंतु यूरोपीय संघ में ढांचागत सुधारों की आवश्यकता है और यथास्थिति को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। ब्रिटेन के चुनाव में जनमत संग्रह एक बड़ा मुद्दा बन गया है क्योंकि यह चुनाव देर-सबेर ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से रिश्ता निर्धारित करेगा।
भारत और ब्रिटेन ने पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के 2005 के भारत दौरे में सामरिक साङोदारी पर समझौता किया था, लेकिन यह साङोदारी केवल नाम की रह गई। कंजरवेटिव्ज इसे नई दिशा देने को उत्सुक हैं। ब्रिटेन भारत में सबसे बड़ा यूरोपीय निवेशक है और भारत ब्रिटेन में दूसरा सबसे बड़ा निवेशक है। ब्रिटेन में भारतीय छात्र दूसरा सबसे बड़ा समूह है। दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक, भाषायी और सांस्कृतिक रिश्ते हैं जिनका सही ढंग से दोहन नहीं किया गया है। डेविड कैमरन भारत के लिए बेहतर प्रधानमंत्री साबित हुए हैं। उन्होंने भारतीय हितों के लिए काफी काम किया है। कंजरवेटिव नेतृत्व में सरकार भारत के लिए बेहतर साबित होगी, किंतु भारत के आर्थिक शक्ति के रूप में उभार से ब्रिटिश रवैये में बदलाव देखने को मिला है और अब लेबर सरकार भी, मानवाधिकार हनन के मुद्दे पर प्रवचन देने और पाकिस्तान के प्रति नरम रुख रखने के बावजूद नई दिल्ली की अनदेखी करने की स्थिति में नहीं है।
ब्रिटेन के सामने अपने भविष्य को चुनने का सवाल है। वहां राजनीति तेजी से करवट बदल रही है। क्षेत्रीय और छोटे दलों का उभार यह संकेत दे रहा है कि ब्रिटेन की राजनीति अब नए दौर में प्रवेश करने जा रही है। स्थिति साफ होने ही वाली है। 7 मई का चुनाव ब्रिटेन को उस भंवरजाल से निकालता नहीं दिख रहा है, जिसमें वह देश फंसा हुआ है, जिसका कभी विश्व में सबसे बड़ा साम्राज्य था और जिसके राज में सूरज कभी अस्त नहीं होता था।
(लेखक किंग्स कॉलेज, लंदन में प्राध्यापक हैं)

Wednesday 6 May 2015

इलेक्ट्रॉनिक कचरे का जहरीला संकट (मुकुल श्रीवास्तव)

भारत इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा करने वाला दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा देश बन चुका है। भारत ने 2014 में 17 लाख टन इलेक्ट्रॉनिक और इलेक्ट्रिकल उपकरण कचरे के रूप में निकाले। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है। तकनीक के इस जमाने में हर वह शब्द जिसके साथ ‘‘ई’ जुड़ जाता है, प्रगति का पर्याय बन जाता है। इस समय इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के बिना जीवन की कल्पना करना भी मुश्किल है। मोबाइल, कंप्यूटर, लैपटॉप, टैबलेट आदि हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गए हैं। नित नई तकनीक के साथ अपने आप को जोड़े रखने के जुनून में हम भूल जाते हैं कि पुराने कंप्यूटर का क्या होगा। पुरानी सीडी व दूसरे ई-वेस्ट को कूड़ेदान में डालते वक्त हम कभी ध्यान ही नहीं देते कि यह कबाड़ हमारे लिए कितना खतरनाक हो सकता है। वैसे पहली नजर में ऐसा लगता भी नहीं है। बस, यही है ई-वेस्ट का शांत खतरा। बदलती जीवनशैली और बढ़ते शहरीकरण के चलते इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का ज्यादा प्रयोग होने लगा है, मगर इससे पैदा होने वाले ई-कचरे के दुष्परिणाम से लोग बेखबर है।तकनीक की इस दौड़ में हम कभी इस तय की ओर नहीं सोचते कि जब इन उपकरणों की उपयोगिता खत्म हो जाएगी, तब इनका क्या किया जाएगा। ई-कचरे के अंतर्गत वे सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आते हैं जिनकी उपयोगिता समाप्त हो चुकी है। ई-कचरा या ई-वेस्ट एक ऐसा शब्द है जो तरक्की के इस प्रतीक के दूसरे पहलू की ओर इशारा करता है। वह पहलू है पर्यावरण का विनाश। पिछले साल दुनिया में सबसे ज्यादा 1.6 करोड़ टन ई-कचरा एशिया में पैदा हुआ। इनमें चीन में 60 लाख टन, जापान में 22 लाख टन और भारत में 17 लाख टन ई-कचरा पैदा हुआ। वहीं यूरोप में सबसे ज्यादा ई-कचरा करने वाले देशों में नार्वे पहले, स्विट्जरलैंड दूसरे, आइसलैंड तीसरे, डेनमार्क चौथे और ब्रिटेन पांचवें पायदान पर रहा। वहीं सबसे कम 19 लाख टन ई-कचरा अफ्रीका में पैदा हुआ। रिपोर्ट के मुताबिक, 2018 में ई-कचरे की मात्रा 21 फीसद तक बढ़कर 5 करोड़ टन पहुंचने की संभावना है। जहां अमेरिका में पिछले पांच सालों में ई-कचरे में 13 फीसद बढ़ोतरी हुई है, वहीं चीन में दोगुनी वृद्धि हुई है। आशंका है कि 2017 तक चीन, अमेरिका को भी पीछे छोड़ देगा। पिछले साल पैदा हुए ई-कचरे में महज सात फीसद मोबाइल फोन, कैलकुलेटर, पीसी, प्रिंटर और छोटे आईटी उपकरण रहे, वहीं करीब 60 फीसद हिस्सा घरों और कारोबार में इस्तेमाल होने वाले वैक्यूम क्लीनर, टोस्टर्स, इलेक्ट्रिक रेजर्स, वीडियो कैमरा, वॉशिंग मशीन और इलेक्ट्रिक स्टोव जैसे उपकरणों का था। ई-कचरे का सबसे अधिक उत्सर्जन विकसित देशों द्वारा किया जाता है जिसमें अमेरिका अव्वल है। विकसित देशों में पैदा होने वाला अधिकतर ई-कचरा प्रशमन के लिए एशिया और पश्चिमी अफ्रीका के गरीब अथवा अल्प-विकसित देशों में भेज दिया जाता है। यह ई-कचरा इन देशों के लिए भीषण मुसीबत का रूप लेता जा रहा है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में प्रतिवर्ष लगभग 4 लाख टन ई-कचरा उत्पन्न होता है। राज्यसभा सचिवालय द्वारा ‘‘ई-वेस्ट इन इंडिया’ के नाम से प्रकाशित एक दस्तावेज के अनुसार भारत में उत्पन्न होने वाले कुल ई-कचरे का लगभग 70 प्रतिशत केवल दस राज्यों और लगभग 60 प्रतिशत कुल 65 शहरों से आता है। ई-कचरे के उत्पादन में मामले में महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे समृद्ध राज्य और मुंबई व दिल्ली जैसे महानगर अव्वल हैं। एसोचैम की एक रिपोर्ट के अनुसार देश का लगभग 90 प्रतिशत ई-कचरा असंगठित क्षेत्र के अप्रशिक्षित लोगों द्वारा निस्तारित किया जाता है। ये लोग आवश्यक सुरक्षा मानकों से अनभिज्ञ होते हैं। एक खबर के अनुसार इस वक्त देश में लगभग 16 कंपनियां ई-कचरे के प्रशमन के काम में लगी हैं। इनकी कुल निस्तारण क्षमता देश में पैदा होने वाले कुल ई-कचरे के 10 प्रतिशत से भी कम है।विगत वर्षो में ई-कचरे की मात्रा में लगातार तीव्र वृद्धि हो रही है और प्रतिवर्ष लगभग 20 से 50 मीट्रिक टन ई-कचरा विश्व भर में फेंका जा रहा है। ठोस कचरे में सबसे तेज वृद्धि दर ई-कचरे में ही देखी जा रही है, क्योंकि लोग अब अपने टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल, प्रिंटर आदि को पहले से अधिक जल्दी बदलने लगे हैं। इनमें सबसे ज्यादा दिक्कत पैदा हो रही है कंप्यूटर और मोबाइल से, क्योंकि इनका तकनीकी विकास इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि ये बहुत ही कम समय में पुराने हो जाते हैं और इन्हें बदलना पड़ता है। भविष्य में ई-कचरे की समस्या कितनी विकराल हो सकती है, इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षो में विकसित देशों में कंप्यूटर और मोबाइल उपकरणों की औसत आयु घट कर मात्र दो साल रह गई है। घटते दामों और बढ़ती क्रय शक्ति के कारण ई-उपकरणों की संख्या और प्रतिस्थापना दर में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। ई-कचरा पूरे विश्व में एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आ रहा है। घरेलू ई-कचरे जैसे अनुपयोगी टीवी और रेफ्रिजरेटर में लगभग एक हजार विषैले पदार्थ होते हैं जो मिट्टी एवं भू-जल को प्रदूषित करते हैं। इन पदार्थो के संपर्क में आने पर सरदर्द, उल्टी, मतली, आंखों में दर्द जैसी समस्याएं हो सकती हैं। ई-कचरे का पुनर्चकण्रएवं निस्तारण अत्यंत ही महत्वपूर्ण विषय है जिसके बारे में गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। भारत सरकार ने ई-कचरे के प्रबंधन के लिए विस्तृत नियम बनाए हैं जो 1 मई, 2012 से प्रभाव में आ गए हैं। ई-कचरा (प्रबंधन एवं संचालन नियम) 2011 के अंतर्गत ई-कचरे के पुनर्चकण्रएवं निस्तारण के लिए विस्तृत निर्देश दिए गए हैं। हालांकि इन दिशा-निर्देशों का पालन किस सीमा तक किया जा रहा है यह कह पाना कठिन है। जानकारी के अभाव में ई-कचरे के शमन में लगे लोग कई प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त हो रहे हैं। अकेले दिल्ली में ही एशिया का लगभग 85 प्रतिशत ई-कचरा शमन के लिए आता है, परंतु इसके निस्तारण के लिए जरूरी सुविधाओं का अभाव है। आवश्यक जानकारी एवं सुविधाओं के अभाव में ई-कचरे के निस्तारण में लगे लोग न केवल अपने स्वास्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं, बल्कि पर्यावरण को भी दूषित कर रहे हैं। ई-कचरे में कई जहरीले और खतरनाक रसायन तथा अन्य पदार्थ जैसे सीसा, कांसा, पारा, कैडमियम आदि शामिल होते हैं जो उचित शमन पण्राली के अभाव में पर्यावरण के लिए काफी खतरा पैदा करते हैं। एसोचैम की रिपोर्ट के अनुसार भारत अपने ई-कचरे के केवल 5 प्रतिशत का ही पुनर्चकण्रकर पाता है।ई-कचरे के प्रबंधन की जिम्मेदारी उत्पादक, उपभोक्ता एवं सरकार की सम्मिलित रूप से होनी चाहिए। उत्पादक की जिम्मेदारी है कि वह कम से कम हानिकारक पदार्थो का प्रयोग करें एवं ई-कचरे के प्रशमन का उचित प्रबंधन करें। उपभोक्ता की जिम्मेदारी है कि वह ई-कचरे को इधर-उधर न फेंक कर उसे पुनर्चकण्रके लिए उचित संस्था को दें, तथा सरकार की जिम्मेदारी है कि वह ई-कचरे के प्रबंधन के ठोस और व्यावहारिक नियम बनाए और उनका पालन सुनिश्चित करे।

भूकम्प से बचाने वाली हो स्मार्ट सिटी (प्रमोद भार्गव)

भारत सरकार ने सौ स्मार्ट शहर बसाने का फैसला उस समय लिया है, जब नेपाल समेत भारत भूकम्प खतरा झेल रहा है। आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस महानगर के बगल में नया उपनगर बसाना अहम हो सकता है, लेकिन सौ शहरों में ज्यादातर वे हैं,जो भूकम्प की उस बुनियाद पर खड़े हैं जिसके नीचे 57 फीसद हिस्से में विनाशकारी ऊर्जा अंगड़ाई ले रही है। बावजूद हमारे यहां व्यापक पैमाने पर भूकंप-रोधी भवनों का निर्माण नहीं हो रहा है। यह लापरवाही सरकारी और निजी दोनों स्तरों पर है। ऐसे में शोचनीय पहलू यह है कि भूकम्प से होने वाली त्रासदी में जो सबसे ज्यादा नुकसान होता है वह पक्के व बहुमंजिला भवनों के ढहने से ही होता है। ऐसे विडंबनापूर्ण हालत में स्मार्ट शहरों की नींव रखने से पहले भूकम्प रोधी मानकों का कड़ाई से पालन करने के साथ धरती के डोलने के समय एहतियात के लिए क्या कदम उठाएं जाए, इस हेतु पर्याप्त जागरूकता की जरूरत है।केंद्र की भाजपानीत सरकार ने पहले आम बजट में सौ स्मार्ट सिटी बसाने की घोषणा की थी। प्रधानमंत्री मोदी की यह महत्वाकांक्षी योजना भाजपा के दृष्टि-पत्र में भी शामिल थी। भाजपा ने अपने चुनावी वादे पर अमल का फैसला केंद्रीय मंत्रिमंडल में ले लिया है। 2008 में महानगरीय आबादी से संबंधित एक रिपोर्ट के मुताबिक 34 करोड़ लोग शहरों में निवास करते हैं। अनुमान है कि 2030 तक यह आंकड़ा 59 करोड़ और 2050 में 81 करोड़ हो जाएगा। ऐसे में किसी भी सरकार का कर्त्तव्य बनता है कि वह शहरों को भविष्य की संभावनाओं के साथ आधुनिक व सुविधा संपन्न बनाए। इस नाते स्मार्ट सिटी मिशन और अटल शहरी रूपांतरण एवं पुनरुद्धार मिशन के तहत शहरों के कायाकल्प के लिए पांच वर्षो में एक लाख करोड़ रपए खर्च करने का जो निर्णय लिया है, वह उचित है क्योंकि इसमें अधोसंरचना, साफ पानी, साफ-सफाई, कचरा प्रबंधन, यातायात और भीड़ को नियंतण्रकरने जैसे बेहद अहम मुद्दे शामिल हैं। स्मार्ट शहरों में कमजोर आय वर्ग के लोगों को सस्ती दरों पर छोटे घर दिए जाने का भी प्रावधान है। इस परियोजना को मोदी के डिजिटल इंडिया मिशन का भी अहम हिस्सा माना जा रहा है, क्योंकि ये शहर वाई-फाई जैसी संचार तकनीक से भी जोड़े जाएंगे। लेकिन इस पूरी परियोजना में भूकम्प रोधी निर्माण की अनिवार्यता का कहीं जिक्र नहीं है? जबकि दिल्ली, मुबंई, कोलकाता, अहमदाबाद, पटना समेत 38 महानगर जो स्मार्ट परियोजना में षामिल हैं, भूकंप प्रभावित खतरनाक क्षेत्रों में आते हैं। गौरतलब है कि तमाम वैज्ञानिक प्रगाति के बावजूद भूकम्प की भविष्यवाणी दो मिनट पहले करना भी संभव नहीं है। भूकम्प संबंधी विश्वव्यापी शोध भूगर्भीय खुलासे और धरती की आंतरिक हलचल बयान करने में सक्षम हो गए हैं। भूकम्पीय तरंगों से प्रभावित क्षेत्र भी वैज्ञानिकों ने चिह्नित कर दिए हैं लेकिन ये किस क्षेत्र, किस समय और किस तीव्रता से धरती पर विभीषिका रचेंगे, इसका पूर्व खुलासा संभव नहीं हुआ है। लिहाजा भारत पहले जापान की तर्ज पर भूकम्प से निरपेक्ष रहने वाली तकनीक हासिल करे और फिर इस योजना को आगे बढ़ाए?हमारे यहां सबसे आधुनिक व स्मार्ट निर्माण दिल्ली मेट्रो है। इसमें करीब 23 लाख यात्री रोजाना सफर करते हैं। बावजूद विश्वस्तरीय भवन निर्माण और पथ संचालन के मानकों से जुड़ी यह रेल सरंचना 7.5 तीव्रता वाले भूकम्प का सामना करने में अक्षम है। संयुक्त राष्ट्र की आपदा के खतरे कम करने संबंधी ग्लोबल एसेसमेंट रिपोर्ट के मुताबिक भी दिल्ली मेट्रो भूकम्प व बाढ़ के हिसाब से सुरक्षित नहीं है। मेट्रो में इंसानी त्रासदी इसलिए ज्यादा हो सकती है,क्योंकि यह एक साथ सुरंग, उपरिमागी पथ से गुजरती है। गोया,जब दिल्ली मेट्रो निर्माण भूकम्प की कसौटी पर खरा नहीं है तो कैसे उम्मीद की जाए कि पहले से ही आबादी का संकट झेल रहे शहरों का विस्तार भूकम्परोधी अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से संपन्न होगा? दरअसल जापान ने अपने देश में भूकम्प रोधी भवन निर्माण और जीवन शैली विकसित करके साबित कर दिया है कि भूकम्प के बावजूद त्रासदी कम भी की जा सकती है और उससे बचा भी जा सकता है। जापान में आए दिन भूकम्प आते हैं और लोग बिना जन-धन हानि के बच जाते हैं। नेपाल में रिक्टर पैमाने के हिसाब 7.9 तीव्रता का भूकम्प आया और 6000 से भी ज्यादा लोग मारे गए। जबकि 2011 में फुकुशिमा में 8.5 तीव्रता के भूकम्प में कुछ ही लोग हताहत हुए। हम बखूबी जानते हैं कि भारत और नेपाल एक जैसे मानसिक धरातल के देश हैं। इसलिए किसी कुदरती आपदा की त्रासदी दोनों जगह कमोबेश एक जैसी होती है। हमने भी भूकम्प रोधी भवन निर्माण और नगर विकास योजनाएं विकसित नहीं की हैं और नेपाल भी तथाकथित आधुनिक विकास की इसी बदहाली में जी रहा है। नतीजतन भूकम्प आने पर सबसे ज्यादा जन-धन हानि भवनों के ढहने से हुई है। वैसे अपने यहां हम लातूर, कच्छ उत्तरकाशी व चमोली का भूकम्प झेल चुके हैं। बावजूद कोई सबक लेने की बजाय कथित शहरी विकास का पहलू जस का तस बना है।भारतीय उपमहाद्वीप का आधा हिस्सा भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशील माना जाता है और यही वह क्षेत्र है,जहां धनी और बेतरतीब आबादी निवासरत है। लिहाजा भवन निर्माण की भूकम्प रोधी तकनीक अपनाने के साथ भूकम्प के सिलसिले में व्यापक जन-जगरूकता भी जरूरी है। अक्सर भूकम्प की आहट के बावजूद ज्यादातर लोग घरों में से बाहर नहीं निकलते हैं। इस लिहाज से रिहायशी बहुमंजिला में जनहानि कितनी विकट होगी अंदाजा लगा रोंगटे खड़े हो जाते हैं। बेशक देश में स्मार्ट शहर विकसित हों लेकिन शहरी विकास-नियोजन में भूकम्प रोधी उपेक्षित सावधानियां अनिवार्यत: बरती जानी चाहिए। सरकार ऐसी नीतियां अमल में लाएं, जिससे गांव और छोटे कस्बों में रहने वाले लोगों को स्थानीय स्तर पर ही रोजगार, आवास, शिक्षा, चिकित्सा सुविधा, बिजली, संचार और परिवहन सुविधाएं हासिल हों। ऐसा होगा तो गांवों से पलायन नहीं होगा और शहर आबादी के अतिरिक्त बोझ से बचे रहेंगे। नतीजतन सौ स्मार्ट शहरों की जरूरत ही नहीं रहेगी।

बारिश और अर्थव्यवस्था का जटिल है रिश्ता (सुबीर गोकर्ण )

दक्षिण पश्चिम मॉनसून को लेकर जताए गए इस वर्ष के पहले पूर्वानुमान ने चिंताओं को जन्म दे दिया। पूर्वानुमान में कहा गया कि जून से सितंबर 2015 के दौरान होने वाली बारिश सामान्य की 93 फीसदी रहेगी। यह मात्रा 96 से 104 फीसदी के सामान्य स्तर से कम होगी। इस पूर्वानुमान ने बहुत अधिक ध्यान आकृष्ट नहीं किया होता लेकिन यह ऐसे समय में आया है जब बारिश से जुड़ी समस्याएं हमें लगातार घेरे हुए हैं। सबसे पहले वर्ष 2014 में दक्षिण पश्चिम मॉनसून काफी कमजोर रहा। दूसरा, रबी के मौसम में काफी अस्वाभाविक बारिश हुई। इसकी वजह से फसल को नुकसान पहुंचा और ग्रामीण समुदाय को दिक्कतों से दोचार होना पड़ा। इसके अलावा यह वर्ष अलनीनो प्रभाव वाला है तो बारिश की कमी की संभावना बनी रहना तय है। क्या हमें इन बातों से चिंतित होना चाहिए?
इस सवाल का जवाब बारिश के साथ जुड़ी वृहद आर्थिक घटनाओं की समझ पर निर्भर होगा। सबसे पहली बात, बारिश और खाद्यान्न उत्पादन एवं कीमतों में सीधा संबंध है लेकिन यह उतना सीधा भी नहीं है जितना कि कम बारिश और उच्च महंगाई का रिश्ता। मॉनसून अगर पूरे मौसम के दौरान औसत से कम रहा तभी सभी खाद्यान्नों की कीमत में बढ़ोतरी होती है। वर्ष 2014 कम बारिश वाला वर्ष था लेकिन कुल कमी इतनी ज्यादा नहीं थी कि उसका प्रभाव व्यापक तौर पर पड़ सके। गत वर्ष बारिश में काफी कमी के बावजूद खाद्यान्न कीमतों में लगातार गिरावट का दौर बना रहा।
इससे यही संकेत मिलता है कि कुछ अन्य कारक भी समांतर कार्य करते हैं। अगर शुरुआती अनुमान सही साबित हुए तो भी बारिश में कमी खाद्य महंगाई पर बहुत अधिक बुरा असर नहीं डालेगी। लेकिन जैसा कि पर्यवेक्षक लगातार कह रहे हैं असली प्रभाव बारिश का समय और उसका भौगोलिक दायरा असल निर्धारक तत्त्व होंगे। अभी इस संबंध में कोई पूर्वानुमान नहीं है। लेकिन इसका संबंध तो है ही।
देश के पश्चिमी और पूर्वी हिस्सों में सामान्य बारिश इतनी हो जाती है कि कृषि कार्यों एवं सामान्य पैदावार को अंजाम दिया जा सके। अगर बारिश में मामूली कमी हुई तो दिक्कत की कोई बात नहीं। देश के उत्तरी इलाके में बर्फ के पिघलने और सिंचाई व्यवस्था की मदद से बारिश की कमी दूर हो जाती है। देश के मध्यवर्ती इलाके में सामान्य बारिश से उन तमाम गतिविधियों की भरपाई हो जाती है जो खराब मॉनसून से सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। कमजोर मॉनसून दालों, तिलहन, कपास और चारे के लिए जोखिम पैदा करता है। सामान्य से कम बारिश दालों की कीमतों को प्रभावित करती है और हम वर्ष 2009 में ऐसा देख चुके हैं। चारे की कमी सीधे-सीधे दूध की कीमतों पर असर डालती है।
समय की बात करें तो गत वर्ष हमने देखा कि जुलाई के मध्य अथवा अंत तक बारिश की कमी ने अनाज की बुआई को प्रभावित किया। अगर दूसरी छमाही में बारिश की स्थिति सुधर भी जाती है तो भी यह अल्प चक्र वाली फसलों के लिए ही मददगार होती है, मसलन सब्जियां। सब्जियों की कीमतों का पिछले सालों में मुद्रास्फीति पर काफी दबाव रहा है लेकिन गत कुछ महीनों में उनमें काफी कमी देखने को मिली है। संक्षेप में कहा जाए तो अभी खाद्यान्न उत्पादन के आंकड़ों में किसी भी तरह का संशोधन करना बहुत जल्दबाजी होगी। अगर 93 फीसदी बारिश का अनुमान लगाया गया है तो वृहद आर्थिक अनुमान सामान्य बारिश को ध्यान में रखकर ही लगाए जाने चाहिए।
तीसरे लिंकेज का संबंध ग्रामीण मांग पर कामजोर बारिश के असर से है। ग्रामीण भारत में मेहनताने में स्थिरता और सामान्य से कम उत्पादन के चलते खपत में कमी के संकेत सामने आए हैं। बहरहाल, भौगोलिक दशा बहुत मायने रखती है। हमें यह याद रखना होगा कि देश के कम प्रभावी हिस्से वही हैं जहां कृषि वर्षा पर अधिक निर्भर है। अन्य हिस्सों में मॉनसून से निपटने के लिए पहले से इंतजाम रखे जाते हैं। खर्च के नजरिये से देखा जाए तो अगर देश के पहले से ही कम खर्च वाले इलाकों की खरीद क्षमता में और अधिक कमी होती है तो इसका अर्थ यह होगा कि खपत पूरी तरह बंद हो जाएगी। यह बात ग्रामीण क्षेत्रों को बुरी तरह प्रभावित करेगी। हां, कुछ अन्य कारक भी हो सकते हैं लेकिन सामान्य से थोड़ा भी कमजोर मॉनसून असरदार साबित होगा।
यहां पर चौथे लिंकेज का जिक्र आता है। यह वृहद अर्थव्यवस्था तथा अन्य बातों से ताल्लुक रखता है। इसका संबंध मानवीय निराशा से है जो कमजोर बारिश से उपजती है। वह भी देश के उन हिस्सों में जहां बचाव का कोई उपाय नहीं होता। अगर मुद्रास्फीति और मांग अपेक्षाकृत कमजोर बारिश पर कम असर डालें तो भी आम परिवारों के दैनिक जीवन पर इसका नाटकीय प्रभाव देखने को मिल सकता है। इस लिंकेज का सबसे अहम नीतिगत प्रभाव है सुरक्षा ढांचे की आवश्यकता।
वर्ष 2002 में जब मॉनसून खराब हुआ था तब राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम गति पकड़ रहा था और प्रभावित इलाकों में सबसे अहम काम हो रहा था। मुझे याद है कि नवंबर 2002 में मैं राजस्थान में राष्टï्रीय राजमार्ग क्रमांक 8 से गुजर रहा था। वह सड़क चार लेन की थी और मैं वहां काम करने वाले लोगों की संख्या देखकर हैरान था। मेरा मानना है कि ग्रामीण क्षेत्रों में चलने वाले विनिर्माण के काम सामाजिक सुरक्षा का अनिवार्य हिस्सा हैं। हालांकि यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या निर्माण किया जा रहा है?
वर्ष 2009 के दौरान महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) चल रही थी। लीकेज तथा अन्य रूप में विभिन्न राज्यों से इसकी नाकामियों के किस्से भी हमारे सामने आ रहे थे। हालंाकि ये बातें योजना की कमियां दूर करने और नया डिजाइन तैयार करने के लिहाज से आवश्यक हैं, वहीं बैंक खातों में प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण तथा विभिन्न कार्यों को पहले से चल रही ग्रामीण विनिर्माण योजनाओं से जोडऩा आदि उत्तर विचार थे। किसी भी सुरक्षा खाके का सबसे बड़ा परीक्षण यही है कि इसने संकट के वक्त निराशा दूर करने में कितनी मदद की। मुझे लगता है कि एनएचडीपी और मनरेगा के बीच कहीं एक अधिक व्यवहार्य हल तलाश किया जा सकता है।
ऐसे में अर्थव्यवस्था को मॉनसून से सुरक्षित करना हमारा नीतिगत लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए कृषि की जीडीपी में हिस्सेदारी जिम्मेदार नहीं है क्योंकि वह बमुश्किल 15 फीसदी है। बल्कि ऐसा उन लोगों के लिए किया जाना चाहिए जो मॉनसून की नाकामी को लेकर कुछ ज्यादा ही प्रभावित रहते हैं। अपेक्षाकृत प्रभावी रवैये में कई बातें शामिल हो सकती हैं। उनमें से एक अहम बात है विश्वसनीय सुरक्षा ढांचा तैयार करना। इस समस्या को हल करने का सबसे बेहतर तरीका यह है कि सुरक्षा ढांचे को ग्रामीण क्षेत्र के निवेश से जोड़ दिया जाए।
लेखक ब्रुकिंग्स इंडिया के शोध निदेशक और रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर हैं। लेख में प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।

वापसी की शर्तों से झांकती साजिश (जवाहरलाल कौल)

विस्थापितों को वापस कश्मीर घाटी में बसाने के प्रश्न पर अक्सर घाटी के कुछ अलगाववादी तत्व हायतौबा मचाते रहते हैं। सक्रिय राजनीतिक दल भी कभी खुलकर तो कभी दबी जुबान से अलगाववादियों का ही समर्थन करते दिखाई देते हैं। आखिर कश्मीरी पंडितों की वापसी से ऐसा क्या बदलने वाला है कि अलगाववादी गुट इसे रोकने में एकजुट दिखते हैं? कश्मीरी पंडितों को भारत के बहुसंख्यक समाज का प्रतिनिधि माना जाता है और अलगाववादी नहीं चाहते कि घाटी में भी पंडितों के प्रभाव और राष्ट्रवादी तत्वों की उपस्थिति से भारत विरोधी राजनीति में व्यवधान पड़े। विस्थापित किसी भी हालत में वापस न जा पाएं, यही उनकी समरनीति का एक मात्र लक्ष्य है और इसे पाकिस्तान सरकार का भी पूरा समर्थन हासिल है। इस समरनीति के तीन तत्व हैं।एक, विस्थापितों की वापसी का सीधे-सीधे विरोध न हो अपितु उनकी वापसी का स्वागत ही किया जाए, लेकिन उनको एक समुदाय या समाज के रूप में बसाने की हर कोशिश को नाकाम कर दिया जाए। कश्मीरी समाज समूह में रहेगा तो शिक्षा, चिकित्सा, उद्योग और उच्च तकनीक के क्षेत्र में अपने योगदान से व्यापक कश्मीरी समाज को प्रभावित कर सकता है। वे अपने प्राचीन इतिहास और अपनी विशिष्ट संस्कृति को फिर से सक्रिय कर सकते हैं और कथित कश्मीरियत के ऐसे नए आयाम खोल सकते हैं जिनसे जम्मू-कश्मीर और वहां के व्यापक समाज का वह रूप भी दुनिया के सामने आएगा जिसे आज अलगाववादी ही नहीं, भारत-पाकिस्तान टकराव का व्यापार करने वाले दल भी छिपाना चाहते हैं।दो, विस्थापितों को बताया जाए कि वे अपने-अपने पुराने घरों में ही वापस जाएं, जहां से वे भागे थे ताकि अपने पुराने पड़ोस में सहअस्तित्व के साथ रह सकें। इस बात को सही संदर्भ में समझने के लिए हमें यह जान लेना चाहिए कि कश्मीरी पंडित कहां रहते थे। यूं तो पंडित घाटी के सभी क्षेत्रों में थोड़ी-बहुत संख्या में रहते थे, लेकिन कुछ कस्बों को छोड़ कर अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी संख्या नगण्य ही थी। चार-पांच घरों से लेकर पंद्रह-बीस घरों तक। अधिकतर पंडित कुछ चुने हुए कस्बों और श्रीनगर में ही रहते थे। बारामुला, अनंतनाग, सोपोर, बांडीपुरा, त्राल, बडगाम वे प्रमुख कस्बे थे जहां उनकी संख्या सौ परिवारों से लेकर तीन-चार सौ परिवारों तक हुआ करती थी। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात है कि घाटी में लगभग सत्तर प्रतिशत कश्मीरी पंडित राजधानी श्रीनगर में ही रहते थे। श्रीनगर में कश्मीरी पंडित अधिकतर हिंदुओं के लोकप्रिय मंदिर गणपतयार-गणपति का घाट से हब्बा कदल के नीचे बाना मोहल्ला तक और उसके ही समानांतर नदी पार रघुनाथ मंदिर से टांकी पुरा तक के इलाके में ही सिमटे थे। यानी श्रीनगर के कुल तीन वर्ग किलोमीटर की परिधि में ही श्रीनगर के सत्तर प्रतिशत कश्मीरी पंडितों के घर थे। यह क्षेत्र राजधानी का पांचवां भाग ही था। आजादी से पहले एक ही बड़ी पुरानी बस्ती इस केंद्र से हटकर थी- रैनावारी, जो मुख्य नगर का एक उपनगर जैसा ही था। शेष दो-तीन बस्तियां- राजबाग, इंदिरा नगर आदि तो अपेक्षाकृत आजादी के बाद ही विकसित हुई। थोड़े समय से ही आधुनिक जीवन शैली के प्रभाव और कुछ स्थानाभाव के कारण पंडितों ने अपने मुख्य नाभिक से हट कर किंचित बाहर जाने का साहस करना आरंभ किया था।अब अगर विस्थापितों को अपने ही पुराने घरों में जाने के लिए मजबूर कर दिया गया और वे किसी कारण इस प्रस्ताव को मान गए तो फिर उन पुराने घरों की खोज आरंभ होगी। आतंकवाद के तुरंत बाद आतंकवादियों की शह पर कश्मीरी पंडितों के मकान योजनागत रूप से जला दिए गए। बहुत से जलने से सिर्फ इसलिए बच गए क्योंकि इन मोहल्लों में भी पंडितों के बहुत से घर मुसलमान पड़ोसियों के घरों से सटे हुए थे। एक के जलने से दूसरे के भी जलने का खतरा था। जो मकान बच गए, उनमें से भी अधिकतर अगले तीन-चार सालों में ही बिक गए। विस्थापति सब कुछ छोड़ कर आए थे। उन्हें दिल्ली और देश के अनेक नगरों में नई गृहस्थी बसानी थी, बच्चों को पढ़ाना था, बेटियों की शादी करनी थी या यहीं कोई फ्लैट खरीदना था। पैसा जुटाने के लिए एक ही स्रेत था- कश्मीर में छोड़े हुए अपने घर। खरीदार शरणार्थी शिविरों में या किराए के मकान में ही आ पहुंचे और औने-पौने दाम में सौदा कर लौट गए। विस्थापित निराश और बेबस महसूस कर रहे थे। उन्हें उम्मीद ही नहीं थी कि वे कभी वापस जा पाएंगे। इसलिए जिसने जो दिया, लेकर घर बेच दिए गए। आज थोड़े ही घर खड़े हैं जो नहीं जले हैं, किसी और नए मालिकों के कब्जे में नहीं हैं। ऐसा नहीं कि अलगाववादी यह बात नहीं जानते और न ही राजनीतिक दल इससे अनभिज्ञ हैं। जब पंडितों ने उन मोहल्लों को छोड़ा तो पड़ोसी अलग तरह केेलोग थे। उनके साथ वे पुश्तों से रह रहे थे। पर आज जब जाएंगे तो उनके पोते वहां होंगे, जिनकी विस्थापितों से कोई जान-पहचान नहीं, कोई लगाव नहीं और जिनमें से बहुतों पर आतंकवाद और अंतरराष्ट्रीय इस्लामी आंदोलनों का असर है और जिनमें आतंकवादी गुटों की पैठ है। दरअसल वापस बुलाने वाले यह सब जानते हैं कि विस्थापित ऐसे माहौल में अव्वल तो आएंगे ही नहीं और अगर किसी गलतफहमी आ भी गए तो रह नहीं पाएंगे। ऐसे में अपने ही घरों में बसाने की यह शर्त कश्मीरी पंडितों को उन्हें वापस आने के रास्ते बंद करने के लिए ही है।तीन, यही कारण है कि विस्थापितों के कई गुट मानते हैं कि उन्हें एक नगर या उपनगर में बसा कर एक साथ रहने का मौका दिया जाए। इससे उनकी सांस्कृतिक पहचान बनी रहेगी, राज्य के विकास में उनकी आर्थिक गतिविधियां संभव होंगी और उनके लोकतांत्रिक अधिकार केवल कागज पर ही नहीं रहेंगे।अलगाववादियों की बात छोड़ दें तो भी प्रमुख राजनीतिक दल जैसे नेशनल कांफ्रेंस और भाजपा के साथ सरकार चला रही पीडीपी भी इस प्रस्ताव को नहीं मानते, क्योंकि उनके अनुसार कश्मीरी पंडितों को अलग इलाके या नगर में बसाने से बहुसंख्यक समुदाय से उनके अलगाव का भाव पैदा होगा और इससे सांप्रदायिक शांति को खतरा होगा। वे इस तरह उनके पुनर्वास को विस्थापितों के एक गुट पनुन कश्मीर के अलग राज्य के प्रस्ताव का ही रूप मानते हैं। एक बात तो तय है कि विस्थापित समाज एकदम मुस्लिम रहित नगर या क्षेत्र में रह ही नहीं सकता है। यह शिक्षित समाज है जो परंपरागत रूप से विभिन्न प्रकार की नौकरियों पर ही निर्भर रहा है। किसान, मजदूर, कारीगर के पेशों पर तो कश्मीर में कश्मीरी मुसलमान का ही एकाधिकार है। स्थानीय मुस्लिम समाज की सहायता के बिना पंडित समाज का दैनिक जीवनयापन नहीं हो पाएगा, इस बात को कश्मीरी पंडितों से बेहतर कौन जानता है? इसलिए जब अलग नगर की बात की जाती है तो उसका मतलब यह नहीं होता कि वहां जो पहले से बस रहे हैं वे हटाए जाएंगे, बल्कि उनके साथ मिलकर ही नगर बनेगा। अगर हब्बाकदल और गनपतयार, बाना मोहल्ला या रैनावारी की खुली नालियों की बगल में तंग और अंधेरी गलियों में रहने वाले कश्मीरी पंडितों से राजनीतिज्ञों को डर नहीं लगता था तो वे नगर के बाहर बेहतर तरीके से अधिक वैज्ञानिक तौर पर आयोजित स्थानीय मुसलमानों के साथ रहने वाले पंडितों से क्यों आतंकित हैं वे? कहीं यह मोदी सरकार के सामने भी वैसी ही मजबूरियां पैदा करने की रणनीति तो नहीं जैसी मजबूरियों ने पहले की सरकारों के हाथ बांध लिए थे?

हिमालयी क्षेत्र के लिए जरूरी राष्ट्रीय नीति (भारत डोगरा)

र्वतीय क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा कम होता है। इस कारण वहां के लोगों को राजनीति में प्रतिनिधित्व मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा कम मिलता है। लेकिन इस मामले में ध्यान रखना जरूरी है कि पर्वतीय क्षेत्रों के पर्यावरण का सघन आबादी वाले मैदानी क्षेत्रों पर बहुत महत्वपूर्ण असर पड़ता है। पर्वतीय क्षेत्रों के परिवेश की रक्षा वहां के लोगों की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही, इसका अधिक व्यापक महत्व भी है। अत: केवल जन-घनत्व कम होने की दृष्टि से पर्वतीय क्षेत्रों को कम महत्व देने की गलती कभी नहीं होनी चाहिए।यह सिद्धांत जितना सामान्य पर्वतीय क्षेत्रों पर लागू होता है, उससे कहीं अधिक हिमालय क्षेत्रों पर लागू होता है। हिमालयी पर्वत श्रृंखला के विस्तार, ऊंचाई और विशिष्ट भौगोलिक स्थितियों के कारण हिमालय क्षेत्र की गतिविधियों का दक्षिण एशिया के बड़े क्षेत्र के लिए अत्यधिक महत्व है। हिमालय में भी कहीं-कहीं बहुत सघन आबादी है जो दुनिया के कई पर्वतीय क्षेत्रों से अधिक है। मैदानी क्षेत्रों से कम जन-घनत्व के बावजूद इसका दुनिया के सबसे सघन आबादी के एक बड़े क्षेत्र के लिए अपार महत्व है। विश्व में बढ़ते जल संकट के बावजूद ध्यान रखना जरूरी है कि हिमालय में ग्लेशियरों, नदियों, वनों और झीलों का बहुत बड़ा जल-भंडार है। इन्हें सावधानी से संजो कर रखा जाए तो कल-कल बहते झरनों व छोटी-बड़ी नदियों का पानी करोड़ों लोगों की प्यास बुझाता रहेगा। पर यदि इनका दोहन-शोषण अनुचित ढंग से किया गया तो यह जल-भंडार रौद्र रूप लेकर बाढ़ की विनाशलीला को विकट बनाएगा।हिमालय क्षेत्र का जन-जीवन यहां के वनों से नजदीकी तौर पर जुड़ा है। वन अच्छी हालत में होते हैं तो लोगों की टिकाऊ आजीविका का बड़ा आधार इससे प्राप्त होता है। कई आपदाओं से एक सीमा तक रक्षा भी होती है। पर साथ में पूरे देश की बहुपक्षीय भलाई के लिए भी यहां के वनों का बहुत महत्व है। अत: हिमालय के वनों को राष्ट्रीय धरोहर मानकर इनकी रक्षा के लिए केंद्र सरकार को हिमालय क्षेत्र की राज्य सरकारों को विशेष संसाधन उपलब्ध करवाने चाहिए। हिमालय की कृषि का भी राष्ट्रीय स्तर पर विशेष महत्व है। एक छोटे क्षेत्र या एक पंचायत में तरह-तरह की ऊंचाई पर खेत होने के कारण खेती व बागवानी की जैव-विविधता की रक्षा के लिए हिमालय क्षेत्र खासतौर पर जाना जाता है। इन विशिष्ट स्थितियों के महत्व को देखते हुए हिमालय में जैव-विविधता की रक्षा को उच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए जिसके लिए केंद्र सरकार को विशेष बजट उपलब्ध कराना चाहिए और इसके माध्यम से वन व खेतों की जैव-विविधता की रक्षा में हिमालय के लाखों गांववासियों- विशेषकर महिलाओं व युवाओं को रचनात्मक रोजगार मिलने चाहिए। दुर्भाग्यवश नीति-निर्धारकों ने जब हिमालय के वनों के महत्व को पहचाना है तब भी वन व जल के रिश्तों को वे ठीक से नहीं समझ पाए हैं। उन्होंने वनों व वन्य जीवों की रक्षा के नाम पर ऐसी नीतियां अपनाईं जिससे हिमालयी क्षेत्र की ग्रामीण आबादी की आजीविका मजबूत होने के स्थान पर छिनने लगी व कई जगहों से वे विस्थापित भी होने लगे। पार्को व अभ्यारण्यों व टाइगर रिजर्व आदि के नाम पर प्राय: ऐसी ही जन-विरोधी नीतियां अपनाई गई हैं। इनके स्थान पर ऐसी जन-पक्षीय नीतियां बन सकती हैं जिनसे स्थानीय लोगों को वन व वन्य जीवों की रक्षा में रोजगार मिल सकते हैं। इस कार्य को व खेती में जैव-विविधता की रक्षा के कार्य को स्थानीय लोग बाहरी विशेषज्ञों की अपेक्षा बेहतर ढंग से कर सकते हैं।इसी तरह जल-विद्युत के क्षेत्र में हाल के वर्षो में विस्थापन वाली व ग्रामीण क्षेत्रों के पर्यावरण को क्षतिग्रस्त करने वाली नीतियां अपनाई गई हैं। इसके स्थान पर गांववासियों की भागेदारी से विकेंद्रित अक्षय ऊर्जा के विकास नीति अपनायी जानी चाहिए। इस संबंध में पर्याप्त जानकारियां गांववासियों को उपलब्ध करवानी चाहिए ताकि गांववासी स्वयं अपने गांव के लिए विकेंद्रित अक्षय ऊर्जा की योजना तैयार कर सकें। ऐसी योजनाओं में विभिन्न गांवों की विशिष्ट भौगोलिक विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए वहां लघु पनबिजली, घराट, मंगल टरबाईन, पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा, बायो गैस व बायोमास की समग्र योजना बनाई जानी चाहिए। इस तरह गांव ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर बन सकते हैं तथा अनेक कुटीर उद्योगों के लिए भी नियमित ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं। विभिन्न तरह के परंपरागत व नए कुटीर उद्योगों तथा सेवा क्षेत्र के रोजगारों को आगे बढ़ाना चाहिए। शिक्षा व पर्यटन क्षेत्र में विकास की बड़ी संभावनाएं यहां हैं पर यह विकास पर्यावरण रक्षानुकूल होना चाहिए।इस तरह के विकास का एक मुख्य लाभ यह है कि गांववासी पर्यावरण के विनाश व विस्थापन की संभावनाओं को दूर रखते हुए ऐसी योजना बना सकते हैं जिससे गंभीर प्रतिकूल परिणामों के बिना ही विकास की जन-पक्षीय सही राह निकल सके। जल-संसधानों का ऐसा विकास हो तो पन-बिजली की संभावनाओं को इस तरह प्राप्त किया जाएगा जिससे नदियों, खेतों व वनों की कोई क्षति न हो। जहां ऐसी नीतियां स्थानीय लोगों के लिए लाभप्रद हैं, वहीं इससे गंगा-यमुना व ब्रrापुत्र जैसी बड़ी सदानीरा नदियों की रक्षा में भी सहायता मिलेगी जो एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय उद््देश्य है। दूसरी ओर नदियों की रक्षा के प्रयास हिमालय क्षेत्र में उपेक्षित हुए तो देश के अन्य बड़े भाग में भी नदियों की रक्षा करना या बाढ़ की समस्या को नियंत्रित करना बहुत कठिन होगा। हिमालय नीति का आधार होना चाहिए टिकाऊ आजीविका की रक्षा व पर्यावरण की रक्षा। इसके अतिरिक्त महिलाओं के हितों की रक्षा, नशे की समस्या को कम करने व समाज-सुधार के अन्य मुद्दों को समुचित महत्व मिलना चाहिए। इस तरह की राष्ट्रीय नीति बनाने के साथ हिमालय क्षेत्र के पड़ोसी देशों के साथ ऐसे जन-हितकारी कायरे में आपसी सहयोग के अवसर भी बढ़ाये जाने चाहिए। विषमता व निर्धनता को कम करना, सब लोगों की बुनियादी जरूरतों को टिकाऊ तौर पर पूरा करना ऐसे उद््देश्य हैं जो सभी क्षेत्रों की तरह हिमालय क्षेत्र में भी उच्च प्राथमिकता के उद्देश्य हैं। जरूरत इस बात की है कि इन उद्देश्यों को हिमालय क्षेत्र की भौगोलिक, पर्यावरणीय व सामाजिक स्थितियों के संदर्भ में ठीक से समझा जाए ताकि इन्हें प्राप्त करने में व्यापक स्तर पर जन-भागीदारी भी प्राप्त हो सके। हिमालय क्षेत्र में मानवाधिकारों की रक्षा करना व शान्ति तथा सद्भावना के सतत प्रयास बेहद जरूरी हैं!

धर्म का विज्ञान बताने वाले बुद्ध (डॉ. कुसुम कुमारी) (बौद्ध दार्शनिक असिस्टेंट डीन, ह्यूमेनिटीज, मगध विश्वविद्यालय, बोधगया)

आज युग की मांग एक ऐसे सकारात्मक आदर्श की है जो मानवतावादी, सांसारिक और अध्यात्मिक प्रवृत्तियों में तालमेल स्थापित करता हो। राज कुमार सिद्धार्थ से तथागत भगवान बुद्ध तक की यात्रा, इसी समन्वय की यात्रा है। 2600 साल पहले बुद्ध ने धर्म को पारलौकिक आदर्श मानकर जीवनशैली के रूप में अपनाने की सलाह दी। प्राचीन समय में प्रवृत्तियों के निषेध से आदर्श (ईश्वर) की ओर बढ़ने की परिकल्पना थी। यहां आदर्श, यथार्थ से बहुत ही ऊंचा था। आज 21वीं शताब्दी में मानव ने इतने प्रकार के वैज्ञानिक और तकनीकी उपकरण हासिल कर लिए हैं कि सांसारिक प्रवृत्तियां प्रबल हो गई हैं। ई-पूजा की प्रवृत्ति चल पड़ी है। भगवान तथा धर्मग्रंथ टीवी स्क्रीन पर हैं। बुद्ध ने कहा था, 'मनुष्य के मस्तिष्क में सबकुछ निहित है।' इसीलिए बुद्धि प्रधान बौद्ध दर्शन नए युग में आकर्षण का केंद्र बन गया है।
मौजूदा हालत में व्यक्ति से विश्व तक की स्थिति के आईने में बौद्ध विचारधारा की व्यावहारिक पड़ताल करें तो स्पष्ट होता है कि जिजीविषा, भौतिक सुखों की कामना, नैतिकताविहीन समाज की समस्या। राष्ट्र और विश्व के स्तर पर युद्धोन्मत्त प्रवृत्तियां, आर्थिक दोहन और शोषण की वृत्तियां सबका शमन निराकरण बुद्ध के निर्देशों के पालन से संभव है। सामान्यतः उत्पत्ति स्रोत से धर्म की दो श्रेणियां हैं। पहली, ईश्वरीय प्रेरणा आधारित और दूसरी, वैसे धर्म जो ईश्वरीय प्रेरणा के स्थान पर जीवन के मूलभूत सत्य के आधार और आश्रय को अपनाते हैं। बौद्ध धर्म की गणना दूसरी कोटि में होनी चाहिए, जो जीवन के बहुविध प्रयोगों और अनुभवों पर आधारित है। बुद्ध ने अपने अनुयायियों को यही बताया कि बुद्धत्व की प्राप्ति उनके अनुभव, प्रयोग और अनुसंधान का ही प्रतिफल है।
बुद्ध ने धर्म को अंधविश्वास या परंपरा के रूप में अपनाकर एक मार्ग के रूप में अपनाया। जो सिद्धांत प्रतिपादित किए वे इतने ठोस हैं कि निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए उनके दुरुपयोग की सभी संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं। यही कारण है कि शताब्दियों बाद भी बुद्ध की शिक्षाएं समसामयिक लोकप्रिय होने के साथ जीवन की गुत्थियों को सुलझाने में पूर्णतः समर्थ है। ग्रंथों तक सिमटकर, जीवन के वास्तविक कार्यक्षेत्र से जुड़े बुद्ध के उपदेश जनभाषा (पालि) में थे। किसी भी धर्म में जीवन के मूलभूत सिद्धांत इतनी सरलता और सुगमता से जनभाषा में प्रतिपादित नहीं किए गए। अपने मूल सिद्धांत को बुद्ध ने चार आर्यसत्य- दुःख, दुःख का कारण, दुःख निरोध तथा दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपदा, के रूप में सामने रखा। बौद्ध चिंतन में दुःख एवं दुःख से निवृत्ति को ही प्रधान स्थान दिया गया है। दुःख से निवृत्ति का मार्ग भी बड़ा ही सुस्पष्ट है। बुद्ध के अनुसार अगर इस जगत में सबकुछ इच्छानुकूल होता तो किसी भी धर्म को मानने की आवश्यकता ही नहीं होती। मनुष्य चार्वाक के आदर्शों का पालन करता। पर दुःख संसार में विद्यमान है- यह सत्य है।
जीवन की सबसे बड़ी समस्या (महाव्याधि) भूख है। इसके उमड़ते समुद्र में हर कोई लगातार युद्धरत है। किंतु दैहिक आवश्यकता ऐश्वर्य की आकांक्षा अन्य दायरों की ओर खींच ले जाती है। फलतः कामनाओं का कहीं अंत नहीं होता। इस मरणांतक संग्राम का मूल कारण है तृष्णा। बुद्ध ने इसे 'तण्हा' कहा है। यही अत्याचार का मूल स्रोत है। धन-वैभव के लिए तृष्णा, क्रोध, घृणा, द्रोह, शत्रुता, पाखंड आदि का मूल आधार है। महान व्यक्तियों और राष्ट्रों का विनाशक तत्व है। यहीं से अशांति का सूत्रपात होता है। मानव के संपूर्ण दुःखों का कारण मानव में ही अंतर्निहित है। बुद्ध के अनुसार इसका निवारण मनुष्य के वश में है, लेकिन अज्ञानता के कारण ही मानव इसे नहीं स्वीकारता। यदि कोई अपने अंतर्मन को टटोले, तो पाएगा कि सारे दुःखों का कारण 'तण्हा' ही है। बुद्ध का जीवन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। दुःख का निवारण प्रार्थना, किसी दैवी सिद्धांत में विश्वास या किसी बाहरी शक्ति के द्वारा संभव नहीं है। इसे आत्मानुभूति और आत्मसिद्धि से ही नष्ट किया जा सकता है। यह असंभव नहीं है, कठिन भले ही हो। बुद्ध ने कहा है कि मानव अने को खास तरीके से शिक्षित करे तो 'तण्हा' से मुक्ति पा सकता है। यहीं, बौद्ध धर्म अन्य धर्मों से अधिक आशावादी प्रतीत होता है। जीवन के प्रति बौद्ध दृष्टि एक प्रकार की शिक्षा है। बुद्ध ने इसे हासिल करने के लिए सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक आजीव, सम्यक वाक्, सम्यक स्मृति और सम्यक व्यायाम को आवश्यक बताया।
सम्यक् दृष्टि के अनुरूप व्यवहार किया जाय तो धार्मिक अंधविश्वास के नाम पर उठे विवादों से पूर्णतः छुटकारा मिल सकता है। बौद्ध मत के अनुसार शस्त्र नहीं, ज्ञान से मिथ्या धारणाओं का निवारण श्रेयष्कर है। सम्राट अशोक का उदाहरण सामने है। सम्यक् वाक् यानी सत्य भाषण तथा दूसरे के अपमान, कटु वचन और व्यर्थ प्रलाप से दूर रहना। सम्यक् कर्मान्त यानी हिंसा, ठगी और मद्यपान दूर रहना। सम्यक् आजीव यानी सद्व्यवहार से बुराइयों का मूलोच्छेदन। सम्यक् स्मृति यानी संसार की क्षणिकता को याद रखना और सम्यक् व्यायाम यानी बुरी आदतें छोड़ने का सच्चे मन से प्रयास। इनके माध्यम से बुद्ध यह निर्देश देना चाहते हैं कि मन ही मानव के प्रत्येक विचार का आश्रय स्थल है। इसकी शुद्धि से ही मानव के संपूर्ण क्रियाकलापों की शुद्धि हो जाती है। सीमित ज्ञान के कारण ही जाति और धर्म के भेद अस्तित्व में हैं।
बुद्ध ने पारलौकिक प्रश्नों की बजाय सांसारिक बातों पर ध्यान केंद्रित रखा। ईश्वर है अथवा नहीं? आत्मा नित्य है या अनित्य? मृत्यु के पश्चात जीवन का क्या होता है? मरणोपरांत जीवन का अस्तित्व रहता है या नहीं? बुद्ध ने इन प्रश्नों को अनुपयोगी बताया। बुद्ध के अनुसार जिस व्यक्ति को विष से बुझा हुआ बाण लगा हो उसे अपने जीवन की रक्षा के लिए उपचार करना चाहिए, कि बाण की आकृति, बाण मारने वाले व्यक्ति की जाति-गौत्र आदि पर विचार करना चाहिए। जो दार्शनिक तथ्यों के शोध में पड़ेगा, वह आध्यात्म मार्ग की ओर नहीं जा सकता। बुद्ध ने पाखंड और आडंबर से मानवता को मुक्त किया। बुद्ध ही भारत में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने जातिभेद की विषमता और अस्पृश्यता के विरुद्ध प्रबल अभियान शुरू किया। ईसा पूर्व छठी शताब्दी के तत्कालीन समाज में एक बड़े समूह को 'शूद्र' बताकर मौलिक अधिकार तक से वंचित कर दिया गया था। बुद्ध ने घोषणा की कि व्यक्ति के अंदर ब्राह्मणत्व की उपत्ति कर्म से होती है, कि जन्म से। इसीलिए बुद्ध के जीवन मार्ग में आत्मसंयम एवं आत्म साक्षात्कार पर प्रचुर बल दिया गया है। उनका निर्देश है- अन्त दीपा बिहरथ, अवसरणा, अनसरणा, पय धम्मा संखारा अष्पमादेन संपादेथ', अर्थात् स्वयं के लिए प्रकाश बनो। स्वयं के लिए शरण बनो। स्वयं से परे कोई शरण नहीं। सभी पदार्थ अस्थायी है। निर्वाण के लिए तत्परता से यत्न करो।
बुद्ध ने बताया कि बुद्धत्व की प्राप्ति उनके अनुभव, प्रयोग और अनुसंधान का फल है। उनके सिद्धांत इतने ठोस हैं कि निहित स्वार्थ पूर्ति के लिए उनके दुरुपयोग की आशंका नहीं रहती।
दुःख का निवारण प्रार्थना, किसी दैवी सिद्धांत में विश्वास या किसी बाहरी शक्ति के द्वारा संभव नहीं है। इसे आत्मानुभूति से ही नष्ट किया जा सकता है। यह असंभव नहीं है, कठिन भले ही हो। यहीं, बौद्ध धर्म अन्य धर्मों से अधिक आशावादी प्रतीत होता है।
बुद्ध ने पारलौकिक प्रश्नों की बजाय सांसारिक बातों पर ध्यान केंद्रित रखा। ईश्वर है अथवा नहीं? आत्मा नित्य है या अनित्य? मृत्यु के पश्चात जीवन का क्या होता है? मरणोपरांत जीवन का अस्तित्व रहता है या नहीं? उन्होंने इन प्रश्नों को अनुपयोगी बताया।

पदवी बांटने वालों के बाजार में घमासान (अरुण तिवारी)

सांगठनिक स्तर पर देखें तो पर्यावरण की चिंता करना पर्यावरणीय संगठनों का काम है और शिक्षा की चिंता करना शैक्षिक संगठनों का। किंतु क्या यह पढ़-सुनकर ताज्जुब नहीं होता कि भारत में शैक्षिक संस्थानों की रैंकिंग का काम राजनीतिक पत्रिकाओं ने संभाल लिया है और ऐसे-ऐसे संगठन औद्योगिक रैंकिंग करते देखे गये हैं जिन्होंने खुद कभी उद्योग नहीं चलाये। इसी तरह की उलटबांसी पर्यावरण के क्षेत्र में भी दिखाई दे रही है। पिछले दो दशक से कई अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संगठन, दुनिया भर की पर्यावरण रेटिंग में शिद्दत से जुटे दिखाई दे रहे हैं। और आम जन हकीकत से रू-ब-रू हुए बिना, रैंकिंग के आधार पर भविष्य के निर्णय करने लगे हैं।निर्थक सी लगती इन उलटबांसियों का मकसद एक वर्ग द्वारा येन-केन-प्रकारेण सिर्फ पैसा कमाना है। रैंकिंग देने वाले भारतीय संगठनों के खेल किसी से छिपे नहीं है। अंतरराष्ट्रीय संगठन कुछ देशों की सरकारों, बहुदेशीय कंपनियों और न्यासियों के गठजोड़ हैं जो दूसरे देशों की पानी-हवा-मिट्टी की परवाह किए बगैर परियोजनाओं को कर्ज और सलाह मुहैया कराते हैं, निवेश करते हैं। ऐसी परियोजनाओं के जरिए पर्यावरण के सत्यानाश के कई उदाहरण भारत में हैं। उन्नत बीज, खरपतवार, कीटनाशक, उर्वरक और ‘‘पैक्ड फूड’ के जरिए भारत की खेती, खाना और पानी इनके नये शिकार हैं। बीजों व उर्वरकों में मिलकर खरपतवार की ऐसी खेप आ रही है कि किसान हाल-परेशान हैं। उन्नत बीज वाली फसलें खासकर सब्जियों में बीमारियों का प्रकोप इतना है कि न चाहते हुए भी किसान कीटनाशक की शरण में जाने को मजबूर है। भारत की जलविद्युत, नहरी और शहरी जलापूर्ति परियोजनाओं में अंतरराष्ट्रीय संगठनों की दिलचस्पी जगजाहिर है। अपने पर्यावरण पार्टनरों द्वारा मचाये स्वच्छता, प्रदूषण मुक्ति और कुपोषण के हो-हल्ले के जरिए भी अनेक अंतरराष्ट्रीय संगठन आर ओ, शौचालय, मलशोधन संयंत्र, दवाइयां और टीके बेचते हैं। ये कहते हैं कि कुपोषण मुक्ति के सारे नुस्खे इनके पास हैं। ये ‘‘हैंड वाश डे’ के जरिए ‘‘ब्रेन वाश’ का काम करते हैं। ये मामूली कीमत वाले साधारण नमक को आयोडाइज्ड का नाम दे महंगे भाव बिकवाते हैं। हमारे कुरता-धोती व सलवार-साड़ी जैसे परिधानों को पिछड़ा बता पुराने कपड़ों की खेप हमारे जैसे मुल्क में खपाते हैं। आज पुनर्पयोग के नाम पर बड़ी मात्रा में इलेक्ट्रानिक, प्लास्टिक व दूसरा कचरा विदेशों से भारत आ रहा है। विकसित देश कचरा फैलाने वाले अपने उद्योगों को गरीब देशों को भेज रहे हैं। पहले किसी देश को कचराघर में तब्दील करना और फिर कचरा निष्पादन के लिए अपनी कंपनियों को रोजगार दिलाने का खेल कई स्तर पर साफ देखा जा सकता है। इसके जरिये वे अपने कचरे के पुनर्चक्रीकरण का खर्च बचा रहे हैं सो अलग। सीधे-सीधे कहें तो ये ऐसी बाजारू ताकते हैं जो अपना माल बेचने के लिए दुनिया भर में अफवाहों का विज्ञापन करती हैं। मौजूदा को नकारने-बिगाड़ने और नये को सर्वश्रेष्ठ समाधान बताना ही इनकी मार्किटिंग का आधार है। गौर करें तो हाल में दावोस में जारी पर्यावरणीय प्रदर्शन सूचकांक का आधार इस खेल से बहुत मेल खाता है। असल चिंता तो पर्यावरणीय क्षति की होनी चाहिए। मूल कारक तो वही है। जिन कारणों से पर्यावरणीय की क्षति होती है अत: उन्हें रोकने के प्रयासों को आधार बनाना चाहिए था लेकिन सूचकांक का आधार इसे न बनाकर पर्यावरणीय क्षति से मानव सेहत तथा पारिस्थितिकीय क्षति रोकने के प्रयासों को बनाया गया है। बचपन से पढ़ते आये हैं ‘‘इलाज से बेहतर है रोग की रोकथाम।’ लेकिन उक्त आधार रोकथाम को पीछे और इलाज को आगे रखता है। क्या यह सही है? इस आधार पर जारी पर्यावरणीय प्रदशर्न सूचकांक में शामिल कुल 178 देशों की सूची में भारत को 155वें पायदान पर रखकर फिसड्डी करार दिया गया है। पड़ोसी पाकिस्तान (148) और नेपाल (139) से भी पीछे। यह सूचकांक र्वल्ड इकोनॉमी फोरम की पहल पर येल और कोलंबिया विविद्यालय ने तैयार किया है। सैमुअल फैमिली फाउंडेशन और कॉल मेकबेन फाउंडेशन ने इसमें मदद की है। गौरतलब है कि सुधरती आर्थिकी वाले चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, रूस और भारत जैसे किसी भी देश को रैंकिंग में आगे नहीं रखा गया औ भारत को सभी से पीछे रखा गया है। दक्षिण अफ्रीका को 72, रूस को 73, ब्राजील को 78 और चीन को 118 वें पायदान पर रखा गया है। भारत को मात्र 31.23 अंक दिए गये हैं। स्विटरजरलैंड, लक्समबर्ग, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर और चेक रिपब्लिक के नाम प्रथम पांच के रूप में दर्ज हैं। उभरती आर्थिकी वाले देशों को खास तौर पर इंगित करते हुए सूचकांक रिपोर्ट कहती है कि ये वे देश हैं, 2009 से 2012 के बीच जिनकी आर्थिकी में 55 प्रतिशत तक तरक्की हुई। यह ठीक है कि नई आर्थिक तरक्की वाले देशों ने पर्यावरणीय क्षेत्र में काफी कुछ खोया है। यह भी सही है कि हवा, जैव विविधता और मानव सेहत के लिए जरूरी इंतजाम किए बगैर शहरीकरण बढ़ाते जाना खतरनाक है; बावजूद इसके क्या यह सच नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र के विकास कार्यक्रमों की पूरी श्रृंखला दुनिया को शहरीकरण की तरफ ही धकेल रही है ? गांव को गांव बना रहने देने का संयुक्त राष्ट्र का एक कार्यक्रम हो तो बताइये! जरूरी है कि ऐसी रिपोर्टों की नीयत व हकीकत का विश्लेषण करते वक्त ‘‘विश्व इकोनॉमी फोरम रिपोर्ट-जनवरी 2013’ को न भूला जाए जो कहती है कि आर्थिक और भौगोलिक शक्ति के उत्तरी अमेरिका और यूरोप जैसे परंपरागत केन्द्र अब बदल गये हैं। लेटिन अमेरिका, एशिया और दक्षिण अफ्रीका उभरती आर्थिकी के नये केन्द्र हैं। तकनीक के कारण संचार, व्यापार और वित्तीय प्रबंधन के तौर-तरीके बदले हैं। हमें भी बदलना होगा। फोरम रिपोर्ट सरकारों, कारपोरेट समूहों और अंतरराष्ट्रीय न्यासियों के करीब 200 विशेषज्ञों ने तैयार की है। फोरम की रिपोर्ट कहती है कि रोजगार विकसित करने के नाम पर ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े जनाधार वाली संस्थाओं को सीधे मार्किटिंग में उतारा जाये। रिपोर्ट ने हैती में मर्सीकोर नामक संस्था द्वारा बीमा बेचने का जिक्र किया है। फोरम की रिपोर्ट, बेहतर शासन व पारदर्शिता के नाम पर बौद्धिक क्षमता वाले संगठनों को संबंधित देशों की सत्ता में भी बैठाने का इरादा रखती है। दावोस में पेश रिपोर्ट हैती, सोमालिया, माली, लियोथो और अफगानिस्तान को ऐसे देशों के रूप में चिह्नित करती है, जहां अशांति और राजनीतिक उथल-पुथल है। पं. नेहरू की पुस्तक ‘‘ग्ल्म्पिसेस ऑफ र्वल्ड हिस्ट्री’ इस बारे में बहुत पहले से सचेत करती आ रही है। वह कहती है कि दूसरे देश के संसाधनों पर कब्जा करने से पहले शक्तिशाली देश उनकी राजनीतिक गतिविधियों में गहरी दिलचस्पी रखते हैं और मौका पाकर जब चाहें, सत्ता उलट देते हैं। भारतीय राजनीति में दावोस की दिलचस्पी का एक मतलब यह भी निकाला जा सकता है। कुल मिलाकर खुली हुई आर्थिकी के यदि कुछ लाभ हैं तो खतरे भी कम नहीं। ये खतरे अलग-अलग रूप धरकर आ रहे हैं। जरूरत, बाजार आधारित गतिविधियों को पूरी सतर्कता व समग्रता के साथ पढ़ने और गुनने की है। इस समग्रता और सतर्कता के बगैर भ्रम भी होंगे और गलतियां भी। अत: अपनी जीडीपी का आकलन करते वक्त प्राकृतिक संसाधन, सामाजिक समरसता और ‘‘हैप्पीनेस इंडेक्स’ जैसे समग्र विकास के संकेतकों को कभी नहीं भूलना चाहिए। पूछना चाहिए कि पहले खेती पर संकट को आमंत्रित कर, फिर सब्सिडी देना और खाद्यान्न आयात करना ठीक है या खेती और खाद्यान्न को संजोने की पूर्व व्यवस्था व सावधानी पर काम करना? सामाजिक/प्राकृतिक महत्व की परियोजनाओं को समाज तक ले जाने से पहले उनकी नीति और नीयत को अच्छी तरह जांच लें। प्रवेश के लिए स्कूल/कॉलेज खोजते वक्त, खरीदारी के वक्त, उत्पाद खोजते वक्त और यात्रा के दौरान होटल खोजते वक्त हम रैंकिंग से ज्यादा, खुद की खोज पर भरोसा करें।(RS)

रिश्तों की डोर को सहेजने की जरूरत (विशेष गुप्ता)

आज सामाजिक संबंधों से जुड़े सरोकार लगातार ध्वस्त हो रहे हैं। यही कारण है कि आत्मीय रिश्ते भी अब स्वार्थ की आग में झुलसने को मजबूर हैं। परिवार के आत्मिक संबंधों पर चोट करने वाली तमाम घटनाएं रोज देखने में आ रही हैं। लिव-इन रिश्ते, किराए की कोख से जुड़े संबंध तथा औपचारिक व कानूनी वैवाहिक संबंधों के बाहर बच्चों का जन्म तथा आपसी घनिष्ठ संबंधों में लगातार क्षरण इत्यादि घटनाएं समाज में बदलाव की तेज चाल को भी महसूस करा रही हैं। इनके अलावा छोटे-छोटे स्वार्थ आत्मीय संबंधों तक से खून की होली खेलने पर उतारू हैं। वैसे तो हमारे सामाजिक संबंधों और सगे रिश्तों में खूनी जंग का एक लंबा इतिहास रहा है। परंतु कुछ समय पहले तक इस प्रकार की घटनाएं राजघरानों के आपसी स्वार्थो के टकराने तक ही सीमित थीं। लेकिन अब यह मुद्दा इसलिए और भी गंभीर हो गया है क्योंकि अब छोटे-छोटे स्वार्थो को लेकर रक्त संबंधों की बलि चढ़ाने में आमजन भी शामिल हो गये हैं। वर्तमान की इस सचाई को प्रस्तुत करने में कोई हिचक नहीं कि पूंजी, बाजार, सूचना तकनीक जैसे कारकों के फैलाव के सामने परिवार, समुदाय तथा इनमें समाहित सामाजिक रिश्त बौने नजर आ रहे हैं। इसलिए सामाजिक रिश्तों में टूटन वास्तव में समाज व देश के लिए चिंता का विषय है।वर्तमान की तेजी से भागती जिंदगी में अब यह बहस चल पड़ी है कि क्या सामाजिक रिश्तों में अभी और कड़वाहट बढ़ेगी? क्या भविष्य में विवाह और परिवार का सामाजिक-वैधानिक ढांचा बच पाएगा अथवा इनका पूरी तरह रूपांतरण हो जायेगा? क्या बच्चों को वात्सल्य, संवेदनाओं का अहसास, मूल्य एवं संस्कारों की सीख नैसर्गिक परिवारों में मिल पाएगी अथवा उन्हें भी अब बाजार की व्यावसायिक संस्थाओं पर ही निर्भर रहना होगा? क्या आने वाले समाजों में एकल परिवार ही जीवन की सचाई बनकर उभरेंगें अथवा इनमें भी अभी और टूटन बढ़ेगी? सवाल यह भी है कि क्या रिश्तों की टूटन को बदलाव की स्वाभाविक प्रक्रिया समझा जाए या इस नए नियंतण्र समाज का दबाव मानकर चलें? आज ये कुछ ऐसे उभरते ज्वलंत प्रश्न हैं जिनका जवाब खोजना समय की मांग है।सामाजिक संबंधों के ढांचे पर ऐतिहासिक निगाह डालने से ज्ञात होता है कि आजादी के आंदोलन के बाद पुरानी पीढ़ी में जिन मूल्यों और आदशरे के साथ सामाजिक रिश्तों को परिवार के संयुक्त सांचे में ढाला; पूंजी के विस्तार, बाजार की आक्रामकता और व्यक्ति के रातोंरात सफल होने की महत्वाकांक्षा ने उसे एक ही पल में बिखेर कर रख दिया। इन रिश्तों के टूटन की खनक आज समाज में साफ सुनाई दे रही है। कई बार अनुभव होता है कि जैसे औद्योगिक-व्यापारिक व्यवस्था के फैलाव में परिवार और समुदाय के भावनात्मक रिश्ते और उनकी वफादारियां बाधक सिद्ध हो रही हैं। अवलोकन बताते हैं कि आज हर रिश्ता एक तनाव के दौर से गुजर रहा है। वह चाहे माता-पिता का हो या पति-पत्नी का अथवा भाई-बहन, दोस्त या अधिकारी-कर्मचारी का ही रिश्ता क्यों न हो। इन सभी रिश्तों के बीच एक सर्द भाव पनप रहा है। ध्यान रहे कि सामाजिक रिश्ते निरंतर संवाद की मांग करते हैं। संवाद का अभाव सामाजिक रिश्तों की गर्माहट को कम करता है। सामुदायिक रिश्तों की मिसाल माने जाने वाले गांवों में भी अब परिवार की संयुक्तता विभाजित हो रही है। कई मामलों में ये रिश्ते इंच-प्रति-इंच जमीन को लेकर खून की होली खेल रहे हैं। अदालतों में अधिकांश मुकदमे प्रापर्टी की सिकुड़ती सीमाओं को लेकर दर्ज हैं। परिवार की संयुक्तता को घायल करने की पीछे भी इसी सम्पत्ति का ब्ॉंटवारा देखने में आ रहा है। आज एक नूतन ग्लोकल कल्चर (ग्लोबल-लोकल संस्कृति) अर्थात दोगली संस्कृति जन्म ले रही है। इसके एक ओर बाहरी आवरण पर जहां हम ग्लोबल होने का दावा ठोक रहे हैं, वहीं दूसरी ओर मौजूदा पीढ़ी सोच, आचार-विचार, प्रथाओं और परंपराओं में अभी लोकल होने की पीड़ा से जूझ रही है। कहना न होगा कि नये नियंतण्र परिवेश में यह सैंडविच कल्चर आज नई सोच के दबाव में है।गौरतलब है कि आज का मानव- मशीन, सूचना और बाजार की जबरदस्त गलाकाट होड़ के सामने स्वदेशी जमीन पर ठहर नहीं पा रहा है। यह खुले आम आदमी और मशीन का संघर्ष है जहां व्यक्तिगत संबंधों की संवेदनाएं शून्यता के क्षितिज में तैर रही हैं। चारों ओर पूंजी, प्रापर्टी, धन, बाजार और प्रोफेशनलिज्म के सामने मानव, मानवीयता, सहिष्णुता, चरित्र, संस्कार व मूल्यों इत्यादि की र्चचा पृष्ठभूमि में चली गई है। कार्ल मार्क्स ने डेढ़ सौ साल पहले ‘‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ में साफ लिखा था कि पूंजीवादी व्यवस्था के विस्तार में कैश-नेक्सस यानी मुद्रा के लेन-देन के संबंध बाकी सारे मानव संबंधों पर भारी पड़ेंगे। भारत में भी ऐसा प्रतीत होना शुरू हो गया है। कहना न होगा कि यह ग्लोबल व्यवस्था इस सचाई से अच्छी तरह वाकिफ है कि जब तक व्यक्ति के परिवार और समुदाय से भावनात्मक रिश्तों को खत्म नहीं कर दिया जाता, तब तक इस व्यवस्था को व्यावसायिक रूप से श्रेष्ठ नहीं बनाया जा सकता। यह इसी का परिणाम है कि आज के किशोर अपने परिवारों के बंधन से मुक्त होकर अपनी अलग नई दुनिया (पीयर सोसाइटी) बसाने को मजबूर हैं। मां-बाप से खून का रिश्ता भी अब इनके लिए अर्थहीन और अनुपयोगी होना शुरू हो गया है। यही वजह है कि आज पुरानी पीढ़ी अपने को असुरक्षित महसूस कर रही है। आज पीढ़ियों की यह रिक्तता तमाम प्रकार की विसंगतियों को जन्म दे रही है। इनमें आपसी रिश्तों के बीच बढ़ती संवादहीनता, युवाओं में मूल्यों का ह्रास, बढ़ता उन्मुक्त जीवन, संस्कारों की कमी एवं पारिवारिक रिश्तों में शीत भाव प्रमुख हैं। परिवार एवं समाज की अंदरूनी दीवारों के दरकने से सामाजिक परिवर्तन के योजनाबद्ध होने का स्वप्न फिलहाल मद्धिम पड़ता नजर आ रहा है।हमारी सामाजिक उदासीनता से पश्चिम का प्रभाव हमारी पीढ़ी को अपनी गिरफ्त में ले रहा है। ऐसी अवस्था में सामाजिक रिश्तों का रूप बदलना स्वभाविक ही है। बदलते समाज में हमें चाहे जितनी विभिन्नताएं दिखाई दें, परंतु फिर भी हम भारतीय- परिवार, आपसी रिश्तों व उनके अहसास से मुंह मोड़कर समाज में देर तक अस्तित्व में नहीं रह सकते। आज परिवार व विवाह जैसी सनातन संस्थाएं संकट में हैं तो केवल इसलिए क्योंकि हमने सामाजिक बदलाव के दौर में इन संस्थाओं की परवाह करनी बिल्कुल छोड़ दी। निश्चित ही नियंतण्र स्तर पर यह समय नव सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण का है। यह भी सच है कि नई उभरती सामाजिक शक्तियों के विकास का मार्ग भारतीय संस्कृति से ही होकर गुजरेगा। परंतु निकट भविष्य में समाज में बढ़ता धन का प्रभाव, छद्म तरक्की की होड़ व बढ़ता सामाजिक अकेलापन भी हमें परेशान करता रहेगा। ऐसे में हमें करना यह है कि सामाजिक जीवन की सुसुप्तावस्था से बाहर आकर अपनी देशज सामाजिक संस्थाओं से जुड़े रिश्तों के अहसास को अपने निजी स्वार्थो से अलग रखें। तभी सामाजिक रिश्तों में पुराने दौर का चुंबकीय आकर्षण लौटने की संभावनायें बलवती हो सकेंगी।(RS)
(लेखक समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं)