Friday 29 July 2016

पाकिस्तान : बंटना ही नियति है ? (आर. के. सिन्हा)

कहते हैं कि जो लोग शीशे के घरों में रहते हैं, वे दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते। कुछ दिन पहले पाकिस्तान ने कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों की कथित ज्यादतियों के विरोध में बंद का आह्वान किया था। हालांकि कश्मीरियों का अपने को प्रवक्ता होने का दावा करने वाला पाकिस्तान यह भूल गया कि खुद उसके देश में कई जगहों पर जोरदार पृथकतावादी आंदोलन चले रहे हैं। सिंध की राजधानी कराची में मुहाजिर यानी उर्दू बोलने वाले अपनी ही पाकिस्तानी सरकार की ज्यादतियों के विरोध में सड़कों पर उतर चुके हैं। बीते शनिवार को वाशिंगटन में व्हाइट हाऊस के बाहर इन्होंने मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) के बैनर तले प्रदर्शन किया। मुहाजिर उन्हें कहा जाता है जो देश के विभाजन के समय मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश तथा बिहार से सरहद के उस पार चले गए थे। व्हाइट हाऊस के बाहर प्रदर्शन करने वालों का वहां पर मौजूद अपने ही मुल्क के पंजाबी लोगों से हाथापाई भी हुई। ये प्रदर्शन इसलिए कर रहे थे ताकि अमेरिकी सरकार उनके हित में पाकिस्तान सरकार पर दबाव बनाए। एमक्यूएम के प्रदर्शनकारियों को इनके लंदन में निर्वासित जीवन व्यतीत करने वाले नेता अल्ताफ हुसैन ने संबोधित भी किया। अल्ताफ हुसैन से पाकिस्तान सरकार र्थराती है।
मुहाजिर अरबी शब्द है। इसका अर्थ है-अप्रवासी। बलूचिस्तान में भी सघन पृथकतावादी आंदोलन चल रहा है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के लिए सिरदर्द बना हुआ है बलूचिस्तान। चीन की मदद से बन रहे ग्वादर पोर्ट के इलाके में पिछले कुछ सालों से चल रहा पृथकतावादी आंदोलन अब बेकाबू होता जा रहा है। आंदोलन इसलिए हो रहा है क्योंकि स्थानीय जनता का आरोप है कि चीन जो भी निवेश कर रहा है, उसका असली मकसद बलूचिस्तान का नहीं, बल्कि चीन का फायदा करना है। बलूचिस्तान के प्रतिबंधित संगठनों ने धमकी दी है कि चीन समेत दूसरे देश ग्वादर में अपना पैसा बर्बाद न करें, दूसरे देशों को बलूचिस्तान की प्राकृतिक संपदा को लूटने नहीं दिया जाएगा। इन संगठनों ने बलूचिस्तान में काम कर रहे चीनी इंजीनियरों पर हमले बढ़ा दिए हैं। 790 किलोमीटर के समुद्र तट वाले ग्वादर इलाके पर चीन की हमेशा से नजर रही है। बलूचिस्तान की अवाम का कहना है कि जैसे 1971 में पाकिस्तान से कटकर बांग्लादेश बन गया था, उसी तरह एक दिन बलूचिस्तान अलग देश बन जाएगा। बलूचिस्तान के लोग किसी भी कीमत पर पाकिस्तान से अलग हो जाना चाहते हैं। बलूचिस्तान पाकिस्तान के पश्चिम का राज्य है, जिसकी राजधानी क्वेटा है। बलूचिस्तान के पड़ोस में ईरान और अफगानिस्तान है। 1944 में ही बलूचिस्तान को आजादी देने के लिए माहौल बन रहा था। लेकिन, 1947 में इसे जबरन पाकिस्तान में शामिल कर लिया गया। तभी से बलूच लोगों का संघर्ष चल रहा है और उतनी ही ताकत से पाकिस्तानी सेना और सरकार बलूच लोगों को कुचलती रही है।
आजादी की लड़ाई के दौरान भी बलूचिस्तान के स्थानीय नेता अपना अलग देश चाहते थे। लेकिन, जब पाकिस्तान ने फौज और हथियार के दम पर बलूचिस्तान पर कब्जा कर लिया तो वहां विद्रोह भड़क उठा था। वहां की सड़कों पर यह आंदोलन अब भी जिंदा है। बलूचिस्तान में आंदोलन के चलते पाकिस्तान ने विकास की हर डोर से इस इलाके को काट रखा है। इस बीच,अल्ताफ हुसैन पूरी दुनिया में पाकिस्तान सरकार के मुहाजिर विरोधी चेहरे को बेनकाब करने में लगे हुए हैं। उनका एक मात्र एजेंडा पाकिस्तान सरकार की जनिवरोधी करतूतों को दुनिया के सामने लाना है। पिछले साल जब नवाज शरीफ संयुक्त राष्ट्र में राग कश्मीर छेड़ रहे थे, तब अल्ताफ हुसैन के बहुत से साथी संयुक्त राष्ट्र सभागार के बाहर मुहाजिरों पर पाकिस्तान सरकार के जुल्मों-सितम के खिलाफ नारेबाजी कर रहे थे। दरअसल, पाकिस्तान की एक कोर्ट में अल्ताफ हुसैन को राष्ट्र विरोधी तकरीरें करने के आरोप में 81 सालों की सजा सुनाई चुकी है। उनकी संपत्ति को जब्त करने के भी आदेश दिए गए हैं। सिंध पुलिस को आदेश दिए कि वे उन्हें कोर्ट में पेश करें। पाकिस्तान में तब से भूचाल सा आया हुआ है, जब से अल्ताफ हुसैन ने संयुक्त राष्ट्र, अमेरिका, नाटो और भारत से मदद मांगी थी। अब एमक्यूएम ने व्हाइट हाऊस के बाहर प्रदशर्न कर दिया। पिछले साल एमक्यूएम के अमेरिका के शहर डलास में हुए सम्मेलन को वीडियो लिंक से संबोधित करते हुए अल्ताफ हुसैन ने आरोप लगाया कि पाकिस्तान की पंजाबी बहुमत वाली आर्मी मुहाजिरों का कत्लेआम कर रही हैं। व्हाइट हाऊस के बाहर हुए प्रदशर्न को संबोधित करते हुए अल्ताफ ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से अपील की कि वे पाकिस्तान के सिंध सूबे और कराची में मुख्य रूप से रहने वाले मुजाहिरों को बचाए। मुहाजिरों का कराची और सिंध में हमेशा से तगड़ा प्रभाव रहा है। ये आमतौर पर पढ़े-लिखे हैं। इनमें मिडिल क्लास काफी हैं। ये सिंध की सियासत को तय करते रहे हैं। अभी इनकी आबादी पाकिस्तान में करीब दो करोड़ मानी जाती है। बेहद प्रखर वक्ता अल्ताफ हुसैन ने डलास की सभा में दी अपनी तकरीर में बार-बार भारत का जिक्र किया था। कहा था, मुहाजिरों का संबंध भारत से है। इसलिए भारत को उनके पक्ष में खड़ा होना चाहिए। भारत को मुहाजिरों के कत्लेआम को सहन नहीं करना चाहिए।
अल्ताफ हुसैन के पास भी भारत-पाकिस्तान के संबंधों को सुधारने का नुस्खा है। भारत-पाकिस्तान के संबंध कैसे सुधरे? इस सवाल पर अल्ताफ ने एक बार कहा था ‘‘मेरा तो फोकस रहेगा कि दोनों मुल्कों के आम अवाम को सरहद के आर-पार आवाजाही के लिए दिक्कत न हो। वे एक-दूसरे के मुल्क में मजे-मजे में आ-जा सकें। अगर हम यह कर पाए तो भारत-पाकिस्तान अमन से रह सकेंगे।’ एक बात बहुत साफ है कि भारत को मुहाजिरों की लड़ाई में उन्हें अपना नैतिक समर्थन देने के संबंध में सोचना चाहिए। जब पाकिस्तान हमारे आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है, तो हमें मुहाजिरों के हक में बोलने में क्या बुराई है। वे तो भारत से ही तो नाता रखते थे। और फिर सवाल मानवीय भी तो है। कश्मीर मसले पर पंगेबाजी करने वाला पाकिस्तान आने वाले समय में फिर बंट जाए तो हैरान मत होइए।(RS)

राजनीतिक अस्थिरता में उलझा नेपाल (सुशील कुमार सिंह)

लगभग एक दशक के आसपास जब 250 वर्ष की राजशाही के बाद नेपाल में लोकतंत्र की बहाली हुई थी तब यह माना जा रहा था कि पड़ोसी देश में भी नये तेवर के साथ लोकतांत्रिक मापदंडों को समेटे हुए सशक्त सरकार और स्थायी राजनीति का अध्याय प्रारंभ होगा पर देखा जाय तो इतने ही समय से वह राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहा है। गौरतलब है कि बीते 24 जुलाई को केपी ओली ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया जो इस पद पर आसीन होने वाले आठवें व्यक्ति हैं और इनका कार्यकाल महज 287 दिन का था। जिसके चलते नेपाल एक बार फिर नई सियासी जोड़-तोड़ में फंस गया। इतना ही नहीं लोकतंत्र की प्रयोगशाला बना नेपाल अस्थिरता से उबर नहीं रहा है। जिस प्रकार की खबरें छन-छन कर आ रही हैं उससे साफ है कि माओवादी नेता प्रचंड नये प्रधानमंत्री हो सकते हैं। गौरतलब है कि पचंड इससे पहले राजशाही की समाप्ति और नेपाल में लोकतंत्र की बहाली के साथ प्रधानमंत्री बन चुके हैं। स्पष्ट है कि यदि पुष्प दहल कमल उर्फ प्रचंड सत्ता संभालते हैं तो यह उनकी दूसरी पारी होगी। जिस प्रकार नेपाल में राजनीतिक उतार-चढ़ाव विगत कुछ वर्षो में हुआ है उसे देखते हुए परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण का संगत संदर्भ यह संकेत करता है कि नेपाल का लोकतंत्र अभी भी शैशव अवस्था में है जिसे परिपक्व होने में दशकों की जरूरत पड़ेगी। 601 सदस्यों वाले नेपाली संसद की दलीय स्थिति को देखा जाय तो स्पष्ट बहुमत में कोई नहीं है। हालांकि इससे लोकतंत्र के अपरिपक्व होने को लेकर कोई खतरा नहीं है। 196 सांसदों के साथ नेपाली कांग्रेस सबसे बड़ा राजनीतिक दल है जबकि कम्युनिस्ट पार्टी 175 के साथ दूसरे नम्बर पर है। इसी प्रकार आधा दर्जन से अधिक राजनीतिक दलों की इकाई-दहाई के साथ नेपाली संसद में उपस्थिति देखी जा सकती है। नेपाल में पिछले वर्ष के सितंबर माह की 20 तारीख को लागू नये संविधान का विरोध करने वाले मधेसियों की मधेसी जनाधिकार फोरम के 14 सदस्य भी इसमें शामिल हैं।
परिवर्तित परिस्थिति और सियासी उतार-चढ़ाव के बीच नेपाल संसद में सबसे बड़ी पार्टी नेपाली कांग्रेस और प्रचंड का दल सीपीएन-माओवादी सेंटर ने सत्ता में भागीदारी के लिए सात सूत्री समझौता किया है। उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री केपी ओली के इस्तीफा देने के बाद सरकार के कुल कार्यकाल में से 18 माह ही शेष हैं। जाहिर है दोनों दल शेष समय को ध्यान में रखकर बारी-बारी से सरकार चलायेंगे जिसे करीब दस माह से आंदोलनरत मधेसी पार्टियों ने भी सरकार को समर्थन देने की घोषणा की है। स्पष्ट है कि एक बार फिर नेपाल में मिल-बांटकर सरकार चलाने का नियोजन देखा जा सकेगा। ओली के सरकार में रहते हुए नेपाल ने नया संविधान अंगीकृत किया था जिसे लेकर तराई में रहने वाले मधेसियों ने आपत्ति की साथ ही लगभग दो माह तक भारत और नेपाल के बीच आर- पार और व्यापार को भी प्रभावित किया था। दरअसल मधेसी चाहते थे कि संविधान में उन पक्षों का सशोधन किया जाय जिसे लेकर उनकी नाराजगी है। देखा जाय तो 50 फीसदी मधेसियों को संसद में आधा हिस्सा मिलना चाहिए पर ऐसा नहीं है। इसे मधेसियों को हाशिये पर धकेलने की बड़ी साजिश के रूप में माना गया। पूर्ववत अंतरिम संविधान में अनुपातिक शब्द का उल्लेख था जबकि नये संविधान में इसका लोप हो गया है। भारत इसे बनाये रखने का पक्षधर है। इसके अलावा अनुछेद 283 का कथन है कि नेपाली नागरिक राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायधीश, राष्ट्रीय असेंबली के सभापति, संसदीय अध्यक्ष तथा मुख्यमंत्री जैसे सवरेच पदों पर तभी नियुक्त हो पायेंगे जिनके पूर्वज नेपाली रहे हों। यह प्रावधान भी मधेसियों के विरोध का कारण बना। यहां भी भारत चाहता है कि इसमें संशोधन हो और नागरिकता में जन्म और निवास दोनों आधार शामिल हों। इसी प्रकार नये संविधान के अनुछेद 154, 11 (6) अनुछेद 86 सहित कई प्रावधानों पर मधेसियों का विरोध है। पौने तीन करोड़ के नेपाली जनसंख्या में लगभग आधे मधेसी हैं जिनके पुरखे भारतीय हैं पर मौजूदा स्थिति में वे तराई में रहने वाले नेपाली हैं। स्थिति को देखते हुए इनकी मांग को नाजायज करार नहीं दिया जा सकता। नेपाल लगभग दस साल से राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहा है और पिछले वर्ष के नये संविधान के विरोध के चलते न केवल वहां हिंसा हुई बल्कि भारत से संबंधों में भी खटास आ गयी। आधे-आध की लड़ाई में फंसे नेपाल ने भारत को धौंस भी दिखाई। काठमांडू और दिल्ली के बीच दूरी बढ़ाने का यह एहसास भी दिलाया। गौरतलब है कि सात वर्षो की कड़ी मशक्कत के बाद जब संविधान लागू हो तब पक्षपात के चलते बखेड़ा खड़ा हो गया। मधेसियों के चलते भारत-नेपाल संबंध एक बार फिर उथल-पुथल में चले गये। नेपाली मीडिया भी भारत विरोधी भावनाओं को भड़काने में लग गयी। इतना ही नहीं नेपाल में जो भी हिंसक घटनायें हुईं उसके लिए भारत पर दोष मढ़ा गया साथ ही भारत के टीवी चैनलों को नेपाल में न प्रदर्शित करने की मुहिम भी छेड़ी गयी। जिस तर्ज पर घटनायें घट रही थी उससे साफ है कि भारत की पीड़ा बढ़ रही थी। समझने वाली बात यह है कि किसी देश की आधी आबादी की शिकायत नाजायज कैसे हो सकती है? इस्तीफा दे चुके नेपाली प्रधानमंत्री केपी ओली ने उन दिनों भारत को यह भी चेतावनी दी थी कि उनका झुकाव चीन की ओर हो सकता है। यहां यह स्पष्ट करना सही होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस वक्तव्य को लेकर न केवल संयम का परिचय दिया था बल्कि नेपाल की चेतावनी का भी असर हावी नहीं होने दिया। बेशक चीन की कूटनीति यहां पर बढ़त बना ली हो पर नेपाल भी जानता है कि उसके सपने उसकी संस्कृति और उसकी बोली, भाषा के साथ अन्य सरोकार भारत से ही मेल खाते हैं। उसकी पीड़ा में भारत ही मददगार होता है। इसका पुख्ता सबूत वर्ष 2015 के अप्रैल में भूकंप के बाद जमींदोज हो चुके नेपाल के लिए की गयी भारत की कोशिश है।
ओली ने नेपाली संसद में संबोधन के दौरान कहा कि मेरे इस्तीफे के देश पर दुर्गामी नतीजे होंगे और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ेगी। नेपाल को प्रयोगशाला बनाया जा रहा है। विदेशी तत्व नया संविधान लागू नहीं होने देना चाहते हैं। स्पष्ट है कि उनका संकेत भारत की ओर है। इसमें कोई दो राय नहीं कि ओली के कार्यकाल में भारत-नेपाल संबंध पूर्व प्रधानमंत्री सुशील कोइराला की तुलना में काफी गिरावट के साथ बरकरार रहा। संसद में ओली का संबोधन भी इसी को पुख्ता कर रहा है। हालांकि बीते मई में जब ओली भारत यात्र पर थे तब उन्होंने यह कहा था कि अब मेरा संदेह भारत को लेकर दूर हो गया है पर इसमें कितनी सचाई है यह ओली से बेहतर शायद ही कोई जानता हो।
ओली जैसे जिम्मेदार लोगों को यह बात तो समझना चाहिए था कि भारत जैसे देश एक साधक की भूमिका में होते हैं। किसी की सम्प्रभुता को लेकर कोई ऊंच-नीच का ख्याल तक नहीं रखते हैं। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी जून 2014 में जब पहली बार नेपाल गये थे तब किसी प्रधानमंत्री को यहां आये 17 वर्ष हो चुके थे। हालांकि सार्क की बैठकों के दौरान आना-जाना लगा रहा पर द्विपक्षीय मामलों में गुजराल के बाद मोदी ही नेपाल गये। फिलहाल नेपाल जिस राजनीतिक अस्थिरता के दौर में है, उससे साफ है कि अभी स्थिरता की परत चढ़ने में वक्त लगेगा। दूसरी तरफ यह भी सच है कि आंतरिक कलह के लिए किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। आशा है कि आने वाली नयी सरकार भारत-नेपाल रिश्ते को नये सिरे से सकारात्मक रूप देने का काम करेगी।
(लेखक रिसर्च फॉउंडेशन ऑफ प}िलक एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक हैं)(DJ)

डोपिंग का भी एक अर्थशास्त्र है (जगदीश कालीरमन, अंतरराष्ट्रीय पहलवान और कुश्ती कोच)

अभी डोपिंग को लेकर दो मामले सुर्खियों में हैं। एक पहलवान नरसिंह यादव का, तो दूसरा शॉटपुट खिलाड़ी इंदरजीत सिंह का। इंदरजीत सिंह ने आरोप लगाया है कि उनके यूरीन सैंपल के साथ छेड़छाड़ की गई है। उनका फिलहाल ‘ए’ सैंपल पॉजिटिव आया है, जबकि ‘बी’ सैंपल की जांच चल रही है। हालांकि ऐसा संभव नहीं है कि यूरीन सैंपल के साथ छेड़छाड़ की जाए। अव्वल तो खिलाड़ी खुद उसे सील करता है और फिर नेशनल एंटी-डोपिंग एजेंसी यानी नाडा टूटे हुए, खुले या फिर किसी भी प्रकार से छेड़छाड़ किए गए सैंपल को स्वीकार ही नहीं करता। लिहाजा उन पर कार्रवाई हो सकती है।
पहलवान नरसिंह यादव का मामला इससे पूरी तरह अलग है। उनका आरोप है कि उनके खाने में किसी ने मिलावट की है। इस तरह की साजिश से इनकार नहीं किया जा सकता। अगर कोई खाने में कुछ मिलाकर दे रहा है, तो उसे एकदम से पता नहीं लगाया जा सकता। इस तरह की हरकत कोई भी, कहीं भी कर सकता है- स्थानीय या राष्ट्रीय स्तर के खेलों में भी और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी। हम यह कतई नहीं पढ़ सकते कि दूसरे के मन में क्या साजिश चल रह रही है। इस तरह के षड्यंत्र का शिकार कोई भी हो सकता है। आमतौर पर यह प्रतिद्वंद्विता में की जाती है। हालांकि नरसिंह का दावा इसलिए मजबूत जान पड़ता है, क्योंकि एक पहलवान को पुलिस ने इस मामले में गिरफ्तार किया है और देश में कुश्ती की सर्वोच्च संस्था भारतीय कुश्ती फेडरेशन ने भी नरसिंह का समर्थन किया है।
बहरहाल, ये मामले भारतीय खेल की एक स्याह तस्वीर दिखाते हैं। हालांकि डोपिंग को रोकने के प्रयास किए जा रहे हैं। सरकार और कुश्ती फेडरेशन अपनी कोशिशों में जुटे हैं। मगर डोपिंग जैसी समस्या से लड़ने के लिए जरूरी है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक व्यापक नीति बने। भारत सरकार, कुश्ती फेडरेशन, इससे जुड़े खिलाड़ी, सबको मिल-बैठकर एक बेहतर नीति बनानी होगी। फूड सप्लिमेंट का ही उदाहरण लें। चूंकि पहलवान आम लोगों के मुकाबले ज्यादा व्यायाम करता है, इसलिए उसे प्रोटीन की जरूरत भी ज्यादा होती है। खिलाड़ी यह कमी फूड सप्लिमेंट से पूरी करता है। दिक्कत यह है कि हमारे देश में बेहतर फूड सप्लिमेंट का उत्पादन नहीं होता। खिलाड़ी विदेशों में बने सप्लिमेंट का इस्तेमाल करते हैं। इन सप्लिमेंट की गुणवत्ता की जांच का कोई तरीका अपने देश में नहीं है।
इतना ही नहीं, विदेशों से आने के कारण उन पर कस्टम ड्यूटी भी लगती है और यह अपेक्षाकृत महंगा हो जाता है। अगर जरूरत को ध्यान में रखें, तो राष्ट्रीय स्तर के हर खिलाड़ी को अपने फूड सप्लिमेंट पर औसतन 15 से 20 हजार रुपये हर महीने खर्च करने पड़ते हैं, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी के लिए यह खर्च 40 हजार रुपये तक हो सकता है। जाहिर है, एक आम खिलाड़ी के लिए यह बहुत बड़ी रकम है, नतीजतन वह अपनी जरूरत पूरी करने के लिए या तो स्टेरॉइड लेता है या फिर शक्तिवद्र्धक दवाएं। यह उसकी मजबूरी हो जाती है।
एक मुश्किल यह भी है कि खिलाड़ी ज्यादा पढ़े-लिखे होते नहीं। उनमें जागरूकता का अभाव होता है। वे अपेक्षाकृत कम पैसे खर्च करके स्थानीय फूड सप्लिमेंट खरीदते भी हैं, तो अव्वल उनकी जरूरतें पूरी नहीं होतीं और फिर उन्हें शायद ही पता चल पाता है कि उन सप्लिमेंट में किस तरह के तत्व मिले हुए हैं? नकली फूड सप्लिमेंट भी एक अलग मुद्दा है। लिहाजा, जब तक सरकार इन फूड सप्लिमेंट को लेकर नीति नहीं बनाएगी, या खिलाड़ी, फेडरेशन अथवा डॉयटीशियन के साथ मिल-बैठकर यह तय नहीं किया जाएगा कि किस खिलाड़ी को कौन-सा सप्लिमेंट चाहिए, डोपिंग की समस्या का अंत नहीं होने वाला। अच्छी बात यह है कि फेडरेशन इस प्रयास में जुटा है कि खिलाड़ियों को गुणवत्तापूर्ण फूड सप्लिमेंट मिले।
भारतीय खेल प्राधिकरण या भारत सरकार की तरफ से पहलवानों को फूड सप्लिमेंट दिए जाते हैं या उन्हें इसके एवज में पैसे भी दिए जाते हैं। मगर देश में बने होने के कारण उन सप्लिमेंट की गुणवत्ता अंतरराष्ट्रीय मापदंड के हिसाब से नहीं होती, और फिर भारत सरकार जो पैसे देती है, उसका सदुपयोग भी नहीं हो पाता। इसलिए जरूरी यह भी है कि देश में इस तरह की सुविधा उपलब्ध कराई जाए, ताकि अपने यहां गुणवत्तापूर्ण फूड सप्लिमेंट बन सकें। इनकी कीमत बाजार में मौजूदा गुणवत्तापूर्ण फूड सप्लिमेंट से कम होगी। इस बीच सरकार यह कर सकती है कि वह विदेश से आने वाले फूड सप्लिमेंट पर सब्सिडी दे, ताकि पहलवानों को आर्थिक राहत मिले।
नाडा की तरफ से भी इस संदर्भ में दिशा-निर्देश आने चाहिए। खिलाड़ी को इसकी जानकारी दी जानी चाहिए कि उन्हें कौन-सा फूड सप्लिमेंट लेना है और कौन-सा नहीं। चूंकि खिलाड़ियों को भ्रमित करने वाले फूड सप्लिमेंट भी बाजार में हैं, जिनमें शक्तिवद्र्धक दवाएं मिली होती हैं। लिहाजा जरूरत यह भी है कि नकली फूड सप्लिमेंट के गोरखधंधे पर शिकंजा कसा जाए। हालांकि पहलवानों को भी चाहिए कि वह जो भी फूड सप्लिमेंट खरीद रहे हैं, उसका बिल जरूर लें। इससे दुकानदार पर दबाव बनता है और मिलावटी फूड सप्लिमेंट देने से वह बचता है। मुश्किल यह है कि ऐसे गोरखधंधे को रोकने का कोई माकूल तंत्र अपने देश में नहीं है, इसलिए यह धंधा खूब फल-फूल रहा है।
रही बात साजिशन खाने में मिलावट करने की, तो इसका शायद ही कोई हल है। जब किसी खिलाड़ी को अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट के लिए भेजा जाता है, तो उसका देश में पहले डोप टेस्ट होता है। इसमें निगेटिव पाया जाने वाला खिलाड़ी ही उस टूर्नामेंट में हिस्सा लेता है। वहां भी हर स्तर पर सतर्कता जरूरी है। वहां अगर वह खिलाड़ी वल्र्ड एंटी डोपिंग एजेंसी यानी वाडा के टेस्ट में फेल होता है, तो यह माना जाता है कि उसके साथ कोई साजिश हुई हो सकती है। यह साजिश किसी भी रूप में हो सकती है। यह खाने में मिलावट संबंधी साजिश भी हो सकती है, जिसका शायद ही अंत है। असल में, यह मानव स्वभाव का हिस्सा है। वह साम-दाम-दंड-भेद, कैसे भी करके अपने प्रतिद्वंद्वी को परास्त करना चाहता है। खिलाड़ी इसके अपवाद नहीं होते। उनमें भी इंसानी फितरत होती है। इस तरह की छोटी मानसिकता किसी भी खिलाड़ी की हो सकती है। मगर हां, इस पर थोड़ा-बहुत लगाम तब कसा जा सकता है, जब इस तरह के मामले में गिरफ्तार लोगों को सख्त सजा मिले। नरसिंह यादव के मामले में भी गिरफ्तार पहलवान से सारे राज खुलने की उम्मीद है। अगर दोषी को सजा मिलती है और उसे नजीर के तौर पर पेश किया जाता है, तो संभव है कि भविष्य में कोई इस तरह की हरकत करने से पहले दस बार सोचे।
नरसिंह यादव को मामला हमारे देश के पहलवानों के लिए एक सबक भी है। उन्हें काफी सतर्कता के साथ अपने खान-पान पर ध्यान देना होगा, ताकि ऐसी घटना फिर से न हो। उन्हें अपने आस-पास संदिग्ध लोगों को पहचानना चाहिए। आखिर यह उनके जीवन, करियर और सपने से जुड़ा मामला जो है।(हिन्दुस्तान )

तोलोलिंग पर नहीं मिलती फतह तो लांघनी पड़ती सीमा (जी डी बख्शी, मेजर जनरल (रिटायर्ड))

आज कारगिल विजय दिवस है। आज भी जब अपने शहीद सैनिकों को हम श्रद्धांजलि देते हैं, तो वह सारा घटनाक्रम आंखों के सामने आ जाता है। सन 1999 में पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ ने कारगिल का अपना पासा फेंका था। नॉर्दर्न लाइट इन्फेंट्री (पाकिस्तानी सेना की एक रेजीमेंट) की पांच पलटनें सीमा पार से घुसपैठ कराई गईं। श्रीनगर-कारगिल-लेह सड़क को वे अपनी जद में लेना चाहती थीं। लाहौर बस यात्रा के एकदम बाद इस एकाएक हमले ने भारत को चौंका दिया था। हमारी खुफिया एजेंसियों को इसका कोई इल्म न था। सबसे पहले अंदाजा यही लगाया गया कि वे आतंकवादी हैं। मगर जब वहां से हमले शुरू हुए और हमने भारी नुकसान उठाया, तो हमें इसका एहसास हो गया कि हमलावर आतंकी नहीं, बल्कि पाकिस्तानी फौज के जवान हैं।
सेना ने की थी हवाई हमले की मांग
दुश्मन की ताकत को देखकर सेना ने हवाई हमले की मांग की। उस समय के विदेश मंत्री जसवंत सिंह का मत था कि हमें हवाई ताकत का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे युद्ध का विस्तार हो सकता है। ठीक यही भूल हमने 1962 में भी की थी। अपनी हवाई ताकत का इस्तेमाल न करने की वजह से ही उस युद्ध में हमें बुरी तरह शिकस्त खानी पड़ी थी। इतिहास अपने को दोहरा रहा था। हमारे सेना प्रमुख जनरल वीपी मलिक तब पोलैंड की यात्रा पर थे। वापस आते ही उन्होंने स्थिति का जायजा लिया। तब तक जाहिर हो गया था कि नॉर्दर्न लाइट इन्फेंट्री की तकरीबन पांचों पलटनें हमारे क्षेत्र में घुस आई हैं। उन्होंने पहाड़ी इलाके में तमाम ऊंची चोटियों पर कब्जा जमा लिया था और लेह-कारगिल सड़क को अपने निशाने पर ले रखा था।
सेना के पास थे दो विकल्प
उस समय हमारे पास दो विकल्प थे। पहला, सीमा पार करके इस क्षेत्र में व दूसरे क्षेत्रों में भी पलटवार करना और दुश्मन को उल्टे पांव भागने पर मजबूर करना। इस रणनीति में अंदेशा यह था कि करीब 10 दिनों के अंदर ही हम पर सीजफायर के लिए भारी दबाव आ जाता। दस दिन में कारगिल की ऊंचाइयों को खाली कराना असंभव था। इसलिए कोई भी सीजफायर कारगिल की चोटियों को दुश्मन के कब्जे में छोड़ देता।
दूसरा विकल्प था, अपने ही क्षेत्र में जवाबी हमला करके दुश्मन को वापस खदेड़ना। इसमें भारी जानी नुकसान का अंदेशा था। पहाड़ों में ऐसा ऑपरेशन कम से कम दो या तीन महीने लेता है। इसके लिए भारी तोपखाने और हवाई सहयोग की जरूरत थी। अंतत: फैसला किया गया कि हम सीमा पार नहीं करेंगे और अपने ही क्षेत्र में रहकर जवाबी हमला करेंगे। इससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय में हमारे संयम की प्रशंसा होगी, क्योंकि दोनों देशों के पास परमाणु हथियार मौजूद थे। अपनी किताब में जनरल मलिक ने कहा है कि अगर यह फ्रंटल हमला कामयाब नहीं होता, तो उनकी योजना सीमा के पार वार करने की थी।
सीमा पार न करने का था आदेश, शुरू हुआ सीधा हमला
सरकार ने विचार-विमर्श के बाद जो आदेश दिए, उसमें साफ कहा गया कि सीमा पार न करें। मगर हवाई हमलों की छूट दी गई। भारी गोलीबारी के बाद हमारी इन्फेंट्री ने सीधे हमले शुरू किए। उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा। मगर हिम्मत के साथ इंच-दर-इंच और गज-से-गज हमारे जांबाज लड़ते हुए आगे बढ़ने लगे।
यह सच है कि हमारी वायुसेना सीमा पार हमले के लिए तैयार थी। मगर सरकारी आदेश के जरिये उसके हाथ-पैर बांध दिए गए थे। पहले हवाई हमलों में दुश्मन की जमीन से हवा में मार करने वाली मिसाइलों से हमें काफी नुकसान पहुंचा और हमारे दो जेट फाइटर व एक हेलीकॉप्टर को मार गिराया गया। लिहाजा वायुसेना ने ऊंचाई से हमले शुरू किए। इससे निरंतरता में काफी फर्क पड़ा और कई बम लक्ष्य से हटकर गिरे। तब वायुसेना ने लेजर निर्देशित बम का इस्तेमाल शुरू किया। बाद में आम बमों पर जीपीएस मार्गदर्शन उपकरण लगाकर बमवर्षा की कारगरता को बढ़ाया गया। मगर सीमा न पार करने की विवशता के कारण हमारी वायु सेना को काफी अड़चनों का सामना करना पड़ा।
हवाई हमलों से टूटने लगा दुश्मनों का मनोबल
फिर भी हवाई हमलों का भारी मनोवैज्ञानिक असर पड़ा। दुश्मन हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल नहीं कर सका। उसे रसद पहुंचाने में भी भारी दिक्कतें पेश आईं और अंतत: उसका मनोबल टूटने लगा। हमने दुश्मन की हर पलटन के जवाबी हमले के लिए 100 तोपें तैनात कर दीं। भारी गोलाबारी से दुश्मन हिल गया। फिर हमारी इन्फेंट्री के जांबाज दुर्गम पहाड़ों पर चढ़कर दुश्मन के पांव उखाड़ने में कामयाब हुए। कारगिल में हमारे लगभग 500 जांबाज शहीद हुए। पहली सफलता हमें तोलोलिंग पर मिली। उसके बाद एक-एक करके दुश्मन की चौकियां गिरने लगीं। जनरल वीपी मलिक का कहना है कि अगर हमें तोलोलिंग की सफलता नहीं मिलती, तो फिर फौज को सीमा पार करने के लिए बाध्य होना पड़ता।
जवानों के अदम्य साहस से भागे दुश्मन, हमारे संयम की दुनिया भर में हुई प्रशंसा
बहरहाल, हमारे जवानों की बहादुरी और उनका दृढ़ निश्चय रंग लाया, और हम भारी कीमत पर दुश्मन को वापस धकेलने में सफल हुए। दुनिया भर ने सीमा न पार करने के हमारे संयम की प्रशंसा की। एक परमाणु ताकत होने के बाद भी पाकिस्तान का रवैया अत्यंत गैर-जिम्मेदाराना था, अमेरिका ने जमकर उसकी भर्त्सना भी की। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भागकर वाशिंगटन जाना पड़ा। वहां उन्हें निर्देश मिला कि अपनी तमाम फौजें वह सीमा पार से तुरंत वापस करें।
पाक को सबक सिखाने के लिए पार कर सकते थे सीमा
कई सामरिक विशेषज्ञों का मानना है कि सीमा पार न करना हमारी भूल थी। पाकिस्तान की फौज को लगा कि परमाणु हमला करने की उसकी धमकी कारगर रही और भारत ने पलटवार नहीं किया। अपने ज्यादातर इलाकों को खाली कराके पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए हम सीमा पार कर सकते थे।
इससे पाकिस्तान को यह चेतावनी मिलती कि वह इस प्रकार का दुस्साहस नहीं कर सकता। हमारे सीमा पार न करने के कारण 2001 में पाकिस्तान ने फिर हमारी सीमा पर हमला किया। ऑपरेशन पराक्रम हुआ और एक बार फिर हम सीमा के पार नहीं गए। पाकिस्तान ने शायद इससे गलत निष्कर्ष निकाला।
कारगिल में हमरी दो गलतियां
असल में, कारगिल युद्ध में हमारी मूल रूप से दो गलतियां कही जाएंगी। पहली, खुफिया एजेंसियों की नाकामी। हमें पता ही नहीं चला कि पाकिस्तान हमले की तैयारी कर रहा है। और दूसरी, सीमा पार न करने का आदेश। हमें तब सीमा पार करके पलटवार करना चाहिए था। मुश्किल यह है कि सेना में अब भी वही हालात हैं। यानी जो कुछ है, उसी से युद्ध करो। अत्याधुनिक हथियारों व तोपों आदि को लेकर हमने कोई खास प्रयास नहीं किया। दुखद है कि कारगिल का यह सबक हमने अब तक नहीं सीखा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)(हिन्दुस्तान )

तब हमें सीमा पार करनी चाहिए थी (जी डी बख्शी, मेजर जनरल (रिटायर्ड)

आज कारगिल विजय दिवस है। आज भी जब अपने शहीद सैनिकों को हम श्रद्धांजलि देते हैं, तो वह सारा घटनाक्रम आंखों के सामने आ जाता है। सन 1999 में पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ ने कारगिल का अपना पासा फेंका था। नॉर्दर्न लाइट इन्फेंट्री (पाकिस्तानी सेना की एक रेजीमेंट) की पांच पलटनें सीमा पार से घुसपैठ कराई गईं। श्रीनगर-कारगिल-लेह सड़क को वे अपनी जद में लेना चाहती थीं। लाहौर बस यात्रा के एकदम बाद इस एकाएक हमले ने भारत को चौंका दिया था। हमारी खुफिया एजेंसियों को इसका कोई इल्म न था। सबसे पहले अंदाजा यही लगाया गया कि वे आतंकवादी हैं। मगर जब वहां से हमले शुरू हुए और हमने भारी नुकसान उठाया, तो हमें इसका एहसास हो गया कि हमलावर आतंकी नहीं, बल्कि पाकिस्तानी फौज के जवान हैं।
दुश्मन की ताकत को देखकर सेना ने हवाई हमले की मांग की। उस समय के विदेश मंत्री जसवंत सिंह का मत था कि हमें हवाई ताकत का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे युद्ध का विस्तार हो सकता है। ठीक यही भूल हमने 1962 में भी की थी। अपनी हवाई ताकत का इस्तेमाल न करने की वजह से ही उस युद्ध में हमें बुरी तरह शिकस्त खानी पड़ी थी। इतिहास अपने को दोहरा रहा था। हमारे सेना प्रमुख जनरल वीपी मलिक तब पोलैंड की यात्रा पर थे। वापस आते ही उन्होंने स्थिति का जायजा लिया। तब तक जाहिर हो गया था कि नॉर्दर्न लाइट इन्फेंट्री की तकरीबन पांचों पलटनें हमारे क्षेत्र में घुस आई हैं। उन्होंने पहाड़ी इलाके में तमाम ऊंची चोटियों पर कब्जा जमा लिया था और लेह-कारगिल सड़क को अपने निशाने पर ले रखा था।
उस समय हमारे पास दो विकल्प थे। पहला, सीमा पार करके इस क्षेत्र में व दूसरे क्षेत्रों में भी पलटवार करना और दुश्मन को उल्टे पांव भागने पर मजबूर करना। इस रणनीति में अंदेशा यह था कि करीब 10 दिनों के अंदर ही हम पर सीजफायर के लिए भारी दबाव आ जाता। दस दिन में कारगिल की ऊंचाइयों को खाली कराना असंभव था। इसलिए कोई भी सीजफायर कारगिल की चोटियों को दुश्मन के कब्जे में छोड़ देता।
दूसरा विकल्प था, अपने ही क्षेत्र में जवाबी हमला करके दुश्मन को वापस खदेड़ना। इसमें भारी जानी नुकसान का अंदेशा था। पहाड़ों में ऐसा ऑपरेशन कम से कम दो या तीन महीने लेता है। इसके लिए भारी तोपखाने और हवाई सहयोग की जरूरत थी। अंतत: फैसला किया गया कि हम सीमा पार नहीं करेंगे और अपने ही क्षेत्र में रहकर जवाबी हमला करेंगे। इससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय में हमारे संयम की प्रशंसा होगी, क्योंकि दोनों देशों के पास परमाणु हथियार मौजूद थे। अपनी किताब में जनरल मलिक ने कहा है कि अगर यह फ्रंटल हमला कामयाब नहीं होता, तो उनकी योजना सीमा के पार वार करने की थी।
सरकार ने विचार-विमर्श के बाद जो आदेश दिए, उसमें साफ कहा गया कि सीमा पार न करें। मगर हवाई हमलों की छूट दी गई। भारी गोलीबारी के बाद हमारी इन्फेंट्री ने सीधे हमले शुरू किए। उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा। मगर हिम्मत के साथ इंच-दर-इंच और गज-से-गज हमारे जांबाज लड़ते हुए आगे बढ़ने लगे।
यह सच है कि हमारी वायुसेना सीमा पार हमले के लिए तैयार थी। मगर सरकारी आदेश के जरिये उसके हाथ-पैर बांध दिए गए थे। पहले हवाई हमलों में दुश्मन की जमीन से हवा में मार करने वाली मिसाइलों से हमें काफी नुकसान पहुंचा और हमारे दो जेट फाइटर व एक हेलीकॉप्टर को मार गिराया गया। लिहाजा वायुसेना ने ऊंचाई से हमले शुरू किए। इससे निरंतरता में काफी फर्क पड़ा और कई बम लक्ष्य से हटकर गिरे। तब वायुसेना ने लेजर निर्देशित बम का इस्तेमाल शुरू किया। बाद में आम बमों पर जीपीएस मार्गदर्शन उपकरण लगाकर बमवर्षा की कारगरता को बढ़ाया गया। मगर सीमा न पार करने की विवशता के कारण हमारी वायु सेना को काफी अड़चनों का सामना करना पड़ा।
फिर भी हवाई हमलों का भारी मनोवैज्ञानिक असर पड़ा। दुश्मन हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल नहीं कर सका। उसे रसद पहुंचाने में भी भारी दिक्कतें पेश आईं और अंतत: उसका मनोबल टूटने लगा। हमने दुश्मन की हर पलटन के जवाबी हमले के लिए 100 तोपें तैनात कर दीं। भारी गोलाबारी से दुश्मन हिल गया। फिर हमारी इन्फेंट्री के जांबाज दुर्गम पहाड़ों पर चढ़कर दुश्मन के पांव उखाड़ने में कामयाब हुए। कारगिल में हमारे लगभग 500 जांबाज शहीद हुए। पहली सफलता हमें तोलोलिंग पर मिली। उसके बाद एक-एक करके दुश्मन की चौकियां गिरने लगीं। जनरल वीपी मलिक का कहना है कि अगर हमें तोलोलिंग की सफलता नहीं मिलती, तो फिर फौज को सीमा पार करने के लिए बाध्य होना पड़ता।
बहरहाल, हमारे जवानों की बहादुरी और उनका दृढ़ निश्चय रंग लाया, और हम भारी कीमत पर दुश्मन को वापस धकेलने में सफल हुए। दुनिया भर ने सीमा न पार करने के हमारे संयम की प्रशंसा की। एक परमाणु ताकत होने के बाद भी पाकिस्तान का रवैया अत्यंत गैर-जिम्मेदाराना था, अमेरिका ने जमकर उसकी भर्त्सना भी की। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भागकर वाशिंगटन जाना पड़ा। वहां उन्हें निर्देश मिला कि अपनी तमाम फौजें वह सीमा पार से तुरंत वापस करें।
कई सामरिक विशेषज्ञों का मानना है कि सीमा पार न करना हमारी भूल थी। पाकिस्तान की फौज को लगा कि परमाणु हमला करने की उसकी धमकी कारगर रही और भारत ने पलटवार नहीं किया। अपने ज्यादातर इलाकों को खाली कराके पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए हम सीमा पार कर सकते थे।
इससे पाकिस्तान को यह चेतावनी मिलती कि वह इस प्रकार का दुस्साहस नहीं कर सकता। हमारे सीमा पार न करने के कारण 2001 में पाकिस्तान ने फिर हमारी सीमा पर हमला किया। ऑपरेशन पराक्रम हुआ और एक बार फिर हम सीमा के पार नहीं गए। पाकिस्तान ने शायद इससे गलत निष्कर्ष निकाला। असल में, कारगिल युद्ध में हमारी मूल रूप से दो गलतियां कही जाएंगी। पहली, खुफिया एजेंसियों की नाकामी। हमें पता ही नहीं चला कि पाकिस्तान हमले की तैयारी कर रहा है। और दूसरी, सीमा पार न करने का आदेश। हमें तब सीमा पार करके पलटवार करना चाहिए था। मुश्किल यह है कि सेना में अब भी वही हालात हैं। यानी जो कुछ है, उसी से युद्ध करो। अत्याधुनिक हथियारों व तोपों आदि को लेकर हमने कोई खास प्रयास नहीं किया। दुखद है कि कारगिल का यह सबक हमने अब तक नहीं सीखा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)(हिन्दुस्तान )

कुपोषण और क्रेच की पहल (अलका आर्य)

महिला और बाल विकास मंत्रलय राष्ट्रीय क्रेच नीति तैयार कर रहा है, जो सरकारी, निजी और असंगठित क्षेत्रों पर लागू होगी। संसद के चालू सत्र में केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने एक सवाल के जवाब में यह जानकारी दी। नेशनल प्रोग्राम फॉर क्रेच एंड डे केयर फैसिलिटीज फॉर चिल्ड्रेन की दिशा-निर्देश को अंतिम रूप देने के लिए महिला और बाल विकास मंत्रलय के सचिव के तहत एक वर्किग ग्रुप का गठन किया गया है। हमारे मुल्क को ऐसी राष्ट्रीय नीति की दरकार है। छोटे बचों के स्वास्थ्य के लिए क्रेच जरूरी है तो इसका एक पहलू मुल्क की जीडीपी से भी जुड़ता है। कामकाजी महिलाओं या मांओं को बचों के लिए यह सुविधा जितनी अधिक मिलेगी, उसका लाभ देश की अर्थव्यवस्था को होगा। ऐसा नहीं है कि भारत में क्रेच व्यवस्था को लेकर कोई दिशा-निर्देश नहीं हैं। सभी कार्य स्थलों पर जहां महिलाओं की संख्या तीस या इससे अधिक है, वहां नियोक्ता अथवा संस्थान के प्रबंधन पर कार्यस्थल के दायरे में क्रेच का प्रावधान करने की जिम्मेदारी है, लेकिन हकीकत में इस पर अमल बहुत ही कम होता है।
देश की सवरेच अदालत में भी एक साल पहले तक क्रेच नहीं था। बीते साल सवरेच अदालत ने इस बाबत आदेश जारी किए। असंगठित क्षेत्र जहां महिला कर्मचारियों की बहुत बड़ी तादाद काम करती है, वहां हालात बदतर हैं। अब सवाल यह है कि सरकार जिस नीति का मसौदा तैयार कर रही है, वह मौजूदा समस्याओं को कितना निदान करने वाली होगी और सरकार उसके अमल को कैसे सुनिश्चित करेगी। क्रेच की अवधारणा को अगर हम शहरी मध्य और अमीर वर्ग की जरूरत के रूप में देखेंगे तो यह तर्कसंगत नहीं होगा। क्रेच की जरूरत कुपोषित बचों को भी अधिक होती है। क्रेच की आवश्यकता क्यों, इस विमर्श का वे एक अहम हिस्सा हैं। कुपोषण स्वास्थ्य संबंधित बड़ी समस्याओं में से एक है। ग्रामीण छत्तीसगढ़ में अल्प पोषण शायद सबसे व्यापक समस्या है। अल्प पोषण का चक्र अक्सर छोटेपन में ही शुरू हो जाता है और जिसके परिणाम पीढ़ियों तक रह सकते हैं।
प्रारंभिक बाल्यावस्था का कुपोषण खराब स्वास्थ्य व ज्ञान संबंधी विकास की मुख्य वजह बनता है, जो कि एक इंसान की भावी कमाने की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है और गरीबी व कुपोषण के चक्र को स्थायी बना देता है। वैसे ही कुपोषण बीमार होने के मौकों को बढ़ाने में मुख्य भूमिका निभाता है और कई बार मौत का कारण भी बनता है। छोटे बचों पर इसके प्रभाव खासतौर पर गंभीर होते हैं जैसा कि साक्ष्य दिखाते हैं कि पांच साल से कम आयु वाले बचों में से 50 प्रतिशत से अधिक की मौत का मूलभूत कारण यही है। जिंदगी के प्रारंभिक स्तरों पर (आयु दो या तीन) जब सबसे यादा मानसिक विकास होता है, कुपोषण स्कूल में बचों की सीखने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है। छत्तीसगढ़ में बचों में अल्प पोषण की समस्या को खत्म करने के लिए जन स्वास्थ्य सहयोग ने फुलवाड़ी नामक कार्यक्रम शुरू किया है, जिसका उद्देश्य राय के 54 गांवों में रहने वाले छह माह से लेकर तीन साल की आयु तक के सभी बचों को क्रेच की सुविधा मुहैया कराना है।
इन क्रेच में बचों को तीन बार खाना दिया जाता है, जो कि बचे की रोजाना की कैलोरी व प्रोटीन की जरूरत की दो तिहाई पूर्ति कर देता है। कई सालों के फील्डवर्क और रिसर्च से यह बात सामने आई है कि छोटे बचों को पर्याप्त कंपलीमेंट्री भोजन नहीं मिलना कुपोषण में मुख्य भूमिका निभाता है। रिसर्च से इस समस्या को खत्म करने के लिए कई कारणों की पहचान कर ली गई है। कुछ निष्कर्ष कंपलीमेंट्री भोजन को शुरू करने में देरी की ओर इशारा करते हैं जहां बचों को दिए जाने वाले भोजन की मात्र कम होती है। इसके अलावा देखभाल की भूमिका निभाने वाले का नहीं होना, खासतौर पर जब दोनों अभिभावक दिन के दौरान काम पर बाहर जाते हों, खराब पोषण के कारण बार-बार बीमार पड़ना और अभिभावक की क्रय शाक्ति का खराब होना भी बाों में कुपोषण के कारण हैं।
न्यूटिशनल रिहैबिलाइजेशन सेंटर्स (एनआरसीएस) इसमें सफल नहीं हुई है, क्योंकि यह केवल गंभीर व घोर कुपोषित बचों के लिए है। ये केंद्र कुपोषित बचों का पोषण का स्तर तो सुधार देते हैं, पर उसका प्रभाव बचे के घर वापस जाने के बाद कम हो जाता है। इसके अतिरिक्त ये केंद्र उन बचों को सेवाएं मुहैया नहीं कराते, जिनका कुपोषण स्तर यादा कम नहीं है या मध्यम है। देश के कुपोषित बचों का आबादी में इनकी तादाद बहुत यादा है। समेकित बाल विकास सेवा (आइसीडीएस) जैसे बड़े कार्यक्रम भी हैं और यह कार्यक्रम छत्तीसगढ़ में भी चल रहा है। इसकी व्यापक पहुंच के बावजूद यह भी कुपोषण के स्तर में उल्लेखनीय कमी लाने में असमर्थ रहा है।
विश्व बैंक द्वारा तैयार हेल्थ एंड न्यूट्रीशन पेपर में इस कार्यक्रम में कई कमियां पाई गईं। पेपर बतलाता है कि आइसीडीएस कार्यक्रम सबसे यादा संवेदनशील बचों की पर्याप्त देखभाल नहीं करता जैसे कि तीन साल से कम आयु वाले बचे और सबसे गरीब रायों में जहां इसकी सबसे यादा जरूरत है, वहां यह प्रभावी तौर पर काम नहीं कर रहा है। सबसे गरीब गांववासी फुलवाड़ी की अधिक मांग कर रहे हैं, क्योंकि दोनों अभिभावक रोजाना काम के लिए बाहर जाते हैं। गांव की स्वास्थ्य कार्यकर्ता सभी बचों का जन्म से वजन का रिकॉर्ड रखती है। क्रेच की पहल सिर्फ सफल ही नहीं रही, बल्कि इसके बहुतेरे सकारात्मक नतीजे भी सामने आए। क्रेच जाने वाले बचों की खाने की आदतों में बदलाव देखा गया। परिवार के दूसरे सदस्य भी इससे लाभान्वित हुए। बचों के बड़े बहन-भाइयों ने फिर से स्कूल जाना शुरू कर दिया और दोनों अभिभावक बचों की फिक्र किए बिना काम पर जाने लगे।
इस क्रेच प्रोग्राम के सामने कई चुनौतियां हैं। मसलन खाद्य पदार्थो की बढ़ती कीमतें आदि। सभी कोशिशें करने के बावजूद यह गांव से दूर सबसे गरीब परिवारों तक नहीं पहुंच सकी है। इसमें प्रत्येक बचे पर रोजाना 17 रुपये खर्च किए जाते हैं। फंड जुटाना बहुत बड़ी चुनौती है। मनरेगा के तहत क्रेच वर्कर को तो पैसा देने के लिए फंड है, पर क्रेच की अन्य सुविधाओं के लिए नहीं। वैसे महिला एवं बाल विकास मंत्रलय जिस राष्ट्रीय क्रेच नीति का मसौदा तैयार कर रहा है, उसके फंडिग पैटर्न को लेकर भी अंदरखाते बहस चल रही है।
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(DJ)

परमाणु बिजली का बढ़ता दायरा (अमृतेश श्रीवास्तव)

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय , भारत सरकार, तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व ए ई आर बी के दिशा निर्देशों और विभिन्न प्रकार के मानदंडों पर खरा उतरने के बाद, 10 जुलाई 2016 की शाम 8 बजकर 56 मिनट एक ऐसे ऐतिहसिक पल का गवाह बना, जिस पल के इंतजार में हम भारतीय काफी समय से पलक बिछाए तैयार खड़ी थी। आखिर वो घड़ी आ गयी जिसका हर किसी को बेसब्री से इंतेजार था। मौका था भारत के विशालतम कुडनकुलम परमाणु बिजली घर की दूसरी इकाई के प्रथम बार क्रिटिकल होने का..(एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें पहली बार परमाणु बिजली घर में न्यूक्लियर फिजन की चेन रिएक्शन शुरू होती है..) जी हां ये वही अदभुत पल था जिस पर संपूर्ण विश्व की भी निगाहें लगी हुई थी। भारत के मित्र राष्ट्र रूस के सौजन्य से निर्मित 1000 मेगावाट की दूसरी इकाई को विभिन्न प्रकार के जांचों से गुजरने के बाद क्रिटिकल किया गया..। इस ऐतिहासिक मौके पर भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस परियोजना से जुड़े अभियंताओं और वैज्ञानिकों के साथ-साथ रशियन अधिकारियों को भी अपनी शुभकामनायें भेजीं, जिनके अनवरत प्रयासों से ये मुमकिन हो सका। हाल में ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई देशों के बीच प्रगाढ़ संबंधों और परमाणु एवं अन्य मुद्दों से जुड़े कई महत्वपूर्ण मसलों पर बनते नये समीकरणों के बीच कुडनकुलम परमाणु बिजली घर की दूसरी इकाई के क्रिटिकल होने से एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ है।
एईआरबी द्वारा विभिन्न प्रकार के मानदंडों पर खरा उतरने के पश्चात, दक्षिणी ग्रिड से जोड़ कर इसकी क्षमता को चरणबद्ध तरीके से धीरे-धीरे 50, 75, 90 और 100 प्रतिशत बढ़ाकर 1000 मेगावाट कर दिया जाएगा और लगभग 4 से 6 महीने के भीतर इसका व्यावसायिक परिचालन शुरू हो जाएगा। कुडनकुलम परमाणु बिजली घर की दूसरी इकाई के शुरू हो जाने के साथ ही भारत में परमाणु बिजली घरों की संख्या बढ़कर 22 हो गयी है और कुल उत्पादन भी 5780 मेगावाट से बढ़कर शीघ्र ही 6780 मेगावाट तक पहुंच जाएगा और आगामी वर्ष 2023 तक 13000 मेगावाट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। भारत में बढ़ती बिजली समस्या के चलते कुडनकुलम परमाणु बिजली घर की दूसरी इकाई का भी बन के तैयार हो जाना और जल्द ही बिजली उत्पादन में योगदान देना, कई मायनों में उभरते भारत के लिए एक नयी जगमगाहट की तरह है। रूस के सहयोग से निर्मित ये भारत का यह दूसरा लाइट वॉटर रिएक्टर होगा जिस से बिजली का निर्माण किया जाएगा। सुरक्षा की दृष्टि से बेहतरीन व बेमिसाल खूबियों से युक्त जेनरेशन - 3 प्लस के इस रिएक्टर की संरक्षा संबंधी कई खूबियां इसे अपने तरीके का एक सर्वश्रेष्ठ रिएक्टर बनाती हैं। इस विश्व स्तरीय रिएक्टर में हाइड्रोजन री-कॉंबाइनर्स, कोर केचर, पैसीव हीट रिमूवल सिस्टम, हाइड्रो एक्यूमुल एटर्स इत्यादि ऐसे कई खूबियां हैं, जो इसे जनता और पर्यावरण दोनो को समान रूप से सुरक्षा प्रदान करने में मददगार साबित होंगे। अगले कुछ समय के दौरान लगभग 39500 करोड़ के लागत से 1000 मेगावाट की क्षमता वाली तीसरी और चौथी इकाइयों में भी निर्माण कार्य शुरू हो जाएगा जिससे आने वाले वर्षो में यादा से यादा बिजली का निर्माण किया जा सकेगा और बड़े पैमाने पर दक्षिण समेत देश के कई रायों को बिजली मिल सकेगी और लोगों को इसका फायदा मिलेगा। विदित हो कि अभी 4 रुपये की दर से, 1000 मेगावाट बिजली में से 562.5 मेगावाट बिजली तमिलनाडु राज्य के लिए, 221 मेगावाट बिजली कर्नाटक के लिए, 50 मेगावाट बिजली आंध्र प्रदेश के लिए, 133 मेगावाट बिजली केरल और 33.5 मेगावाट बिजली पुडुचेरी के लिए सुनिश्चित की जा रही है। एक तरफ जहां भारत में विभिन्न ऊर्जा के स्नोतों से बिजली का बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाता है, जिसमें लगभग 68 प्रतिशत बिजली थर्मल से, 15 प्रतिशत हाइड्रो से, 14 प्रतिशत अन्य स्नोतों से जिनमें (बायो मास, सोलर और विंड प्रमुख हैं) वहीं परमाणु ऊर्जा से महज 3 प्रतिशत ही बिजली का उत्पादन होता है। आज संपूर्ण विश्व में थर्मल पावर से निर्मित बिजली ग्लोबल वॉरमिंग और वातावरण में उत्सर्जित होने वाली कई हानिकारक गैसों के चलते एक गहन चिंता का विषय बनी हुई है, जबकि वहीं दूसरी तरफ परमाणु ऊर्जा एक स्वछ और हरित ऊर्जा का किफायती विकल्प साबित हो रही है। अगर आज हम संपूर्ण विश्व की बात करें तो फ्रांस जैसे देश में परमाणु ऊर्जा से लगभग 74 प्रतिशत बिजली का निर्माण किया जाता है। न केवल फ्रांस बल्कि बेल्जियम, स्वीडेन, हंगरी, जर्मनी, स्विट्जरलैंड,अमेरिका, रूस, इत्यादि कई ऐसे विकसित देश हैं जहां पर लगभग 20-50 प्रतिशत बिजली परमाणु ऊर्जा से ही निर्मित होती है और आज इन देशों की संपन्नता और समृद्धि किसी से छिपी नही है। इसके विपरीत हमारे देश में वर्तमान में जहां एक ओर कुल 3 लाख मेगावाट बिजली का ही उत्पादन हो रहा है जिसमें से महज 5780 मेगावाट ही न्यूक्लियर पावर से बनाई जाती है, ऐसे में जरा सोचिए कि परमाणु ऊर्जा में अभी कितनी क्षमता है? कोयले के भंडार सीमित हैं, हाइड्रो को हमने पूरी तरह से लगभग दोहन कर लिया है, और सोलर और विंड की उत्पादन क्षमता, यादा जगह, धूप और हवा के प्रवाह की समुचित उपलब्धता पर निर्भर होने के साथ-साथ कम किफायती और अल्प विकसित तकनीक पर आधारित हैं। इससे ये साफ दिखाई देता है की परमाणु ऊर्जा से बिजली निर्माण की संभावना को हम कतई नकार नहीं सकते। आज हंिदूुस्तान में सभी परमाणु बिजली घर सुरक्षित प्रचालन के गौरव के साथ पिछले 47 वर्षो से अनवरत कार्यशील हैं, और जिनसे लगभग 5780 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है। आज तक हमारे देश में कोई ऐसी दुर्घटना नहीं हुई है, जिसमें लोगों को रेडीयेशन की निर्धारित मात्र से यादा डोज लगी हो। यहां तक की भुज में आए भूकंप और तमिलनाडु में सुनामी के आने के बावजूद हमारे देश के परमाणु बिजली घर सुरक्षित रहे, जो इस बात का सबूत है की विषम से विषम परिस्थितियों में भी परमाणु बिजली घर सुरक्षा की दृष्टिकोण से सर्वश्रेष्ठ हैं। विश्व के तमाम विकसित राष्ट्रों ने इसे खुले दिल से अपनाया है और आज वो किस मुकाम पर हैं शायद ये बताने की मुङो आवश्यकता नही है। मगर उसके लिए हमें इसकी बारीकियों को समझना होगा और इसके विरोध में लगे लोगों को समझाना होगा कि अगर हम त्रि-चरणीय परमाणु कार्यक्रम को क्रमवार तरीके से लागू कर पाने में सफल रहे और देश में प्रचुर मात्र में मौजूद थॉरियम से बिजली बनाने की तकनीक को विकसित कर, सही तरह से उपयोग में ला सके तो शायद आने वाली कई पीढ़ियों को सैकड़ों साल तक बिजली की उपलब्धता सुनिश्चित हो सकेगी।
इस सफलता को विज्ञान के क्षेत्र में भारत की बढ़ती ताकत के रूप में भी देखा जाना चाहिए। विकास पथ पर अग्रसर भारत के लिए बिजली की बहुत जरूरत है। ऐसे में कुडनकुलम परमाणु विद्युत संयंत्र -2 की सफलता हमारी विद्युत जरूरतों को पूरा करने की दिशा में बहुत ही अहम पड़ाव है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(DJ)

राजनीतिः पश्चिम का स्त्रीवाची चेहरा (महेंद्र राजा जैन,जनसत्ता )

ब्रिटेन में महत्त्वपूर्ण राजनीतिक पदों पर किसी महिला का होना इस प्रकार असामान्य बात है कि वहां की पहली महिला प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर अब भी आदर्श मानी जाती हैं। इस समय यूरोपीय राजनीतिक क्षेत्रों में चर्चा इस बात को लेकर है कि राजनीति में पुरुषों ने अभी तक जो ‘घालमेल’ कर रखा है, उसकी सफाई के लिए स्त्रियां आगे आ रही हैं। एंजेला मर्केल ऐसे समय जर्मनी की चांसलर बनीं, जब उनकी पार्टी ‘फंडिंग स्केंडल’ में बुरी तरह फंसी हुई थी। स्कॉटलैंड की प्रथम मंत्री निकोला स्तार्जिओन के साथ ही अन्य स्कॉटिश राजनेता भी मानते हैं कि मतदाताओं तक पहुंचने में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां अधिक सफल रही हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि यही स्थिति रही तो निकट भविष्य में ब्रिटेन की लेबर पार्टी की मुखिया भी कोई महिला ही हो।
कहा जा रहा है कि अगर कभी जेरेमी कोर्बिन का नाम ब्रिटेन की लेबर पार्टी के नेता की दौड़ से पीछे हटा, तो उनका स्थान एक महिला- एंजेला ईगल लेंगी। निश्चय ही ब्रिटेन और दुनिया भर की महिला राजनेताओं के लिए यह विशिष्ट और उत्कृष्ट उल्लेखनीय अवसर है। निकोला स्तार्जिओन ही नहीं, स्कॉटलैंड में टोरी और लेबर पार्टी की नेत्रियों के साथ ही उत्तरी आयरलैंड की मंत्री और प्लेड सिमरू पार्टी की नेता भी स्त्रियां हैं। ग्रीन पार्टी का नेतृत्व भी पिछले एक दशक से एक महिला के हाथों में है।
एक दशक पहले जब मर्केल ने पहली बार चांसलर का पद संभाला तो उनके प्रशंसक और आलोचक सोचते थे कि क्या वे ब्रिटेन की मारग्रेट थैचर के समान जर्मनी की ‘लौह महिला’ बनेंगी। अब इस प्रकार की तुलना कोई नहीं करता। अब जर्मनी में लोग सोचने लगे हैं कि क्या थेरेसा, चांसलर मर्केल की डुप्लीकेट बनेंगी, क्योंकि मर्केल के समान वे भी अलग रह कर संयमित ढंग से काम करने वाली हैं। वे जानती हैं कि वे क्या चाहती हैं और उसे प्राप्त करने के लिए क्या करना है।
अगले वर्ष के शुरू तक इस बात की पूरी संभावना है कि अमेरिका का राष्ट्रपति पद भी पहली बार एक महिला- हिलेरी क्लिंटन को मिलेगा और उपराष्ट्रपति उनकी अत्यंत निकट सहयोगी एलिजाबेथ वारेन होंगी। कहा जा रहा है कि इसी वर्ष के अंत में राष्ट्र संघ के सेक्रेटरी जनरल के लिए होने वाले चुनाव में न्यूजीलैंड की पूर्व प्रधानमंत्री हेलेन क्लार्क कमान संभालेंगी। जर्मनी में भी अगले वर्ष चुनाव होने वाले हैं। वहां की वर्तमान चांसलर एंजेला मर्केल पिछले दस वर्षों से यूरोपीय राजनीति में प्रभावशाली नेता के रूप में उभरी हैं और उनकी जीत की पूरी संभावना है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की अध्यक्ष और अमेरिका की एटार्नी जनरल भी महिलाएं हैं और क्या इसे मात्र संयोग कहा जाए?
यूरोपीय संघ में राजनीति के क्षेत्र में महिला नेत्रियों की सूची में पोलैंड और जर्मनी के बाद ब्रिटेन का नाम भी जुड़ गया है। नार्वे में भी वहां की संसद की नेता एरना सोलबर्ग हैं। स्त्रियों को आगे बढ़ने के लिए जो कांच की दीवार रोके हुए थी वह अब ध्वस्त हो चुकी है या विश्व ही इस प्रकार भयावह स्थिति में पहुंच चुका है कि उससे प्रभावित राष्ट्र महसूस करने लगे हैं कि स्थिति को संभालने के लिए किसी महिला की आवश्यकता है। ब्रिटेन में ब्रेक्जिट के नतीजे के बाद यह मात्र संयोग नहीं था कि डेविड कैमरन के इस्तीफे के बाद जो दो नाम कंजर्वेटिव पार्टी के अगले नेता के लिए आगे आए वे दोनों स्त्रियां थीं।
एलीनर रूजवेल्ट और मर्लिन मनरो का मानना था कि अच्छे स्वभाव वाली स्त्रियां शायद ही कभी इतिहास बनाती हैं। पर सभी स्त्रियां एक समान नहीं होतीं। ज्यों-ज्यों अधिकाधिक महिलाएं राजनीति में आगे आएंगी, उनकी विविधताओं के साथ ही उनकी समानताएं भी नजर आने लगेंगी। बीबीसी के एक पत्रकार के कुछ कहने पर एक दर्शक ने कहा था- मे और लीडसम दोनों भले स्त्रियां हैं, पर दोनों अलग-अलग विचारों की हैं। इस पर स्कॉटलैंड की प्रथम मंत्री निकोला ने ट्वीट किया था- ‘महिलाओं के प्रति लोगों के विचार अब तक काफी बदल चुके हैं।’
राजनीति में महिलाओं का नेतृत्व अभी सामान्य भले न हो, पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सामान्य होता जा रहा है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। मुख्य बात प्रतिनिधित्व की है। ब्रिटेन में पहली महिला प्रधानमंत्री के रूप में मारग्रेट थैचर का इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, पर उनकी अपेक्षा 1997 के चुनाव में विजयी हुई सौ महिला लेबर सांसदों ने वेस्टमिन्स्टर (ब्रिटेन की संसद) की संस्कृति में बदलाव लाने में बहुत कुछ किया। उन्होंने महिलाओं, बच्चों और परिवार के हितार्थ कई नई योजनाएं शुरू कीं और कई क्षेत्रों में महिलाओं की असमानता दूर करने के प्रयास किए।
अब भी जो महिलाएं राजनीति में आती हैं उन्हें अपने स्त्री होने का ध्यान रखते हुए बहुत कुछ ऐसा करना पड़ता है, जो पुरुषों को बड़ा बेतुका लगता है। मतदाता के मन में यह बात बैठी रहती है कि स्त्री होने के नाते वे क्या करेंगी। अमेरिका में हिलेरी क्लिंटन की सबसे बड़ी और अप्रत्याशित समस्या अनुभव की कमी या उसका वैषम्य- उच्च पद पर रहना नहीं है। उन्होंने महिला अभ्यर्थियों के प्रति मध्यवर्गीय नौकरी पेशा लोगों की अरुचि पर तो विजय पा ली है, पर युवा महिला मतदाता अब भी उन्हें पसंद नहीं करतीं। लैंगिक समानता के क्षेत्र में उनके कार्यों को वे कोई महत्त्व नहीं देतीं, बल्कि वे उन्हें कॉरपोरेट सरकार की कठपुतली के रूप में देखती हैं।
पिछले दो दशक में लैंगिक असमानता के क्षेत्र में बहुत कुछ किया जा चुका है, पर समान कार्य के लिए समान वेतन, मातृत्व का ‘दंड’, घरेलू हिंसा आदि के क्षेत्र में अब भी बहुत-कुछ किया जाना बाकी है। इसके अलावा जाति, वर्ण, रंग- जिनके आधार पर भेदभाव किया जाता है और जिनके अपने नुकसान हैं। इनका सबसे अधिक असर महिलाओं पर होता है। इसलिए कहा जा सकता है कि महिलाओं का राजनीति में उच्च पदों पर पहुंचना काफी लंबे रास्ते में मील का एक पत्थर ही है, गंतव्य नहीं। वैसे देखा जाए तो अभी यूरोप में बहुत से देश हैं, जहां कोई महिला प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति नहीं रही। इनमें स्पेन, इटली, स्वीडन और हॉलैंड के नाम सहसा ध्यान में आते हैं। इस मील के पत्थर से आगे निकलने में सबसे पहले ब्रिटेन ही पहला देश था जब 1979 में मारग्रेट थैचर वहां की प्रधानमंत्री बनीं। फिर भी अभी ब्रिटिश संसद में एक तिहाई से भी कम सदस्य महिलाएं हैं यानी संसद में लिंगानुपात की दृष्टि से ब्रिटेन अब भी यूरोपीय देशों में काफी नीचे- बारहवें स्थान पर है, जबकि स्पेन, इटली, स्वीडन और नीदरलैंड्स में महिला सांसदों का अनुपात काफी अधिक है।
अभी तक राजनीति में आगे आने वाली महिलाओं में गुयाना की पहली महिला राष्ट्रपति और पीपुल्स प्रोग्रेसिव पार्टी की पहली महिला प्रधानमंत्री जेनेट जगन, इजरायल की प्रधानमंत्री गोल्डा मीर, भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, फिलिपीन की राष्ट्रपति ग्लोरिया मकापगाल आरोयो, पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो, म्यांमा की आंग सान सू की, विश्व की पहली महिला राष्ट्रपति लाइबीरिया की एलेन जानसन सिरलीफ के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। मारग्रेट थैचर यूरोप के किसी भी देश की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं। ब्रिटेन में अब भले दूसरी महिला प्रधानमंत्री है, पर वह अब भी यूरोप की राजनीति में आगे आई महिलाओं की सूची में काफी नीचे हैं। संसद में नेता होने के संबंध में अलग-अलग देशों में अलग-अलग जिम्मेदारियां हैं। ब्रिटेन में मे और जर्मनी में मर्केल सबसे अधिक शक्तिशाली नेता होने जा रही हैं। पिछली सदी के आखिरी दशक में फ्रांस की प्रधानमंत्री एडिथ के्रसों के हाथों में वहां के राष्ट्रपति की अपेक्षा कम जिम्मेदारियां थीं।
सभी भाषाओं में स्त्रियों के लिए अपमानजनक शब्दों की लंबी सूची है और जो स्त्रियां किसी राजनीतिक या प्रशासनिक पद की दावेदारी में भाग लेने का निर्णय करती हैं उनके लिए तो अपमानजनक यौनिक शब्दों की कोई कमी नहीं है। जब कभी राजनीतिक मामलों में स्त्रियों ने अपनी आवाज उठानी चाही है, पुरुषों ने उन्हें लांछित कर उनकी आवाज दबाने की कोशिश की है। जब महिलाओं ने वोट के अधिकार की बात शुरू की तो उन्हें कुरूप और बंध्या आदि कह कर कई दशक तक महिला-विरोधी सांचों में ढाल दिया गया। जहां तक हिलेरी क्लिंटन की बात है, कहा जाता है कि उनके लिए अब तक जितने और जिस प्रकार के दुर्वचन कहे जा चुके हैं उतने किसी अन्य के लिए नहीं। मीडिया में उनके बालों की स्टाइल, उनके कपड़ों और उनके बुढ़ाते चेहरे को लेकर तरह-तरह की व्यंग्यात्मक टिप्पणियां की जाती रही हैं।
जो स्त्रियां चुनाव में किसी पद के लिए खड़ी नहीं होतीं, पर राजनीति में आगे रहती हैं वे भी इस प्रकार की टिप्पणियों से बची नहीं रहतीं। वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की पत्नी मिशेल ओबामा भी लैंगिक, यौनिक और जातिवादी लांछनों से बची नहीं रह सकी हैं। 2010 में किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि राजनीति में आने वाली महिलाओं के प्रति मतदान के अवसर पर यौनिक व्यंग्यों का प्रयोग उनके लिए विपरीत कार्य करता है। पर अब वैसी बात नहीं रही। 2008 में यौनिक आक्षेप जो सामान्य बात थी अब नहीं रह गई है। पहले पुरुष जिस प्रकार पदों पर आरूढ़ स्त्रियों से डरते थे उसी प्रकार अब भी, बल्कि और भी अधिक डरते हैं।

ट्रम्प की लोकप्रियता में हमारे लिए सबक (चेतन भगत )

पिछले हफ्तेडोनाल्ड ट्रम्प आखिरकार औपचारिक रूप से अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के लिए रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी मनोनीत हो गए। चुनाव इस साल के अंत में होने हैं। ट्रम्प ने पिछले कुछ महीनों में अपनी बढ़त मजबूत की है। हालांकि, एक साल से भी कम समय पहले अपनी व्यापक रिसर्च और विश्वसनीयता के लिए ख्यात अमेरिकी मीडिया घरानों ने ट्रम्प के अभियान को एक मजाक, विसंगति और नाकामी बताकर खारिज कर दिया था। जल्दी ही ट्रम्प के पक्ष में आकड़े जुटने लगे तो उसी मीडिया ने इस बार उन्हें नस्लवादी, लिंगवादी और कर्कश व्यक्तित्व बताकर खारिज किया।
इस बीच ट्रम्प अपने सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी विद्वेषपूर्ण, राजनीतिक रूप से गलत और 'हे, ईश्वर मुझे भरोसा ही नहीं होता, ऐसा कहा उन्होंने' किस्म के प्रचार अभियान पर डटे रहे, जिसमें आप मोटे लोगों को मोटे नहीं कहते (आप उन्हें बड़ा कहते हैं, फिर इसका जो भी अर्थ हो)। श्रेष्ठतम कॉलेज जिन्हें आईवी लीग कहा जाता है, वहां पढ़े लोगों दशकों के अनुभव वाले अमेरिकी मीडिया ने इसे अस्थायी सनक के रूप में देखा। उसे लगा कि अभियान में ट्रम्प का पतन अपरिहार्य और अासन्न है। आप ऐसी फर्जी हेयरस्टाइल के साथ अमेरिका के राष्ट्रपति कैसे बन सकते हैं? इसके बावजूद ट्रम्प एक प्राइमरी के बाद दूसरी प्राइमरी जीतते रहे और अब अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव में दो में से एक उम्मीदवार हैं। ट्रम्प की जीत अमेरिका के लिए अथवा व्यापक विश्व के लिए अच्छी होगी या नहीं, इस बारे में मेरा कोई दृष्टिकोण नहीं है, क्योंकि यह बहुत ही जटिल बहस का विषय है। इसी तरह कोई यह नहीं कह सकता कि वे जीत ही जाएंगे। यह सही है कि अंतिम दो उम्मीदवारों में से एक होने का मतलब है कि उनके पास वाकई जीत का मौका तो है। यहां इस चिंतन का उद्‌देश्य यह समझने की कोशिश करना है कि कैसे दुनिया के अत्याधुनिक मीडिया घराने इतने गलत साबित हुए? मूल परिकल्पना यह थी कि केवल अशिक्षित, नादान और उलटी दिशा में चलने वाले मूर्ख ही ट्रम्प को समर्थन दे रहे हैं, लेकिन यह सोच पूरी तरह गलत साबित हुई। मौजूदा जनमत संग्रह के आकड़े देखें तो करीब आधा अमेरिका ट्रम्प का समर्थन कर रहा है। अब यह नामुमकिन-सी बात है कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र में तो छोड़ो किसी भी देश में इतने सारे मूर्ख लोग हों।
ट्रम्प के उदय को देखने में मीडिया क्यों चूक गया, इसके कई कारण हैं। एक, मीडिया में उदारवादी भरे हैं, जो प्राय: एलीट यानी श्रेष्ठि वर्ग के स्कूलों से आए होते हैं, जिनमें एक खास किस्म का विश्व दृष्टिकोण होता है। फिर ये लोग अपने टेलीविजन चैनल या अखबार में कनिष्ठ लोगों की भर्ती करते हैं, जिनका दृष्टिकोण उन्हीं की तरह होता है। समय के साथ ये मीडिया घराने एक जैसी सोच वाले उदारवादियों का अनैतिक-सा समूह बन जाता है, जिनका आम लोगों से कोई संपर्क नहीं होता। यही लोग प्राय: कहते रहते हैं, 'हर कोई ट्रम्प से नफरत करता है'। नहीं, हर आदमी उनसे नफरत नहीं करता। केवल आपके क्यूबिकल के आस-पास मौजूद लोग, वे लोग जो काम के बाद आपसे ड्रिंक पर मिलते हैं और फेसबुक पर आपके दोस्त ही उनसे नफरत करते हैं। आप मानें या मानें यह बहुत ही छोटा बुलबुला है कि 'हर कोई।'
मजे की बात है कि यही प्रधानमंत्री पद पर मोदी के चुनाव के दौरान हुआ। 2011 और 2012 में देश के लगभग सारे अंग्रेजी मीडिया के लिए प्रधानमंत्री पद के गंभीर प्रत्याशी तो छोड़िए, मोदी तो उनके लिए अवांछित व्यक्ति थे। उनकी लोकप्रियता, उदय और आकर्षण को कई बरसों तक पहचानने में चूक होती रही और आखिरकार मीडिया ने खुद में सुधार किया और आम भावना को समझा। अब ट्रम्प के उभार की काफी बेहतर ढंग से व्याख्या की जा सकती है। जरूरत से ज्यादा छवि-प्रबंधन वाले राजनीतिक प्रतिष्ठान से अमेरिकी उकता गए हैं। वे हर समय राजनीतिक रूप से सही होने की शैली से ऊब गए हैं, क्योंकि इसके कारण अमेरिकी बनावटी हो गए हैं और ज्यादातर समय वे जो महसूस करते हैं, उसे व्यक्त नहीं कर पाते। अमेरिकी आबादी के निम्न आर्थिक तबकों को लगता है कि मौजूदा सारे राजनेता धूर्त मक्कार हैं और वे उनकी जिंदगी में कोई सुधार नहीं ला सकते। ट्रम्प में जो सुरुचि संपन्नता का अभाव (श्रेष्ठि वर्ग के मुताबिक) नज़र आता ै वह वास्तव में उन्हें निम्न आर्थिक वर्गों में प्रिय बनाता है, क्योंकि इसकी वजह से ये तबके अन्य किसी प्रत्याशी की बजाय उनसे खुद को जोड़ पाते हैं। जहां तक ट्रम्प के फर्जी दावों, अतिशयोक्तियों और विद्वेषपूर्ण हमलों की बात है तो यह सच है, लेकिन यह कोई अलग बात नहीं है। 'उच्च वर्ग और सुरुचि' के नेता भी तो यही करते रहे हैं। इसमें हम भारतीयों और भारतीय मीडिया के लिए महत्वपूर्ण सबक है। भारत में वर्गों के बीच विभाजन रेखा बिल्कुल स्पष्ट और गहरी हैं। आमतौर पर विभिन्न भारतीय आर्थिक वर्ग आपस में उससे बहुत कम मिलते-जुलते हैं, जितना वे अमेरिका में ऐसा करते हैं। यदि अमेरिका का एलीट मीडिया ट्रम्प के उदय को पहचानने में गलती कर सकता है तो भारतीय मीडिया से ऐेसा होने की और भी संभावना है। पहले ही भारतीय मीडिया पर सोशल मीडिया को गहरा अविश्वास है। 'प्रेस्टीट्यूट' जैसी अपमानजनक शब्दावली इसी अविश्वास से उपजी है, जो हालांकि अनुचित है, बताती है कि आम लोगों को लगता नहीं है कि मीडिया उनका प्रतिनिधित्व करता है।
मीडिया घरानों और राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे हमेशा अपना एक कान धरती से लगाकर रखें ताकि देश की सामाजिक भावनाअों को समझ सकें। उदाहरण के लिए हार्दिक पटेल का आंदोलन लीजिए। वह िजस तेजी से फैला उसने हर किसी को चौंका दिया। मीडिया घराने को सिर्फ एलीट दिल्ली यूनिवर्सिटी के स्नातकों (जो, बेबाकी से कहें तो, विचित्र कटऑफ मानकों के साथ अब केवल किताबी कीड़ों को ही ले रहे हैं) को ही लेने के लिए बेचैन नहीं रहना चाहिए बल्कि उन लोगों को लेना चाहिए, जिन्हें भारत की समझ है। राजनीतिक दलों को मालूम होना चाहिए कि जनता क्या चाहती है और क्या वह खुश है बजाय इसके कि वे सिर्फ मीडिया रिपोर्टों पर भरोसा करें। लोगों के रूप में हमें भी अपने वॉट्सएप ग्रुप और फेसबुक बबल से परे जाकर देखना चाहिए कि दुनिया हकीकत में कैसी है।
(येलेखक के अपने विचार हैं।)(दैनिक भास्कर )
संदर्भ... राजनीतिकदलों एवं समाचार माध्यमों की सोच और जमीनी हकीकतों से जुड़ने की जरूरत

जीएसटी : लाभ में रहेगी इकोनोमी (जयंतीलाल भंडारी)

यक़ीनन संसद के चालू मॉनसून सत्र में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) विधेयक के राज्य सभा में पारित होने की संभावनाएं आकार ग्रहण कर रही हैं। राज्य सभा में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की शक्ति बढ़ी है और राजग के पास 81 सदस्य हैं। जीएसटी बिल राज्य सभा में पास कराने के लिए 164 सदस्यों का समर्थन चाहिए। ऐसे में इस बिल के लिए समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, जनता दल यूनाइटेड, बीजू जनता दल, बहुजन समाज पार्टी तथा कुछ अन्य छोटे दलों का समर्थन मोदी सरकार को प्राप्त है। पिछले कुछ दिनों में जीएसटी को लेकर सरकार और कांग्रेस के बीच मतभेद कम हुए हैं। मॉनसून सत्र की शुरुआत में कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा है कि कांग्रेस उस किसी भी विधेयक का समर्थन करेगी, जो देश, जनता और विकास के हित में हो। कांग्रेस जीएसटी पर नरम रुख दिखा रही है। कांग्रेस ने भी जीएसटी पर सहयोग के संकेत दिए हैं। कांग्रेस ने कहा कि वह जीएसटी के विरोध में नहीं है। लेकिन उसकी कुछ आशंकाओं का समाधान जरूरी है। कांग्रेस पार्टी ने जीएसटी दर 18 प्रतिशत रखने, 1 प्रतिशत अतिरिक्त कर से दूर रहने और विवाद निपटारा प्राधिकरण बनाए जाने की बात कही है। कांग्रेस मांग करती रही है कि जीएसटी दरों को संविधान का हिस्सा बनाया जाए। मगर सरकार का कहना है कि यह व्यावहारिक सुझाव नहीं है। अगर भविष्य में सरकार चाहती है कि दरों में बदलाव की जरूरत है, तो फिर से संविधान में संशोधन करना होगा। ज्यादातर देशों में जीएसटी दरें कानून के रूप में हैं, न कि संवैधानिक स्वरूप में। जीएसटी विधेयक में कर की दर को परिभाषित करने की व्यवस्था दी गई है। इन दरों में सामान्य बहुमत से कभी भी बदलाव किया जा सकता है। आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में बनी समिति ने मानक जीएसटी दर 17 से 18 प्रतिशत के बीच रखने का प्रस्ताव किया है। अभी उपभोक्ता औसतन 22-23 फीसद टैक्स चुकाते हैं। उल्लेखनीय है कि जीएसटी की दर 18 प्रतिशत तय करने के मसले पर सरकार को 19 जुलाई को प्रमुख क्षेत्रीय दलों और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का विशेष सहारा मिला है। नीतीश कुमार ने केंद्रीय वित्तमंत्री से कहा कि वह जीएसटी की सीमा तय किए जाने के खिलाफ हैं, चाहे यह 18 प्रतिशत हो या कुछ और। कांग्रेस इस बात पर जोर देती रही है कि जीएसटी पर संविधान संशोधन विधेयक में जीएसटी की दर 18 प्रतिशत रखी जानी चाहिए। ऐसे में अब जीएसटी की दर 18 फीसद तय करने में आम सहमति बनते हुए दिखाई दे रही है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि जीएसटी का जो संशोधित विधेयक तैयार हुआ है, वह जीएसटी के मूल विधेयक से बहुत कुछ अलग है। फिर भी कुछ आधी-अधूरी व्यवस्थाओं के बाद भी जीएसटी बहुत उपयोगी साबित होगा। जीएसटी व्यवस्था से उत्पादक प्रदेश और उपभोक्ता प्रदेश दोनों को ही लाभ होगा। ऐसी व्यवस्था सुनिश्चित की गई है कि जो राजस्व वसूल होगा, उसका जितना भाग केंद्र को दिया जाना होगा और जितना भाग राज्य को दिया जाना होगा, वह शीघ्रतापूर्वक केंद्र और राज्य को हस्तांतरित हो जाएगा। इससे कर राजस्व वितरण संबंधी विवादों की संभावना कम होगी। राज्यों के वित्तमंत्रियों की अधिकार प्राप्त समिति की जून 2016 में जीएसटी मसौदा कानून पर महत्त्वपूर्ण बैठक हुई। इसमें प्रस्तावित वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के लिए केंद्र सरकार व राज्यों के बीच प्रशासनिक मतभेद को दूर करने के लिए केंद्रीय उत्पाद एवं सीमा शुल्क बोर्ड (सीबीईसी) ने एक समिति का गठन किया है। यह समिति करदाताओं से संबंधित प्रमुख मसलों को चिह्नित करेगी और बातचीत के माध्यम से उनका समाधान करेगी। इन मसलों में प्रशासनिक सीमा और पुनरीक्षण की शक्तियां शमिल हैं। गौरतलब है कि हाल ही में 17 जुलाई को भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंडल (एसोचैम) ने कहा कि संसद के चालू मॉनसून सत्र में यदि जीएसटी पारित होता है तो यह देश के लिए अधिक लाभप्रद सिद्ध होगा। इस समय जबकि मुद्रास्फीति में तेजी है और औद्योगिक वृद्धि में नरमी है, तब जीएसटी विकास संबंधी नकारात्मक स्थितियों से बचाएगा। यह भी कहा गया है कि जीएसटी लागू होने से देशी-विदेशी निवेश बढ़ेगा, महंगाई कम होगी। नियंतण्र रेटिंग एजेंसी मूडीज इन्वेस्टर सर्विस ने अपनी नई अध्ययन रिपोर्ट में बताया है कि भारत में जीएसटी के शीघ्र लागू होने से निवेश की चमकीली संभावनाएं आकार ग्रहण कर सकती हैं। उल्लेखनीय है कि दुनिया के 150 से अधिक देशों में जीएसटी जैसी कर व्यवस्था लागू है। वस्तुत: लम्बे समय से जीएसटी का लागू होना देश में टैक्स सरलीकरण की दिशा में महत्त्वपूर्ण जरूरत अनुभव की जाती रही है। उल्लेखनीय है कि फिलहाल देश में किसी वस्तु का उत्पादन होता है, तो उस पर राज्य और केंद्र स्तर पर अलग-अलग तरह के टैक्स लगते हैं। केंद्र के टैक्स में सेंट्रल एक्साइज डयूटी, सर्विस टैक्स और अतिरिक्त कस्टम डयूटी शामिल हैं, जबकि राज्यों के कर में वैट, मनोरंजन कर, विलासिता कर, लॉटरी कर, विद्युत शुल्क आदि शामिल हैं। जीएसटी लागू होने पर केंद्रीय बिक्री कर को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाएगा। प्रवेश शुल्क या ऑक्ट्राय को शुरुआत में लिये गए कर में ही शामिल कर लिया जाएगा। जीएसटी की व्यवस्था के तहत आपूत्तर्िकर्ता उत्पादक एवं सेवाप्रदाता द्वारा कर का भुगतान प्रारंभिक बिंदु पर किया जाएगा। संग्रह की लागत भी कम होगी। जीएसटी के लागू होने के बाद जहां उत्पादन की प्रक्रिया से जुड़े उद्यमियों, कर्मचारियों तथा अन्य संबंधित लोगों को लाभ होगा, वहीं कर संग्रह भी बढ़ेगा। जीएसटी से गैर पारदर्शी और भ्रष्ट कर प्रशासन से मुक्ति मिलेगी। (Rs)

भारतीय धरोहरों की वैश्विक पहचान (डॉ. मोनिका शर्मा)

अपनी अतुलनीय धरोहर के लिए भारत के तीन ऐतिहासिक स्थलों को वल्र्ड हेरिटेज साइट्स में स्थान मिला है। विश्व धरोहर सूची में एक साथ तीन भारतीय स्थलों का शामिल किया जाना वाकई एक सुखद समाचार है। गौरतलब है कि यूनेस्को ने प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष को वल्र्ड हेरिटेज साइट में शामिल कर लिया। साथ ही चंडीगढ़ और सिक्किम के राष्ट्रीय पाकोर्ं को अपने विश्व विरासत स्थलों में शामिल कर इस साल भारत से जुड़े तीनों नामांकनों को मंजूरी दी है। इस्तांबुल में विश्व विरासत समिति के 40वें सत्र में बिहार के नालंदा विश्वविद्यालय के पुरातात्विक स्थल, चंडीगढ़ के पीटोल कांप्लेक्स और सिक्किम के कंचनजंघा पार्क को इस फेहरिस्त में शामिल किया गया है। ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी देश के तीन स्थलों को समिति की बैठक के एक ही सत्र में विश्व विरासत सूची में जगह दी गई हो। गौरतलब है कि यूनेस्को हर साल विश्व धरोहरों की अपनी सूची में नई जगहों को शामिल करता है। इस सूची का उद्देश्य दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहरों की ओर ध्यान आकर्षित कर उन्हें अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रकाश में लाना होता है। नि:संदेह यह किसी भी राष्ट्र के लिए गौरव की बात है कि उसके ऐतिहासिक स्थल इस फेहरिस्त में स्थान पायें।
भारत में ऐसे ऐतिहासिक धरोहरों की भरमार है, जिन्होंने हमारी प्राचीन संस्कृति और परंपरा को जीवतंता प्रदान की है। वैसे भी भारत की पहचान उसकी सांस्कृतिक धरोहरों व विरासतों से ही रही है। यहां के सांस्कृतिक प्रतीकों को समङो बिना कोई भारत को समझ नहीं सकता है। ऐसे में विश्व विरासत सूची में तीन और जगहों के नाम जुड़ने से निश्चित रूप से भारत की सांस्कृतिक पहचान को एक नई उड़ान मिलेगी।
पर्यटन के अलावा हमारे देश की ये धरोहर मानवीय और सामाजिक जीवन में आये बदलावों का अध्ययन करने का आधार भी रही है। यही वजह है कि इस अनमोल विरासत के लिए वैश्विक स्तर पर भारत एक विशिष्ट पहचान रखता है। ऐसे में यूनेस्को द्वारा भारत के तीन स्थलों को वैश्विक विरासत के तौर पर स्वीकार करना, हर भारतीय के लिए गर्व करने वाली बात है। इतना ही नहीं ऐसी नई साइट्स का यूनेस्को की सूची में जगह पाना और कई तरह से सकारात्मक ही है। इससे ना केवल पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा बल्कि सांस्कृतिकधरोहरों और स्मारकों के संरक्षण और सुरक्षा को लेकर आमजन को प्रोत्साहन भी मिलेगा। भारत के समृद्ध इतिहास को जानने की इछा रखने वाले देशी -विदेशी पर्यटकों के लिए यह विरासत अनमोल खजाने के समान है। ऐसे में वल्र्ड हेरिटेज की सूची में जगह बनाना तो गौरव की बात तो है ही, यह पर्यटन के लिए भी संजीवनी बूटी है। यूं भी किसी देश में पर्यटकों का आना ना केवल वहां की सांस्कृतिक-ऐतिहासिक धरोहर का मान बढ़ाता है बल्कि आय का भी बड़ा स्नोत होता है।
वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम की ट्रेवल एंड ट्यूरिम कम्पैटिटिव रिपोर्ट के मुताबिक 140 देशों की सूची में भारत 65वें स्थान पर है। पर्यटन के क्षेत्र में हमारा देश काफी तेजी से आगे बढ़ रहा है। जिसके चलते अनगिनत लोगों के लिए रोजगार के नए अवसर पैदा हुए हैं। भारत जैसे विकासशील देश में जहां बेरोजगारी भी एक बड़ी समस्या है कुल रोजगार में 7.78 फीसदी पर्यटन क्षेत्र की भागीदारी बहुत मायने रखती है। हमारा देश आज विश्व के उन देशों में से एक है जो अपनी अनूठी वास्तुकला के चलते हर साल देश दुनिया के लाखों पर्यटकों को अपनी तरफ आकर्षित कर रहा है। हर साल दुनिया के कोने-कोने से यहां पर्यटक आते हैं जो यहां की सुंदरता और विविधता को सहेजे इस धरोहर को देखने और इसके जरिये भारत के समृद्ध इतिहास को समझने का प्रयास करते हैं। यही वजह है कि हमारे यहां के विशिष्ट स्थलों को वैश्विक स्तर पर मान और पहचान मिलने से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कई तरह के लाभ हमारे हिस्से आते हैं। इनमें स्थानीय लोगों को रोजगार मिलने से लेकर इन धरोहरों के संरक्षण के प्रति जन-जागरूकता लाने तक सभी कुछ शामिल है। यूनेस्को द्वारा किसी स्थल का चयन खास भी मायने रखता है क्योंकि विश्व विरासत स्थल समिति द्वारा चयनित इन सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहरों और स्थलों की यही समिति यूनेस्को के तत्वाधान में देख रेख भी करती है। गौरतलब है कि यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत घोषित किए गए सांस्कृतिक और प्राकृतिक स्थलों की सूची में कई भारतीय स्थान मान्य हैं। इन स्थानों में 9 स्थान पिछले पांच वर्ष में ही शामिल किये गए हैं। इन मानित स्थलों में खजुराहों के मंदिर,कोणार्क का सूर्य मंदिर, आगरा का ताजमहल, अजंता एलोरा की गुफाएं, सांची के स्तूप, दिल्ली का कुतुब मीनार, बोधगया का महाबोधि मंदिर आदि सम्मिलित हैं। इन स्थलों में से ताजमहल की गितनी तो विश्व के सात अजूबों में होती है। गुजरात के पाटण में स्थित रानी की वाव को वर्ष 2014 में इस सूची में शामिल किया गया है। देश के सबसे बड़े क्षेत्रफल वाले राय राजस्थान के छह किले आमेर, चित्ताैड़गढ़, कुंबलगढ़, रणथम्भौर, गागरौन और जैसलमेर का किला वर्ष 2013 में यूनेस्को की सूची में शामिल किए जा चुके हैं। इतना ही नहीं भारत में ऐसे कई और स्थान हैं जिनकी मज़बूत दावेदारी पेश की जाए तो वे यूनेस्को की सूची का हिस्सा बन सकते हैं। वैसे यह भी सच है कि भारत की सांस्कृतिक विरासत और ऐतिहासिक धरोहर, दुनिया में किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। पर उनके संरक्षण के प्रति उपेक्षा का जो भाव आमजन और प्रशासनिक मशीनरी में देखने को मिलता है वह वाकई दुखद है। यही वजह है कि यूनेस्को जैसी अन्तरराष्ट्रीय संस्था द्वारा इनके ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए इन्हें वैश्विक विरासत का दर्जा मिल पाया है। वैसे जब इन स्थानों को यूनेस्कों की सूची में शामिल कर लिया गया है उम्मीद की जानी चाहिए कि अब इनका संरक्षण बेहतर तरीके से हो पायेगा।
यह वाकई सुखद और गौरवान्वित करने वाली बात है कि संयुक्त राष्ट्र के शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने महाबोधि मंदिर के बाद बिहार के दूसरे स्थल नालंदा के खंडहर को विश्व धरोहर में शामिल किया है। विश्व धरोहर में शामिल होने वाला यह भारत का 33वां धरोहर है। भारत से अब तक विश्व विरासत स्थल सूची में दर्ज धरोहरों में 25 सांस्कृतिक, जबकि 7 प्राकृतिक श्रेणी के स्थान शामिल हैं। हमारा देश एक समृद्ध विरासत को अपनी आंगन में समेटे हुए हैं। जिसे सहेजा जाना जरूरी है। इन ऐतिहासिक स्थलों को सहेजने का काम हर स्तर पर किया जाना आवश्यक है। हालांकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण संस्थान देश भर में फैले ऐतिहासिक धरोहरों के खजाने को संभालने और सहेजने की कोशिश कर रहा है। वहीं दूसरी तरफ यह भी सत्य है कि अगर इन्हें सहेजने में यूनेस्को जैसी विश्व संस्थाओं की मदद मिल जाए तो इन्हें आसानी से सहेजा जा सकता है। इन धरोहरों को वैश्विक मान्यता मिलने से पर्यटन उद्योग में सकारात्मक बढोतरी तो होना ही है, साथ ही भारत की सांस्कृतिक पहचान का वैश्विक फलक भी विस्तारित होगा।
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(DJ)

संवैधानिक पद पर सवाल

केंद्र और राज्यों के आपसी संबंधों या इनसे जुड़े मुद्दों, विवादों पर चर्चा एवं उनके संभावित समाधान के लिए गठित शीर्ष संस्था इंटर स्टेट काउंसिल की 11वीं बैठक 16 जुलाई को दिल्ली में संपन्न हुई। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली इस परिषद की यह बैठक इस मायने में महत्वपूर्ण है कि यह पूरे दस साल बाद आयोजित हुई है। बैठक में जिन मुद्दों पर चर्चा हुई उनमें एक महत्वपूर्ण विषय था राज्यपाल के पद को लेकर, जिस पर विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सवाल खड़े किए। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो सीधे-सीधे यह मांग कर दी कि राज्यपाल का पद ही समाप्त कर दिया जाए। संविधान के अनुच्छेद 153 के अनुसार राज्यों के लिए राज्यपाल का प्रावधान है। फिर इस संविधानिक पद को खत्म करने की मांग क्यों की जा रही है? इसी से जुड़ा प्रश्न है कि राज्यपाल का पद विवादों में क्यों रहता है? फिर, क्या यह मांग राष्ट्रीय हितों के अनुकूल है? और इस विवाद के हल की क्या संभावित दिशा हो सकती है?
दरअसल विवाद की जड़ में राज्यपाल की नियुक्ति का ढंग, उसकी अर्हता, पदावधि, उसकी विवेकाधीन शक्ति और उसके कार्य करने के तरीके आदि प्रमुख हैं। संविधान के अनुच्छेद 155 के अनुसार राष्ट्रपति राज्यपाल की नियुक्ति करता है। व्यवहार में यह नियुक्ति प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद की अनुशंसा पर होती है। इस अर्थ में राज्यपाल एक तरह से केंद्र सरकार का प्रियपात्र व्यक्ति होता है। इसी अनुच्छेद में विवाद के बीज छिपे हुए हैं, जिनको खाद-पानी देने का काम अन्य संवैधानिक प्रावधान करते हैं। स्वाधीनता के कुछ ही वर्षो के बाद से देखा जाने लगा कि यह पद केंद्र में सत्तासीन पार्टी के राजनेताओं का अड्डा अथवा आरामगाह बन गया। इसी तरह अनुच्छेद 156 के अनुसार आमतौर पर राज्यपाल का कार्यकाल पांच वर्षो के लिए होगा, लेकिन वास्तव में वह राष्ट्रपति के प्रसाद र्पयत तक अपने पद पर रहता है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद जब चाहे उसे हटा सकती है। इस रूप में केंद्र सरकार उस पर मनचाहा दवाब बनाए रहती है।
संविधान में इसका कोई उल्लेख नहीं है कि किन आधारों पर राज्यपाल को हटाया जा सकता है। सिर्फ राजनीतिक पसंद-नापसंद की वजहों से यह खेल होता रहा है, जिसकी शुरुआत लंबे समय तक केंद्र में आसीन कांग्रेस सरकार द्वारा हुई थी। उसी क्रम में 1989 में वीपी सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने पूर्व की सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी द्वारा नियुक्त अनेक राज्यपालों का त्यागपत्र मांग लिया था। 1991 में जब नरसिंह राव की कांग्रेस सरकार बनी तो यही प्रक्रिया दोहराई गई और वीपी सिंह एवं चंद्रशेखर सरकार के समय में नियुक्त दर्जन भर राज्यपालों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। 2014 में आई वर्तमान राजग सरकार ने भी कमोबेश यही रुख अपनाया। हालांकि 2010 में बीपी सिंघल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया है कि राज्यपालों को मनमाने ढंग से केंद्र सरकार नहीं हटा सकती। अगर बर्खास्तगी दुर्भावनापूर्ण या स्वेच्छाचारी है तो पीड़ित व्यक्ति न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है तथापि इस निर्णय के बावजूद भी केंद्र सरकार येन-केन प्रकारेण राज्यपालों को हटा सकने में सक्षम है।
राज्यपाल की अर्हता भी समस्या से परे नहीं है। राज्यपाल के लिए दो अर्हताएं हैं। भारत का नागरिक होना और 35 वर्ष का होना। हालांकि इसमें एक अन्य परंपरा भी जुड़ गई है कि उसे उस राज्य का नहीं होना चाहिए जहां उसकी नियुक्ति हुई हो ताकि वह स्थानीय राजनीति से मुक्त रहे। हालांकि कुछ मामलों में इस परंपरा का उल्लंघन भी हुआ है। विवाद राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति और उसकी कार्यप्रणाली को लेकर भी है। अक्सर आरोप लगाया जाता है कि वह राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में कार्य करने के बजाय केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में ही ज्यादा कार्य करता है। चाहे किसी विधेयक को मंजूरी देने मुद्दा हो (गुजरात के राज्यपाल के रूप में कमला बेनीवाल की भूमिका विवादास्पद रही थी जब उन्होंने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के नौ बिलों को मंजूरी देने में अड़ंगा लगाया) अथवा मुख्यमंत्री की नियुक्ति का मसला हो (2005 में झारखंड के राज्यपाल द्वारा अनुचित रूप से शिबू सोरेन की मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्ति) अथवा राष्ट्रपति शासन की अनुचित अनुशंसा का मामला हो (उत्तराखंड का हालिया प्रकरण) या फिर अरुणाचल प्रदेश में राज्यपाल की विवादस्पद भूमिका की हालिया घटना हो-राज्यपालों के कामकाज अक्सर विवादित रहे हैं।
इन्हीं कारणों से गाहे-बगाहे इस पद को खत्म करने की मांग उठती रही है। लेकिन क्या यह मांग जायज है? खास तौर से विशिष्ट समस्याओं और विविधताओं से भरे भारत में हमारे अनेक राज्य जहां सीमावर्ती हैं तो दूसरी ओर अनेक राज्यों में ऐसी स्थानीय पार्टियां हैं जो राष्ट्रीय हितों को ज्यादा तरजीह नहीं देतीं। इन स्थितियों में राष्ट्र की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर राज्यपाल की महत्वपूर्ण भूमिका है और इसलिए अनिवार्यता भी। फिर समाधान क्या है? सही हल तो यही होगा कि राज्यपाल के पद को खत्म करने के बजाय उसकी नियुक्ति की प्रक्रिया, अर्हता, पदावधि और विवेकाधीन शक्तियों को फिर से परिभाषित किया जाए। इस संदर्भ में सरकारिया कमीशन रिपोर्ट, वाजपेयी सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय संविधान समीक्षा आयोग रिपोर्ट तथा पुंछी कमीशन रिपोर्ट हमारा मार्गदर्शन कर सकती हैं। एक तो राज्यपाल की नियुक्ति के लिए एक समिति गठित हो जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और लोकसभा अध्यक्ष या उपराष्ट्रपति हों। साथ ही पैनल बनाते समय मुख्यमंत्री की राय अवश्य ली जाए। दूसरे, उसका कार्यकाल पांच वर्षो के लिए सुनिश्चित हो। उसे पद से हटाना हो तो सुप्रीम कोर्ट के जज को हटाने जैसी प्रक्रिया अपनाई जाए। तीसरे, कुछ नकारात्मक अर्हताएं भी तय हों, जैसे नौकरशाहों अथवा जजों के लिए अवकाश के बाद दो वर्ष की पाबंदी हो और विवेकाधीन अधिकारों का स्पष्ट रूप से कोडीफिकेशन हो ताकि उनका दुरुपयोग न हो सके। देशहित सवरेपरि है और उसके लिए राज्यपाल आवश्यक हैं, लेकिन मौजूदा स्थिति पर तो पुनर्विचार करना ही होगा।(DJ)
(विभिन्न अमेरिकी विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक रहे लेखक सम्प्रति दिल्ली विवि में प्रोफेसर हैं)

चीन की सीनाजोरी के अर्थ (डब्लू पी एस सिद्धू, सीनियर फेलो, न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी)

हेग की परमानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन ने साउथ चाइना सी (दक्षिण चीन सागर) पर चीन के दावे को लेकर जो फैसला दिया है, वह पहली नजर में उसके और फिलीपींस का द्विपक्षीय मामला लगता है। लेकिन हकीकत में यह एक उदाहरण भी है कि चीन किस तरह से पूरी दुनिया पर एक नई विश्व-व्यवस्था को थोपने की कोशिश कर रहा है।
फैसले से पहले और बाद में लगा कि चीन इस मामले पर हंगामा करने और लड़ाई की धमकी देने की रणनीति अपना रहा है। उसके इस व्यवहार से भारत समेत दुनिया की सभी बड़ी ताकतों के कान खड़े हो गए।
चीन का रवैया कभी पूरी अवज्ञा के साथ इस मामले से अपने को अलग करने का दिखा, तो कभी अदालत के क्षेत्राधिकार को ही नकारने का और बाकी पक्षों को सीधे-सीधे धमकी देने का। उसने न तो कभी इस अदालत से सहयोग करने की थोड़ी-सी भी कोशिश की और न ही वह इस मामले पर अपने लिए समर्थन जुटाता दिखा। इस सबकी बजाय वह यह मानकर बैठा रहा है कि एक विश्व महाशक्ति के तौर पर उसे यह अधिकार है कि वह ऐसी सारी व्यवस्थाओं को धता बताए; उन व्यवस्थाओं को भी, जिन्हें बनाने में वह भागीदार है।
दिलचस्प बात यह है कि इस मामले में उसका समर्थन करने वाले देशों में अफगानिस्तान और नाइजर भी शामिल हैं। ये दोनों ऐसे देश हैं, जो हर तरफ से भूमि से घिरे हैं और समुद्र के कानून का उनके पास कोई अनुभव नहीं है। विडंबना यह है कि इस मामले में ताईवान ने भी इस अदालत के फैसले को नकार दिया है, वह चीन के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है, जबकि साउथ चाइना सी पर वह भी अपना दावा जताता रहा है। पाकिस्तान भी चीन के साथ है। उसका कहना है कि इस मामले को सबंधित देशों को आपसी बातचीत से सुलझाना चाहिए, जबकि संयुक्त राष्ट्र में इस्लामाबाद के प्रतिनिधि का पक्ष यही है कि द्विपक्षीय मामलों को सुलझाने के लिए ऐसे फैसलों को लागू किया जाना चाहिए। चीन के 'वैकल्पिक अपवाद' के तर्क ने उसे ऐसा थोड़ा-बहुत समर्थन जरूर दिलवा दिया है।
लेकिन अमेरिका इससे सहमत नहीं है और उसके रक्षा सचिव एस्टर कार्टर ने कहा है कि चीन इस कदम से अपने लिए अलगाव की एक दीवार खड़ी कर लेगा। समुद्री कानून पर संयुक्त राष्ट्र संहिता, परमानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन और साउथ चाइना सी पर चीन का रवैया भारत के उस रवैये के बिल्कुल विपरीत है, जो उसने 2008 में न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप से राहत पाने के लिए अपनाया था और कामयाबी भी हासिल की थी। बेशक इसमें अमेरिका ने भारत की मदद भी की थी। वहां पर भारत को यह राहत काफी कुछ दुनिया में नई दिल्ली की बढ़ती भूमिका और कुछ हद तक दुनिया की महत्वपूर्ण राजधानियों में चलाए गए उसके राजनयिक अभियान के चलते मिली थी।
अदालत के निणर्य पर चीन का रवैया शांतिपूर्ण विश्व-व्यवस्था के दो मिथकों को भी चुनौती देता दिखाई दे रहा है। इसमें पहला मिथक यह है कि देशों के बीच आर्थिक और व्यापारिक रिश्ते जितने ज्यादा होंगे, भू-राजनीतिक तनाव उतने ही कम हो जाएंगे। लेकिन चीन के मामले में अनुभव कुछ और ही कहता है। 2015 में एसोसिएशन ऑफ साउथ-ईस्ट एशियन नेशंस यानी आसियान चीन का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन गया था। चीन के आधिकारिक आंकड़ों के हिसाब से 2015 में चीन और फिलीपींस के बीच का व्यापार 2.7 फीसदी की दर से बढ़ा और 45.65 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया।
फिलीपींस उन चार आसियान देशों में से एक है, जिनका चीन के साथ कारोबार लगातार बढ़ रहा है। और अगर हम फिलीपींस के आधिकारिक आंकड़ों को देखें, तो 2015 में चीन उसका दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी था। जिन देशों को फिलीपींस से निर्यात होता है, उनमें चीन तीसरे नंबर पर है। लेकिन अदालत के इस फैसले के बाद दोनों देशों के बीच जो कड़वाहट दिखाई दी, वह यही बताती है कि इस बढ़ते व्यापार ने दोनों के बीच मित्रता बढ़ाने में कोई भूमिका नहीं निभाई।
ऐसा ही दूसरा मिथक यह है कि विवादों के निपटारे की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्थाएं जितनी ज्यादा और जितनी व्यापक होंगी, धमकियों और ताकत के इस्तेमाल की गुंजाइश उतनी ही कम हो जाएगी। चीन के रवैये ने इस मिथक को भी तोड़ दिया है। एक धारणा यह रही है कि आर्थिक और व्यापारिक संस्थाओं के एकीकरण से अंतरराष्ट्रीय सहयोग बढ़ रहा है, लेकिन इस फैसले के खिलाफ चीन की तीखी प्रतिक्रिया ने यह खतरा भी पैदा कर दिया है कि दुनिया में चलने वाली तमाम बहुपक्षीय प्रक्रियाएं अब विपरीत दिशा में जा सकती हैं। मसलन, सितंबर में चीन के हांगचो में जी-20 देशों का सम्मेलन हो रहा है, यह चीन के नेतृत्व में हो रहा है और वहां इसका असर दिख सकता है। इसी तरह, अक्तूबर में गोवा में ब्रिक्स देशों का सम्मेलन होना है, वहां भी इसका असर दिख सकता है। दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार की जो प्रक्रिया चल रही थी, वह तो वैसे भी काफी धीमी पड़ चुकी है, मगर अब इसके और भी धीमे हो जाने की आशंका है। इसका असर भारत और चीन के बीच चल रहे सीमा-विवाद को निपटाने की प्रक्रिया पर भी पड़ेगा।
एक बात तय है कि परमानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन का फैसला लागू हो पाने की जरा भी संभावना नहीं है। ऐसे फैसले को सिर्फ अमेरिका लागू करवा सकता है, लेकिन एक तो अमेरिका अकेला ऐसा देश है, जिसने संयुक्त राष्ट्र के समुद्री कानून कन्वेंशन पर अभी तक दस्तखत नहीं किए हैं और दूसरा, अभी वह चीन को सैनिक चुनौती नहीं देना चाहता। बीजिंग ने इस मुद्दे पर सैनिक कवायद बढ़ाने की खुली धमकी दी है। इतना ही नहीं, उसने अपनी कथित 'कैरियर-किलर' मिसाइलों को भी तैनात कर दिया है।
दुनिया अब और ज्यादा उथल-पुथल भरी, और ज्यादा खतरनाक, और ज्यादा अव्यवस्थित हो चुकी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)(Hindustan)

नाकाम तख्ता पलट के तर्क-वितर्क हरिमोहन मिश्र

तूर्की में तख्तापलट की नाकाम कोशिश क्या आतंकवाद से लड़ने के तरीकों के खिलाफ पैदा हो रहे आक्रोश का नतीजा है? क्या इसमें बेहद उथल-पुथल के दौर से गुजर रही विश्व व्यवस्था के लिए भी कोई नया संकेत है? या फिर यह लम्बे समय से तुर्की में राष्ट्रपति एदरेगन के राजकाज खिलाफ पैदा हो रहे असंतोष का ही एक बेदम-सा इजहार था? ये सवाल आज खासकर आईएस के आतंक से बुरी तरह पीड़ित दुनिया और ब्रिटेन में चिलकॉट रिपोर्ट में नाजायज इराक युद्ध से हुई बर्बादी के लिए पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के खिलाफ चल रही बहस के आलोक में खास महत्त्व के हो गए हैं। दरअसल फ्रांस के नीस शहर में बेस्तिल दिवस पर भारी सुरक्षा तामझाम से भी फिदायीन हमले को नहीं रोका जा सका। अमेरिका, यूरोप, दक्षिण-पूर्व एशिया में तो इसकी तबाही पिछले साल भर से रुक नहीं रही है। यूरोप के आर्थिक संकट में भी यह बड़ा पहलू बना हुआ है। सुरक्षा तामझाम पर जितना खर्च बढ़ता है, उसी मुकाबले दूसरे खर्चो में कटौती का असर अर्थव्यवस्था को झेलनी पड़ती है। इससे यह धारणा भी घर करने लगी है कि मौजूदा आतंक की व्यापकता और उससे लड़ने के नजरिए में भारी गफलत है। ब्रिटेन में चिलकॉन रिपोर्ट से इसी गफलत और आतंक से लड़ाई के मौजूदा रवैए के नफा-नुकसान पर बहस छिड़ी हुई है। वहां टोनी को कुछ लोग युद्ध अपराधी तक बताने लगे हैं।हाल के दौर में इसका सबसे अधिक देश तुर्की के शहरों को झेलना पड़ा है। पिछले साल से जारी बम धमाकों और आतंकी घटनाओं से लोग काफी तंगी महसूस कर रहे हैं। सीरिया और इस्लामिक स्टेट (आईएस) के खिलाफ अभियान, विद्रोही कुर्द लड़ाकों से लड़ाई ने भी तुर्की के जन-जीवन को काफी तबाह किया है। लिहाजा, ये हालात भी फौज में असंतुष्ट और राष्ट्रपति एदरेगन विरोधी तत्वों को शह की वजह बने हो सकते हैं। तुर्की सीरिया के शरणार्थी संकट को भी झेल रहा है और वह शरणार्थियों को यूरोप रवाना करने का भी मुख्य द्वार है। राष्ट्रपति एदरेगन सीरिया में अल असद की शिया सरकार के खिलाफ विद्रोहियों की मदद तो कर रहे थे, नाटो का महत्त्वपूर्ण ठिकाना होने के नाते तुर्की ही आईएस के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय अभियान का भी मुख्य केंद्र है। इससे पिछले साल से ही तुर्की में पर्यटकों की आमद और कारोबार लगभग ठप्प हो गया था। एक खबर में तुर्की के एक बुद्धिजीवी को यह कहते उद्धृत किया गया है कि ‘‘हम ठगा-सा महसूस करते हैं। तुर्की के समाज में अब और ऊर्जा नहीं बची है। हम कुछ होने का इंतजार कर रहे हैं, मानो तुर्की के नए उभार का इंतजार कर रहे हों।’ दरअसल, तुर्की का समाज एक विचित्र स्थिति में फंसा हुआ है। उसके सभी बड़े शहरों में बम धमाके लगभग रोजमर्रा की बात हो चली है। उसका समज बुरी तरह बंटा हुआ है। वहां कुछ लोग किसी भी वक्त गृह युद्ध छिड़ने की आशंका जताने लगे थे। देश के दक्षिणी-पूर्वी सीमा पर कुर्द अलगावादी नए सिरे से सक्रिय हैं। उसके दक्षिण के देश इराक और सीरिया तो भयावह युद्ध की चपेट में हैं ही, जिसकी आग से वह झुलस रहा है। हालांकि तख्तापलट की नाकाम कोशिश साबित करती है कि राष्ट्रपति एदरेगन की पकड़ अभी बनी हुई है या यह कहिए कि लोग फौजी तानाशाही के पक्ष में कतई नहीं हैं। यह इससे भी साबित होता है कि एदरेगन की धुर विरोधी पार्टियों सहित लगभग सभी ने फौज के एक वर्ग की तख्तापलट की कोशिश का विरोध किया। बकौल एदरेगन, यह अमेरिका के पेनसिल्वानिया में स्वयंभू निर्वासन में रह रहे मौलाना फतुल्ला गुलेन के समर्थकों का कारनामा था। हालांकि फेतुल्ला समर्थकों ने इससे इनकार किया है और राजनीति में किसी तरह के सैन्य दखलअंदाजी की निंदा की है।एदरेगन के इस्लामी रुझान के विपरीत फतुल्ला उदार इस्लाम में यकीन करते हैं और सभी धर्मो को समान सम्मान देने के हिमायती हैं। लेकिन मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि तख्तापलट की यह कोशिश फौज में कमाल अतातुर्क की सेकुलर धारा में यकीन करने वालों की थी, जो एदरेगन के इस्लामी रीति-रिवाजों को शह देने के खिलाफ रहे हैं। 1920 के दशक में कमाल अतातुर्क ने तुर्की में एक आधुनिक सेकुलर व्यवस्था की नींव रखी थी। तुर्की कम से कम पिछले आठ दशकों तक उसी व्यवस्था को कड़ाई से पालन करता रहा है और समय-समय पर कई बार फौज ने सत्ता अपने हाथ में लेकर खास सेकुलर व्यवस्था को बनाए रखने की कोशिश की है। ऐसा आखिरी तख्ता पलट 1997 में हुआ था। लेकिन उसके बाद से फौज से विद्रोह की ताकत नहीं उभरी थी। हालांकि कमालवादी व्यवस्था में खासकर किसान और कुर्द जैसे अल्पसंख्यक उपेक्षित महसूस करते थे। इसी भावना को भुनाकर कुछ उदार किस्म की इस्लामी धारा में यकीन करने वाली एदरेगन की पार्टी एकेपी 2002 के आखिर में हुए चुनावों में सत्ता में पहुंची तो 2003 में प्रधानमंत्री बने एदरेगन ने मुस्लिम और गरीब इलाकों को विकसित करने की नीतियां बनाई। इससे वे काफी लोकप्रिय हो गए। 2014 में वे राष्ट्रपति चुन लिए गए। लेकिन एदरेगन के राज में बेपनाह भ्रष्टाचार की शिकायतें मिलीं। उनके करीबी लोगों की सम्पत्तियों में बेपनाह इजाफा हुआ। इसके खिलाफ 2013 और 2015 में भारी प्रदर्शन हुए जिसे एदरेगन ने कड़ाई से दबा दिया। एदरेगन अपना जन समर्थन हासिल करने के लिए तुर्की के उस्मानिया साम्राज्य का गौरव वापस लाने की बात करते हैं और आठ दशकों के कमालवाद की सेकुलर व्यवस्था को बेमानी बताते हैं। यह सही है कि सेना में कमालवादी तत्व कई बार तख्तापलट की कोशिश कर चुके हैं पर उन्हें 1980 के बाद से कामयाबी नहीं हासिल हो पाई है। पर ताजा असंतोष की असली वजह शायद लगातार युद्ध की स्थितियों से जर्जर होती देश की व्यवस्था ही है। इसलिए प.एशिया के हालात और आतंकवाद से लड़ाई पर नए नजरिये की दरकार है।(DJ)