Friday 8 July 2016

उदारीकरण के 25 साल (हृदयनारायण दीक्षित )

पूंजी का देश नहीं होता। लेकिन हरेक राष्ट्र की अपनी पूंजी होती है। अपने मानव संसाधन, अपनी धरती, खनिज संपदा, कृषि उत्पादन, पशुधन, नदियां और अन्य तमाम इंफ्रास्ट्रक्चर। गांधीजी इसे स्वदेशी पूंजी कहते थे। भारतीय समृद्धि से ललचाए अनेक विदेशी हमलावर यहां आए। अंग्रेजी सत्ता यहां से कपास ले जाती थी। गांधी के अनुसार मैनचेस्टर की समृद्धि का मूल कारण भारत का कच्चा माल था। यहां से कपास जाता था, वहां से भारत में कपड़े आते थे। भूमंडलीकरण तब भी था। सत्ताधीश अंग्रेज नियामक थे और भारतवासी लाचार। 1947 में ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति मिली। अर्थनीति की दिशा तय करने की शक्ति पं. नेहरू को मिली। वे मिश्रित व नियंत्रित अर्थव्यवस्था की राह चले। आयात नीति जरूरी वस्तुओं तक सीमित थी। तमाम नियंत्रण थे, लेकिन 1991 तक पूरी अर्थव्यवस्था चरमरा गई। भ्रष्टाचार और अव्यावहारिक अर्थनीति के चलते 1991 में विदेशी मुद्राकोष घटकर एक अरब डालर रह गया। यह एक माह के आयात बिल के लिए भी कम था। भुगतान संतुलन की स्थिति भयावह थी और अर्थव्यवस्था में अराजकता। आर्थिक उदारीकरण की घोषणा हुई। अंतरराष्ट्रीय दबाव में जुलाई 1991 में रुपये का अवमूल्यन हुआ। विदेशी पूंजी के द्वार खोले गए। उदारीकरण के 25 बरस पूरे हो रहे हैं। लेकिन 25 बरस बाद भी गरीबी, बेरोजगारी, जनस्वास्थ्य, श्रमिक और पर्यावरण की चिंताएं और भी बढ़ी हैं।
पूंजी का भूमंडलीकरण नई बात नहीं। शक्तिशाली अंतरराष्ट्रीय जमातों ने प्रथम विश्व युद्ध के 20-30 बरस पहले से ही पूंजी के प्रवाह को भूमंडलीकृत किया था। यह प्रवाह दूसरे विश्व युद्ध के बाद भी दसेक वर्ष तक बना रहा। आर्थिक उदारीकरण के नुकसान भी हैं। ब्रिटेन की जनता ने आर्थिक राष्ट्रवाद के चलते ही यूरोपीय संघ से हट जाने का फैसला सुनाया है। स्वतंत्र भारत के नेताओं ने शुरुआती दौर में अनेक प्रयोग किए थे। स्वाधीनता आंदोलन का आधार राष्ट्रवादी था, लेकिन शासक सरकारी समाजवाद के प्रति आकर्षित थे। उन्होंने 1948 में ही रिवर्ज बैंक का राष्ट्रीयकरण किया था। 1955 में इंपीरियल बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया हो गया। पूंजी की कमी दूर करने के लिए विदेशी सहायता ली जाने लगी। इंदिरा गांधी ने अन्य व्यावसायिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। आयात पर कड़ाई और निर्यात के प्रोत्साहन के बावजूद 1975 तक विकास दर चार प्रतिशत से कम ही रही। सार्वजनिक क्षेत्र असफल हो रहा था। सातवीं पंचवर्षीय योजना में नियंत्रण ढीले हुए। निजी क्षेत्र को वरीयता मिली। नियंत्रित अर्थव्यवस्था के बावजूद 1980 में लगभग साढ़े छह हजार कंपनियों में पूर्णत: या अंशत: विदेशी पूंजी थी। 1990 तक ऐसी कंपनियों की संख्या लगभग साढ़े तेरह हजार थी।
आर्थिक उदारीकरण का अर्थ विदेशी पूंजी निवेश (एफडीआइ) ही नहीं होता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरकार के बारे में ‘मिनिमम गवर्नेस-कम से कम शासन’ जैसा सुंदर शब्द इस्तेमाल किया था। अर्थशास्त्र में इसे निर्बाधावाद या अहस्तक्षेपी सिद्धांत कहा जाता है। उत्पादकों की संपूर्ण प्रतियोगिता इस सिद्धांत का आधार है। सब स्वस्थ प्रतिस्पर्धी हों लेकिन सरकार का हस्तक्षेप कम से कम। खुली अर्थनीति या आर्थिक उदारीकरण का मतलब यही है। इसमें एफडीआइ शामिल है। अर्थशास्त्रियों की मान्यता है कि इससे रोजगार के अवसर बढ़ते हैं। उत्पादकों की प्रतिस्पर्धा में उपभोक्ता को लाभ मिलते हैं। लेकिन महंगाई या मंदी से जूझने का काम तो भी सरकार ही करती है। रिजर्व बैंक ब्याज दरों के घटाने बढ़ाने सहित तमाम उपायों से अर्थव्यवस्था को गति देने का काम करता है और अन्य संस्थाएं भी। उदारीकरण की सफलता या असफलता का दारोमदार सरकारी नीतियों से जुड़ा रहता है।
आर्थिक उदारीकरण से विकास दर बढ़ी है। सकल राष्ट्रीय संपदा बढ़ी है। लेकिन उदारीकरण के मूल सिद्धांत के अनुसार उत्पादकों में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं है। भारी पूंजी वाली कंपनियों के सामने कम पूंजी वाले संस्थान प्रतियोगिता से बाहर हैं। देश की 75 प्रतिशत जनता गरीब ग्रामीण है। महानगरों की चमक बढ़ी है। उदारीकरण का लाभ ग्रामीणांे तक नहीं पहुंचा। खेती घाटे का व्यवसाय है, देहाती शिल्प खत्म हो गए। किसान आत्महत्या को विवश हैं। केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, पुडुचेरी, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र, असम, ओडिसा, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में बीते 25 बरस में लाखों किसानों ने खुदकुशी की। ग्रामीण क्षेत्रों में भारी पलायन भी जारी है। उदारीकरण सब्सिडी का विरोधी है। किसान की परिभाषा में झोल है। किसानों की पुत्र, पत्नियां और परिजन कृषि जोत के कानूनी मालिक नहीं हैं। कृषि दुर्घटना बीमा या आत्महत्या के मामले में उन्हें किसान नहीं माना जाता। शिक्षा, जनस्वास्थ्य, रोजगार, कृषि विकास और खाद्यान्न सुरक्षा जैसे कार्य राष्ट्र राज्य के कर्तव्य हैं। अब साधारण शिक्षा ही नहीं उच्च स्तरीय मेडिकल या इंजीनियरिंग जैसी शिक्षा भी निजी क्षेत्र के नियंत्रण में है। राष्ट्र के लिए यह कर्तव्य है, पूंजीपति के लिए मुनाफे का व्यवसाय। जनस्वास्थ्य में निजी क्षेत्र का साम्राज्य है। कृषि क्षेत्र हताश है। वाजपेयी की सरकार ने बेशक किसान क्रेडिट कार्ड देकर करोड़ों किसानों को पूंजी प्राप्त कराने का अवसर दिया था लेकिन संप्रग सरकार में किसानों की उपेक्षा हुई। मोदी सरकार ने भी कृषि आपदा राशि में क्षति के मानक घटाकर किसानों को राहत पहुंचाई है। सिंचाई योजनाएं भी परिणामदायी होंगी। कृषि क्षेत्र को अपनी मौत मरने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता।
गरीबी हटाना राष्ट्रीय कर्तव्य है। मुक्त अर्थव्यवस्था का भी दिखावटी ध्येय है। कुछ माह पहले संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था ने ‘प्रसन्न देशों की सूची’ जारी की थी। भारत इस सूची में 100 से भी नीचे था। बेशक इस अर्थनीति का कोई ठोस व्यावहारिक विकल्प नहीं। सरकारी समाजवाद चीन में भी विकल्प नहीं रहा। सोवियत रूस इसीलिए बिखर गया था। जैसे चीन ने समाजवाद के भीतर उदारीरकण की जरूरी जगह बनाई है, वैसे ही भारत को आर्थिक उदारीकरण के बीच लोक कल्याण के लिए सतत् काम करना चाहिए। विकास दर का लाभ कुछेक घरानों, वर्गो तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। उदारीकरण से पैदा होने वाले रोजगारों की समीक्षा भी जरूरी है। सभ्यता संस्कृति पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव भी अध्ययन योग्य हैं। उदारीकरण की नीतियों को सबके लाभ का उपकरण बनाना होगा। ‘सबका साथ, सबका विकास’ का लक्ष्य पूरा करने के लिए प्रशासन तंत्र को भी जनहित प्रतिबद्ध करना जरूरी है।1(लेखक उप्र विधान परिषद में भाजपा के नेता हैं)(DJ)

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