Friday 29 July 2016

संवैधानिक पद पर सवाल

केंद्र और राज्यों के आपसी संबंधों या इनसे जुड़े मुद्दों, विवादों पर चर्चा एवं उनके संभावित समाधान के लिए गठित शीर्ष संस्था इंटर स्टेट काउंसिल की 11वीं बैठक 16 जुलाई को दिल्ली में संपन्न हुई। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली इस परिषद की यह बैठक इस मायने में महत्वपूर्ण है कि यह पूरे दस साल बाद आयोजित हुई है। बैठक में जिन मुद्दों पर चर्चा हुई उनमें एक महत्वपूर्ण विषय था राज्यपाल के पद को लेकर, जिस पर विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सवाल खड़े किए। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो सीधे-सीधे यह मांग कर दी कि राज्यपाल का पद ही समाप्त कर दिया जाए। संविधान के अनुच्छेद 153 के अनुसार राज्यों के लिए राज्यपाल का प्रावधान है। फिर इस संविधानिक पद को खत्म करने की मांग क्यों की जा रही है? इसी से जुड़ा प्रश्न है कि राज्यपाल का पद विवादों में क्यों रहता है? फिर, क्या यह मांग राष्ट्रीय हितों के अनुकूल है? और इस विवाद के हल की क्या संभावित दिशा हो सकती है?
दरअसल विवाद की जड़ में राज्यपाल की नियुक्ति का ढंग, उसकी अर्हता, पदावधि, उसकी विवेकाधीन शक्ति और उसके कार्य करने के तरीके आदि प्रमुख हैं। संविधान के अनुच्छेद 155 के अनुसार राष्ट्रपति राज्यपाल की नियुक्ति करता है। व्यवहार में यह नियुक्ति प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद की अनुशंसा पर होती है। इस अर्थ में राज्यपाल एक तरह से केंद्र सरकार का प्रियपात्र व्यक्ति होता है। इसी अनुच्छेद में विवाद के बीज छिपे हुए हैं, जिनको खाद-पानी देने का काम अन्य संवैधानिक प्रावधान करते हैं। स्वाधीनता के कुछ ही वर्षो के बाद से देखा जाने लगा कि यह पद केंद्र में सत्तासीन पार्टी के राजनेताओं का अड्डा अथवा आरामगाह बन गया। इसी तरह अनुच्छेद 156 के अनुसार आमतौर पर राज्यपाल का कार्यकाल पांच वर्षो के लिए होगा, लेकिन वास्तव में वह राष्ट्रपति के प्रसाद र्पयत तक अपने पद पर रहता है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद जब चाहे उसे हटा सकती है। इस रूप में केंद्र सरकार उस पर मनचाहा दवाब बनाए रहती है।
संविधान में इसका कोई उल्लेख नहीं है कि किन आधारों पर राज्यपाल को हटाया जा सकता है। सिर्फ राजनीतिक पसंद-नापसंद की वजहों से यह खेल होता रहा है, जिसकी शुरुआत लंबे समय तक केंद्र में आसीन कांग्रेस सरकार द्वारा हुई थी। उसी क्रम में 1989 में वीपी सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने पूर्व की सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी द्वारा नियुक्त अनेक राज्यपालों का त्यागपत्र मांग लिया था। 1991 में जब नरसिंह राव की कांग्रेस सरकार बनी तो यही प्रक्रिया दोहराई गई और वीपी सिंह एवं चंद्रशेखर सरकार के समय में नियुक्त दर्जन भर राज्यपालों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। 2014 में आई वर्तमान राजग सरकार ने भी कमोबेश यही रुख अपनाया। हालांकि 2010 में बीपी सिंघल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया है कि राज्यपालों को मनमाने ढंग से केंद्र सरकार नहीं हटा सकती। अगर बर्खास्तगी दुर्भावनापूर्ण या स्वेच्छाचारी है तो पीड़ित व्यक्ति न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है तथापि इस निर्णय के बावजूद भी केंद्र सरकार येन-केन प्रकारेण राज्यपालों को हटा सकने में सक्षम है।
राज्यपाल की अर्हता भी समस्या से परे नहीं है। राज्यपाल के लिए दो अर्हताएं हैं। भारत का नागरिक होना और 35 वर्ष का होना। हालांकि इसमें एक अन्य परंपरा भी जुड़ गई है कि उसे उस राज्य का नहीं होना चाहिए जहां उसकी नियुक्ति हुई हो ताकि वह स्थानीय राजनीति से मुक्त रहे। हालांकि कुछ मामलों में इस परंपरा का उल्लंघन भी हुआ है। विवाद राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति और उसकी कार्यप्रणाली को लेकर भी है। अक्सर आरोप लगाया जाता है कि वह राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में कार्य करने के बजाय केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में ही ज्यादा कार्य करता है। चाहे किसी विधेयक को मंजूरी देने मुद्दा हो (गुजरात के राज्यपाल के रूप में कमला बेनीवाल की भूमिका विवादास्पद रही थी जब उन्होंने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के नौ बिलों को मंजूरी देने में अड़ंगा लगाया) अथवा मुख्यमंत्री की नियुक्ति का मसला हो (2005 में झारखंड के राज्यपाल द्वारा अनुचित रूप से शिबू सोरेन की मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्ति) अथवा राष्ट्रपति शासन की अनुचित अनुशंसा का मामला हो (उत्तराखंड का हालिया प्रकरण) या फिर अरुणाचल प्रदेश में राज्यपाल की विवादस्पद भूमिका की हालिया घटना हो-राज्यपालों के कामकाज अक्सर विवादित रहे हैं।
इन्हीं कारणों से गाहे-बगाहे इस पद को खत्म करने की मांग उठती रही है। लेकिन क्या यह मांग जायज है? खास तौर से विशिष्ट समस्याओं और विविधताओं से भरे भारत में हमारे अनेक राज्य जहां सीमावर्ती हैं तो दूसरी ओर अनेक राज्यों में ऐसी स्थानीय पार्टियां हैं जो राष्ट्रीय हितों को ज्यादा तरजीह नहीं देतीं। इन स्थितियों में राष्ट्र की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर राज्यपाल की महत्वपूर्ण भूमिका है और इसलिए अनिवार्यता भी। फिर समाधान क्या है? सही हल तो यही होगा कि राज्यपाल के पद को खत्म करने के बजाय उसकी नियुक्ति की प्रक्रिया, अर्हता, पदावधि और विवेकाधीन शक्तियों को फिर से परिभाषित किया जाए। इस संदर्भ में सरकारिया कमीशन रिपोर्ट, वाजपेयी सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय संविधान समीक्षा आयोग रिपोर्ट तथा पुंछी कमीशन रिपोर्ट हमारा मार्गदर्शन कर सकती हैं। एक तो राज्यपाल की नियुक्ति के लिए एक समिति गठित हो जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और लोकसभा अध्यक्ष या उपराष्ट्रपति हों। साथ ही पैनल बनाते समय मुख्यमंत्री की राय अवश्य ली जाए। दूसरे, उसका कार्यकाल पांच वर्षो के लिए सुनिश्चित हो। उसे पद से हटाना हो तो सुप्रीम कोर्ट के जज को हटाने जैसी प्रक्रिया अपनाई जाए। तीसरे, कुछ नकारात्मक अर्हताएं भी तय हों, जैसे नौकरशाहों अथवा जजों के लिए अवकाश के बाद दो वर्ष की पाबंदी हो और विवेकाधीन अधिकारों का स्पष्ट रूप से कोडीफिकेशन हो ताकि उनका दुरुपयोग न हो सके। देशहित सवरेपरि है और उसके लिए राज्यपाल आवश्यक हैं, लेकिन मौजूदा स्थिति पर तो पुनर्विचार करना ही होगा।(DJ)
(विभिन्न अमेरिकी विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक रहे लेखक सम्प्रति दिल्ली विवि में प्रोफेसर हैं)

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