Monday 4 July 2016

जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य (धीप्रज्ञ द्विवेदी)

मानव के स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन का सीधे-सीधे असर पड़ता है, इस बात को अब साबित करने की जरूरत नहीं है। दुनिया भर के वैज्ञानिकों, जलवायु विशेषज्ञों की मुख्य चिंता स्वास्थ्य ही है। जलवायु के संवेदनशील पारिस्थितिक तंत्र में परिवर्तन पहले से ही महसूस किया जा रहा है और मौलिक, संभावित अपरिवर्तनीय, पारिस्थितिक परिवर्तन आने वाले दशकों में हो सकता है। वास्तव में जलवायु परिवर्तन एक सामान्य प्राकृतिक परिघटना है। इसके अंतर्गत हिम युग एवं गर्म युग एक के बाद एक आते रहते हैं। वैज्ञानिकों द्वारा किये गए शोधों के अनुसार धरती के उत्पत्ति से लेकर अब तक कई बार हिमयुग आ चुका है। सामान्यत: प्रत्येक हिमयुग के बाद हर 100 वर्ष में 0.6 से 1.0 डिग्री तक तापमान वृद्धि दर्ज की जाती है। मानव गतिविधियों के कारण वर्तमान में तापमान वृद्धि दर कहीं यादा है। कितना यादा है इसका अनुमान हम इससे लगा सकते हैं की वैज्ञानिकों के अनुसार 1976 के बाद यह वृद्धि दर लगभग 3 गुनी तक हो गयी है। तापमान वृद्धि दर यादा होने से पृथ्वी का औसत वार्षिक तापमान भी तेजी से बढ़ रहा है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही है कि 21 वीं शताब्दी में भी तापमान वृद्धि बनी रहेगी और इसके कारण समुद्र की सतह में बढ़ोतरी होती रहेगी। समस्या की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की यदि सभी हरित गैसों की उत्पत्ति को रोक भी दिया जाये तब भी अगले कुछ दशकों तक यह वृद्धि दर जारी रहेगी और उसके बाद तापमान स्थिरीकरण प्रारंभ होगा। इसी को लेकर यूएनइपी ने इसी वर्ष वैश्विक पर्यावरण पूर्वानुमान - 06 ( जीइओ-06) जारी किया था जिसमें यह बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन का सबसे खराब प्रभाव प्रशांत एवं दक्षिण पूर्वी एशिया में हो सकता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने कहा है कि जलवायु परिवर्तन न केवल प्राकृतिक विपदाएं लेकर आएगा बल्कि बहुत सी स्वास्थ्य समस्याएं या तो बढ़ेगी या नई समस्याओं से रूबरू होना पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन, आर्थिक संकट, प्राकृतिक विपदाओं से करोड़ों लोगों की आजीविका पर नकारात्मक असर पड़ेगा। चक्रवात और तुफान झेलने वाले तटीय क्षेत्रों में रहने वाले गरीब लोगों के ऊपर प्राकृतिक विपदाओं और उसके अन्य प्रभावों का यादा असर पड़ेगा। वहीं दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन का महिला आबादी पर पड़ने वाले असर की बात करें तो पुरुषों की तुलना में महिलाओं के स्वास्थ्य पर इस परिवर्तन का ज्यादा असर होता है। दुनिया के अधिकांश हिस्सों में आज भी महिलाएं पारंपरिक कार्यो में लगी रहती हैं। अधिकांश स्थानों पर महिलाएं एवं बच्चियां घरेलू कार्यो में लगी रहती हैं। पुरुष वर्चस्व वाले समाजों में महिलाएं एवं बच्चियां घर से अकेले बाहर नहीं निकल पाती हैं। ऐसी स्थिति में प्राकृतिक आपदा के समय मरने वालों में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं का अनुपात ज्यादा होता है। जिन देशों में महिलाएं बाहर काम करती हैं या उन पर घर से बाहर निकलने के लिए कोई सामजिक बंधन नहीं है वहां किसी भी प्राकृतिक आपदा में महिलाओं एवं पुरुषों की मृत्यु दर लगभग बराबर ही रहता है। जैसे बांग्लादेश एवं अमेरिका में चक्रवाती तूफानों से मरने वालों में महिलाओं और पुरुषों की संख्या की तुलना कर सकते हैं। ठीक यही अंतर लड़कियों एवं लड़कों की संख्या में भी पाया जाता है। ऐसी घटनाओं में लड़कों के बचने की संभावना लड़कियों से कही ज्यादा होती है।
जलवायु परिवर्तन के कारण बीमारियों की संख्या, तीव्रता, बारंबारता में भी बढ़ोतरी हो रही है। बीमारियों का ज्यादा असर बच्चों के ऊपर देखा जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 5 वर्ष तक के आयु वाले सभी बच्चों में होने वाली बीमारियों में 88 फीसद जलवायु परिवर्तन के कारण है। जलवायु परिवर्तन मानव स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए एक खतरा बना हुआ है।
जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य पर प्रत्यक्ष प्रभावों में विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं से लगने वाली चोट एवं मौतों के साथ-साथ संक्रामक रोगों की संख्या में बढ़ोतरी एवं उसके प्रभाव भी शामिल हैं। इसके अतिरिक्त वायु प्रदूषण एवं अन्य प्रकार के प्रदूषण के कारण होने वाली बीमारियां भी हैं। वायु प्रदूषण का प्रभाव न केवल श्वसन तंत्र पर होता है बल्कि अन्य शारीरिक तंत्रों पर भी होता है। बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले और भी कई कारक हैं जिनमें माता-पिता के स्वास्थ्य, उनके आहार से लेकर पर्यावरणीय कारक शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन का शिशुओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर को समझने के लिए हमें शिशु के माता के स्वास्थ्य की स्थिति को भी समझना होगा।
गर्भस्थ शिशु पर जलवायु परिवर्तन के विभिन्न स्वरूपों मसलन सूखा, बाढ़, तूफान, आदि का सीधा असर पड़ता है। क्योंकि प्राकृतिक आपदा के समय गर्भधारण की हुई मां को पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता है। इसका असर गर्भ में पल रहे शिशु पर भी पड़ता है और जन्म के बाद उस बालक के स्वास्थ्य पर इसका विपरीत असर पड़ता है। इस बात की पुष्टि विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2002 की रपट भी करती है।
वार्षिक औसत तापमान की बढ़ोतरी के कारण नवजात का वजन सामान्य से कम होता है। इतना ही नहीं जन्म के बाद बच्चे को मां का दूध पर्याप्त मात्र में उपलब्ध नहीं हो पाता। थोड़ा उम्र बढ़ने पर बच्चों को डायरिया होने की आशंका बढ़ जाती है। इसके बाद बढ़ते उम्र के साथ बो के फेफड़े के विकास पर भी असर पड़ता है। बच्चे वयस्कों की तुलना में जलवायु परिवर्तनों के प्रति ज्यादा संवेदनशील होते हैं। वयस्कों की तुलना में बच्चे गर्मी अनुकूलन की क्षमता कम होती है दूसरी तरफ बच्चों का विकास बेहद तीव्र गति से होता है जो उनकी प्राकृतिक सुरक्षा तंत्रों को कमजोर करता है। जिसके कारण वयस्कों की तुलना में बच्चों के बीमार होने की आशंका यादा रहती है। जैसे मलेरिया का असर वयस्कों की तुलाना में बच्चों में यादा होता है।
सामाजिक असमानता के कारण जलवायु परिवर्तन का असर बालिकाओं पर यादा पड़ता है। सामाजिक असमानता से मेरा अभिप्राय लड़का व लड़की के पोषण को लेकर बरती जाने वाली असमानता से है। यह स्थिति विकासशील देशों में ज्यादा देखने को मिलती है। इन देशों में पानी एवं जलावन इकठ्ठा करने की जिम्मेदारी मूलत: लड़कियों और महिलाओं पर होती है। इनके स्नोत धीरे-धीरे उनके निवास स्थान से दूर होते जाते हैं जिससे उन्हें इन चीजों को लाने में ज्यादा समय और मेहनत लगानी पड़ती है। ऐसी परिस्थितियां मां को अपने बचों से दूर कर देती हैं जिससे कम उम्र के बच्चों का सही ढंग से पालन नहीं हो पाता है। हमलोग अक्सर देखते आए हैं कि यदि घर में खाद्य पदार्थो में कमी होती है तो परिवार में पहली कटौती लड़कियों को उपलब्ध खाद्यान्न में की जाती है। यहीं कारण है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम की चपेट में बालिकाएं व महिलाएं पुरुषों की तुलना में ज्यादा आती हैं। ऐसे में यह जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन के कारकों को दूर करने हेतु कारगर कदम उठाए जाएं क्योंकि इसका सीधा संबंध हमारे स्वास्थ्य एवं पर्यावरण से है। (लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं)(DJ)

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