Friday 29 July 2016

राजनीतिक अस्थिरता में उलझा नेपाल (सुशील कुमार सिंह)

लगभग एक दशक के आसपास जब 250 वर्ष की राजशाही के बाद नेपाल में लोकतंत्र की बहाली हुई थी तब यह माना जा रहा था कि पड़ोसी देश में भी नये तेवर के साथ लोकतांत्रिक मापदंडों को समेटे हुए सशक्त सरकार और स्थायी राजनीति का अध्याय प्रारंभ होगा पर देखा जाय तो इतने ही समय से वह राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहा है। गौरतलब है कि बीते 24 जुलाई को केपी ओली ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया जो इस पद पर आसीन होने वाले आठवें व्यक्ति हैं और इनका कार्यकाल महज 287 दिन का था। जिसके चलते नेपाल एक बार फिर नई सियासी जोड़-तोड़ में फंस गया। इतना ही नहीं लोकतंत्र की प्रयोगशाला बना नेपाल अस्थिरता से उबर नहीं रहा है। जिस प्रकार की खबरें छन-छन कर आ रही हैं उससे साफ है कि माओवादी नेता प्रचंड नये प्रधानमंत्री हो सकते हैं। गौरतलब है कि पचंड इससे पहले राजशाही की समाप्ति और नेपाल में लोकतंत्र की बहाली के साथ प्रधानमंत्री बन चुके हैं। स्पष्ट है कि यदि पुष्प दहल कमल उर्फ प्रचंड सत्ता संभालते हैं तो यह उनकी दूसरी पारी होगी। जिस प्रकार नेपाल में राजनीतिक उतार-चढ़ाव विगत कुछ वर्षो में हुआ है उसे देखते हुए परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण का संगत संदर्भ यह संकेत करता है कि नेपाल का लोकतंत्र अभी भी शैशव अवस्था में है जिसे परिपक्व होने में दशकों की जरूरत पड़ेगी। 601 सदस्यों वाले नेपाली संसद की दलीय स्थिति को देखा जाय तो स्पष्ट बहुमत में कोई नहीं है। हालांकि इससे लोकतंत्र के अपरिपक्व होने को लेकर कोई खतरा नहीं है। 196 सांसदों के साथ नेपाली कांग्रेस सबसे बड़ा राजनीतिक दल है जबकि कम्युनिस्ट पार्टी 175 के साथ दूसरे नम्बर पर है। इसी प्रकार आधा दर्जन से अधिक राजनीतिक दलों की इकाई-दहाई के साथ नेपाली संसद में उपस्थिति देखी जा सकती है। नेपाल में पिछले वर्ष के सितंबर माह की 20 तारीख को लागू नये संविधान का विरोध करने वाले मधेसियों की मधेसी जनाधिकार फोरम के 14 सदस्य भी इसमें शामिल हैं।
परिवर्तित परिस्थिति और सियासी उतार-चढ़ाव के बीच नेपाल संसद में सबसे बड़ी पार्टी नेपाली कांग्रेस और प्रचंड का दल सीपीएन-माओवादी सेंटर ने सत्ता में भागीदारी के लिए सात सूत्री समझौता किया है। उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री केपी ओली के इस्तीफा देने के बाद सरकार के कुल कार्यकाल में से 18 माह ही शेष हैं। जाहिर है दोनों दल शेष समय को ध्यान में रखकर बारी-बारी से सरकार चलायेंगे जिसे करीब दस माह से आंदोलनरत मधेसी पार्टियों ने भी सरकार को समर्थन देने की घोषणा की है। स्पष्ट है कि एक बार फिर नेपाल में मिल-बांटकर सरकार चलाने का नियोजन देखा जा सकेगा। ओली के सरकार में रहते हुए नेपाल ने नया संविधान अंगीकृत किया था जिसे लेकर तराई में रहने वाले मधेसियों ने आपत्ति की साथ ही लगभग दो माह तक भारत और नेपाल के बीच आर- पार और व्यापार को भी प्रभावित किया था। दरअसल मधेसी चाहते थे कि संविधान में उन पक्षों का सशोधन किया जाय जिसे लेकर उनकी नाराजगी है। देखा जाय तो 50 फीसदी मधेसियों को संसद में आधा हिस्सा मिलना चाहिए पर ऐसा नहीं है। इसे मधेसियों को हाशिये पर धकेलने की बड़ी साजिश के रूप में माना गया। पूर्ववत अंतरिम संविधान में अनुपातिक शब्द का उल्लेख था जबकि नये संविधान में इसका लोप हो गया है। भारत इसे बनाये रखने का पक्षधर है। इसके अलावा अनुछेद 283 का कथन है कि नेपाली नागरिक राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायधीश, राष्ट्रीय असेंबली के सभापति, संसदीय अध्यक्ष तथा मुख्यमंत्री जैसे सवरेच पदों पर तभी नियुक्त हो पायेंगे जिनके पूर्वज नेपाली रहे हों। यह प्रावधान भी मधेसियों के विरोध का कारण बना। यहां भी भारत चाहता है कि इसमें संशोधन हो और नागरिकता में जन्म और निवास दोनों आधार शामिल हों। इसी प्रकार नये संविधान के अनुछेद 154, 11 (6) अनुछेद 86 सहित कई प्रावधानों पर मधेसियों का विरोध है। पौने तीन करोड़ के नेपाली जनसंख्या में लगभग आधे मधेसी हैं जिनके पुरखे भारतीय हैं पर मौजूदा स्थिति में वे तराई में रहने वाले नेपाली हैं। स्थिति को देखते हुए इनकी मांग को नाजायज करार नहीं दिया जा सकता। नेपाल लगभग दस साल से राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहा है और पिछले वर्ष के नये संविधान के विरोध के चलते न केवल वहां हिंसा हुई बल्कि भारत से संबंधों में भी खटास आ गयी। आधे-आध की लड़ाई में फंसे नेपाल ने भारत को धौंस भी दिखाई। काठमांडू और दिल्ली के बीच दूरी बढ़ाने का यह एहसास भी दिलाया। गौरतलब है कि सात वर्षो की कड़ी मशक्कत के बाद जब संविधान लागू हो तब पक्षपात के चलते बखेड़ा खड़ा हो गया। मधेसियों के चलते भारत-नेपाल संबंध एक बार फिर उथल-पुथल में चले गये। नेपाली मीडिया भी भारत विरोधी भावनाओं को भड़काने में लग गयी। इतना ही नहीं नेपाल में जो भी हिंसक घटनायें हुईं उसके लिए भारत पर दोष मढ़ा गया साथ ही भारत के टीवी चैनलों को नेपाल में न प्रदर्शित करने की मुहिम भी छेड़ी गयी। जिस तर्ज पर घटनायें घट रही थी उससे साफ है कि भारत की पीड़ा बढ़ रही थी। समझने वाली बात यह है कि किसी देश की आधी आबादी की शिकायत नाजायज कैसे हो सकती है? इस्तीफा दे चुके नेपाली प्रधानमंत्री केपी ओली ने उन दिनों भारत को यह भी चेतावनी दी थी कि उनका झुकाव चीन की ओर हो सकता है। यहां यह स्पष्ट करना सही होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस वक्तव्य को लेकर न केवल संयम का परिचय दिया था बल्कि नेपाल की चेतावनी का भी असर हावी नहीं होने दिया। बेशक चीन की कूटनीति यहां पर बढ़त बना ली हो पर नेपाल भी जानता है कि उसके सपने उसकी संस्कृति और उसकी बोली, भाषा के साथ अन्य सरोकार भारत से ही मेल खाते हैं। उसकी पीड़ा में भारत ही मददगार होता है। इसका पुख्ता सबूत वर्ष 2015 के अप्रैल में भूकंप के बाद जमींदोज हो चुके नेपाल के लिए की गयी भारत की कोशिश है।
ओली ने नेपाली संसद में संबोधन के दौरान कहा कि मेरे इस्तीफे के देश पर दुर्गामी नतीजे होंगे और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ेगी। नेपाल को प्रयोगशाला बनाया जा रहा है। विदेशी तत्व नया संविधान लागू नहीं होने देना चाहते हैं। स्पष्ट है कि उनका संकेत भारत की ओर है। इसमें कोई दो राय नहीं कि ओली के कार्यकाल में भारत-नेपाल संबंध पूर्व प्रधानमंत्री सुशील कोइराला की तुलना में काफी गिरावट के साथ बरकरार रहा। संसद में ओली का संबोधन भी इसी को पुख्ता कर रहा है। हालांकि बीते मई में जब ओली भारत यात्र पर थे तब उन्होंने यह कहा था कि अब मेरा संदेह भारत को लेकर दूर हो गया है पर इसमें कितनी सचाई है यह ओली से बेहतर शायद ही कोई जानता हो।
ओली जैसे जिम्मेदार लोगों को यह बात तो समझना चाहिए था कि भारत जैसे देश एक साधक की भूमिका में होते हैं। किसी की सम्प्रभुता को लेकर कोई ऊंच-नीच का ख्याल तक नहीं रखते हैं। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी जून 2014 में जब पहली बार नेपाल गये थे तब किसी प्रधानमंत्री को यहां आये 17 वर्ष हो चुके थे। हालांकि सार्क की बैठकों के दौरान आना-जाना लगा रहा पर द्विपक्षीय मामलों में गुजराल के बाद मोदी ही नेपाल गये। फिलहाल नेपाल जिस राजनीतिक अस्थिरता के दौर में है, उससे साफ है कि अभी स्थिरता की परत चढ़ने में वक्त लगेगा। दूसरी तरफ यह भी सच है कि आंतरिक कलह के लिए किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। आशा है कि आने वाली नयी सरकार भारत-नेपाल रिश्ते को नये सिरे से सकारात्मक रूप देने का काम करेगी।
(लेखक रिसर्च फॉउंडेशन ऑफ प}िलक एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक हैं)(DJ)

No comments:

Post a Comment