Monday 28 November 2016

कितने आजाद हैं स्वतंत्र निदेशक (आर सुकुमार, संपादक, मिंट)

आज मैं कुछ खबरों को देख रहा था। टाटा-मिस्त्री विवाद में आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है। नोटबंदी से जुड़ी बहसों में नए-नए अर्थशास्त्री पैदा रहे हैं, और इनके उभरने की गति रिजर्व बैंक के नए नोट छापने या सरकार द्वारा नियम बदलने से भी तेज है। और उत्तरी ध्रुव पर व उसके आसपास तापमान फिलहाल जितना होना चाहिए, उससे 20 डिग्री सेल्सियस ज्यादा है। तीसरी खबर हमारे लिए ज्यादा चिंताजनक है। इस साल आर्कटिक में तापमान ज्यादा होने के कारण समुद्री बर्फ अपने अब तक के सबसे कम स्तर पर रिकॉर्ड की गई है। यह 30 साल के औसत से भी काफी नीचे है। इससे पहले यहां समुद्री बर्फ का सबसे कम स्तर 2012 में रिकॉर्ड किया गया था। नवंबर में सर्दी के आते ही यहां बर्फ आकार लेने लगती है।
बहरहाल, इस मसले पर फिर कभी बात करूंगा। पहले चर्चा नोटबंदी की। 1000 और 500 के पुराने नोट को बंद हुए करीब तीन हफ्ते निकल चुके हैं, मगर इस कदम का दीर्घकालिक प्रभाव क्या होगा, यह अब तक साफ नहीं है। मिंट में निरंजन राजाध्यक्ष ने अपने लेख में लिखा है, ‘असली पहेली तो यही है कि लंबे समय में इस कदम का क्या मतलब है? इसका जवाब काफी कुछ इसमें छिपा है कि या तो यह लोगों के व्यवहार में बदलाव लाएगा और वे भविष्य में कम नगद का इस्तेमाल करेंगे। या फिर कर आधार बढ़ाया जाएगा, क्योंकि तब अधिक से अधिक लेन-देन औपचारिक वित्तीय प्रणाली के माध्यम से शुरू हो जाएगा।’
हालांकि निरंजन की बातें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मेल नहीं खातीं। संसद में नोटबंदी पर चर्चा के दौरान ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स का उल्लेख करते हुए मनमोहन सिंह ने कहा, ‘दीर्घकाल में तो हम सब मर जाएंगे।’ वे मौद्रिक सुधार को लेकर कीन्स की कही गई बातों से तार जोड़ रहे थे। कीन्स ने कहा था- ‘मौजूदा वक्त में यह ‘दीर्घावधि’ उलझाने वाला नियामक है। आगे चलकर हम सब मर जाएंगे। अगर मुश्किल वक्त में अर्थशास्त्री यह कहते हैं कि तूफान के खत्म होने के काफी दिनों के बाद समुद्र फिर से शांत हो जाएगा, तो उन्होंने या तो काफी सतही काम किया है या फिर बहुत बेकार।’ वैसे, निरंजन अपने लेख का अंत करते हुए लिखते हैं कि नोटबंदी से बुनियादी बदलाव आएगा जरूर, पर अभी हमें यह नहीं पता कि उसका स्वरूप क्या होगा?
उधर, टाटा संस के अध्यक्ष पद से साइरस मिस्त्री की अचानक विदाई के एक महीने बाद भी विवाद जारी है। दोनों पक्ष लंबे और एक अप्रिय मुकाबले को तैयार हैं, जिसमें शेयरधारक भी शामिल होंगे और शायद अदालतें भीं। यह अब तक साफ नहीं हो सका है कि टाटा संस ने मिस्त्री को क्यों हटाया? और न ही यह साफ है कि इस लड़ाई में मिस्त्री क्या पाने की उम्मीद कर रहे हैं? हालांकि इस विवाद में टाटा के स्वतंत्र निदेशकों को भी घसीट लिया गया है। कुछ वाकई इस लड़ाई के पक्ष में हैं, जबकि कुछ नहीं। अगले कुछ दिन-सप्ताह या फिर महीनों में उन्हें अपनी भूमिका मिल जाएगी, मगर मेरा यह सवाल है कि स्वतंत्र निदेशक आखिर किस हद तक स्वतंत्र हैं?
स्वतंत्र निदेशकों की परिभाषा कंपनी ऐक्ट 2013 में बखूबी परिभाषित की गई है। अगर कंपनियां इस कानून की धारा 149 (6) का अक्षरश: पालन करतीं, तो शायद उन्हें यह स्वीकार करना पड़ता कि उनके बोर्ड में अधिकतर स्वतंत्र निदेशक वास्तव में स्वतंत्र नहीं हैं। जैसे कि इंफोसिस के पूर्व चेयरमैन एनआर नारायाणमूर्ति के रिश्तेदार डीएन प्रहलाद को कंपनी के बोर्ड में शामिल करने के बाद एक छद्म सलाहकार कंपनी ने कहा था कि डीएन प्रहलाद ‘संस्थापकों के मनोनीत (निदेशक)’ लगते हैं, कोई स्वतंत्र निदेशक नहीं।
हालांकि यह मामला अपवाद नहीं है। कई भारतीय कंपनियों में वर्षों से जो हो रहा है, वह यही बताता है कि स्वतंत्र निदेशक हमेशा स्वतंत्र नहीं होतें; भले ही वे तमाम मानकों पर खरे उतरें। कुछ मामलों में तो यह देखा गया है कि उद्योगपति या संरक्षक उन पूर्व नौकरशाहों को यह पद देते हैं, जिन्होंने पिछले दिनों उनके हक में कोई काम किया था। यहां मेरा मकसद तमाम पूर्व नौकरशाहों पर कीचड़ उछालना नहीं हैं, जो बतौर स्वतंत्र निदेशक किसी न किसी कंपनी से जुड़े हुए हैं।
कुछ मामलों में तो उद्योगपति अपने दोस्तों या दोस्त के संबंधियों को स्वतंत्र निदेशक बनाते हैं, जो शायद ही उनके फैसले की मुखालफत करते हैं। मगर मसला सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। ऐसे स्वतंत्र निदेशक, जो ऊपर दी गई श्रेणियों में नहीं आते, वे भी बमुश्किल उन शेयरधारकों या संरक्षकों के खिलाफ जाते हैं, जिन्होंने उन्हें इस ओहदे पर बिठाया होता है। असलियत में कुछ तो इनके कृतज्ञ होते हैं, क्योंकि उन्हें पर्याप्त वेतन मिलता है और कंपनी के फायदे में उनकी हिस्सेदारी होती है।
स्वतंत्र निदेशकों को लेकर बना 2005 का कानून, उनके कार्यकाल से जुड़ा 2013 का कानून और महिला निदेशकों के संदर्भ में बना 2015 का कानून भारतीय कंपनियों के आंतरिक प्रशासन में सुधार करता और बोर्ड को बेहतर बनाता दिखता है। 2005 के कानून में जहां यह तय किया गया है कि सूचीबद्ध कंपनियों के बोर्ड में एक-तिहाई स्वतंत्र निदेशक होंगे, वहीं 2013 का कानून कहता है कि स्वतंत्र निदेशक अधिकतम दस वर्ष तक काम करेंगे यानी उन्हें लगातार दो कार्यकाल ही मिलेंगे।
2015 के कानून में महिला अधिकारों की बात कही गई है और बोर्ड में कम से कम एक महिला निदेशक (वह स्वतंत्र हो या नहीं) रखने के निर्देश सूचीबद्ध कंपनियों को दिए गए हैं। इन कानूनों का थोड़ा-बहुत प्रभाव पड़ा है, मगर अंतत: किसी बोर्ड की बेहतरी इसी पर निर्भर करेगी कि उसके स्वतंत्र निदेशक कितने कुशल हैं और उन्हें किस हद तक आजादी मिली हुई है। ऐसे में, मिस्त्री और टाटा का यह विवाद असल में, तमाम नियामकों, संरक्षकों, स्वतंत्र निदेशकों, शेयरहोल्डर एडवाइजरी फर्म व मीडिया को एक बार फिर इस व्यवस्था पर वही पुराने सवाल उठाने का मौका देता है।(Hindustan)

मन की बात : उम्मीद युवाओं के भरोसे (नरेन्द्र मोदी)

राष्ट्र को 8 नवम्बर को संबोधित करते हुए मैंने सबके सामने कहा था कि निर्णय सामान्य नहीं है, कठिनाइयों से भरा होगा। लेकिन निर्णय जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना ही उस निर्णय को लागू करना है। और मुझे ये भी अंदाजा था कि हमारे सामान्य जीवन में अनेक प्रकार की नई-नई कठिनाइयों आएंगी और उनका सामना करना पड़ेगा। और तब मैंने कहा था कि निर्णय इतना बड़ा है, इसके प्रभाव से बाहर निकलने में 50 दिन तो लग ही जाएंगे। और तब जाकर के सामान्य अवस्था की ओर हम कदम बढ़ा पाएंगे। 70 साल से जिस बीमारियों को हम झेल रहे हैं, उस बीमारियों से मुक्ति का अभियान सरल नहीं हो सकता है। आपकी कठिनाइयों को मैं भली-भांति समझ सकता हूं। लेकिन जब मैं आपका समर्थन देखता हूं, आपका सहयोग देखता हूं; आपको भ्रमित करने के लिए ढेर सारे प्रयास चल रहे हैं, उसके बावजूद कभी-कभी मन को विचलित करने वाली घटनाएं सामने आते हुए भी, आपने सच्चाई के इस मार्ग को भली-भांति समझा है, देशहित की बात को स्वीकार किया है। पूरा विश्व इस बात को देख रहा है कि हिंदुस्तान के सवा-सौ करोड़ देशवासी कठिनाइयां झेल करके भी सफलता प्राप्त करेंगे क्या! विश्व के मन में शायद प्रश्नचिह्न हो सकता है! लेकिन बुराइयां इतनी फैली हुई हैं कि आज भी कुछ लोगों की बुराइयों की आदत जाती नहीं है। अभी भी कुछ लोगों को लगता है कि ये भ्रष्टाचार के पैसे, ये काले धन, ये बेहिसाबी पैसे, ये बेनामी पैसे, कोई-न-कोई रास्ता खोज करके व्यवस्था में फिर से ला दूं। वो अपने पैसे बचाने के फिराक में गैरकानूनी रास्ते ढूंढ रहे हैं। दुख की बात ये है कि इसमें भी उन्होंने गरीबों का उपयोग करने का रास्ता चुनने का पसंद किया है। गरीबों को भ्रमित कर, लालच या पल्रोभन की बातें करके, उनके खातों में पैसे डाल करके या उनसे कोई काम करवा के, पैसे बचाने की कुछ लोग कोशिश कर रहे हैं। ऐसे लोगों से आज कहना चाहता हूं-सुधरना, न सुधरना आपकी मर्जी, कानून का पालन करना, न करना आपकी मर्जी, वो कानून देखेगा क्या करना? लेकिन मेहरबानी करके आप गरीबों की जिंदगी के साथ मत खेलिए। आप ऐसा कुछ न करें कि रिकॉर्ड पर गरीब का नाम आ जाए और बाद में जब जांच हो, तब मेरा प्यारा गरीब आपके पाप के कारण मुसीबत में फंस जाए। और बेनामी संपत्ति का इतना कठोर कानून बना है, जो इसमें लागू हो रहा है, कितनी कठिनाई आएगी। कुछ बातें मीडिया के माध्यम से, लोगों के माध्यम से, सरकारी सूत्रों के माध्यम से जानने को मिलती हैं, तो काम करने का उत्साह भी बहुत बढ़ जाता है। इतना आनंद होता है, इतना गर्व होता है कि मेरे देश में सामान्य मानव का क्या अद्भुत सामर्य है। इस अभियान का कुछ लोगों को तत्काल लाभ मिल गया है। ये जो बड़े लोग होते हैं न, जिनकी पहुंच होती है, जिनको पता है कि कभी भी उनको कोई पूछने वाला नहीं है, वो ही पैसे नहीं देते हैं। हर नगरपालिका को कर का मुश्किल से 50 फीसद आता है। लेकिन इस बार 8 तारीख के इस निर्णय के कारण सब लोग अपने पुराने नोट जमा कराने के लिए दौड़ गए। 47 शहरी इकाइयों में पिछले साल इस समय करीब तीन-साढ़े तीन हजार करोड़ रुपये कर आया था। आपको जान कर आश्र्चय होगा, आनंद भी होगा- इस एक सप्ताह में उनको 13 हजार करोड़ रुपये जमा हो गया। लेकिन इस निर्णय के कारण व्यापारी वर्ग को भी कठिनाई होना स्वाभाविक था। लेकिन मैंने देखा है कि अब तो हमारे इन छोटे-छोटे व्यापारी भी तकनीक के माध्यम से, मोबाइल ऐप के माध्यम से, मोबाइल बैंक के माध्यम से, क्रेडिट कार्ड के माध्यम से, अपने-अपने तरीके से ग्राहकों की सेवा कर रहे हैं, विास के आधार पर भी कर रहे हैं। और मैं अपने छोटे व्यापारी भाइयों-बहनों से कहना चाहता हूं कि मौका है, आप भी डिजिटल दुनिया में प्रवेश कर लीजिए। मैं आप को निमंतण्रदेता हूं कि नकदरहित समाज बनाने में आप बहुत बड़ा योगदान दे सकते हैं, आप अपने व्यापार को बढ़ाने में, मोबाइल फोन पर पूरी बैंकिंग व्यवस्था खड़ी कर सकते हैं और आज नोटों के सिवाय अनेक रास्ते हैं, जिससे हम कारोबार चला सकते हैं। तकनीक रास्ते हैं, सुरक्षित है, विश्वसनीय है और त्वरित है। मजदूर भाइयों-बहनों को भी कहना चाहता हूं, आप का बहुत शोषण हुआ है। कागज पर एक पगार होता है और जब हाथ में दिया जाता है, तब दूसरा होता है। कभी पगार पूरा मिलता है, तो बाहर कोई खड़ा होता है, उसको अपने हिस्से से काटकर देना पड़ता है और मजदूर मजबूरन इस शोषण को जीवन का हिस्सा बना देता है। इस नई व्यवस्था से हम चाहते हैं कि आपका बैंक में खाता हो, आपके पगार के पैसे आपके बैंक में जमा हों, ताकि न्यूनतम मजदूरी का पालन हो। इसलिए मैं मजदूर भाइयों-बहनों को इस योजना में भागीदार बनने के लिए विशेष आग्रह करता हूं, क्योंकि आखिरकार इतना बड़ा मैंने निर्णय देश के गरीब के लिए, किसान के लिए, मजदूर के लिए, वंचित के लिए, पीड़ित के लिए लिया है। मेरे नौजवान दोस्तों, आप एक काम कीजिए, आज से ही संकल्प लीजिए कि आप स्वयं नकदरहित समाज के लिए खुद एक हिस्सा बनेंगे। आपके मोबाइल फोन पर ऑनलाइन खर्च करने की जितनी तकनीक है, वो सब मौजूद होगी। इतना ही नहीं, हर दिन आधा-घंटा, घंटा, दो घंटा निकाल करके कम-से-कम 10 परिवारों को आप इस तकनीक के बारे में बता सकते हैं। आप स्वेच्छा से इस नकदरहित समाज, इन नोटों के चक्कर से बाहर लाने का महाभियान, देश को भ्रष्टाचार मुक्त करने का अभियान, काला धन से मुक्ति दिलाने का अभियान, लोगों को कठिनाइयों-समस्याओं से मुक्त करने का अभियान-इसका नेतृत्व करना है आपको। एक बार लोगों को तकनीक का उपयोग कैसे हो, ये आप सिखा देंगे, तो गरीब आपको आशीर्वाद देगा। सामान्य नागरिकों को ये व्यवस्थाएं सिखा दोगे, तो उसको तो शायद सारी चिंताओं से मुक्ति मिल जाएगी और ये काम अगर हिंदुस्तान के सारे नौजवान लग जाएं, मैं नहीं मानता हूं, ज्यादा समय लगेगा। (मन की बात के संपादित अंश) (RS)

नई नौकरशाही की जरूरत (ए. सूर्यप्रकाश )

काले धन की जड़ पर प्रहार करने के लिए प्रधानमंत्री की ओर से आठ नंवबर को 500 और 1000 रुपये के नोटों को बंद करने की घोषणा से संभवत: काले धन के कारोबारियों से ज्यादा उनके राजनीतिक विरोधी स्तब्ध रह गए हैं। कुछ हफ्ते पहले ही पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक कर प्रधानमंत्री मोदी ने दिखा दिया था कि उनके पास निर्णय लेने की क्षमता है। अब काला धन रखने वालों के खिलाफ हालिया कदम से उनकी छवि और ज्यादा मजबूत हुई है। यह सही है कि इस कार्यक्रम को लागू करने में गड़बड़ियां नजर आई हैं और सरकार के विभिन्न विभाग नोटबंदी से पैदा हुई चुनौतियों को संभालने के लिए संघर्ष रहे है। इसके परिणामस्वरूप बैंकों के बाहर लंबी कतारें नजर आ रही हैं और लोगों को अपने पैसे निकालने में दिक्कतें हो रही हैं। फिर भी अधिकांश जनता ने नोटबंदी के फैसले को सराहा है। प्रधानमंत्री मोदी के कुछ कट्टर आलोचकों को छोड़कर कोई भी उनकी मंशा पर संदेह नहीं कर रहा है। यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है, क्योंकि यह स्मरण करना कठिन है कि पिछली बार कब किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने समूचे देश के लोगों का इतने बड़े पैमाने पर भरोसा हासिल किया था और वह भी तब जब अचानक हुई नोटबंदी से देश का हर वर्ग प्रभावित हुआ है।1इस बीच विपक्ष नए नोटों की अल्प उपलब्धता पर तनाव बढ़ाने में लगा हुआ है। हालांकि लोग विपक्ष के झांसे में नहीं आए हैं, लेकिन देश की जनता की समस्याओं को दूर करने के लिए सरकारी तंत्र को अतिरिक्त प्रयास करने की आवश्यकता है। नोटबंदी की योजना के लगभग तीन हफ्ते बीत जाने के बाद हालत पर नजर डालें तो एक बात बिल्कुल स्पष्ट है। देश के पास एक ऐसा प्रधानमंत्री है, जो लीक से हटकर सोचने की क्षमता रखता है और जो नेहरूवादी प्रतिष्ठान की यथास्थिति वाली मानसिकता को समाप्त करने के प्रति प्रतिबद्ध है। यद्यपि उन्होंने नौकरशाही को कुछ हद तक प्रोत्साहित किया है, लेकिन अभी भी वह पिछले सत्तर सालों की जड़ता और सुस्ती में फंसी हुई है और उनके साथ अपना तालमेल बैठाने में कठिनाई महसूस कर रही है। नोटबंदी कार्यक्रम को लागू करने में उत्पन्न होने वाली समस्याएं इस बात की सूचक हैं कि प्रधानमंत्री और उनका प्रशासनिक अमला, जिसके सहारे वह योजनाओं को लागू कर रहे हैं, दोनों एकसमान गति से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कई कड़े कदम उठाने का सार्वजनिक रूप से ऐलान किया है। इसका तात्पर्य है कि हमें आगे कुछ बड़ी योजनाओं का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए, लेकिन सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री के पास अपनी योजनाओं को अंजाम तक पहुंचाने के लिए जरूरी योग्य प्रशासनिक तंत्र है?1बीते दो-तीन हफ्ते के अनुभव बताते हैं कि सरकार को अपना प्रबंधकीय कौशल बढ़ाने के लिए कुछ नई रणनीतियां अपनानी होंगी। इसका एक तरीका प्रबंधन विशेषज्ञों को सरकार में सीधे प्रवेश देना है, जो कि अभी सरकारी तंत्र से बाहर हैं। भारत की जटिलताओं और प्रधानमंत्री जिस तीव्रता से बदलाव लाना चाहते हैं, उसे देखते हुए यह जरूरी है कि सरकारी और निजी क्षेत्र के प्रतिभावान लोगों को एकजुट कर एक नया तंत्र खड़ा किया जाए, ताकि कुछ विशेष योजनाओं को बेहतर तरीके से क्रियान्वित किया जा सके। ऐसा करने के लिए प्रधानमंत्री को परंपरा की जंजीरों को तोड़ना होगा, सरकार के अंदर और बाहर की प्रतिभाओं को आकर्षित करना होगा और अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए उनकी मदद लेनी होगी। सरकार के अंदर वह विभिन्न विभागों में कार्यरत तकनीकी और प्रबंधकीय कौशल से युक्त अधिकारियों का चुनाव कर सकते हैं और इन्हें निजी क्षेत्र से आए विशेषज्ञों के साथ काम करने को प्रेरित कर सकते हैं। साथ ही निजी क्षेत्र से प्रधानमंत्री वैसे लोगों का चुनाव कर सकते हैं जिन्होंने ग्रामीण बाजार में विशेषज्ञता हासिल की हो। इसके लिए ठीक वह उसी तरह अपनी टीम का चुनाव कर सकते हैं जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति करते हैं। अमेरिकी प्रशासन में शीर्ष स्तर पर नियुक्त होने वाले अधिकांश लोग निजी क्षेत्र से होते हैं। उनका कार्यकाल राष्ट्रपति के कार्यकाल तक होता है। अमेरिकी नौकरशाही भी बिना अंदर या बाहर की भावना लाए उनका स्वागत करती है और दोनों एकजुट होकर देश के लिए काम करते हैं। 1अब जब मौजूदा नौकरशाही की क्षमता पर सवाल खड़े हो गए हैं तब मोदी राष्ट्रीय योजनाओं के प्रबंधन के लिए निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों के लिए सरकार का दरवाजा खोलने की संभावनाओं पर विचार कर सकते हैं। यह हो सकता है, यदि वह उस भारतीय नौकरशाही की खामियों को दुरुस्त कर दें जिसे बाहरी विशेषज्ञों का विरोध करने व उनकी रचनात्मकता को खारिज कर देने वाले तंत्र के रूप में जाना जाता है। 1भारत में नौकरशाही को यहां की लोकतांत्रिक प्रणाली के अनिवार्य परिणाम के तौर पर अपने राजनीतिक आकाओं को स्वीकारना पड़ता है। मगर वह जब तक एक मंत्री को स्वयं के अनुरूप नहीं पाती तब तक वह उनके प्रति तिरस्कार की भावना रखती है। नौकरशाही में बाहरी लोगों के प्रवेश के विचार का भी बड़े पैमाने पर विरोध होता है। राजनीतिक आकाओं को तो एक अपरिहार्य बुराई मानकर स्वीकार कर लिया जाता है, लेकिन बाहरी विशेषज्ञों के प्रशासनिक व्यवस्था में प्रवेश का हर स्तर पर विरोध किया जाता है। जिसके पास उल्लेख करने के लिए बैच, सेवा और साल का तमगा नहीं है, उसका सरकार में कोई स्थान नहीं है। इस र्ढे को बदलना होगा। एक नए भारत, जो कि प्रधानमंत्री मोदी का सपना है, के लिए एक नए प्रशासनिक तंत्र की आवश्यकता होगी। भारत की वास्तविकताओं को देखें तो पाते हैं कि यहां अभी भी गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले और निरक्षर लोगों की अच्छी-खासी संख्या है। यहां आकांक्षाओं से भरा मध्यवर्ग बेहतर जीवनशैली के लिए लालायित है। केंद्र और राज्य सरकारें अपनी योजनाओं को बेहतर तरीके से क्रियान्वित करना चाहती हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग लाभान्वित हो सकें। ऐसे में जमीनी स्तर पर समस्याओं का सामना कर रही नौकरशाही और सरकार से बाहर के प्रबंधन विशेषज्ञों को मिलाकर एक नया तंत्र खड़ा करना नितांत जरूरी है। दूसरे शब्दों में कहें तो पारंपरिक और नवीन सोच का एक मिश्रित तंत्र खड़ा करना होगा। इसे हासिल करने के लिए प्रधानमंत्री को प्रशासनिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा और सरकार के कामकाज के तरीके पूरी तरह बदलने होंगे। यह अगली बड़ी सर्जिकल स्ट्राइक होगी जिसे उन्हें आरंभ करना होगा।1(लेखक प्रसार भारती के अध्यक्ष हैं)(DJ)

संविधान दिवस : कानून के समक्ष चुनौती (ज्ञानेन्द्र रावत)

आज हम अपने संविधान की जयंती मना रहे हैं। इस देश के लिए 67 वर्ष का समय यादा बड़ा नहीं, तो कम भी नहीं है। इस दौरान लोकतंत्र को मजबूत और कारगर बनाने के लिए बनी संस्थाओं के लगातार क्षरण से संविधान में उल्लेखित उद्देश्यों-लक्ष्यों को पाने में हम पूरी तरह नाकाम रहे हैं। इस पर हमें गंभीरता से सोचना होगा कि ऐसे में क्या हमारा लोकतंत्र बचा रह पाएगा? बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान के वास्तविक महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा था, ‘संविधान मूलभूत दस्तावेज है। यह राय के तीन अंगों-विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका की स्थिति एवं अधिकारों की व्याख्या करता है। यह नागरिकों के संदर्भ में कार्यपालिका और विधायिका की शक्तियों को भी व्याख्यायित करता है जैसे मूलभूत अधिकारों के अध्याय में हुआ है। वस्तुत: संविधान का प्रयोजन केवल राय के अंगों का निर्माण करना ही नहीं, बल्कि उसके अधिकारों की सीमा का निर्धारण करना भी है। क्योंकि यदि उनके अधिकारों को सीमित नहीं किया गया तो पूर्ण निरंकुश और आततायी व्यवस्था बनेगी।’ कानून के बारे में उन्होंने कहा था, ‘कानून को चाहिए कि वह तथ्यों को, दूसरे शब्दों में सचाई को सुनिश्चित करे। चाहे वह कानून के लिए कितनी भी कड़वी हो। जब सारी औपचारिकताएं निर्वस्त्र हो जाती हैं, तब बेपर्दा सचाई ही सवाल बनकर ग्रहण करती है कि नागरिकों को राय निष्ठा के सुफल पर कौन-सी सियासत काबिज है।’
आज असलियत में जनता स्वतंत्र नहीं है। राजनीतिक विभाजन, सांप्रदायिकता, प्रांतीयता बढ़ी है। प्रांतों के बीच की दूरी तो हिन्दू-मुसलमान के बीच की दूरी से भी यादा बढ़ी है। राष्ट्र विखंडित हो रहा है। आज आजादी के 69 साल बाद भी सर पर मैला ढोया जा रहा है। इस मानवीय और संवैधानिक दायित्व को पूरा करने में लोकतंत्र असफल रहा है। कालेधन पर अंकुश के ढेरों दावे किए जा रहे हैं। इस महीने की गई 500 और 1000 के नोटों की बंदी को कालेधन और भ्रष्टाचार पर अंकुश की सबसे बड़ी पहल बताया जा रहा है। राजनीति में वंशवाद की एक समय सबसे यादा खिलाफत करने वाले ही आज इसके सबसे बड़े रहनुमा हैं। लोकशाही की संस्थाओं का हवास हुआ है। गरीबी को हेय की दृष्टी से देखा जाने लगा है। बेरोजगारी और शोषण बढ़ा है। संसद और विधान सभाओं की भूमिका घट चुकी है। सवरेच न्यायालय की भूमिका जरूर प्रभावी और सशक्त हुई है। वहीं उसका महत्व भी बढ़ा है। व्यवस्था पर औपनिवेशक छाप अभी भी कायम है। दावे कुछ भी किए जाएं, असल में देश में भ्रष्टाचार का साम्राय है। अब तो सांसद संसद में सवाल पूछने के नाम पर रिश्वत और सांसद निधि से कमीशन लेने में भी पीछे नहीं हैं। जनता का जन प्रतिनिधियों से विश्वास खत्म होता जा रहा है। राजनेताओं के आचरण से जनता असमंजस में है कि वह किसे चुने। स्वार्थ की खातिर रायों को बांटा जा रहा है।
देश में शासक और जनता के बीच का तनाव सीमा से बाहर जाता दिख रहा है। राजनीतिक दलों में लोकतंत्र समाप्त हो गया है। वहां एक व्यक्ति का राज है। लोकहित याचिकाओं पर न्यायपालिका ने जरूर महत्वपूर्ण फैसले दिए हैं। भ्रष्टाचार के प्रति वात्सल्य भाव पनपने की इस खतरनाक प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगा तो लोकतांत्रिक संस्थाओं का नाम मिट जाएगा। उस दशा में गैर लोकतांत्रिक ताकतें अपने पैर जमाने लगेंगी। राजनेताओं के प्रति बढ़ता अविश्वास लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है। लोकतंत्र तो तभी अपना उद्देश्य पूरा कर पाएगा, जब भागीदारी और पारदर्शिता बढ़े। आज आदर्श क्या होते हैं, यह किसी को पता नहीं है। जातिगत अहमन्यता के चलते संविधान में उल्लेखित सामाजिक समता का सिद्धांत मात्र एक इबारत बनकर रह गया है। शोषण की संस्कृति के विकसित होने का परिणाम कभी हिन्दू-मुस्लिम, कभी मंदिर बनाम मस्जिद, कभी हिन्दू-ईसाई, कभी दलित-पिछड़े तो कभी सवर्ण और अस्पृश्य के संघर्ष के रूप में सामने आया। नतीजतन आदमी एक-दूसरे के खून का प्यासा हो गया और क्षणिक सत्ता सुख की खातिर खून की नदियां बहाने को वह धर्म समझने लगा। आज भी इस प्रवृत्ति को एक धर्म व संगठन विशेष के ठेकेदार बढ़ाने में लगे हुए हैं। ये वजहें हैं जिनके चलते संविधान की हिफाजत की कोई गारंटी नहीं है। हर नागरिक को सेहतमंद रहने और इससे सबंधित सुविधाएं पाने का हक है। राय का कर्तव्य है कि वह हर व्यक्ति को यह सुविधा उपलब्ध कराए। लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में असामनता की वजह से लोगों को यह सुविधाएं मिल नहीं पातीं। जब तक लोकतांत्रिक समाज में समता के मूल्य का प्रतिपादन नहीं होगा, तब तक समाज की स्वतंत्रता के अक्षुण्ण रहने की कल्पना नहीं की जा सकती। इन हालात में सामाजिक न्याय व समता की आशा करना बेमानी है।
इसके लिए संविधान को दोष देना उचित नहीं है। असल में यह चरित्र से जुड़ा है। चरित्र संविधान का नहीं, समाज का विषय है। एक स्वतंत्र सबल और संप्रभु राष्ट्र का निर्माण संविधान से नहीं, उसके नागरिकों के चरित्र से ही संभव है। जब देश के नागरिक असंख्य बलिदानों के उपरांत मिली स्वतंत्रता, अपने संस्कार-संस्कृति का सम्मान नहीं कर सकते, भ्रष्टाचार और राष्ट्र विरोधी अराजक कार्यो में संलिप्त हों, उस स्थिति में संविधान से क्या अपेक्षा की जा सकती है। जनता में स्वतंत्रता का भाव यथावत रहे, इसका दायित्व समाज का है। स्वतंत्रता का संबंध तो व्यक्ति के दिल से होता है। यदि वह खत्म हो गया, तो उसे न तो कोई कानून, न न्यायालय और न कोई संविधान बनाए रख सकता है। कानून की अपनी सीमाएं होती हैं। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में वह और विकराल रूप ले लेती हैं। यदि हम आजादी मिलते वक्त संजोये सपनों को पूरा करने में एक राष्ट्र के रूप में विफल हुए हैं, तो इसका दोष संविधान पर नहीं डाला जा सकता। न ही संविधान को बदल कर एक नया संविधान रच देने से कुछ खास बदलाव होने वाला है। संविधान की सफलता का पूरा दारोमदार उसके नागरिकों पर निर्भर करता है। जरूरत है आज हमें स्वयं बदलने की और चारित्रिक दृष्टि से सुदृढ़ व नैतिक मूल्यांे से ओत-प्रोत राष्ट्र हित को सवरेपरि मानने वाले नागरिकों की। यदि देश आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से सुदृढ़ हो तो कोई भी ताकत पनप ही नहीं सकती। आंतकवाद को भी तभी बढ़ावा मिलता है जब हमारे भीतर कमजोर तत्व बैठ जाते हैं। केवल सत्ता हासिल करने से कुछ नहीं होगा। देश की एकता और लोकतांत्रिक समाज बनाने के लिए देश के प्रति प्रेम, निष्ठा और ईमानदारी का होना बेहद जरूरी है। सच यह है कि आने वाले वर्षो में भी नए बदलाव की उम्मीद दिखाई नहीं देती।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)(DJ)

जरूरी है इजरायल से दोस्ती (आरपी सिंह)

इजरायली राष्ट्रपति रूवेन रिवलिन की हालिया भारत यात्र दोनों देशों के रिश्तों को नई ऊर्जा देने वाली रही। 1997 में एजर वाइजमैन के भारत आगमन के बाद यह दूसरा अवसर है जब किसी इजरायली राष्ट्रपति ने यहां का दौरा किया हो। पिछले साल राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी इजरायल के दौरे पर गए थे। रिवलिन की भारत यात्र दोनों देशों के औपचारिक कूटनीतिक संबंधों के 25 वर्ष पूरे होने के अवसर पर हुई और यह माना जा रहा है कि इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगले साल संभावित इजरायल यात्र की राह तैयार हो गई है। इजरायली नेताओं के भारत दौरे के अंतराल यह बताते हैं कि नई दिल्ली का एक सबसे मजबूत रक्षा सहयोगी होने के बावजूद इजरायल की किस तरह अनदेखी की जाती रही है। भारत और इजरायल को नौ महीनों के अंतर में आजादी मिली थी, लेकिन दोनों ने आर्थिक विकास के साथ-साथ विदेशी और घरेलू नीतियों के लिए अलग-अलग राह चुनी। सामरिक नजरिये से दोनों देश स्वाभाविक सहयोगी हैं, लेकिन भारत ने हमेशा से इन जमीनी सच्चाई की अनदेखी की है। इजरायल के संदर्भ में भारत के दृष्टिकोण को दूसरे अन्य कारणों के साथ ही पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पूर्वाग्रह ने भी प्रभावित किया। दूसरे कारणों में भारत का धर्म के आधार पर विभाजन और मुस्लिम देशों के साथ नई दिल्ली के रिश्ते भी शामिल हैं। महात्मा गांधी मानते थे कि यहूदियों का इजरायल पर पहला अधिकार है, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने धार्मिक आधार पर इजरायल के गठन का विरोध भी किया।
भारत ने 1947 में फलस्तीन के विभाजन के खिलाफ मतदान किया और 1949 में संयुक्त राष्ट्र में इजरायल के प्रवेश का भी कड़ा विरोध किया। दूसरी ओर ज्यादातर दक्षिणपंथी नेता हमेशा यथार्थवादी इजरायल नीति की वकालत करते रहे और उन्होंने हमेशा इजरायल का स्वागत किया। विनायक दामोदर सावरकर ने भी नैतिक और राजनीतिक, दोनों आधार पर इजरायल के गठन का समर्थन किया था। इतना ही नहीं उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में इजरायल के खिलाफ मतदान करने के लिए नेहरू की निंदा भी की थी। गोलवलकर ने भी यहूदी राष्ट्रवाद की प्रशंसा की और फलस्तीन को यहूदी लोगों का प्राकृतिक हिस्सा माना, जो उनके जीवनयापन के लिए अति आवश्यक था। नेहरू ने ङिाझकते हुए 17 सितंबर, 1950 को इजरायल को आधिकारिक रूप से देश का दर्जा दिया। उन्होंने कहा कि हमने बहुत पहले ही इजरायल को मान्यता दे दी होती, क्योंकि इजरायल एक सच्चाई है। हम इससे दूर रहे, क्योंकि हम नहीं चाहते थे कि अरब देशों में स्थित हमारे मित्रों की भावना आहत हो। 1950 के दशक में इजरायल को मुंबई में वाणिज्य दूतावास खोलने की अनुमति दी गई। हालांकि नेहरू इजरायल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित करना नहीं चाहते थे। उनका मानना था कि इजरायल को दिल्ली में दूतावास खोलने की अनुमति देने से भारतीय मुस्लिम नाराज होने के साथ अरब जगत के साथ भी संबंध बिगड़ जाएंगे।1नेहरू-गांधी परिवार के तीन पीढ़ियों यानी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के शासनकाल में भारत-इजरायल के संबंध सदा अनौपचारिक ही रहे। इजरायल के साथ आधिकारिक कूटनीतिक संबंधों का उनका विरोध घरेलू और अंतरराष्ट्रीय, दोनों मोर्चो पर व्याप्त भय को काबू में करने लेकर था। वे नहीं चाहते थे कि इस वजह से मुस्लिम मतदाता और अरब जगत के देश नाराज हो जाएं, जहां बड़े पैमाने पर भारतीय काम कर रहे थे और वे भारत को अपने विदेशी मुद्रा भंडार को नियंत्रित रखने में मदद कर रहे थे और अरब देशों से तेल के प्रवाह को सुरक्षा प्रदान कर रहे थे। भारत की विदेश नीति की प्राथमिकताएं और साङोदारियां भी इजरायल के साथ प्रत्यक्ष संबंधों की राह में बाधा बनीं। इसमें फलस्तीन मुक्त संगठन को भारत का समर्थन, गुटनिरपेक्ष विदेश नीति, शीतयुद्ध के दौरान भारत का सोवियत रूस की ओर झुकाव और अरब के साथ मिलकर पाकिस्तान के प्रभाव को रोकने की मंशा। वह गैर नेहरू-गांधी कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिंह राव थे जिन्होंने इजरायल के साथ 1992 में पूर्ण राजनयिक संबंधों को स्थापित करने जैसा साहसिक कदम उठाया। भारत की हिचक के विपरीत इजरायल ने भारत के साथ अपने संबंधों को हमेशा महत्व दिया। इजरायली इस बात की प्रशंसा करते हैं कि यहूदी भारत आने वाला पहला विदेशी धर्म था। इजरायली हिंदुओं को अपना स्वाभाविक सहयोगी और दुनिया में एकमात्र दोस्त मानते हैं। इजरायल ने संकट के दिनों हमेशा भारत का साथ दिया। उसने चीन के साथ 62 और पाकिस्तान के साथ 65 और 71 की लड़ाई के दौरान सैन्य मदद प्रदान किया। इजरायल ही वह पहला देश था जिसने 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ जीत के बाद अस्तित्व में आए बांग्लादेश को अलग देश की मान्यता दी। इसके विपरीत करीब-करीब सभी अरब और मुस्लिम देशों ने भारत-पाकिस्तान युद्ध और यहां तक कि कश्मीर पर पाकिस्तान का साथ दिया। 1इजरायल भौगोलिक रूप से भारत से 500 गुना छोटा है। इसकी आबादी दिल्ली की आधी जनसंख्या के बराबर होगी। इजरायल फलस्तीन के उस हिस्से पर बसा है जो बिल्कुल रेगिस्तान है। उसके पास प्राकृतिक संसाधनों का अभाव है, लेकिन इस अभाव ने वहां एक वैज्ञानिक समुदाय को जन्म दिया, जिसने सभी समस्याओं का समाधान प्रौद्योगिकी और नवाचार के जरिये खोज लिया। इससे रेगिस्तान भी खिल उठा। इजरायल ने संचार, साइबर सुरक्षा और बीमारियों के इलाज को लेकर काफी तरक्की की है। वह दुनिया का एक मात्र ऐसा देश है जिसने जल आपूर्ति और संरक्षण को लेकर प्रभावी बुनियादी ढांचा तैयार किया है जो बिना बारिश के भी काम कर सकता है। सौर ऊर्जा के क्षेत्र में उसने उल्लेखनीय काम किया है। रडार, मानव रहित ड्रोन बनाने में भी इजरायल को दक्षता हासिल है। भारत को इस तरीके की प्रौद्योगिकी की सख्त जरूरत है। देश की सुरक्षा व्यवस्था के आधुनिकीकरण के लिए घरेलू रक्षा उद्योग को मजबूत बनाने के साथ इजरायल से चुनिंदा उपकरणों का आयात किया जाना आवश्यक है। चूंकि दोनों देश आतंकवाद के निशाने पर हैं इसलिए दोनों आतंकवाद के खिलाफ खुफिया साङोदारी के साथ सैन्य प्रशिक्षण कार्यक्रम भी साझा करेंगे। दोनों देशों के बीच संभावनाओं को भारत आए इजरायली राष्ट्रपति के शब्दों से समझा जा सकता है। उनका कहना था, हमारे सामने अवसर और चुनौतियां दोनों हैं। हमें साथ मिलकर इनका सामना करना चाहिए। इससे लोकतंत्र और अर्थव्यस्था मजबूत होगी।1(लेखक सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर हैं)(DJ)

मातृत्व अभियान से उम्मीद (अलका आर्य)

रोजाना ऐसी खबरें पढ़ने-सुनने को मिलती हैं कि समय पर एंबुलेस नहीं मिलने या अस्पताल की लापरवाही के चलते गर्भवती महिला की प्रसूति के दौरान मौत हो गई। दुनिया में गर्भावस्था और शिशु जन्म के दौरान होने वाली मौतों में से 15 प्रतिशत भारत में होती हैं। 55 हजार से यादा गर्भवती महिलाएं हर साल प्रसूति के दौरान अपनी जिंदगी गवां बैठती हैं जबकि समय पर चिकित्सा सुविधा मुहैया करा कर इन मौतों को रोका जा सकता है। यह सरकार के लिए चिंता और प्राथमिकता का विषय है। हाल ही में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने ‘प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान’ की शुरुआत करते हुए कहा, आइए सुरक्षित गर्भावस्था को एक सामाजिक मुहिम का रूप दें। मैं सभी साङोदारों को इस राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने तथा जचा-बचा मृत्यु दर को कम करने में योगदान देने के लिए आमंत्रित करता हूं।’
दरअसल, देश के सामने एक मुख्य चुनौती जचा-बचा स्वास्थ्य में सुधार संबंधी सतत विकास लक्ष्य को हासिल करने की है। भारत मातृत्व मृत्यु दर को कम करने वाले अपने सहस्त्रब्दि विकास लक्ष्य को पहले भी दो बार गवां चुका है। ऐसे में भारत पर सुरक्षित गर्भावस्था एवं सुरक्षित प्रसव के माध्यम से जचा-बचा मृत्यु दर को कम करने का बहुत दबाव है। लिहाजा,केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान की शुरुआत कर दुनियाभर में यह संदेश देने की कोशिश की है कि भारत केवल जलवायु परिवर्तन, आंतकवाद का खात्मा करने सरीखे मुद्दों पर ही गंभीर नहीं है बल्कि जचा -बचा को मरने से बचाना भी उसकी प्राथमिकताओं में शमिल है। सरकार को उम्मीद है कि राष्ट्रीय स्तर का यह कार्यक्रम उच जोखिम वाली गर्भावस्था की पहचान एवं रोकथाम करने और तकरीबन 3 करोड़ गर्भवती महिलाओं को नि:शुल्क प्रसव पूर्व देखभाल सुविधा उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। यह राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम हर महीने की नौ तारीख को गर्भवती महिलाओं को मुफ्त, व्यापक एवं गुणवत्तापूर्ण प्रसव पूर्व देखभाल सेवाएं उपलब्ध कराएगा। गर्भवती महिलाएं गर्भाधारण की दूसरी या तीसरी तिमाही में सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं के स्त्री रोग विशेषज्ञों से विशेष प्रसव पूर्व जांच सेवाओं का लाभ उठा सकेंगी। इन सेवाओं में अल्ट्रासांउड, रक्त और मूत्र जांच, रक्तचाप जांच आदि शमिल है। इसके अलावा ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में नियमित प्रसव पूर्व स्वास्थ्य सूविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी। मातृत्व मृत्यु एवं नवजात मृत्यु दर को कम करने के लिए उच जोखिम की गर्भावस्था की समय पर पहचान करना तथा महिलाओं को उचित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना इस मुहिम का मुख्य उद्देश्य है। इसमें उन महिलाओं को खासतौर पर ध्यान दिया जाएगा जो प्रसव देखभाल संबंधी जरूरी सेवाओं से बाहर हैं। ऐसी महिलाएं भी शमिल हैं जिन्हें न्यूनतम जांच एवं चिकित्सा सेवाएं भी मयस्सर नहीं हो पातीं। जैसे एएनसी जांच व दवाएं़ आईएफए एवं कैल्शियम सप्लीमेंट्स आदि। प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान के तहत क्लीनिकों में गर्भवती महिलाओं को ये जरूरी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी।
निदान एवं उपचार के अलावा काउंसलिंग भी गर्भवती महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण होती है। खासतौर पर उच जोखिम के मामलों में। स्वास्थ्य सचिव सी.के. मिश्र का कहना है कि जचा-बचा मृत्यु दर में कमी लाने के लिए पर्याप्त प्रयास किए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री मातृत्व सुरक्षित अभियान कार्यक्रम इस तथ्य पर आधारित है कि अगर भारत में हर गर्भवती महिला की ठीक से जांच की जाए और उसे जरूरी चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराई जाए तो गर्भवती महिलाओं एवं नवजात शिशुओं की मौतों को रोका जा सकता है। इसी मंशा को कारगर बनाने और लक्ष्य को हासिल करने की दृष्टि से स्वास्थ्य मंत्रलय ने इस कार्यक्रम के तहत निजी डॉक्टरों, रेडियोलॉजिस्ट, नर्सो आदि से योगदान की अपील की है। सरकार ने प्रधानमंत्री मातृत्व सुरक्षित अभियान एप भी लांच किया है। इसमें साफ कहा गया है कि निजी डॉक्टरों की भागीदारी से गर्भवती महिलाओं की प्रसव पूर्व मुफ्त जांच होगी। इसमें ऑनलाइन पंजीकरण की भी अपील की गई है। दरअसल, प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान का राष्ट्रीय पोर्टल प्रत्येक महीने की 9 तारीख को सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों पर गर्भवती महिलाओं को प्रसव पूर्व मुफ्त सेवाएं प्रदान करने के इछुक निजी क्षेत्रों, स्ंवयसेवी, सेवानिवृत्त दाइंयों और डॉक्टरों को ऑनलाइन पंजीकरण की सुविधा उपलब्ध कराता है। यह पोर्टल कार्यक्रम के तहत उपलब्ध कराई गई सेवाओं के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए एक मंच भी प्रदान करता है। इससे अभियान की ऑनलाइन निगरानी की सुविधा मिलती है। स्वयंसेवियों की प्रतिक्रियाओं, सुझावों के लिए परस्पर संवादात्मक मंच प्रदान करता है। एक डॉक्टर जो निरंतर एक आभासी हॉल ऑफ फेम के जरिए कार्यक्रम के तहत अपनी सेवाएं देते हैं, उनके योगदान को मान्यता देता है।
अहम सवाल यह है कि क्या यह सरकारी कवायद मातृत्व मृत्यु दर में कमी लाने में अहम कदम साबित होगी। क्या निजी डॉक्टर, दाइंया सरकारी अपील पर स्ंवयसेवा के लिए स्वास्थ्य केंद्रों पर हर महीने की 9 तारीख को आएंगे। वैसे भारत में इसकी दरकार है क्योंकि भारत में मौजूदा मातृत्व मृत्यु दर 174 है और लक्ष्य 103 है। ओडिशा, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान और असम में यह दर यादा है। लैंसट की बीते दिनों जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण एवं शहरी इलाकों में ऐसी मौतों की संख्या में अंतर है। इस रिपोर्ट में मातृत्व स्वास्थ्य के विभिन्न पहुलओं व मुद्दों का आकलन किया गया है। भारत में संस्थागत डिलीवरी व स्किल्ड बर्थ में सुधार तो हुआ है। मगर इसके बावजूद सुरक्षित मातृत्च अभियान की जरूरत है। जचा-बचा को मरने से बचाया जा सकता है। गांव हो या शहर, दूरदराज हो या पर्वतीय इलाका, जरूरत ऐसे कार्यक्रमों की गंभीरता से अमल में लाने की भी है। जननी सुरक्षा योजना नामक कार्यक्रम के तहत भी गर्भवती महिलाएं सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में सेवाएं ले सकती हैं। आर्थिक रूप से कमजोर तबके की अधिकांश महिलाएं गरीबी, जागरूकता की कमी के कारण समय पर चिकित्सा केंद्रों पर देखभाल के लिए नहीं पहुंच पाती हैं। मगर प्रधानमंत्री मातृत्व सुरक्षित अभियान यह सुनिश्चित करेगा कि अब देशभर में गर्भवती महिलाएं हर महीने की 9 तारीख को सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों पर नि:शुल्क अपनी जांच करा पाएंगी। यदि इसका नियमित पालन होता है तो मातृत्व मृत्युदर व नवजात मृत्यु दर में उल्लेखनीय कमी हो सकती है। असामान्य बचों के जन्म में भी कमी आ सकती है। प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान को राष्ट्रीय, सामाजिक आंदोलन में तब्दील करने के लिए जो प्रयास किए जा रहे हैं, उनका जारी रहना जरूरी है। तभी अपने देश में प्रसव के दौरान होने वाली मौतों पर रोक संभव हो पाएगी।
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(DJ)

मतदाताके अधिकारों की दिशा में एक फैसला डॉ. मनोज कुमार संस्थापकहम्मूराबी एंड सोलोमन लॉ फर्म, सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट


सुप्रीम कोर्टने हाल ही में मतदाताओं के हक में एक फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि किसी प्रत्याशी की शैक्षणिक योग्यता जानना मतदाता का मौलिक अधिकार है। कोई प्रत्याशी यदि इस संबंध में गलत घोषणा करता है तो उसका चुनाव आधिकारिक रूप से खत्म माना जाएगा। इस संबंध में दो अपीलें पृथ्वीराज सिंह और पुखरेम शरतचंद्र सिंह ने एक दूसरे के खिलाफ दायर की थीं। साथ ही इसमें मणिपुर उच्च न्यायालय के फैसले को भी चुनौती दी गई थी। मणिपुर उच्च न्यायालय ने पृथ्वीराज का चुनाव खत्म मान लिया था।
पृथ्वीराज राकांपा के टिकट पर कांग्रेस के प्रत्याशी शरतचंद्र के खिलाफ मोइरांग विधानसभा सीट से 2012 में चुनाव लड़े थे। आरोप है कि अपीलकर्ता ने अपने नामांकन-पत्र में यह गलत जानकारी दी थी कि उसने यूनिवर्सिटी ऑफ मैसूर से एमबीए किया है। बाद में वे कहने लगे कि शैक्षणिक योग्यता में एमबीए लिखने की गलती एक बाबू की वजह से हुई। सुप्रीम कोर्ट ने इसमें साक्ष्य एकदम उलट पाए। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि जब 2008 में उन्होंने चुनाव लड़ा था, तब भी उन्होंने मैसूर यूनिवर्सिटी से एमबीए होने का जिक्र किया था। ऐसे में जस्टिस राव ने कहा कि यह कैसे माना जा सकता है कि एमबीए का उल्लेख करना एक बाबू की गलती है। मतदाता को गलत सूचना देने के खिलाफ यह फैसला देना विकासशील देशों में लोकतंत्र को और पुख्ता करता है।
समस्त लोकतांत्रिक राजनीतिक सिद्धांतों में इस बात को लेकर बाकायदा सहमति है कि लोकतंत्र में पारदर्शिता के उदाहरण मतदाता के लिए अनिवार्य हैं। नागरिकों को यह अधिकार है कि जिसे वे चुन रहे हैं, उसे क्यों चुन रहे हैं। राजनीति का तथ्यात्मक ज्ञान नागरिकों के लिए अहम पहलू है। पर्याप्त जानकारियों के अभाव में तो वह जज्बा रहेगा और ही किसी तरह का फैसला लेने में कोई हित परिलक्षित हो सकेंगे। जहां तक लोकतांत्रिक सिद्धांतों की बात है तो वे बखूबी समझे जाने चाहिए, ताकि उन्हें स्वीकार कर अर्थपूर्ण तरह से उन्हें लागू किया जा सके। फिर भी अधिकतर मतदाता हमारे देश में अशिक्षित रहते हैं। ऐसे में किस तरह देश में लोकतंत्र आगे बढ़ेगा?
लोकतंत्र के लिए जरूरी है सूचना से परिपूर्ण वोटर, लेकिन सभी जानकारियों से लैस वोटर की बजाय हमारे यहां लोकतंत्र पर ज्यादा जोर दिया जाता है। निरक्षर वोटरों के कारण हमारे देश में लोकतंत्र का स्वरूप बहुतंत्र के रूप में दिखने लगा है। कई वरिष्ठ नागरिकों को प्रत्याशी, चुनाव या राजनीति के बारे में वह जानकारी नहीं होती है। वे किसी भी तरह से अपनी सरकार को काबू में नहीं रख पाते हैं।
इस पूरे तर्क-वितर्क में यह भी कहा जा सकता है कि हमारे वोटर नीतियों और राजनीतिक चयन को लेकर इतने ज्यादा भी पिछड़े हुए नहीं है। उनके पास जो भी जानकारी या मूल्य हैं वे नीतियों और अपने चयन को दुरुस्त करना जानते हैं।
इसके पूर्व 2002 में भारत सरकार बनाम एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कह दिया था कि वोटर को यह मौलिक अधिकार है कि वह चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों के बारे में पूरी जानकारी मांगे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह मतदाता का चयन होगा कि वह किसी ऐसे प्रत्याशी को चुने, जिसके खिलाफ आपराधिक मामले हों या फिर ऐसे मामले को चुने जिसकी शैक्षणिक योग्यता अच्छी हो।
2002 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पश्चात ही जनप्रतिनिधित्व कानून में धारा 33-ए को शामिल किया गया था। एक अध्यादेश के मार्फत इसे सूचना के अतिरिक्त अधिकार में शामिल किया गया था।
2003 में एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने ही पीयूसीएल के मामले में एक अध्यादेश को बरकरार रखा था। अदालत के अनुसार मतदाता देश का वह पहला व्यक्ति होता है, जिसे संविधान ने यह अधिकार दिया है कि वह प्रत्याशी के बारे में पूरी सूचना प्राप्त कर सकता है। वैधानिक अधिकर होने के अलावा यह उसका मौलिक अधिकार है।
फैक्ट भारतीयसंविधान के अनुच्छेद 325 और 326 के अनुसार प्रत्येक वयस्क को मताधिकार प्राप्त है। धर्म, जाति, वर्ण,संप्रदाय या लिंग के आधार पर उसे वंचित नहीं रखा जा सकता। (DB)

इलाज तो अच्छा है, अब संवेदनशीलता भी दिखाएं (चेतन भगत) (अंग्रेजी के युवा उपन्यासकार)


नोटबंदी परभ्रम बढ़ता ही जा रहा है। एक तरफ तो इसे जोरदार समर्थन मिल रहा है तो दूसरी तरफ लंबी कतारों, अर्थव्यवस्था को इससे पहुंच रहे नुकसान और लोगों की तकलीफों पर खबरें भी हैं। यह चल क्या रहा है? नोटबंदी भी किसी भी अन्य नीति की तरह है, क्योंकि इसमें फायदे हैं तो इसी में निहित परेशानियां भी हैं। सबसे नज़दीकी मिसाल कैंसर के इलाज में इस्तेमाल होने वाली कीमोथैरेपी है। यह बहुत ही तकलीफदेह इलाज है, जिसके जबर्दस्त साइड-इफेक्ट हैं, लेकिन इस घातक बीमारी से निपटने में इतना कष्ट भुगतना उचित समझा जाता है। सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि कीमोथैरेपी के प्रति एक अच्छे डॉक्टर का रवैया किसी अन्य इलाज की तुलना में अलग होता है।
इसके लिए कीमोथैरेपी कैसे काम करती है इसे समझना उपयोगी होगा। शरीर में कैंसर कोशिकाएं बहुत तेजी से विभाजित होने वाली कोशिकाएं होती हैं। जब ये पूरे शरीर में फैल जाती हैं तो कुछ रासायनिक दवाएं रक्त में प्रवाहित की जाती हैं ताकि तेजी से विभाजित होती कोशिकाओं को मारा जा सके। समस्या यह है कि ये कीमो ड्रग्स तेजी से विभाजित होतीं अन्य अच्छी कोशिकाओं को भी मार देती हैं जैसे हेयर फॉलिकल्स, पाचन नली की कोशिकाएं या रक्त का निर्माण करने वाली बोन मैरो की कोशिकाएं। इस प्रकार रोगी को कई प्रकार के अप्रिय साइड इफेक्ट सहने पड़ सकते हैं। कुछ मामलों में तो इसके कारण रोगी की मौत भी हो सकती है।
इसलिए ऐसी तीव्रता वाला इलाज दे रहे डॉक्टरों के पास हमेशा साइड इफेक्ट से निपटने की योजना होती है। इसमें कीमो ड्रग्स के साथ अन्य दवाएं देना भी शामिल हो सकता है ताकि साइड इफेक्ट को सीमित रखा जा सके। डॉक्टर के पास कीमो ड्रग्स ठीक मात्रा में देने की भी योजना रहती है। बहुत कम हुई तो असर ही नहीं होगा, ज्यादा हुई तो रोगी की मौत हो सकती है। दोनों दृष्टि से यह कोई आसान इलाज नहीं है- तो रोगी के लिए और ही डॉक्टर के लिए। यह तो अंतिम उपाय है।
भारत में कालाधन कैंसर की तरह है। विभिन्न आकार-प्रकारों में यह देशभर में फैल गया है। हमारी अर्थव्यवस्था के लिए लगभग समानांतर परिसंचरण प्रणाली की तरह। करेंसी नोट का इस्तेमाल इसका बहुत बड़ा भाग है। कालाधन आर्थिक वृद्धि को रोकता है, कार्यकुशलता को मार डालता है और हमें हमारी सर्वोत्तम क्षमता से नीचे बनाए रखता है। इस हद तक सरकार द्वारा कालेधन की समस्या का कीमोथैरेपी जैसा इलाज करना औचित्यपूर्ण है। इस तरह नोटबंदी का कदम स्वागतयोग्य है।
हालांकि, सरकार (या इसके प्रशंसकों) द्वारा कीमो करने के आइडिया पर शेखी बघारना और इसके साथ आए कष्टप्रद साइड इफेक्ट पर गौर करने की इच्छा रखना स्वीकार्य नहीं है। कोई डॉक्टर रोगी को कीमो थैरेपी देने के बाद शेखी नहीं बघारता। वे रोगी की तकलीफ कम करने के लिए काम करते हैं और अच्छी, कमजोर कोशिकाओं पर असर को सीमित रखते हैं। भारत के गरीबों के लिए घोर गरीबी के दुश्चक्र में फंसने के लिए एक ही घातक वार काफी है- कुछ महीनों के लिए दैनिक मजदूरी मिले, बचत खत्म हो जाए, क्योंकि कोई बैंक उन्हें लेने को राजी हो, जॉब चला जाए, क्योंकि उनके रोजगार प्रदाता ने धंधा या उद्योग बंद कर दिया, औद्योगिक मंदी जाए अथवा कोई अस्पताल उन्हें लौटा दे- इसके बाद वे फिर अपने पैरों पर कभी खड़े नहीं हो पाते। नोटबंदी की कीमोथैरेपी यह कर सकती है। इसकी उपेक्षा करना यानी इलाज में संवेदनहीनता और गैर-जिम्मेदारी दिखाना है। समाधान कितना ही शानदार हो, यहां तो क्रियान्वयन निर्णायक था और हमने इसे उतनी अच्छी तरह नहीं किया, जो हम कर सकते थे। हमें अब भी वास्तविक अड़चनों का पता नहीं है- नोट छापने वाली प्रेस, कैश पहुंचाने वाली वैन या बैंक शाखाएं इसके लिए जिम्मेदार हैं? ऐसा लगता है कि फाइनेंस के लोग मीटिंग में बैठें और योजना की तारीफ करने लगें। किसी ने लॉजिस्टिक प्रोफेशनल यानी डिलीवरी के पेशेवरों को तो आमंत्रित किया और उनकी सुनी, जबकि यह सब करने के लिए उनकी जरूरत थी। हमने एक खतरनाक इलाज किया है। शायद इसकी जरूरत थी, लेकिन यह कुछ लोगों के लिए अत्यंत कष्टदायक है। आपात स्तर पर उससे निपटने के बाद हम खुद की पीठ थपथपा सकते हैं, अपने को महिमामंडित कर सकते हैं।
हमें इस कदम का लागत लाभ के आधार पर विश्लेषण भी करना चाहिए, फिर चाहे ब इसे उलटा भी जा सके। सबसे बड़ा फायदा तो वह पैसा है जो बैंक जाकर बदला नहीं गया है, जिसे (वे नए नोट जिस पर किसी ने दावा नहीं किया) सरकार अपने पास रख सकती है। यही सरकार का मुनाफा है। यह कदम कर चोरी करने वालों पर कड़ी कार्रवाई का इरादा भी दर्शाता है, जो इसका अच्छा प्रभाव है। किंतु पूरी कवायद की लागत, जीडीपी के नुकसान, संभावित मंदी, इस सुस्ती से मुनाफा टैक्स घटने, बाजार की गिरावट से सार्वजनिक क्षेत्र के होल्डिंग्स की कीमत में गिरावट और लोगों को हुए कष्ट के संदर्भ में इस कदम का आकलन किया जाना चाहिए।
अंत में, यह कदम बहुत सारा गंदा पानी तो निकालता है, लेकिन रिसती छत नहीं सुधारता। यदि कालाधन बना तो फिर इकट्‌ठा हो जाएगा, शायद इस बार नए नोटों में या कीमती धातुओं के रूप में। यदि कीमोथैरेपी के बाद रोगी फिर गुटखा खाने लगे तो क्या फायदा। आखिरकार हमें कर सुधार करने ही होंगे और लोगों का भरोसा पाना होगा कि सरकार को दिया पैसा खाया नहीं जाएगा बल्कि उसका सदुपयोग होगा। राजनीतिक दल अब भी आईडी प्रूफ के बिना 20 हजार रुपए तक का चंदा दिखा सकते हैं (जबकि हमसे अपने ही दो हजार रुपए निकालने पर बैंक अमिट स्याही लगा देगी, पैन कार्ड के ब्योरे मांगेगी)। यह बड़ी खामी है। दल पैसे को 20-20 हजार की इकाइयों में बांटकर फर्जी लोगों के नाम कर देंगे। इसमें सुधार क्यों नहीं करते? सरकार की कीमोथैरेपी सराहनीय है, लेकिन अब सहानुभूति दिखाकर साइड इफेक्ट से निपटना प्राथमिकता होनी चाहिए। उसके बाद हम यह सुनिश्चित करें कि स्थिति फिर वही हो जाए। कष्टदायक इलाज का औचित्य तभी है जब हम कैंसर पैदा करने वाले तत्वों का भी सफाया कर दें।
(येलेखक के अपने विचार हैं) (DB)

नोटबंदी की आलोचना के चार आधारों की हकीकत (दिवाकर झुरानी,) (फ्लेचरस्कूल ऑफ लॉ एंड डिप्लोमेसी टफ्ट यूनिवर्सिटी, अमेरिका)

नोटबंदी कीचार प्रमुख आधारों पर आलोचना हो रही है। आइए उनका विश्लेषण करें :
1.एक, हजार रुपए का नोट बंद करके दो हजार का नोट क्यों लाए : भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। 2001 में पांच सौ और हजार के नोटों की चलन में हिस्सेदारी 30 फीसदी थी, जो 2015 में 86 फीसदी हो गई। आर्थिक वृद्धि के कारण लेन-देन में आसानी के लिए बड़े नोट जरूरी हुए। बड़े नोटों को छापने में लागत भी कम आती है।
2. नोटबंदी के बाद लंबी कतारें लगीं, व्यापक उथल-पुथल मच गई: भारत में एक लाख लोगों पर व्यावसायिक बैंकों की 13 शाखाएं हैं। यदि 30 दिसंबर तक बैंक के रोज के 10 घंटे गिने और एक परिवार से एक सदस्य बैंक में जाए तो उसे कतार में लगे बिना बैंक व्यवहार के लिए औसतन 20 मिनट मिलेंगे। किंतु समस्या तो है, जो क्रमश: कम होती जाएगी।
3. नकदी के अभाव में रोजंदारी पर काम करने वाले श्रमिक और छोटे व्यापारी मुश्किल में गए : यदि मनरेगा में काम करने वाला श्रमिक चेक मंे वेतन ले सकता है तो निर्माण कार्य में लगा मजदूर या मैरिज कैटरर क्यों नहीं ले सकता? हालांकि, कुछ लोगों के लिए यह नामुमकिन है। नोटबंदी के पहले 500 और 1000 की कैश वैल्यू 86 फीसदी थी। यानी 14 फीसदी नकदी अब भी छोटे नोटों के रूप में बाजार में मौजूद है। यदि इन्हें परिवारों में समान रूप से बांट दिया जाए तो प्रत्येक परिवार को 9 हजार रुपए मिलेंगे। सही है कि हर किसी के पास इतने छोटे नोट नहीं होते, लेकिन इतने नोट देश में मौजूद तो हैं। संकट के कारण इनके चलन मंे और तेजी आएगी।
4. आम आदमी जो पैसा बैंकों में जमा करेगा वह लोन चुकाने वाले बड़े कॉर्पोरेट घरानों की फंडिंग में जाएगा : बैंक में जमा पैसा कभी भी निकाला जा सकता है। बैंक मांगने पर यह पैसा देने के लिए बाध्य हैं। ऊपर बताए आंकड़ें जमीनी हकीकत ठीक से बयान नहीं करते, लेकिन अर्थव्यवस्था की क्षमता पता चलती है, जिसे नागरिक मिलकर साकार कर सकते हैं। सही है कि इससे काला धन खत्म नहीं होगा, लेकिन कदम गलत होता है तो काले धन के खिलाफ लड़ाई कमजोर पड़ जाएगी।
स्पष्टीकरण :-
यह आलेख दैनिक भास्कर से लिया गया है.इस आलेख को यहाँ डालने का केवल इतना मतलव है कि आपको ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने हेतु उचित कंटेंट मिल सकें.जहाँ तक नोटबंदी के फायदे की बात है इसमें आप भी बहुत कुछ जोड़ सकते हैं ,इसी तरह नोटबंदी के नुक्सान के बारे में भी कंटेंट लिखा जा सकता है. दोनों पहलुओं को मिला कर आप खुद का विश्लेष्णात्मक आलेख तैयार कर सकते हैं.

न्यायपालिका में नियुक्तियां : पारदर्शिता की जरूरत (निरंजन स्वरूप)

हाल में ही केंद्र सरकार और न्यायपालिका के बीच देशभर के विभिन्न उच न्यायालयों एवं उचतम न्यायालय में न्यायाधीशों की कमी को दूर करने के लिए मध्य मार्ग अपनाने पर सहमति बनी। इसके अनुसार संविधान के अनुछेद 224 ए के तहत उच न्यायालयों एवं उचतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को पुन: एक नियत अवधि के लिए सेवा में रखा जाएगा। लेकिन सबसे पहले यह समझना होगा कि ऐसी स्थिति क्यों आई। इसके बाद ही उसका निराकरण करना संभव हो पाएगा। भारत के संविधान द्वारा न्यायपालिका को अन्य अधिकारों के साथ साथ यह अधिकार भी दिया गया है कि वह कार्यपालिका एवं विधायिका को कानून और संविधान का उल्लंघन एवं नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन करने से रोके। देश का उचतम न्यायालय ही संविधान का अंतिम निर्णयकर्ता है। इसके अंतर्गत 1973 में केशवानंद भारती केस में उचतम न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय में यह आदेश दिया कि कोई भी संविधान संशोधन ऐसा नहीं हो सकता, जिससे उसकी मूल भावना प्रभावित हो। इसी भावना के अंतर्गत भारतीय संविधान में न्यायपालिका एवं कार्यपालिका की परस्पर स्वतंत्रता को संविधान का मूल आधार माना गया है।
विभिन्न अवसरों पर उचतम न्यायालय द्वारा अपने आदेशों में यह दर्शाया भी गया है। यही वजह थी कि वर्ष 1993 में उचतम न्यायालय द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का कार्य भी अपने हाथ में ले लिया गया था। तब से 3 या 5 वरिष्टतम न्यायाधीशों का एक कोलेजियम ही विभिन्न उच न्यायालयों एवं उचतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में प्रमुख भूमिका निभाता है। यह कोलेजियम जिस व्यक्ति को न्यायाधीश बनाना है उसका नाम सरकार के पास अंतिम रूप से अनुमोदन के लिए भेजता है और सरकार (राष्ट्रपति) द्वारा उस व्यक्ति को संबंधित न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया से काफी हद तक सरकार का न्यायाधीशों की नियुक्ति में हस्तक्षेप कम तो हुआ। लेकिन जैसी संविधान की मंशा है, वैसा परिणाम सामने नहीं आया। इस प्रक्रिया से भी न्यायपालिका की पूर्ण स्वतंत्रता सुनिश्चित होने में बाधा उत्पन्न हुई क्योंकि कार्यपालिका द्वारा न्यायाधीशों को विदेश यात्र की अनुमति एवं सेवानिवृत्ति के उपरांत कई प्रकार के ईनाम देने की प्रवृत्ति जैसे कमीशन, टिब्यूनल अथवा प्रदेश के रायपाल का पद देने की परिपाटी ने एक अजीब स्थिति पैदा कर दी और इससे पारदर्शिता प्रभावित दिखी। इससे न्यायपालिका की संपूर्ण स्वतंत्रता की संविधान की अवधारणा पूरी नहीं हो सकी। कोलेजियम द्वारा भी न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया में अत्यंत गोपनीयता बरतने के कारण उस पर न्यायाधीशों की नियुक्तियों में भाई भतीजावाद एवं उनकी योग्यता को लेकर समय समय पर उंगली उठती रही है। यहां तक कहा जाता रहा है कि न्यायाधीश बनने के लिए कोलेजियम के सदस्यों को जानना और उनसे नजदीकी होना पर्याप्त है। अगर देखा जाए तो कोलेजियम पर इस प्रकार के आरोप निराधार नहीं हैं।
इसी बीच, न्यायालय एवं न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया पर अपना नियंत्रण कायम करने के उद्देश्य से सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाया गया। इस आयोग में छह सदस्यों का एक पैनल जिसमें तीन उचतम न्यायायलय के वरिष्ठ न्यायाधीश, केंद्रीय कानून मंत्री, प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्षि एवं देश के मुख्य न्यायाधीश द्वारा नियुक्त किए जाने का प्रावधान था। लेकिन उचतम न्यायालय ने सरकार के इस कानून को निरस्त कर दिया। क्योंकि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के सदस्यों में सरकार का काफी हद तक हस्तक्षेप था, जैसा कि इसके प्रारूप से स्वत: स्पष्ट है। इस प्रकार यह न्यायपालिका की स्वतंत्र और संविधान की मूल भावना पर कठोर आघात था। तब से आज तक सरकार और न्यायपालिका के बीच न्यायधीशों की नियुक्ति को लेकर सहमति न बन पाने के कारण लगभग एक वर्ष से अधिक हो जाने पर भी विभिन्न उच न्यायालयों एवं उचतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया रुकी हुई है। इस वजह से ही संविधान के अनुछेद 224 ए के अंतर्गत उच न्यायालयों एवं उचतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को एक नियत अवधि के लिए सेवा में पुन: रखने पर सरकार एवं न्यायपालिका दोनों के बीच सहमति बनी है। देश के विभिन्न उच न्यायालयों एवं उचतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक ऐसे पूर्ण कालिक आयोग की जरूरत है जिस पर सरकार का नियंत्रण न हो। इस संबंध में ब्रिटेन में वहां की सरकार ने 2006 में न्यायधीशों की नियुक्ति को पूर्ण रूप से सरकार के हस्तक्षेप से मुक्त करके एक स्वतंत्र स्थाई आयोग बनाया जिसे न्यायायिक नियुक्ति आयोग कहा जाता है। भारत सरकार को भी इस मॉडल पर विचार करना चाहिए। अपने देश में भी ऐसे स्थाई न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया जा सकता है, ताकि न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी, भाई भतीजावाद से मुक्त बनाया जा सके। नागरिकों को न्यायाधीशों की नियुक्ति का आधार, उनको किस कारण चुना गया, न्यायाधीश बनने के लिए जितने उम्मीदवारों ने आवदेन किए, उनकी तुलनात्मक योग्यताएं, कोई गोपनीय चीज नहीं होना चाहिए। साथ ही साथ जिस तरह देश के प्रशासनिक सेवा में अंतिम चयन से पहले उम्मीदवारों के नाम सार्वजनिक रूप से ज्ञात होते हैं उसी प्रकार से न्यायाधीशों की अंतिम नियुक्ति से पहले यह पता होना चाहिए कि कौन कौन भविष्य में न्यायधीश बन सकता है? जिस प्रकार देश में किसे भी क्षेत्र में किसी भी उच पद पर नियुक्ति के लिए मूलभूत मापदंडों के आधार पर अभ्यर्थी को कसा जाता है उसी प्रकार से न्यायाधीश जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति से पहले भी अभ्यर्थियों की क्षमता, न्यायिक दक्षता एवं आम आदमी की समस्याओं के प्रति संवदेनशीलता जैसे मापदंडों पर जांचना अति आवश्यक है।
जन सूचना अधिकार में न्यायपालिका को भी एक सार्वजनिक अथॉरिटी माना गया है। इसके बावजूद भी हमारे देश में न्यायपालिका आज भी इस कानून के दायरे से अपने आपको दूर रखती है। इसी कारण न्यायपालिका के कार्यकलापों से संबंधित मसलन न्यायाधीशों की नियुक्ति, न्यायालयों में लंबित लाखों मुकदमों से संबंधित जानकारी आम जनता को नहीं होती है। लिहाजा यह देश एवं न्याय के हित में आवश्यक हो जाता है कि अब भारत में ब्रिटेन की तर्ज पर प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया जाए जो कि देश की न्याय व्यस्था में व्याप्त वर्णित कमियों को दूर कर सके। देश के न्यायालयों में न्यायाधीशों की कमी, लंबित मुकदमों के निपटारे के लिए संविधान के अनुछेद 224 ए का सहारा लेकर तात्कालिक उपाय करना और समस्या का मूल उपचार न करना दूरदर्शी एवं सराहनीय कदम नहीं हो सकता। इससे भारत की न्याय व्यवस्था में एक पारदर्शिता की शुरुआत होगी। यही वर्तमान समय की मांग और जरूरत है।(DJ)
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

न्याय की आस में आदिवासी (भारत डोगरा)

हाल के समय में राजस्थान के बांसवाड़ा जिले में वन-अधिकार कानून के क्रियान्वयन पर एक जन-सुनवाई का आयोजन किया गया। इस जन-सुनवाई में अनेक आदिवासी किसानों ने बताया कि वे वर्षो से अपने आवेदन पत्र लेकर ग्राम स्तरीय वन समिति से लेकर उपखंड स्तरीय समिति तक भटक रहे हैं। लेकिन कोई उनका आवेदन पत्र लेकर रसीद देने तक को तैयार नहीं है। बागड़ मजदूर किसान संगठन बांसवाड़ा की ओर से आयोजित इस जन-सुनवाई में कई वक्ताओं ने बताया कि दावा पेश करने की प्रक्रिया में ऐसी अनेक प्रवृत्तियां देखी गई हैं जो कानून और उसकी मूल भावना के विरूद्ध हैं। इस जन सुनवाई का महत्व इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए कि राजस्थान में सबसे अधिक व्यक्तिगत वन-अधिकार के दावे बांसवाड़ा जिले में प्राप्त हुए हैं। लेकिन सबसे अधिक दावे निरस्त भी इसी जिले में हुए हैं। यदि किसी बहुत उपेक्षित-शोषित समुदाय को यह बार-बार विश्वास दिलाकर कहा जाए कि जो अन्याय पहले तुमसे हुआ है, उसे अब पूरी तरह दूर किया जाएगा। मगर फिर यह अन्याय दूर करने के स्थान पर उसे और बढ़ा दिया जाए तो उस समुदाय का विश्वास कितनी बुरी तरह से टूट जाएगा इसकी कल्पना की जा सकती है।
कुछ यही स्थिति इन दिनों आदिवासियों और अन्य वनवासियों को ङोलनी पड़ी है। वर्ष 2005 और 2008 में एक लंबी और पेचीदा प्रक्रिया के बाद अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वनवासी वन अधिकार मान्यता कानून बना और कार्यान्वित होना आरंभ हुआ। इस कानून को सामान्य भाषा में वनाधिकार कानून कहा गया। इस कानून की पृष्ठभूमि यह थी कि आदिवासियों से बिना उचित विचार-विमर्श के बहुत सी भूमि को वन-भूमि घोषित कर दिया गया जिसके कारण वहां खेती कर रहे आदिवासियों-वनवासियों की खेती को अचानक अवैध घोषित कर दिया गया। तब से उन्हें यहां खेती करने से रोकने के लिए तरह-तरह से हैरान-परेशान किया गया। उनका बहुत उत्पीड़न किया गया। वनाधिकार कानून ने इसे ‘ऐतिहासिक अन्याय’ कहते हुए इसे दूर करने के लिए एक प्रक्रिया निर्धारित की, जिसके अंतर्गत ऐसी भूमि पर आदिवासी और परंपरागत वनवासी दावों के प्रमाण जमा किए जाएंगे एवं एक विधि सम्मत प्रक्रिया द्वारा जिन दावों को स्वीकार किया जाएगा उस भूमि पर आदिवासियों-वनवासियों का अधिकार सुनिश्चित कर दिया जाएगा। चूंकि इस कानून का उद्देश्य ही आदिवासियों से हुए ऐतिहासिक अन्याय को दूर करना बताया गया था, अत: सामान्यत: यही माना गया कि और जो भी पेचीदगियां हों पर आदिवासियों-वनवासियों की स्थिति को पहले से तो बहुत सुधारना ही है। अत: यह मान्यता व्यापक स्तर पर बनी कि इनमें से अधिकांश दावों को स्वीकृति मिल जाएगी और यह आदिवासी परिवार भविष्य में इस भूमि को बिना किसी झंझट के जोत लेंगे। पर आज जो स्थिति नजर आ रही है वह उम्मीद से बहुत अलग है। पहली समस्या तो यह है कि निरस्त होने वाले दावों की संख्या बहुत अधिक है। दूसरी समस्या यह है कि जिन दावों को स्वीकार किया जा रहा है, उनमें भी ऐसा नहीं है कि पूरे दावे को स्वीकार किया गया हो। ज्यादा संभावना इस बात की है कि पांच बीघे का दावा प्रस्तुत किया गया है तो दो बीघे का ही दावा स्वीकार होगा। यानी जो दावे स्वीकार हुए हैं उनमें से कई में आदिवासी परिवार द्वारा जोती जा रही जमीन पहले से कम हो रही है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि वन अधिकार कानून का सही क्रियान्वयन कहीं पर नहीं हुआ है। कुछ क्षेत्रों में जहां निष्ठावान अधिकारियों ने बहुत मेहनत और सहानुभूति से कार्य किया और कुछ स्थानों पर जहां अदिवासियों के जन-संगठन कुछ मजबूत थे या जहां ऐसी दोनों अनुकूल परिस्थितियों का मिलन था, वहां से कुछ अछे समाचार मिले हैं। लेकिन कुल मिलाकर राष्ट्रीय स्तर पर क्रियान्वयन की स्थिति कमजोर और चिंताजनक रही है। कुछ समय पहले आयोजित जन-सत्याग्रह यात्रओं के दौरान आयोजित अनेक जन-सभाओं, जन-सुनवाइयों और संगोष्ठियों में भी यह तथ्य उभर कर सामने आया कि वन अधिकार कानून का क्रियान्वयन बेहत विसंगतिपूर्ण व समस्याग्रस्त है। इन जन-सभाओं में मिले अनेक उदाहरणांे से पता चलता है कि वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन में कितनी गंभीर समस्याएं आ गई हैं। सरकार को चाहिए कि बिना देरी किए इन समस्याओं का समाधान करे ताकि वन अधिकार कानून से आदिवासियों और परंपरागत वनवासियों को वास्तव में राहत मिल सके। झारखंड में आयोजित जन सभाओं में यह तथ्य सामने आया कि पेसा कानून के अंतर्गत ग्रामसभाओं को मजबूत बनाने के बावजूद उनकी अवहेलना हो रही है। पाकुड़ जिले के पफतेहपुर आमाखोरी गांव में आयोजित जनसभा में महेशपुर गांव के एमली हासदा ने कहा कि वर्तमान में कोयला खनन के लिए 32 गांवों को चिन्हत किया गया है और परंपरागत पंचायतों के प्रस्तावों की अवहेलना करते हुए भूमि अधिग्रहण किया गया।
अखिल भारतीय आदिवासी परिषद के रविनाथ कुडु ने कहा कि वास्तव में संथाल परगना कास्तकारी कानून के अंतर्गत परंपरागत प्रधानों के प्रस्तावों को स्वीकार किया जाना चाहिए था जबकि वर्तमान में प्रशासन द्वारा प्रधानों की आपत्तियों पर कार्यवाही नहीं हो रही है। यह एक बहुत पेचीदा और चिंताजनक संभावना उत्पन्न हो गई है कि जिस कानून को आदिवासियों से हुए ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के लिए बनाया गया था, वह वास्तव में उनसे और अन्याय का कारण बनेगा। इस कानून के क्रियान्वयन के नाम पर उनका बड़े पैमाने पर विस्थापन होगा। जिन्हें कानून में ‘अन्य परंपरागत वनवासी’ की श्रेणी देकर उनसे भी न्याय का वायदा किया गया था, उनकी स्थिति तो सबसे विकट बताई जाती है व कुछ स्थानों पर तो उनके लगभग सभी दावों को निरस्त कर दिया गया है। इस चिंताजनक स्थिति को देखते हुए इस कानून के क्रियान्वयन पर नए सिरे से विचार करना भी जरूरी है। ऐसी स्थिति बनानी होगी जिससे आदिवासियों और अन्य परंपरागत वनवासियों की स्थिति बिगड़े नहीं बल्कि सुधरे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(DJ)

भारत-चीन पर नई जिम्मेदारीे (अभिषेक कुमार )


जलवायु परिवर्तन का सबसे यादा जोखिम झेलने वाले देशों को मोरक्को के मारकेश में 7 से 18 नवंबर तक चले कॉप-22 यानी कॉफ्रेंस ऑफ पार्टीज-22 से कोई राहत नहीं मिली है। हालांकि वहां जुटे 196 देशों के प्रतिनिधियों ने पृथ्वी और पर्यावरण को बचाने के लिए राजनीतिक प्रतिबद्धता को दोहराते हुए तत्काल कार्रवाई की घोषणा की, लेकिन पेरिस क्लाइमेट डील पर अमेरिका में चुने गए 45वें राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के रुख को देखते हुए इस समझौते के ही खटाई में पड़ जाने का खतरा पैदा हो गया है। अब उम्मीद सिर्फ भारत-चीन जैसे विकासशील देशों से ही है, जो स्वच्छ ऊर्जा के विकल्पों की तरफ न सिर्फ खुद बढ़ेंगे बल्कि विकसित देशों को बाध्य करेंगे कि वे पेरिस जलवायु समझौते की लाज रखें। अमेरिका में सत्ता संभालने जा रहे डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन की तरफ ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि वे 2015 में बराक ओबामा द्वारा पेरिस समझौते पर मंजूर की गई शर्तो को ठुकरा देंगे। यह कदम ठीक वैसा ही होगा, जैसा कि अमेरिका पहले 1997 में मंजूर की गई क्योटो संधि के बारे में कर चुका है। क्योटो संधि पर पहले तो अमेरिका ने हामी भरी थी, लेकिन बाद में उसे अनुमोदित करने से इनकार कर दिया था। इससे क्योटो संधि व्यर्थ हो गई थी। अब यदि पेरिस समझौते पर भी अमेरिका नकारात्मक रुख रहा, तो खतरा यह है कि कई अन्य गैर-यूरोपीय अमीर देश अमेरिका की राह पर ही चल पड़ेंगे। और 2020 से लागू होने जा रहे पेरिस समझौते का भविष्य अधर में लटक जाएगा और दुनिया 1997 से पहले वाले युग में पहुंच जाएगी। यहां दो अहम सवाल हैं। पहला यह कि आखिर ट्रंप पेरिस संधि की इतनी मुखालफत क्यों कर रहे हैं और दूसरा यह कि यदि अमेरिका और अन्य गैर-यूरोपीय मुल्क इससे बाहर हो गए तो क्या भारत-चीन आदि देश इसे लागू करते हुए खुद के पर्यावरणीय वजूद और अर्थसत्ता को बचाए रख पाएंगे?
जहां तक पेरिस संधि को लेकर ट्रंप के विरोध की बात है, तो इसकी पृष्ठभूमि इस साल मई में ही तैयार हो गई थी जब उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के दौरान ऐलान किया था कि अगर वह राष्ट्रपति बने हैं तो इस संधि को रद्द कर देंगे। उनका मानना था कि यह संधि चीन के हितों का पोषण करती है और असल में यह उसका ही एक षड्यंत्र है। ध्यान में रखना होगा कि 2015 में पेरिस में हुए इस जलवायु परिवर्तन समझौते में तय किया गया था कि जिन विकसित देशों की ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में दो तिहाई हिस्सेदारी है, वे इसमें कटौती करेंगे। चूंकि इससे अगले 50 साल में दुनिया के तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी का अनुमान है, इसलिए उत्सर्जन घटाते हुए तापमान बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री तक सीमित करने का संकल्प जताया गया था। वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर दुनिया तापमान को दो डिग्री सेल्सियस तक नीचे रखने में कामयाब हो जाती है, तो समुद्र का जलस्तर बढ़ने, ग्लेशियरों के पिघलने और बाढ़ व सूखे पर कुछ तो अंकुश रखा जा सकता है। असल में, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के विशेषज्ञों का कहना है कि अगर ग्रीनहाउस गैसों और कार्बन उत्सर्जन पर रोक नहीं लगाई गई तो इस सदी के अंत तक धरती का तापमान 2.9 से 3.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। यह बढ़ोतरी ऐसे खतरे पैदा करेगी, जिनसे धरती के बचे रहने की संभावना भी खत्म हो सकती है। यही कारण है कि पेरिस समझौते में विकसित देशों के साथ-साथ विकासशील देशों को भी कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिए राजी किया गया था। इन सभी के लिए 100 खरब डॉलर का एक वैश्विक कोष बनाने की बात कही गई थी, जिसमें पूरी दुनिया की हिस्सेदारी है। पिछले साल ओबामा ने पेरिस संधि पर सहमति जताते हुए यह संकल्प किया था कि अमेरिका 2025 तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 26 से 28 प्रतिशत घटाते हुए उसे 2005 के स्तर पर ले आएगा।
इन संकल्पों और संदेहों के बीच मारकेश में विश्व नेताओं ने यह भरोसा जताया है कि यादातर मुल्क पेरिस संधि की शर्तो की मंजूरी प्रक्रिया अपने यहां पूरी करा लेंगे। ट्रंप के रवैये को देखते हुए वे इस प्रक्रिया को जल्द पूरा कराना चाहते हैं पर इसमें अभी भी कम से कम तीन साल लग सकते हैं। इसके बाद एक साल का वक्त उस प्रक्रिया को अमल में लाने में लगेगा। यह गणित यूं तो ट्रंप के सख्त रवैये के बावजूद पेरिस संधि के वजूद पर कोई बड़ा संकट डालता प्रतीत नहीं होता क्योंकि अगले चार साल में अमेरिका में नए राष्ट्रपति के चयन की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। फिर भी समस्या यह है कि अमेरिकी रुख को भांपते हुए अमेरिका समेत कई अन्य मुल्क पेरिस संधि की शर्तो को मानने से इनकार कर सकते हैं। विवाद का एक बड़ा मुद्दा यह है कि अधिकतम तापमान बढ़ोतरी की मियाद क्या हो। पिछले साल पेरिस में 29 पेज के मसौदे में तीन विकल्प रखे गए थे। पहला तो पुराना दो डिग्री तापमान बढ़ोतरी वाला ही था। दूसरा डेढ़ डिग्री या उससे कम का था और तीसरा डेढ़ से दो डिग्री के बीच। इस मुद्दे पर आगे भी देशों के बीच टकराव होने तय हैं। मिसाल के तौर पर आगे चलकर यदि तापमान अगर डेढ़ डिग्री से नीचे रखने की बात होती है तो कार्बन कटौती और पैसों के मसले पर लड़ाई होगी। मौजूदा दो डिग्री से नीचे की किसी भी स्थिति में हर देश को अपने राष्ट्रीय लक्ष्य बदलने होंगे। ऐसे फैसलों के लिए बड़ी राजनीतिक इछाशक्ति की जरूरत होगी। गरीब देशों को पैसों की मदद कैसे होगी, यह सवाल भी बड़ी लड़ाई का है क्योंकि पेरिस संधि के मसौदे में विकसित देशों के उस बिन्दु को भी शामिल कर लिया गया है जिसमें कहा गया है कि विकसित देशों के अलावा ऐसे हर देश को ग्रीन क्लाइमेट फंड में पैसा डालना होगा, जो बेहतर स्थिति में हो।
बेशक जलवायु बदलाव को रोकने की लड़ाई अभी लंबी चल सकती है। लेकिन भारत जैसे मुल्क के लिए इसमें कई मौके शामिल हैं। भारत चाहे तो इस मामले में वैश्विक नेता की भूमिका निभा सकता है। असल में, भविष्य में भारत बेइंतहा कार्बन उत्सर्जन करने वाले थर्मल पावर संयंत्रों के स्थान पर सौर ऊर्जा संयंत्रों पर अपनी निर्भरता बढ़ा सकता है जिनसे कोई प्रदूषण नहीं होता है। फिलहाल सौर बिजली की कीमत थर्मल प्लांटों से मिलने वाली बिजली के बराबर हो गई है, लेकिन आने वाले वक्त में यह उसी तरह बेहद सस्ती हो सकती है, जैसे मोबाइल कॉल दरों में कटौती हुई है। मामला सिर्फ स्वछ ऊर्जा उत्पादन से पेरिस संधि के लक्ष्यों की प्राप्ति और धरती के संरक्षण का ही नहीं है, बल्कि ऐसे उपायों से हमारे विनिर्माण क्षेत्र को भी फायदा मिल सकता है। असल में, भारत को इस राह पर खास तौर से वायु प्रदूषण के हाल का वाकयों के मद्देनजर बढ़ना ही चाहिए। भले ही अमेरिका पेरिस संधि की शर्तो को मानने में ना-नकुर करे, लेकिन भारत-चीन जैसे देशों के हित में यही है कि वे पर्यावरण संरक्षण की तकनीकों को अपनाएं और धरती समेत खुद को बचाने के लिए प्रतिबद्ध हों। (DJ)

thought on note

विमुद्रीकरण के आज 13 दिन व्यतीत हो चुके हैं. आज यदि इस कार्य की समीक्षा की जाये तो निष्कर्ष प्राप्त होता है कि सरकार का यह कदम साहस से भरा हुआ तो था परन्तु क्रियान्वयन के स्तर पर सटीक नहीं था. क्रियान्वयन के स्तर की कमियां हर जगह दिखाई देती है ,खास कर बेंकों के स्तर पर.मैं यह नहीं कह रहा कि बैंक के कर्मचारी दिन रात कार्य करें,मेरे कहने का मतलव है कि सरकार को बैंकों में काउंटर बढ़ाने चाहिए थे तथा जनता की समस्याओं के प्रति अधिक संवेदनशील होना चाहिए था. आज के दिनों में भारत की जनता हीरो बन कर उभरी है. आम जनता ने जिसने की वास्तविक रूप से विमुद्रीकरण की परेशानियों को झेला है उनको शत-शत नमन किया जाना चाहिए. भारत की जनता ने भ्रष्टाचार की समाप्ति की उम्मीद में सरकार का साथ दिया है.सरकार को यह ध्यान में रखना होगा की यदि जनता के इस बलिदान के बाबजूद आतंरिक कालेधन पर ठोस कार्यवाही नहीं हुई तो भविष्य में किसी ऐसे योजना को वह समर्थन नहीं देगी,,,,, इस पुरे घटनाक्रम में भारत के राजनीतिक दल सबसे बड़े जीरो के रूप में उभरा है. राजनीतिक दल चाहे वह सत्ता पक्ष का हो या विपक्ष का सबो ने मिलकर इस योजना के खिलाफ केवल असहयोग ही किया है (सत्ताधारी दल ने केवल अंधभक्ति दिखा कर और विपक्षी दल ने केवल विरोध दिखा कर ) मुझे लगता है कि इन सबके बावजूद भारत की आम जनता ने जिस परिपक्वता का परिचय दिया है उससे तो लगता है कि अपने प्रतिनिधि के तौर पर.भारतीय लोकतंत्र को राजनीतिक दलों की जरुरत ही नहीं है. आप क्या सोचते हैं.........

ट्रंप की जीत के बाद अमेरिका का उलझा गणित (डब्ल्यू पी एस सिद्धू, प्रोफेसर, न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी)


डोनाल्ड ट्रंप को मिली अप्रत्याशित चुनावी सफलता के करीब दो हफ्ते बाद भी अमेरिकी सियासत की सूनामी थमती नहीं दिख रही है। ‘प्रेसिडेंट इलेक्ट’ की कथित नीतियों व प्रत्याशित कार्रवाई को लेकर देश-दुनिया अब भी चिंतित है। आलम यह है कि चुनावी नतीजों के खिलाफ अमेरिका के कई प्रमुख शहरों में विरोध-प्रदर्शन हो रहे है। यूरोपीय संघ के विदेश मंत्री आपात बैठक करके ट्रंप की जीत पर विचार कर रहे हैं। जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे अपनी हताश छिपाने में जुटे हैं। यानी चुनाव अभियान के दौरान ट्रंप की कही गई सभी बातें बतौर राष्ट्रपति उनकी प्राथमिक नीतियों के तौर पर देखी जा रही हैं।
ट्रंप की नीतिगत घोषणाओं को लेकर उलझन व अनिश्चितता गलत नहीं है। इसे ट्रंप की बातों से भी समझा जा सकता है। अमेरिकी इजराइल पब्लिक अफेयर्स कमेटी के सामने ईरान परमाणु समझौता पर बोलते हुए बतौर उम्मदीवार ट्रंप ने दावा किया था कि उनकी ‘सर्वोच्च प्राथमिकता’ ईरान के साथ विनाशकारी समझौता रद्द करना होगी। मगर उसी भाषण के दौरान उन्होंने समझौते को लेकर ईरान को जवाबेदह बनाते हुए कहा, ‘पहले से लागू कोई ऐसा समझौता आपने नहीं देखा होगा।’ हाल ही में अमेरिकी अखबार द न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी उन पर चुटकी लेते हुए लिखा है कि ट्रंप के पास ‘एक ही समय में दो विपरीत विचारों का समर्थन करने’ की क्षमता है।
हालांकि ट्रंप यदि चुनावी अभियानों में सुसंगत नीतियां पेश भी करते, तो आज उन्हें लागू करना उनके लिए आसान नहीं होता। मुश्किलें कई हैं। पहली मुश्किल खंडित जनादेश की है। बेशक साल 1928 के बाद पहली बार रिपब्लिकन पार्टी और उसके उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप का ह्वाइट हाउस, हाउस ऑफ रिप्रेजेन्टेटिव्स (निचला सदन) और सीनेट (ऊपरी सदन) पर नियंत्रण हुआ है, मगर सही मायने में पार्टी और उम्मीदवार, दोनों को मतों का काफी नुकसान पहुंचा है। राष्ट्रपति चुनाव में हिलेरी क्लिंटन को ट्रंप की तुलना में दस लाख से अधिक मत मिले हैं; अंतर ज्यादा भी हो सकता है, क्योंकि मतों की गिनती जारी है। दोनों उम्मीदवारों के बीच वोटों का यह अंतर जॉन एफ केनेडी और रिचर्ड निक्सन की जीत के अंतर से भी ज्यादा है। स्पष्ट है कि मतदाताओं के बड़े वर्ग में लोकप्रिय न होना ट्रंप को मनोनुकूल फैसले करने से रोक सकता है।
अगर उनके पास मजबूत व स्पष्ट जनादेश होता, तब भी यह जरूरी नहीं है कि चुनावी अभियानों में किए गए सभी वादे पूरे हों। उदाहरण बराक ओबामा हैं। उन्होंने चुनाव जीतने के बाद ग्वांतानामो बे जेल को बंद करने की अपनी दिली-इच्छा जाहिर की थी, पर अपने पूरे कार्यकाल में वह ऐसा न कर सकें। इसी तरह, उन्होंने दुनिया को परमाणु हथियारों से मुक्त करने के लिए प्रभावी कदम उठाने की बात भी कही, मगर विडंबना है कि उनके कार्यकाल में परमाणु हथियारों को अत्याधुनिक बनाने के लिए अब तक का सर्वाधिक बजट आवंटित किया गया। जाहिर है, ट्रंप के तमाम चुनावी वायदे भी इसी तरह राजनेताओं और नौकरशाहों की नजरों से गुजरेंगे। जैसे कि अगर वह ईरान के साथ परमाणु समझौता खत्म करने का फैसला लेते हैं, तो उन्हें जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देशों के खिलाफ भी कदम उठाना होगा, क्योंकि इन तमाम मुल्कों के हित अब ईरान से जुड़ते जा रहे हैं।
पार्टीगत विरोध भी एक बड़ी मुश्किल है। ट्रंप को कुछ मसलों पर अपनी ही पार्टी का विरोध झेलना पड़ सकता है। जैसे कि एरिजोन से फिर से निर्वाचित सीनेटर जॉन मैक्कन ने चेतावनी दी है कि रूस से मेल-मिलाप की ट्रंप की मंशा ‘कतई स्वीकार’ नहीं की जा सकती। इसी तरह, टेनेसी के सीनेटर बॉब कॉर्कर अमेरिका में मुस्लिमों के आने पर रोक से जुड़े ट्रंप के बयानों को खारिज कर चुके हैं। नॉर्थ कैरोलिना के सीनेटर रिचर्ड बर भी यह कह चुके हैं कि क्यों कांग्रेस (संसद) में रिपब्लिकन को ट्रंप की तमाम नीतियों का समर्थन नहीं करना चाहिए।
इसका यह अर्थ नहीं है कि नए राष्ट्रपति की कोई भी योजना साकार न हो सकेगी। मगर यह सब इस बात पर निर्भर करेगा कि ह्वाइट हाउस कितनी सहमति बना पाता है। वैसे उम्मीद यही है कि ट्रंप की अतिशय नीतियां शायद ही साकार होंगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)(Hindustan)

मोसुल की लड़ाई इतनी अहम क्यों है (महेंद्र राजा जैन)


इराक के दूसरे बड़े शहर मोसुल को इस्लामिक स्टेट (आईएस) के कब्जे से छुड़ाने के लिए इराक, अमेरिका व यूरोपीय देशों की सेनाएं जिस प्रकार आगे बढ़ रही हैं, उससे साफ है कि जल्दी ही वहां से आईएस का पत्ता साफ हो जाएगा। इस अभियान का मुख्य मकसद मोसुल को वापस इराकी सरकार को सौंपना है। इस काम के पूरा होने के साथ ही आईएस के हाथों से करीब-करीब वह पूरा क्षेत्र निकल जाएगा, जिस पर उसने 2014 से कब्जा कर रखा है। यदि पूर्वी सीरिया के बड़े शहर रक्का पर आईएस काबिज भी रहा, तो उसके कब्जे में कोई बहुत बड़ा क्षेत्र नहीं रहेगा, और न पश्चिम एशिया के करोड़ों लोग उससे प्रभावित हो सकेंगे।
बहरहाल, मोसुल फतह के तुरंत बाद इराक व उसके आसपास के क्षेत्रों पर क्या प्रभाव पडे़गा, इस पर मंथन शुरू हो गया है। कुर्द व अरबों के साथ शिया व सुन्नियों के लिए भी मोसुल महत्वपूर्ण है। आईएस के चंगुल से मोसुल के छूटने के बाद इन चारों में सामंजस्य पनपने की अपेक्षा इस बात की अधिक आशंका है कि वैमनस्य बढ़ेगा। इराक के सुन्नी अल्पसंख्यकों को यह शिकायत रही है कि बगदाद की शिया सरकार उनके साथ भेदभाव करती रही है। आईएस की हार से सीरियाई युद्ध की रक्तरंजित तस्वीर भी बदल जाएगी। उससे बशर-अल असद की सरकार व कुछ अन्य प्रतिद्वंद्वी लड़ाकू संगठनों को भी लाभ होगा। इस क्षेत्र में शुरू से ही अप्रत्याशित रूप से स्थिति बदलती रही है। सवाल यह है कि आईएस के हाथों से इस क्षेत्र के निकल जाने के बाद पश्चिम को उससे कैसा खतरा रहेगा? ज्यादातर राजनीतिक पर्यवेक्षकों व पश्चिम एशिया के विशेषज्ञों का मानना है कि तब आईएस के निशाने पर यूरोप के देश होंगे।
पर सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि आईएस की खिलाफत की पराजय के बाद क्या वह बचा भी रह पाएगा या और पनपेगा? ज्यादातर लोगों का मानना है कि आईएस की हार से मुस्लिम देशों व यूरोप में नई भर्तियों का मनोबल टूटेगा और तेल की बिक्री व टैक्स आदि से होने वाली आईएस की आय में काफी कमी आएगी, जिससे वह न लोगों को ट्रेनिंग दे पाएगा और न उस प्रकार प्रोपगेंडा कर पाएगा, जैसा अब तक करता रहा है। इससे उसकी स्थिति निश्चय ही कमजोर होगी। अल-कायदा का ही उदाहरण लें, तो कह सकते हैं कि अफगानिस्तान से उसके हटने के बाद अब उसका कोई खास महत्व नहीं रह गया है; भले ही पाकिस्तान के कुछ हिस्सों में वह अब भी सक्रिय है। हालांकि कुछ आशंकाशास्त्रियों का कहना है कि इस्लामिक स्टेट को अरब जगत की राजनीतिक अस्थिरता के साथ ही अन्य लड़ाकू गुटों की आपसी प्रतिद्वंद्विता का लाभ मिलता रहेगा।
बहरहाल, जिस प्रकार 2014 में आईएस द्वारा मोसुल पर कब्जा किए जाने के बाद पूरी इस्लामी युयुत्सा नाटकीय ढंग से बदल गई, उसी प्रकार मोसुल के उसके हाथ से निकल जाने के बाद भी ऐसा ही होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
(Hindustan)

परमाणु टेक्नोलॉजी का मिलना बना वरदान (अनिल आनंद) (पूर्व डायरेक्टर, रिएक्टर प्रोजेक्ट्स ग्रुप, भाभा परमाणु शोध केंद्र (बीएआरसी)


जिंदगी परपीछे मुड़कर निगाह डालता हूं तो संतोष के साथ फख्र महसूस होता है कि देश के परमाणु कार्यक्रम की विकास-यात्रा में मेरा भी कुछ योगदान रहा है। मेरा इंजीनियरिंग में जाना तो तय था, लेकिन कभी सोचा नहीं था कि मैं परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में इतने लंबे समय तक काम करूंगा। मैंने 1961 में परमाणु ऊर्जा विभाग ज्वॉइन किया और 2001 में विदाई ली। कई बार मैं सोचता हूं कि अमेरिका, फ्रांस अथवा थाईलैंड से आकर्षक प्रस्ताव मिलने के बाद भी में देश में ही क्यों बना रहा? एक ही जवाब मुझे मिला काम का असाधारण संतोष, हर वक्त रोमांचक चीजें करने का मौका और कदम-कदम पर इनोवेशन की जरूरत।
1955 में पंजाब यूनिवर्सिटी से मेट्रिक्यूलेशन के बाद बनारस में रह रहे मेरे अंकल ने मुझे वहां आकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में प्रवेश लेने की सलाह दी। वहां मैकेनिकल इंजीनियरिंग के बाद मैंने जाने क्या सोचकर परमाणु ऊर्जा विभाग में जाने का निर्णय किया। पहला साल तो छात्र जीवन का ही विस्तार था। क्लासेस, लेबोरेटरी सेशन्स अौर खेल सांस्कृतिक गतिविधियां। वार्षिकोत्सव समारोह में चीफ गेस्ट थे डॉ. होमी जहांगीर भाभा। उनकी मौजूदगी ने ही अनोखी प्रेरणा से भर दिया। ट्रॉम्बे के ऑटोमिक एनर्जी एस्टाब्लिशमेंट (बाद में इसका नाम भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र रखा गया) में ट्रेनिंग पूरा हुआ तो तारापुर में अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिकल्स की मदद से बॉयलिंग वाटर रिएक्टर स्थापित करने की चर्चा थी, लेकिन फैसला हुआ नहीं था। कनाडा, फ्रांस और ब्रिटेन में क्रमश: भारी पानी, गैस और भांप के कुलंट वाले रिएक्टर थे। तीनों देशों में ट्रेनी भेजे जाते थे। मुझे फ्रांस भेजा गया। जल्द ही फैसला हो गया कि देश के लिए प्राकृतिक यूरेनियम भारी पानी का रास्ता ठीक रहेगा। इस तरह कनाडा की मदद से राजस्थान की दो इकाइयों का काम शुरू हुआ। फ्रांस में मुझे सूचना मिली की एक विमान दुर्घटना में भाभा नहीं रहे। हम सारे प्रशिक्षु शोक में डूब गए। कुछ दिनों बाद हमें एक कमरे में इकट्‌ठा कर बताया गया कि बार्क के 'नए चीफ' फ्रांस यात्रा पर हैं। हमें मालूम नहीं था कि नए चीफ कौन है। जब मुलाकात शुरू हुई तो वे हाथ मिलाते हुए मुझ तक आए। मैंने कहा,' सर, रिएक्टर इंजीनियरिंग से एके आनंद।' उन्होंने हाथ आगे बढ़ाया और कहा, मैं 'विक्रम साराभाई।' उनकी सादगी, सरलता, विनम्रता और मुस्कान ने मुझ पर अमिट छाप छोड़ी।
मेरे सामने पहला चुनौतीपूर्ण कार्य 1970 में आया। तारापुर के लिए अमेरिका के सेन जोस स्थित जीई के प्लांट पर काम चल रहा था। मुझे छह माह के लिए 'री-लोड फ्यूल डिज़ाइन' प्रोजेक्ट में भाग लेने भेजा गया। लौटकर मैंने न्यूक्लियर फ्यूल कॉम्प्लेक्स स्थापित करने में मदद की। यह काम चल ही रहा था कि कई फ्यूल रॉड समयपूर्व ही नाकाम होने लगीं। हम यह समस्या दूर करने में ही लगे थे कि भारत ने 1974 में शांति पूर्ण परमाणु विस्फोट कर दिया। अंतरराष्ट्रीय समुदाय खासतौर पर अमेरिका बहुत नाराज हो गया और हमें परमाणु टेक्नोलॉजी से वंचित करने का दौर शुरू हो गया। हमने प्लूटोनियम से रिएक्टर चलाने का फैसला किया। हम इस्तेमाल ईंधन से आवश्यक प्यूटोनियम निकाल सकते थे। दबाव ज्यादा बढ़ा तो तब के बार्क चेयरमैन होमी सेठना ने अमेरिका से कहा कि वह अपना परमाणु ईंधन ले जाए। इसके लिए लेड के आवरण वाले भारी फ्लास्क जरूरी होते हैं, जो जहाज दुर्घटनाग्रस्त होने पर समुद्र में तैर सकें। 300 टन की तैरने वाली क्रेन भी जरूरी थी। अमेरिका को यह विचार छोड़ना पड़ा।
चुनौती से संकल्प और मजबूत हो गया। बार्क ने तब के सबसे बड़े रिएक्टरों में से एक 100 मेगावॉट के थर्मल रिएक्टर 'ध्रुव' को पूरी तरह स्वदेश में निर्मित करने की घोषणा कर दी। जाहिर है मुझे 'फ्यूल डिज़ाइन' टीम का लीडर बनाया गया। कई बाधाओं के बावजूद हमने रिएक्टर तैयार कर शुरू कर दिया तो कंपन महसूस हुए। पता चला कि रिएक्टर की रॉड एक-दूसरे से रगड़ खा रही हैं। मुझे हर कोई री-डिज़ाइन की सलाह देने लगा। मुझे बहुत दु:ख हुआ और मैं विचलित हो गया। यह अफवाह भी उड़ी कि मैं इस्तीफा देकर देश छोड़कर चला गया हूं। दूसरे सबसे महत्वपूर्ण ग्रुप लीडर थे डॉ. अनिल काकोड़कर। वेरिएक्टर के सारे आंतरिक हिस्सों की डिज़ाइन चेक कर रहे थे। हम दोनों चिंतित थे, क्योंकि हमारी प्रतिष्ठा के साथ देश के परमाणु कार्यक्रम का भविष्य भी दांव पर लगा था। मैंने कंपन कहां से रहे हैं, इसका पता लगाना शुरू किया, जबकि काकोड़कर की टीम सारे उपकरणों की प्राकृतिक फ्रिक्वेंसियों का पता लगाने लगी कि कहीं रिजोनन्स तो नहीं हो रहा। दोनों ही लगभग एक ही समय पर नतीजे पर पहुंचे। समस्या सुलझा ली गई। उसके बाद मुझे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा गया। तब पेरिस स्थित भारतीय दूतावास में साइंस काउंसलर का पद खाली था। सोचा इसके लिए अप्लाई कर दूं। मुझे संदेश मिला कि मैं इसके लिए आवेदन नहीं करूं, क्योंकि मुझे कलपक्कम के प्लूटोन रिएक्टर के लिए प्रोजेक्ट मैनेजर बनाया जा रहा है, जो भारत की भावी परमाणु पनडुब्बी के कार्यक्रम से जुड़ा था। डॉ. रमन्ना ने अपने मित्र वॉइस एडमिरल कमांडर इन चीफ, ईस्ट एमके राय के साथ मिलकर जगह चुन ली थी। राय रिटायर होने के बाद एटीवी (एडवान्स्ड टेक्नोलॉजी वेसल) के डायरेक्टर बने। पहला काम प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाने का था। बार्क के तीन और नौसेना के चार लोग कलपक्कम स्थित परमाणु ऊर्जा विभाग के गेस्ट हाउस में दो हफ्ते ठहरे और उपलब्ध डेटा, अनुमान और इंट्यूशन के आधार पर रिपोर्ट तैयार की। नौसेना, रक्षा शोध संगठन और परमाणु ऊर्जा विभाग से और लोग लाए गए। परमाणु पनडुब्बी कार्यक्रम के िलए एटीवी कोड नेम था। मुंबई कलपक्कम में कई सुविधाएं जोड़ी गईं, जबकि एटीवी ने हैदराबाद विशाखापट्‌टनम में सुविधाएं खड़ी कीं। इसके लिए नया 'रिएक्टर प्रोजेक्ट डिविजन तैयार किया गया'और मुझे मुखिया बनाया गया।
काम बहुत बड़ा था और सॉफ्टवेयर हार्डवेयर कम्प्यूटर इंजीनियरिंग से लेकर वििवध क्षेत्रों के असंख्य इंजीनियर, शोधकर्ता वैज्ञानिकों ने इसमें कड़ी मेहनत की। जब मैं रिटायर होने वाला था तो सारे उपकरण लगाकर उन्हें शुरू किया जा चुका था, लेकिन वांछित संख्या में फ्यूल असेंबली वहां पहुंचाई नहीं गई थी। हालांकि मेरे रिटायर होने के कुछ ही दिनों बाद कलपक्कम से मुझे फोन आया कि रिएक्टर 'क्रििटकल' हो गया है। मैं खुशी से उछल पड़ा! (DB)

राज-काज का कुछ अलग अंदाज (शेखर गुप्ता ) Business Standard


एक आम मनुष्य का मस्तिष्क दो हिस्सों में बंटा होता है। इनमें से प्रत्येक का काम अलग होता है। अगर यह किसी राजनेता का दिमाग हो तो उसे आसानी से राजनीति और शासन के रूप में बांटा जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मामले में यह कैसे काम करता है? खासतौर पर अगर उनके सबसे चौंकाने वाले नीतिगत कदम की बात करें तो। अब आप इसे विमुद्रीकरण कहें या मुद्रा विनिमय।
उनके दिमाग के राजनीतिक हिस्से को हम अच्छी तरह जानते हैं। वह कई दशकों में सबसे ज्यादा राजनीतिक नेता हैं। उनको जन भावनाओं की जबरदस्त समझ है बिलकुल एक नाड़ी वैद्य की तरह (आयुर्वेद के चिकित्सक जो नाड़ी से बीमारी का पता लगाते हैं)। हम सन 2002 से 2007 और फिर 2012 तक उनकी भाषा बदलते देख चुके हैं और 2014 में वह राष्टï्रीय मंच पर आए और उन्होंने अपने मतदाताओं के सबसे संवेदनशील और लाभकारी हिस्सों को छुआ। इस दृष्टिï से देखा जाए तो वह इस दौर में भी बाजी मार ले गए हैं। कम से कम अब तक।
उनकी राजनीतिक (मतदाता संबंधी) सोच एकदम सीधी सपाट है: क्या आपको लगता है कि ढेर सारा काला धन मौजूद है या नहीं? जाहिर है उत्तर हां है। अगला प्रश्न: क्या इस खरबों की राशि को अर्थव्यवस्था में सही ढंग से लाए बिना देश वैश्विक शक्ति का दर्जा पा सकता है? उत्तर है न, अगला प्रश्न: क्या हमने कर बचाने में मदद करने वाले देशों से धन लाने की कोशिश नहीं की और क्या माफी योजना नहीं चलाई? इस पर उत्तर मिलाजुला हो सकता है। सरकार के समर्थक हां कहेंगे जबकि आलोचक इससे इनकार करेंगे। बड़ी संख्या अनिश्चित लोगों की भी होगी। ताजा प्रश्न बाकी सारे प्रश्नों पर से दबाव हटा देता है: अगर अन्य उपाय विफल हो गए हैं तो आखिरी विकल्प क्यों न आजमाया जाए? भले ही इससे जुड़े कई नुकसान सामने आ रहे हैं। मुझे पता है कि यह जोखिम भरा कड़ा फैसला है। लेकिन आपने मुझे इसीलिए तो चुना था। क्या आप मनमोहन सिंह को पसंद करते जो न तो बात करते थे न ही कोई कदम उठाते थे?
नरेंद्र मोदी इस बहस में बढ़त बना चुके हैं। अहम बात यह है कि उन्हें यह बढ़त गरीब तबके के उन लोगों के बल पर मिल रही है जो मानव इतिहास की इस सबसे बड़ी नोटबंदी से सबसे अधिक परेशान और पीडि़त हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें महज 50 दिन का वक्त चाहिए और वह देश को शानदार जगह में बदल देंगे। यह बात सुनकर वे बहुसंख्यक लोग प्रेरित हो जाते हैं जिनके पास कोई कालाधन नहीं है। यह फिल्म चक दे इंडिया की याद दिलाता है जिसमें शाहरुख खान ने अपनी महिला हॉकी टीम को '70 मिनट' का मशहूर भाषण दिया था। एक हॉकी कोच के उद्बोधन का प्रभाव जहां 70 मिनट में नजर आ जाएगा, वहीं एक राजनेता के पास अधिक वक्त होता है। मांगे गए 50 दिन खत्म होने के बाद शायद मौजूदा असुविधा खत्म होगी। इससे लाभ क्या होंगे यह जानने के लिए हमें कई महीनों तक इंतजार करना होगा। आप इस सरकार या इसकी आर्थिक टीम पर यह इल्जाम नहीं लगा सकते कि उसने परिणामों का अध्ययन नहीं किया होगा। आखिर ऐसे किसी काम के बारे में अनुमान कैसे लगाया जा सकता है जो मानव इतिहास में पहले कभी घटित ही नहीं हुआ हो, जिसका कोई पूर्व प्रमाण ही न हो। केवल पुराने अर्थशास्त्रियों की आलोचना सुनने को मिल रही है जो यथास्थितिवादी हैं। चाहे जो भी हो राजनीति में एक नया बिकाऊ उत्पाद, विचार, वादा या नारा तलाशना अहम है। कोई भी समझदार नेता ऐसा वादा नहीं करता जिसके बारे में वह खुद मानता हो कि उसे पूरा किया जा सकता है।
हम यहां एक पुराना और दो नए उदाहरण देखते हैं। सन 1969 में इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्टï्रीयकरण किया, प्रिवीपर्स खत्म किए और यह धारणा पैदा की कि अमीरों को कष्टï हो रहा है। उन्होंने गरीबी हटाओ का नारा दिया। पूरा विपक्ष उनके खिलाफ एकजुट था। द इंडियन एक्सप्रेस के संपादक फ्रैंक मोरैस ने उस दौर में पहले पन्ने पर उनके खिलाफ एक स्तंभ लिखा, 'मिथक एवं तथ्य'। लेकिन उन्हें चुनावों में जबरदस्त जीत मिली। उनके पोस्टर, बैनरों पर लिखा था: वे कहते हैं इंदिरा को हटाओ, इंदिराजी कहती हैं, गरीबी हटाओ। अब आप तय कीजिए। यकीनन इंदिरा गांधी के पास कोई ठोस योजना नहीं थी। शायद गरीबी हटाना उनके इरादे में भी शामिल नहीं था। उन्होंने एक बिकाऊ नारा तलाश किया था और उन्हें पता था कि इसके आधार पर उनका आकलन भी जल्दी नहीं होगा। विपक्ष के पास इससे अच्छा कोई विचार या वादा नहीं था। वे बस इंदिरा गांधी पर भरोसा न करने की बात कहते रह गए। लेकिन मतदाताओं ने उन पर भरोसा किया। इसके बहुत बाद में उन्होंने गरीबोन्मुखी गलतियों का सिलसिला चलाया। इसमें सन 1973 में गेहूं के कारोबार का राष्टï्रीयकरण शामिल था। इससे युद्घ से निपटे देश की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ा और मुद्रास्फीति 25 फीसदी का स्तर पार कर गई।
ब्रेक्सिट और डॉनल्ड ट्रंप दो ताजे उदाहरण हैं। ब्रेक्सिट की हिमायत करने वालों जिनमें नाइजल फैरेज से लेकर बोरिस जॉनसन तक शामिल थे, का वादा था कि वे ब्रिटेन को एक बार फिर महान बनाएंगे। उन्हें जनमत संग्रह में जीत मिली और यूरोप अस्तव्यस्त हो गया। अब उनके वादों की कोई जांच परख नहीं होनी। इसी तरह ट्रंप ने अमेरिका को महान बनाने की बात की। जबकि हकीकत में हर समझदार आदमी यही कहेगा कि अमेरिका इस वक्त अपनी महानता के बेहतरीन पलों से गुजर रहा है। अब वह इसे और कितना महान बनाएंगे और कैसे बनाएंगे? खैर, अब बतौर राष्टï्रपति उनका चुनाव हो चुका है। यह पूरी कवायद लोकप्रिय जनमत निर्माण से हुई।
मोदी इसी तरह तात्कालिक रूप से विजेता के रूप में उभरे हैं और उनके तमाम विरोधी परास्त हैं। इंदिरा गांधी ने भी सन 1970 के शुरुआती दशक में अपने शत्रुओं को गरीबी उन्मूलन के जाल में उलझाया था। मोदी काले धन के रूप में उसी अस्त्र का प्रयोग कर रहे हैं। उनके इस अभियान का नतीजा कुछ महीनों में नहीं आने वाला है और अगर वह थोड़ी असहजता बरदाश्त करने का अनुरोध कर रहे हैं तो गरीब से गरीब आदमी भी इसके लिए तैयार हो जाएगा। अमीर केवल धनशोधन का तरीका तलाश कर रहे होंगे बल्कि वे जनता के कष्टï से फायदा उठाने के तरीके भी खोज रहे होंगे। हम कह सकते हैं कि मोदी सरकार के दिमाग का राजनीतिक हिस्सा शानदार ढंग से काम कर रहा है।
जब हम शेष आधे हिस्से की बात करते हैं तो एक अनिश्चित तस्वीर उभरती है। विमुद्रीकरण मोदी सरकार की कार्यशैली का ताजातरीन और स्पष्टï उदाहरण है। यह तरीका सहज, दुस्साहिसक, जोखिम से परे और यहां तक कि विवेकहीन भी है। नौकरशाही के सामान्य विश्लेषण पंगु जाल की बात न भी करें तो आंकड़ों को लेकर भी अधैर्य नजर आ रहा है। हम ठीकठीक नहीं जानते कि काला धन कितना है, उसे कहां छिपाया गया है और किसने छिपाया है। कितना काला धन बरामद होने की उम्मीद है यह भी नहीं पता। चूंकि ऐसा नहीं है इसलिए यह तरीका निकाला गया है कि सारा धन वापस ले लो और जितना उचित समझो वापस कर दो, बाकी का सरकार के खाते में।
दुनिया की 7वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश में जिसकी 1.3 अरब की आबादी में ज्यादातर गरीब हैं, यह शासन का समुद्री डकैती जैसा तरीका है। यह कामयाब हो सकता है। इससे कई असंगठित गतिविधियां संगठित हो सकती हैं और कर दायरा विस्तृत हो सकता है। पर पता नहीं क्या होगा। जैसे नियंत्रण रेखा पर किए गए नियंत्रित हमले को सार्वजनिक करने के नतीजों या रक्षा मंत्री के भारतीय परमाणु सिद्घांत पर निजी विचार प्रकट करने के परिणामों के बारे में किसी को नहीं पता। अगर आप इस सरकार के प्रशंसक हैं तो आप इसकी तुलना वीरेंद्र सहवाग से कर सकते हैं: बस गेंद को देखो और मारो। अगर आप सरकार के प्रशंसक नहीं हैं तो यह शहरी मिथकीय जीवन जीने वालों की शासन शैली का शास्त्रीय उदाहरण है। हमें अगले कुछ महीनों तक पता नहीं चलेगा कि नतीजा क्या निकला।(BS)

नेहरू और पटेल का संगम थीं इंदिरा गांधी (वेदप्रताप वैदिक )

श्रीमती इंदिरागांधी की जयंती का शताब्दी-वर्ष आज शुरू हो रहा है। केंद्र में कांग्रेस की सरकार नहीं है और बड़े नोटों की भगदड़ मची हुई है। ऐसे बदहवासी के माहौल में इंदिराजी को पता नहीं कितना याद किया जाएगा, लेकिन इसमें शक नहीं है कि वे बेजोड़ प्रधानमंत्री रही हैं। अपने सही कामों के लिए और गलत कामों के लिए भी! दोनों तरह के कामों के लिए उन्हें याद करना इसलिए जरूरी है कि उनके अनुभव वर्तमान और भावी प्रधानमंत्रियों के लिए तो उपयोगी सिद्ध होंगे ही, देश के असली मालिकों यानी आम मतदाताओं के लिए भी लाभप्रद होंगे।
जनवरी 1966 में लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद जब वे प्रधानमंत्री बनीं तो उन्हें 'गूंगी गुड़िया' कहा जाता था। मुझे याद है कि एक पत्रकार-संगठन को संबोधित करते हुए जनवरी की कड़कड़ाती ठंड में उनके चेहरे पर पसीने की बूंदें छलक आई थीं। संसद में ज्यों ही डाॅ. राममनोहर लोहिया और मधु लिमये अपनी सीटों पर जाकर बैठते, प्रधानमंत्री के चेहरे की घबराहट हम दर्शक-दीर्घा से पहचान लेते थे, लेकिन इसी इंदिरा गांधी को विरोधी नेताओं ने 1971 में 'दुर्गा' कहकर संबोधित किया। जरा सोचिए कि इंदिराजी की जगह अगर कोई अन्य प्रधानमंत्री होता तो क्या बांग्लादेश बन सकता था? अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और चीनी नेता माओ त्से तुंग की गीदड़भभकियों के बावजूद इंदिराजी ने बांग्लादेश खड़ा कर दिया। उन्होंने 1971 में पाकिस्तान के तो दो टुकड़े किए ही, उसके दो साल पहले उन्होंने कांग्रेस के भी दो टुकड़े कर दिए थे। तब मैंने कहा था कि देश में दो कांग्रेस हैं- एक कुर्सी कांग्रेस और दूसरी बेकुर्सी कांग्रेस। निजलिंगप्पा और एसके पाटिल की बेकुर्सी कांग्रेस कहां गायब हो गई, पता ही नहीं चला। संजीव रेड्‌डी ताकते रह गए और वीवी गिरि राष्ट्रपति बन गए। जब सिक्किम के छोग्याल ने आंखें तरेरीं तो इंदिराजी ने सिक्किम का भी भारत में विलय कर लिया। भूतपूर्व राजाओं के प्रिवी-पर्स खत्म करने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे कदमों में उन्होंने उल्लेखनीय दृढ़ता दिखाई। वे थीं तो नेहरूजी की बेटी, लेकिन उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल के गुण भी आत्मसात किए थे।
यदि 1947-48 में नेहरू की जगह इंदिराजी प्रधानमंत्री होतीं तो क्या होता? पहले तो डर के मारे पाकिस्तान कश्मीर को कब्जाने की कोशिश ही नहीं करता और यदि करता तो शायद अपने पंजाब की भी कुछ जमीन खो देता। 1983 में जब पहली बार मैं पाकिस्तान गया तो पाया कि इंदिराजी का नाम जुबान पर आते ही नेताओं और विदेश नीति विशेषज्ञों में बौखलाहट पैदा हो जाती थी। उनके व्यक्तित्व में नेहरू-पटेल का संगम था। सारी दुनिया के विरोध के बावजूद इंदिराजी ने 1974 में पोकरण में परमाणु अंतःस्फोट किया। भारत पर तरह-तरह के प्रतिबंध थोप दिए गए, लेकिन इंदिराजी डिगी नहीं। उन्होंने परमाणु अप्रसार-संधि और समग्र परीक्षण प्रतिबंध संधि पर दस्तखत नहीं किए तो नहीं किए। वही नीति आज भी चल रही है। उस साहसिक कदम को मैंने 'भारतीय सम्प्रभुता का शंखनाद' कहा था। इंदिराजी जो भी काम करतीं, धड़ल्ले से करती थीं। कांग्रेस अध्यक्ष बनते ही उन्होंने केरल की कम्युनिस्ट सरकार को कड़ा सबक सिखा दिया। नंबूदिरीपाद की सरकार के विरुद्ध ज्यों ही असंतोष भड़का, कांग्रेस अध्यक्ष के नाते उन्होंने उसे बर्खास्त करवाने में पूरा जोर लगा दिया। नेहरू का रुख नरम था, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष के गरम रुख के आगे उन्हें झुकना पड़ा। रुपए के अवमूल्यन और पीएल-480 समझौता करने के कारण उन पर अमेरिका परस्त होने के आरोप लगे। वियतनाम पर उनकी नरमी को भी गुट-निरपेक्षता से भटकना बताया गया, लेकिन उन्होंने पीएन हाक्सर, डीपी धर और शारदा प्रसाद जैसे मेधावी और अनुभवी सलाहकारों की मदद से नेहरू की गुट-निरपेक्षता को नई धार प्रदान की। उन्होंने 1981 में विश्व गुट-निरपेक्ष सम्मेलन आयेाजित किया, जिसमें क्यूबा के फिदेल कास्त्रो ने भी भाग लिया। 1971 में उन्होंने भारत-सोवियत संधि पर दस्तखत किए, लेकिन सोवियत सेनाओं ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया तो उन्होंने रूसी नेता लियोनिद ब्रेझनेव को खरी-खरी सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने अमेरिका के साथ अच्छे संबंध बनाने की भरपूर कोशिश की लेकिन, अमेरिका ने जब भी कोई अनुित कदम उठाया, इंदिराजी चुप नहीं बैठीं। सरदार स्वर्णसिंह-जैसे कुशल विदेश मंत्री को सक्रिय करके वे चीन और पाकिस्तान-जैसे कठिन पड़ोसियों से भी निपटती रहीं। उन पड़ोसियों में दहशत थी कि यदि भारत के खिलाफ वे कोई साजिश करते पाए गए तो उन्हें दिल्ली में बैठी दुर्गा मैया का सामना करना पड़ेगा।
भारत में दर्जन-भर से भी ज्यादा प्रधानमंत्री हो चुके हैं, लेकिन चार प्रधानमंत्रियों को श्रेष्ठ माना जाता है। नेहरू, इंदिरा, नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी। इन चारों में भी इंदिराजी परमप्रतापी हुईं, इसमें शक नहीं, लेकिन जिसका सबसे ज्यादा नाम हुआ, वही सबसे ज्यादा बदनाम भी हुआ। अापातकाल ने इंदिरा गांधी और कांग्रेस का जैसा बंटाढार किया, किसी प्रधानमंत्री का नहीं किया। राजनारायण ने जेल में रहते हुए ही इंदिराजी को बुरी तरह से हरा दिया। इंदिराजी के कुख्यात बेटे संजय गांधी ने भी मुंह की खाई। उत्तर भारत से कांग्रेस का लगभग सफाया हो गया। यह बात ठीक है कि 12 जून 1977 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के कारण आपातकाल आया। चुनावी धांधली करने का अपराध इंदिरा गांधी पर सिद्ध हुआ। उन्होंने इस्तीफा देने की बजाय अदालतों और संविधान से भी खिलवाड़ किया। हम यह भूलें कि 1971 के चुनाव में 352 सीटें जीतने और बांग्लादेश का निर्माण होने के बाद से ही इंदिराजी के व्यक्तित्व में तानाशाही के बीज अंकुरित होने लगे थे। मुख्यमंत्रियों को आंख झपकते ही बदल दिया जाता था। मंत्री अपने मुंह खोलने से घबराते थे। कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ कहते थे कि 'इंदिरा इज इंडिया', युवराज संजय गांधी की मनमानियों के आगे पार्टी बेहाल थी, सरकारी खरीद में कमीशनबाजी का दौर शुरू हो गया था, सरकारी भ्रष्टाचार को संस्थागत मान्यता मिल गई थी और यही भ्रष्टाचार सोनिया-मनमोहन सिंह सरकार को भी ले बैठा। इंदिराजी को देश जब दुबारा 1980 में ले आया, तब भी उनकी दबंगई कम नहीं हुई। उन्होंने जिन सिख उग्रवादियों को शुरू में शह दी थी, उन्हीं के खिलाफ उन्हें 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' करना पड़ा। वह बड़ी हिम्मत का काम था। वही उनकी शहादत का कारण बना। (येलेखक के अपने विचार हैं)
संदर्भ... पूर्वप्रधानमंत्री की जयंती के शताब्दी वर्ष की शुरुआत पर व्यक्तित्व कृतित्व का जायजा
वेदप्रताप वैदिक भारतीयविदेश नीति परिषद के अध्यक्ष(DB)

जरूरी है पोषण सुरक्षा (शाहिद ए चौधरी)

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 2013 के प्रति शुरुआती उत्साह अब धीरे-धीरे थमता जा रहा है। यह कानून पूर्ण रूप से जुलाई 2016 तक पूरे देश में लागू होना था, लेकिन अब तक केवल पांच रायों ने इसके प्रावधानों को अपनाया है। अन्य रायों में प्रगति बहुत ही धीमी और लचर है। पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और राजस्थान ने तो इसे पूर्ण रूप से लागू किया है जबकि बिहार, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश एवं कर्नाटक में इसे आधा-अधूरा लागू किया गया है। कुछ रायों में जो इस संदर्भ में प्रारंभिक सर्वेक्षण किए गए हैं उनसे मालूम होता है कि प्रशासनिक सुधारों, राशनकार्ड धारकों की संख्या में वृद्धि और वितरण व खपत में सुधार देखने को मिला है। इन रायों में से कुछ में वितरण व्यवस्था में सुधार लाने का प्रयास संसद द्वारा इस कानून को पारित किए जाने से पहले ही आरंभ हो गया था। अगर यह कानून पूरी तरह से लागू हो जाता है तो लगभग 72 करोड़ लोगों को लाभ होगा, जिन्हें रियायती दरों पर प्रतिमाह प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज (चावल, गेहूं आदि) मिलेगा। इससे खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होगी और पोषण में भी सुधार आने की संभावना है।
यह दोनों ही विचार आपस में जुड़े हुए हैं। लेकिन पोषण सुरक्षा की जरूरत खाद्य सुरक्षा से कहीं अधिक अनिवार्य है। पोषण सुरक्षा में जैविक सिद्धांत शामिल होता है कि पर्याप्त मात्र में प्रोटीन, ऊर्जा, विटामिन व खनिज मिलें। साथ ही उचित स्वास्थ्य व सामाजिक वातावरण भी उपलब्ध रहे। जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिए जो अनाज बाजार भाव की तुलना में बहुत कम रियायती दर पर उपलब्ध कराया जाता है, उसकी पोषण गुणवत्ता पर कम ही शोध किया गया है, जबकि संबंधित कानून में इस लक्ष्य को हासिल करने का भी उद्देश्य है। अक्सर पीडीएस के जरिए जो खाने की चीजें मिलती हैं, उनमें पोषण के आवश्यक तत्व मौजूद नहीं होते और उन चीजों को बहुत गंदे तरीके से स्टोर किया जाता है। इनमें आहार विविधता का भी आभाव होता है। लेकिन इस कानून के तहत कुछ अन्य उपयोगी प्रावधान भी हैं। जैसे बचों के लिए मुफ्त दैनिक भोजन और मातृत्व लाभ जिसमें गर्भवती महिलाओं के लिए नकद पैसा देना शामिल है, ताकि कम पोषण, कैलोरी की कमी और कुपोषण प्रोटीन की कमी का मुकाबला किया जा सकता है। जाहिर है इससे अन्य पोषण कार्यक्रमों मिड-डे मिल व एकीकृत बाल विकास सेवा को मजबूती मिल सकती है। ग्रामीण ओडिशा के तीन अति गरीब जिलों कोरापूट, बोलंगीर और नयागढ़ में पीडीएस के योगदान को लेकर 385 घरों का प्रारंभिक सर्वेक्षण 2014-15 में किया गया। कोरापूट व बोलंगीर अति पिछड़े क्षेत्र में आते हैं जबकि नयागढ़ गैर अति पिछड़े क्षेत्र में आता है। अति पिछड़े जिलों में सामान्य पीडीएस का पालन होता है, जबकि गैर अति पिछड़े जिलों में लक्ष्य आधारित पीडीएस का पालन किया जाता है। इन तीनों ही जिलों में कम पोषण व कुपोषण के मामले बहुत यादा हैं। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च और नेशनल इंस्टीट्यूट न्यूट्रीशन ने 2010 में आयु, लिंग व कार्य के आधार पर अनुमान लगाया तो मालूम हुआ कि उन जिलों में कम पोषित व्यक्तियों की संख्या कुल जनसंख्या का 50 प्रतिशत है। कुपोषण 43 प्रतिशत व्यक्तियों में है। कैलोरी और प्रोटीन की कमी अंत्योदय अन्न योजना (एएवाई) घरों में 68 प्रतिशत है। यह घर गरीबों में भी अति गरीब माने जाते हैं। कोरापूट जिले में तो यह 72 प्रतिशत है, जबकि ओडिशा का औसत 60 प्रतिशत है। सर्वेक्षण वोले जिलों में चावल मुख्य आहार है।
अनुमान यह है कि प्रतिमाह प्रति व्यक्ति 11.6 किलो चावल की खपत होती है, जिसमें से 33.7 प्रतिशत सभी लाभान्वितों को पीडीएस के जरिए मिलता है। चूंकि एएवाई घरों के लिए पीडीएस के तहत अधिक कोटा है, इसलिए उनका योगदान 73.9 प्रतिशत है। 70 प्रतिशत कैलोरी गेहूं व चावल से हासिल होती है और 66 प्रतिशत प्रोटीन अन्य चीजों से मिलती है। महत्वपूर्ण यह है कि पीडीएस के जरिए ऊर्जा सेवन एएवाई घरों में अन्य लाभान्वितों की तुलना में दोगुना 60 प्रतिशत है। राय सरकार के प्रयासों से एएवाई घरों में विशेष रूप से भोजन की उपलब्धता और फलस्वरूप ऊर्जा के सेवन में सुधार आया है। 2004-05 से जो विभिन्न प्रयास किए गए जैसे निजी तौर पर अनाज खरीदना व स्टोर करने की व्यवस्था को समाप्त करना और सरकारी एजेंसियों द्वारा इस बात का नियंत्रण रखना कि अनाज गोदाम से गलत जगह न पहुंचे, तो उससे बड़ी कामयाबी हासिल हुई है। ग्राम पंचायतें भी इस सिलसिले में बराबर निगरानी रखे हुए हैं। इन जिलों के लोग पीडीएस से संतुष्ट हैं। लेकिन वह कैश ट्रांसफर के पक्ष में नहीं हैं। वह इसी बात में खुश हैं कि उन तक सीधे अनाज पहुंचा दिया जाए। कैश ट्रांसफर का विरोध दो मुख्य कारणों से है। एक यह कि चीजों के महंगे होने का डर हमेशा बना रहता है। दूसरे गांव से बैंक व बाजार काफी दूर हैं और सड़कों की हालात भी बहुत खराब है। लाभान्वित इस पक्ष में हैं कि उनके क्षेत्र में पीडीएस के जरिए दालें, प्याज व आलू भी मिलने लगें।
ओडिशा सरकार ने जो खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में सफलता हासिल की है उसका अनुसरण अन्य रायों में भी होना चाहिए। बहरहाल, अनेक अध्ययनों ने आहार विविधता पर बल दिया है ताकि गरीबों का बड़ा वर्ग उचित पोषित आहार हासिल कर सके। यह महत्वपूर्ण कदम हो सकता है उन रायों में जो नए सिरे से पीडीएस को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं जैसे तमिलनाडु, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व बिहार। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत यह प्रावधान है कि गेहूं व चावल के साथ एक अन्य अनाज जैसे बाजरा को बढ़ा दिया जाए ताकि गरीब घरों की पोषण सुरक्षा में सुधार आ सके। हालांकि गेहूं व चावल से काफी ऊर्जा प्राप्त होती है, लेकिन अब समय आ गया है कि अन्य अनाजों व दालों पर फोकस किया जाए ताकि गरीबों को पर्याप्त प्रोटीन मिल सके। ये चीजें पीडीएस के जरिए मिलनी चाहिए और जल्द मिलनी चाहिए। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि एएवाई घरों की पहुंच पीडीएस तक काफी है, लेकिन समस्या कम पोषण की है जो निरंतर बढ़ती जा रही है। लेकिन इस सबसे पहले जरूरी है कि देशभर में अविलंब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को पूरी तरह से लागू किया जाना चाहिए। रायों को चाहिए कि वह इसे अपना मिशन बना लें, खासकर इसलिए भी कि इस साल अनाज की उपलब्धता कोई समस्या नहीं है। कृषि मंत्रलय के अनुसार अछे मानसून की वजह से अनाजों का उत्पादन इस साल 270 मिलियन टन हुआ है। विशेषकर इस वजह से भी कि 101 मिलियन हेक्टेयर की तुलना में 105 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर अनाजों की खेती की गई। रायों को चाहिए कि वह राशन कार्डो को ऑनलाइन करें, अनाजों का लेनदेन कम्प्यूटर के जरिए हो और राशन की दुकानों की सख्ती से निगरानी की जाए। इससे अधिक पारदर्शिता आएगी और भारतीयों के पोषण में भी सुधार आएगा।
(लेखक विशिष्ट मीडिया एवं शोध संस्थान इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में विशेष संपादक हैं)(DJ)