Monday 28 November 2016

डोनाल्ड ट्रंप की चुनौतियां (समीर चन्द्रा)

आठ और नौ नवंबर की तारीख विश्व के दो बड़े लोकतांत्रिक देशों में ऐतिहासिक घटनाक्रम की साक्षी बनी। भारत में प्रधानमंत्री मोदी ने जाली मुद्रा को प्रचलन से बाहर करने के लिए पांच सौ और हजार रुपये के नोटों को बंद करने की घोषणा की। वहीं अमेरिका मे रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने एक असामान्य और परनिंदा भरे प्रचार के माहौल में राष्ट्रपति पद का चुनाव जीता लिया। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव के दौरान अमेरिकी मीडिया का व्यवहार भारतीय मीडिया की तरह रहा। 2014 लोकसभा चुनावों से पहले प्रचार के दौरान भारतीय मीडिया के एक वर्ग ने मोदी के प्रति एकतरफा प्रचार कर जनता को बरगलाने में जमीन-आसमान एक कर दिया था, उसी तरह अमेरिकी मीडिया के एक बड़े वर्ग ने भी डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ विषवमन करने में कोई कोताही नहीं बरती। हालांकि इस प्रचार को हवा-पानी देने मे डोनाल्ड ट्रंप के कुछ विवादास्पद बयानों का भी बड़ा हाथ रहा। भारत की ही तरह अमेरिका में भी मीडिया का जनता की राय को निर्णायक स्तर पर प्रभावित करने का प्रयास सफल नहीं हो पाया। जिस तरह से मीडिया में डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन की संदेहास्पद गतिविधियों (सरकारी गोपनीय ईमेल के लिए अपना व्यक्तिगत सर्वर इस्तेमाल करने का मामला) को सामान्य व्यवहार दिखाने का प्रयास किया गया और ट्रंप के लिए व्यक्तिगत स्तर पर उतर कर कीचड़ उछाला गया, उसने ऊपरी तौर पर तो हिलेरी को कुछ फायदा पहुंचाया पर अंदर ही अंदर इसने ट्रंप के समर्थकों को लामबंद कर दिया।
जिस तरह से नरेंद्र मोदी के लिए भारतीय मीडिया और गैर-सरकारी संघठनों के द्वारा धार्मिक अल्पसंख्यकों के अंदर डर बैठाने की कोशिश की गई थी, उसी तरह ट्रंप के अवैध प्रवासियों को लेकर दिए गए बयानों को भी तोड़- मरोड़कर पेश किया गया गया। ट्रंप के अवैध प्रवासियों की समस्या के समाधान के बयान को ऐसा पेश किया गया मानो ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद सारे अश्वेत लोगों का वैसा उत्पीड़न शुरू हो जाएगा जैसा हिटलर ने यहूदियों का किया था। इस प्रचार की पराकाष्ठा इतनी थी की स्कूल जाने वाले सात-आठ साल के बचे भी ट्रंप को किसी खलनायक की तरह देखने लगे थे। इसी तरह इस्लामिक आतंकवाद पर ट्रंप के बेबाक बयानों को अमेरिका में रहने वाले मुस्लिमों के लिए और इस्लामिक जगत पर खतरे की तरह प्रसारित किया गया। हद तो तब हो गई जब हिलेरी के एक समारोह में पाकिस्तानी मूल के एक मुस्लिम अमेरिकी खिज्र खान को स्टेज पर बुलाकर मीडिया के सामने सार्वजनिक रूप से ट्रंप की आलोचना करवाई गई। इन सबसे आम अमेरिकी मतदाता के अंदर डेमोक्रेटिक सरकार के खिलाफ पल रहे गुस्से को और बल मिला। चुनाव से पूर्व होने वाली बहसों में भी दोनों प्रत्याशी राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर कोई ठोस राय न रख सके। हालांकि दोनों ने अपनी सारी बातें बड़ी बेबाकी और बिना किसी लाग-लपेट के रखी। ट्रंप को आठ सालों के डेमोक्रेटिक प्रशासन के खिलाफ सत्ता विरोधी भावना का भी लाभ मिला। लेकिन कुल मिलाकर अमेरिकी मतदाताओं ने यथास्थिति को हटाकर कुछ नया परिवर्तन लाने के लिए ट्रंप को चुना जिन्होंने अपने बेबाक बयानों से एक ऐसे प्रत्याशी की छवि बनाई जो हिलेरी जैसी परंपरागत राजनीति करने वालों से अलग है और उसके अंदर परिवर्तन लाने की इछाशक्ति और साहस भी है।
भारत के लिए ट्रंप का अमेरिकी राष्ट्रपति चुना जाना अनुकूल साबित होगा। वैसे तो अमेरिकी नीतियां सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रहित से ही निर्देशित होती हैं पर राष्ट्राध्यक्षों के व्यक्तिगत संबंधों और रुझानों से भी बहुत फर्क पड़ता है। जिस तरह से साउथ चाइना सी विवाद के चलते चीन के अपने पड़ोसियों और अमेरिका के साथ संबंध उलझ रहे हैं और जिस तरह से चीन की हठधर्मिता ने पश्चिमी देशों के माथे पर चिंता की लकीरे खींच दी हैं, उससे दक्षिणी एशिया में भारत की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो गई है। एशिया में चीन की सैन्य शक्ति को चुनौती सिर्फ भारत जैसे बड़े देश से ही मिल सकती है। इसलिए भी अमेरिका भारत को सैन्य-तकनीकी के विकास में मदद के लिए अब पहले जैसी अड़चनें नहीं लगा रहा, जैसा वह पहले करता था। ट्रंप के आने के बाद इस सैन्य सहयोग के और आगे बढ़ने की संभावना है। व्यापारिक संतुलन, मुद्रा अवमूल्यन को लेकर चीन और अमेरिका में विवाद रहता है। लेकिन परस्पर व्यावसायिक हितों के लिए अब तक इन विवादों की अनदेखी होती रही है। ट्रंप ने खुलेआम चीन की आलोचना के साथ साथ चीन में विस्थापित अमेरिका के निर्माण क्षेत्र को वापस लाने की घोषणा की है। इसके लिए ट्रंप के पास टैक्स की दर को कम कर देने की योजना है जिससे कंपनियों को अमेरिका में निर्माण और व्यापारिक गतिविधियां में चीन के मुकाबले यादा फायदा हो और वे अपनी इकाइयों को वापस अमेरिका स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित हों। इससे भारत के मेक इन इंडिया कार्यक्रम पर कुछ असर जरूर पड़ेगा पर चीन मे बढ़ती श्रम दरों के मुकाबले भारत में श्रम दरें अभी भी कम हैं और भारत अपने बड़े बाजार का भी फायदा कंपनियों के निवेश के लिए उठा सकता है। हालांकि इसके लिए ढांचागत सुविधाओं मे बढ़ोतरी के साथ साथ लाल फीताशाही को भी समाप्त करना होगा। भारत के परिपेक्ष्य में ट्रंप का सीरिया को लेकर दिया गया बयान भी महत्वपूर्ण है। उन्होंने खुलेआम सीरिया में आइएस के खिलाफ लड़ाई की आड़ में की जा रही रूस की घेराबंदी की मुखालफत की है। उन्होंने रूस के साथ अप्रत्यक्ष रूप से लड़ने की बजाय उससे रचनात्मक सहयोग की बात की है। अगर ऐसा हो जाता है तो इससे विश्व राजनय में रूस की अमेरिका को लेकर चीन के ऊपर बढती निर्भरता कम होगी और भारत के साथ कसौटी पर खरे उतरे संबंधों के बीच चीनी ड्रेगन की छाया पड़ने लगी है वह भी दूर होगी।
बयानों से हुए विवादों के बीच डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिकी मतदाताओं ने अपना राष्ट्रपति चुना है। दुनिया के सबसे ताकतवर देश का प्रमुख होने के नाते ट्रंप के पास काफी जिम्मेदारियां और अवसर भी हैं। जिस तरह से अमेरिकी मीडिया चुनावों से पूर्व ट्रंप की आलोचना में लिप्त था, वह संभवत: उनके शासनकाल के दौरान भी जारी रहे लेकिन जिस प्रकार से आलोचनाओं से विचलित हुए बिना ट्रंप इन चुनावों में डटे रहे और अंतत: जीत हासिल की उसी तरह अगर वह अमेरिकी अर्थव्यवस्था में जान फूंकने और निर्माण क्षेत्र को वापस लाने, टैक्स कम करने, रचनात्मक वैश्विक सहयोग,आतंकवाद और अवैध प्रवासियों की समस्या के समाधान के अपने वादे को पूरा कर पाएं तो अमेरिकी एवं वैश्विक इतिहास में अपना नाम दर्ज करवा लेंगे।
(लेखक वाशिंगटन डीसी स्थित यूएस इंडिया सिक्यूरिटी फोरम में नीति विश्लेषक हैं)(DJ)

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