Monday 28 November 2016

काले धन पर चुनाव सुधार से ही लगेगी लगाम (अभय कुमार दुबे )


काले धन के खिलाफ प्रधानमंत्री की मुहिम के नतीजे जो भी निकलें, उसका एक सकारात्मक पहलू यह है कि इसके कारण चुनाव सुधारों का प्रश्न पृष्ठभूमि से निकलकर राष्ट्रीय मंच पर गया है। सरकार और चुनाव आयोग की तरफ से मुख्य तौर पर बहस के लिए दो बेहद अहम मुद्‌दे पेश किए गए हैं : लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ कराना और चुनाव में होने वाले खर्च की पूर्ति की जिम्मेदारी सरकार पर डालना।
जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 77 की उपधारा (1) का ताल्लुक चुनावी खर्च से है। मूलत: इसका उद्‌देश्य उम्मीदवार के दोस्तों और रिश्तेदारों या उसके एजेंटों द्वारा किए जाने वाले व्यय को भी खर्च सीमा में लाना था। उल्लंघन का अर्थ था चुनाव लड़ने पर छह साल की पाबंदी। 1975 में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर उठे विवाद पर फैसला दिया था कि दोस्तों, एजेंटों और दलों द्वारा किया जाने वाला खर्च भी उम्मीदवार के व्यय में शुमार किया जाना चाहिए। अगर कोर्ट की बात मान ली जाती तो चुनाव को धनबल से प्रभावित करने पर काफी हद तक रोक लग सकती थी। लेकिन, फैसला आने के फौरन बाद अध्यादेश जारी करके उपधारा (1) में एक व्याख्या जोड़कर इसे निष्प्रभावी कर दिया गया। बाद में यह अध्यादेश संसद द्वारा जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन की तरह पारित हो गया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट कई बार अपने प्रेक्षणों में संसद से चुनाव में धनबल के दुरुपयोग के खिलाफ कानून बनाने की अपील कर चुका है, लेकिन अभी तक हमारे कानून निर्माताओं के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी है। विधि आयोग इंद्रजीत गुप्त कमेटी की वह सिफारिश मान चुका है, जिसमें प्रयोगात्मक रूप से चुनावों की आंशिक सरकारी फंडिंग का सुझाव था। लेकिन अभी तक यह केवल सुझाव ही है।
किंतु चुनावों की सरकारी फंडिंग कोई आसान काम नहीं होगा। पहले तो सरकार को बड़े पैमाने पर धन की व्यवस्था करनी होगी। जिस सरकार के पास शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे अनिवार्य क्षेत्रों में खर्च के लिए धन नहीं है (कम से कम सरकार का दावा तो यही रहता है), वह चुनाव कराने के लिए पार्टियों को धन कहां से मुहैया कराएगी? दूसरी बेहद जटिल समस्या यह आएगी कि सरकारी धन पाने के अधिकार का बंटवारा करने का आधार क्या होगा? क्या ज्यादा वोट पाने का इतिहास रखने वाली पार्टी को अधिक धन मिलेगा? ऐसा हुआ तो नई पार्टियां, छोटी पार्टियां या पिछले चुनाव में हार जाने वाली पार्टियां नाइंसाफी का शिकार हो जाएंगी और अगर सबको बराबर धन मिला तो सरकारी फंड लेने के लिए ही चुनाव लड़ने-लड़वाने की प्रवृत्ति पैदा होगी। इस रवैये पर अगर कानूनी बंदिश लगाई गई तो यह चुनाव लड़ने के संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन होगा। तीसरे, सरकारी धन मिलने के बाद भी पार्टियां निजी स्रोतों से धन नहीं जुटाएंगी, इसे सरकार कैसे सुनिश्चित करेगी? अर्थात सरकारी फंडिंग के बाद भी चुनाव आयोग को निगरानी रखनी ही पड़ेगी। जहां तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ कराने का सवाल है, केवल भारतीय लोकतंत्र की शुरुआत इसी ढंग से हुई थी बल्कि 1967 तक यही सिलसिला रहा। कारण था कांग्रेस पार्टी का राजनीतिक वर्चस्व। दरअसल, दूसरे आम चुनावों से ही भारतीय राजनीति के संघीय चरित्र का दबाव रंग दिखाने लगा था। 1957 में मामूली बहुमत से सत्तारूढ़ हुई केरल की कम्युनिस्ट सरकार को केंद्र ने 1959 में भंग कर दिया और मध्यावधि चुनाव कराने पड़े। तब यह घटना अपवाद समझी गई, लेकिन 1967 में दस राज्यों में कांग्रेस की हार के साथ लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ कराने का सिलसिला भंग हो गया। यह राजनीतिक अस्थिरता के दौर की शुरुआत थी। कोई गारंटी नहीं रह गई कि कोई सदन पूरे पांच साल चलेगा। 1970 में तो लोकसभा भी समय पूर्व भंग की गई और अगले साल मध्यावधि चुनाव कराए गए। छठीं, सातवीं, नवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं लोकसभाएं भी अपनी अवधि पूरी नहीं कर सकीं।
फिलहाल हमारे लोकतंत्र की स्थिति यह है कि एक साथ चुनाव कराना सैद्धांतिक रूप से कितना भी आकर्षक लगे, पर व्यावहारिक रूप से असंभव-सा लगता है। व्यावहारिकता के अलावा इसके साथ एक डर यह भी जुड़ा हुआ है कि कहीं इससे भारतीय लोकतंत्र की संघात्मकता पर विपरीत असर तो नहीं पड़ेगा और हमारे चुनावों की परिणाम-बहुलता किसी जनमत संग्रही रवैये का शिकार तो नहीं हो जागी। इसी के साथ-साथ सदन का विश्वास खो चुकी सरकारों को अनावश्यक जीवन मिलने की परिस्थितियां तो नहीं बन जाएंगी। इन्हीं आशंकाओं को निर्मूल करने के लिए चुनाव आयोग ने कुछ सुझाव दिए हैं। उसका कहना है कि सरकार के खिलाफ लाए जाने वाले हर अविश्वास प्रस्ताव के साथ-साथ वैकल्पिक सरकार बनाने के लिए विश्वास प्रस्ताव भी लाया जाना चाहिए, जिसमें स्पष्ट रूप से उस व्यक्ति का भी जिक्र हो जिसे सरकार गिरने की सूरत में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनाया जाना है। एक सुझाव यह भी है कि अगर लोकसभा या विधानसभा की अवधि बहुत थोड़ी रह गई हो और राजनीतिक संकट पैदा हुआ तो राष्ट्रपति के पास उस दौरान शासन का कामकाज चलाने के अधिकार होने चाहिए।
ऐसे सुझावों की सूची लंबी है और हर एक के साथ तरह-तरह के किंतु-परंतु जुड़े हैं। मसले और भी हैं। जैसे दल उम्मीदवारों का चयन कैसे करें और क्या 'पहले मारे सो मीर' (फर्स्ट पास्ट पोस्ट) वाली मौजूदा प्रणाली की जगह आनुपातिक प्रतिनिधित्व वाली प्रणाली लाई जानी चाहिए? स्पष्ट है कि चुनाव-सुधारों का रास्ता बहुत लंबा है और उस पर केवल वही चल सकता है, जिसमें पर्याप्त राजनीतिक इच्छा-शक्ति हो। अभी तक किसी भी सरकार और किसी भी नेता ने यह बीड़ा नहीं उठाया है। यही कारण है कि बेहतरीन चुनाव आयोग होते हुए भी भारतीय निर्वाचन प्रणाली अपने लोकतांत्रिक आदर्श से बहुत पीछे है। व्यापक चुनाव-सुधार वक्त की मांग है। चुनावी भ्रष्टाचार सार्वजनिक जीवन और प्रशासन में होने वाले भ्रष्टाचार का जन्मदाता है। चुनाव-सुधारों का दायित्व पूरा किए बिना भ्रष्टाचार को प्रभावी रूप से नियंत्रित करने वाले राजतंत्र और समाज की कल्पना करना नादानी होगी। गेंद पूरी तरह मोदी सरकार के पाले में है।
(येलेखक के अपने विचार हैं) (DB)

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