Monday 28 November 2016

पानी के सहारे राजनीति (अवधेश कुमार)

उचतम न्यायालय के सतलुज यमुना संपर्क नहर (एसवाइएल) पर दिए गए फैसले के बाद जो स्थिति पैदा हुई है, वह वाकई चिंताजनक है। पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह ने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है तो राय में कांग्रेस के विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से। कांग्रेस का कहना है कि पंजाब की अकाली दल-भाजपा की गठबंधन सरकार राय के हितों की रक्षा करने में नाकाम रही है। अमरिंदर ने अपने इस्तीफे में लिखा है कि केंद्र और पंजाब सरकार ने पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट में पंजाब के हितों को ठीक से नहीं रखा व इसकी अनदेखी की। हम किसी भी हालत में राय का पानी बाहर नहीं जाने देंगे। दूसरी ओर, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाकर यह ऐलान कर दिया है कि एक बूंद पानी पंजाब से नहीं दिया जाएगा। हां, उन्होंने राष्ट्रपति से अपील अवश्य की है, क्योंकि राष्ट्रपति के संदर्भ पर ही मामला उचतम न्यायालय में गया था। पंजाब सरकार इस मामले पर 16 नवंबर को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाएगी तथा 8 दिसंबर को मोगा में रैली करके पानी बचाओ-पंजाब बचाओ अभियान आरंभ करेगी।
उचतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने फैसला दिया है जिसमें उसने एसवाइएल समझौता निरस्त करने के पंजाब विधानसभा द्वारा बनाए कानून को असंवैधानिक करार दिया है। जरा सोचिए ये नेता आखिर विरोध किसका कर रहे हैं? उचतम न्यायालय का। अगर शीर्ष न्यायालय तक के फैसले पर राजनेता इस तरह का रवैया अपनाएंगे तो देश कैसे चलेगा। यह स्थिति भयभीत करने वाली है। हालांकि न यह फैसला अप्रत्याशित है और न नेताओं का रवैया। इसके पूर्व भी उचतम न्यायालय ने एसवाइएल पर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था, तब भी इन नेताओं ने शालीनता की सारी सीमाएं लांघ दी थीं। पंजाब विधानसभा में स्वयं मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने प्रस्ताव रखा कि किसी का भी आदेश हो, हम सतलुज यमुना लिंक नहर नहीं बनने देंगे और यह सर्वसम्मति से पारित भी हो गया। 14 मार्च 2016 को पंजाब विधानसभा ने सतलुज यमुना संपर्क नहर के निर्माण के खिलाफ विधेयक पारित करने के बाद हरियाणा सरकार ने उचतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। न्यायालय ने अपने आदेश में कड़े शब्दों का प्रयोग उसी समय किया था। शीर्ष न्यायालय ने कहा था कि उसके 2004 के फैसले को निष्क्रिय करने की कोशिश पर वह हाथ पर हाथ धरे बैठै नहीं रह सकता। पूर्व स्थिति सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय ने केंद्रीय गृह सचिव और पंजाब के मुख्य सचिव एवं पुलिस महानिदेशक को एसवाइएल नहर के लिए रखी गई जमीन एवं अन्य परिसंपत्ति का संयुक्त रिसीवर नियुक्त किया। अदालत ने कहा कि ये अधिकारी नहर की पुरानी स्थिति बनाए रखना सुनिश्चित करें और इस बारे में अदालत को रिपोर्ट दें। न्यायमूर्ति अनिल आर. दवे की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने पूछा था कि जब इस मामले पर सुनवाई चल रही है तो इस तरह के कदम उठाने का क्या मतलब? इस रुख के बाद किसी को भी समझ में आ जाना चाहिए था कि शीर्ष कोर्ट किस दिशा में विचार कर रहा है।
दरअसल, पंजाब विधानसभा ने एसवाइएल नहर के निर्माण के खिलाफ तथा उसके लिए अधिगृहित जमीनों का मालिकाना हक वापस भूस्वामियों को मुफ्त में हस्तांतरित करने का विधेयक पारित कर दिया था। पंजाब सरकार का यह कदम ही न्यायालय के 2004 के उस आदेश को निष्प्रभावी कर देता है जिसमें नहर के बेरोकटोक निर्माण की बात कही गई थी। चूंकि इसका निर्माण हरियाणा को पानी देने के लिए होना है, इसलिए इससे सीधा प्रभावित वही हो रहा था। पंजाब सरकार ने केवल विधेयक ही पारित नहीं किया, बल्कि जितना भी हिस्सा नहर का पंजाब में पड़ता है, उसे समतल करने का कार्य भी आरंभ कर दिया। पंजाब का हरियाणा और अन्य पड़ोसी रायों के साथ जल बंटवारा विवाद पहले से ही उचतम न्यायालय में लंबित था। 1966 में जब राय का विभाजन हुआ तो उसमें यह प्रावधान था कि हरियाणा को सतलुज के जल का हिस्सा मिलेगा। इसके 11 वर्ष बाद 1977 में 214 किलोमीटर नहर के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया आरंभ हुई। इसमें 122 किलोमीटर पंजाब में बनना था और 92 किलोमीटर हरियाणा में। हरियाणा ने 1980 में ही काम पूरा कर लिया लेकिन पंजाब ने पालन नहीं किया। वह लगातार न्यायालय में जाता रहा। 2004 में उचतम न्यायालय ने नहर पूरा करने का आदेश दिया जिसके जवाब में पंजाब विधानसभा ने जल विभाजन समझौते को निरस्त कर दिया। रायों के साथ जल बंटवारा समझौता समाप्त करने के पंजाब के 2004 के कानून की वैधानिकता पर ही उचतम न्यायालय ने फैसला दिया है। जब पंजाब सरकार ने यह कानून पारित कर दिया तो राष्ट्रपति ने उचतम न्यायालय को रिफरेंस भेज कर किसी राय द्वारा एक तरफा कानून पास कर जल बंटवारे के आपसी समझौते रद्द करने के अधिकार पर कानूनी राय मांगी। इसी पर न्यायालय का फैसला आया है। एसवाइएल नहर का निर्माण हरियाणा को पानी देने के लिए हुआ लेकिन न्यायालय के आदेश के बावजूद पंजाब अपने हिस्से में नहर का निर्माण पूरा नहीं करने पर अड़ा रहा है। पंजाब सरकार ने विधेयक पारित करने के साथ आनन-फानन में हरियाणा को उसके हिस्से के खर्च का 191.75 करोड़ रुपये का चेक भेज दिया जिसे हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने वापस कर दिया। इस रवैये का आखिर अर्थ क्या है? यह तो उचतम न्यायालय के आदेश के उल्लंघन के साथ संघीय ढांचे को भी धत्ता बताना हुआ। इसमें कांग्रेस, अकाली, आम आदमी पार्टी तथा प्रदेश की भाजपा तीनों शामिल हैं। इसके पूर्व अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट करके नहर के निर्माण का विरोध कर दिया था जिसके बाद गुस्से में हरियाणा ने कहा कि केजरीवाल दिल्ली के लिए पानी का इंतजाम कर लें, हम अपने यहां से दिल्ली को पानी नहीं जाने देंगे। रायों का व्यवहार इस तरह हो जाए तो देश में अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी। हालांकि अब तो उचतम न्यायालय के आदेश के अनुसार केंद्र सरकार को नहर का कब्जा लेकर निर्माण कार्य पूरा करना है। लेकिन यह कितना कठिन होगा इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।
पंजाब को उचतम न्यायालय का आदेश मानना चाहिए। यहां देश के संविधान, उचतम न्यायालय के मान तथा संघीय ढांचे में नदी जल विभाजन के सिद्धांत की रक्षा का प्रश्न है। कोई विधानसभा में कानून पारित कर ले और कहे कि किसी सूरत में हम अपने यहां की नदियांे से पड़ोस को पानी देंगे ही नहीं तो इसे जरूरतमंद राय के प्रति अन्याय जैसा रुख कहा जा सकता है। पंजाब को अपने रवैये में बदलाव लाना चाहिए। हालांकि इसके पीछे चुनावी राजनीति की प्रमुख भूमिका है। सभी पार्टियों इसका लाभ उठाना चाहती हैं। इसलिए भी कोई किसी से कम दिखना नहीं चाहता।(DJ)

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