Tuesday 31 May 2016

अब मध्य एशिया तक हमारी पहुंच (यशवंत सिन्हा पूर्ववित्त एवं विदेश मंत्री)

चाबहार बंदरगाहके विकास के लिए भारत और ईरान के बीच हाल ही में समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इससे व्यक्तिगत रूप से मुझे सही कदम उठाने का संतोष मिला है। मैं जब 2002 और 2004 के बीच विदेश मंत्री था तो मैंने इस मामले को आगे बढ़ाने में छोटी-सी भूमिका निभाई थी। असाधारण इतिहास बोध रखने वाले तब के प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के मन में यह बात स्पष्ट थी कि भारत को ईरान के साथ श्रेष्ठतम संबंध विकसित करने चाहिए। वे 2001 में ईरान यात्रा पर गए, जिसने हमारे द्विपक्षीय संबंधों को जबर्दस्त बढ़ावा दिया। उन्हीं की यात्रा के दौरान ईरान और भारत अपने संबंधों को रणनीतिक स्तर तक ऊंचा उठाने पर सहमत हुए और द्विपक्षीय सहयोग के लिए कई सेक्टर की प्राथमिक क्षेत्रों के रूप में पहचान की गई।
ईरान के राष्ट्रपति खतामी 2003 की शुरुआत में भारत यात्रा पर आए। इसी यात्रा के दौरान दोनों देश औपचारिक रूप से चाबहार बंदरगाह को मिलकर विकसित करने पर सहमत हुए। 1990 के दशक में भारत ने ईरान के इस बंदरगाह का आंशिक विकास किया था और जब मैं विदेश मंत्री बना तो मैंने अपने तरीके से इसके पूर्ण विकास पर जोर दिया। तर्क बहुत सरल-सा था। पाकिस्तान हमेशा से भारत को उसके भू-भाग से अफगानिस्तान में प्रवेश देने के प्रति उदासीन रहा है। हाल के वर्षों में तो उसने भारत का अफगानिस्तान से ऐसा संपर्क बिल्कुल ही बंद कर दिया है। इस तरह पाकिस्तान ने सिर्फ भारत के अफगानिस्तान जाने पर पाबंदी लगा दी, बल्कि इसने मध्य एशिया में भारत के प्रवेश को भी रोक दिया। भारत को नुकसान पहुंचाने के लिए पाकिस्तान ने अपनी भौगोलिक स्थिति का पूरी तरह इस्तेमाल किया है। हमें पाकिस्तान द्वारा खड़ी की गई इस बाधा का तत्काल कोई समाधान खोजना था। भारत के सामने सिर्फ ईरान का विकल्प था और चाबहार बंदरगाह का विकास एकमात्र संभावना।
चाबहार बंदरगाह ईरान के दक्षिण-पूर्वी हिस्से और ओमान की खाड़ी में स्थित है। यह ईरान का एकमात्र ऐसा बंदरगाह है, जिसकी समुद्र तक सीधी पहुंच है। ईरान की सीमा से अफगानिस्तान की हाईवे व्यवस्था तक भारत द्वारा जरांज-देलाराम हाईवे का निर्माण उल्लेखनीय उपलब्धि है, क्योंकि इसे बड़ी कीमत चुकाकर निर्मित किया गया है। आर्थिक रूप से तो भारत ने कीमत चुकाई ही, लेकिन आतंकी हमलों में भारतीय निर्माण दलों के लोगों की जानें भी गईं। पाकिस्तान ने इस हाईवे का निर्माण रोकने के लिए अपने सारे आतंकवादी गुटों का इस्तेमाल किया, लेकिन हम अविचलित रहकर निर्माण में लगे रहे।
जब ईरान ने चाबहार से जाहेदान को जोड़ने वाला रोड बनाया तो चाबहार और अफगानिस्तान और वहां से मध्य एशिया तक पूरा रोड नेटवर्क अस्तित्व में गया। वर्ष 2003 में भारत ने ईरान और अफगानिस्तान के साथ प्राथमिकता के आधार पर व्यापार के लिए त्रि-पक्षीय समझौता किया। प्रधानमंत्री की मौजूदा यात्रा के दौरान भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर को उचित ही गेमचेंजर की उपमा दी गई है। मध्य एशिया के लिए अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे के विकास से भारतीय सामान को बिना दिक्कत सिर्फ अफगानिस्तान पहुंचाना आसान होगा बल्कि माल मध्य एशिया और उससे आगे यूरोप तक पहुंचाया जा सकेगा। तीनों ही देशों के लिए इस समझौते का अत्यधिक रणनीतिक महत्व है। कौन कहता है कि भूगोल बदला नहीं जा सकता और हमें इसमें हमेशा के लिए कैद रहना पड़ता है? यह गहरे खेद की बात है कि चाबहार पर अंतिम समझौते के लिए 13 साल का इंतजार करना पड़ा। इसका कारण अमेरिका से निपटने में यूपीए सरकार की भीरूता रही। अमेरिका ने ईरान पर इस बहाने प्रतिबंध लगा दिया कि वह परमाणु हथियार बनाने की टेक्नोलॉजी विकसित कर रहा है। इसके समर्थन में जो सबूत दिए गए थे, वे उतने ही बनावटी थे, जितने इराक द्वारा व्यापक विनाश के हथियार निर्मित करने के मामले में अमेरिका और ब्रिटेन द्वारा दिए गए सबूत, जिनका इस्तेमाल इराक पर हमला करने के लिए बहाने के लिए रूप में किया गया।
मुझे स्पष्ट रूप से याद है कि दिसंबर 2003 में मेरी ईरान यात्रा के दौरान राष्ट्रपति खतामी ने मुुझे बताया था कि वे परमाणु हथियारों को इस्लाम विरोधी मानते हैं औरउन्होंने आश्वस्त किया था कि परमाणु हथियार बनाने के लिए टेक्नोलॉजी विकसित करने में ईरान की कोई रुचि नहीं है। इसके बावजूद अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंध लगा दिए, जिसके तहत सभी देशों पर ईरान के साथ वाणिज्यिक सौदे करने पर रोक लगा दी गई। भारत ने सिर्फ चुपचाप इसे स्वीकार कर लिया, बल्कि अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा आयोग की बैठक में ईरान के खिलाफ वोटिंग करने की हद तक चला गया। इस घटनाक्रम से मैं इतना विचलित हो गया था कि मैंने यूपीए सरकार के इस फैसले की कटु आलोचना करते हुए बयान जारी किया और कहा कि ईरान के खिलाफ वोट देकर हमें सच्चे अर्थों में अमेरिका के पिछलग्गू देश हो गए हैं। जैसा कि कई अन्य देशों ने किया था, हम भी मतदान से अनुपस्थित रह सकते थे।
ईरान और पश्चिमी शक्तियों के बीच लंबी समझौता वार्ताओं के बाद आखिरकार दोनों के बीच समझौता हुआ और अमेरिका ईरान पर लगे प्रतिबंध उठाने के लिए राजी हुआ। इससे भारत के लिए ईरान और इसके परे अपनी रणनीतिक योजनाओं को अमल में लाने का रास्ता खुल गया। ईरानी नेतृत्व की परिपक्वता और महानता को श्रेय देना होगा कि इसने अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में उसके खिलाफ भारत के मतदान को इस एेतिहासिक समझौते में बाधा नहीं बनने दिया। विदेश नीति का मूल उद्‌देश्य राष्ट्रीय हितों की रक्षा और उन्हें आगे बढ़ाना होता है। इस मूलभूत सिद्धांत का पालन दुनिया का हर देश करता है। इस मामले में भारत प्राय: गफलत करता रहा है। संदिग्ध कारणों से अपने राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ाने का हमारा लंबा इतिहास रहा है। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी के साथ भारत एक बड़ा देश है और यहां लोकतंत्र की गौरवान्वित करने वाली लंबी परंपरा है। हमें अमेरिका सहित किसी भी देश के खेमे का पिछलग्गू देश बनने की जरूरत नहीं है। किसी के नेतृत्व में आने की बजाय हमें नेतृत्व देना चाहिए। हमें अपनी विदेश नीति को आकार देने की स्वतंत्रता की बेशकीमती विरासत की पूरी तरह रक्षा करनी चाहिए। मौजूदा सरकार द्वारा उठाए गए कुछ कदमों ने भी इस स्वतंत्रता के साथ समझौता किया है। हमें इस बारे में सावधान रहना होगा।...(DB)

Monday 30 May 2016

हद पार करते हथियार दलाल (दिव्य कुमार सोती)

भारत में रक्षा घोटाले कोई नई बात नहीं हैं। रक्षा सौदों में घोटाले का पहला मामला देश के स्वतंत्रता प्राप्त करने के एक वर्ष के भीतर ही सामने आ गया था। नेहरू सरकार के कार्यकाल में थल सेना के लिए जीप खरीदने के दौरान रक्षा खरीद के नियमों का उल्लंघन हुआ था। उस जीप घोटाले से लेकर बोफोर्स तोप घोटाले और हाल के अगस्ता वेस्टलैंड घोटाले तक रक्षा घोटालों की एक लंबी फेहरिस्त है। ये मामले भारतीय राजनीति की दिशा भी मोड़ते रहे हैं। यह भी एक कटु सत्य है कि हथियार दलाल सैनिक साजोसामान के अंतरराष्ट्रीय बाजार में सदा से सक्रिय रहे हैं और विकसित देशों की हथियार कंपनियां विकासशील देशों के भ्रष्ट शासन तंत्र को साधने के लिए इन दलालों और उनके नेटवर्क का इस्तेमाल करती रही हैं। पहले उनका उद्देश्य हुआ करता था अपनी प्रतिद्वंद्वी कंपनियों को पछाड़कर सौदा अपने पक्ष में कर लेना। यहां यह समझना जरूरी है कि सरकारी टेंडर भरने वाली ऐसी सभी कंपनियां अर्हता की शर्ते पूरी करती थीं और उनके उत्पाद भी कम से कम टेंडर की शर्तो में उल्लिखित न्यूनतम गुणवत्ता के मानकों को पूरा करते थे। हथियार दलालों का काम बस इनमें से किसी एक कंपनी के पक्ष में फैसला कराना होता था। जैसे बोफोर्स तोप खरीद में दलाली तो खाई गई थी, लेकिन यह तोप न्यूनतम गुणवत्ता के मानदंडों पर खरी उतरी थी और कारगिल युद्ध में कारगर भी साबित हुई। अगर हाल ही में सामने आए कुछ मामलों पर नजर डाली जाए तो पिछले एक दशक में हथियार दलालों की बढ़ती ताकत से उत्पन्न गंभीर स्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। 1अगस्ता वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर खरीद घोटाले में हथियार दलालों का नेटवर्क न सिर्फ टेंडर के सुरक्षा एवं गुणवत्ता मानक बदलवाने में सफल रहा, बल्कि अगस्ता की उस कंपनी से हेलीकॉप्टर खरीद कराने में सफल रहा जिसको प्रस्ताव तक के लिए भारत सरकार द्वारा न्योता (आरएफपी) नहीं भेजा गया था। वीवीआइपी की संवेदनशील यात्रओं को सुरक्षित बनाने के लिए खरीदे गए इन हेलीकॉप्टरों का भारत जैसी विविध और चुनौतीपूर्ण भौगोलिक स्थितियों वाले देश में ट्रायल तक नहीं किया गया और यह काम एक खानापूर्ति के तौर पर इटली में कंपनी के कैंपस में ही निपटा डाला गया और उसमें भी खरीदे गए हेलीकॉप्टर से अलग मॉडल का प्रयोग किया गया। ऐसा ही दूसरा मामला इटली की एक अन्य कंपनी फिनकांटेरी से भारतीय नौसेना के लिए फ्लीट टैंकर की खरीद का है। दरअसल टेंडर की शर्तो के अनुसार ये टैंकर मिलिट्री ग्रेड स्टील से निर्मित होने चाहिए थे, परंतु इसके बावजूद तत्कालीन संप्रग सरकार ने कंपनी द्वारा भेजे गए ऐसे टैंकर कुबूल कर लिए जो निम्न श्रेणी के स्टील से निर्मित थे। 1अगस्ता मामले में हाल ही में आए इतालवी अदालत के फैसले के अनुसार कंपनी के अधिकारियों और दलालों का नेटवर्क भारत में रसूखदार और संप्रग सरकार में उच्च पदस्थ लोगों को अपने इशारों पर नचा रहा था और हर कदम पर अपने अनुकूल फैसले करा रहा था। इनमें से कुछ नाम उन लोगों के हैं जो वीवीआइपी श्रेणी में आने के कारण खुद इन हेलीकॉप्टरों का उपयोग करने वाले थे या उन लोगों के हैं जो इन वीवीआइपी लोगों से अधिकारिक रूप से संबद्ध होने के कारण इन हेलीकॉप्टरों में सफर करते या उन लोगों के हैं जिन पर इन वीवीआइपी की सुरक्षा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी थी। दलाली खाकर सेना के लिए घटिया उपकरण खरीदने के किस्से तो आम हो चुके थे, पर इसे मूर्खता की पराकाष्ठा कहा जाए कि देश के वीवीआइपी और उनसे जुड़े लोग घटिया हेलीकॉप्टरों को खरीदते समय अपनी सुरक्षा का पहलू भी भूल गए थे। शायद ही पूरे विश्व में कहीं ऐसी दूसरी मिसाल मिल पाए, पर यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती है। हथियार दलालों के ये नेटवर्क विदेशी कंपनियों के लिए भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी गोपनीय जानकारियां चुराने में भी संलिप्त रहे हैं। उदाहरण के लिए वर्ष 2005 में यह खुलासा हुआ था कि किस तरह तीन भारतीय हथियार दलाल विदेशी हथियार कंपनियों को भारतीय नौसेना के वॉर रूम से चुराई गई जानकारियां बेच रहे थे। इस मामले का खुलासा भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की सजगता के चलते हो पाया था और यह मामला अभी न्यायालय में लंबित है। जो संवेदनशील जानकारी विदेशी हथियार कंपनियों को बेची गई वह विदेशी खुफिया एजेंसियों के हाथ भी लग सकती थी और किसी राष्ट्रीय सुरक्षा आपातकाल में भारत के दुश्मन भी इस जानकारी का लाभ उठा सकते थे। शुरुआत में संप्रग सरकार के तत्कालीन रक्षामंत्री ने इसे एक आम व्यावसायिक जानकारी जुटाने का मामला बताने की कोशिश की। बाद में सीबीआइ ने मामला दर्ज कर कई गिरफ्तारियां की थीं, लेकिन इस बीच मामले का मुख्य संदिग्ध भारत से भागने में सफल रहा। ऐसे में जरूरी यह है कि हमारी सुरक्षा एजेंसियां भारतीय रक्षा बाजार में सक्रिय विदेशी हथियार कंपनियों पर पैनी निगाह रखें। रक्षा तकनीक के क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर होने में समय लगेगा और ऐसे में एक के बाद एक विदेशी कंपनियों को ब्लैक लिस्ट करने से शायद ही कोई लाभ हो। इससे एक के बाद एक तकनीकी हस्तांतरण के स्नोत भारत की पहुंच से बाहर होते जाएंगे। इससे बेहतर यह होगा कि भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की सजगता इन विदेशी कंपनियों को सही रास्ते पर चलने के लिए विवश करे और हथियार दलालों के नेटवर्को को छिन्न-भिन्न किया जाए। इसके लिए यह भी जरूरी है कि भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की व्यावसायिक सूचनाएं एकत्र करने की क्षमता में इजाफा हो और ऐसे मामलों को महज भ्रष्टाचार के मामले न मानकर राष्ट्रीय सुरक्षा कानूनों के दायरे में लाया जाए। 1(लेखक काउंसिल फॉर स्ट्रेटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषकहैं).......(DJ)

सुधरी है आर्थिक तस्वीर (जयंतीलाल भंडारी)

यकीनन मोदी सरकार के कार्यकाल के दो वर्ष पूरे होने पर यदि हम देश के आर्थिक परिदृश्य को देखें, तो पाते हैं कि पहले के बनिस्बत आर्थिक स्थिति बेहतर हुई है। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि वर्ष 2015-16 में भारत 7.5 फीसद विकास दर के साथ दुनिया के उभरते हुए देशों में सबसे तेज विकास दर वाला देश दिखाई दिया है। रिपोर्ट में चालू वित्तीय वर्ष 2016-17 में विकास दर पिछले वर्ष से अधिक रहने की संभावना बताई गई है। आर्थिक समीक्षा 2015-16 में भी अनुमान लगाया गया है कि 2016-17 में विकास दर 7.25 से 7.75 प्रतिशत के बीच रहेगी। चूंकि इस बार मौसम विभाग के अनुमान के मुताबिक मॉनसून में बारिश सामान्य से ज्यादा होगी, अतएव विकास दर मौजूदा 7.5 प्रतिशत से अधिक होगी। अर्थ विशेषज्ञों का मानना है कि मोदी सरकार ने आर्थिक डगर पर पिछले दो वर्षो में जो कदम उठाए हैं, उनसे आर्थिक बदलाव करीब आते हुए दिख रहे हैं। वस्तुत: मोदी देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने सार्वजनिक रूप से सब्सिडी और पात्रता योजनाओं से गैर जरूरतमंदों को बाहर करने का अभियान सफलतापूर्वक क्रियान्वयन किया है। उन्होंने दो वर्षो में बैंकों के माध्यम से हितग्राहियों को सब्सिडी दिए जाने और सब्सिडी के दुरुपयोग को रोकने का सफल काम भी किया है। पिछले दो साल में राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की राह पर सरकार की प्रतिबद्धता दिखाई दी है। लेकिन संयोगवश इसमें तेल और जिंसों की घटी हुई कीमतों का काफी योगदान है। पिछले दो वर्षो में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को आकर्षित करने के परिप्रेक्ष्य में भारत ने चीन और अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया है। अंकटाड की रिपोर्ट बताती है कि एफडीआई के मोर्चे पर भारत के प्रदर्शन में काफी प्रगति हुई है। वर्ष 2014-15 में भारत का जो एफडीआई 45 अरब डॉलर था, वह वर्ष 2015-16 में बढ़कर 63 अरब डॉलर हो गया है। पिछले दो वर्षो से बुनियादी ढांचा निवेश और प्रबंधन में खासी सक्रियता देखी गई है, विशेषकर कोयला, बिजली और सड़क क्षेत्रों में काफी काम हुआ है। सरकार ने स्पेक्ट्रम, कोयला और खनन में व्यवस्थागत सुधार किए हैं। लेकिन देश के समक्ष पिछले दो वर्षो में कई आर्थिक चुनौतियां भी उपस्थित रहीं। पिछले दो साल में बैंकों की छलांग लगाकर बढ़ती हुई गैर निष्पादित आस्तियां (एनपीए) देश की चिंताजनक आर्थिक चुनौती साबित हुई है। हाल ही में नियंतण्र वित्तीय संगठन कॉपरेरेट डेटाबेस एसक्विटी ने अपनी रिपोर्ट मई 2016 में कहा है कि भारत में बढ़ते हुए बैंकों के एनपीए भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक संकेत हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के बैंकिंग सेक्टर के लिए वित्त वर्ष 2015-16 खासा चुनौतीपूर्ण रहा है। इस दौरान 25 सरकारी और प्राइवेट बैंकों के मुनाफे में करीब 35 फीसद गिरावट आई, जबकि ब्याज से होने वाली आय महज एक अंक में बढ़ी है। स्थिति यह है कि मौजूदा बाजार भाव के हिसाब से 25 बैंकों का एनपीए बढ़कर कुल मार्केट कैप का एक तिहाई हो गया है। पिछले दो वर्षो में उद्योग-कारोबार क्षेत्र में भारत की विकास गति धीमी रही है। उद्योग और कारोबार सुगमता से संबंधित विश्व बैंक की रैंकिंग में भारत 189 में से 138वें पायदान पर है। इस परिप्रेक्ष्य में जमीन की मंजूरी, जमीन की उपलब्धता, परियोजना पूरी होने का प्रमाणपत्र जैसे कुछ मसलों के कारण मुश्किलें बनी हुई है। औद्योगिक नीति एवं संवर्धन विभाग द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट 2016 के अनुसार निवेश और उनसे संभावित रोजगार सृजन के आंकड़े बता रहे हैं कि निवेश और रोजगार की स्थिति अनुकूल नहीं है। देश की विनिवेश दर जीडीपी के 30 फीसद से नीचे जा चुकी है जबकि हमें 35 प्रतिशत से ऊपर की विनिवेश दर की आवश्यकता है। शेयर बाजार निवेशक भी बीते दो वर्षो से अर्थव्यवस्था में जो उत्साहवर्धक बदलाव चाह रहे हैं, वैसी उम्मीदें कम ही पूरी हुई हैं। पिछले दो वर्षो में दिवालिया संहिता से इतर व्यापक ढांचागत सुधार एजेंडा अभी भी अधूरा है। भारतीय श्रम एवं भूमि कानून व्यापक रूप से अपरिवर्तित रहे हैं। स्थिति यह है कि केंद्र की तुलना में राज्यों ने इन कानूनों में जरूरी बदलाव लाने के लिहाज से अधिक कारगर कदम उठाए हैं। सुधारों के मोर्चे पर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) का लागू न हो पाना निर्विवाद रूप से सबसे बड़ी कमी है। कर प्रशासन में सुधार की दरकार है। अब मोदी सरकार के पांच साल के कार्यकाल में तीसरे साल को सही मायनों में निर्णायक बनाया जाना होगा। सरकार को मूल एजेंडे की दिशा में आगे बढ़ना होगा। देश में रुके हुए आर्थिक एवं श्रम सुधारों की गति तेज करनी होगा। अब मुख्य ध्यान खासकर कृषि व ग्रामीण क्षेत्र से जुड़े कानून लागू करने पर होना चाहिए, जिन पर देश की बड़ी आबादी निर्भर है। वित्तीय दबाव के परिप्रेक्ष्य में वित्तीय कंपनियों, बैंकों, बीमा और एनबीएफसी के लिए एक समग्र संहिता लाई जानी चाहिए। पीपीपी के लिए सार्वजनिक इकाई विवाद निपटारा विधेयक पर काम तेजी से आगे बढ़ाना चाहिए। जीएसटी पारित करने की नई रणनीति बनाई जानी चाहिए। निर्यात बढ़ाने, उद्योग-कारोबार को प्रोत्साहन और बैंकों के एनपीए एवं महंगाई नियंतण्रकी नई व्यूह रचना बनाई जानी चाहिए। देखना है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अगले तीन वर्षो में देश की आर्थिक तस्वीर में समृद्धि और खुशहाली की कितनी रेखाएं खींच पाते हैं। अब सारा दारोमदार उन्हीं पर है। देश भी उन्हें ही खेवनहार के तौर पर देखरहा है। वस्तुस्थिति से प्रधानमंत्री ही नहीं, उनके मंत्री और सरकार के नौकरशाह भी अनजान नहीं हैं। सो, बेहतरी के लिए कोई खाका या विजन उन लोगों के जेहन में होगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। जनता के मन में जो उम्मीदें दो साल पहले मोदी और उनकी टीम ने जगाई हैं, उनके भार को मोदी शिद्दत से महसूस जरूर करते होंगे। चूंकि, चुनौती बड़ी है और लोगों की आकांक्षाएं विकराल, चुनांचे केंद्र सरकार को जनहितकारी फैसले लेने के लिए दिल भी बड़ा करना होगा, तभी जनता ‘‘अच्छे दिन’ आना महसूस कर सकेगी। .........(RS)

Sunday 29 May 2016

चीन के आक्रामक रुख से कई देशों में बेचैनी (यांग सिकी/ तानमेन, मार्क थॉम्पसन/ वाशिंगटन )

दक्षिणचीनसागर में मिसचीफ और नॉर्थ डेंजर नामक चट्‌टानी इलाकों के पास सात फिलीपीनी सैनिकों और सात कुत्तों का दस्ता मूंगे के किनारों वाले रेत के एक टीले की रक्षा के लिए तैनात है। स्प्रेटली द्वीप समूह के इस क्षेत्र को फ्लैट आइलैंड भी कहते हैं। यह इतना छोटा है कि कुछ मिनटों के अंदर पूरा पैदल घूमा जा सकता है। फिलीपीन की नौसेना यहां दो माह में एक बार ताजा पानी, ईंधन और खाने-पीने का सामान भेजती है।
फ्लैट आइलैंड बहुत गर्म, बहुत खारा और इतना छोटा है कि यहां मानव जीवन बेहद कठिन है। रेत के इस टीले पर कांक्रीट की दो चौकियां और एक लकड़ी की एक झोपड़ी है। फिर भी चार देश-चीन, वियतनाम, ताईवान और फिलीपीन इस पर दावा करते हैं। अभी यह फिलीपीन के कब्जे में है। वर्षों से यहां चीनी, वियतनामी या फिलीपीनी मछलीमार नौकाएं नजर आती थीं। लेकिन मई माह की शुरुआत में चीनी कोस्ट गार्ड के जहाजों की गश्त ने स्थिति बदल दी है।
10 मई को अमेरिका का गाइडेड मिसाइलों से लैस विध्वंसक जहाज एक अन्य विवादग्रस्त व्दीप फीयरी क्रॉस रीफ के पास से गुजरा। पहले यहांं केवल दो चट्टानें नजर आती थीं। लेकिन, अब इसे 680 एकड़ जमीन में तब्दील कर दिया गया है। यह चीन द्वारा 2014 के बाद दक्षिण चीन सागर में निर्मित सात बनावटी द्वीपों में से एक है।
दक्षिण चीन सागर विश्व के सामरिक रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण समुद्री क्षेत्रों में है। यहां से हर वर्ष 330 खरब रुपए का व्यापार होता है। दक्षिण चीन सागर में दुनिया के मछली भंडार का दसवां हिस्सा है। उसमें तेल, गैस का अछूता भंडार है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि 35 लाख वर्गकिलोमीटर में फैले समुद्री मार्ग के विभिन्न स्थानों पर छह सरकारों-चीन, वियतनाम, फिलीपीन, ताईवान, मलेशिया और ब्रूनेई ने परस्पर विरोधी दावे किए हैं।
दक्षिण चीन सागर में महाशक्तियों के बीच शीत युद्ध जैसे शक्ति परीक्षण की स्थिति बन रही है। अमेरिका यहां जमीन का दावेदार तो नहीं है पर उसका तर्क कि वह समुद्र रास्तों को हर किसी के लिए खुला रखना चाहता है। चीन इस इलाके पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता है। अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन की रिपोर्ट में बताया गया कि पिछले दो वर्षों में चीन ने स्प्रेटली के समुद्री क्षेत्र में 3200 एकड़ जमीन में निर्माण किया है।
चीन ने एक अन्य विवादग्रस्त द्वीप पारासेल्स में राडार, मिसाइल तैनात कर दिए हैं। जवाब में अमेरिका ने दक्षिण चीन सागर में हवाई और समुद्री गश्त बढ़ा दी है। चीन नक्शों के जरिये लगभग समूचे दक्षिण चीन सागर पर अपना दावा करता है। चीन के निर्माण कार्यों ने कई एशियाई देशों को अमेरिका के पास जाने के लिए विवश कर दिया है। फिलीपीन के पूर्व राष्ट्रपति बेनिग्नो एक्विनो ने टाइम को बताया, चीन आपको दबाता है। यदि आप झुके तो वह और अधिक दबाएगा। दूसरी तरफ अमेरिका भी कोई ढील नहीं देना चाहता है। अभी हाल में परमाणु बिजली से चलने वाला विमानवाहक पोत यूएसएस जॉन सी स्टेनिस दक्षिण चीन सागर से गुजरा। उधर, चीन के सैन्य विश्लेषक रिटायर्ड कर्नल लियू मिंगफू का कहना है, अमेरिका ने दक्षिण चीन सागर के क्षेत्रीय मसले को ग्लोबल मुद्दा बना दिया है।
चीन ने वियतनामी मछुआरों के प्रति बहुत आक्रामक रवैया अपनाया है। वियतनाम के ली सोन द्वीप पर स्थानीय फिशरमैन एसोसिएशन के प्रमुख नुग्येन क्योक त्रिन्ह ने बताया कि किस तरह चीन की रहस्यमय नौकाओं ने उनकी यूनियन के मछुआरों की नौकाओं पर हमला किया। हम जहां पीढ़ियों से मछली मार रहे हैं, चीन ने हमारे लिए वहां मुश्किल खड़ी कर दी है।
चीन के हैनान द्वीप में तानमेन बंदरगाह पर रंगबिरंगे ट्रालरों के बीच स्टील की विशाल नौकाएं भी खड़ी दिखती हैं। कई नावों में मछली पकड़ने के जाल तक नहीं हैं। तानमेन के लोग इन्हें सैनिक नौकाएं कहते हैं। 2013 में चीन के राष्ट्रपति शी जिन पिंग तानमेन आए थे। उन्होंने दूर समुद्र में हलचल के लिए स्थानीय समुद्री मिलिशिया (सहायक सेना) की प्रशंसा की थी। मिलिशिया में मछुए और पूर्व सैनिक शामिल हैं। br> तानमेन मिलिशिया की नौकाएं उन स्थानों पर दिखीं हैं जहां चीन ने कब्जा कर लिया है। मार्च में 100 चीनी नौकाएं मलेशियाई तट के पास दिखीं। चीनी कोस्ट गार्ड उनकी सुरक्षा कर रहे थे। चीनी विदेश मंत्रालय का कहना है, वह मछलियों के शिकार से जुड़ी सामान्य गतिविधि है। लेकिन, तानमेन में हर कोई इससे सहमत नहीं है। तानमेन के मछुए चेन यिकुआन ने कहा, यह सब राजनीति है। चीन की गतिविधि हर मामले में बढ़ी है। चीनी जहाज पर्यटकों को पारासेल और अन्य द्वीपों पर ले जाते हैं। इसकी तुलना में फिलीपीन की नौसेना हर मामले में कमजोर है। (DB)

विकल्प के तीन मॉडल (स्वप्न दासगुप्ता)

ममता बनर्जी को पिछले शुक्रवार को कोलकाता में एक भव्य शपथ ग्रहण समारोह के जरिये पश्चिम बंगाल में अपनी धमाकेदार दूसरी जीत का जश्न मनाने का पूरा अधिकार था। आखिर यह हर लिहाज से उनके लिए एक कठिन चुनावी अभियान था, जब उनके खिलाफ तमाम शक्तियां हमलावर हुईं। ममता बनर्जी ने चुनाव पूर्व के तमाम अंकगणित को भी झुठलाया और अपने खिलाफ न केवल कांग्रेस-माकपा गठबंधन, बल्कि बुद्धिजीवियों के एक समूह और राज्य के सबसे बड़े मीडिया हाउस के जहरीले प्रचार अभियान का भी सफलतापूर्वक सामना किया। बावजूद इसके पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री चिर प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ अपनी निर्णायक जीत के महत्व का कुछ ज्यादा ही मतलब निकालने की दोषी भी रहीं। 19 मई को चुनाव नतीजे आने के बीच जैसे ही यह साफ हो गया कि वह सफाया कर रही हैं उसके कुछ ही मिनट के भीतर तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता डेरेक ओ ब्रायन ने कहा कि कोलकाता से दिल्ली की हवाई दूरी बस दो घंटे की है। उनके वित्तमंत्री अमित मित्र ने भी ऐसा ही विचार व्यक्त किया। अमित मित्र ने ही फेडरल फ्रंट का विचार दिया था। खुद ममता बनर्जी ने तो कोई स्पष्ट बात नहीं की, लेकिन यह साफ है कि उन्होंने इस तथ्य पर ध्यान दिया कि उनके शपथ ग्रहण समारोह में जो लोग शामिल हुए उनमें नीतीश कुमार और लालू यादव, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल और फारुक अब्दुल्ला शामिल हैं। इनके अलावा अरुण जेटली, बाबुल सुप्रियो और अशोक गणपति राजू केंद्र सरकार की तरफ से समारोह में शामिल हुए। 1यह सही है कि इस समारोह में कई लोग अनुपस्थित भी रहे। कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी ने तो समारोह से दूरी बनाई ही, पड़ोसी राज्यों-उड़ीसा और सिक्किम के मुख्यमंत्री भी शामिल नहीं हुए। तमिलनाडु की कद्दावर मुख्यमंत्री जे. जयललिता शायद खुद अपने मंत्रिमंडल के गठन में कुछ ज्यादा ही व्यस्त थीं। चाहे जो भी न आया हो और इसके लिए चाहे जैसे तर्क दिए जाएं, लेकिन कोलकाता में राज्यों के नेताओं का जैसा जमावड़ा हुआ उसने नि:संदेह इन अटकलों को गर्मा दिया है कि दिल्ली, बिहार और पश्चिम बंगाल के चुनावों के बाद राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में कुछ न कुछ घटित हो रहा है, जो भाजपा का एक व्यावहारिक राष्ट्रीय विकल्प दे सकता है। 1किसी भी नतीजे पर पहुंचने के पहले यह नोट करना महत्वपूर्ण है कि कम से कम तीन मॉडल हैं जिनका लगभग एक साथ इस्तेमाल किया गया है। पहला मॉडल पूर्ववर्ती संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का है। यह मॉडल कांग्रेस की प्राथमिकता है। इसमें कांग्रेस प्रभावशाली भूमिका में होती है और तमाम क्षेत्रीय दल उसके साथ गठबंधन में शामिल होते हैं। इनमें द्रमुक से लेकर वामदल और राजद सरीखे दल सहयोगी की भूमिका में होते हैं। इस मॉडल में कांग्रेस का घटता रुतबा झलकता है, लेकिन इसके बावजूद वह राष्ट्रीय राजनीति की एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में अपनी भूमिका को कायम रखती है। दूसरा मॉडल वह है जिस पर नीतीश कुमार जोर दे रहे हैं। इसके तहत गठबंधन क्षेत्रीय स्तर पर किया जाता है और परिस्थितियों के अनुसार प्रभावशाली दल अथवा सहयोगी की भूमिका बदलती रहती है। इसी के तहत हालिया बिहार चुनाव में राजद और उसका सहयोगी दल जदयू सीनियर पार्टनर की भूमिका में थे और कांग्रेस स्पष्ट रूप से उनके छोटे सहयोगी के तौर पर थी। नीतीश कुमार को उम्मीद है कि इस प्रयोग को उत्तर प्रदेश में भी सफलतापूर्वक आजमाया जा सकता है, जहां सपा सीनियर पार्टनर की भूमिका में होगी। पंजाब में भी यह काम हो सकता है, जहां कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का गठबंधन हो सकता है। नीतीश कुमार के लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा और उसके नेतृत्व वाले राजग को राज्यों के चुनाव में पराजित किया जाए। इससे 2019 के आम चुनाव के लिए मंच तैयार होगा, जिसमें राज्यों के चुनाव नतीजों का समग्र असर नरेंद्र मोदी सरकार को हराने के लिए पर्याप्त होगा। इसके बाद केंद्रीय गठबंधन की प्रकृति और उसके नेता का चयन बातचीत के माध्यम से तय किया जा सकेगा। भाजपा से नफरत करने वाले नीतीश कुमार साफ तौर पर खुद को भविष्य के प्रधानमंत्री के तौर पर देख रहे हैं। यह वह परियोजना है जिसे लालू प्रसाद का भी समर्थन हासिल है, क्योंकि बिहार में वह खुद सबसे बड़े नेता बने रहना चाहते हैं। 1इसके बाद तीसरा मॉडल ममता बनर्जी का है, जिसे फेडरल फ्रंट कहा जा रहा है। इस मॉडल के अनुसार एक ऐसा राष्ट्रीय गठबंधन बनना चाहिए जिसमें न तो कांग्रेस हो, न भाजपा और न ही वामदल। ममता के फेडरल फ्रंट में उम्मीद का आधार 2014 के आम चुनाव में पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, तमिलनाडु, आंध्र और तेलंगाना के नतीजे हैं, जहां क्षेत्रीय दलों ने न केवल जीत हासिल की, बल्कि राष्ट्रीय दलों को अपने यहां घुसपैठ करने से रोक दिया। अगर 2019 में क्षेत्रीय दलों के लिए वैसे ही नतीजे आते हैं जैसे 2014 में आए थे और बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली में उनकी जीत होती है तो केंद्र में क्षेत्रीय दलों के गठबंधन में कुछ भरपाई हो सकती है। जहां नीतीश गठबंधन का आधार कथित सेक्युलरिज्म और भाजपा विरोध को मानते हैं वहीं ममता की नजर में एकता का आधार संघवाद के सिद्धांत हो सकते हैं। 1कागजों पर इन तीनों गठबंधनों की अपनी चुनावी व्यावहारिकता है, हालांकि इसमें दो अड़चनें भी हैं। सबसे पहली बात तो क्षेत्रीय दलों की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि कांग्रेस लोकसभा में अपनी मौजूदा 45 सीटों तक सिमटी रहे और अपने राष्ट्रीय पुनर्जीवन की सभी उम्मीदें छोड़ दे। इस गठबंधन में यह धारणा भी छिपी है कि सभी क्षेत्रीय दल अपने गढ़ों में क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता को भुलाकर एक व्यापक राष्ट्रीय उद्देश्य से एकजुट हो जाएंगे। यह बात अलग है कि जनता परिवार की प्रस्तावित एकता का जैसा हश्र हुआ उसे देखकर तो यही लगता है कि यह काम कहने में जितना आसान है, करने में उतना ही कठिन। इन सबके ऊपर एक बड़ा सवाल अंकगणित और केमेस्ट्री का भी है। क्षेत्रीय दलों का इस तरह का गठबंधन तभी सबसे अच्छे तरीके से काम करता है जब दबदबे वाली पार्टी सिकुड़ रही हो और कोई अन्य राष्ट्रीय विकल्प उभरने की सूरत नजर न आ रही हो। क्या भारत 2019 में एक खिचड़ी सरकार चाहता है, यह बहस का विषय है। फेडरल फ्रंट जैसी दूर की कौड़ी पर अपनी ऊर्जा खपाने के बजाय ममता बनर्जी के लिए बेहतर यही है कि वह सारा जोर पश्चिम बंगाल की ज्वलंत समस्याओं के समाधान पर लगाएं और इसके बाद दिल्ली की तरफ देखें। इसी सलाह से नीतीश कुमार का भी भला होगा। 1(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और राज्यसभा के सदस्य हैं)(Dainik jagran)

Saturday 28 May 2016

प्रेस की आजादी और हमारा रिकॉर्ड (रामचन्द्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार)

मैं 1988 के पूर्वार्द्ध में उत्तराखंड में शोध कर रहा था, जब उसी क्षेत्र में एक बहादुर नौजवान पत्रकार की हत्या की खबर आई। उसका नाम उमेश डोभाल था। उसने शराब माफिया, पुलिस, आबकारी विभाग व स्थानीय राजनेताओं की सांठगांठ का पर्दाफाश किया था। उसे शराब ठेकेदारों के भाड़े के हत्यारों ने मारा था।
1988 के उत्तरार्द्ध में मैं दिल्ली में रह रहा था, जब लोकसभा द्वारा प्रेस की आजादी को नियंत्रित करने के लिए एक बिल पास किया गया। यह बिल राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार लेकर आई थी। इसकी वजह बोफोर्स घोटाले और उसके अलावा भी भ्रष्टाचार की कई खबरों का अखबारों में छपना था। इस बिल में मानहानि की बहुत कड़ी व्याख्या की गई थी, ताकि जिन लोगों पर भ्रष्टाचार या अन्य अपराधों के आरोप हों, वे अपने बारे में खबरें छपने से रुकवा सकें। इस बिल के मुताबिक, अगर किसी संवाददाता के खिलाफ कोई आरोप लगता है, तो सिर्फ उसे ही नहीं, बल्कि संपादक, प्रकाशक और मुद्रक को भी अदालत में पेश होना पड़ेगा।
जो लोग उमेश डोभाल की हत्या के लिए जिम्मेदार थे, वे कभी पकड़े नहीं जा सके, क्योंकि पुलिस और राजनेताओं की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन राजीव गांधी सरकार के लाए प्रेस विधेयक का भारी विरोध हुआ और देश भर में उसके खिलाफ आंदोलन हुए। इसके बाद राज्यसभा में पेश किए जाने के पहले ही वह बिल वापस ले लिया गया। मुझे ये घटनाएं इसलिए भी याद हैं, क्योंकि तभी मैंने अखबारों में लिखना शुरू किया था। अभी इनकी याद आने की वजह यह है कि पिछले दिनों बिहार के सीवान जिले में एक पत्रकार की हत्या हो गई और दिल्ली पुलिस ने एक अन्य पत्रकार को संभवत: केंद्रीय गृह मंत्रालय के आदेश से गिरफ्तार कर लिया। पहला मामला उमेश डोभाल के मामले की याद दिलाता है। राजदेव रंजन नामक इस पत्रकार को भाडे़ के हत्यारों ने तब गोली मार दी, जब वह काम से घर लौट रहे थे। दूसरे मामले की समानता राजीव गांधी के प्रेस बिल से की जा सकती है, क्योंकि इसमें भी सरकार की बदला लेने की प्रवृत्ति शामिल है। इस पत्रकार ने सरकार के आयुष मंत्रालय की आलोचना करते हुए एक खबर छापी थी। अखबार ने मंत्रालय से यह वादा भी किया था कि अगर वे खबर का खंडन भेजेंगे, तो उसे पूरा-पूरा छापा जाएगा। बजाय खंडन भेजने के अखबार और पत्रकार को अदालत में मानहानि के लिए घसीटा गया और पत्रकार की गिरफ्तारी भी की गई।
प्रेस भारत में पूरी तरह स्वतंत्र कभी भी नहीं रहा है, लेकिन पिछले दो दशकों से इसकी आजादी और कम हो गई है। पिछले महीने जारी अंतरराष्ट्रीय 'प्रेस की आजादी के पैमाने' पर 180 देशों में भारत 133वें स्थान पर था। देशभक्त पत्रकार इस बात से खुश हो सकते हैं कि भारत एक साल में 136 से 133वें स्थान पर आ गया और ऐसे लोगों के लिए सबसे घृणास्पद देश पाकिस्तान और चीन हमसे भी पीछे हैं। इस रैंकिंग के साथ जो रपट आई है, उसमें कहा गया है कि भारत में पिछले कुछ महीनों में पत्रकारों को बड़े पैमाने पर धमकियों और हिंसा का सामना करना पड़ा है। खासतौर पर दक्षिणपंथी गुट इसमें आगे हैं। इससे मौजूदा हिंदू राष्ट्रवादी सरकार के राज में प्रेस की आजादी को लेकर संदेह पैदा होता है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन धमकियों और समस्याओं के प्रति उदासीन दिखते हैं और पत्रकारों की रक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब जो भी गुजरात में रहा हो या गया हो, उसे इस बात से कोई आश्चर्य नहीं होगा।
सच्चाई यह है कि बाकी पार्टियां भी इस मामले में कोई बेहतर नहीं हैं। राजीव गांधी की चर्चा पहले ही हो चुकी है और उनकी मां की प्रेस के प्रति अवज्ञा जगजाहिर है। जब भारत में अंग्रेज राज कर रहे थे और कांग्रेस आजादी के आंदोलन की अगुवाई कर रही थी, तब वह लगातार प्रेस की आजादी के लिए जूझती रही थी। तिलक, गांधी और नेहरू जैसे उसके महान नेता खुद पत्रकार और संपादक थे। लेकिन जब कांग्रेस 1947 में सत्ता में आई और खासकर इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद आजाद और सक्रिय प्रेस की बजाय एक पालतू और हां में हां मिलाने वाले प्रेस को बढ़ावा देने की कोशिश की गई।
क्षेत्रीय पार्टियों का रिकॉर्ड शायद इससे भी खराब है। उमेश डोभाल और राजदेव रंजन जैसे अनेक पत्रकारों की मौत राज्य सरकारों की उपेक्षा या मिलीभगत का नतीजा है। कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है और पत्रकारों पर हमला करने वाले अक्सर राज्य स्तरीय नेताओं के सरंक्षण में होते हैं। विज्ञापन देना और रोक लेना एक ऐसा हथियार है, जिसका इस्तेमाल राज्य सरकारें प्रेस को नियंत्रित करने के लिए बखूबी करती हैं। क्षेत्रीय अखबार सरकारी विज्ञापनों पर काफी निर्भर रहते हैं। अगर ये अखबार सरकार की जायज आलोचना भी करते हैं या उसके किसी काम को गलत ठहराते हैं, तो उनके विज्ञापन रोक लिए जाते हैं या जो विज्ञापन पहले दिए जा चुके हैं, उनके भुगतान में दिक्कतें होती हैं।
प्रेस की आजादी को दबाने के इस कारोबार के संदर्भ में अंग्रेजी प्रेस या तो अपने में सिमटी रहती है या कभी-कभी शामिल भी हो जाती है। अपने वातानुकूलित स्टूडियो में बैठे दिल्ली और मुंबई के संपादक और एंकर भारत की आम कठिन परिस्थिति से अलग रहते हैं। उन्हें न मालूम होता है, न वे जानने की कोशिश करते हैं कि भाषायी पत्रकार किन कठिन परिस्थितियों में काम करते हैं। बस्तर जैसे इलाकों में पत्रकारों का उत्पीड़न, आयुष मंत्रालय की आलोचना करने वाले पत्रकार की गिरफ्तारी, प्रेस की आजादी के पैमाने पर भारत का फिसड्डी होना, ये सारे मुद्दे प्राइम टाइम खबरों में कभी नहीं आते।
जो लोग भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए फिक्रमंद हैं, उन्हें इस पर सोचना चाहिए। प्रेस की आजादी देश और उसके नागरिकों की सुरक्षा, समृद्धि और खुशहाली के लिए अनिवार्य है। सन 1824 में महान भारतीय उदारवादी सुधारक राम मोहन राय ने प्रेस की आजादी पर रोक लगाने के खिलाफ बंगाल सरकार को एक अर्जी लिखी थी। उन्होंने लिखा, 'किसी भी अच्छे शासक को, जिसे इंसानी स्वभाव की कमजोरियों का एहसास हो और जिसे परमेश्वर के प्रति आस्था हो, इस विशाल साम्राज्य को चलाने में गलती हो सकने का अंदेशा होना चाहिए। इसलिए उसे हर व्यक्ति को यह सुविधा देनी चाहिए कि वह गलतियों को शासक तक पहुंचा सके। इस महत्वपूर्ण उद्देश्य के लिए अभिव्यक्ति की अनिर्बाध आजादी सबसे प्रभावशाली माध्यम है।'
भारत अब एक आजाद देश है। अब इसे चुने हुए लोग चला रहे हैं। ऐसे में, राम मोहन राय की चेतावनी ज्यादा प्रासंगिक है। ममता बनर्जी को इन वाक्यों को मढ़वाकर अपनी मेज पर रखना चाहिए और ऐसा ही अन्य मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री को भी करना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
(हिंदुस्तान)

Friday 27 May 2016

आदिवासियों की पुकार (आशीष कुमार ‘अंशु’)

जब किसी राय में नई सरकार का गठन होता है, राय में सरकार के समक्ष आने वाली चुनौतियों की चर्चा जरूर होती है। यदि केरल का उदाहरण लें तो इस एक राय के अंदर दो राय हैं। एक जहां गैर आदिवासी रहते हैं। जो संपन्न हैं, जिसकी चर्चा हम और आप पढ़ते हैं और आपस में बातचीत करते हुए चर्चा करते हैं और दूसरा वह क्षेत्र जहां आदिवासी रहते हैं। जिसकी चर्चा मीडिया में कम ही हो पाती है। आदिवासी क्षेत्र में लगातार जब नवजात शिशुओं की मृत्यु होती है, उस वक्त कुछ मीडिया वालों को और केरल के नेताओं को जरूर आदिवासियों की याद आती है लेकिन वह भी अधिक समय के लिए नहीं।
यह सच है कि केरल की पहचान शिक्षित-संपन्न और तेजी से विकास कर रहे राय के तौर पर पूरे देश में है लेकिन क्या केरल के आदिवासी क्षेत्रों तक ‘डेवलपमेन्ट’ का डी भी पहुंचा है? क्या केरल के अंदर आदिवासियों की सामाजिक-आर्थिक हालत बेहतर हैं? क्या केरल में आदिवासियों के बीच साक्षरता की स्थिति संतोषजनक है? क्या आदिवासी क्षेत्रों में गरीबी उन्मूलन हो पाया? जन स्वास्थ्य की स्थिति बेहतर हो पाई? इस भेदभाव पर विचार करना जरूरी है।
क्या केरल में सबकुछ उतना ही साफ सुथरा है जैसा कि दिल्ली से नजर आता है? इस बात को केरल के सामाजिक कार्यकर्ता तो कम से कम मानने को तैयार नहीं हैं। वे बताते हैं कि किस प्रकार आदिवासी क्षेत्रों में शिशु मृत्यु और आदिवासी परिवारों में कुपोषण बढ़ता जा रहा है। आदिवासियों को सस्ते दरों पर चावल जरूर मिलता है लेकिन यह कोई भी अछा डायटिशियन बता सकता है कि सिर्फ चावल के दम पर कुपोषण के खिलाफ आदिवासी क्षेत्रों में कोई लड़ाई नहीं जीती जा सकती है। अछे स्वास्थ्य के लिए प्रोटीन भी चाहिए। कुपोषण और एनीमिया आदिवासी क्षेत्रों में सामान्य स्वास्थ्य संबंधी समस्या बन गई हैं। पिछले पांच सालों में सिर्फ केरल के एक जिले पालक्कड़ में 595 नवजात शिशुओं की मौत हुई है। यह सच है कि सोमालिया की स्थितियां भारत से अलग हैं लेकिन क्या केरल में आदिवासियों की जो स्थिति है, उसकी तरफ से आंखे फेर लेना सही होगा? अट्टापड़ी प्रखंड में अधिकांश आदिवासी बचों का विकास अवरुद्ध है। अभी जिस पार्टी की सरकार केरल में बन रही है, उनके बड़े नेता वीएस अयूतानंदन भी मानते हैं कि आदिवासियांे के जीवन में सुधार के लिए कई तरह के पैकेज की घोषणा जरूर हुई है, लेकिन पैकेज का पैसा आदिवासी प्रखंड, तहसिल, गांवों तक नहीं पहुंचता। अब अयूतानंदजी की पार्टी सरकार में है। बयान उन्होंने विपक्ष में रहते हुए दिया था। ऐसे में क्या राय के आदिवासी इस बात के लिए आश्वस्त हो सकते हैं कि उनके जीवन में इस नई सरकार के आने से नई सुबह आएगी।
इकॉनॉमिक सर्वे 2015-16 के अनुसार केरल में शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार बचों पर 12 है, जो पूरे देश में सबसे कम है। जिसके लिए देश भर में केरल की तारीफ भी होती है लेकिन यदि बात केरल के ही अंदर आदिवासी परिवारों की करें तो वहां प्रति 1000 बचों पर यह संख्या 60 हो जाती है। विश्व बैंक के डाटा के अनुसार सोमालिया में शिशु मृत्यु दर 85 है। केरल में गैर आदिवासी क्षेत्रों में शिशु मृत्यु दर 12 और आदिवासी क्षेत्रों में 60 के बीच के अंतर पर केरल के नए बने मुख्यमंत्री को अवश्य विचार करना चाहिए। केरल की पहचान देश में एक साक्षर राय के तौर पर है लेकिन केरल में आदिवासी लड़कियों के बीच साक्षरता की दर 50 फीसदी से भी कम है। जबकि भारत में औसत साक्षरता दर 74.04 प्रतिशत है। आदिवासी लड़कियों के बीच केरल में साक्षरता की दर भारत के औसत दर से भी कम है।
कुपोषण की बात की जाए तो वर्ष 2012-13 में सिर्फ अट्टापेडी प्रखंड के अंदर कुपोषण की वजह से 63 आदिवासी बचों की मौत हुई। इस मृत्यु के बाद यूपीए की सरकार और राय की कांग्रेस सरकार ने 192 आदिवासी बस्तियों के लिए 400 करोड़ के पैकेज की घोषणा की थी लेकिन उसके बावजूद कुछ खास नहीं बदला।
पिछले साल अट्टापेड़ी प्रखंड में एक मेडिकल कैंप के दौरान 200 कुपोषित बचों की पहचान हुई। अधिकांश आदिवासी शिशु 2.8 किलो से कम थे। मतलब कम वजन के थे। नवजात शिशुओ की मृत्यु की वजह स्पष्ट है। गर्भवति मांओं को सही प्रकार से चिकित्सा सुविधा नहीं मिल पाती और उनके भोजन में पर्याप्त पोषक तत्वों का अभाव होता है। चिकित्सा टीम ने आदिवासी गर्भवति मांओं के लिए सिफारिश की थी कि इन महिलाआंे के लिए संतुलित आहार की व्यवस्था होनी चाहिए, जिसमें पर्याप्त पोषक तत्व मौजूद हों। इनकी नियमित निगरानी और चार्ट बनाकर इनके वजन का ध्यान रखने की जरूरत है।
केरल में आज भी कई ऐसे आदिवासी क्षेत्र हैं, जहां तक स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं पहुंची और गर्भवती महिलाओं को घर में ही प्रसव कराना होता है। उन्हें संस्थागत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। केरल में आवश्यक स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, आंगनवाड़ी की कमी और विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं की विफलता आदिवासी समाज की वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेवार है और आदिवासी लगातार कुपोषण के शिकार हो रहे हैं और उनके बचे कम वजन और मौत के।
मार्च 2015 में केरल के पूर्व मुख्यमंत्री ओमन चांडी का दिया हुआ एक बयान है, जिसमें श्री चांडी कहते हैं कि वे पैसों की कमी की वजह से मरते हुए आदिवासी बचों को बचा नहीं पा रहे हैं। किसी मुख्यमंत्री के द्वारा दिया गया इससे अधिक विचलित करने वाला क्या बयान हो सकता है?
केरल की नई सत्ताधारी पार्टी सिर्फ केरल के आदिवासियांे से किए गए वे सभी वादे पूरे कर दें जो केरल की पिछली सरकारों ने आदिवासियों से किए हैं, केरल के आदिवासियों को नया वादा नहीं चाहिए। वायनाड की आदिवासी नेता सीके जानू ऐसा मानती हैं। केरल में आदिवासी अधिकारों के लिए जो बड़े आंदोलन हुए, उनका एक प्रतिनिधि चेहरा हैं। केरल के श्रीजीत पानिकर अपने ब्लॉग में लिखते हैं- गर्व से भरे मलयालियों द्वारा दूसरे रायों से तुलना करने पर बेशक केरल बेहतर पाया जाता है। ऐसे में हम केरल के आदिवासियों की आर्थिक सामाजिक हैसियत की चर्चा करने वालों की बातों की उपेक्षा करके अपने-अपने अहंकार के साथ अपने अपने घरों में आराम से चादर तानकर सो सकते हैं।
श्रीजीत आगे लिखते हैं- ‘मैं किसी भी गर्वीले मलयाली से कम केरल पर गर्व नहीं करता लेकिन यह समय आत्मनिरिक्षण का है। केरल की सोमालिया से तुलना अतिश्योक्ति हो सकती है लेकिन एक आम केरल वाले से यदि हम केरल के आदिवासियों के जीवन की तुलना करें तो केरल जैसे राय में जहां बेहतरीन साक्षरता, जबर्दस्त स्वास्थ्य सुविधाएं हमें उपलब्ध है, वहां आदिवासियों के साथ हो रहा भेदभाव बहुत गहरा है। आदिवासियों के बीच बढ़ी शिशु मृत्यु दर हम सबके लिए शर्मनाक है। केरल के नेताओं को यहां के आदिवासियों की पुकार सुनाई क्यों नहीं दे रही जो एक आम मलयाली सुन पा रहा है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(दैनिक जागरण)

दो ध्रुवों के गर्द और गुबार में (हरजिंदर, हेड-थॉट, हिन्दुस्तान)

पिछले दो साल में जैसे कुछ भी नहीं बदला। मई, 2014 को याद कीजिए और फिर आज अपने आस-पास देखिए। लगता है, जैसे पूरा देश पिछले दो साल से एक निरंतर इलेक्शन मोड से गुजर रहा है। भाषण अब भी हो रहे हैं। वादे अब भी किए जा रहे हैं।
आरोप-प्रत्यारोप अब भी उसी तरह उछल रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह कि जिन्होंने उम्मीदें बांधी थीं, वे अभी सातवेें आसमान से उतरे नहीं हैं और शक व शुबहा पालकर बैठे लोगों का अवसाद अभी उनकी रगों में पहले की तरह ही दौड़ रहा है। ऐसा शायद पहले कभी नहीं हुआ। देश में चुनाव पहले भी होते थे। वे एक मियादी बुखार की तरह आते और पूरे देश में दो-तीन तरह के आवेश बांटकर कभी पतझड़, कभी सावन का एहसास कराते हुए निपट जाते थे। फिर सब कुछ पहले जैसा ही चलने लगता था। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। इस बार वे हवाएं रुखसत नहीं हुईं, जिन्होंने दो साल पहले आंधी की गति से बहुत कुछ बदल डाला था।
पूरे दो साल में इस बात का यकीन करने वालों की संख्या में बहुत कमी नहीं आई है कि नरेंद्र मोदी देश की व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव करने जा रहे हैं। वे पूरी ईमानदारी से मानते हैं कि आजादी के बाद 67 साल में जो हासिल न हो सका, अब यह देश उससे कहीं ज्यादा पर काबिज होने जा रहा है। और भ्रष्टाचार को तो सरकार ने लगभग खत्म ही कर दिया है। वे मानते हैं कि अब भारत को विश्व शक्ति बनने से कोई नहीं रोक सकता, इसलिए तिरंगे के साथ भारत माता की जय बोलते हुए वे सोशल मीडिया के नुक्कड़ों और चौराहों पर हर क्षण किसी-न-किसी का बैंड बजाते रहते हैं। उम्मीद एक सकारात्मक चीज है, पर इसकी अति अक्सर नकारात्मक आक्रामकता तक पहुंचा देती है। इसमें कुछ ऐसे भी हैं, जिन्हें पहली बार भारत के पुराने सांस्कृतिक गौरव के लौटने की उम्मीद बंधी है और कुछ ऐसे भी हैं, जिन्हें लगता है कि अब हिंदू हितों पर कोई संकट नहीं आएगा। पर बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो यह मानते हैं कि नरेंद्र मोदी की सरकार अगर इस देश में विकास की नदियां न भी बहा सकी, तो उसे कम-से-कम गुजरात वह बना ही देगी।
दूसरी ओर वे हैं, जो मानते हैं कि अब देश रसातल में गया ही समझिए। हर सुबह सूरज उगने के साथ उन्हें फासिज्म का खतरा उगता हुआ दिखाई देता है और सूर्यास्त होते ही वे सांप्रदायिकता के प्रेतों से निपटने की तैयारी में जुट जाते हैं। उन्हें पूरी ईमानदारी से यह लगता है कि नई दिल्ली में इस समय जो सरकार बैठी है, वह देश के ताने-बाने को तोड़ देगी, उसे अंदर से खोखला कर देगी। यह डर इस कदर हावी है कि कभी इस वर्ग के बुद्धिजीवी सरकारी सम्मान वापसी की झड़ी लगा देते हैं, तो कभी वे इस्तीफे सौंपकर सरकार का रास्ता आसान भी कर देते हैं। उनके लिए सरकार की हर नीति एक छलावा है, उन्हें सरकार के हर कदम में एक षड्यंत्र नजर आता है, वे हर बयान में एक बदनीयती सूंघ लेते हैं।
ऐसा नहीं है कि ये दोनों वर्ग हर जगह एक-दूसरे के विपरीत धरातल पर ही खड़े हैं, कई जगहों पर ये साथ-साथ भी खड़े दिखाई देते हैं। मसलन, दोनों ही मानते हैं कि मीडिया देश की सही तस्वीर नहीं पेश कर रहा। उम्मीद बांधने वाले भक्त गणों को लगता है कि मीडिया देश की विकास यात्रा का भागीदार नहीं बन रहा और सरकार की उपलब्धियों को छिपा रहा है। दूसरी तरफ के लोग मानते हैं कि मीडिया देश की वास्तविक तस्वीर नहीं दिखा रहा, वह बिक गया है और सरकार की उपलब्धियों को बढ़़ा-चढ़ाकर दिखा रहा है।
लगभग यही सोच न्यायपालिका के बारे में है। और तो और, देश के वित्त मंत्री भी कह रहे हैं कि न्यायपालिका कदम-दर-कदम सरकार के कामों में बाधा पहुंचा रही है। इसके विपरीत, यह भी कहा जा रहा है कि लगातार सांप्रदायिक होते माहौल में न्यायपालिका से लोगों को न्याय नहीं मिल पा रहा। मीडिया और न्यायपालिका में सब कुछ अच्छा हो ऐसा नहीं है, लेकिन इन संस्थाओं की समस्याएं कोई ऐसा भाव भी नहीं हैं, जिसे इन्होंने पिछले दो साल में अपनाया हो। सेनाएं जब युद्धभूमि में आमने-सामने खड़ी होती हैं, तो दोनों तरफ सबसे बड़े खलनायक वही माने जाते हैं, जो तटस्थ होते हैं।
दिक्कत इसमें है कि युद्धभूमि का यह परिदृश्य तब है, जब उसकी कोई जरूरत नहीं है। यह ठीक है कि बीच-बीच में राज्यों के चुनाव आते-जाते रहते हैं, इन मौकों पर कई तरह के छोटे-बड़े मोर्चे खोलने की जरूरत पड़ती रहती है, लेकिन अगर केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकार हो, तो अखिल भारतीय स्तर पर घनघोर बारिश व अतिशय उबाल के मौके पांच साल बाद ही आने चाहिए। चुनाव काल का उबाल अमूमन खुद ही शांतिकाल की तरलता में बदल जाता है, पर इस बार यह नहीं बदल रहा है। या राजनीति इसे बदलने नहीं दे रही। जो भी हो, देर-सवेर यह उन्हीं के लिए घातक हो सकता है, जो इसे हवा दे रहे हैं।
अतिशय उम्मीदें भी उतनी ही निरर्थक हैं, जितने कि अतिशय संदेह। भारत का एक सच यह है कि यहां बहुत सारी अच्छी संभावनाएं भी हमें एक हद से ज्यादा तेजी से आगे नहीं ले जा पातीं, और आशंकाएं हमें एक हद से ज्यादा पीछे नहीं ले जा पातीं। ऐसा नहीं लगता कि हाल-फिलहाल में यह यथार्थ बहुत ज्यादा बदलने जा रहा है।
यह ठीक है कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने बहुत सारी अच्छी-अच्छी योजनाएं बनाई हैं, मगर योजनाओं के ये बम जब नौकरशाही और सरकारी तंत्र की भुरभुरी जमीन पर गिरेंगे, तो कई फुस्स ही होंगे। कुछ योजनाएं अच्छी भी चलेंगी और कुछ का हश्र वही होगा, जो स्वच्छ भारत का हुआ। एक निर्विवाद योजना को नेताओं ने फोटो खिंचवाने और छपवाने का मौका बनाकर छोड़ दिया। यही हाल आशंकाओं का भी है। ऐसा कई बार लगता है कि देश गलत दिशा या अति की ओर जा रहा है, लेकिन वह अति की ओर जाता नहीं। असम समस्या, पंजाब समस्या या कई प्रदेशों के भीषण सांप्रदायिक दंगे और उनके बाद के हालात यही बताते हैं कि देश के जनमानस में किसी भी अति से सामान्य स्थिति में लौट आने की अद्भुत क्षमता है। यहां तक कि आपातकाल जैसी कठिन स्थिति से भी देश ने अपने को बाहर निकाल लिया। राजनीतिक दलों के लिए फिलहाल अच्छा यही है कि वे अतिशय उम्मीदों और डर के गुबार से अपना आधार बनाने की बजाय, इसके लिए सचमुच जमीन पर काम करें। दो चुनावों के बीच का अंतराल इसीलिए होता है। ताल ठोंकने का मौका तो तीन साल बाद फिर आएगा ही।
(हिंदुस्तान )

Thursday 26 May 2016

अर्थव्यवस्था के साथ रुतबा भी बढ़ा (वेंकैया नायडू )

घोटालों सेदागदार दशकभर के शासन के बाद भारत अब चहुंमुखी बदलाव देख रहा है। अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में रौनक लौटी है और जैसे-जैसे देश सब के लिए बेहतर जीवन के आश्वासन के साथ सकारात्मक बदलाव की दिशा में प्रधानमंत्री के विज़न और मिशन को अमल में लाने के लिए आगे बढ़ रहा है, इन क्षेत्रों में व्यावसायिक गतिविधियां बढ़ी हैं। अब जब एनडीए सरकार आज सत्ता में दो साल पूरे कर रही है तो समय गया है कि इसके कार्यकाल का आकलन किया जाए।
दुर्भाग्य से नीतिगत पंगुता के लिए रेखांकित किए गए यूपीए के कमजोर शासन के लंबे दौर ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि को चोट पहुंचाई। जहां भ्रष्टाचार अपने चरम पर था, विभिन्न संस्थाओं की साख घटाई गई और उनका महत्व इतना कम कर दिया गया कि स्थिति उलटना कठिन हो गया। अर्थव्यवस्था की हालत खराब थी और बहुत बड़ा वित्तीय, राजस्व, चालू खाते का घाटा और व्यापार घाटा मुंह बाये खड़ा था। सबसे खराब बात तो यह थी कि विश्वास का भी बहुत बड़ा अभाव था। इन परिस्थितियों में जनता ने एनडीए को भारी बहुमत के साथ सत्ता सौंपी। यूपीए की विरासत के दुष्कर बोझ के बावजूद एनडीए सरकार सत्ता के सूत्र संभालते ही सुशासन और विकास पर ध्यान केंद्रित कर अपने काम में लग गई।
आगे बढ़ने के पहले मैं यह ध्यान दिलाना चाहूंगा कि संघीय गणराज्य में केंद्र सरकार नीतियां बनाती है पैसा जारी करती है, जबकि राज्य सरकारें और स्थानीय स्वशासन संस्थाएं इन्हें जमीनी स्तर पर लागू करती हैं। जब से एनडीए सरकार सत्ता में आई है, हमने असहयोगात्मक रवैया रखने वाली कांग्रेस के कारण मौजूद सीमाओं के बावजूद सुधारों को आगे बढ़ाने और गुणात्मक परिवर्तन के लिए सर्वश्रेष्ठ प्रयास किए, जबकि कांग्रेस ने बार-बार राज्यसभा में अहम विधेयक रोककर रखे। जाहिर है कि कांग्रेस अब भी जनादेश स्वीकार नहीं कर पाई है और लगातार मोदीजी, उनके विज़न और उनकी उपलब्धियों के प्रति असहिष्णु बनी हुई है।
विपक्ष द्वारा पैदा की गई बाधाओं से अविचलित रहकर दृढ़ प्रतिज्ञ प्रधानमंत्री कई आउट-ऑफ-बॉक्स आइडिया लाए और वे ही कई अन्य कदमों के साथ स्वच्छ भारत, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, (जिसका उद्‌देश्य लैंगिक संतुलन स्थापित करना है), मुद्रा बैंक, वित्तीय समावेश और सामाजिक सुरक्षा के उपायों के पीछे की संचालन शक्ति रहे हैं। अलग हटकर विचार लाने का ही एक उदाहरण मिट्‌टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए शत-प्रतिशत नीम वाले यूरिया का उत्पादन और गैर-कृषि कार्यों में इसके उपयोग को रोकना है। 2015-16 में यूरिया का अब तक का सर्वाधिक 245 लाख मीट्रिक टन उत्पादन हुआ है। एनडीए का एकमात्र मंत्र है 'विकास..विकास और विकास' तथा आगे भी यही रहेगा। 'स्किल इंडिया' यानी हुनरमंद युवाओं के भारत के उनके विज़न के हिस्से के रूप में कौशल विकास उद्यमिता मंत्रालय गठित किया गया है।
दुनिया की अर्थव्यवस्था जहां सुस्त पड़ रही थी, भारतीय अर्थव्यवस्था में पुनर्जीवन लौटने लगा। आर्थिक स्थिति पर संयुक्त राष्ट्र की ताज़ा रिपोर्ट में भारत की जीडीपी वृद्धि दर 2016 2017 में क्रमश: 7.3 7.5 फीसदी रहने की बात कही गई है, जबकि इस दौरान चीन की दर क्रमश: 6.4 6.5 फीसदी रहेगी। इससे पता चलता है कि अर्थव्यवस्था को कितनी दक्षता से संभाला जा रहा है। भारत का रुतबा बढ़ा है और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 48 फीसदी से बढ़ा है। जून 2014 में मैन्युफेक्चरिंग 1.7 फीसदी से बढ़ रही थी, जबकि 2016 में यह दर 12.6 फीसदी हो गई है। महंगाई काबू में आई है और भारत का विदेशी मुद्रा भंडार अब तक के रिकॉर्ड 363.12 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। 2015-16 के पहले 11 महीनों में ही 51.64 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश देश में आया। विदेश नीति के मोर्चे पर तो व्यापक बदलाव आया है और मोदीजी ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे जैसे विश्व नेताओं से व्यक्तिगत तालमेल स्थापित किया है। साथ ही उन्होंने विदे में बसे भारतवंशियों से जुड़कर उन्हें देश के विकास में भागीदार बनने को प्रेरित किया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और परमाणु आपूर्ति समहू में प्रवेश के लिए बड़ी शक्तियों ने समर्थन दिया है। ऑस्ट्रेलिया-कनाडा भारत को यूरेनियम देने पर सहमत हुए हैं। जलवायु वार्ता में कॉर्बन उत्सर्जन घटाने का भारत का फॉर्मूला स्वीकार हुआ और प्रधानमंत्री ने सौर ऊर्जा से धनी 121 देशोंे के सोलर अलायंस के गठन की पहल की। केवी कामथ का ब्रिक देशों की बैंक का पहला प्रेसीडेंट बनना भी उपलब्धि है। प्रधानमंत्री की कूटनीतिक पहल से इराक, यमन, लीबिया और यूक्रेन में फंसे 18 हजार भारतीयों को निकाला गया। यूएन में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस और भारत-बांग्लादेश भू-हस्तांतरण संधि भी मील के पत्थर हैं।
कल्याणकारी कार्यों में पूर्व सैनिकों के लिए 'वन रैंक, वन पेंशन' योजना लागू होना भी उल्लेखनीय है। मार्च अंत तक 15.9 लाख पेंशनभोगियों को पहली किस्त मिल चुकी है। आधारभूत ढांचे की बात करें तो पूर्ववर्ती सरकार के दौरान फंसे 3.8 लाख करोड़ के रोड प्रोजेक्ट में से 3.5 लाख करोड़ के प्रोजेक्ट शुरू हो चुके हैं। सड़क निर्माण 2014-15 के 8.5 किमी प्रतिदिन से बढ़कर 11.9 किमी प्रतिदिन हो गया है। गांवों में 35 हजार किमी सड़कें बनाई गई हैं, जो पहले से 11 हजार किमी ज्यादा है। कोयले की पारदर्शी नीलामी से राज्यों को 3.44 लाख करोड़ रुपए अधिक मिले हैं। इसी तरह स्पेक्ट्रम नीलामी मेें 1.10 लाख करोड़ मिले। यूपीए के दौरान 8000 करोड़ का घाटा दिखाने वाले बीएसएनएल ने 2014-15 में 672 करोड़ रुपए का फायदा दिखाया है। डिजिटल इंडिया के लिए 1,18,000 करोड़ के 175 निवेश प्रस्ताव मिले हैं। सहयोगात्मक संघवाद की दिशा में सरकार ने 14वें वित्त आयोग की यह सिफारिश मान ली है कि 42 फीसदी कर आमदनी राज्यों को हस्तांतरित की जाए। प्रधानमंत्री जन-धन योजना के तहत 21.56 करोड़ बैंक खाते खुलना 35,600 करोड़ की राशि जमा होना, छोटे उद्यमों के लिए मुद्रा योजना, 1.13 करोड़ उपभोक्ताओं द्वारा एलपीजी सब्सिडी लेना बंद करना, पांच करोड़ बीपीएल परिवारों को मुफ्त एलपीजी की उज्ज्वला योजना अन्य मील के पत्थर हैं। यहां तक कि संसद की उत्पादकता में भी बढ़ोतरी हुई है। पिछले दो वर्षों में लोकसभा की 149 और राज्यसभा की 143 बैठकें हुई हैं। जहां लोकसभा ने 96 बिल पारित किए हैं तो राज्यसभा ने 83 विधेयकों को हरी झंडी दिखाई है। राज्यसभा में अब भी 44 बिल लंबित हैं। इस प्रकार औसतन हर वर्ष 48 बिल पारित हुए जबकि कांग्रेस सरकार का औसत 45.1 ही था।
साफ है कि प्रधानमंत्री के मार्गदर्शन में नीतिगत पंगुता का स्थान, निर्णय क्षमता ने लिया है। एनडीए सरकार विकास में राज्यों को 'टीम इंडिया' की भावना के तहत भागीदार बनाना चाहती है। सरकार ने जो दिशा ग्रहण की है, उससे जाहिर है कि देश एक अच्छे प्रशासक, सुधारक, काम करने वाले प्रदर्शक और रूपांतरण लाने वाले नेता के हाथों में महफूज़ है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।) (दैनिक भास्कर )

भारत-ईरान संबंधों की नई उड़ान (प्रमोद भार्गव)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ईरान यात्र द्विपक्षीय संबंधों के लिहाज से बेहद अहम् है। कोई दो राय नहीं कि भारत और ईरान के बीच जो 12 समझौते हुए हैं, वे हमारी कूटनीतिक में सफलता का नया अध्याय जोड़ने वाले साबित होंगे। यह यात्र इसलिए भी ऐतिहासिक है, क्योंकि अमेरिका की टेढ़ी नजर को दरकिनार करते हुए मोदी ने तेहरान की यात्र की है। यह इस बात का संकेत है कि भाजपा धीरे-धीरे स्वतंत्र और देश हितैशी सोच पर अधारित संतुलित कूटनीति को आगे बढ़ा रही है। साफ है, हमारी कूटनीति पर जो अमेरिकी छाया दिख रही थी, भारत ने उससे मुक्ति की ओर कदम बढ़ाया है। 12 समझौतों में बंदरगाह और गैस से जुड़े समझौते तो अहम् हैं ही, आतंकवाद से मिलकर मुकाबला करने की जो प्रतिबद्धता ईरान ने जताई है, वह भारत के लिए बेहद हितकारी है। इससे जहां पाकिस्तान को गहरा झटका लगा है, वहीं चीन भी चाबहार बंदरगाह का भारत द्वारा विकास किए जाने की संधि को लेकर सकते में है।
ईरान से भारत के संबंध अनूमन ठीक-ठाक रहे हैं। ईरान-ईराक युद्ध और फिर गोपनीय परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के ऐबज में ईरान दुनिया से अलग-थलग पड़ने लग गया। अहमदी नेजाद के राष्ट्रपति रहते हुए, ईरान के अमेरिका से कटुता के संबंध बन गए थे, इस कारण संयुक्त राष्ट्र ने ईरान पर कई तरह के आर्थिक प्रतिबंध लगाने के साथ 100 अरब डॉलर की संपत्ति भी जब्त कर ली थी। तेल और गैस बेचने पर भी रोक लगा दी थी। गोया, ईरान के राष्ट्रपति जब हसन रूहानी बने तो हालात बदलना शुरू हुए। दूसरी तरफ पश्चिमी एशिया की बदल रही राजनीति ने भी ईरान और अमेरिका को निकट लाने का काम किया। नतीजतन अमेरिका समेत पश्चिमी देशों से ईरान के संबंध सुधरने लगे। रूहानी ने विवादित परमाणु कार्यक्रम को बंद करने का भरोसा देकर माहौल अनुकूल बना लिया।
अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे, तब 2003 में ईरान के तात्कालीन राष्ट्रपति मोहम्मद खातमी दिल्ली आए थे। तभी भारत और ईरान के बीच चाबहार बंदरगाह को विकसित करने व रेल लाइन बिछाने और कुछ सड़कें डालने के समझौते हो गए थे, लेकिन विवादित परमाणु कार्यक्रम और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां अनुकूल नहीं होने के कारण भारत इन कार्यक्रमों में रूचि होने के बावजूद कुछ नहीं कर पाया था। इस समय भारत को परमाणु शक्ति के रूप में उभरने व स्थापित होने के लिए अमेरिकी सहयोग व समर्थन की जरूरत थी। भारत राजस्थान के रेगिस्तान में परमाणु परीक्षण के लिए तैयार था। परमाणु परीक्षण अप्रत्यक्ष तौर से परमाणु बम बना लेने की पुष्टि होती है। इसके तत्काल बाद पाकिस्तान और उत्तर कोरिया ने भी परमाणु बम बना लेने की तस्दीक कर दी थी। इसी समय भारत परमाणु नि:शस्त्रीकरण की कोशिश में लगा था। इस नाते भारत यह कतई नहीं चाहता था कि ईरान परमाणु शक्ति संपन्न देश बन जाए। गोया, भारत को परमाणु अप्रसार संधि के मुद्दे पर अमेरिकी दबाव में ईरान के खिलाफ दो मर्तबा वोट देने पड़े थे। इन मतदानों के समय केंद्र में मनमोहन सिंह प्रधनमंत्री थे। हालांकि 2012 में तेरहान में आयोजित गुट निरपेक्ष देशों के सम्मेलन में मनमोहन सिंह ईरान गए थे। उन्होंने सम्मेलन के अजेंडे से इतर ईरानी नेताओं से बातवीत भी की थी, लेकिन संवाद की करिश्माई शैली नहीं होने के कारण जड़ता टूट नहीं पाई थी। किंतु अब भारत अमेरिकी दबाव से मुक्त हो रहा है। सौ अरब डॉलर की जब्त की गई संपत्ति पर अधिकार मिलने के बाद ईरान की कोशिश है कि उसकी ठहरी अर्थव्यस्था में गति आए, देश में पूंजी निवेश हो और पुराने मित्रों से नए संबंध बनें। इस नजरिए से चाबहार और ऊर्जा क्षेत्र के समझौते अहम हैं। ईरान के दक्षिणी-पूर्वी तट पर बनने वाले चाबहार बंदरगाह के पहले चरण के विकास में भारत 20 करोड़ डॉलर खर्च करेगा। हालांकि इस परियोजना में कुल निवेश 50 करोड़ डॉलर का होना है। ईरान में भारत के सहयोग से चाबहार से लेकर जाहेदान तक 500 किमी लंबी रेल लाइन भी बिछाई जाएगी। इस संधि का कूटनीति फायदा यह है कि इसके जरिए हमने ग्वादर बंदरगाह के सिलसिले में पाक और चीन को कूटनीतिक जवाब देने का रास्ता तलाश लिया है। दरअसल चीन अपनी पूंजी से इस बंदरगाह का विकास अपने दूरगामी हितों को ध्यान में रखकर कर रहा है। इसके मार्फत एक तो चीन हिंद महासागर तक सीधी पहुंच बनाने को आतुर है, दूसरे खाड़ी के देशों में पकड़ मजबूत करना है। चीन इसी क्रम में काशगर से लेकर ग्वादर तक 3000 किलोमीटर लंबा आर्थिक गलियारा बनाने में भी लगा है। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए चीन पाकिस्तान में 46 लाख अरब डॉलर खर्च कर रहा है। इससे यह आशंका उत्पन्न हुई थी कि चीन इस बंदरगाह से भारत की सामरिक गतिविधियों पर खुफिया नजर रखेगा। अलबत्ता अब भारत को ग्वादर के ईदर्गिद चीन व पाकिस्तानी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए मचान मिल जाएगा। इसके निर्मित होने के बाद भारत और ईरान के बीच व्यापार में आसानी होगी। अफगानिस्तान समेत मध्य-एशियाई देशों तक आयात-निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की पहुंच सुगम होगी। इस सिलसिले में भारत अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए जो विकास परियोजनाएं चला रहा है, उनमें गति आएगी। क्योंकि अब तक पाकिस्तान इन पुनीत कार्यों में रोड़े अटकाता रहा है और चीन भी नहीं चाहता कि भारत के संबंध अफगानिस्तान से मधुर बनें। लेकिन भारत ने चीन समेत उन वैश्विक शक्तियों को अब कूटनीतिक पटकनी दे दी है, जो भारत के मध्य एशियाई देशों से संबंध खराब बनाए रखने की कुटिल चालें चल रहे थे। हालांकि इस बंदरगाह में निवेश के अनुपात में आर्थिक लाभ होगा ही, इसे लेकर आशंकाएं जरूर हैं, क्योंकि ईरान खुद चाबहार के विकास में पूंजी लगाने में कंजुसी बरतता रहा है। जबकि ग्वादर में तेल शोधन संयंत्र लगाने के लिए ईरान चार अरब डॉलर खर्च करने को तैयार है। किंतु चाबहार का सामरिक, रणनीतिक और कूटनीतिक महत्व है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
चाबहार की तरह ही फारस की खाड़ी में खोजे गए बी-गैस क्षेत्र के विकास के अधिकार भारतीय कंपनी ओएनजीसी विदेश लिमीटेड को मिलना अहम् है। इसके अलावा ईरान के ऊर्जा संसाधनों पर भी भारत 20 अरब डॉलर खर्च करेगा। ईरान और भारत के बीच गैस पाइपलाइन बिछाने का प्रस्ताव भी लंबित है। यह लाइन पाकिस्तान होकर गुजरनी है, इसलिए लगता नहीं कि पूरी होगी। गैस व तेल के सिलसिले में हुए नए समझौते के बाद भारत अब बड़ी मात्र में कचा तेल ईरान से ही खरीदेगा। भारत को अपनी खपत का लगभग 80 फीसदी तेल खरीदना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक भारत इस वर्ष करीब 90 लाख टन तेल खरीदेगा। ईरान से तेल खरीदना सस्ता पड़ता है। यहां तेल की कीमत भी अमेरिकी डॉलर की बजाय रुपये में चुकानी होती है। दूसरी मुख्य बात यह है कि भारत के तेल शोधक संयंत्र ईरान से आयातित कचे तेल को परिशोधित करने के लिहाज से ही तैयार किए गए हैं। गोया, ईरान के तेल की गुणवत्ता श्रेष्ठ नहीं होने के बावजूद भारत के लिए लाभदायी है। इन समझौते के अलावा ईरान से वाणिय, पर्यटन, संस्कृति और वहां के विश्व विद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई को लेकर भी करार हुए हैं। इससे हिंदी के पठन-पाठन का क्षेत्र विस्तार होगा। व्यापार संधि के तहत भारत ईरान को बासमती चावल, सोयाबीन, शक्कर, मांस, हस्तशिल्प और दवाएं निर्यात करेगा। इस निर्यात में सभी वस्तुएं तय मूल्य से 20 प्रतिशत अधिक मूल्य पर निर्यात की जाएंगी। इससे भारतीय व्यापार में गति आएगी।
नरेंद्र मोदी का इस्लामिक देशों से द्विपक्षीय मधुर संबंध बनाने के साथ-साथ यह मकसद भी रहता है कि ये देश आतंकवाद के खात्मे की मुहिम में भी भारत का साथ दें। मोदी संयुक्त अरब-अमीरात, सऊदी अरब के साथ खाड़ी के दूसरे देशों को यह अछी तरह से जताते रहे हैं कि आतंकवाद के चलते इन देशों में शांति और स्थिरता कायम नहीं हो सकती है। इसलिए ये देश आतंकवाद के विरुद्ध भारत की लड़ाई में साथ दें। मोदी के इस सुर में तमाम मुस्लिम देश सुर मिलाने भी लग गए हैं। पाकिस्तान को नजरअंदाज कर ईरान ने भारत के साथ सामरिक और रणनीतिक महत्व के हुए समझौते इस तथ्य की तस्दीक हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(Dainik jagran)

Wednesday 25 May 2016

दो साल का कामयाब सफर1 ( हर्ष वी. पंत)

नरेंद्र मोदी की सरकार 26 मई को केंद्र की सत्ता में दो साल पूरे कर लेगी। यह सरकार आम चुनावों में सिर्फ एक नेता नरेंद्र मोदी के दम पर मई 2014 में भारी बहुमत से जीतकर सत्ता में आई थी। इसके दो साल के कार्यकाल को देखें तो सरकार में सिर्फ मोदी ही नजर आते हैं। यहां तक कि विरोधियों में भी कोई दूसरा नेता उनकी लोकप्रियता के आसपास भी नहीं पहुंच पाया है। दरअसल 2014 के आम चुनावों में कांग्रेस को ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा। मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा हासिल करने योग्य भी वह सीटें नहीं ला सकी। यह स्थिति मोदी के लिए मददगार साबित हुई है। जो कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व में देश के बड़े हिस्से पर छह दशकों तक शासन करती रही वह आज बदलते भारत में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है। दरअसल परिवार के लोगों में वह धार नहीं बची है कि वे पार्टी को सशक्त नेतृत्व दे सकें। कांग्रेस के युवा उपाध्यक्ष अपने समर्थकों की तमाम कोशिशों के बाद भी न तो अपने नेतृत्व की क्षमता का प्रदर्शन कर पा रहे हैं और न ही मोदी सरकार को प्रभावी रूप से चुनौती दे पा रहे हैं। वहीं दूसरे विपक्षी दलों का स्वरूप क्षेत्रीय है। उनका राष्ट्रीय स्तर पर कोई प्रभाव नहीं है, जबकि नरेंद्र मोदी का प्रभाव पूरे देश में है। उन्होंने सोशल मीडिया का सफलतापूर्वक इस्तेमाल करके मौजूदा भारतीय राजनीति के महानायक के रूप में अपनी छवि बनाई है। 
यदि सफलता का पैमाना मुख्य विपक्षी पार्टी के सिकुड़ने को बनाया जाए तो इसमें कोई दो राय नहीं कि मोदी सरकार कांग्रेस के दशक भर के शासनकाल में हुए घोटालों को एक-एक कर सामने लाकर पार्टी को रक्षात्मक मुद्रा में लाने में सफल रही है। मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी देश के उन हिस्सों में भी अपना विस्तार कर रही है जहां दो साल पूर्व तक उसका अस्तित्व नहीं था। देश के पूवरेत्तर राज्यों और दक्षिणी राज्य केरल में भाजपा का जनाधार तेजी से बढ़ रहा है। भाजपा सच्चे अर्थो में अखिल भारतीय पार्टी बन रही है। मोदी सरकार का भविष्य आर्थिक मोर्चे पर उसके प्रदर्शन पर निर्भर करेगा। हालांकि इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था बेहतर स्थिति में है। विश्व की कई संस्थाओं ने ऐसा अनुमान व्यक्त किया है कि दुनिया में सबसे तेज गति से आर्थिक विकास करने के मामले में भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है। जब अमेरिकी डॉलर की मजबूती और कमोडिटी की गिरती कीमतों के कारण दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं सिकुड़ने लगी हैं तब भारत की अर्थव्यवस्था फलफूल रही है। उम्मीद है कि 2016 में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7.6 फीसद रहेगी। मोदी सरकार द्वारा देश में मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के कारण भारत ने 2015 में विदेशी निवेश आकर्षित करने के मामले में चीन को पीछे छोड़ दिया। हालांकि देश में कुछ समय से निराशा का दौर रहा है, क्योंकि मोदी ने कोई बड़ा सुधारवादी कदम नहीं उठाया है। वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी ऐसा ही एक प्रमुख सुधारवादी कार्यक्रम है, जो कि संसद में अटका पड़ा है। जीएसटी आने से उत्पाद शुल्क और सेवा कर जैसे सभी अप्रत्यक्ष कर समाप्त हो जाएंगे। अर्थात अलग-अलग अप्रत्यक्ष करों के स्थान पर पूरे देश में जीएसटी की एक दर लागू होगी। इसे एक अप्रैल, 2016 से लागू किया जाना था, लेकिन कांग्रेस पार्टी ने राजनीतिक कारणों से संसद के उच्च सदन में इसे पारित नहीं होने दिया। दरअसल जीएसटी कांग्रेस के दिमाग की उपज थी, लेकिन अब वह सोच रही है कि यदि वह इसकी राह में बाधक बनेगी तो मोदी सरकार आर्थिक मोर्चे पर विफल हो जाएगी। हालांकि राजग सरकार ने दूसरे कई अहम कदम उठाए हैं, जो कि भारतीय अर्थव्यवस्था को दीर्घकाल में फायदा पहुंचाएंगे। दीवालिया संबंधी कानून में संशोधन ऐसा ही एक कदम है। जाहिर है, यह कदम भारत में कारोबार करने को आसान बनाएगा। इसके साथ ही सरकार ने लाभार्थियों के खाते में सीधे नगद रूप में सब्सिडी की रकम भेजने और नकली लाभार्थियों को छांटने के लिए प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण योजना भी लागू की है। नौकरशाही की जवाबदेही सुनिश्चित कर सरकार ने गवर्नेस पर खासा जोर दिया है। यह भविष्य के लिए एक अच्छा संकेत है। 1मोदी सरकार का भ्रष्टाचार पर कड़ा रुख है। एक अनुमान के अनुसार मोदी सरकार के आने के बाद भारत में क्रोनी कैपिटलिज्म में तेज गिरावट दर्ज की गई है। विदेश नीति के मोर्चे पर केंद्र को सबसे ज्यादा सफलता मिली है। इसने दो साल के अल्प समय में अलग छाप छोड़ी है। मोदी भारत को अंतरराष्ट्रीय जगत में प्रमुख शक्ति के रूप में स्थान दिलाना चाहते हैं। गुट निरपेक्षता की बात अब पीछे छूट गई है। दरअसल मोदी सरकार का मुख्य ध्यान समान विचारधारा वाले देशों के साथ मजबूत संबंध स्थापित करने पर है, ताकि भारत को आर्थिक और कूटनीतिक मोर्चे पर बढ़त दिलाई जा सके। दक्षिण चीन सागर को लेकर चीन और दूसरे पड़ोसी देशों के बीच उपजे विवाद में भी भारत ने सशक्त भूमिका निभाई है। एक अलग पाकिस्तान नीति भी विकसित की गई है। इसके तहत नई दिल्ली इस्लामाबाद पर दबाव बनाने के लिए संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब जैसे पाकिस्तान के सहयोगियों का उपयोग कर रही है। सरकार के अभी दो साल ही हुए हैं। यह शासनकाल का शुरुआती दौर ही माना जाएगा। इसमें जनता की उम्मीदें कुलाचें मारती हैं। सरकार की नीतियों का प्रतिफल अगले तीन साल में परिलक्षित होगा। उसी के आधार पर उसके भविष्य की रूपरेखा बनेगी और 2019 के चुनावों में उसकी दिशा तय होगी।1(लेखक लंदन के किंग्स कॉलेज में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर हैं)
दैनिक जागरण

पृथ्वी के बाहर जीवन (मुकुल व्यास )

नए ग्रहों की बढ़ती हुई संख्या पारलौकिक जीवन के बारे में हमारी जिज्ञासा को बार-बार बढ़ा रही है। अभी हाल में नासा ने केप्लर अंतरिक्ष दूरबीन से प्राप्त आंकड़ों के विश्लेषण के बाद 1284 नए ग्रहों की उपस्थिति की पुष्टि की है। यह पहला अवसर है जब ग्रहों की इतनी बड़ी खोज हुई है। इन नए ग्रहों की खोज के बाद हमारे सौरमंडल से बाहर खोजे ग्रहों की कुल संख्या 3264 तक पहुंच गई है। नए ग्रहों में कम से कम नौ ग्रह ऐसे हैं जहां जीवन संभव है। पृथ्वी जैसे ग्रहों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। शोधार्थियों के एक दल ने एक बौने तारे के इर्दगिर्द तीन पृथ्वी जैसे ग्रहों का पता लगाया है जहां की परिस्थितियां जीवन के अनुकूल हो सकती हैं। नेचर में प्रकाशित एक शोध रिपोर्ट के मुताबिक ट्रेपिस्ट-1 नामक तारा पृथ्वी से 40 प्रकाश वर्ष दूर है। इसका तापमान सूरज के तापमान से आधा है। यह इतना धुंधला है कि पृथ्वी से इसका पर्यवेक्षण मुश्किल है। बेल्जियम के खगोल वैज्ञानिक माइकल गिलों के नेतृत्व में रिसर्चरों ने एक विशेष दूरबीन की मदद से पिछले साल सितंबर से दिसंबर तक इस तारे की चमक में उतार-चढ़ाव का अध्ययन किया था। 2018 में जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप के उपलब्ध होने के बाद ही इन ग्रहों की सही तस्वीर मिल पाएगी। 1नासा के खगोल भौतिकविद् पॉल हर्ट्ज ने कहा कि आज हम यह जान पाए हैं कि ग्रहों की संख्या तारों की संख्या से अधिक हो सकती है। केप्लर से मिली नई जानकारियां अंतरिक्ष के भावी मिशनों के लिए महत्वपूर्ण है। ये मिशन हमें यह बताएंगे कि क्या ब्रrांड में हम अकेले हैं या हमारे जैसा कोई और भी है। बाहरी ग्रहों की चमक में गिरावट से खगोल वैज्ञानिक उनकी उपस्थिति का अंदाजा लगाते हैं। जिस तरह गत नौ मई को बुध सूरज के सामने से गुजरा था, उसी तरह बाहरी ग्रह अपने तारे के सम्मुख से गुजरते हैं। इस प्रक्रिया में उनकी चमक कुछ कम हो जाती है। केप्लर दूरबीन चमक में होने वाली गिरावट को नोट करती है। नए ग्रहों के बारे में नई जानकारियां मिलने के बाद एलियंस में दिलचस्पी बढ़ना स्वाभाविक है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि ब्रrांड में पृथ्वी से पहले अन्य स्थानों पर भी बुद्धिमान प्रजातियां विकसित हुई होंगी। हाल ही में 1961 की बहुचर्चित ड्रेक इक्वेशन में किए गए संशोधन के बाद वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पहली उन्नत और बुद्धिमान सभ्यता शायद पृथ्वी पर विकसित नहीं हुई है। इस इक्वेशन में ब्रह्माण्ड में विद्यमान बुद्धिमान सभ्यताओं की संख्या का अनुमान लगाया गया है। इस इक्वेशन में तारों के निर्माण की गति के अलावा ऐसे तारों की सख्या पर गौर किया गया है जहां ग्रह प्रणालियों का निर्माण हुआ है तथा अनुमान लगाया गया है कि ऐसे ग्रहों में जीवन-अनुकूल गृह कितने हैं, लेकिन यह इक्वेशन 55 वर्ष पुरानी है। इसमें नए खोजे गए ग्रहों पर जीवन होने की संभावनाओं के बारे में नवीनतम सूचनाएं नहीं हैं। नई संशोधित इक्वेशन में जीवन-संभावित ग्रहों के बारे में नासा के केप्लर उपग्रह द्वारा एकत्र डाटा को शामिल किया गया है।
पिछले साल अमेरिका की पेन स्टेट यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने 50 आकाशगंगाओं का पता लगाया था जहां बुद्धिमान सभ्यताओं का वास हो सकता है। इन आकाशगंगाओं से निकलने वाले रेडिएशन का उच्च स्तर अत्यधिक उन्नत सभ्यताओं की मौजूदगी का सूचक हो सकता है। रिसर्चरों का अनुमान है कि इन आकाशगंगाओं में वास करने वाली पारलौकिक प्रजातियां तारों की ऊर्जा का उपयोग करती होंगी और इस प्रक्रिया में बड़ी मात्र में ऊष्मा का उत्सर्जन कर रहीं होंगी। अब सवाल यह है कि क्या हम कभी इन सभ्यताओं से संपर्क कर पाएंगे?
(लेखक विज्ञान मामलों के जानकार हैं)
(दैनिक जागरण )

कश्मीर की यह खबर क्यों अहम है? (डॉ. शाह फैज़ल), डायरेक्टर,स्कूल एजुकेशन, कश्मीर और 2009 के यूपीएससी टॉपर

इस माह की 10 तारीख को जम्मू-कश्मीर के सारे प्रमुख अखबारों ने 23 वर्षीय अथेर आमिर शफी खान की शानदार सफलता को प्रमुखता से प्रकाशित किया। अनंतनाग के अाईआईटी मंडी के पासआउट शफी खान ने संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की परीक्षा में अखिल भारतीय स्तर पर दूसरा स्थान हासिल किया है।
पिछले कुछ वर्षों में कश्मीर से भारतीय सिविल सेवा और कश्मीर प्रशासनिक सेवा में जाने के इच्छुक छात्रों की संख्या बढ़ती रही है। साथ ही हर साल चुने जाने वाले छात्रों की संख्या भी बढ़ रही है। इसने इस उपद्रवग्रस्त राज्य में नई बहस छेड़ दी है। जहां एक ओर इसे देश की शीर्ष नौकरशाही में अधिक प्रतिनिधित्व पर जोर दिए जाने और कश्मीरी छात्रों की प्रतिस्पर्धा की बढ़ती भावना के बतौर देखा जा रहा है तो दूसरी ओर एक छोटे तबके का कहना है कि यह उस 'दमनकारी' भारतीय राज्य के साथ सहयोग है, जो कश्मीरी राष्ट्रवाद के मूल विचार के ही खिलाफ है। यह ऐसे समय में हो रहा है जब कश्मीरी युवा अपनी योग्यता दृढ़ निश्चय के बल पर सीधे दुनिया को जीतने के लिए तैयार है। एेसे में बहस का दायरा बढ़ाने की जरूरत है। एक ऐसे वातावरण में जहां विभाजन की दरारें बहुत गहरी हैं, कश्मीर में सफलता की हर कहानी क्यों खबर बननी चाहिए और उसका अलग से जश्न क्यों मनाया जाना चाहिए, इसे समझने की जरूरत है।
हमें यह अहसास होना चाहिए कि हम एक ऐसी पीढ़ी की बात कर रहे हैं, जो दशकों की हिंसा से उपजी निराशा और हताशा की संस्कृति के बीच पली-बढ़ी है। इससे भी बढ़कर इसका कारण शायद यह कि वे उपद्रवग्रस्त, अधूरे विविधता रहित समाज में पले-बढ़े हैं। उनके डीएनए में तो विविधता है, लेकिन कश्मीरी पंडितों के जाने के बाद विविधता कहीं नज़र नहीं आती। कश्मीर उस प्रकार का बंद समाज कभी नहीं था, जैसा वह 1990 के बाद बन गया। सरकारी और गैर-सरकारी किरदारों द्वारा की गई हिंसा, अंतर्धार्मिक आदान-प्रदान और सह-अस्तित्व के अनुभव से वंचित और विफल शिक्षा व्यवस्था द्वारा ठगे गए 'संघर्ष के इन बच्चों' में आकांक्षाओं और सपनों का अभाव तो स्वाभाविक ही था। किंतु विरोधाभास यह है कि संघर्ष की अपनी भावना के अनुरूप सारी तकलीफों के बावजूद कश्मीरी छात्र मुख्यत: मेडिसीन और इंजीनियरिंग में बहुत आगे रहे हैं।
फिर निर्णायक मोड़ आया। 1990 और 2008 के बीच बहुत कम कश्मीरी छात्र सिविल सेवा, आईआईटी, आईआईएम, एआईआईएमएस आदि में जाते थे। अचानक ढेरों कश्मीरी इनके लिए टूट पड़े। पिछले पांच वर्ष में ही भारतीय सिविल सेवाअों में पिछले पांच दशकों की तुलना में पांच गुना कश्मीरी प्रवेश पा गए। इसमें रैंक1, रैंक2 और टॉपर भी शामिल हैं तथा महिला अधिकारियों की भी अच्छी भागीदारी है। सफलता की ये कहानियां इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि जिन युवाओं ने यह फैसला लिया है उन्हें इस परीक्षा से भी गुजरना पड़ा कि क्या कश्मीरी राष्ट्रवाद के सख्त चौखट में बैठता है और क्या नहीं।
फिर, थोपे गए रोल मॉडल की भी समस्या है। यहां अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार रोल मॉडल पेश किए जाते हैं। कई बार किसी नेता को गद्दार कहकर खारिज कर दिया जाता है या किसी पत्रकार को सरकार समर्थित स्टेनो कह दिया जाता है। कड़ी मेहनत कर सिविल सेवा में आए युवा के खिलाफ फतवा जारी हो जाता है। यहां सर्वश्रेष्ठ चीजें भी सरकार समर्थक या विरोध के मिथ्या प्रचार की शिकार हो जाती हैं। फिर दलील का दूसरा हिस्सा यह है कि आतंकवाद भी कॅरिअर है या नहीं, क्या किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में प्लेसमेंट की तुलना शहीद के रूप में कब्र में प्लेसमेंट से की जा सकती है? क्या शिक्षित युवा कश्मीरी के शव ही विरोध के स्वीकार्य स्मारक हैं? जब तक स्वतंत्रता की मरीचिका साकार नहीं होती तब तक क्या हमें जीना छोड़ देना चाहिए? जब तक आजादी की रूमानी सुबह नहीं आती तब तक कौन शो जारी रखेगा- ये कुछ वजूद से जुड़े सवाल है, जो मैं कश्मीर-काज़ के कॅरिअरिस्ट चौकीदारों के लिए छोड़ रहा हूं ताकि यह लेख प्रकाशित होने केबाद वे काव्यमय प्रत्युत्तर लिख सकें।
आखिर में, अन्य शहरों में पढ़ या काम कर रहे कश्मीरी छात्रों को यंत्रणा देेने या उनके साथ अलग व्यवहार करने से मामला जटिल हो जाता है। इसकी तुलना पाकिस्तान के कॉलेजों में पढ़ रहे कश्मीरी छात्रों के साथ सद्‌भावना दिखाए जाने की सच्ची-झूठी कहानियों से कीजिए। प्रवेश की औपचारिकताओं में ही फर्क देखिए, जब कश्मीरी छात्र अटारी पहुंचता है और जब वह आजादपुर पहुंचता है। इन बातों से काफी फर्क पड़ता है। धारणाओं का बहुत महत्व है। फिर औसत कश्मीरी युवा शेष देश में अवसरों की तलाश के दौरान आतंकियों जैसा दिखने के कारण जेल में पहुंचने की बजाय बेकार बैठना पसंद करेगा।
एेसी पृष्ठभूमि में जब आप कश्मीरी युवाओं को व्यवस्था के साथ संबंध बनाकर आगे बढ़ते देखते हैं तो आपको गौर करना होगा, क्योंकि ये साधारण कहानियां नहीं हैं। कश्मीर में राजनीतिक दुस्साहस और चुनावी धांधलियों का इतिहास होने के कारण, भारतीय संस्थानों पर संदेह होना स्वाभाविक है। नकारात्मक रुख रखने वाले कई लोगों ने यूपीएससी में कश्मीरी युवाओं के चयन को सद्‌भावना अभियान का हिस्सा बताया। यह अहसास होने में वक्त लगा कि इस सदाशयता के पीछे कुटिल व्यवस्था का हाथ नहीं, कश्मीरियों की कड़ी मेहनत है।
कश्मीर के अंदर कश्मीरी छात्रों के आईआईटी,आईआईएम, बॉलीवुड, क्रिकेट, सिविल सर्विसेस, सैन्य सेवाओं, पुलिस आदि में प्रवेश का विरोध करने वाले यह समझ लें कि अर्थशास्त्र की बजाय भावनाओं के सहारे बुनी गई कहानी लंबे समय तक नहीं चलती। अपने ही लोगों को देशद्रोही या उनकी मदद करने वालों के रूप में प्रचारित कर हम समाज में और ज्यादा विभाजन पैदा कर रहे हैं। हो सकता है हम कश्मीरियों को उन मौकों से भी मरहूम कर रहे हों, जो अंतत: यह तय करेंगे कि सामूहिक रूप से हम आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में सफल होंगे या नहीं। व्यक्तिगत दंभ या दिखावे को तवज्जो देना ठीक नहीं, क्योंकि त्याग के ऐसे उपदेश तो सामान्य लोगों के बच्चों के लिए होते हैं, आर्थिक रूप से समृद्ध फिदायीन तत्वों के संबंधियों और सहयोगियों के लिए नहीं। प्रतिरोध का मतलब है सम्मान के साथ अपना वजूद बचाए रखना। अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने, अपनी धरोहरों को बचाए रखने, सरकारी दफ्तरों से भ्रष्टाचार मिटाने, सच बोलने, आम लोगों और शासक वर्ग के बीच की कड़ी बनने और सड़कों पर अनुशासन और शांति बनाए रखने से है। सिविल सर्विसेस परीक्षा क्वालिफाई करना प्रतिरोध की कार्रवाई है। सबको इसकी सराहना करनी चाहिए। (ये लेखक के अपने विचार हैं।) 
(दैनिक भास्कर )

Tuesday 24 May 2016

गतिमान एक्‍सप्रेस के बाद अब 200 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से पटरियों पर दौड़ेगी टैलगो ट्रेन!


 गतिमान एक्सप्रेस को सफलतापूर्वक शुरू करने के बाद रेलवे के स्पैनिश फर्म टैलगो द्वारा तैयार हाई-स्पीड ट्रेनों का परीक्षण जून में मौजूदा पटरियों पर करने की संभावना है। यह ट्रेन 200 किलोमीटर प्रति घंटे की गति को छू सकती है।

गतिमान को शुरू करने के लिए निजामुद्दीन और आगरा स्टेशनों के बीच पटरियों को मजबूत किया गया। गतिमान देश की सबसे तेज गति से चलने वाली ट्रेन है। बार्सीलोना से 27 मार्च को एक मालवाहक जहाज से रवाना किए नौ टैलगो डिब्बे फिलहाल रास्ते में हैं और 21 अप्रैल तक मुंबई बंदरगाह पर पहुंचने की उनकी संभावना है।

स्पैनिश ट्रेन निर्माता ने मौजूदा भारतीय रेल नेटवर्क पर मुफ्त में अपनी और तेज ट्रेनों का परीक्षण करने की पेशकश की है। रेल मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, 'पहले टैलगो ट्रेन का परीक्षण बरेली और मुरादाबाद रेल मार्ग पर 115 किलोमीटर प्रति घंटे की अधिकतम रफ्तार से किया जाएगा। इसके बाद पलवल और मथुरा मार्ग पर अधिकतम 180 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से परीक्षण किया जाएगा।' तीसरा परीक्षण दिल्ली और मुंबई के बीच अधिकतम 200 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से किया जाएगा।

(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है)


पाकिस्तानी एटम वैश्विक खतरा सतीश पेडणोकर

पाकिस्तान को पिछले कई दशकों से एक ‘नाकाम’ देश माना जाता है, लेकिन इस बीच उसने इतनी ‘तरक्की’ कर ली है कि अंतरराष्ट्रीय मामलों के पंडित उसे दुनिया का सबसे खतरनाक देश मानने लगे हैं। कुछ तो उसे एटमी टाइम बम कहते हैं जो अभी भले टिक-टिक कर रहा हो, मगर कभी भी फट कर इस दुनिया को एटमी विभीषिका की आग में झोंक सकता है। हमारे पड़ोसी पर लगनेवाले विशेषणों में गलत कुछ भी नहीं है। न ही इसे पश्चिमी साम्रायवादी देशों की एक विकासशील देश को बदनाम करने की घिनौनी साजिश कह कर टाला जा सकता है। यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि पाकिस्तान इस्लामी कट्टरपंथियों और आतंकवादियों का स्वर्ग बन चुका है। इराक के बाद पाकिस्तान में ही सबसे यादा आत्मघाती आतंकवादियों ने अपने जौहर दिखलाए हैं। पाकिस्तान के बहुत बड़े हिस्से पर तालिबान और अन्य इस्लामी आतंकवादियों का राज चल रहा है। लेकिन इससे भी यादा थर्रा देने वाली हकीकत यह है कि पाकिस्तान के एटमी हथियारों पर खूंखार आतंकवादियों का कभी भी कब्जा हो सकता है।
इस आशंका ने तो अमेरिकी प्रशासन की नींद हराम कर दी है। यहां तक कि इस पाकिस्तान के एटमी हथियार और एटमी ईंधन इन दिनों अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के प्रचार अभियान का प्रमुख मुद्दा बन गए हैं। अमेरिका के आगामी राष्ट्रपति चुनाव के लिए रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार बनने की दौड़ में शामिल डोनाल्ड ट्रंप ने एक बहस में कहा कि अगर पाकिस्तान अस्थिर हो जाता है तो अमेरिका को उसके एटम बम छीन लेने चाहिए। ट्रंप ने कहा कि भारत को भी ऐसी योजना में शामिल करना चाहिए। ये बातें काल्पनिक या केवल भावनाएं भड़काने का मुद्दा भर नहीं है।
जानकार सूत्रों के मुताबिक अमेरिका के पास सचमुच ऐसा सीक्रेट प्लान है। अमेरिकी मीडिया उस सीक्रेट प्लान का खुलासा करता रहता है, जिसमें किसी न किसी तरह से भारत की भी भूमिका मुमकिन है। पाकिस्तान के पास न केवल एटमी हथियार हैं वरन एफ-16 जैसे विमान और हत्फ पांच जैसी मिसाइलें हैं। जिनके जरिए वह करीब 2500 किलोमीटर की दूरी तक कहीं भी एटमी हथियार गिरा सकता है। पाकिस्तान के आतंकवादियों के बढ़ते असर के कारण पश्चिमी देशों को लगने लगा है कि यह तो बंदर के हाथ में उस्तरा पड़ने की तरह है। डोनाल्ड ट्रंप के जवाब ने चार साल पुरानी बहस को फिर जिंदा कर दिया है। बहस का मुद्दा ये है कि क्या पाक के एटमी जखीरे पर कब्जा कर सकता है अमेरिका? ट्रंप के बयान ने अमेरिका के सीक्रेट प्लान को लेकर बहस छेड़ दी है जिसका मकसद पाकिस्तान में अस्थिरता के हालात में उसके एटमी हथियारों को छीन लेना है। ‘स्नैच एंड ग्रैब’ नाम के इस प्लान की अमेरिका ने कभी पुष्टि नहीं की, लेकिन इससे जुड़ी खबरों को कभी नकारा भी नहीं।
सबसे खतरनाक बात यह है कि एक तरफ पाकिस्तान के एटमी हथियार असुरक्षित होते जा रहे हे हैं दूसरी तरफ पाकिस्तान का एटमी जखीरा बढ़ता जा रहा है। पाकिस्तानी विदेश सचिव ने अमेरिका में कहा कि हमने भारत की कोल्ड-स्टार्ट डॉक्टिन और हमले के खतरे से निपटने के लिए छोटे एटमी हथियार विकसित कर लिये हैं। उनके बयान के एक दिन बाद ही ‘न्यूक्लियर बुलेटिन ऑफ एटॉमिक साइंटिस्ट’ की ताजा न्यूक्लियर नोटबुक रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान के पास 110-130 परमाणु हथियारों का जखीरा है। 2011 में इसकी संख्या 90-110 थी। इस स्थिति से रिपोर्ट में दावा किया गया है कि, 2025 तक पाकिस्तान दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बन सकता है। न्यूक्लियर नोटबुक पाकिस्तान की परमाणु जानकारी को सामने लाने का सबसे प्रामाणिक स्नोत है। एटमी हथियारों को मामले में पाकिस्तान फिलहाल अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और चीन से पीछे है। मगर पाकिस्तान के पास भारत से यादा एटमी हथियार हैं।
पाकिस्तान के एटमी हथियारों की सुरक्षा को लेकर सवाल पिछले कई सालों से पूछे जा रहे हैं। इस दौरान पाकिस्तान में जैसी घटनाएं हुईं, उन्होंने ये आशंका मजबूत की है कि पाकिस्तान के एटमी हथियार सुरक्षित नहीं हैं। आतंकी गुट पाकिस्तानी फौज के उन ठिकानों को निशाना बनाने में कामयाब हो चुके हैं, जो परमाणु बेस कहे जाते हैं। साढ़े तीन साल पहले पाकिस्तानी पंजाब के कमरा में मिनहास एयरबेस पर आतंकियों ने हमला कर कई विमानों को नुकसान पहुंचाया था। मिनहास एयरबेस को पाकिस्तान का प्रमुख एटमी ठिकाना माना जाता है। मई 2011 में कराची में नेवल एयर बेस पीएनएस मेहरान पर हमला हुआ, जहां से एटमी बेस महज 15 किलोमीटर दूर था। अक्टूबर 2009 में आतंकी रावलपंडी में सेना के हेडक्वार्टर पर भी आतंकी हमला कर चुके हैं। हाल ही में 18 सितंबर 2015 को आतंकी पेशावर के एयरफोर्स बेस पर भी हमला कर चुके हैं।
पाकिस्तान के ऐबटाबाद में ओसामा बिन लादेन को मारने के लिए की गई कमांडो कार्रवाई से ये साबित हो चुका है कि अपने हितों की रक्षा के लिए अमेरिका किस हद तक जा सकता है। लिहाजा संकट के क्षणों में पाकिस्तान के एटमी जखीरे पर कब्जे की योजना मौजूद है, इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता है। साल 2009 और 2011 में इस योजना से तब पर्दा उठ गया था, जब अमेरिकी मीडिया ने बताया कि एक स्पेशल ग्रुप है-जो एटमी जखीरे पर कब्जे की योजना पर लंबे वक्त से काम कर रहा है।
कई रक्षा विशेषज्ञों और पाकिस्तानी मामलों के जानकारों को लगता है कि उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत, बलुचिस्तान और एफएटीए में आतंकवादी इतने हावी हो चुके हैं कि उन पर काबू पाना पाकिस्तानी सरकार के बस की बात नहीं रही। आतंकवादी और उग्र इस्लामी राजनीतिक दलों का इस इलाके पर राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित हो गया है। उन्हें सेना और आइएसआइ के कुछ तत्वों का समर्थन मिल सकता है। देश में जिस तरह की राजनीतिक अस्थिरता, प्रतिद्वंद्विता और भ्रम की स्थिति है उसमें इस्लामी आतंकवादी और उग्रवादी ताकतें मौके का फायदा उठा कर सत्ता पर काबीज होने में कामयाब हो सकती है।
अमेरिका और पश्चिमी देशों की मुख्य चिंता यह है कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाए? इराक और पाकिस्तान में हस्तक्षेप करना उनके लिए बहुत जोखिम भरा हो सकता है। पाकिस्तान जैसे विशाल देश में ढहती सरकार को स्थिर करने और आतंकवादियों का सफाया करने के लिए दस लाख सैनिकों की लंबे समय तक ज़रूरत होगी। मगर एटमी हथियारों वाले पाकिस्तान को भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।
रोना तो इस बात का है कि भारत हर बार पाकिस्तान में होनेवाली उथल-पुथल से सीधे और सबसे यादा प्रभावित होता है, लेकिन अगर बांग्लादेश को छोड़ दें तो हमारी भूमिका केवल मूक दर्शक की रहती है। लेकिन अब पाकिस्तान जिस दौर से गुजर रहा है उसमें हमें अपनी शुतुरमुर्गी नीति छोड़नी होगी, वरना उसके नतीजे हमें लंबे समय तक भोगने होंगे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(Dainik jagran)

डीटीएए में संशोधन : फर्जी निवेश पर नकेल (डॉ. भरत झुनझुनवाला )

अस्सी के दशक में भारत ने मॉरीशस के साथ डबल टैक्स एवॉयडेंस एग्रीमेंट (डीटीएए) यानी दोहरे कराधान से बचाव के लिए समझौता किया था। दरअसल भारत बड़ी मात्र में विदेशी निवेश को आकर्षित करना चाहता था, लेकिन समस्या यह थी कि विदेशी निवेशक को एक ही आय पर दो बार इनकम टैक्स अदा करना पड़ता था। मान लीजिए किसी विदेशी निवेशक ने 1000 रुपये के शेयर मुंबई स्टॉक एक्सचेंज में खरीदे। एक साल बाद इन्हें 1500 रुपये में बेच दिया। निवेशक को 500 रुपये का भारत में लाभ हुआ। इस लाभ को कैपिटल गेन्स कहा जाता है, क्योंकि निवेशित पूंजी के दाम में वृद्धि हुई थी। इस पर उसे भारत में इनकम टैक्स देना होता था, क्योंकि आय भारत में अर्जित की गई। अब यदि वह शेष रकम को मॉरीशस ले गया तो वहां इस आय पर उसे पुन: इनकम टैक्स अदा करना पड़ता था, क्योंकि वह निवेशक मॉरीशस में पंजीकृत था और उसका इनकम टैक्स असेसमेंट मॉरीशस में होता था। इस प्रकार एक ही आय पर दो बार इनकम टैक्स देना होता था। इससे भारत को विदेशी निवेश आकर्षित करने में कठिनाई हो रही थी। इस समस्या के समाधान के लिए भारत ने मॉरीशस के साथ एक समझौता किया, जिसके अंतर्गत मॉरीशस में पंजीकृत निवेशकों द्वारा भारत में अर्जित कैपिटल गेन्स पर भारत में इनकम टैक्स देय नहीं रह गया। उन्हें केवल मॉरीशस में इनकम टैक्स अदा करना पड़ा, क्योंकि उसका इनकम टैक्स असेसमेंट मॉरीशस में होता है, लेकिन मॉरीशस में कैपिटल गेन्स पर टैक्स वसूल ही नहीं किया जाता है। अत: मॉरीशस के निवेशक द्वारा भारत में अर्जित कैपिटल गेन्स पूरी तरह इनकम टैक्स से मुक्त हो गया। 1इस व्यवस्था का लाभ उठाकर तमाम भारतीयों ने अपनी पूंजी को मॉरीशस भेज दिया। वहां एक कंपनी पंजीकृत कराई। उस कंपनी से मुंबई स्टॉक एक्सचेंज में निवेश किया। ऊपर बताई व्यवस्था के अनुसार यह निवेश इनकम टैक्स से मुक्त हो गया। मॉरीशस के साथ हुए समझौते के इस दुरुपयोग को रोकने के लिए भारत सरकार ने हाल में इसमें संशोधन किया है। अब व्यवस्था बनाई गई है कि मॉरीशस स्थित कंपनी को प्रमाणित करना होगा कि उसने पिछले साल में मॉरीशस में कम से कम 27 लाख रुपये का खर्च किया है। तब ही उसके द्वारा किए गए निवेश पर भारत में कैपिटल गेन्स टैक्स में छूट मिलेगी। यानी मॉरीशस का पता, दफ्तर और मॉरीशस में कुछ लेन-देन करना अनिवार्य हो जाएगा। इस संशोधन से फर्जी कंपनी बनाकर मॉरीशस के रास्ते अपनी पूंजी की घर वापसी करना कठिन हो जाएगा।1इस फर्जीवाड़े को बंद करने का सीधा प्रभाव होगा कि भारत में अब सच्चा विदेशी निवेश ही आएगा। वर्ष 2015 की पहली छमाही में भारत ने 31 अरब अमेरिकी डॉलर का विदेशी निवेश हासिल किया था, जो कि अमेरिका एवं चीन द्वारा हासिल किए गए विदेशी निवेश से अधिक था, लेकिन इसमें अपनी पूंजी की घर वापसी का बड़ा हिस्सा था। मॉरीशस के साथ हुए समझौते के बाद अपनी पूंजी की घर वापसी कम होगी और विदेशी निवेश में भारी गिरावट आने की संभावना है। सच्चे विदेशी निवेश की आवक में भी पेंच है। पिछले वर्ष विश्व व्यापार में 14 प्रतिशत की गिरावट आई है। तमाम देश विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ने के स्थान पर अपने चारों ओर दीवारें खड़ी कर रहे हैं। सलाहकार कंपनी एटी कीयरनी ने कहा है कि विदेशी निवेश में वर्तमान में दिख रही गति के पीछे संरक्षणवाद का विस्तार है। तमाम देश विश्व व्यापार से पीछे हट रहे हैं। वे चाहते हैं कि अपने देश में ही माल का उत्पादन किया जाए जैसे भारत ने देश में बने सोलर पैनल को विशेष प्रोत्साहन दिया था। 1इस परिस्थिति में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए चीन में टेलीविजन आदि का उत्पादन करके दूसरे देशों को निर्यात करना कठिन हो रहा है। इसलिए वे भारत जैसे मेजबान देशों में टेलीविजन बनाने के कारखाने लगा रही हैं। यानी विदेशी निवेश की वृद्धि का अर्थ ग्लोबलाइजेशन का संकुचन है, न कि ग्लोबलाइजेशन का विस्तार। अमेरिका में इस वर्ष होने वाले चुनाव में राष्ट्रपति पद के रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने घोषणा की है कि वह रोजगार को वापस अमेरिका लाएंगे। पिछले डेढ़ साल में भारत के निर्यात लगातार फिसल रहे हैं। विदेशी निवेशक भी भारत में बिकवाली कर रहे हैं। ये तमाम संकेत बताते हैं कि ग्लोबलाइजेशन ढीला पड़ रहा है। 1इस परिस्थिति में ग्लोबलाइजेशन को अपनाकर हम भारी मात्र में विदेशी निवेश हासिल नहीं कर सकेंगे। पूर्व में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने चीन में निवेश किया था। वहां माल का उत्पादन किया था। फिर उस माल का अमेरिका और यूरोप को निर्यात किया। इसको हम नहीं अपना सकेंगे, क्योंकि ग्लोबलाइजेशन ढीला पड़ रहा है। आज विकसित देशों द्वारा माल का आयात कम किया जा रहा है। उनकी कंपनियां भारत में आज फैक्टियां स्थापित नहीं करेंगी, क्योंकि उनके देशों की अर्थव्यवस्था और आयात दबाव में हैं।1इन हालात में मॉरीशस के साथ हुए समझौते में संशोधन के दीर्घगामी प्रभाव होंगे। फिर भी मॉरीशस के साथ एग्रीमेंट में संशोधन सही दिशा में है। इससे हमें कुछ समय तक परेशानी होगी, जैसे कोई नशेबाज व्यक्ति दारू पीना बंद करे तो कुछ समय तक उसे सुस्ती रहती है। सरकार को चाहिए कि घरेलू पूंजी के निवेश को प्रोत्साहन दे। अध्ययन बताते हैं कि पूंजी के मुक्त पलायन को छूट देने से विकासशील देशों की पूंजी ज्यादा मात्र में बाहर गई है। तुलना में विदेशी निवेश कम आया है। अत: सरकार को अपनी पूंजी को विदेश भेजने की छूट भी समाप्त करनी चाहिए। बिना स्वयं मरे स्वर्ग प्राप्त नहीं होता है। इसी प्रकार बिना अपनी पूंजी का सदुपयोग किए हमारा आर्थिक विकास नहीं होगा। विदेशी निवेश, विदेशी कंपनियों और विदेशी तकनीकों का मोह छोड़कर अपनी पूंजी, अपने उद्यमियों और अपने वैज्ञानिकों को प्रोत्साहन देंगे तो देश आगे बढ़ेगा
।1(लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं और आइआइएम बेंगलूरु में प्रोफेसर रह चुके हैं).......(दैनिक जागरण )

Monday 23 May 2016

ताकतवर दिखने के लिए पुतिन का खतरनाक जुनून (न्यूयॉर्क टाइम्स एडिटोरियल बोर्ड )

अमेरिका और रूस ने प्रस्ताव रखा है कि वे सीरिया में हवाई मार्ग से खाने की सामग्री आपात सहायता से जुड़ी चीजें पहुंचा सकते हैं। ऐसा तब होगा, जब सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद ट्रकों से इनकी आपूर्ति करने की इजाजत नहीं देंगे। हवाई मार्ग से चीजें पहुंचाना जोखिम भरा और अनुचित कदम है क्योंकि, इसकी लागत ज्यादा होती है, सही जगह चीजें पहुंचाने में दिक्कत होती है, इसमें मदद पाने वाली की जान जा सकती है या वे घायल भी हो सकते हैं।
जमीनी तौर पर देखें तो दोनों देशों ने गृहयुद्ध से जूझ रहे सीरिया में मानवीय सहायता के नाम पर एक-दूसरे का सहयोग करने का विश्वास हासिल किया है। एक बार फिर यहां रूसी राष्ट्रपति का दोहरा चरित्र नजर आता है। सीरिया में भी और दूसरी जगहों पर भी। सीरिया में असद सत्ता में बने हुए हैं तो रूसी राष्ट्रपति की सैन्य सहायता की बदौलत। पुतिन के मामले में यह विश्वास करना कठिन है। अगर पुतिन चाहेंगे, तो असद क्यों जमीनी सहायता के लिए तैयार नहीं होंगे। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी लगातार इन कोशिशों में जुटे हैं कि कैसे भी करके सीरिया में गृहयुद्ध खत्म हो जाए, जहां अब तक 4 लाख 70 हजार लोग मारे जा चुके हैं। इसके विपरीत पुतिन सीरियाई शासक असद को नागरिकों पर बम गिराने से रोकने में अक्षम दिखाई दे रहे हैं। खबरों के अनुसार यह भी सच है कि रूसी सेना भी सीरिया में बम गिरा रही है। पुतिन के लिए सीरिया मात्र रणभूमि है, जहां वे अस्थिरता बढ़ाकर रूस को पुन: शक्तिशाली दिखाना चाहते हैं। उनकी कथनी और करनी में अंतर देखने के लिए हाल की बड़ी घटना समझ लेनी जरूरी है। वर्ष 2014 में उन्होंने यूक्रेन पर कब्जा करने के लिए वहां टैंकों से गोलीबारी की। लगभग युद्ध जैसे हालात वहां पैदा हो गए थे। आखिरकार क्रीमिया को उन्होंने अपने पूर्ण कब्जे में कर लिया। फिर भी संघर्ष जारी रहा तो मिन्स्क में समझौता किया, जिसमें लड़ाई बंद करने की बात शामिल थी। उसके बाद से ही यूक्रेन और रूस समर्थक अलगाववादी समूहों के बीच हिंसा चरम पर पहुंच गई। वर्ष 2015 के बाद से यह अपने उच्च स्तर पर है।
रूस का आक्रामक और खतरनाक व्यवहार जितना हवाई मार्ग में है, उतना ही समुद्र में भी है। 29 अप्रैल को बाल्टिक सागर के ऊपर उड़ान भर रहे अमेरिकी लड़ाकू विमान से 100 फीट ऊपर रूसी लड़ाकू विमान गया था। उसकी इस कार्रवाई को आपत्तिजनक माना गया था। इसके दो सप्ताह पहले बाल्टिक में ही अमेरिकी युद्धपोत के ऊपर से दो रूसी विमानों ने 11 बार उड़ान भरी थी। इस तरह की चुनौतियां अमेरिका को प्रत्यक्ष रूप से देखनी पड़ रही हैं। अमेरिकी सेना वहां प्रशिक्षण के लिए गई थी, लेकिन ऐसे वक्त में सीधे दूसरे विमानों के आने से तुरंत खतरा पैदा हो जाता है और फिर किसी के लिए संयम रखना संभव नहीं हो पाता है।
रूस के संबंध में पूर्वी यूरोप के नाटो देशों में चिंता का माहौल बनने के बाद तय किया गया है कि 1000 सैनिकों वाली चार कॉम्बेट बटालियन पोलैंड, लिथुआनिया, लातविया और एस्टोनिया में तैनात की जाए। इसमें दो बटालियन अमेरिका, एक जर्मन और एक ब्रिटिश हो सकती है। पिछले सप्ताह रोमानिया में एक बेस तैयार किया गया और पोलैंड में बेस बनाने की शुरुआत की गई। पुतिन लंबे समय से नाटो का गलत मतलब निकालते आए हैं, जबकि शीतयुद्ध के बाद से ही उसने खतरे के तौर पर अपनी सैन्य क्षमताओं में कमी की है। नाटो के 28 सदस्य अब जुलाई में पोलैंड की राजधानी वारसा में मुलाकात करेंगे, यह अच्छा समय है चीजों को सुलझाने का। हो सकता है कि यूक्रेन पर आक्रमण के चलते रूस पर जो प्रतिबंध लगाए गए थे, वे हटा लिए जाएं। नाटो सदस्य ऐसा रास्ता भी खोज सकते हैं, जिससे रूस के साथ वार्ता शुरू हो सके। यहां पुतिन को देखना होगा कि वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छवि सुधारने के लिए क्या कदम उठाते हैं। (दैनिक भास्कर )