Thursday 12 May 2016

सरकारी बैंकों का संकट............(डॉ. भरत झुनझुनवाला)

किंगफिशर एयरलाइन के मालिक विजय माल्या पर 7,000 करोड़ रुपये की देनदारी है। दूसरे बड़े उद्यमियों पर इससे लगभग दस गुना यानी 60,000 करोड़ रुपये की देनदारी है। इस रकम का बड़ा हिस्सा सरकारी बैंकों द्वारा लोन के रूप में दिया गया है। माल्या का कहना है कि इस रकम के खटाई में पड़ने में सरकारी बैंकों की भी भागीदारी है, क्योंकि उन्होंने यह जानते हुए लोन दिए थे कि कंपनी संकट में है। सच यह है कि सरकारी बैंकों के अधिकारियों के लिए घटिया लोन देना लाभ का सौदा है। ऐसे लोन देने में उन्हें बड़ी घूस मिल जाती है। लोन के खटाई में पड़ने तक उनका ट्रांसफर मात्र होता है। उन पर जवाबदेही नहीं आती है। बैंक घाटे में चला जाए तो भी उनके वेतन, बोनस तथा पांच सितारा होटल में धूमधाम पूर्ववत चलता रहता है, बल्कि सरकार द्वारा इन बैंकों को और पूंजी उपलब्ध कराई जाती है, जिससे यह गोरखधंधा अनवरत चलता रहे। प्राइवेट बैंकों द्वारा भी कुछ घटिया लोन दिए जाते हैं। परंतु यहां मौलिक अंतर है। प्राइवेट बैंक के मालिक को स्वयं का घाटा लगता है, जबकी घटिया लोन देने पर सरकारी बैंक के चेयरमैन को घाटा नहीं लगता है, बल्कि उसका प्रमोशन भी हो सकता है। इसलिए आज सरकारी बैंकों के बकाया लोन 50 प्रतिशत हैं, जबकि प्राइवेट बैंकों के 20 प्रतिशत। इन लोन की अवधि पूरी हो चुकी है, परंतु रीपेमेंट नहीं हुआ है।1इंदिरा गांधी ने प्राइवेट बैंकों का सरकारीकरण किया था, क्योंकि प्राइवेट बैंकों द्वारा केवल कारपोरेट घरानों को लोन दिए जाते हैं। ग्रामीणों, किसानों एवं छोटे उद्यमियों को लोन नहीं दिए जाते हैं। लेकिन परिणाम बिल्कुल उलट हुआ है। पूर्व में प्राइवेट बैंकों द्वारा बड़े उद्यमियों को अच्छे लोन दिए जाते थे और आम आदमी को लोन नहीं दिए जाते थे। अब सरकारी बैंकों द्वारा उन्हीं बड़े उद्यमियों को घटिया लोन दिए जाते हैं और आम आदमी को फिर भी लोन नहीं दिए जा रहे हैं। ऊपर से सरकारी बैंकों को घाटा लग रहा है। इस घाटे की पूर्ति के लिए सरकार द्वारा आम आदमी पर टैक्स लगाकर इन बैंकों को और पूंजी उपलब्ध कराई जा रही है। प्राइवेट बैंकों का सरकारीकरण करके हम कुएं से तो निकले, परंतु और गहरी खाई मे जा पड़े।1सरकार को व्यापार नहीं करना चाहिए। सोवियत रूस की अर्थव्यवस्था के चौपट होने का प्रमुख कारण था कि सरकारी नौकरशाही भ्रष्ट और अकुशल थी। मूल समस्या घर्षण के अभाव की है। प्राइवेट बैंकों की व्यवस्था में तीन खिलाड़ी होते है-बैंक, रिजर्व बैंक तथा उपभोक्ता। रिजर्व बैंक का कार्य होता है कि प्राइवेट बैंकों पर नियंत्रण करे। जैसे प्राइवेट बैंक द्वारा निर्धारित संख्या में ग्रामीण शाखाएं न खोली जाएं तो रिजर्व बैंक उन पर कार्रवाई कर सकता है। उनका लाइसेंस निरस्त कर सकता है। छोटे उद्यमियों को प्राइवेट बैंक के अधिकारी लोन न दें तो उनका संगठन रिजर्व बैंक के सामने शिकायत कर सकता है। रिजर्व बैंक उचित नियम बना सकता है। सरकारी बैंकों की व्यवस्था में केवल दो खिलाड़ी रह जाते है-रिजर्व बैंक तथा उपभोक्ता। सरकारी बैंक तथा रिजर्व बैंक, दोनों की नियुक्ति वित्त सचिव द्वारा की जाती है। वित्त सचिव दोनों के ‘मालिक’ होते हैं। सरकारी बैंक तथा नियंत्रक के बीच घर्षण समाप्त हो जाता है। यह आश्चर्यजनक है कि जिसके इशारे पर भ्रष्टाचार हो रहा है उसे ही उस भ्रष्टाचार को रोकने की जिम्मेदारी दे दी गई है। यह कुछ उसी तरह है जैसे घोड़े को ही लगाम पकड़ा दी जाए अथवा क्रिकेट टीम के कप्तान को ही अंपायर बना दिया जाए। ऐसे में सरकारी बैंकों के दुराचरण पर नियंत्रण करना असंभव है। यही कारण है कि सरकारी बैंकों में भ्रष्टाचार व्याप्त है, वे बड़े उद्यमियों को घटिया लोन दे रहे है, बैंक घाटे में चल रहे है और उनके अधिकारी जश्न मना रहे हैं। 1रिजर्व बैंक निष्प्रभावी है। यदि रिजर्व बैंक प्रभावी होता तो प्राइवेट बैंकों को आदेश दे सकता था कि ग्रामीण क्षेत्रों में शाखा खोलें। तब इंदिरा गांधी को इनका सरकारीकरण करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। रिजर्व बैंक का प्रमुख कार्य देश की मुद्रा व्यवस्था को संभालना है। इसलिए प्राइवेट बैंकों पर नियंत्रण करने में रिजर्व बैंक असफल रहा है। इसके अलावा जरूरी है कि बैंकों के मालिकों की ग्रामीण क्षेत्रों में शाखा खोलने की रुचि हो। सरकारी व्यवस्था में न वित्त सचिव की ऐसी रुचि है, न ही बैंक के अधिकारियों की। वित्त सचिव और बैंक के अधिकारियों का मूल चरित्र एक समान है। दोनों के लिए लाभकारी है कि भ्रष्टाचार से व्यक्तिगत लाभ कमाकर बैंक को गड्ढे में धकेल दें। कहावत है कि घोड़े को पानी तक लाया जा सकता है, परंतु उसे पानी पिलाया नही जा सकता है। बैंक के अधिकारियों को सुशासन का रास्ता दिखाया जा सकता है, परंतु यह व्यर्थ है, क्योंकि उनकी उस दिशा में चलने की रुचि ही नहीं। सरकारी बैंकों के खस्ताहाल का एकमात्र उपाय है कि इनका निजीकरण कर दिया जाए। साथ-साथ इन पर नियंत्रण करने के लिए अलग नियंत्रक बनाया जाए। यह नियंत्रक सुनिश्चित करे कि ग्रामीण क्षेत्रों में शाखा खोली जाए तथा आम आदमी को बैंक द्वारा लोन दिया जाए। 1सरकारी बैंकों के भ्रष्टाचार को ढकने को सरकार द्वारा इन्हें और पूंजी उपलब्ध कराई जा रही है। इससे सरकार पर बोझ पड़ रहा है। इनका निजीकरण कर दिया जाए तो सरकार को राजस्व की भारी प्राप्ति होगी। इनमें व्याप्त कुशासन से भी देश को मुक्ति मिल जाएगी। सरकार की वित्तीय हालत में भी सुधार आएगा। सरकारी बैंकों के मुखियाओं की मांग रही है कि उन्हें स्वायत्त बना देना चाहिए। उन्हें बैंकों का संचालन प्रोफेशनल तौर-तरीकों से करने की छूट मिलनी चाहिए। इतना सही है कि बैंकों की खस्ता स्थिति का एक कारण राजनीतिक दखल है, परंतु बैंकों को स्वायत्तता देने के बाद ये प्रोफेशनल भ्रष्टाचारी भी बन सकते हैं। अत: इस प्रकार के फर्जी सुझावों से बचकर सरकारी बैंकों का शीघ्रातिशीघ्र निजीकरण कर देना चाहिए। तब माल्या से 7,000 करोड़ रुपये वसूल न किए जा सके तो वह घाटा बैंक के मालिक को लगेगा। जनता पर वह बोझ नहीं पड़ेगा। 1(लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं और आइआइएम बेंगलूर में प्राध्यापक रह चुके हैं)(Dainik jagran)

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