Sunday 22 May 2016

दूसरों के काम में दखल (सुभाष कश्यप)

कार्यपालिका और विधायिका के कार्यो में न्यायपालिका के दखल की बात एक लंबे अर्से से की जाती रही है। हाल के दिनों में वित्त मंत्री अरुण जेटली की ओर से न्यायपालिका को अपनी लक्ष्मण रेखा स्वयं तय करने और कार्यपालिका के अधिकार में दखल न देने की बात कहने के बाद यह पुराना सवाल फिर से सतह पर आ गया है। मेरा मत यही है कि भारत का संविधान तीनों अंगों यानी कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के अधिकार क्षेत्रों की स्पष्ट व्याख्या करता है। चूंकि संविधान में इन तीनों ही अंगों के दायित्वों और सीमाओं को सुस्पष्ट तौर पर परिभाषित किया गया है इसलिए कहीं कोई संदेह की स्थिति नहीं है। यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि उपरोक्त तीनों ही अंगों में कोई भी अंग अपने आप में सर्वोच्च नहीं है-यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी सर्वोच्च नहीं है। ये तीनों ही अंग अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों में सर्वोच्च हैं न कि एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्र में। संविधान में सबके अधिकारों और दायरे को परिभाषित किया गया है ताकि सभी अंग निष्पक्ष रहते हुए अपने दायित्वों का स्वतंत्र निर्वहन कर सकें। वर्तमान बहस के संदर्भ में यदि देखा जाए तो संविधान सवरेपरि है और संविधान से ऊपर जनता है। जाहिर है कि जनता के प्रति संविधान के ये तीनों अंग जवाबदेह हैं। जहां तक सरकार की तरफ से न्यायपालिका पर सवाल उठाए जाने की बात है तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों पर आपत्ति जताने, सवाल उठाने या उसकी आलोचना करने का अधिकार सरकार के साथ-साथ देश के नागरिकों को भी है और इसमें कुछ गलत नहीं है। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट को भी किसी मामले विशेष में सुनवाई करने और पक्ष विशेष के मत को जानने का अधिकार है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सुप्रीम कोर्ट विधि निर्माण का काम कर सकता है। यह काम केवल और केवल संसद के पास है। 1यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि न्यायपालिका न तो कार्यपालिका का विकल्प हो सकती है और न ही अथवा विधायिका का। हाल में सुप्रीम कोर्ट में सूखे, मेडिकल प्रवेश परीक्षा आदि मामलों में सुनवाई की गई और कुछ में सरकार को आदेश एवं दिशानिर्देश भी दिए गए, लेकिन इन पर कुछ भी कहने से पहले हर एक मामले की गहराई में जाना होगा और समग्रता में विचार करना होगा। सुप्रीम कोर्ट की कुछ एक सुनवाइयों के आधार किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक मसला आधार संबंधी विधेयक को धन विधेयक के रूप में संसद में पेश किए जाने का भी है। इस विधेयक को धन विधेयक का स्वरूप दिए जाने के लोकसभा अध्यक्ष के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। 1हालांकि यह विधेयक पारित हो चुका है, लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने सुप्रीम कोर्ट में लोकसभा अध्यक्ष के फैसले पर सवाल उठाते हुए एक याचिका दाखिल की, जिसे सर्वोच्च अदालत में विचार करने हेतु स्वीकार कर लिया गया। इस मामले में भी कोई भी मत बनाने से पूर्व हमें संविधान को देखना होगा और इस बारे में संविधान में जो लिखा गया है वह यही है कि कोई विधेयक धन विधेयक है अथवा नहीं, इसका अंतिम निर्णय लोकसभा अध्यक्ष करेगा न कि कोई अन्य पक्ष। स्ंविधान के अनुच्छेद 110 में इस बारे में विस्तार से व्याख्या की गई है जिस पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। संविधान में जो कुछ लिखा हुआ है उसके उल्लघंन की स्थिति में लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है, लेकिन इसमें कहीं कोई संदेह नहीं कि निर्णायक संविधान की धाराएं ही हैं। संविधान सर्वोच्च है और सुप्रीम कोर्ट भी संविधान से बंधा हुआ है। यह कहने में कोई हिचक नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों में भी गलती हो सकती है और जरूरत होने पर उनमें सुधार भी संभव है। इस क्रम में मैं यह भी स्पष्ट करना चाहूंगा कि कई बार न्यायपालिका की स्वतंत्रता और दूसरे अन्य मसलों को लेकर संविधान के मूलभूत ढांचे का हवाला दिया जाता है, लेकिन संविधान का छात्र होने के नाते मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि संविधान को मूल ढांचे और शेष हिस्से के रूप में दो भागों में बांटा जाए। स्ंविधान के मूल ढांचे की धारणा सुप्रीम कोर्ट की अपनी व्याख्या है जिससे मैं कभी सहमत नहीं रहा। ऐसा इसलिए, क्योंकि इससे संविधान का मूल्य और महत्व कमजोर होता है। वास्तव में पूरा संविधान ही देश का बेसिक लॉ अर्थात मूलभूत कानून है। संविधान में जो कुछ भी लिखा गया है वह समग्रता में है और इस नाते उससे कोई भी छेड़छाड़ उचित नहीं! 1दुर्भाग्य से आज कुछ ऐसी स्थिति है कि संविधान के तीनों ही अंग अपने-अपने दायित्यों के निर्वहन में हीला-हवाली करते दिख रहे हैं। न्यायपालिका के समक्ष तीन करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं, लेकिन उन्हें निपटाने पर अपना पूरा ध्यान लगाने के बजाय वह दूसरे मसलों पर ध्यान अधिक केंद्रित कर रही है। इसी तरह विधायिका कार्यपालिका के कामों में अधिक रुचि ले रही है, न कि नीतियों के निर्माण में। विधायिका कार्यपालिका की शक्तियों को अधिक से अधिक हासिल करने की कोशिश में लगी रहती है। हाल के समय में संसद में जो कुछ देखने को मिल रहा है वह किसी से छिपा नहीं। संसद सत्र के दौरान आए दिन गतिरोध और सदस्यों का हंगामा आम बात हो गई है। इससे सदन की मर्यादा तो तार-तार होती ही है, लोकतंत्र पर भी सवाल खड़े होते हैं। 1970 के बाद आज करीब 46 साल बीत चुके हैं, लेकिन संसद में एक भी प्राइवेट मेंबर्स अर्थात किसी सांसद की ओर से तैयार किया गया विधेयक पारित नहीं हो सका है। आखिर यह किस बात का संकेत है और ऐसा क्यों है? हमें इन सवालों के जवाब तलाशने होंगे। संसद में जितने भी कानून बनते हैं उनमें 99 फीसद विधेयक ज्यों के त्यों पारित कर दिए जाते हैं। मुश्किल से ही उनमें कोई संशोधन किया जाता है। संसद में कई एक विधेयकों को तो बिना बहस के ही पारित कर दिया जाता है। बीते सत्र में भी ऐसा ही हुआ। पता नहीं क्यों विधेयकों पर व्यापक चर्चा जरूरी नहीं समझी जाती? क्या ऐसा इसलिए है कि सरकार की तरफ से पेश किए जाने वाले विधेयकों पर संसद सदस्य गहन अध्ययन करना जरूरी नहीं समझते? 1यदि संविधान के सभी अंग अपने-अपने दायित्यों का सही निर्वहन करें और अपनी जवाबदेही स्वयं तय करें तो परस्पर टकराव की स्थिति से बचा जा सकता है। संविधान के तीनों अंगों का एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्रों में दखल देते दिखना स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं माना जा सकता। ऐसे में बेहतर यही होगा कि सभी संवैधानिक संस्थाएं संविधान को मूल स्नोत स्वीकार करें और अपने दायित्वों का निर्वहन ईमानदारी से करें।1(लेखक लोकसभा के पूर्व महासचिव एवं संविधान विशेषज्ञ हैं)(dAINIK JAGRAN)

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