Thursday 12 May 2016

चरित्र पर निर्भर होता है आपका प्रदर्शन (मदनलाल)

स्कूल के दिनों से ही क्रिकेट के प्रति आकर्षण पैदा हो गया था। उस जमाने में दुनिया की सभी टीमों में बड़े-बड़े खिलाड़ी थे। उनके खेल के बारे में सुनते। अपने देश के खिलाड़ियों को खेलते देखते तो बड़ी प्रेरणा मिलती। उत्साह जगता कि हम भी एक दिन इनके जैसे बनेंगे। जब आप बड़े खिलाड़ियों को देखते हैं तो उससे बड़ी प्रेरणा कोई नहीं हो सकती। कामयाबी, सफलता का रास्ता तो काफी लंबा होता है। यह तो खुद ही तय करना होता है, लेकिन मोटीवेशन वहीं से आता है। फिर टेलेंट होना भी जरूरी है। उत्साह लगन हो तो इसे विकसित भी किया जा सकता है। जहां तक मेरी बात है तो मैं स्कूल के दिनों में काफी अच्छा खेलता था। काफी रन बनाए, विकेट लिए। एक ही धुन सवार रहती थी कि मुझे खेलना है बस। उन दिनों हमारे यहां के क्रिकेट में टाइगर पटौदी का बड़ा नाम था। बिशन सिंह बेदी थे, एक विजय मेहरा थे। ये दोनों तो हमारे शहर अमृतसर के ही थे। हमें लगता था कि ये खेल सकते हैं, तो हम भी खेल सकते हैं।
किसी मुकाम तक पहुंचना हो तो कई चीजों का त्याग करना पड़ता है। तभी अपने लक्ष्य पर वाजिब फोकस बन पाता है। हम तो कभी सिनेमा देखने जाते थे और किसी अन्य गतिविधि में रुचि थी। उन दिनों यही था कि पढ़ना और खेलना बस। घर से कोई दबाव नहीं होता था कि आप यह बनो, वह बनो। मुझे कोई कहता नहीं था कि मैदान में मेहनत करो, मैं खुद ही लगा रहता था। बाद में मैंने औपचारिक रूप से कोचिंग भी ली। हमारे कॉलेज के दिनों के कोच थे ज्ञान प्रकाश। बड़े मशहूर कोच थे अमृतसर के। उन्होंने बिशन सिंह बेदी को भी कोच किया था। अमृतसर के सारे बड़े खिलाड़ियों को उन्होंने ही कोच किया था। उनकी कोचिंग की खासियत यह थी कि अच्छा खिलाड़ी बनाने के साथ मेंटल टफनेस भी देती थी और सबसे बड़ी बात खिलाड़ी को अच्छा इंसान भी बनाती थी। वे कहा करते थे कि आपका गेम, आपका परफार्मेंस आपके कैरेक्टर पर निर्भर है। जब आप अपने लक्ष्य को लेकर गंभीर होते हैं, तो फिर ऐसी बातें पकड़ लेते हैं। स्कूल-कॉलेज में जब खेलना शुरू किया तो मेरी कोशिश रहती थी कि किसी भी मैच में खेलूं तो मेरा योगदान जरूर हो। बल्ले से नहीं तो गेंदबाजी से और नहीं तो फील्डिंग से ही कोई कमाल कर जाऊं। मैच खाली नहीं जाना चाहिए। यही मेरे ऑलराउंडर बनने का कारण रहा। स्कूल में मुझे एक अच्छा मौका मिला था। नार्थ बनाम वेस्ट मैच था। मेरे सामने ख्यात ऑलराउंडर करसन घावरी थे और मैंने अच्छे रन बनाए। फिर यूनिवर्सिटी में मौका मिला। वहां मेरा प्रदर्शन बहुत अच्छा था। इलाहाबाद के खिलाफ एक मैच में मैंने 200 रन बनाए। यूनिवर्सिटी लेवल के एक अन्य मैच में मैंने 326 रन बनाए थे। तब जाकर लगने लगा था कि मैं किसी स्तर पर गया हूं। विजी ट्रॉफी के दो मैच में मैंने 22 विकेट लिए थे। वह आज भी रिकॉर्ड है।
बड़े मैच के पहले तैयारी की बात है तो दबाव तब भी रहता है। मेरा तो मानना है कि दबाव के बिना किसी भी क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन नहीं हो सकता। खेल या िजंदगी मेें दबाव तो रहेगा ही रहेगा। यह दबाव है क्या, यही कि अच्छा खेलना है। अच्छा खेलूंगा तो ही आगे जा सकूंगा। तैयारी के लिए हम फिटनेस पर बहुत जोर देतेे थे। बरसात के दिनों में जब बैटिंग-बॉलिंग हो नहीं सकती थी, तो पूरा ध्यान हम फिटनेस पर देते थे। जब क्रिकेट का सीजन शुरू होता तो हम बिल्कुल फिट रहते थे और सीजन अच्छी तरह निकल जाता था। मैच के दौरान ज्यादा ध्यान मैच पर होता, लेकिन फिटनेस की अनदेखी नहीं करते, इसलिए हम कभी चोटग्रस्त नहीं हुए। टेस्ट मैच में खेले तो बैटिंग हमारी उतनी अच्छी नहीं थी, जितनी यूनिवर्सिटी लेवल पर थी। गेंदबाजी जरूर हम अच्छी कर रहे थे। बैटिंग में हमें शार्ट पिच गेंदों से समस्या थी। हमने खूब मेहनत कर यह खामी दूर की। उन दिनों टीम का चरित्र कुछ ऐसा था कि सभी को बैटिंग करनी होती थी। टेस्ट में कमजोर बैटिंग की वजह से भी हमें मौके कम मिले। जहां तक प्रेरणा की बात है तो टीम में ही सुनील गावसकर, विश्वनाथ जसे शानदार खिलाड़ी थे। वे ही हमें कोचिंग देते थे। उनसे पूछ-पूछकर हमने अपना खेल सुधारा। वे हमें बताते भी थे कि ऐसा करना है, वैसा करना है, लेकिन आखिरकार करना तो आपको ही है। जहां तक 1983 के विश्वकप टूर्नामेंट की बात है तो पहले दो विश्वकप में हमने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था, इसलिए हमसे कोई ज्यादा अपेक्षाएं नहीं थी। जो मैच हमारे सामने होता, हम केवल उसी पर ध्यान केंद्रित करते। मैच दर मैच हमारे प्रदर्शन में निखार आता गया और इतिहास बन गया। तब चाहे पब्लिक प्रेशर हो, लेकिन अच्छे खेलने का प्रेशर तो हर किसी पर होता है, चाहे पहले नंबर का बैट्समैन हो या 11 नंबर का। यह प्रेशर खेल को निखारता भी है, लेकिन प्रेशर का उल्टा असर होने लगे तो फिर उसे काबू में करना आना चाहिए।
बड़ा खिलाड़ी जो रहता है वह हमेशा चैलेंज लेता रहता है। यही बात विवियन रिचर्ड्स के बारे में थी। फाइनल में उन्होंने मेरे पहले ओवर में ही मुझे तीन चौके लगा दिए। इसके बाद भी मैंने कप्तान कपिलदेव से मेरी गेंदबाजी जारी रखने को कहा, क्योंकि बड़ा खिलाड़ी चैलेंज लेता है। उसका आत्मविश्वास का स्तर इतना ऊंचा रहता है कि उसे लगता है कि वह हर गेंद को मार सकता है। ऐसे में आपके पास उसे आउट करने का मौका होता है। बड़े खिलाड़ी के आगे घबरा जाएं तो वह और पिटाई करता है, इसलिए मैंने चुनौती ली। मेरा एटीट्यूड भी यही था कि बड़े प्लेयर के पीछे भागो। उसी से नाम होता है। फिर कपिलदेव ने तीस गज दौड़कर वह ऐतिहासिक कैच लिया और मैच का रुख ही पलट गया। बाद में कभी विवियन रिचर्ड्स मुझसे मिलते तो मजाक में कहते यार तुम मेरे सामने मत आया करो। आज जो टीम है वह बहुत अच्छी है। भारतीय क्रिकेट आगे बढ़ ही इसलिए रहा है कि सचिन, द्रविड़, गांगुली, अनिल कुंबले, सहवाग, धोनी जैसे कई बड़े खिलाड़ी आए और उनका प्रदर्शन शानदार रहा है। टर्निंग पॉइंट 1983 की विश्वकप जीत ही है, लेकिन यह भी सही है कि प्रेरणा तो मिल गई, उसे आकार देने वाला प्रतिभाशाली खिलाड़ी भी चाहिए। हमारा सौभाग्य रहा कि ऐसे खिलाड़ी लगातार हमें मिले हैं। एक पीढ़ी जाती है तो प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की नई पौध सामने जाती है।
हमारा सिस्टम बहुत अच्छा है। सुविधाएं बहुत अच्छी हो गई हैं। बीसीसीआई दुनिया का सबसे अच्छा बोर्ड है। विवाद आदि तो चलते रहते हैं, लेकिन खिलाड़ी की दृष्टि से बोर्ड का रवैया अच्छा है। खिलाड़ियों को पेंशन मिल रही है। स्कूल के खिलाड़ियों को नर्चर किया जाता है।
बड़ा खिलाड़ी चैलेंज लेता है। उसका आत्मविश्वास का स्तर इतना ऊंचा रहता है कि उसे लगता है कि वह हर गेंद मार सकता है। ऐसे में आपके पास उसे आउट करने का मौका होता है।
दबाव के बिना किसी भी क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन नहीं हो सकता। खेल या िजंदगी मेें दबाव तो रहेगा ही रहेगा। यह दबाव है क्या, यही कि अच्छा खेलना है। अच्छा खेलूंगा तो ही आगे जा सकूंगा।
(मदनलाल 1983की विश्वकप विजेता भारतीय क्रिकेट टीम के ऑलराउंडर)
दैनिक भास्कर

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