Monday 11 February 2019

मिश्रित उपलब्धियों का गणतंत्र (मृदुला मुखर्जी प्रसिद्ध इतिहासकार) (साभार हिंदुस्तान )


आज हम संविधान लागू होने के 70वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। इन सात दशकों में तमाम उपलब्धियां हमारे हिस्से आई हैं। यह कतई आसान नहीं था कि करीब 200 वर्षों तक पराधीन रहने और ब्रिटिश राज में तमाम तरह के दमन झेलने वाला यह देश इतनी जल्दी दुनिया की उभरती हुई ताकतों में शुमार हो जाए। आजादी के समय तो हमारी जीवन प्रत्याशा महज 32 वर्ष थी और साक्षरता दर नाममात्र, लेकिन आज हमारी औसत उम्र बढ़कर 65 हो गई है और देश की करीब 75 फीसदी आबादी साक्षर में गिनी जाने लगी है। इन तमाम सफलताओं का आधार निश्चय ही हमारा संविधान है।
दरअसल, हमारे संविधान में स्वतंत्रता संग्राम की मूल भावनाओं को ही समेटा गया है। आजादी की जंग इस सोच के साथ लड़ी गई थी कि हमें अपनी पसंद का भारत बनाना है। संविधान में इस सोच को बखूबी शामिल किया गया। जैसे कि कांग्रेस की संकल्पना। कांग्रेस शब्द असल में अमेरिकी कांग्रेस यानी संसद से लिया गया है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन के समय लोगों को यही बताया गया था कि जिसकी स्थापना हो रही है, वह कोई राजनीतिक पार्टी नहीं, बल्कि हम जिस राष्ट्र की कल्पना कर रहे हैं, उसकी संसद है, इसीलिए उसमें लोकतांत्रिक भारत की सोच निहित थी।
धर्मनिरपेक्षता भी ऐसी ही एक अन्य भावना है। भले ही 42वें संविधान संशोधन द्वारा ‘सेक्युलर’ शब्द को बाद में प्रस्तावना का हिस्सा बनाया गया, लेकिन संविधान के तमाम अनुच्छेदों में यह शब्द बराबर से शामिल रहा है। मसलन, अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का अधिकार देना, लोकतांत्रिक राष्ट्र की संकल्पना, मौलिक अधिकार आदि। इन सबका उद्भव भी हमारा स्वतंत्रता संग्राम है। हमारे स्वाधीनता सेनानी इस भावना को पूरी ईमानदारी से जीते रहे कि जंग-ए-आजादी में हिन्दुस्तान के सभी धर्मों- तबकों के लोग शामिल रहे हैं, इसीलिए आजाद मुल्क में सबके लिए समान अधिकार होंगे।
इसकी तस्दीक सन 1928 की मोतीलाल नेहरू कमेटी की रिपोर्ट भी करती है। जब अंग्रेजों ने भारतीयों को एकमत होने की चुनौती दी, तो देश में ऑल पार्टी कॉन्फ्रेंस आयोजित की गई और मोतीलाल नेहरू को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि कॉन्फ्रेंस के विचारों को समेटते हुए वह एक रिपोर्ट तैयार करें, जो यह बताए कि भारत का संविधान कैसा होना चाहिए? इस रिपोर्ट में कई मौलिक अधिकारों की चर्चा है, जो बाद में हम अपने संविधान में भी देखते हैं। ‘वी द पीपुल’ यानी हम भारत के लोग की संकल्पना भी आजादी के आंदोलन की ही देन है।
साफ है, हमारा संविधान महज एक असेंबली और चंद लोगों द्वारा तैयार नहीं किया गया है। यह पिछले पांच-छह दशकों से आकार ले रहा था। इसमें आम लोगों के संघर्षों को जगह दी गई है। किसी भी संविधान की जीवंतता तभी तक सुनिश्चित होती है, जब तक कि उसमें लोगों की जिंदगी से जुड़ने की ताकत रहती है। हमारा संविधान इस मामले में दुनिया भर में अलहदा है और लगातार मजबूत हो रहा है। यहां लोग लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में स्वयं हिस्सा लेते हैं। यह लोगों में विश्वास जगाता है कि सरकार उनकी है। वे जानते हैं कि सरकार उनके वोट से बनती-बिगड़ती है। वे संसद, विधानसभा और पंचायत का फर्क जानते हैं। यानी, विषमताओं से परिपूर्ण और इतना विशाल देश होने के बावजूद लोग लोकतंत्र को गहराई से समझते हैं और उन्हें इसकी आदत लग चुकी है, जिसे बदलना काफी मुश्किल है।
अपने वोट की यह कीमत लोगों ने यूं ही नहीं समझी। संविधान में मौजूद वयस्क मताधिकार ने उन्हें यह ताकत दी है। शायद ही दुनिया के किसी देश में सभी लोगों को वोट देने का अधिकार एक साथ मिला हो। इंग्लैंड में तो प्रथम विश्व युद्ध के बाद महिलाओं को यह मौका मिला। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान भारत में भी 1945-46 में हुए चुनाव में सिर्फ 13 फीसदी लोगों को ही यह अधिकार मिला था, लेकिन आजाद भारत ने सबको बराबर से वोट डालने का अधिकारी माना। यह संदेश देता है कि गरीब से गरीब इंसान भी कठिन से कठिन लड़ाई लड़ सकता है और उसकी समझ कहीं से भी कमतर नहीं मानी जाएगी। आपातकाल के समय इस भावना को जरूर धक्का लगा, लेकिन उसके बाद देश में लोकतांत्रिक परंपरा शायद कहीं ज्यादा मजबूत हुई है।
बहरहाल, हमारे गणतंत्र के सामने कई चुनौतियां भी हैं, जिन पर विजय पाना जरूरी है। सबसे पहले तो लोगों की इस सोच से पार पाना होगा कि ‘हर नेता एक जैसा (बेईमान) होता है’। यह भावना लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा सकती है। मैं इसकी वजह देश में मौजूद असमानता को मानती हूं। संविधान में बेशक समानता की वकालत की गई है और पिछले सात दशकों में गरीबी काफी घटी भी है, लेकिन यह भी सच है कि अमीर और गरीब का फासला बढ़ता गया है। विशेषकर पिछले 15-20 वर्षों में पूंजी चंद लोगों के हाथों में सिमटती गई है। ऑक्सफैम की हालिया रिपोर्ट भी बता रही है कि देश के नौ पूंजीपतियों के पास अपार संपत्ति है। ऐसी असमानता के साथ कोई भी समाज ज्यादा दिनों तक स्वस्थ नहीं बना रह सकता।
ऐसी ही दूसरी समस्या लैंगिक विषमता से पार पाने की है। खासतौर से महिलाओं पर जिस तरह हमले बढ़े हैं, वे काफी चिंतनीय हैं। औरतों की सुरक्षा, गरिमा के साथ उनके जीने जैसे महिला-अधिकारों पर खास ध्यान देने की जरूरत है। समानता और सामाजिक बदलाव हमारे संविधान में निहित हैं, लेकिन इसे बढ़ावा देने के लिए जैसे प्रयास होने चाहिए, वे नहीं हुए। इसे लेकर विशेष अभियान चलाने, कानून बनाने और उसे संजीदगी से लागू करने की जरूरत है।
बीते वर्षों में वैश्विक मंचों पर भले ही हमने काफी नाम कमाया है, लेकिन कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं, जहां हम बेहतर कर सकते थे, लेकिन कर नहीं पाए, और इसके लिए हमारे सत्ता-प्रतिष्ठान कहीं ज्यादा दोषी हैं। कुछ बुराइयों को तो उसने खासतौर से पैदा किया है। उसका ध्यान हालात सुधारने की बजाय उन्हें बिगाड़ने पर ज्यादा रहा। लोगों को धर्म के आधार पर बांटना और शिक्षण संस्थानों पर चोट कुछ ऐसी ही कुचेष्टाएं हैं, जिनसे हरसंभव बचने की जरूरत है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

सिर्फ अधिकारों से नहीं खत्म होगी लैंगिक असमानता (ऋतु सारस्वत) (समाजशास्त्री) (साभार हिंदुस्तान)


ब्रिटेन की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में फाइन आर्ट्स, म्यूजिक और साहित्य में पिछले सौ साल से सिर्फ लड़कियों को स्कॉलरशिप दी जा रही थी, परंतु बीते कुछ समय से इस भेदभाव पर विरोध के बाद इसे पुरुषों के लिए भी खोल दिया गया। लैंगिक समानता की पहली शर्त ही लिंग भेद के हर स्वरूप को समाप्त करना है, परंतु महिला अधिकारों की लड़ाई में पुरुषों के समानता के अधिकारों की चर्चा गायब हो जाती है। हम उन्हें सर्वाधिकार संपन्न मान बैठे हैं, जबकि यह अधूरा सच है। खेलों से लेकर शिक्षा तक, तमाम उदाहरण हैं, जो एक सिरे से इस मिथक को नकारते हैं।
1984 के लॉस एंजेलिस ओलंपिक में सिंक्रोनाइज्ड ड्राइविंग की शुरुआत तो हुई, पर आज तक यह सिर्फ महिलाओं के लिए है। खेलों में लैंगिक समानता पर काम कर रही बिली जीन किंग ने पुरुष खिलाड़ियों की समानता के लिए पहल करते हुए टेनिस में पुरुष खिलाड़ी के पांच सेट का विरोध किया है। वह कहती हैं, ‘महिला खिलाड़ी की तरह पुरुष खिलाड़ियों का मैच भी बेस्ट ऑफ थ्री सेट होना चाहिए।’ उन्होंने साल 2012 में जोकोविच और नडाल के बीच के ऑस्टे्रलियन ओपन मैच का उदाहरण दिया, जो करीब छह घंटे तक चला था। मैच के बाद ये दोनों खिलाड़ी ढंग से चल भी नहीं पा रहे थे। बिली ने तो महज वह आवरण हटाने का प्रयास किया है, जो दुनिया भर के पुरुषों पर खुद को बलशाली सिद्ध करने का दवाब बनाता है।
बीते दशक से लैंगिक समानता का सवाल दुनिया भर में उठ रहा है। ‘लैंगिक समानता’ का अर्थ सीधे-सीधे ्त्रिरयों की दोयम स्थिति से लिया जाता है, लेकिन क्या यह वाकई ‘लैंगिक समानता’ की सही परिभाषा है? लैंगिक समानता का वास्तविक अर्थ महिलाओं की कमतर स्थिति या उनके अधिकारों का संघर्ष नहीं, बल्कि पुरुष-स्त्री में बिना किसी भेदभाव के हर क्षेत्र में समानता है। ऐसी समानता, जहां दोनों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियां समान हों। सच है कि विश्व भर में महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति गंभीर है और वे अपने अधिकारों को लेकर संघर्ष भी कर रही हैं, परंतु बड़ा सवाल यह है कि लंबे संघर्ष के बाद भी समानता का अपेक्षित स्वरूप स्थापित क्यों नहीं हो पा रहा? इसका बड़ा कारण, स्त्री-पुरुष को दो धड़ों में बांटने के साथ पुरुष को असंवेदनशील और हिंसक स्थापित करने की कुचेष्टा है। इसी से महिलाओं को समानता नहीं मिल पा रही। मगर समानता स्थापित करने के लिए इस अधूरे सत्य का प्रसार असमानता की जड़ों को और गहरा करेगा। महिलाओं की तरह, पुरुषों में भी संवेदना, पीड़ा, ईष्र्या,त्याग और स्नेह के भाव होते हैं। अंतर यह है कि पुरुषों को अपनी भावनाएं दबाने की सीख दी जाती और हम इस सच से अनभिज्ञ हैं कि पुरुष भी दबाव में हैं।
अभिनेता जस्टिन बाल्डोनी ने अनायास नहीं कहा कि- ‘मुझे भिन्न चरित्र निभाने को मिले, अधिकतर ऐसे पुरुषों की भूमिका निभाई, जिनमें मर्दानगी, प्रतिभा और शक्ति कूट-कूटकर भरी है... मैं ताकतवर बनने का नाटक करता रहा, जबकि मैं कमजोर महसूस करता था, हर समय सबके लिए साहसी बने रहना अत्यंत थकाऊ होता है।... लड़कियां कमजोर होती हैं और लड़के मजबूत। संसार भर में लाखों लड़कों और लड़कियों को अवचेतन ढंग से यही बताया जा रहा है। परंतु यह गलत है।’ जस्टिन का वक्तव्य समाज की उन परतों को उघाड़ता है, जो लैंगिक असमानता की जड़ है। पुरुष और स्त्री बनाए जाते हैं। पुरुष को दंभी, प्रभुत्वशाली होना सिखाया जाता है। वह ऐसा नहीं करता, तो उसे अपने ही वर्ग से अलग कर दिया जाता है। हमारी संपूर्ण व्यवस्था ने स्त्री पुरुष को विरोधी बनाकर खड़ा कर दिया है, जिसके चलते लैंगिक समानता का संघर्ष अनवरत जारी है। इस व्यवस्था का मकड़जाल इतना गहरा है कि खुद को आधुनिक कहने वाले भी स्वाभाविक रूप से लड़के-लड़कियों में अंतर करते हैं, उन्हें यह परंपरागत और सही लगता है। लैंगिक समानता स्थापित करने का आरंभ उस सोच में बदलाव से करना होगा, जो दो जैविक शरीर को सामाजिक रूप से स्त्री और पुरुष में परिवर्तित करती हो।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

डिजिटल कंटेन्ट पर असर डालेंगे ये पांच ट्रेंड (उमंग बेदी) (प्रेसीडेंट, डेली हंट व पूर्व मैनेजिंग डायरेक्टर, फेसबुक इंडिया) Copyright@2018-19 DB Corp Ltd. All Rights Reserved


जियो के लॉन्च ने डेटा की कीमतें एकदम से नीचे ला दीं। इससे इंटरनेट सारे भारतीयों के दायरे में आ गया और डिजिटल बिज़नेस में निवेश बढ़ गया। आज डिजिटल क्षेत्र 30-35 फीसदी की संयुक्त एकीकृत वृद्धि दर (सीएजीआर) से बढ़ रहा है और वृद्धि का अगला चरण मोबाइल आधारित क्षेत्रीय बाजारों से अपेक्षित है। अब जब क्षेत्रीय बाजार डिजिटल बिज़नेस का मुख्य फोकस बन रहा है तो क्या क्षेत्रीय भाषाओं के कंटेन्ट की अत्यधिक मांग है? इसका जवाब तो असंदिग्ध रूप से 'हां' ही है। 2017 तक डिजिटल प्लेटफॉर्म पर मुख्यत: अंग्रेजी भाषा के कंटेन्ट की मांग थी। लेकिन, 2018 से स्थानीय भाषा का कंटेन्ट न सिर्फ निर्मित हो रहा है बल्कि इसकी खपत भी हो रही है। 2019 में भी कंटेन्ट निर्मिति और उसकी खपत के पैटर्न में बदलाव होता रहेगा। इस पृष्ठभूमि में आइए, पांच ऐसे इंटरनेट ट्रेंड्स पर विचार करें, जो 2019 में मोबाइल आधारित डिजिटल कंटेन्ट बिज़नेस को प्रभावित करेंगे।
भारतीय भाषाओं के इंटरनेट यूज़र में ही डिजिटल भविष्य: भाषाई कंटेन्ट डिजिटल भारत का भविष्य सिद्ध हो रहा है। इन संभावनाओं के दोहन के लिए कई स्थानीयकृत एप्स और सेवाओं की एकदम जमीन से शुरुआत की गई है। जैसे Circle और Lokal जैसे हाईपर लोकल वर्नाक्यूलर न्यूज़ एप। इन्होंने वीडियो स्निपेट्स का इस्तेमाल शुरू भी कर दिया है, क्योंकि वीडियो कंटेन्ट की अत्यधिक मांग है। फिर यह भी है कि सोशल नेटवर्क हो या न्यूज़ एग्रीगेटर्स शायद ही ऐसा होता हो कि यूज़र एक भी वीडियो देखे बिना उनके कंटेन्ट को देखता हो। केपीएमजी की रिपोर्ट के मुताबिक 2019 तक 80 फीसदी वैश्विक इंटरनेट खपत वीडियो कंटेन्ट के रूप में होगी। स्पष्ट है कि सारे ट्रेंड यही बताते हैं कि ऑनलाइन खपत वाले कंटेन्ट में वीडियो सबसे पसंदीदा स्वरूप होगा। इसके साथ-साथ हम इंटरनेट का पहली बार उपयोग करने वाले गैर-अंग्रेजी यूज़र का सैलाब आते देख रहे हैं। इसे देखते हुए कई कंटेन्ट प्लेटफॉर्म्स ने ऐसे ग्राहकों की विविध जरूरतों व चुनौतियों से निपटने के लिए बहु-भाषा नीति लागू की है। मसलन, नेटफिल्क्स ने आमदनी में हिस्सेदारी और रिकॉल बढ़ाने के लिए भाषाई सब-टाइटल्स के माध्यम से स्थानीयकरण पर फोकस किया है।
वीडियो के साथ डिजिटल एडवर्टाइजिंग का बढ़ना जारी : डिजिटल एडवर्टाइजिंग में क्रांति आ गई है, इसलिए इसमें आगे रहना महत्वपूर्ण है। व्यावसायिक घरानों को अहसास हो रहा है कि उच्च प्रभाव वाले मीडिया का होना अब सिर्फ अच्छी बात नहीं रह गई है बल्कि इसका होना ब्रैंड्स के लिए निर्णायक हो गया है। संभावना है कि वीडियो एडवर्टाइजिंग का सबसे शक्तिशाली माध्यम रहेगा, क्योंकि वे सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित करने वाले प्लेटफॉर्म हैं। यह कनवर्शन रेट (व्यूवर से खरीददार बनने की दर) भी बढ़ाता है।
नवीनतम 'ग्रुप एम' रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में देश में विज्ञापन खर्च 14.2 फीसदी की दर से बढ़ेगा। इसकी तुलना में औसत वैश्विक वृद्धि दर 3.9 फीसदी रहेगी। विज्ञापन बजट में डिजिटल वीडियो विज्ञापनों का बड़ा हिस्सा होगा। इसमें भी मोबाइल व सोशल वीडियो एडवर्टाइजमेंट विज्ञापनदाताओं की पसंद में शीर्ष पर होंगे। इसके अलावा अपेक्षा है कि ब्रैंड्स 'मोमेंट्स मार्केटिंग' पर फोकस करेंगे। यह संदर्भ को संबंधित संकेतों से जोड़कर लक्षित ग्राहकों के लिए अत्यधिक प्रासंगिक वीडियो एडवर्टाइजिंग कंटेन्ट डिलीवर करता है।
एआई, एमएल और ब्लॉकचेन व्यवसायों में उथल-पुथल मचा देंगे : डेटा संचालित अंतर्दृष्टि, डिजिटल टेक्नोलॉजी और हर जगह मौजूद मोबाइल कंप्यूटिंग भारतीय डिजिटल कंटेन्ट बिज़नेस का स्वरूप बदल रही है। जहां 2018 ऐसा साल था, जिसमें ब्रैंड्स ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई), मशीन लर्निंग (एमएल) और ब्लॉकचेन अप्लिकेशन में प्रयोग शुरू किए, वहीं 2019 के साल में वे इसे व्यवस्थित रूप दे देंगे। एआई/एमएल संचालित टेकनीक बेहतर ट्रेंड विश्लेषण, कस्टमर की बेहतर प्रोफाइलिंग, पर्सनलाइजेशन की अत्याधुनिक रणनीतियों के जरिये ग्राहक केंद्रित हो जाएगी। ये सब और ब्लॉकचेन टेक्नोलॉजी के मुख्यधारा में आने की संभावना है। कंपनियां अब यह देख रही हैं कि वे टेक्नोलॉजी का उपयोग यह जानने के लिए कैसे कर सकती हैं कि संभावित ग्राहक किस प्रकार का कंटेन्ट पसंद कर रहे हैं ताकि ग्राहकों को अधिक व्यक्तिगत अनुभव और अत्यधिक संतुष्टि दी जा सके।
डिजिटल प्लेटफॉर्म पर कंटेन्ट अब भी किंग : भारतीय बाजार इस बारे में अनूठा है कि इसमें ऐसे कंटेन्ट की पहचान करनी होती है, जो उसकी विविध आबादी का ध्यान खींच सके। 2019 में भारत में ऑनलाइन कंटेन्ट की खपत बढ़ेगी और इसमें 'खबर' के सेगमेंट का महत्वपूर्ण हिस्सा होगा। फिर भारत में कंटेन्ट कंजम्प्शन के पैटर्न को सावधानी से देखें तो पता चलता है कि कंटेन्ट की गति, मात्रा और सत्यता ही इसकी सफलता पर असर डालेगी। अधिकाधिक डिजिटल कंपनियां फर्जी व सच्चे न्यूज़ कंटेन्ट के अंतर जैसे कारकों का संज्ञान लेंगी। यह प्रमुख तत्व होगा, जो चुनावी वर्ष में कंटेन्ट की दीर्घावधि टिकाऊ सफलता तय करेगा।
एमटीटीएच के साथ इंटरनेट और विकसित होगा: भारतीय टेलीकॉम सेक्टर में अपने अत्यंत किफायती डेटा व वॉइस ऑफरिंग से उथल-पुथल मचाने के बाद 2019 में सारी निगाहें रिलायंस जियो पर हैं, जो अब ब्राडबैंड मार्केट में तूफान लाने के लिए तैयार है। व्यापक बाजार, हाई स्पीड, इंटरनेट आधारित टेलीविजन प्रोग्राम (फाइबर टू द होम यानी एफटीटीएच) के साथ वायर्ड ब्राडबैंड सर्विस भारत में टेलीविजन देखने या इंटरनेट कंटेन्ट के इस्तेमाल के तरीके में बदलाव ला देगी।
कुल-मिलाकर उम्मीद है कि जियोगिगाफाइबर ब्राडबैंड सेवाएं देश में एफटीटीएच इंडस्ट्री के मौजूदा स्वरूप को बदल देंगी। फिर जियोगिगाफाइबर के उभरने को एप या सॉफ्टेवयर आधारित कंटेन्ट फॉर्मेट की बढ़ती लोकप्रियता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। 2019 टीवी चैनल्स से एप आधारित कंजम्प्शन में बदलाव का है। यह वर्ष 5 जी लाने की तैयारी का भी है। यह महत्वपूर्ण ट्रेंड भारत के मीडिया व मनोरंजन उद्योग में उथल-पुथल मचा देगा। निष्कर्ष यह है कि इस साल कंपनियां नवीनतम टेक्नोलॉजी के माध्यम से कंटेन्ट की शक्ति का दोहन करेंगी। उभरते इंटरनेट और नई रणनीतियों के सहारे मोबाइल आधारित 'डिजिटल इंडिया' का सपना साकार किया जाएगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

चीन-नेपाल धुरी : चिंता का सबब (रहीस सिंह)


जनवरी के तीसरे सप्ताह में नेपाल के केंद्रीय बैंक नेपाल राष्ट्र बैंक (एनआरबी) ने एक सकरुलर जारी कर 100 रुपये के नोट के ऊपर के भारतीय नोटों पर पाबंदी लगा दी। नेपाल राष्ट्र बैंक ने यह सकरुलर 13 दिसम्बर 2018 के नेपाल की कैबिनेट द्वारा लिये गए निर्णय के आधार पर जारी किया है। महत्त्वपूर्ण तय यह है कि नेपाल की कैबिनेट ने 100 से ऊपर के भारतीय करेंसी नोटों को प्रतिबंधित करने का निर्णय उस समय लिया था जब एनआरबी ने भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) से आग्रह किया था कि नेपाल को सभी करेंसी नोटों को इस्तेमाल करने की अनुमति दे। नेपाल राष्ट्र बैंक ने अपने सकरुलर में कहा है कि 200, 500 और 2000 रुपये के नोट न ही कोई अपने साथ ले जा सकेगा और न ही उनका किसी प्रकार के कारोबार में प्रयोग कर सकेगा।
सवाल यह उठता है कि नेपाल की सरकार और नेपाल राष्ट्र बैंक ने यह कदम क्यों उठाया? क्या यह भारत सरकार द्वारा किए गए विमुद्रीकरण के पश्चात एनआरबी में रखी भारतीय करेंसी नोट को न बदलने का परिणाम है अथवा कारण कुछ और हैं? एक बात और नेपाल में बड़े पैमाने पर कारोबारी भारतीय मुद्रा का प्रयोग करते हैं, इसलिए 100 से ऊपर के भारतीय करेंसी नोटों पर प्रतिबंध लगाने से उसका कारोबार भी प्रभावित होगा, फिर भी नेपाल सरकार यदि ऐसा कदम उठा रही है तो कोई ठोस वजह अवश्य होनी चाहिए? क्या यह भारत की कूटनीतिक असफलता का परिणाम है या फिर नेपाल के चीनी प्रेम का? दरअसल, आरबीआई ने फरवरी 2015 में फॉरेन एक्सचेंज मैनेजमेंट (एक्सपोर्ट एण्ड इम्पोर्ट ऑफ करेंसी) रेग्युलेशंस के अंतर्गत नेपाली और भूटानी नागरिकों को यह अनुमति दी थी कि वे भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी 500 और 1000 के करेंसी नोटों को 25000 रुपये की सीमा तक अपने साथ लेकर चल सकते हैं और उसका कारोबारी इस्तेमाल कर सकते हैं। इस कारण से नेपाल में 500 और 1000 के भारतीय करेंसी नोटों का सर्कुलेशन तेजी से बढ़ा और 8 नवम्बर 2016 के भारत के विमुद्रीकरण के निर्णय के पश्चात करेंसी एक्सचेंज के कारण नेपाल राष्ट्र बैंक के पास अरबों की मात्रा में रुपया जमा हो गया।
भारतीय रुपयों का यह स्टॉक अभी भी एनआरबी के पास पड़ा है। संभवत: नेपाल की यही खीझ अब भारत के नोटों पर प्रतिबंध लगाने के रूप में दिख रही है। लेकिन असल बात यह नहीं है। जिन 950 करोड़ रुपये की वापसी को लेकर नेपाल सरकार, नेपाल राष्ट्र बैंक और भारतीय वित्त मंत्रालय व आरबीआई के बीच एक तनाव की स्थिति है, वह इतनी साधारण नहीं जितनी कि नेपाल दिखाना चाहता है। यहां पर दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली यह कि नेपाल राष्ट्र बैंक अब इन पुराने नोटों का भुगतान डॉलर में चाहता है, नये भारतीय करेंसी नोटों में नहीं। उसकी तरफ से कहा गया था कि बदल चुके नोटों का यह स्टॉक भारत वापस ले और बदले में उसे 14 करोड़, 60 लाख डॉलर भुगतान करे। चूंकि पिछले कुछ समय से रुपया डॉलर के मुकाबले अवमूल्यित हो रहा है, जाहिर है यदि भारत उसे डॉलर में चुकता करता है तो उसे मूल मात्रा से अधिक रुपये व्यय करने होंगे। सवाल यह उठता है कि भारत नेपाल की इस मांग को क्यों स्वीकार करे? दूसरी बात यह है कि एनआरबी के पास पुराने भारतीय नोटों (500 एवं 1000) में कुछ फेक करेंसी (जाली मुद्रा) भी है। सो, भारतीय रिजर्व बैंक एनआरबी में रखे जाली नोट क्यों स्वीकार करे? हम सभी जानते हैं कि भारत में फेक करेंसी भेजने का काम पाकिस्तान करता है और इसके लिए रास्ते हैं-बांग्लादेश और नेपाल।
आईएसआई का नेटवर्क इसे ऑपरेट करता है। यह फेक करेंसी भारतीय अर्थव्यवस्था के आयतन को बढ़ाने का काम करती है, जिससे स्फीति व साख और कानून-व्यवस्था जैसी चुनौतियां उत्पन्न होती हैं। ऐसे में नेपाल के वित्त मंत्रालय या नेपाल राष्ट्र बैंक को यह स्पष्ट करना चाहिए था कि उसके पास बचे 950 करोड़ के भारतीय करेंसी नोटों में से कितनी फेक करेंसी है। गौर करने लायक बात यह है कि नेपाल के वित्त मंत्रालय ने अब तक इसे स्पष्ट नहीं किया है। हालांकि अप्रैल 2018 में जब नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली भारत की यात्रा पर आए थे, तब उन्होंने यात्रा शुरू करने से ठीक पहले नेपाल के नागरिकों को आास्त किया था कि वह इस मुद्दे का समाधान करके आएंगे, लेकिन इस दिशा में कोई प्रगति हुई नहीं। यहां एक तय और ध्यान देने योग्य है कि क्या भारत सरकार और नेपाल सरकार के बीच करेंसी वापसी के लिए कोई लिखित संविदा या समझौता था? नेपाल सरकार इस विषय पर भी कोई उत्तर नहीं दे पाई है। हालांकि कुछ समय पहले नेपाल राष्ट्र बैंक के डिप्टी गवर्नर चिंतामणि शिवकोटी ने साक्षात्कार में कहा था कि विमुद्रीकरण के समय उन्हें नई दिल्ली से मौखिक आदेश मिला था कि नेपाल प्रति व्यक्ति 4,500 रुपये तक के पुराने करेंसी नोट बदल सकता है। इस पूरे मामले में एक बात और है, जो कूटनीति के लिहाज से महत्त्वपूर्ण हो सकती है।
नेपाल को ऐसा लगता है कि इस मामले में भारत ने उसके मुकाबले भूटान को प्राथमिकता दी। ध्यान रहे कि भारत ने मई 2017 में भूटान के रॉयल मॉनेटरी अथॉरिटी (आरएमए) के पास रखे पुराने भारतीय करेंसी नोट वापस ले लिये थे। मगर नेपाल अब तक नोट वापस करने में सफल नहीं हो पाया। इस सिक्के का एक दूसरा पहलू नेपाल या विशेषकर प्रधानमंत्री ओली का चीनी प्रेम है। दरअसल, नेपाल नई दिल्ली के साथ इकोनॉमिक मैनेजमेंट स्थापित करने एवं उसमें अनुकूलन स्थापित करने की बजाय बीजिंग के साथ पींगे बढ़ा रहा है, लेकिन वह अपने चीनी प्रेम को छुपाने के लिए नई दिल्ली को निशाना बनाता है। ओली ने 8 सितम्बर 2018 को ट्वीट में कहा था कि उन्होंने भारत द्वारा 2015 में की गई आर्थिक नाकेबंदी का जवाब ढूंढ़ लिया है।
यह जवाब था नेपाल-चीन ट्रांजिट-ट्रांसपोर्ट एग्रीमेंट, जिसके फलस्वरूप चीन ने उसके लिए अपने चार समुद्री बंदरगाह और तीन शुष्क बंदरगाह खोल दिए थे। चूंकि चीन ने नेपाल को युआन में व्यापार करने की सुविधा दे रखी है इसलिए नेपाल को रुपया और भारत (कलकत्ता पोर्ट) दोनों का ही विकल्प मिल गया। यही नहीं नेपाल में अपना प्रभाव स्थापित करने और इन्फ्रा प्रोजेक्ट को विस्तार देने के लिए चीन नेपाल को हुंडी के जरिए भुगतान की सुविधाएं दे रहा है। यानी कि नेपाल ‘‘ग्रे फेस’ डिप्लोमेसी कर रहा है, जिसे भारत को न केवल समझना चाहिए बल्कि उसे काउंटर करने के तरीकों की खोज करनी चाहिए।

आर्थिक आरक्षण और कृषि कर्ज-माफी की समानताएं (रोशन किशोर) (आर्थिक समीक्षक, हिन्दुस्तान टाइम्स) (साभार हिन्दुस्तान )


नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए घोषित 10 फीसदी आरक्षण कई कारणों से किसानों की कृषि कर्र्ज-माफी की तरह ही है। इन दोनों से क्रमश: सवर्ण बेरोजगारों और किसानों को बहुत कम लाभ होगा। 10 फीसदी आर्थिक आरक्षण का मतलब यह कतई नहीं कि 10 प्रतिशत सवर्ण आबादी को नौकरियां मिल जाएंगी। अव्वल तो सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र में पैदा होने वाली नई नौकरियों का यह बहुत छोटा-सा हिस्सा होगा, फिर सरकारी नौकरियों की संख्या बहुत कम है और यह दिनोंदिन घटती ही जा रही है। उदाहरण के तौर पर, सेंटर फॉर मॉनिर्टंरग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2011-12 में (सबसे ताजा उपलब्ध डाटा यही है) हमारे देश के सार्वजनिक क्षेत्र में सिर्फ 1.76 करोड़ नौकरियां थीं। साल 2001-02 और 2011-12 के बीच सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में 12 लाख की कमी आई। इसी तरह, कर्ज-माफी से भी देश के सभी किसानों को फायदा नहीं होता है। ऐसी योजनाएं साहूकारों आदि से लिए गए कर्ज को माफी के योग्य नहीं मानतीं। यहां तक कि औपचारिक क्षेत्र के सभी कर्जदारों को भी इसका लाभ नहीं मिलता, क्योंकि कृषि भूमि की मालिकाना स्थिति, कर्ज-सीमा और कर्ज की तारीख जैसे कई आधारों पर किसान कर्ज-माफी से वंचित रह जाते हैं। किसानों के एक छोटे-से हिस्से को इसका लाभ मिल पाता है। पर मामूली लाभ के बावजूद आरक्षण और कर्ज-माफी, दोनों जबर्दस्त राजनीतिक अपील रखते हैं।
ये दोनों भद्दे प्रोत्साहन हैं। यदि कोई पार्टी कर्ज-माफी की वजह से राजनीतिक लाभ हासिल कर लेती है, तो वह कृषि क्षेत्र में ढांचागत बदलाव के लिए खास उत्साह नहीं दिखाएगी, क्योंकि ढांचागत बदलाव के लिए अधिक धन की तो जरूरत पड़ेगी ही, उसमें फौरी राहत की गुंजाइश भी कम होती है। मतदाता भी दूरदर्शी कदमों की बजाय लोक-लुभावन फैसलों को ज्यादा पुरस्कृत करते हैं। रोजगार के संकट से जुड़ा परिदृश्य इससे कुछ अलग नहीं है। इस संकट के दीर्घकालिक समाधान के लिए देश की शैक्षिक दुनिया में व्यापक सुधार की जरूरत पड़ेगी। रोजगारपरक शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए काफी संसाधनों, राजनीतिक इच्छाशक्ति और वक्त की दरकार होगी। ऐसे में, सामाजिक आधार पर मिलने वाले आरक्षण के दायरे के बाहर के लोगों की नाराजगी को शांत करने के लिए उन्हें आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की घोषणा एक बेहद आसान रास्ता है। मगर इससे विपरीत परिणाम भी निकल सकते हैं। यह आरक्षण के अन्य आंदोलनों को भड़का सकता है और आबादी के अनुपात में आरक्षण की मांग सामने आ सकती है।
कर्ज-माफी और आरक्षण, दोनों हमारे लोकतंत्र की लगातार गहराती गई कमियों को उजागर करते हैं। आजादी के पहले और बाद में हमारे देश ने किसी तार्किक सामाजिक-आर्थिक सुधार की तरफ कदम नहीं बढ़ाया। भूमि पर एकाधिकार, श्रम बाजार की विषमता जैसी ढांचागत कमियों ने सरकार के आर्थिक बदलाव की मौलिक दृष्टि को बेमानी कर दिया। फिर जाति-आधारित पेशागत बाधाओं ने भारतीय अर्थव्यवस्था को उसकी विशाल श्रम शक्ति से वंचित रखा।
चीन और दक्षिण कोरिया आदि देशों में ऐसी स्थितियां नहीं थीं। निस्संदेह, भारत की संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था इसके भाषाई व सांस्कृतिक मतभेदों के साथ मिलकर देश भर में सुधारवादी राजनीतिक शक्ति के आगे एक बाधा खड़ी करती है। इस व्यवस्था के तहत सियासी पार्टियां जाति समीकरणों के सहारे अच्छी-खासी संख्या में सीटें जीतती हैं। ऐसे में, कर्ज-माफी और आरक्षण जैसे कदम किसी वैचारिक सोच की बजाय विरोधी के हाथों वोट गंवाने के भय से संचालित हैं।
इन दोनों में कुछ हद तक छल शामिल है। कृषि आय का सीधा टकराव कम मुद्रास्फीति की कवायदों से है और जब तक हमारी आर्थिक नीतियां ऊंची मुद्रास्फीति को झेलने की इच्छाशक्ति नहीं सहेजेंगी, यह समस्या बनी रहेगी। इसी तरह, निजी क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप के बिना देश के श्रम बाजार की समानता की कोई भी कोशिश निरर्थक है, क्योंकि अब ज्यादातर अच्छी पगार वाली नौकरियां निजी क्षेत्र में पैदा हो रही हैैं।

कब सुनी जाएगी पिघलते ग्लेशियरों की चेतावनी (ज्ञानेन्द्र रावत पर्यावरण कार्यकर्ता) (साभार हिंदुस्तान )


गंगोत्री ग्लेशियर से जुड़े चतुरंगी ग्लेशियर के बारे में खबर आई है कि यह इतनी तेजी से पिघल रहा है कि निकट भविष्य में इसका अस्तित्व समाप्त हो सकता है। भारत में विज्ञान की प्रतिष्ठित शोध पत्रिका करंट साइंस के फरवरी, 2019 के अंक में छपा एक शोध पत्र बताता है कि पर्यावरण बदलाव का हिमालय के ग्लेशियरों पर तेजी से असर पड़ रहा है, जिसे हम गंगोत्री ग्लेशियर कहते हैं, जो हमारी सदनीरा गंगा नदी का मुख्य स्रोत है, वह दरअसल 300 छोटे-बड़े ग्लेशियरों के मिलने से बना है। चतुरंगी ग्लेशियर इसी का एक हिस्सा है। गोविंद बल्लभ पंत संस्थान का यह अध्ययन बताता है कि यह ग्लेशियर लगातार पीछे हटता हुआ अब गंगोत्री ग्लेशियर से कट गया है, यानी अब यह गंगोत्री ग्लेशियर का हिस्सा नहीं रहा। इसका आकार 22.84 मीटर प्रतिवर्ष की दर से घट रहा है। हालांकि खुद गंगोत्री ग्लेशियर का आकार भी घट रहा है, लेकिन इसके घटने की रफ्तार प्रतिवर्ष नौ से 12 मीटर ही है।
वैसे यह खबर बहुत चौंकाने वाली इसलिए भी नहीं है कि ग्लेशियरों का घटना अब कोई नई बात नहीं रह गई। इसकी चर्चा काफी समय से है, लेकिन दुर्भाग्य से इस पर कुछ नहीं हो रहा। दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत शृंखला माउंट एवरेस्ट, जिसे तिब्बत में माउंट कुमोलांग्मा कहा जाता है, बीते पांच दशकों से लगातार गरम हो रही है। इससे इसके आस-पास के हिमखंड काफी तेजी से पिघल रहे हैं। मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने भी बीते दिनों अपनी रिपोर्ट में इस पर चिंता व्यक्त की थी। उसकी चेतावनियों का क्या हुआ, हमें इसकी जानकारी नहीं है। कई दूसरे शोधों में यह भी बताया गया है कि हिमालय के कुल 9,600 के करीब ग्लेशियरों में से तकरीब 75 फीसदी ग्लेशियर पिघल रहे हैं। सैटेलाइट चित्रों के आधार पर इसकी पुष्टि हो चुकी है कि बीते 15-20 सालों में 3.75 किलोमीटर की बर्फ पिघल चुकी है। इसका सबसे बड़ा कारण समूचे हिमालयी क्षेत्र में तापमान में तेजी से हो रहा बदलाव है। जो स्थिति गंगोत्री ग्लेशियर की है, लगभग वही यमुनोत्री ग्लेशियर की भी है। यमुनोत्री ग्लेशियर गंगोत्री के मुकाबले काफी छोटा है। इसलिए उसका पिघलते जाना ज्यादा परेशान करने वाला है।
संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण रिपोर्ट में भी हिमालय के ग्लेशियरों के गायब होने की बात कही जा चुकी है। जलवायु बदलाव पर बने अंतरराष्ट्रीय पैनल आईपीसीसी ने तकरीबन दस साल पहले अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 2035 तक हिमालय के सभी ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के चलते खत्म हो जाएंगे। हालांकि हिमालय के मामले में सभी विशेषज्ञ इससे सहमत नहीं हैं, लेकिन संकट बड़ा है, इसे सब स्वीकार करते हैं। भारत ही नहीं, हिमालय के दूसरे हिस्सों का भी यही हाल है। दक्षिण-पश्चिम चीन के किंवंघई-तिब्बत पठार क्षेत्र के ग्लेशियर भी ग्लोबल वार्मिंग के चलते तेजी से पिघल रहे हैं। तिब्बत के इस क्षेत्र से कई नदियां चीन और भारतीय उपमहाद्वीप में निकलती हैं। चीन के विशेषज्ञों ने कहा है कि तिब्बत के ग्लेशियरों के पिघलने की दर इतनी तेज है, जितनी पहले कभी न थी। शोध के परिणामों से इस बात की पुष्टि होती है कि 2,400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ग्लेशियरों का एक बड़ा हिस्सा पिघल चुका है।
गौरतलब है कि धरती पर ताजे पानी के सबसे बड़े स्रोत ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन के विश्वसनीय सूचक हैं। प्रांत के सर्वेक्षण और मैपिंग ब्यूरो के इंजीनियर चेंग हेनिंग के अनुसार, यांग्त्सी स्रोत के पांच फीसदी ग्लेशियर पिछले तीन दशक में पिघल चुके हैं। असल में ग्लेशियरों के पिघलने और जलवायु परिवर्तन में सीधा संबंध है। पिछले पचास सालों में तीन मौसम केंद्रों से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, यह साबित हो गया है कि प्रांत की इन तीनों नदियों के औसत तापमान में लगातार इजाफा हो रहा है। वैज्ञानिकों ने इस बात पर जोर दिया है कि जलवायु परिवर्तन के अलावा मानवीय गतिविधियां और जरूरत से ज्यादा दोहन भी ग्लेशियरों के पिघलने का एक बड़ा कारण है। ग्लेशियरों के पिघलने से भी बड़ी समस्या यह है कि हमारे पास फिलहाल इस समस्या का कोई समाधान नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

नेताजी से इतना डरते क्यों थे अंग्रेज (कपिल कुमार) ( निदेशक, स्वतंत्रता संग्राम अध्ययन केंद्र, इग्नू) (साभार हिंदुस्तान )


वे कभी भारत नहीं आए थे। उन्होंने हिन्दुस्तान को कभी देखा तक नहीं था। उन्होंने यहां के बारे में केवल अपने आजा और आजी से कहानियां सुनी थीं। ये वे नौजवान थे, जिनके माता-पिता गिरमिटिया मजदूर बनाकर तमिलनाडु से मलाया ले जाए गए थे, और वे तब भी वहां गिरमिटिया का काम कर रहे थे। इन नौजवानों को जब पता चला कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज का पुनर्गठन किया है, तो उन्होंने आजादी की जंग में उतरने की ठानी। तब न जाने कितने आप्रवासी भारतीय आजाद हिंद फौज में शामिल हुए और देश के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया।
सबसे बड़ी बात यह कि आजाद हिंद फौज के पास अपना पैसा नहीं था। जो खजाना फौज का बना, वह इन्हीं आप्रवासी भारतीयों द्वारा दिए गए पैसों-आभूषणों से बना था। मगर दुर्भाग्य कि वह खजाना खो गया। दो बक्से जरूर 1952 में वापस हिन्दुस्तान आए, जिनमें कुछ जले-बचे सामान थे और यह बताने की कोशिश हुई थी कि नेताजी की मृत्यु विमान हादसे में हो गई है। तत्कालीन नेहरू सरकार ने उन बक्सों को राष्ट्रीय संग्रहालय में रखवा दिया था, पर पता नहीं कि अब बक्से किस दशा में हैं?
इन दोनों घटनाओं का जिक्र इसलिए, क्योंकि हमारे इतिहास में न तो इन आप्रवासी भारतीयों के लिए उचित जगह बन पाई है और न नेताजी सुभाषचंद्र बोस के लिए। आज भी नेताजी की यह कहकर आलोचना की जाती है कि वह इटली, जर्मनी और जापान के तानाशाहों से मिल गए थे। लेकिन आजादी की जंग को आगे बढ़ाने के लिए जब नेताजी हिन्दुस्तान से निकले थे, तो वह रूस जाना चाहते थे। काबुल पहुंचकर उन्होंने यह कोशिश भी की, मगर रूस ने उन्हें मना कर दिया। इसीलिए वह बर्लिन की तरफ बढ़े थे। ऐसे में, उन पर हिटलर या तोजो के साथ सांठगांठ करने का आरोप महज साम्यवादी सोच है। वैसे भी, जब तक दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी ने रूस पर हमला नहीं बोला था, तब तक साम्यवादियों ने न तो हिटलर को फासीवाद बताया और न विश्व युद्ध को जन-युद्ध।
नेताजी जब काबुल में थे, तब अफगानिस्तान की तरफ से अंग्रेज हुकूमत पर हमला करने की योजना उन्होंने बनाई। इस बाबत एक पत्र भी लिखा, जो उस समय तो भारत नहीं पहुंच सका, लेकिन 1948 में यह उनके बड़े भाई शरतचंद्र बोस को सौंपा गया। उस पत्र में आक्रमण का पूरा खाका तैयार दिखता है। मसलन, स्थानीय कबीलों के साथ बैठकें करने, छोटे-छोटे हवाई अड्डे बनाने के लिए जगह ढूंढ़ने, रेडियो स्टेशन जैसे संचार के माध्यम तैयार करने आदि पर उसमें जोर दिया गया है। इस चिट्ठी में सबसे खास बात अंग्रेजों को अंदरूनी चोट पहुंचाने की है। उन्होंने लिखा है कि अंग्रेज अपनी सेना के लिए जो नई भरती कर रहे हैं, उसमें अपने नौजवानों को भेजा जाए, ताकि जरूरत के वक्त वे हमारी मदद कर सकें। आगे जाकर यही हुआ भी। आजाद हिंद फौज में या तो वे लोग शामिल हुए, जो ब्रिटिश सेना से निकले थे या फिर आप्रवासी भारतीय।
नेताजी की सिर्फ एक विचारधारा थी, राष्ट्रवाद। उन्होंने बार-बार अपने भाषणों में यही कहा है कि इटली और जर्मनी जो कुछ कर रहे हैं, उसके लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूं। मेरा उद्देश्य भारत को स्वतंत्र कराना है और इसमें जो भी हमारी मदद करेगा, वह हमारा मित्र है। यह उनका राष्ट्रवाद ही था कि महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से मतभेद होते हुए भी उन्होंने इन दोनों के नामों पर अपनी सेना में रेजिमेंट बनाए। हम अब जाकर सेना की अगली पंक्ति में महिलाओं को रखने की वकालत कर रहे हैं, लेकिन नेताजी ने पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापान की यात्रा के क्रम में ही महिलाओं की रेजिमेंट बनाने की योजना तैयार कर ली थी। रानी झांसी रेजिमेंट आधुनिक युग में औरतों की विश्व की पहली रेजिमेंट मानी जाती है। इस रेजिमेंट में आधी औरतें गिरमिटिया मजदूर थीं, जबकि कई कुलीन वर्ग की महिलाएं।
बड़ा सवाल यह है कि अंग्रेज आखिर नेताजी से इतना डरते क्यों थे? नेताजी को कुल 11 बार जेल जाना पड़ा। मांडले जेल जाने वाले वह बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय के बाद तीसरे भारतीय नेता थे; वह भी महज 25-26 वर्ष की उम्र में। असल में, अंग्रेज इसलिए नेताजी से खार खाए हुए थे, क्योंकि वह ऐसे पहले इंसान थे, जिन्होंने सिविल सेवा यानी आईसीएस में चयन के बावजूद उसमें शामिल होने से इनकार कर दिया था। अंग्रेजों ने परिवार पर दबाव डाला, तो पिता ने अपने बेटे को पत्र लिखकर कहा कि एक बार सहमति दे दो, बाद में इस्तीफा दे देना। मगर जवाब में नेताजी ने यही लिखा कि यदि उन्होंने सहमति दे दी, तो उसका सीधा अर्थ होगा कि उन्होंने अंग्रेजों की सरपरस्ती स्वीकार कर ली है। जाहिर है, नेताजी समझौते के मूड में नहीं थे, इसलिए अंग्रेज उन्हें हमेशा देश से बाहर रखने की कोशिश करते दिखे। कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन से पहले 1929 में सीआईडी की एक रिपोर्ट कहती भी है कि इस व्यक्ति पर नजर रखनी होगी, क्योंकि यह भारत की आजादी के लिए दूसरे देशों से सशस्त्र सहायता ले सकता है। संभवत: इसीलिए, जब इसके बाद उनकी गिरफ्तारी हुई, तो उन्हें बंबई ले जाकर जहाज पर बिठाने के बाद रिहा किया गया। नेताजी ने उस घटना का जिक्र करते हुए लिखा है कि जब तक उन्हें जहाज के अंदर नहीं पहुंचा दिया गया, पुलिसवालों ने उन्हें ऐसे घेरे रखा, मानो शिकारी कुत्तों ने अपने शिकार को घेर रखा हो। हालांकि ब्रिटेन में रहकर भी उन्होंने तमाम संपर्क बनाए और अपने कामों को अंजाम दिया।
नेताजी की मौत हवाई हादसे में होेने की बात कही जाती है। मगर यह एक काल्पनिक कहानी है। जो शख्स कलकत्ता के अपने घर से पुलिस को चकमा देकर पेशावर पहुंच गया, और काबुल-बर्लिन होते हुए जिसने पनडुब्बी की तकलीफदेह यात्रा की, वह भला इतना कमअक्ल कैसे होगा कि जापान पर परमाणु बम गिरने और ब्रिटेन के सामने उसके आत्म-समर्पण के बाद जापान जाने की सोचेगा? जबकि ऐसे दस्तावेज भी हैं, जो बताते हैं कि फॉर्मोसा (अब ताईवान) में उस समय हवाई हादसा हुआ ही नहीं था। आने वाले दिनों में दूसरे तमाम तथ्यों की तरह इस सच से भी शायद परदा उठेगा। बहरहाल, नेताजी आज भी भारतीयों के हृदय में जीवित हैं और सदैव जीवित रहेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

प्राथमिक शिक्षा की चिंताजनक तस्वीर (साभार दैनिक जागरण )


हाल ही में 13वीं एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट-2018 (असर) प्रकाशित की गई। ‘असर’ ग्रामीण भारत के सरकारी स्कूलों में बच्चों के नामांकन और उनकी शैक्षणिक प्रगति पर किया जानेवाला देश का सबसे बड़ा वार्षिक सर्वेक्षण है। शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत देश के सबसे बड़ी स्वयंसेवी संस्था ‘प्रथम’ द्वारा वर्ष 2005 से कराए जा रहे इस सर्वेक्षण के नतीजे सरकार के लिए दर्पण का काम करते हैं। इस बार सर्वेक्षण में देश के 596 जिलों के 3,54,944 घरों और 3 से 16 आयु वर्ग के 5,46,527 छात्रों को शामिल किया गया था। 3 से 16 आयु वर्ग के बच्चों के स्कूलों में नामांकन और 5 से 16 आयु वर्ग के बच्चों की पढ़ने तथा गणित के सवाल हल करने की बुनियादी क्षमताओं के आकलन के लिए देश के 15,998 सरकारी स्कूलों को सर्वेक्षण के दायरे में लाया गया था। ‘असर’ रिपोर्ट न सिर्फ देश में बुनियादी शिक्षा की बदहाली की तस्वीर बयां कर रही है, अपितु शिक्षा व्यवस्था में समाहित बुनियादी समस्याओं तथा प्राथमिक शिक्षा के गिरते स्तर की तरफ देश के नीति-नियंताओं का ध्यान भी खींच रही है।
सर्वेक्षण के बाद जो तस्वीर उभर कर सामने आई है, उसके मुताबिक कक्षा तीन के करीब 73 फीसद बच्चे घटाव के सवाल हल नहीं कर पाते, जबकि क्लास दो के केवल 26.6 फीसद बच्चे ही घटाव का सवाल हल करने में सक्षम हैं। वहीं कक्षा 5 के करीब 70 फीसद बच्चे भाग के सवाल हल नहीं कर पाते हैं। आठवीं पास करने वाले वाले ज्यादातर छात्रों को सामान्य गणित के सवाल भी नहीं आते हैं। इसके अलावा करीब 27 फीसद छात्र हिंदी का पाठ नहीं पढ़ पाते हैं! आठवीं कक्षा के 56 फीसद बच्चों को भाग देने में कठिनाई होती है, जबकि इसी कक्षा के 44.4 फीसद बच्चे ही एक अंक के भाग के सवालों को हल करने में सक्षम हैं। हालांकि ‘असर’ के कई आंकड़े सुकून देने वाले भी हैं। मसलन समग्र नामांकन की बात की जाए तो यह पिछले दस वर्षो में सर्वाधिक दर्ज की गई है। 2018 में 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों का नामांकन 95 फीसद था, जो सुखद आश्चर्य का विषय है। इसके अलावा इसी आयु वर्ग में अनामांकित बच्चों की संख्या में भी पहली बार गिरावट दर्ज की गई है। यह गिरावट 2.8 फीसद है। यह गिरावट सरकारी प्रयासों के प्रतिफल को प्रदर्शित करती है।
‘असर’ रिपोर्ट के मुताबिक 11 से 14 आयु वर्ग की स्कूल न जाने वाली लड़कियों के संख्या में भी भारी गिरावट देखी गई है। 2006 में जहां 10.3 फीसद लड़कियां स्कूल नहीं जा पाती थीं, वहीं 2018 में यह आंकड़ा 4.1 फीसद दर्ज किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि भारत सरकार की ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे कार्यक्रम धरातल पर अच्छा काम कर रहे हैं। वहीं ये आंकड़े इस बात का भी संकेतक हैं कि लड़कियों की शिक्षा के प्रति अभिभावकों की पुरातन सोच भी तेजी से बदल रही है। लड़कियों के स्कूल जाने की रफ्तार बढ़ने का एक बड़ा कारण स्कूलों में शौचालय की व्यवस्था का होना भी है। आमतौर पर विद्यालय में शौचालय के न होने या उसकी बुरी स्थिति में होने से लड़कियां स्कूल जाने से कतराती हैं, जिससे उनकी पढ़ाई बाधित होती हैं। हालांकि ‘असर’ के ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक साल 2018 में 66.4 फीसद स्कूलों में छात्रओं के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था थी, जबकि 2010 में केवल 32.9 फीसद स्कूलों में ही छात्रओं के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था थी।
देश में प्रचलित त्रिस्तरीय शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा को शिक्षा व्यवस्था का मुख्य आधार माना गया है, जिसे दुरुस्त किए बिना माध्यमिक और उच्च शिक्षा के स्वर्णिम भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती! सच तो यह है कि प्राथमिक शिक्षा का गुणात्मक विकास करके ही नागरिकों और फिर राष्ट्र को उन्नति के पथ पर अग्रसर रखा जा सकता है। भारत में बुनियादी शिक्षा की कल्पना सर्वप्रथम महात्मा गांधी ने की थी। उन्होंने 1937 में वर्धा में आयोजित अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलन में भारतीय शिक्षा में सुधार के लिए ‘नई तालीम’ नामक योजना पेश की थी, जिसे बाद में ‘बुनियादी शिक्षा’ और ‘वर्धा योजना’ भी कहा गया। गांधी जी ने बच्चों को राष्ट्रव्यापी, नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का प्रस्ताव रखा था। इसके अलावा वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने तथा रोजगारपरक शिक्षा के हिमायती भी थे।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की संकल्पना को धरातल पर उतारने के लिए भारतीय संसद ने वर्ष 2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई) पारित किया था। इसके तहत देश में 6 से 14 साल के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की संवैधानिक व्यवस्था की गई। यह कानून 1 अप्रैल, 2010 से देशभर में लागू तो कर दी गई, लेकिन बच्चों को विद्यालय से जोड़ने तथा शिक्षकों के रिक्त पदों को भरने में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं देखी गई है। आलम यह है कि देश को जहां अभी भी लाखों शिक्षकों की जरूरत है तो वहीं दूसरी ओर कई राज्यों में शिक्षकों की नियुक्तियां अटकी हुई हैं, जिसे भरने में राज्य सरकारें ढुलमुल रवैया अपनाती रही हैं। जो शिक्षक हैं भी, उनमें से अनेक प्रशिक्षण और गुणवत्ता में कमी से जूझ रहे हैं। जब शिक्षक ही अप्रशिक्षित होंगे तो बच्चों को कैसी शिक्षा मिलेगी, यह आसानी से समझा जा सकता है। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के जिन 74 देशों में शिक्षकों की भारी कमी है, उसमें भारत का स्थान दूसरा है। वैसे तो शिक्षा अधिकार कानून-2009 के तहत प्राथमिक स्तर पर छात्र-शिक्षक अनुपात 30:1 और उच्च प्राथमिक स्तर पर यह अनुपात 35:1 निर्धारित किया है, लेकिन कई सरकारी स्कूलों में यह स्थिति संतोषजनक नहीं है।
विडंबना यह है कि कहीं जरूरत भर के शिक्षक नहीं हैं तो कहीं बच्चों की उपस्थिति ही कम है। समय पर कभी छात्रों तो कभी शिक्षकों का विद्यालय नहीं पहुंचना तथा गैर-शैक्षणिक कार्यो को शिक्षकों के कंधे पर डालना भी शिक्षा व्यवस्था की प्रचलित समस्या रही है, जिसे नकारा नहीं जा सकता। असर रिपोर्ट की मानें तो कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे चंद राज्यों में छात्रों की उपस्थिति 90 फीसद से ऊपर है, जबकि विद्यालयों में शिक्षकों की उपस्थिति के मामले में जो राज्य सबसे आगे हैं, उनमें झारखंड, ओडिशा, कर्नाटक और तमिलनाडु शामिल हैं। शेष राज्यों में स्थिति संतोषजनक नहीं है, जो ग्रामीण शिक्षा की बदहाली की तस्वीर बयां करती है।
सरकारी उपेक्षा की वजह से बुनियादी शिक्षा निरंतर हाशिये पर जा रही है। सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव तथा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में कमी की वजह से अभिभावक अपने बच्चों के लिए निजी स्कूलों की तरफ देख रहे हैं। हालांकि एक समय था, जब सरकारी स्कूलों को सम्मान की नजर से देखा जाता था, पर आज उसे उपेक्षा के भाव से देखा जा रहा है। स्थिति यह है कि प्राथमिक विद्यालय की निकटतम उपलब्धता के बावजूद कक्षा में बच्चों की उपस्थिति कम नजर आ रही है। स्कूल के समय बच्चे या तो खेलते नजर आ जाते हैं या घर के कामों में बड़ों का हाथ बंटाते हैं! आलम यह है कि मध्याह्न् भोजन योजना, छात्रवृति तथा मुफ्त पाठ्य-पुस्तकों के वितरण की व्यवस्था भी बच्चों को स्कूल में रोके रखने में सफल नहीं हो पा रही हैं। वहीं ग्रामीण विद्यालयों में विद्यालय-परित्यक्त छात्रों की संख्या का दिनोंदिन बढ़ना भी चिंता की बात है।
सरकारी स्कूलों में आधारभूत संरचना की कमी और मिड-डे-मील की समुचित व्यवस्था न होने से बच्चे स्कूल जाने से कतराते हैं, जबकि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा न दिए जाने के कारण आज निम्न आय वर्गीय परिवार के अभिभावक भी अपने बच्चों को किसी निजी स्कूल में भेजना ही श्रेयस्कर समझ रहे हैं। सच्चाई यह भी है कि देश के सरकारी विद्यालय दिनोंदिन अपनी चमक खोते जा रहे हैं। इन विद्यालयों से अनियमितता की लगातार शिकायतें आ रही हैं। सवाल गंभीर है कि आखिर सरकारी विद्यालयों में करोड़ों रुपये की फंडिंग के बावजूद गुणवत्तापूर्ण शिक्षा बच्चों की पहुंच से कोसों दूर क्यों है? वह तब जब सरकारी विद्यालयों पर ग्रामीण भारत की एक बड़ी आबादी निर्भर है!
18 अगस्त, 2015 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सरकारी विद्यालयों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा बहाली का एक असाधारण सुझाव दिया था कि नौकरशाह एवं मंत्री अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएं। अगर इक्का-दुक्का अपवाद को छोड़ दिया जाए तो उक्त आदेश व्यवहृत नहीं हो पाया। यदि हमारे राजनेता, नौकरशाह और अन्य अधिकारी अपने बच्चों का इन विद्यालयों में नामांकन करवाते तो निश्चित रूप से चंद माह में ही उनकी स्थिति सुधर जाती, लेकिन ऐसा हो न सका। परेशानी तो यह भी है कि शिक्षा व्यवस्था से जुड़े लोगों का ध्यान केवल बच्चों की विद्यालयी उपस्थिति और राष्ट्र की साक्षरता दर बढ़ाने पर है, लेकिन राज्य में पर्याप्त संख्या में शिक्षकों की नियुक्ति है या नहीं इस पर उनका ध्यान नहीं है? विद्यालयों में नियमित रूप से शिक्षक आते हैं या नहीं? आते हैं तो क्या पढ़ाते हैं? इन सब मुद्दों से किसी नेता या अधिकारी को तनिक भी सरोकार नहीं रहा।
बहरहाल एसोचैम की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत यदि अपनी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में प्रभावशाली बदलाव नहीं करता है तो विकसित देशों की बराबरी करने में उसे करीब सवा सौ साल लग जाएंगे। गौरतलब है कि भारत अपनी शिक्षा व्यवस्था पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 3.83 फीसद हिस्सा ही खर्च करता है, जबकि अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी में यह हिस्सेदारी क्रमश: 5.22, 5.72 और 4.95 प्रतिशत है। हालांकि इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र का मानक यह है कि हर देश शिक्षा व्यवस्था पर अपनी जीडीपी का कम से कम 6 फीसद खर्च करे। देश में शिक्षा सुधारों के लिए डीएस कोठारी की अध्यक्षता में 1964 में गठित कोठारी समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में कुल राष्ट्रीय आय के 6 फीसद हिस्से को शिक्षा पर व्यय करने का सुझाव दिया था, जबकि वास्तविकता यह है कि इस क्षेत्र में महज तीन से चार फीसद ही राशि आवंटित हो पाती है। जाहिर है शिक्षा में समुचित निवेश किए बिना शिक्षा व्यवस्था में सुधार करना दूर की कौड़ी होगी।
शिक्षा नागरिकों की मुलभूत आवश्यकता है। सामाजिक बंधनों, बुराइयों और कुरीतियों के खात्मे की दिशा में शिक्षा एक बड़ा हथियार है। शिक्षा सामाजिक एवं वैयक्तिक शोषण तथा अन्याय के खिलाफ लड़ने और संघर्ष की ताकत प्रदान करती है। हालांकि शिक्षा का उद्देश्य केवल राष्ट्र के नागरिकों को साक्षर बना देना ही नहीं होना चाहिए, बल्कि लोगों में काबिलियत का विकास कर उन्हें अपनी योग्यतानुसार रोजगार की चौखट तक पहुंचाना भी होना चाहिए। शिक्षा व्यवस्था में समाहित समस्याओं से निपटे बिना न तो देश को विकास के पथ पर अग्रसर रखा जा सकता है और ना ही ‘विश्व गुरु’ बनने का गौरव प्राप्त किया जा सकता है।

अफवाहों से घिरा नागरिकता विधेयक (साभार दैनिक जागरण )


यह पिछली सदी के आखिरी दशक की बात है जब असम में असम गण परिषद सरकार ने राज्य के छह समूहों को अनुसूचित जनजाति यानी एसटी का दर्जा देने की पहल की। इनमें ताई-अहोम, मोरान, मटक, कोच राजबोंगशी आदि जनजाति समूहों के नाम शामिल हैं। इस प्रस्ताव को संसद में खारिज कर दिया गया। कालांतर में किसी अन्य सरकार ने इसमें संशोधन का प्रयास नहीं किया। जब असम में सर्वानंद सोनोवाल के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने कमान संभाली तो इस प्रस्ताव में नई जान आई। राज्य सरकार के हस्तक्षेप के चलते केंद्र को भी इस मसले पर विचार करना पड़ा। इन छह समूहों को एसटी का दर्जा देने संबंधी प्रस्ताव हाल में संसद के समक्ष पेश किया गया। 1996 के उलट अबकी बार इस मुद्दे पर व्यापक सहमति रही जिससे उस सपने के पूरा होने की उम्मीद बंधी जिसका इन समूहों को काफी लंबे अर्से से इंतजार है, लेकिन असम में एसटी के दायरे में पहले से मौजूद जनजातियों के बीच यह दुष्प्रचार कर उन्हें भ्रमित करने की कोशिश की जा रही है कि इन छह समूहों के शामिल होने से उन्हें मिलने वाला लाभ सीमित हो जाएगा, क्योंकि उन्हें ये फायदे उनके साथ साझा करने होंगे। यह पूरी तरह निराधार है। असम में जनजातियों की दो श्रेणियां हैं एक मैदानी जनजाति और दूसरी पर्वतीय जनजाति। नई बनाई गई छह जनजातियों को इनमें से किसी भी समूह में शामिल नहीं किया जाएगा। इसके बजाय ‘नई जनजातियां’ या ‘अन्य जनजातियों’ के रूप में नई श्रेणियां बनाई जाएंगी। उनके लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था की जाएगी।
हालांकि विधेयक में इन मसलों पर स्पष्टता का अभाव है। समझा जा सकता है कि अतिरिक्त कोटा और इसका नामकरण राज्य सरकार का दायित्व है। इस पर मुख्यमंत्री पहले ही आश्वस्त कर चुके हैं कि जैसे ही यह विधेयक पारित होता है वैसे ही सरकार मौजूदा जनजातियों के हितों को सुरक्षित रखने और नई जनजातियों के लिए कोटे का प्रावधान करेगी। अफसोस की बात यही है कि ऐसी दुविधा और दुष्प्रचार असम और पूवरेत्तर के अन्य राज्यों में इन दिनों बेहद आम हो गया है। न केवल कुछ विशेष राजनीतिक समूह, बल्कि मीडिया और बुद्धिजीवियों का एक तबका भी इस क्षेत्र में असंतोष को हवा देने वाले दुष्प्रचार अभियान में जुटा है।
असम की जनता की लंबे अर्से से चली आ रही नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस यानी एनआरसी की महत्वपूर्ण मांग को पूरा करने का श्रेय भी सोनोवाल सरकार को जाता है। इससे भारी तादाद में बसे अवैध घुसपैठियों की पहचान का दुष्कर काम आसान हुआ है। एनआरसी के अतिरिक्त सोनोवाल सरकार ने केंद्र सरकार को असम समझौते की काफी समय से लंबित धारा 6 को लागू करने के लिए भी राजी किया है। ऐतिहासिक असम समझौते पर हस्ताक्षर हुए तीन दशक से अधिक बीत चुके हैं, लेकिन जिस धारा में इस समझौते का मर्म निहित है उसे ही लागू करने में अभी तक किसी भी सरकार ने कोई खास गंभीरता नहीं दिखाई है। असम समझौते की धारा 6 यह कहती है, ‘असमी जनता की सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषाई पहचान और विरासत के संरक्षण, परिरक्षण एवं प्रोत्साहन के लिए जो भी संवैधानिक, विधायी एवं प्रशासनिक रक्षोपाय आवश्यक होंगे, वे किए जाएंगे।’
भाजपा और संघ परिवार असम आंदोलन के साथ गहराई से जुड़े रहे हैं। समझौते को लागू करने की अनिवार्यता को पूरा करने की दिशा में मोदी सरकार ने सही भावना के साथ धारा 6 पर अमल करने का फैसला किया है। केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इसके लिए असम के प्रबुद्ध लोगों की एक समिति गठित करने का फैसला किया है जो इस धारा के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए ‘असमी लोगों’ के लिए विधायिका में आरक्षण सहित सभी मुद्दों पर अपने सुझाव देंगे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि दुष्प्रचार के चलते समिति के कुछ सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। फिर भी इस राह पर आगे बढ़ने में सरकारी प्रतिबद्धता शिथिल नहीं पड़ी है और वह विभिन्न वर्गो से सुझाव आमंत्रित कर रही है।
नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ झूठ और अफवाहों का ऐसा ही अभियान चलाया जा रहा है। इस विधेयक का मकसद पाकिस्तान (बांग्लादेश) और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों को नागरिकता प्रदान करना है जिनमें हंिदूू, बौद्ध, सिख और ईसाई भी शामिल हैं। ये वे लोग हैं जो अपने देश में किसी डर या खौफ के चलते भारत विस्थापित होने के लिए मजबूर हुए। भारत अभी भी धार्मिक आधार पर हुए विभाजन का दंश ङोल रहा है, क्योंकि इसके कारण पंजाब, राजस्थान, गुजरात, पश्चिम बंगाल और असम जैसे राज्यों में सीमा पार से आने वालों का सिलसिला कायम है।
इस पर चिंता जता रहे कुछ लोग वास्तव में सही सूचनाओं और तथ्यों से अनभिज्ञ हैं तो कुछ लोग इस मौके पर राजनीतिक चौका लगाकर उसे अपने पक्ष में भुनाने की फिराक में हैं। अव्वल तो यह विधेयक समूचे देश के लिए है और किसी क्षेत्र विशेष या प्रदेश तक ही सीमित नहीं है। ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो भारत ने प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को शरण देने में कभी हिचक नहीं दिखाई और उनका सदा स्वागत किया। सीरियाई ईसाई, पारसी और यहूदी यहां आए और भारत ने भी उन्हें खुले दिल से अपनाया। यह विधेयक इसी परंपरा की निरंतरता को ही सुनिश्चित करता है।
विधेयक के दूसरे खास पहलू का अप्रत्यक्ष रूप से यही सार है कि भारत विदेशियों के लिए किसी धर्मशाला जैसा नहीं है कि कोई भी यहां आकर बस जाए। विधेयक की धाराओं के अनुसार नागरिकता केवल उन्हें मिल सकती है जो 31 दिसंबर 2014 के पूर्व से यहां बसे हों। यह पैमाना भी गारंटी नहीं है। आवेदन से पहले आवेदक का भारत में सात वर्षो का प्रवास भी एक शर्त है। इसका अर्थ है कि यदि कोई व्यक्ति 2014 में भारत आया तो नागरिकता के लिए उसे 2021 तक इंतजार करना पड़ेगा। ऐसे लोगों को भारत में कहीं भी बसाया जा सकता है। तीसरा पहलू यह है कि आवेदन की पहले जिला प्रशासन स्तर पर परख की जाएगी और उसकी अनुशंसा पर ही प्रस्ताव को संबंधित विभाग के पास आगे बढ़ाया जाएगा।
असम में इन दिनों यह अफवाह भी फैलाई जा रही है कि बांग्लादेश से करोड़ों अल्पसंख्यक असम में आकर बस जाएंगे। बांग्लादेश में फिलहाल 1.4 करोड़ हंिदूू और केवल 10 लाख बौद्ध हैं। भारत-बांग्लादेश सीमा सील होने के साथ ही सुरक्षित भी है। विधेयक में यह भी स्पष्ट है कि 2014 के बाद भारत आने वाले नागरिकता के पात्र नहीं होंगे। विधेयक को राज्यसभा से मुहर की दरकार होगी जहां विपक्ष बहुमत में है। चुनावी फायदे के लिए कांग्रेस पार्टी अतीत से ही इस मुद्दे पर राजनीति करती आई है। 2015 में असम में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस ने बांग्लादेश से असम में आकर बसे हंिदूुओं और बौद्धों को नागरिकता देने की मांग की थी। वही पार्टी आज प्रताड़ित लोगों के लिए उठाए जा रहे सरकार के मानवीय कदम का क्षुद्र राजनीतिक हितों के चलते विरोध कर रही है।

वित्तीय भार : हर्ज नहीं कर्ज से (अनिल उपाध्याय)


कुछ खबरें भ्रामक होती हैं। कुछ खबरें फेक होती हैं और कुछ खबरें समझने में आसान नहीं होतीं। आर्थिक विषयों से सम्बंधित खबरें उस श्रेणी की होती हैं, जिन्हें समझना आम जनमानस के लिए आसान नहीं होता। इन तीनों तरह की खबरों का उपयोग राजनैतिक रूप से किया जाता है। इसी तरह की एक खबर आयी कि नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल में ऋण देयताएं 50 प्रतिशत बढ़ गई हैं। बिना मूलभूत बात को समझे इस खबर का प्रभाव ऐसा है मानो कोई बहुत नेगेटिव बात हो गई हो। सच्चाई कुछ और है। इस बात को सरलता से समझा जाना चाहिए कि जब कोई भी व्यक्ति जब किसी प्रकार का भी लोन लेता है तो उसे डिपाजिट करने के लिए या उसकी एफडीआर बनाने के लिए नहीं लेता। ऋण किसी कारण से लिया जाता है-किसी निवेश हेतु या किसी आकस्मिक खर्चे से निपटने के लिए। यहां यह समझना भी जरूरी है कि कर्ज चाहे जिस कारण से लिया जाए मगर वह तभी लिया जाता है, जब उसको चुकाने की पर्याप्त क्षमता हो। कौन कितना ऋण ले सकता है, यह उसकी मजबूती पर निर्भर करता है।
कर्ज की रकम को दो तरह से देखा जाना जरूरी है। एक उसका मकसद और दूसरा, उसको चुकाने की हैसियत।इसी परिप्रेक्ष्य में हमें उस खबर को भी देखना चाहिए जिसके अनुसार मोदी सरकार के कार्यकाल में सरकारी ऋण 55 लाख करोड़ से बढ़ कर 81 लाख करोड़ रुपये हो गया है। यह वृद्धि लगभग 50 प्रतिशत है। जिस रिपोर्ट में इस वृद्धि को दिखाया गया है, उसी में यह भी कहा गया है कि देयताओं के बढ़ने का कारण राजकोषीय घाटे को मार्किट से लोन ले कर कण्ट्रोल करने का प्रयास मात्र है। राजकोषीय घाटा नवम्बर तक अपने लक्ष्य का लगभग 115 प्रतिशत था। इसका टारगेट 6.24 लाख करोड़ रुपये था, जो कि नवम्बर तक 7.17 लाख करोड़ है। इसका काफी बड़ा कारण रुपये की कमजोरी एवं क्रूड का बढ़ता दाम भी है एवं जीएसटी के कलेक्शन में अपेक्षा अनुसार स्थिरता की कमी।मगर हमें यह ध्यान रखना होगा कि क्रूड के दामों में कमी नवम्बर से आनी शुरू हुई है और उसका असर आगे के आंकड़ों में दृष्टिगोचर होगा। इसके अलावा, हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि विश्व-अर्थव्यवस्था ट्रेड वॉर के मध्य में है।
स्थिति असामान्य है। ऋण में वृद्धि हर उस व्यवसाय में होती है, जो विकासोन्मुख होता है। विकास हेतु जोखिम लिया जाना भी आवश्यक होता है और जोखिम प्रबंधन एक महत्त्वपूर्ण विषय हो जाता है। मूलभूत सुविधाओं में निवेश करके उससे होने वाले लाभ को प्राप्त करना सरकार का एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है। यहां समझना होगा कि निवेश वर्तमान में एवं उसका लाभ भविष्य में प्राप्त होता है। इसी दूरी को पाटने के लिए ऋण की आवश्यकता होती है। ऋण देयताओं में वृद्धि विकास का द्योतक है, दिवालियेपन का नहीं। बैंक भी मूलभूत सेक्टर है, इसके लिये पूंजी का इंतज़ाम सरकार के उन लक्ष्यों में से एक है, जिसके कारण सरकार का उधार बढ़ा है। उधार की मात्रा जरूर बढ़ी है मगर इसमें चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि सरकार को पूरा अधिकार है कि वह अपने घाटे को कण्ट्रोल में रखने के लिए मार्किट से उधार ले, जब तक कि उसकी भुगतान क्षमता का ह्रास न हो। कर्ज-भुगतान के जितने भी मानदंड हैं,वह देश में इस समय काफी आरामदायक स्थिति में हैं। इस समय लोक सभा के आम चुनाव नजदीक है और अंतरिम बजट प्रस्तुत होना है।
वित्तमंत्री के सामने कई चुनौतियां हैं। सबसे प्रमुख चुनौती कृषि उत्पाद क्षेत्र में कीमतों की कमी का मामला है। किसानों को अपने उत्पादों के उचित दाम नहीं मिल पा रहे हैं। इस सेक्टर को काफी सहायता की आवश्यकता है। इस कार्य में बैंकों का सहयोग काफी जरूरी है। इधर, बैंकों ने अपने परिचालन एवं अपने लाभ को बढ़ाने के लिए सरकार से कैश रिज़र्व अनुपात को खत्म अथवा कम करने की मांग की है। कॉरपोरेट सेक्टर भी रेट कट की मांग कर रहा है। कुछ का मानना है कि 50 आधारभूत बिंदु तक रेट कम किया जाए ताकि क्रेडिट प्रवाह बढ़ाया जा सके। ऐसी स्थिति में जिस ऋण की वृद्धि को लेकर चिंता जताई जा रही है, उसका और बढ़ना तय है। इसमें कोई हर्ज भी नहीं है। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प जब अपना चुनाव प्रचार कर रहे थे तो उन्होंने अपने देश के सरकारी ऋण को आठ वर्षो में शून्य करने का वादा किया था। मगर वहां सरकारी ऋण देयता कम होने की बजाय बढ़ी है। इसके बावजूद अमेरिका आज भी मजबूत स्थिति में है। उसकी मुद्रा की ताकत बढ़ी है।
अमेरिका में रेट वृद्धि का चक्र उसकी अर्थव्यवस्था की तेज़ी को इंगित कर रहा है। कई इकनोमिक योरी न घाटे को गलत मानती हैं और न बढ़े हुए ऋण को; क्योंकि उनके अनुसार खर्च किया जाना समाज की गुणवत्ता के लिए आवश्यक है। इसके अनुसार जो भी राजकोषीय घाटा है वह प्राइवेट सेक्टर में संग्रहीत रहता है। और वह एक तरह से जोखिम प्रबंधन भी है। इस तरह से एक नई सोच जनम ले रही है और वह सही भी है। वह सोच है कि जब तक पैसा समाज के विकास में खर्च किया जाए; कर्ज लेने में हर्ज नहीं है। इसलिए कि सरकार के पास करेंसी छापने का हक हमेशा सुरक्षित रहता है। भारत में राजकोषीय घाटा एवं ऋण देयताएं किसी युद्ध के खर्चे अथवा अन्य अनुपयोगी कायरे के लिए नहीं, बल्कि बैंकों को को पूंजी, गरीब किसानों की ऋण माफ़ी, स्वास्य स्कीम, मूलभूत सुविधाओं के विकास, स्वच्छता अभियान, रोजगार एवं लघु उद्योग के विकास पर खर्च हो रही हैं। ऐसे में कोई आश्र्चय नहीं होना चाहिए कि सरकार किसी ऐसी बड़ी स्कीम की घोषणा करे जिसमें एक से दो लाख करोड़ रुपये और भी खर्च हों। इस बढ़ी हुई ऋण देयता का पैसा यदि गरीब किसानों के कल्याण में एवं विकास-कायरे में खर्च हो तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता।
जब भी हम किसी राजमार्ग पर टोल टैक्स देते हैं तो हमें बुरा महसूस नहीं होता क्योंकि अच्छी सड़कों के चलते हमारा काफी समय और ईधन बचता है। व्यापार में भी लाभ होता है। ऐसे में क्या हम सोच पाते हैं कि वह टोल टैक्स केवल मात्र ऋण की अदायगी एवं रख-रखाव का खर्च है; जिसे लेकर उसको बनाया गया। ऐसा ऋण भविष्य में चुक जाता है और राजमार्ग देश की तरक्की में योगदान करता रहता है। इसी तरह हमें ऋण देयताओं के परिमाण की बजाय उस मद की ओर ध्यान देना चाहिए, जहां वह खर्च हुआ। इस संदर्भ में वर्तमान सरकार की मंशा एवं इस बढ़े हुए ऋण का असर नेगेटिव न होकर पॉजिटिव ही मानना होगा।

सेहत संग अर्थव्यवस्था संवारने वाली योजना (जी एन बाजपेयी ) (साभार दैनिक जागरण )


आयुष्मान भारत योजना के सौ दिन पूरे हो चुके हैं। इस योजना का उद्देश्य प्रत्येक गरीब परिवार को पांच लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा कवर उपलब्ध कराना है। इस योजना से आठ लाख से ज्यादा लोग लाभ उठा चुके हैं। इस योजना पर अमल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से लालकिले की प्राचीर से किए गए एक और वादे का पूरा होना है। इस योजना से गरीबों के लाभान्वित होने की खबरें जिस तरह आ रही हैं उससे यही संकेत मिलता है कि योजना सही दिशा में आगे बढ़ रही है। सामाजिक सुरक्षा का विषय विशेषकर वंचित तबकों के लिए ऐसी सुविधा एक लंबे अर्से से चर्चा का विषय रही हैं। विभिन्न कालखंडों में सत्ता की कमान संभाल चुकीं सरकारों ने इस मकसद के लिए जीवन बीमा निगम, पेंशन और हेल्थकेयर के मोर्चे पर तमाम योजनाओं की सौगात पेश की। मोदी सरकार ने इस मामले में अलग ही रणनीति अपनाई। उसने इन सभी योजनाओं को जोड़ने या मामूली फेरबदल कर नए रूप-स्वरूप में पेश करने के बजाय वंचित वर्ग के लिए प्रत्येक क्षेत्र में एक ध्वजवाहक योजना पर काम किया। इनमें स्वास्थ्य, आवास, बीमा, पेंशन और बैंकिंग के मोर्चे पर ऐसी सेवाओं का नाम लिया जा सकता है जो विशेष रूप से गरीबों को ध्यान में रखकर ही बनाई गई हैं। इनमें पूरा जोर इसी बात पर है कि एक मिशन के तौर पर योजनाओं को क्रियान्वित कर उनके लाभ को लक्षित आबादी तक पहुंचाया जाए। सरकार की इस कवायद को सामाजिक बेहतरी और आर्थिक लाभ के दोहरे नजरिये से देखना होगा। जहां इनमें वंचित वर्ग को राहत देने के साथ आर्थिक दुश्वारियों से उबारने की क्षमता है वहीं श्रम की उत्पादकता में सुधार और आर्थिक वृद्धि को धार देने की कूवत भी है।
बीमारी में एक तो इलाज का अभाव और ऊपर से आर्थिक बोझ गरीबों पर दोहरी चोट करता है जिससे श्रम की उत्पादकता पर भारी दबाव पड़ता है। इस मामले में देखा जाए तो भारत की उत्पादकता कई उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले कमतर ही है। ऐसी योजनाओं के कारण आर्थिक वृद्धि के साथ ही रोजगार सृजन के मोर्चे पर नए अवसरों की संभावनाएं बनेंगी। बीमारी से लेकर जीवन-मरण के मसले इंसानी जिंदगी के अहम हिस्से हैं। बहुसंख्यक भारतीय दो कमियों के शिकार हैं। एक तो उपचार के लिए उनके पास वित्तीय संसाधनों का अभाव है। दूसरा अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं की कमी भी सालती है। ऐसे में किसी गरीब परिवार के लिए बीमारी के इलाज में सालाना पांच लाख रुपये तक के इलाज की सुविधा एक बड़ी सौगात है। यह संबंधित व्यक्ति के परिवार को न केवल आर्थिक वज्रपात से बचाएगी, बल्कि उसके लिए मुसीबत में एक बड़े सहारे का काम करेगी। इस स्थिति में स्वास्थ्य सेवाओं के स्तर पर भारी मांग पैदा होगी। एकाएक आठ करोड़ परिवारों की ओर से स्वास्थ्य सेवाओं की मांग की जाएगी। इस मांग को पूरा करने के लिए अधिक अस्पतालों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, डॉक्टरों, नर्सो, प्रशासनिक कर्मचारियों, दवा निर्माताओं और दवा वितरकों आदि की जरूरत पड़ेगी। यह कहा जा सकता है कि भारत में ऐसी मांग हमेशा रही है, लेकिन करोड़ों गरीब परिवारों के लिए इन सेवाओं के उपभोग की क्षमता अब कहीं जाकर विकसित की जा रही है।
हेल्थकेयर यानी स्वास्थ्य सेवाओं का उद्योग बड़े पैमाने पर रोजगार का माध्यम है। इनमें डॉक्टरों से लेकर रक्त के नमूने लेने वाले, घरेलू स्वास्थ्य सहायक और साइकोथेरेपिस्ट से लेकर तमाम तरह की कड़ियां जुड़ी होती हैं। आम समझ के अनुसार माना जाता है कि अस्पताल में एक बेड के साथ 10 स्वास्थ्यकर्मियों की आवश्यकता होती है। देश भर में इस योजना के विस्तार के साथ ही अस्पतालों की जरूरत भी कई गुना बढ़ती जाएगी। एक मोटे अनुमान के अनुसार इस योजना को सिरे चढ़ाने के लिए औसतन 100 बेड वाले 20,000 से अधिक अस्पताल बनाने होंगे। इसे अगर 10 से गुणा करें तो इन नए बनने वालों अस्पतालों से करीब 20 लाख नौकरियां सृजित होंगी। दवाओं और अन्य स्वास्थ्य सेवा उत्पादों की भी भारी मांग पैदा होगी। इससे व्यापक स्तर के भौतिक एवं सामाजिक बुनियादी ढांचे का भी निर्माण होगा।
हेल्थकेयर एक सार्वजनिक-निजी उद्यम है। यहां सरकारी वित्तीय संसाधनों से चलने वाले अस्पताल भी हैं तो निजी क्षेत्र के अस्पताल भी हैं। ऐसे में बेहतर यह होगा कि अगले 5-10 वर्षो में इस क्षेत्र में विभिन्न वस्तुओं एवं सेवाओं के लिए उत्पन्न होने वाली मांग का सही अनुमान लगाया जाए ताकि उसी हिसाब से इसमें निवेश की राह आसान बनाई जा सके। अस्पताल एवं स्वास्थ्य सेवा संस्थानों के अलावा इसके माध्यम से दवा कंपनियों, फार्मेसियों और पैथोलॉजी लैब इत्यादि में भी रोजगार के तमाम अवसर सृजित होने की भरपूर संभावनाएं हैं। अगर इस योजना को वर्तमान स्वरूप में ही सही तरीके से आगे बढ़ाया जाता है तो अगले पांच वर्षो में इसके माध्यम से पचास लाख से कम नौकरियां सृजित नहीं होंगी जो काफी बड़ा आंकड़ा है।
एक ऐसे दौर में जब रोजगार सृजन सबसे बड़ी चिंता के रूप में उभर रहा है तब इस योजना को आगे बढ़ाना बहुत उपयोगी होगा। हालांकि इसके लिए भारत सरकार, राज्य सरकारों और निजी क्षेत्र को अपने निवेश के गणित को नए सिरे से साधना होगा। कोई भी योजना उपलब्ध संसाधनों और मांग को ध्यान में रखकर ही बनानी होगी। इसके चार हिस्सों पर विशेष रूप से ध्यान देना होगा। एक तो हेल्थकेयर सुविधाएं, दूसरा मानव संसाधन, तीसरा सुविधाओं का संचालन जिसमें उपचार के बाद की स्थिति भी शामिल है और चौथा पहलू वित्तीय संसाधनों का है। इस योजना में नागरिकों, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं, दवा निर्माताओं, मानव संसाधन, बीमा कंपनियों और निवेशकों जैसे सभी अंशभागियों का भी ख्याल रखा जाना चाहिए। साथ ही साथ सार्वजनिक-निजी भागीदारी को प्रोत्साहन देने के लिए भी समग्र रणनीतियां बनानी होंगी। स्वास्थ्य सेवाओं के लिए मांग हमेशा से रही है, लेकिन पैसों की किल्लत से उनका लाभ उठाने की क्षमता का अभाव रहा है। यह योजना इस खाई को पाटने के साथ ही हेल्थकेयर सेवाओं को एक नया क्षितिज देने की क्षमता रखती है।
यह अनुमान लगाना आसान है कि इतनी बड़ी आबादी और बढ़ती जीवन प्रत्याशा के दम पर हेल्थकेयर में भारत के शीर्ष पांच उद्योगों और रोजगार प्रदाताओं में शामिल होने की भरपूर संभावनाएं हैं। यहां तक कि अगर सरकार अपने खजाने से इस योजना के लिए और अधिक आवंटन करती है तो कई स्तरों पर उसके फायदे देखने को मिलेंगे। इससे जहां लोगों में आत्मविश्वास बढ़ेगा वहीं रोजगार के अवसरों में वृद्धि होगी और अंतत: इसका फायदा आर्थिक वृद्धि के रूप में भी नजर आएगा।
(लेखक सेबी और एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं)

प्रवासियों को जड़ों से जोड़ने की पहल (अरबिंद जयतिलक ) (साभार दैनिक जागरण )


प्रवासी भारतीय समुदाय के सम्मान में वाराणसी में आयोजित हो रहा 15वां प्रवासी भारतीय दिवस कई मायने में महत्वपूर्ण है। 21 से 23 जनवरी तक इस दिवस का आयोजन ऐसे समय हो रहा है, जब देश-दुनिया के लोग प्रयागराज कुंभ पहुंच रहे हैं। सरकार ने प्रवासी दिवस सम्मेलन के उपरांत प्रतिभागियों को 24 जनवरी को प्रयागराज कुंभ और 26 जनवरी को दिल्ली में गणतंत्र दिवस परेड समारोह में शामिल होने का कार्यक्रम तय किया है। इस पहल से प्रतिभागियों को भारत की धार्मिक-सांस्कृतिक विविधता को जानने के अलावा सामरिक शक्ति से परिचित होने का मौका मिलेगा।
प्रवासी भारतीयों का देश की उन्नति में अहम योगदान रहा है। हाल ही में विश्व बैंक द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि इस वर्ष विदेश से पैसा प्राप्त करने वाले देशों में भारत अव्वल रहा। विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक 2018 में प्रवासी भारतीयों ने 80 अरब डॉलर भारत भेजा। इसमें लगातार बढ़ोतरी हो रही है। वर्ष 2016 में यह 62.70 अरब डॉलर था जो 2017 में 65.30 अरब डॉलर हो गया। वर्ष 2017 में विदेश से भेजे गए धन की सकल घरेलू उत्पाद में 2.7 प्रतिशत हिस्सेदारी रही जो आने वाले वर्षो में बढ़ने की संभावना है। प्रवासी भारतीय अपने देश में जितना धन भेज रहे हैं वह भारत में कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लगभग बराबर है। वर्ष 2014 में विश्व के विभिन्न देशों से प्रवासी भारतीयों ने तकरीबन 71 अरब डॉलर अपने घर भेजे जबकि 2013 में भारत में कुल 28 अरब डॉलर का ही प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ। प्रवासी भारतीयों में देश के प्रति अनुरक्ति बढ़ी है और निवेश के जरिये देश की अर्थव्यवस्था और विकास में अहम योगदान दे रहे हैं। अच्छी बात यह है कि प्रवासी भारतीय कारोबारियों, वैज्ञानिकों, तकनीकी विशेषज्ञों, शोधकर्ताओं और उद्योगपतियों की प्रभावी भूमिका दुनिया के विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्था में सराही जा रही है। आज प्रवासी भारतीय विकसित और विकासशील देशों के सबसे महत्वपूर्ण विकास सहभागी बन गए हैं। इससे दुनिया में भारत की नई पीढ़ी की स्वीकार्यता बढ़ी है। अतीत में जाएं तो प्रवासी भारतीय समुदाय सैकड़ों वर्षो में हुए उत्प्रवास का परिणाम है और इसके पीछे वाणिज्यवाद, उपनिवेशवाद और वैश्वीकरण जैसे अनेक कारण रहे हैं। प्रवासी भारतीय विश्व के करीब चार दर्जन से अधिक देशों में फैले हुए हैं। करीब डेढ़ दर्जन देशों में प्रवासी भारतीयों की संख्या पांच लाख से भी अधिक है। वे वहां की आर्थिक व राजनीतिक दिशा भी तय करते हैं।
डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी की अध्यक्षता में गठित एक कमेटी ने प्रवासी भारतीयों पर अगस्त 2000 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। इस पर अमल करते हुए तत्कालीन सरकार ने प्रवासी भारतीय दिवस मनाना शुरू किया। माना जाता है कि ज्यादातर लोग 19वीं शताब्दी में आर्थिक कारणों की वजह से दुनिया के अन्य देशों में गए। इसकी शुरुआत तात्कालिक कारणों से अफ्रीका, दक्षिण-पूर्व एशिया, फिजी और कैरेबियाई देशों से हुई थी। बीसवीं शताब्दी के दौरान बेहतर जिंदगी की तलाश में भारतीयों ने पश्चिमी और खाड़ी के देशों का रुख किया। संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, कतर, ओमान, कुवैत और सउदी अरब में तकरीबन तीन करोड़ भारतीय काम कर रहे हैं जबकि पूरी दुनिया में करीब सवा सात करोड़ भारतीय मूल के लोग बसे हैं। अकेले संयुक्त अरब अमीरात में रह रहे प्रवासी भारतीयों द्वारा 12 अरब डॉलर भारत आता है। संयुक्त अरब अमीरात वाणिज्यिक एवं व्यावसायिक हब होने के कारण भारतीय कामगारों के लिए पहली पसंद है। खाड़ी के अन्य देशों ईरान, इराक, कतर में भी प्रवासी भारतीयों की बड़ी तादाद है। इनके अलावा यूरोप और अमेरिकी महाद्वीप में भी बड़ी तादाद में प्रवासी भारतीय हैं। कनाडा प्रवासी भारतीयों की पहली पसंद बनता जा रहा है। कनाडा में रह रहे भारतीयों द्वारा वहां की नागरिकता हासिल करने वालों की संख्या में वर्ष 2017 के मुकाबले 2018 के शुरुआती 10 महीनों में 50 प्रतिशत की वृद्धि देखने को मिली है। जनवरी से अक्टूबर 2018 तक कुल 15,016 भारतीयों ने वहां की स्थायी नागरिकता हासिल की है। इस समयावधि में अलग-अलग देशों के 1.39 लाख लोग कनाडा के स्थायी नागरिक बने हैं जिनमें भारतीयों का अनुपात सर्वाधिक है। इसका मुख्य कारण यह है कि अक्टूबर 2017 के बाद से कनाडाई नागरिकता हासिल करने संबंधी नियमों में कुछ ढील दी गई है। अगर कोई व्यक्ति तीन साल तक व्यक्तिगत तौर पर कनाडा में रहे तो वह वहां का स्थायी नागरिक बनने के लिए आवेदन कर सकता है।
अमेरिका की आबादी का तकरीबन 0.6 प्रतिशत प्रवासी भारतीय हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में इन प्रवासी भारतीयों का बहुत बड़ा योगदान है। पिछले कुछ सालों में ये लोग वहां एक महत्वपूर्ण राजनीतिक ताकत के रूप में भी उभरे हैं। बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोगों की अमेरिकी प्रशासन और वहां की अर्थव्यवस्था की नीतियों को तय करने में धमक है। पेप्सी की सीईओ इंदिरा नूई, माइक्रोसॉफ्ट के सत्य नाडेला, गूगल के सुंदर पिचाई आदि अमेरिका में अपनी चमक बिखेर रहे हैं। अमेरिका में भले ही ट्रंप प्रशासन प्रवासियों के खिलाफ है, लेकिन वहां के सांसद और उद्योग जगत के मुखिया इसके पक्ष में नहीं हैं। वे लोग अमेरिका की अर्थव्यवस्था में भारतीय युवाओं के योगदान की अहमियत को भलीभांति समझ रहे हैं। यह सही है कि अमेरिका में सिर्फ 30 लाख ही प्रवासी भारतीय हैं, लेकिन हाई टेक कंपनियों के करीब आठ प्रतिशत संस्थापक भारतीय हैं। करीब 28 प्रतिशत भारतीय अमेरिका में इंजीनियरिंग क्षेत्र में अपनी दक्षता का लोहा मनवा रहे हैं। अमेरिका में रहने वाले करीब 70 फीसद भारतीय प्रबंधन, विज्ञान, व्यापार और कला क्षेत्र से जुड़े हैं।
अमेरिकी एजेंसी ‘प्यू’ की रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में भारतीय समुदाय ही सर्वाधिक शिक्षित है और उसका लाभ अमेरिका के साथ-साथ भारत को भी मिल रहा है। इसी तरह दक्षिण-पूर्व एशिया में भी भारी तादाद में प्रवासी भारतीय रहते हैं और प्रतिभा-परिश्रम के बल पर अपना लोहा मनवा रहे हैं।

ब्रेक्जिट से भारत पर भी असर! (सुशील कुमार सिंह ))


दुनिया का कोई संघ या देश जब नए परिवर्तन और प्रगति की ओर चलायमान होता है तो उसका सीधा असर वहां की सामाजिक- आर्थिक तथा राजनीतिक परिवेश पर तो पड़ता ही है, साथ ही दुनिया के अनेक देशों पर भी इसका असर पड़ना स्वाभाविक है। ब्रिटेन की प्रधानमंत्री टेरीजा मे का यूरोपीय संघ से अलग होने संबंधी ब्रेक्जिट समझौता ब्रिटिश संसद में पारित नहीं हो सका। स्थिति को देखते हुए टेरीजा सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की घोषणा की गई है। दरअसल टेरीजा के समझौते को हाउस ऑफ कॉमन्स में हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद विपक्षी पार्टी के नेता ने अविश्वास प्रस्ताव लाने की घोषणा की।
ब्रेक्जिट की कहानी आगे क्या मोड़ लेगी इस बारे में विशेषज्ञ भी संशय में हैं। ब्रेक्जिट कितना जटिल है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2016 में प्रधानमंत्री डेविड कैमरून और तीन मंत्रियों की अब तक यह कुर्सी छीन चुका है। दो साल पहले ब्रिटेन की जनता ने यूरोपीय यूनियन से अलग होने के लिए जनमत संग्रह पर मुहर लगाई थी। वर्ष 2016 के जून में यह जनमत संग्रह हुआ था जिसमें 52 फीसद लोगों ने यूरोपीय संघ से अलग होने तो 48 फीसद ने साथ रहने के पक्ष में अपना मत दिया था। राजधानी लंदन में ज्यादातर लोगों का मत यूरोपीय यूनियन के साथ रहने का था, जबकि देश के कई अन्य हिस्सों में लोग इसके विरोध में थे।
सवाल है कि टेरीजा का ब्रेक्जिट समझौता असफल होने पर अगला कदम क्या होगा। जाहिर है अब टेरीजा प्लान बी पर काम करेंगी। ब्रिटेन की संसदीय प्रक्रिया में यह निहित है कि जब सांसद कोई विधेयक खारिज कर देते हैं तो प्रधानमंत्री के पास दूसरी योजना के साथ संसद में आने के लिए तीन कामकाजी दिन होते हैं। अनुमान है कि ब्रुसेल्स जाकर वह यूरोपीय यूनियन से और रियायत लेने की कोशिश करेंगी और नए प्रस्ताव के साथ ब्रिटेन की संसद में आएंगी तब सांसद इस पर भी मतदान करेंगे। यदि यह प्रस्ताव भी असफल रहता है तो सरकार के पास एक अन्य विकल्प के साथ लौटने के लिए तीन सप्ताह का समय होगा। यदि यह समझौता भी संसद में पारित नहीं होता है तो ब्रिटेन बिना किसी समझौते के यूरोपीय यूनियन से बाहर हो जाएगा। टेरीजा की पार्टी 100 से अधिक सांसदों ने समझौते के विरोध में मतदान किया। ऐसे में इस हार के साथ ही ब्रेक्जिट के बाद यूरोपीय यूनियन से निकट संबंध बनाने की प्रधानमंत्री टेरीजा की रणनीति का कोई औचित्य नहीं रह गया है।
ब्रिटेन ने यूरोपीय यूनियन को अचानक अलविदा नहीं कहा है, इसके पीछे बरसों से कई बड़े कारण रहे हैं जिसमें ब्रिटेन में बढ़ रहा प्रवासी संकट मुख्य वजहों में एक रही है। दरअसल ईयू में रहने के चलते प्रतिदिन 500 से अधिक प्रवासी दाखिल होते हैं जबकि पूर्वी यूरोप के 20 लाख से अधिक लोग ब्रिटेन में बाकायदा रह रहे हैं। ब्रिटेन में बढ़ती तादाद के चलते ही यहां बेरोजगारी जैसी समस्या भी पनपी है। ईयू से अलग होने के बाद इन पर रोक लगाना संभव होगा।
दरअसल ब्रेक्जिट की तारीख करीब आती जा रही है और ब्रिटेन सरकार में इस पर कोई सहमति नहीं बन पा रही है। कहा जाए तो सरकार दुविधा और सुविधा के बीच फंसी हुई है। दो टूक यह भी है कि प्रधानमंत्री का रुख ब्रेक्जिट को लेकर लचीला है और वह सेमी ब्रेक्जिट की ओर बढ़ना चाहती हैं जिसका तात्पर्य है कि ईयू से अलग होने के बाद ब्रिटेन ईयू की शर्तो को मानता रहेगा और बाहर रहकर उसके साथ बना रहेगा। ऐसा करने से ब्रिटेन अपने आर्थिक हितों और रोजगार व बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बाहर जाने से बचा सकेगा पर इसकी संभावना कम ही है। गौरतलब है कि ईयू से अलग होने से ब्रिटेन को सालाना एक लाख करोड़ रुपये की बचत भी होगी जो उसे सदस्यता के रूप में चुकानी होती है। खास यह भी है कि ब्रिटेन के लोगों को ईयू की अफसरशाही भी पसंद नहीं आती। कई लोगों का मानना है कि यहां केवल कुछ नौकरशाह मिलकर 28 देशों का भविष्य तय करते हैं।
इसके अलावा मुख्य व्यापार का बाधित होना भी बड़ा मसला रहा है। ईयू से अलग होने के बाद अमेरिका और भारत जैसे देशों से ब्रिटेन को मुक्त व्यापार करने की छूट होगी। भारत का सबसे ज्यादा कारोबार यूरोप के साथ है। केवल ब्रिटेन में ही 800 से अधिक भारतीय कंपनियां हैं जिनमें एक लाख से अधिक लोग काम करते हैं। भारतीय आइटी सेक्टर की छह से 18 फीसद कमाई ब्रिटेन से होती है। ब्रिटेन के रास्ते भारतीय कंपनियों की यूरोपीय संघ के इन 28 देशों के 50 करोड़ लोगों तक पहुंच होती है। ब्रिटेन के ईयू से अलग होने पर यह पहुंच आसान नहीं रहेगी। करीब 50 फीसद कानून ब्रिटेन में ईयू के लागू होते हैं जो कई आर्थिक मामलों में बंधन है। इन्हीं कारणों से ब्रिटेन यूरोपीय संघ से अलग होना चाहता है।
ब्रिटेन के ईयू से बाहर होने के फैसले का असर उसकी अर्थव्यवस्था पर भी दिख रहा है। पिछले वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में उसकी अर्थव्यवस्था में मामूली गिरावट आई थी। ब्रिटेन के लोगों का आरोप है कि सरकार को जिस तरह इस मामले पर आगे बढ़ना चाहिए वह उस पर आगे नहीं बढ़ रही है। जून 2016 के जनमत संग्रह के बाद पाउंड में भी 15 प्रतिशत की गिरावट आई थी जिससे आयात महंगा हो गया था।
आर्थिक सहयोग बढ़ाने के लिए यूरोपीय संघ का निर्माण हुआ था जिसके पीछे सोच थी कि जो देश एक साथ व्यापार करेंगे वे एक दूसरे के साथ युद्ध करने से बचेंगे। यह संघ कई क्षेत्रों में अपने नियम बनाता है जिसमें पर्यावरण, परिवहन, उपभोक्ता अधिकार और मोबाइल फोन की कीमतें तक तय होती हैं। फिलहाल ब्रिटेन में जो बदलाव आने की संभावना है उससे दुनिया पर असर न पड़े ऐसा हो नहीं सकता। सभी को अपनी चिंता है। सवाल तो यह भी है कि आखिर किसी संघ का निर्माण क्यों होता है और उससे क्या अपेक्षाएं होती हैं? क्या ब्रिटेन की अपेक्षाओं पर यूरोपीय संघ खरा नहीं उतरा? इसकी भी जांच-पड़ताल समय के साथ होगी पर तात्कालिक परिस्थितियों को देखते हुए ब्रिटेन को ही नहीं भारत को भी संतुलित वैश्विक आर्थिक नीति पर काम करने की अधिक जरूरत पड़ सकती है।

थाईलैंड के युवा सम्राट ने प्रशासन पर शिकंजा कसा (गौरीशंकर राजहंस) (पूर्व सांसद और पूर्व राजदूत) (साभार हिंदुस्तान )


तीन वर्ष पहले थाईलैंड के सम्राट भूमिबोल का निधन हुआ था। वह अपनी प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय थे और 70 वषार्ें तक उन्होंने थाईलैंड पर राज किया। उनके बारे में कहते हैं कि वह कई बार राजमहल से निकलकर देहात की जनता के बीच चले जाते और उनके साथ श्रमदान करने लगते। थाईलैंड में कई सैनिक क्रांति और तख्ता पलट हुआ, परंतु जब-जब सेना ने सत्ता संभाली, उन्हें सम्राट भूमिबोल का आशीर्वाद प्राप्त होता था। थाईलैंड में राजा का स्थान सवार्ेच्च होता है। 80 प्रतिशत जनता बौद्ध धर्म की अनुयायी है और वहां पूजा घरों में भगवान बुद्ध की प्रतिमा के साथ ही सम्राट का फोटो भी रखा जाता है। थाईलैंड में लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भी राजा की आलोचना नहीं कर सकते। लेखों या कहानी-उपन्यास में भी वर्तमान या पूर्व राजा या उनके वंशजों की आलोचना करने का कोई साहस नहीं करता। ऐसा होने पर तीन से 15 वषार्ें तक के कठोर कारावास का प्रावधान है, जिसके खिलाफ अपील भी नहीं की जा सकती।
साल 2016 में तत्कालीन सम्राट भूमिबोल के निधन के बाद युवराज ‘वज्रलोंगकोर्न’ सम्राट घोषित किए गए, लेकिन उन्होंने नौ सप्ताह तक पद ग्रहण नहीं किया। वह दिखाना चाहते थे कि दिवंगत सम्राट के प्रति उनमें असीम श्रद्धा है। हालांकि विवादास्पद जीवन शैली ने युवराज को आम जनता में बहुत जल्द अलोकप्रिय बना दिया। उनसे अधिक तो उनकी बहन लोकप्रिय थीं, जिनकी शिक्षा-दीक्षा भारत में ही हुई है और आज भी वह थाईलैंड में विदूषी मानी जाती हैं। लेकिन सम्राट को देवी-देवताओं जैसा मान देने वाली जनता की भावना का बेजा लाभ उठाते हुए नए सम्राट ने शासन पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया। उन्होंने यूरोप के कई शहरों में बड़े-बडे़ महल बनवाए हैं। सबसे बड़ा महल जर्मनी के म्यूनिख शहर में है। वहीं से वह ट्वीट कर प्रशासन के कामों में हस्तक्षेप करते रहते हैं। सेना के बड़े अफसर या राजनेता युवा सम्राट की मनमानी को मन मसोसकर बर्दाश्त कर लेते हैं। बडे़ से बड़ा अधिकारी, यहां तक कि प्रधानमंत्री को भी घुटने के बल चलकर सिर झुकाकर सम्राट के सामने सम्मान प्रकट करना होता है और सम्मान प्रकट करने के बाद वे सभी मंत्री उसी तरह घुटने के बल पर चलकर लौट जाते हैं। युवा सम्राट ने सत्ता संभालते ही सेना के तमाम फैसले रद्द कर दिए। सबसे पहले ‘प्रीवी कौंसिल’ खत्म की, क्योंकि अगला सम्राट तय करने का अधिकार उसी का था। उन्होंने ‘प्रीवी कौंसिल’ के अधिकतर सदस्य बदल दिए। इतनी संपत्ति अर्जित कर ली, जो देश के सबसे बड़े बैंक में जमा लोगों की कुल पूंजी के बराबर मानी जा रही है। वह बहुत कुछ ऐसा कर रहे हैं, जो गलत है, लेकिन सेना से लेकर नेताओं तक किसी में साहस नहीं कि उनकी ऐसी हरकतों का विरोध करे। युवा सम्राट खुलकर कहते हैं कि वह अनुशासन के पक्षधर हैं और जो लोग अनुशासन का विरोध करेंगे, उनकी जगह जेल में होगी।
थाईलैंड में बौद्ध धर्म सवार्ेच्च माना जाता है। युवा सम्राट ने बौद्ध धर्म के प्रमुख पुरोहित को बहाल करने से लेकर नए सेनापति की नियुक्ति में भी सिर्फ अपनी सुनी और सबसे बड़ी बात यह हुई कि उन्होंने सेना को चुनाव में जल्दी न करने का आदेश तक दे डाला। वह मानते थे कि देर होने पर सेना और राजनेता आपस में भिड़ेंगे, अराजकता फैलेगी और सरकार बनाना आसान नहीं होगा। वह मान बैठे हैं कि आम चुनाव में जितनी धांधली हो और देश में जितनी अराजकता फैलेगी, प्रशासन पर उनके हाथ उतने ही मजबूत रहेंगे।
आज जब किसी को उनके खिलाफ बोलने का साहस नहीं है, तब दक्षिण-पूर्व एशिया के पड़ोसी देश सांसें रोककर थाईलैंड के प्रशासन पर उनकी दिनोंदिन मजबूत होती पकड़ को देख रहे हैं। विदेशी राजनीतिक विश्लेषक यह आकलन करने में लगे हैं कि वह पूरी तरह प्रशासन और सेना पर शिकंजा कस लेंगे या कि देर-सबेर थाईलैंड में सैनिक क्रांति हो जाएगी और युवा सम्राट को कहीं अन्यत्र शरण लेनी पडे़गी। थाईलैंड की राजनीति में यह एक दिलचस्प मोड़ है और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की जनता उत्सुकता से नए सम्राट के अगले कदम का इंतजार कर रही है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

तमिलनाडु में महात्मा की चमक (रामचंद्र गुहा) (प्रसिद्ध इतिहासकार) (साभार हिंदुस्तान )


महात्मा गांधी आधुनिक युग के ऐसे इंसान हैं, जो किसी भी अन्य भारतीय की अपेक्षा अपने होने को सार्थक करते हैं। एक ऐसे हिंदू, जिन्होंने मुसलमानों के समान अधिकारों के लिए अपना करियर तो समर्पित किया ही, जीवन भी बलिदान कर दिया। 1922 में राजद्रोह के मुकदमे की सुनवाई कर रहे अंग्रेज जज ने पेशा पूछा, तो उनका जवाब था- ‘किसान और बुनकर’। जीवन यापन के दो ऐसे तरीके, जो उनके पूर्वजों की विरासत से कोसों दूर थे। गांधीजी गुजराती भाषा से बहुत प्यार करते थे और उसके साहित्य में भी उनका खासा योगदान है। वैसे उन्हें भारत की सभी क्षेत्रीय भाषाओं से गहराई से प्यार था।
गांधी के अकादमिक करियर और जीवन का अध्ययन करते हुए उनके अंदर जो बात सबसे ज्यादा मुखर दिखी, वह है ‘सांप्रदायिकता का स्पष्ट अभाव’। इसी महीने की शुरुआत में उनके अखिल भारतीय चरित्र का ताजा, विशद और वैविध्यपूर्ण प्रदर्शन तब दिखा, जब उनकी 150वीं जयंती पर साल भर तक चलने वाले आयोजनों की कड़ी में कोयंबतूर के एक कार्यक्रम में शामिल हुआ। कार्यदिवस होने के बावजूद सुबह नौ बजे ही मुक्ताकाशी मंच जिस तरह भर चुका था, वह महात्मा के प्रति लोगों के सम्मान का सूचक है। इस उत्सव में शहर के सभी जाति-धर्म या शायद जाति-धर्म की सोच से कोसों दूर रहने वाले युवा और वृद्ध, पुरुष और स्त्री भारी संख्या में मौजूद थे। इनमें डर्बन की एक महिला और दर्जन भर तमिल लोग शामिल थे, जिन्हें सम्मानित किया जाना था। वह महिला कोई और नहीं, महात्मा गांधी की पौत्री इला गांधी थीं, जिन्हें नस्लभेद के खिलाफ एक बहादुर सेनानी के तौर पर जाना जाता है और जो दक्षिण अफ्रीका की पहली बहु-नस्लीय संसद में सांसद भी रहीं। उन्हें उनकी जन्मभूमि में ‘शांति की रक्षक’ की सशक्त भूमिका के लिए सम्मानित किया गया। सम्मानित होने वाले दर्जन भर तमिल सर्वोदय परंपरा के ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता थे, जिन्होंने अपना जीवन बुनियादी शिक्षा, कताई-बुनाई प्रशिक्षण और सतत विकास के लिए काम करते हुए गांधी के आदर्शों के प्रचार प्रसार में समर्पित कर दिया। इला गांधी सहित ये सभी लोग 70 पार कर चुके हैं, कुछ तो 80 के भी पार हैं। इनमें से एक की उम्र 104 वर्ष बताई गई, तो पहले से ही तालियों से गूंजता माहौल और ज्यादा उल्लास से भर गया।
कोयंबतूर के इस आयोजन के दो मुख्य भागीदार थे। एक 1938 में प्रख्यात देशभक्त, वकील और लेखक कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा स्थापित भारतीय विद्या भवन और दूसरा 1986 में गांधीवादी शिक्षक एम अरम द्वारा स्थापित शांति आश्रम। अरम ने तमिलनाडु के गांधीग्राम ग्रामीण विश्वविद्यालय के कुलपति का काम संभालने से पहले काफी दिनों तक नगालैंड में काम किया। सामुदायिक स्वास्थ्य और जीवन स्तर सुधारने की दिशा में सक्रिय शांति आश्रम को अब उनकी बेटी वीनू अरम चला रही हैं। भारतीय विद्या भवन की वेबसाइट पर नजर डालें, तो इसे महात्मा गांधी का आशीर्वाद तो प्राप्त रहा ही, सरदार वल्लभ भाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और राधाकृष्णन का आशीर्वाद भी समान रूप से हासिल हुआ। इनके अलावा, अनेक अन्य संस्थाएं भी इस आयोजन में भागीदार रहीं, जिनके नाम देखकर ही लगता है कि यह धर्म और संप्रदाय की सोच से बहुत दूर रहने वाले आम नागरिकों का खुद की कल्पना और पहल से आयोजित कार्यक्रम था। परस्पर सहयोग के इस स्वैच्छिक प्रयास की विशेषता यह भी थी कि इसमें किसी कॉरपोरेट हाउस की भागीदारी नहीं थी।
तमिल और तमिलनाडु से महात्मा गांधी का खासा गहरा रिश्ता रहा। इसकी शुरुआत दक्षिण अफ्रीका से हुई, जहां मिस्टर ऐंड मिसेज थांबी नायडू, शहीद नागप्पन और वेलिम्मा जैसे उनके संघर्षों के सबसे मजबूत सत्याग्रही मिले थे और वे सब तमिलनाडु के ही थे। जे एम लॉरेन्स जैसा तमिल दोस्त ही था, जिसने सबसे पहले गांधी का परिचय उनकी अपनी मातृभूमि में फैले जातीय भेदभाव से कराया और कहा कि उनके नेतृत्व में होने वाले किसी भी राजनीतिक आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण केंद्रीय पक्ष अस्पृश्यता उन्मूलन होना चाहिए। भारत में उनके काम पर नजर डालें, तो गांधी के कुछ सबसे करीबी लोगों में तमिल शामिल थे। सबसे प्रमुख नाम तो गांधी के ‘दक्षिणी कमांडर’ कहे जाने वाले चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, यानी ‘राजाजी’ का ही है, जिन्होंने पूरे तमिलनाडु में सर्वधर्म समन्वय, अस्पृश्यता उन्मूलन और खादी को बढ़ावा देने का काम किया। साहसी और आजाद खयाल राजाजी को गांधीजी ने ‘मेरी अंतरात्मा का रक्षक’ कहकर संबोधित किया। कोलंबिया यूनीवर्सिटी से पढ़े तमिल क्रिश्चियन जे सी कुमारप्पा जैसे लोग भी थे, जो मुंबई में 1929 में जोर-शोर से चल रहा अकाउंटेन्सी जैसा महत्वपूर्ण पेशा छोड़कर गांधी के साथ आ गए थे और अगले चार दशक खुद के दिए नाम ‘स्थायित्व वाली अर्थव्यवस्था’ (इकोनॉमी ऑफ परमानेन्स) को आगे बढ़ाने में लगा दिए। एक अन्य गांधीवादी, प्रख्यात टीवीएस औद्योगिक घराने में जन्मे सौंदरम रामचंद्रन थे, जिन्होंने गरीबों और वंचितों के साथ रहने के लिए वैभव का अपना संसार छोड़ना जरूरी समझा।
एक व्यक्तिगत और पारिवारिक कारण भी रहा, जिसने महात्मा को तमिल और तमिलनाडु से जोड़ा। उनके तीन बच्चों ने तो गुजरात में शादी की, चौथे का विवाह तमिल परिवार में हुआ। इस रिश्ते से बनी पीढ़ियों ने गांधी और तमिलनाडु के रिश्तों को और मजबूती के साथ आगे बढ़ाया है।
तमिलों पर गांधी का बहुत बड़ा ऋण है। गांधी के लिए तमिलनाडु का ऋण भी हल्के में नहीं लिया जा सकता। यहां भूलना नहीं चाहिए कि गांधीजी का देश के अन्य प्रमुख प्रांतों से भी ऐसा ही प्रगाढ़ संबंध रहा है। यह उनके जीवन की विरासत और उनका अखिल भारतीय चरित्र ही है, जो उन्हें देश के अन्य तमाम समाज सुधारकों और राजनेताओं के बीच अलग दर्शाता है। 150वीं जयंती के इस वर्ष में उम्मीद की जानी चाहिए कि देश के अन्य राज्य भी उनका उपयुक्त स्मरण करते हुए गांधी के प्रति अपनी समझ को और मजबूती से आगे बढ़ाएंगे। कोयंबतूर का उत्सव इसके लिए शायद एक मॉडल बन सके।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

पाकिस्तान की गरीबी और बदहाली के लिए सेना जिम्मेदार - The Economist Newspaper Limited. All rights reserved.


विकास के कई मानकों पर पाकिस्तान लगातार पिछड़ रहा है। दो करोड़ से अधिक बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं। 30% से कम महिलाएं ही रोजगार से जुड़ी हैं। पिछले 20 वर्षों में भारत, बांग्लादेश की तुलना में निर्यात पांच गुना कम दर से आगे बढ़ पाया है। देश की समस्याओं को समझने वाली प्रधानमंत्री इमरान खान की नई सरकार गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रही है। अगर इमरान खान को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से मदद मिल गई तो यह पाकिस्तान के लिए इस तरह की सहायता का 22वां मौका होगा। पाक के लिए गरीबी, कुशासन और अस्थिरता ने भयावह स्थिति खड़ी कर दी है। परमाणु हथियारों और धार्मिक कट्‌टरपंथियों के कारण पाकिस्तान विश्व के लिए खतरा बन गया है। इमरान खान सहित कई लोग पाक की समस्याओं के लिए भ्रष्ट राजनीतिज्ञों को दोषी ठहराते हैं। कई लोगों की दलील है कि पाकिस्तान युद्धग्रस्त अफगानिस्तान और आक्रामक भारत के बीच फंसा है। सेना के अधिकारों को जायज बताने के लिए इनका जिक्र होता है। फिर भी, पाकिस्तान की समस्याओं का सबसे बड़ा कारण सेना ही है। राजनेताओं पर सेना की हुकूमत चलती है।
1947 में पाकिस्तान बनने के बाद सेना ने न सिर्फ देश की कट्‌टर विचारधारा का बचाव किया बल्कि उसे दो विनाशकारी तरीकों से परिभाषित किया। देश का अस्तित्व सहिष्णु और समृद्ध नागरिकों की बजाय इस्लाम की रक्षा के लिए कायम है। सेना, जो भरोसा करती है कि देश को दुश्मनों ने घेर रखा है, प्रतिशोध, प्रताड़ना और उन्माद के सिद्धांत को आगे बढ़ाती है। इसके गंभीर असर सामने आए हैं। धर्मान्धता ने ऐसे उग्रपंथ को बढ़ावा दिया है जो लगता है कि देश के टुकड़े-टुकड़े कर देगा। इस्लाम के नाम पर हथियार उठाने वालों का सरकार समर्थन करती है। हालांकि,ऐसे तत्वों ने प्रारंभ में पाकिस्तान के कथित दुश्मनों के खिलाफ युद्ध छेड़ा था लेकिन जल्द ही उन्होंने देश में कहर ढा दिया। उग्रपंथियों, जिनमें से अधिकतर तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के हैं, के हाथों 60 हजार पाकिस्तानी मारे जा चुके हैं। सेना ने आज भी कई हिंसक गुटों को शरण दे रखी है। 2008 में मुंबई पर आतंकवादी हमले का साजिशकर्ता देश में आजाद घूम रहा है।
उन्माद का सिद्धांत सेना को संसाधनों पर कब्जा करने में मदद करता है। विकास की बजाय सेना के खाते में ज्यादा पैसा जाता है। उसे ब्लैकमेल की आदत पड़ गई है। वह धमकी देती है कि हमें पैसा दो अन्यथा दुनिया के इस खतरनाक हिस्से में हम तुम्हारी समस्याएं और अधिक बढ़ाएंगे। यह गर्वीले राष्ट्रवाद के बावजूद विदेशी सहायता पर पाकिस्तान की निर्भरता का मुख्य कारण है। इसकी ताजा पुनरावृत्ति चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) प्रोजेक्ट के तहत सड़कों, रेलवे, बिजलीघरों, बंदरगाहों के निर्माण के लिए चीन से 60 अरब डॉलर के निवेश के रूप में हुई है। सीपीईसी प्रोजेक्ट इस कल्पना को रेखांकित करता है कि किसी अन्य बदलाव की बजाय बाहर से समृद्धि लाई जा सकती है। वैसे, भारत से बेहतर संबंधों के बिना पाकिस्तान अपनी क्षमता को कभी हासिल नहीं कर पाएगा। लेकिन, सेना किसी भी तरह के मेलजोल में बाधा डालती है।
कई मोर्चों पर पाकिस्तान की हालत खराब है। कराची में 250 कामगारों की कॉटन मिल के मालिक, एक बड़े चावल निर्यातक, शू फैक्टरी के मालिक और छोटे केमिस्ट स्टोर की चेन चलाने वाले एक व्यवसायी कहते हैं, बिजली और पानी की बढ़ती दर सिरदर्द बन चुकी है। केमिस्ट स्टोर के मालिक शिकायत करते हैं कि दिन में 16 घंटे बिजली न मिलने के कारण डीजल जनरेटरों के उपयोग की वजह से बिजली पर उनका खर्च दोगुना हो गया है। मिल मालिक बताते हैं, बिजली, पानी की ऊंची दर ने उनके कपड़े की लागत दो रुपए मीटर बढ़ा दी है। उनका कहना है, वे न केवल चीन बल्कि बांग्लादेश, भारत और श्रीलंका में अपने प्रतिद्वंद्वियों के सामने नहीं टिक पाते हैं। शू फैक्टरी के मालिक ने कुछ दिन पहले ही अपने आधे कामगारों की छुट्‌टी की है।
कराची में लोग आक्रोशित हैं कि सरकार पानी तक नहीं दे पा रही है। राजनीतिक संरक्षण में चलने वाले माफिया गिरोहों का सार्वजनिक पानी सप्लाई के सिस्टम पर कब्जा है। इस पृष्ठभूमि में इमरान खान और उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ (पीटीआई) ने जुलाई 2018 में हुए चुनावों के बाद सत्ता हासिल की। खान की व्यक्तिगत ईमानदारी पर किसी को शक नहीं है। उन्होंने भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के मुद्दों पर जनता का भरोसा पाया है।
जन समर्थन और परदे के पीछे सेना के आला अफसरों की मदद से इमरान सत्तारूढ़ हुए हैं। प्रधानमंत्री के सामने पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने के लिए आईएमएफ से मदद मांगने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। नए वित्तमंत्री असद उमर का कहना है, सऊदी अरब, चीन से मिलने वाले पैसे से आने वाले साल में कैश फ्लो की समस्या हल हो जाएगी। वैसे, सीपीईसी प्रोजेक्ट से पाकिस्तान की समस्याएं बढ़ रही हैं। संकेत हैं कि सरकार प्रोजेक्ट पर फिर से विचार कर सकती है। इससे लगता है कि परदे के पीछे सेना और इमरान खान क्यों अमेरिका से संबंध बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं। बहरहाल, सरकार द्वारा धर्म और उन्माद को बढ़ावा देने से बचने और सेना के अधिकारों को सीमित कर ही पाकिस्तान की स्थिति को बेहतर बनाया जा सकता है।

बुजुर्गो की बढ़ती आबादी के खतरे (सतीश सिंह) (साभार दैनिक जागरण )


किसी भी देश में बुजुर्गो की संख्या यानी 65 साल से अधिक आयु वाले लोगों की संख्या बढ़ने से बचत में कमी आती है। साथ ही इससे श्रम शक्ति में भी गिरावट आती है जिससे निवेश में गिरावट देखी जाती है लिहाजा निवेश की दर पर भी इसका असर होने की आशंका होती है। देखा जाए तो भारत फिलवक्त अमेरिका और चीन की तुलना में युवा देश है और आगामी दशकों में भी इसके युवा बने रहने की संभावना है। हमारे अनुमान के अनुसार वर्ष 2011 में बुजुर्गो की 5.5 प्रतिशत की आबादी वर्ष 2050 तक बढ़कर 15.2 प्रतिशत हो जाएगी, जबकि वर्ष 2050 में बुजुर्गो की आबादी चीन में 32.6 प्रतिशत और अमेरिका में 23.2 प्रतिशत हो जाएगी।
अमेरिका में बुजुर्गो की स्थिति
अमेरिका में लंबे समय तक जीवन प्रत्याशा, कम जन्म दर, स्वास्थ्य देखभाल की लागत बढ़ने जैसे कारणों से सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल व्यय में अभूतपूर्व इजाफा हो रहा है जिससे राष्ट्रीय संसाधनों का एक बड़ा हिस्सा इस मद में खर्च हो रहा है। इस वजह से वहां श्रमिकों की संख्या में भारी कमी आई है। कामगारों के लिए अमेरिका की निर्भरता दूसरे देशों पर बढ़ी है। उद्योग-धंधों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। बच्चे, किशोर एवं युवाओं के बीच एकाकीपन और अवसाद के मामले देखे जा रहे हैं।
जनसांख्यिकी और अर्थशास्त्र के अमेरिकी प्रोफेसर रोनाल्ड ली के अनुसार अमेरिका को कामकाजी और सेवानिवृत्ति पर अपने दृष्टिकोण और नीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए। हालांकि 65 वर्ष को पारंपरिक रूप से सामान्य सेवानिवृत्ति की उम्र माना जाता है, लेकिन मौजूदा परिप्रेक्ष्य में बुजुर्गो को परिभाषित करने और उनके लिए लाभ निर्धारित करने के लिए इसे अप्रासंगिक सीमा मानी जा सकती है। रोनाल्ड ली के मुताबिक वृद्धावस्था में श्रम बल की भागीदारी में वृद्धि के लिए पर्याप्त क्षमता है। ऐसा करने से राष्ट्रीय उत्पादन में बढ़ोतरी होगी जबकि सेवानिवृत्ति बचत पर निकासी को धीमा कर देगा और श्रमिकों को लंबे समय तक पैसा बचाने के लिए प्रेरित करेगा।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि लंबे कामकाजी जीवन का युवा श्रमिकों, उत्पादकता या नवाचार से संबंधित रोजगार के अवसरों पर बहुत कम असर पड़ेगा। इसके अलावा श्रमिक भविष्य की योजना बनाकर और अपनी बचत और व्यय की आदतों को अनुकूलित करके सेवानिवृत्ति के लिए बेहतर तैयारी कर सकते हैं। इस संबंध में बेहतर वित्तीय साक्षरता महत्वपूर्ण साबित हो सकती है, क्योंकि आज भी अमेरिका की एक बड़ी आबादी सेवानिवृत्ति के लिए पर्याप्त बचत नहीं कर पा रही है।
चीन में वृद्ध आबादी के दुष्परिणाम
लंबे समय तक केवल एक बच्चे पैदा करने की नीति के कारण चीन में युवा आबादी की संख्या बहुत ही कम हो गई है और दूसरी ओर बुजुर्गो की संख्या में भारी इजाफा हुआ है। देश में श्रमिक बल के कम होने से देश की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1980 में आबादी को नियंत्रित करने के लिए चीन ने एक बच्चे की नीति को लागू किया था। इसके पहले वहां औसतन परिवार में तीन से चार बच्चे हुआ करते थे। इस योजना को कड़ाई से लागू किया गया। इस योजना को सख्ती से लागू करने के क्रम में कई लोगों को नौकरी से बर्खास्त करने के अलावा महिलाओं का जबर्दस्ती गर्भपात भी कराया गया।
बहरहाल इस नीति की वजह से चीन की आर्थिक एवं सामाजिक संरचना में व्यापक बदलाव देखा जा रहा है। बच्चे निराशा और अवसाद के शिकार हो रहे हैं। मनोवैज्ञानिक कारणों से उनकी परवरिश ठीक तरीके से नहीं हो पा रही है। बच्चों में आत्मविश्वास की कमी देखी जा रही है। बच्चे प्रतिस्पर्धा से बचने की कोशिश करते देखे जा रहे हैं।
माता-पिता की अपने इकलौते संतान के प्रति आत्मीयता बहुत ज्यादा बढ़ गई है। लड़कियों की जगह लड़के पैदा करने के प्रति लोगों का रुझान भी इन दिनों वहां बढ़ा है। एक संतान होने से अभिभावकों की आय में जरूर बढ़ोतरी हुई है। इसके अलावा शिक्षा के स्तर में भी वृद्धि हुई है। बदले परिवेश में शिक्षा भी महंगी हुई है।
वर्ष 2013 में चीन की राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़े के अनुसार वर्ष 2012 में देश में 35 लाख श्रमिकों की कमी देखी गई। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या विभाग के मुताबिक अगली सदी में चीन की श्रमिक आबादी की जनसंख्या महज 54.8 करोड़ रह जाएगी। एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2030 तक चीन की आबादी में उम्र के अंतर के मामले में एक बड़ी खाई पैदा हो जाएगी। जाहिर है श्रमिक तबका में कमी आने से देश का बुनियादी ढांचा, जो विकास का वाहक होता है उस पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की आशंका है। श्रमिक बल की कमी से सड़क, बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा, उद्योग, विनिर्माण आदि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने से इन्कार नहीं किया जा सकता।
यह बताना दिलचस्प होगा कि विश्व में वित्तीय सेवा प्रदाता ‘क्रेडिट सुइस’ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन में वर्ष 2017 से वर्ष 2021 तक 30 से 50 लाख तक अतिरिक्त बच्चे पैदा हो सकते हैं। केवल इस रिपोर्ट को दृष्टिगत करके चीन में बच्चों के लिए सामान बनाने वाली कंपनियों को बढ़ावा दिया जा रहा है, जबकि कंडोम बनाने वाली कंपनियों में मंदी की स्थिति देखी जा रही है। यह इस बात का सूचक है कि जनसांख्यिकीय बदलाव का देश की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति पर सीधे तौर पर प्रभाव पड़ता है।
भारत में बढ़ती उम्र का प्रभाव
भारत के विभिन्न राज्यों में बुजुर्ग आबादी को लेकर अलग-अलग तरह की जटिल स्थिति का निर्माण हो सकता है। आंकड़ों से पता चलता है कि कुछ राज्यों, जिसमें ज्यादातर दक्षिण भारत के राज्य शामिल हैं वहां बुजुर्गो की आबादी में अप्रत्याशित वृद्धि हो सकती है। एक अनुमान के मुताबिक भारत की जनसंख्या वर्ष 2050 तक 178 करोड़ तक पहुंच सकती है, जबकि विश्व बैंक के अनुसार वर्ष 2050 तक भारत की आबादी 173 करोड़ होगी जिसमें 27 करोड़ की आबादी बुजुर्गो की हो सकती है। सूक्ष्म स्तर पर इससे किसी तरह की समस्या उत्पन्न नहीं होगी, लेकिन समग्रता में इसका प्रभाव आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति पर पड़ेगा। ऐसी स्थिति को राज्यवार देखने पर यह संख्या खतरनाक दिख रही है।
वर्ष 2050 तक चार दक्षिणी राज्यों जैसे आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु में कुल आबादी का पांचवां हिस्सा बुजुर्ग आबादी का हो जाएगा। वहीं महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, ओडिशा आदि राज्यों में एक बड़ी आबादी बुजुर्गो की हो जाएगी जिससे पूर्व और उत्तर पूर्व भारत से आगामी दशकों में श्रमिकों का निरंतर पलायन होगा, जैसा कि पिछले दशकों से इन राज्यों में हो रहा है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, असम, बिहार, हरियाणा आदि राज्यों में वर्ष 2050 में युवा आबादी की संख्या ज्यादा रहेगी जिसके कारण इन राज्यों से दक्षिण के राज्यों में युवाओं का पलायन जारी रहेगा। ऐसे परिवर्तनों की वजह से दक्षिणी राज्यों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति पर प्रभाव पड़ना लाजिमी है। इससे दक्षिणी राज्यों के बुनियादी ढांचे पर भी दबाव बढ़ सकता है।
आंध्र प्रदेश की प्रोत्साहन योजना
‘जनसांख्यिकीय संकट’ से बचने के लिए आंध्र प्रदेश ने लोगों को और अधिक बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया है, लेकिन प्रभावित राज्यों के लिए प्रजनन दर की प्रवृत्ति में बदलाव लाना आसान नहीं होगा।
वित्त वर्ष 2017 में राज्य-वार प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों से साफ है कि दक्षिणी राज्य उत्तरी राज्यों की तुलना में अधिक समृद्ध हैं और दोनों क्षेत्रों की आय में व्यापक अंतर है। उदाहरण के लिए कर्नाटक और बिहार के बीच प्रति व्यक्ति आय का अंतर 1.1 लाख रुपये है, वहीं कर्नाटक और औसत राष्ट्रीय आय के बीच लगभग 57,000 रुपये का अंतर है।
वर्ष 2050 तक दक्षिणी राज्यों में बुजुर्गो की आबादी बढ़ेगी जिससे आय वितरण का अंतर और भी व्यापक होगा। दिलचस्प बात यह है कि ‘न्यू वल्र्ड वेल्थ रिपोर्ट 2016’ में कहा गया है कि दक्षिण भारत के बेंगलुरु में सबसे ज्यादा 7,700 करोड़पति हैं। इस मामले में चेन्नई 6,600 करोड़पतियों के साथ दूसरे स्थान पर है। ऐसी रोचक स्थिति के लिए बुजुर्गो की बढ़ती आबादी को एक बहुत बड़ा कारण माना जा सकता है। ऐसे में इस मसले पर अभी से विचार करना जरूरी है।
भारत में जनसांख्यिकीय बदलाव एक बड़े संकट की ओर इशारा कर रहा है जिस पर समय रहते कार्रवाई करने की जरूरत है। समग्रता में भले ही इसका असर आर्थिक एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य में दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है, लेकिन इसका दूरगामी प्रभाव पड़ने से इन्कार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि जैसे-जैसे लोगों की आयु बढ़ती है, बचत में वृद्धि देखी जाती है, लेकिन ज्यादा उम्र होने पर स्वास्थ्य व्यय में वृद्धि होती है जिससे बचत में अपेक्षाकृत कमी आती है। बचत में कमी से घरेलू उत्पादों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
जनसांख्यिकीय आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि वर्ष 2050 तक आंध्र प्रदेश में बुजुर्गो की 30.1 प्रतिशत की आबादी देश में सबसे अधिक होगी। इस मामले में केरल 25 प्रतिशत, कर्नाटक 24.6 प्रतिशत, तमिलनाडु 20.8 प्रतिशत, हिमाचल प्रदेश 17.9 प्रतिशत की आबादी के साथ क्रमश: दूसरे, तीसरे चौथे और पांचवें स्थान पर होगा, जबकि वर्ष 2050 में बुजुर्गो की 9.8 प्रतिशत की सबसे कम आबादी हरियाणा में होगी। वैसे युवा आबादी के संबंध में वर्ष 2050 में बिहार, उत्तरप्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तराखंड आदि राज्य बेहतर स्थिति में रहेंगे।
बदलती जनसांख्यिकीय प्रवृत्ति को देखते हुए देश के राज्यों को नीति बनाने एवं उस पर अमल करने की जरूरत है। जिन राज्यों में युवा आबादी है, उन्हें श्रम केंद्रित उद्योग स्थापित करना चाहिए ताकि युवा श्रम शक्ति का समुचित तरीके से इस्तेमाल किया जा सके जबकि जिन राज्यों में बुजुर्गो की ज्यादा आबादी है, उन्हें सेवानिवृत्ति की आयु में बढ़ोतरी करने की नीति पर आगे बढ़ने की जरूरत है। हालांकि भारत की सामाजिक एवं आर्थिक नीति चीन एवं अमेरिका से इतर है। फिर भी हमारे देश में आम लोगों के अनुकूल नीति बनाई जा सकती है। फिलहाल देश में राजनेता 70 से 80 वर्ष की आयु में भी पूरे दम-खम के साथ काम कर रहे हैं। अगर राज्यों में जनसांख्यिकीय बदलाव की प्रवृत्ति के अनुसार नीति बनाई जाए तो इस मोर्चे पर कुछ बेहतर परिणाम निकलने की जरूर उम्मीद की जा सकती है।