Monday 11 February 2019

सीबीआइ में व्यापक सुधार की दरकार (साभार दैनिक जागरण )


भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करने वाली देश की सबसे बड़ी एजेंसी सीबीआइ का विवाद बीते दिनों काफी शर्मनाक स्थिति में पहुंच गया था। एजेंसी के दो शीर्ष अधिकारी खुले तौर पर एक दूसरे से संघर्षरत थे। बीते अक्टूबर में आलोक वर्मा को जबरन छुट्टी पर भेजा गया था और ऐसा ही उनके प्रतिद्वंद्वी विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के साथ भी हुआ। विगत 10 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने निदेशक आलोक वर्मा को पद पर बहाल किया, लेकिन 24 घंटे के भीतर ही उनकी नियुक्ति करने वाली उच्चाधिकार समिति ने 2-1 के निर्णय से आलोक वर्मा को हटा दिया। इतना ही नहीं राकेश अस्थाना को भी दिल्ली हाई कोर्ट ने कोई राहत नहीं देते हुए उनके खिलाफ घूसखोरी की जांच जारी रखने को कहा तथा उनकी गिरफ्तारी पर लगी रोक भी हटा दी। ऐसे में भ्रष्टाचार से लड़ने वाली संस्थाओं में संरचनात्मक सुधार आवश्यक है। यह हास्यास्पद है कि आज भी सीबीआइ दिल्ली स्पेशल इस्टेब्लिशमेंट एक्ट, 1946 के तहत कार्य करती है। अब तक 40 से अधिक समितियां कह चुकी हैं कि सीबीआइ का अलग अधिनियम बनाया जाए, परंतु कोई भी सरकार इस ओर ध्यान नहीं दे रही है। शायद सभी को सीबीआइ का वर्तमान स्वरूप ठीक लगता है जिससे वे इसका दुरुपयोग कर सकें। वर्ष 1978 में एलपी सिंह समिति ने संस्तुति की थी कि एक व्यापक केंद्रीय अधिनियम बनाकर सीबीआइ को सशक्त बनाया जाए।
सीबीआइ के शीर्ष पदों के विवाद से यह भी स्पष्ट है कि इसके शीर्षस्थ पदों के लिए अधिकारियों की नियुक्ति की प्रक्रिया में गंभीर दोष है। वर्तमान में लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम-2013 द्वारा सीबीआइ निदेशक की नियुक्ति एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति करती है जिसमें प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस या उनके द्वारा नामित सुप्रीम कोर्ट के कोई अन्य न्यायाधीश व लोकसभा में विपक्षी दल के नेता शामिल हैं। स्पष्ट है कि उपरोक्त समिति में सरकार के सदस्यों का बहुमत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम आदेश के द्वारा इस समिति की शक्तियों में और वृद्धि हुई। सुप्रीम कोर्ट ने 10 जनवरी को स्पष्ट कर दिया कि सीबीआइ की यही कमिटी निदेशक का ट्रांसफर कर सकेगी तथा उनके मामलों की जांच कर सकेगी। लोकपाल एवं लोकायुक्त विधेयक के निर्माण के दौरान नीति निर्माताओं की यह राय रही कि अगर सीबीआइ निदेशक तटस्थ व्यक्ति होगा तो संपूर्ण संस्था स्वत: स्वतंत्र हो जाएगी।
वर्ष 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने विनीत नारायण केस में सीबीआइ निदेशक के कार्यकाल को दो वर्ष के लिए सुरक्षित कर दिया। इसके बाद ही वर्ष 2003 में सीबीआइ को सीवीसी यानी मुख्य सतर्कता आयुक्त के अधीन लाया गया। ऐसे में सीवीसी की नियुक्ति प्रक्रिया को समझना होगा। सीवीसी की नियुक्ति एक तीन सदस्यीय उच्चाधिकार प्राप्त समिति द्वारा की जाती है। समिति के प्रमुख प्रधानमंत्री व अन्य सदस्य लोकसभा में विपक्ष के नेता व गृहमंत्री होते हैं। वर्ष 2003 के सीवीसी अधिनियम के अनुसार वह सीबीआइ की नियंत्रक संस्था भी है। लिहाजा सीवीसी की भी नियुक्ति किसी ऐसी चयन समिति द्वारा हो जिसमें सरकारी सदस्यों का बहुमत नहीं हो। सीबीआइ के आपसी झगड़े में सीवीसी की भूमिका निष्पक्ष नहीं कही जा सकती। अक्टूबर में जब तत्कालीन सीबीआइ निदेशक ने सीवीसी से अस्थाना के शिकायती पत्र की प्रतिलिपि मांगी थी तब यह उन्हें नहीं उपलब्ध कराई गई।
अभी सीबीआइ की नियुक्ति वाली उच्चाधिकार समिति ने सीवीसी रिपोर्ट के आधार पर ही आलोक वर्मा को सीबीआइ निदेशक पद से हटाया। ज्ञात हो इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस पटनायक की निगरानी में सीवीसी जांच के आदेश दिए थे। इस मामले में अब जस्टिस पटनायक का कहना है कि सीवीसी जांच रिपोर्ट में आलोक वर्मा के विरुद्ध कुछ भी नहीं है। स्पष्ट है कि अगर वर्तमान सीबीआइ विवाद में सीवीसी तटस्थ रूप से अपनी भूमिका का निर्वहन करते तो यह मामला इतने शर्मनाक स्तर पर नहीं पहुंचता।
इसी प्रकार केंद्र सरकार की एक प्रमुख आर्थिक जांच एजेंसी ईडी यानी प्रवर्तन निदेशालय है। ईडी की नियुक्ति भी एक चयन समिति करती है। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त इसके अध्यक्ष होते हैं और दो निगरानी आयुक्त, साथ में गृह सचिव, कार्मिक मंत्रलय के सचिव तथा वित्त मंत्रलय के सचिव इसके सदस्य होते हैं। इस चयन समिति में भी सरकारी सदस्यों का ही बहुमत है लिहाजा इसमें भी बदलाव की आवश्यकता है।
देश को यथाशीघ्र लोकपाल की आवश्यकता है। अक्टूबर में जब नागेश्वर राव को सीबीआइ का कार्यवाहक निदेशक बनाया गया तो उन्होंने मध्य रात्रि में विस्तृत पैमाने पर ट्रांसफर किया। वहीं सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बहाल होने वाले आलोक वर्मा ने भी 24 घंटे के भीतर दर्जनों अधिकारियों का तबादला कर दिया। लेकिन जैसे ही आलोक वर्मा को चयन समिति ने हटाया, नागेश्वर राव ने आलोक वर्मा के सभी तबादलों को रद कर दिया। अगर लोकपाल होता तो इस तरह मनमाना तबादला संभव नहीं था। वर्ष 2013 के लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम में स्पष्ट प्रावधान है कि लोकपाल के अनुमोदन से ही लोकपाल द्वारा भेजे गए केस की जांच करने वाले सीबीआइ अधिकारियों का ट्रांसफर हो सकेगा।
सीबीआइ की गिरती विश्वसनीयता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि तीन राज्यों क्रमश: आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ तक सीबीआइ के प्रवेश पर रोक लगा दी है। इन राज्यों ने सीबीआइ को राज्य में छापा मारने या जांच करने के लिए दी गई ‘सामान्य रजामंदी’ वापस ले ली है। अब सीबीआइ इन राज्यों में हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ही जांच कर सकेगी। दरअसल सीबीआइ की धारा पांच में देश के सभी क्षेत्रों में उसे जांच की शक्ति दी गई है, पर धारा छह में कहा गया है कि राज्य सरकार की सहमति के बिना सीबीआइ उस राज्य के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकती। यह स्थिति सीबीआई जैसी जांच एजेंसी के लिए अत्यंत खतरनाक है।

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