Monday 22 August 2016

यह बर्फ पिघल गई तो कहां रहेंगे हम (जॉन विडाल, पर्यावरण संपादक, द गार्जियन)

बर्फ का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक आमतौर पर हंसमुख और व्यावहारिक होते हैं। पीटर वदाम्स भी अपवाद नहीं हैं। स्कॉट पोलर रिसर्च इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक और कैंब्रिज में ओशन फिजिक्स के इस प्रोफेसर ने अपना पूरा जीवन बर्फ की दुनिया को जानने-समझने में बिताया है, और अपनी इस यात्रा में उन्होंने कई अकल्पनीय बदलाव देखे हैं। 1970 में जब वह पहली बार ध्रुवीय अभियान पर निकले, तब आर्कटिक महासागर सितंबर में कम से कमआठ मीटर बर्फ की परत से ढका था। आज यहां महज 3.4 मीटर की परत है, जो हर दशक 13 फीसदी की दर से पिघल रही है। नासा की नई किताब बताती है कि जुलाई, 2016 अब तक का सबसे गरम महीना था। जिस डर की ओर बाकी वैज्ञानिक दबी जुबान में इशारा कर रहे हैं, वदाम्स खुलेआम उसे कह रहे हैं। वह कहते हैं, आर्कटिक मौत का ऐसा कुचक्र बनता जा रहा है, जहां आने वाले दिनों में बर्फ की तमाम परतें गरमी में पूरी तरह पिघल जाएंगी। सितंबर में वहां बर्फ नहीं होगी, और ऐसा चार-पांच माह तक बना रहेगा। ग्रीनहाउस गैसों का अत्यधिक उत्सर्जन इसकी वजह बनेगा।
यह हमारे लिए तबाही से कम नहीं। आर्कटिक की बर्फ अप्रत्याशित या फिर असामान्य मौसम के कुप्रभावों से हमें बचाती है। और आज असामान्य मौसम से हम अपेक्षाकृत अधिक जूझ रहे हैं। आज धरती 19वीं सदी के मुकाबले 1.3 सेल्सियस अधिक गरम हो चुकी है, और साल 2016 अब तक का सबसे गरम साल साबित होने वाला है। ब्रिटेन और उत्तरी यूरोप में बेशक औसत तापमान रहे हैं, मगर पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका व दक्षिण-पूर्व एशिया की 50 करोड़ आबादी ने अल नीनो की वजह से अकाल और अपेक्षाकृत अधिक गरम दिन व रात झेले हैं। इतना ही नहीं, पिछले एक दशक में चीन, भारत और अमेरिका ने भी सबसे लंबी गरमी और बदतरीन बाढ़ को देखा है। अंदेशा गलत नहीं कि यहां आने वाले महीनों में बेमौसम व अप्रत्याशित बारिश की वजह से करीब 10 करोड़ लोग खाद्यान्न संकट से जूझेंगे।
पिछले वर्ष पेरिस में तमाम देशों ने एक लक्ष्य तय किया था कि वे वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित रखने की कोशिश करेंगे। हम इस खतरनाक स्तर के करीब हैं, और तेजी से तीन से चार डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि की ओर बढ़ रहे हैं। अगर ऐसा हुआ, तो यह दुनिया रहने के काबिल नहीं रह जाएगी। ऐसे में सवाल यही कि आखिर इससे कैसे बचा जाए? निश्चय ही तुरंत कदम उठाने की जरूरत है, मगर भू-इंजीनियरिंग में आगे बढ़ने से पहले विज्ञान, इंजीनियरिंग और शासन से जुड़े बड़े सवालों के भी जवाब तलाशने होंगे। असल में, जलवायु परिवर्तन अनदेखी व मूर्खता का परिणाम है, और महज भू-इंजीनियरिंग से इसका हल नहीं निकल सकता। इसका एकमात्र हल यही है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम किया जाए, और वह भी बहुत तेजी से। (हिन्दुस्तान )

ई-कॉमर्स के स्याह पक्ष (अभिषेक कुमार)

बेरोजगारी से जूझते मुल्क में यह खबर किसी को भी हैरान कर सकती है कि आइआइटी-आइआइएम जैसे संस्थान नौकरी देने वाली कंपनियों को ही अपने यहां कैंपस सेलेक्शन करने से रोकने का प्रयास करें। वे कंपनियां जो हाल-हाल तक इन संस्थानों से पढ़कर निकले युवाओं को अपने यहां लाखों-करोड़ों के सालाना पैकेज पर नौकरी पर रखती रही हैं, कोशिश की जा रही है कि ये कंपनियां वहां पांव न रख सकें। खबर है कि देश के कई आइआइटी करीब 20 ऐसी कंपनियों को }लैकलिस्ट कर रही हैं, क्योंकि उन्होंने नौकरी देने के मामले में धोखाधड़ी की है। समस्या का गंभीर पहलू यह है कि इनमें से यादातर वे स्टार्टअप कंपनियां हैं जिन पर देश की अर्थव्यवस्था को आगे ले जाने का दारोमदार है और जो आकर्षक वेतन देने के मामले में अग्रणी रही हैं। इनमें सबसे यादा संख्या ई-कॉमर्स यानी ऑनलाइन कारोबार करने वाली कंपनियों की है।
हाल तक इन स्टार्टअप कंपनियों की इसलिए चर्चा होती थी कि एक ओर ये देश के नामी आइआइटी और आइआइएम संस्थानों में आयोजित होने वाले कैंपस सेलेक्शन के पहले दिन ही टैलेंट को खींचकर अपने यहां ले जाने में सफल हो रही थीं। दूसरी तरफ यही कंपनियां हजारों युवाओं को डिलीवरी }वॉय से लेकर आइटी इंजीनियर और मैनेजर जैसे शानदार रोजगार भी दे रही थीं। लेकिन पिछले दिनों इन्हीं कंपनियों और आइआइटी-आइआइएम जैसे संस्थानों के बीच नौकरियों को लेकर ऐसी खींचतान हुई है, जिससे रोजगार के इस चमकदार विकल्प की कलई खुल गई है। इन कंपनियों को }लैकलिस्ट करने की पहलकदमी ने यह विचार करने को मजबूर किया है कि जिन कंपनियों की बदौलत हमारा देश रोजगार से लेकर अर्थव्यवस्था तक के मोर्चे पर ऊंची उड़ान भरने के ख्वाब देखने लगा था, कहीं उनकी बुनियाद बेहद खोखली तो नहीं है। अब खबर है कि ऐसी करीब 20 कंपनियों को तीन श्रेणियों में बांटकर उन्हें }लैकलिस्ट किया जा रहा है। पहली श्रेणी उन कंपनियों की है, जिन्होंने युवाओं को जॉब ऑफर लेटर देने के बाद प्लेसमेंट टाल दिया। दूसरी कैटिगरी में वे कंपनियां हैं जिन्होंने युवाओं के वेतन में कटौती की या फिर उनका जॉब प्रोफाइल ही बदल दिया। तीसरी श्रेणी छात्रों से जॉब ऑफर ही वापस लेने वाली कंपनियों की है। देश के यादातर आइआइटी संस्थान इसे लेकर एकमत हैं कि स्टार्टअप कंपनियों का उनके छात्रों के साथ ऐसा व्यवहार बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
स्टार्टअप कंपनियों को काली सूची में डालने का यह पूरा किस्सा देश के रोजगार परिदृश्य के हिसाब से निराश करने वाला है, पर समस्या यह है कि यह तो अभी समस्या की शुरुआत है। क्योंकि जैसे-जैसे स्टार्टअप कंपनियों को जमीनी हकीकत का अहसास होगा और बाजार के कायदों और चुनौतियों के चलते उन्हें कड़ी प्रतिस्पर्धा और नाकामियों का सामना करना पड़ेगा, वे मोटे पैकेज देकर नामी संस्थानों की प्रतिभाओं को अपने यहां रखने से परहेज करने लगेंगी। यह मामला अब कहां तक पहुंचेगा, कहा नहीं जा सकता लेकिन इतना तय है कि ताजा प्रकरण ने इस बारे में एक नजीर सामने रख दी है कि नामी संस्थानों और नई उभरी ई-कॉमर्स व आइटी कंपनियों के बीच कैसे झगड़े-झंझट सामने आ सकते हैं। घटनाओं की शुरुआत कुछ समय पहले ऑनलाइन शॉपिंग कराने वाली कुछ ई-कॉमर्स व आइटी कंपनियों की एकतरफा कार्रवाइयों से हुई थी। कई कंपनियों ने नामी संस्थानों से डिग्री हासिल कर चुके युवाओं को कैंपस प्लेसमेंट के जरिये चुना था और जिन्हें बाकायदा ऑफर लेटर दिए थे, उन्हें इन कंपनियों ने टरकाना शुरू कर दिया। कुछ कंपनियों में तो प्लेसमेंट के दो साल बाद भी नौजवान सिर्फ कागज पर नौकरी में थे, हकीकत में वे बेरोजगार ही थे क्योंकि कंपनी में उनकी नियुक्ति या तैनाती की तारीख आगे खिसकती जा रही थी। कुछ कंपनियां तो और आगे बढ़ गईं। उन्होंने कैंपस सेलेक्शन में चुने युवाओं को दोबारा एक सरप्राइज टेस्ट देने को कहा और उसमें फेल घोषित कर उनका जॉब ऑफर ही रद्द कर दिया। कुछ ने थोड़ा लिहाज करते हुए कहा कि वे चुने गए युवाओं को छह महीने बाद नौकरी दे पाएंगी, फिलहाल मुआवजे के तौर पर वे युवा डेढ़ लाख रुपये ले लें। युवाओं को उनकी चाल समझ में आ गई, लिहाजा उन्होंने मुआवजे की राशि ठुकरा दी और वे सड़कों पर उतरकर कंपनियों के खिलाफ नारे लगाने लगे।
हालांकि अभी यह कहना मुश्किल है कि आइआइटी कमेटी व संस्थानों द्वारा }लैकलिस्टिंग और कैंपस सेलेक्शन से फिलहाल बेदखल की गई कंपनियां इस कार्रवाई से कोई सबक लेंगी और एक बार ऑफर करने के बाद नौकरी की शर्तो आदि में कोई त}दीली आदि करने से खुद को रोक पाएंगी, क्योंकि मामला सिर्फ कैंपस प्लेसमेंट और युवाओं के रोजगार का ना होकर उन कंपनियों के वजूद का भी है जो दिनोंदिन बढ़ती प्रतिस्पर्धा और सिकुड़ते विदेशी निवेश के कारण संकट में पड़ गया है। यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण है कि जो ई-कॉमर्स कंपनियां ग्राहकों को घर बैठे भारी छूट पर शॉपिंग करा रही हैं, उन पर ऐसा कौन-सा संकट आ गया है जो वे आइआइटी-आइआइएम जैसे संस्थानों के युवाओं की नौकरी पर कैंची चलाने लगी हैं। असल में बाजार के विशेषज्ञ पिछले साल से ही इस संकट का इशारा करने लगे थे। उन्होंने चेताया था कि ऑनलाइन शॉपिंग का कारोबार बुलबुले की मानिंद जल्द ही फूटने वाला है क्योंकि इनमें पैसा लगाने वाले निवेशक अपनी पूंजी वापस मांगना शुरू कर सकते हैं, जिससे ये सारी दिक्कतें पैदा होने लगेंगी। ऐसी एक भविष्यवाणी बिड़ला समूह के एक चेयरमैन कुमार मंगलम बिड़ला ने भी की थी। उन्होंने कहा था कि ऑनलाइन शॉपिंग डिस्काउंट देने वाले जिस बिजनेस मॉडल पर खड़ा हुआ है, वह यादा दिन तक चल नहीं सकता है। इसकी वजह यह है कि जिन निवेशकों की पूंजी की बदौलत ये शॉपिंग वेबसाइटें भारी छूट पर सामान बेच रही हैं, वे जल्द ही अपनी पूंजी पर रिटर्न मांगना शुरू कर सकते हैं। ऐसा हुआ, तो ऐसी ही बुरी खबरें ऑनलाइन शॉपिंग की वेबसाइट चलाने वालों और इनके जरिये नौकरी या कामधंधा पाने वालों का इंतजार करते मिलेंगी। मौजूदा माहौल को देखते हुए कहा जा सकता है कि वे आशंकाएं एक झटके की तरह हमारे सामने आ खड़ी हुई हैं।
वैसे इन हालात का एक अनुमान कुछ समय पहले एक आंकड़े से लग गया था, जब वर्ष 2014-15 में अमेजॉन, फ्लिपकार्ट और स्नैपडील जैसी शीर्ष तीन ऑनलाइन शॉपिंग कंपनियों का सम्मिलित घाटा 5,052 करोड़ रुपये बताया गया था। पता चला था कि इन कंपनियों को यह घाटा अपने ग्राहकों को भारी-भरकम छूट पर सामान बेचने और सामान वापसी के दौरान लाने-ले जाने के खर्च को वहन करने के कारण हुआ। हालांकि विशेषज्ञ यह भी कह रहे थे कि बाजार के प्रतिस्पर्धी माहौल में ऐसा होना स्वाभाविक है और यहां वही टिकेगा जो सबसे यादा भरोसेमंद और मजबूत होगा। तय है कि ऑनलाइन शॉपिंग के उजाले के पीछे कई तस्वीरें गहरे अंधेरे की भी हैं जो इनके भविष्य को भारी खतरे में दिखा रही हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(Dj)

आतंकवाद के दौर में गांधी की याद (राजकिशोर )

महात्मा गांधी का संदेश अगर कहीं बहुत कमजोर और असहाय पड़ता नजर आता है, तो वह आतंकवाद का मुद्दा है। इसी मुद्दे पर गांधी जी का संदेश लाचार-सा दिखाईपड़ता है। गांधी जी का जन्म दिवस दो अक्टूबर कोईज्यादा दूर नहीं है। हर वर्ष की भांति उस दिन देश भर में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे और वक्तागण इस बात को असंख्यौवीं बार दुहराएंगे कि बापू ने सत्य और अहिंसा की जो महान विरासत छोड़ी है, वही मानवता की मुक्ति का एकमात्र मार्ग है। लेकिन उस अवसर पर कोई यह नहीं पूछेगा कि आतंकवाद का सामना करने के लिए गांधी जी क्या रास्ता दिखा गए हैं। संभवत: किसी के दिलोदिमाग में यह जानने की जिज्ञासा तक नहीं होगी कि गांधी जी का दिखाया गया यह रास्ता क्या है। अगर किसी ने पूछ दिया, तो वक्ता की घिग्घी बंध जाएगा। या तो वह बगले झांकने लग पड़ेगा या तो वह कोई अनाप-शनाप उत्तर देगा या बहुत स्मार्ट होगा तो कहेगा कि गांधी जी के समय में आतंकवाद नाम की समस्या ही नहीं थी, इसलिए इस विषय पर उनकी राय उपलब्ध नहीं है। लेकिन यह वंचना है या पलायन। गांधी जी अगर आज भी प्रासंगिक हैं, तो यह प्रासंगिकता हर क्षेत्र में नजर आनी चाहिए। यह स्वीकार्य नहीं है कि कुछ समाधान गांधी के पास हों और कुछ सेना के पास। हिटलर के उदय और द्वितीय विश्व युद्ध के समय में भी गांधी जी को निरु त्तर करने के लिए उनसे इस तरह के सवाल किए जाते थे। और हर बार महात्मा का जवाब अविश्वसनीय होता था। वे कहते थे कि अगर किसी आक्रमणकारी देश की सेना ने हम पर आक्रमण कर दिया है, तो हमारा कर्तव्य यह है कि हम निहत्थों की मानव दीवार बना कर उसके सामने खड़े हो जाएं। सेना आखिर कितने लोगों की जान लेगी? अंत में वह इस अहिंसक शक्ति के सामने हथियार डाल देगी और आक्रमण करने वाला तथा जिस पर आक्रमण हुआ है, वे दोनों फिर से भाई-भाई हो जाएंगे। जब फासिस्ट जर्मनी ने इंग्लैंड पर हमला किया था, तो अंग्रेजों को गांधी जी की सलाह यही थी। लेकिन इस पर किसी ने भी अमल नहीं किया। युद्ध का जवाब युद्ध से दिया गया। दरअसल, मानवीय स्वभाव में इस प्रकार की प्रवृत्ति, जिसे अहिंसा कह सकते हैं, हमेशा से विद्यमान होने के बावजूद गौण ही रहती है। बड़े जतन और साधना से ही इस मौलिक गुण को उभारा जा सकता है। तो क्या यही वजह है कि दूसरा महायुद्ध समाप्त होने के बाद से धरती से युद्ध और हथियार की समस्या खत्म नहीं हुई है। दुनिया उसी दोराहे पर खड़ी रह गई जहां हिंसा नित मानवीयता और मौलिक मानवीय गुण अहिंसा को चुनौती देती दिखती है। लेकिन आतंकवाद की समस्या युद्ध से भी अधिक जटिल है। युद्ध में दुश्मन प्रत्यक्ष होता है, जबकि आतंकवादी छिप कर वार करता है। इस सात परदे में छिपे हुए खूंखार जानवर के सामने अहिंसा की ताकत को कैसे आजमाया जाए? फिर, यह स्थानिक से कहीं ज्यादा सर्वस्थानिक है। इसके ओरछोर में इतना फैलाव है कि इंसान इस समस्या के सामने लाचार दिखने लगा है। एक बात और वह यह कि आतंकवाद के पनपने के लिए कुछखास परिस्थितियां होती हैं, जो इसे पाल-पोस कर पुष्ट कर देती रही हैं। इस संदर्भ में निवेदन यह है कि जब भी आतंकवाद के गांधीवादी समाधान के बारे में पूछा जाता है, तो इरादा यह होता है कि सारी वर्तमान व्यवस्था यूं ही चलती रहे और तब बताओ कि गांधीवाद आतंकवाद को खत्म करने का क्या तरीका सुझाता है। क्या यह सवाल कुछ इस तरह का सवाल नहीं है कि मैं अभी की ही तरह आगे भी खाता-पीता रहूं, मुझे अपनी जीवनर्चया में कोई परिवर्तन न करना पड़े, तब बताओ कि मधुमेह की मेरी बीमारी कैसे ठीक होगी? विनम्र उत्तर यह है कि यह कैसे संभव है? स्वास्य लाभ करने के लिए वह जीवन शैली कैसे उपयुक्त हो सकती है, जिससे बीमारी पैदा हुई है? जिन परिस्थितियों के चलते आतंकवाद पनपा है, उन परिस्थितियों के बरकरार रहते आतंकवाद से संघर्ष कैसे किया जा सकता है? गांधीवाद तो क्या, किसी भी वाद के पास ऐसा कैप्सूल नहीं हो सकता जिसे खाते ही हिंसा के दानव को परास्त किया जा सके।दरअसल, हिंसा के मौलिक इंसानी भाव ही आतंकवाद की खाद-पानी होता है, कुछविशेष परिस्थितियां बनने पर इसके उभरने के हालात बन जाता है। और इतना भयावह रूप धारण कर लेता है कि इंसानियत भी पानी भरती दिखने लगती है। लेकिन अगर हम गांधी जी द्वारा सुझाई गई जीवन व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत हैं, तो जो समाज हम बनाएंगे, उसमें आतंकवाद की समस्या पैदा हो ही नहीं सकती। आतंकवाद के दो प्रमुख उत्स माने जा सकते हैं। एक, किसी समूह के साथ अन्याय और उसके जवाब में हिंसा की सफलता में विास। दो, आबादी की सघनता, जिसका लाभ उठा कर विस्फोट से जानमाल की क्षति की जा सके और लोगों में डर फैलाया जा सके कि उनका जीवन कहीं भी सुरक्षित नहीं है। गांधीवादी मॉडल में जीवन की व्यवस्था इस तरह की होगी कि भारी-भारी जमावड़े वाली जगहें ही नहीं रह जाएंगी।(RS)

पाक के साथ बीजिंग को भी संदेश (डॉ. लक्ष्मीशंकर यादव)

हर वक्त कश्मीर का रोना रोने वाले पाकिस्तान को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बैकफुट पर ला दिया है। मोदी की ओर से बलूचिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर के लोगों पर पकिस्तान द्वारा किए जाने वाले दमन का जिक्र किए जाने का असर इस्लामाबाद में दिखाई दिया। पाकिस्तान सरकार ने बलूचिस्तान से बाहर निर्वासन में रह रहे बलूच नेताओं को बातचीत के लिए बुलाया है। पाक नेताओं ने कहा है कि सभी मसलों का हल निकालने के लिए बातचीत ही एक रास्ता है। पाकिस्तानी अखबार डॉन के मुताबिक बलूचिस्तान के मुख्यमंत्री नवाब सनाउल्ला खान और सेना की दक्षिणी कमांड के कमांडर लेफ्टीनेंट जनरल अमीर रियाज ने कहा कि वे स्वनिर्वासित बलूच नेताओं के देश में लौटने का स्वागत करेंगे। सनाउल्ला खान ने बलूच नेताओं को स्वदेश आने का निमंत्रण पाकिस्तान के स्वाधीनता दिवस के मौके पर जियारत में आयोजित एक कार्यक्रम में दिया। जियारत बलूचिस्तान का ही एक जिला है।
बलूचिस्तान के मुख्यमंत्री ने यहां तक कहा कि अगर बलूचिस्तान के लोग आपको चुनते हैं तो हम इस फैसले का सम्मान करेंगे, मगर सरकार के लिए ऐसे नेताओं की विचारधारा को बंदूक के जोर पर स्वीकार कर पाना मुमकिन नहीं होगा। हम किसी व्यक्ति को बल का प्रयोग कर अपनी विचारधारा को थोपने की इजाजत नहीं देंगे। उन्होंने दावा किया कि बलूचिस्तान अपनी मर्जी से पाकिस्तान में शामिल हुआ था। वास्तविकता इसके विपरीत है। बलूचिस्तान का पाकिस्तान में विलय बलूच नेताओं की मर्जी के खिलाफ हुआ था। यही कारण है कि यह इलाका पाकिस्तान को दमनकारी देश के रूप में देखता है। बलूचिस्तान के लोग जितना बड़ा खतरा पाकिस्तान को मानते हैं उतना ही चीन को भी। माना जा रहा है कि मोदी ने बलूचिस्तान का जिक्र करके पाकिस्तान के साथ-साथ चीन को भी संदेश दिया है। ध्यान रहे कि चीन यह चाह रहा है कि भारत दक्षिण चीन सागर मामले में उसका साथ दे। यह गौर किया जाना चाहिए कि चीन ने मोदी की ओर से पाक के क}जे वाले कश्मीर का जिक्र किए जाने पर कुछ कहने से इंकार किया है तो बलूचिस्तान पर मौन साध लिया है। पाकिस्तान की उपेक्षा और पाकिस्तानी सेना के दमन का शिकार बलूचिस्तान के हालात इतने अधिक खराब हैं कि वहां के लोग आजादी से कम पर राजी नहीं हैं। बलूचिस्तान रिप}िलकन पार्टी के प्रमुख और बलूचों के नेता बरहुमदाग बुगती ने कहा कि ऐसा कोई हफ्ता नहीं होता है जब बलूचिस्तान में लोगों की रहस्यमयी गुमशुदगी या अपहरण न होता हो। कुछ ही दिन बाद उनके शव मिलते हैं। बुगती ने बलूचिस्तान का मामला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ भी की। बुगती का कहना है कि पाकिस्तान का ध्यान बलूचिस्तान के डेरा बुगती और ग्वादर क्षेत्र पर है। यहां सेना के ठिकाने बनाए जा रहे हैं। लोगों में भय है कि इन ठिकानों का इस्तेमाल उनके दमन में होगा। हालांकि पाकिस्तानी सेना का एक बड़ा मकसद इस क्षेत्र में चीनी कंपनियां स्थापित करना है। चीन ग्वादर के जरिये एक अन्य समुद्री क्षेत्र में अपनी पहुंच बनाना चाहता है। बुगती की तरह यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में बलूचिस्तान के प्रतिनिधि मेहरान ने कहा है कि बलूचिस्तान में पाकिस्तानी सेना के जुल्म बढ़ते जा रहे हैं। जबसे नवाज सरकार सत्ता में आई है तबसे पाकिस्तानी सेना ने बलूचिस्तान में अपनी गतिविधियां तेज कर दी हैं। मेहरान यह भी कहते हैं कि बलूचिस्तान के निवासियों के लिए चीन सबसे बड़ा खतरा है। एक अन्य बलूच नेता नाएला कादरी बलूच का कहना है कि पाक सेना मूल बलूच लोगों को सुनियोजित तरीके से खत्म कर रही है। बलूच नेता यह भी उम्मीद कर रहे हैं कि अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या फिर उनकी जगह कोई अन्य भारतीय प्रतिनिधि संयुक्त राष्ट्र संघ के आगामी सत्र में बलूचिस्तान में दमन का मसला उठाएगा। एक अन्य बलूच नेता हैदर बलूच का कहना है कि हम सब इस लड़ाई में मोदी का साथ देने को तैयार हैं। हम सब सेक्युलर लोग हैं और लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं। अभी यह देखना शेष है कि भारत की ओर से बलूचिस्तान का मसला उठाए जाने के बाद विश्व समुदाय क्या रवैया अपनाता है। यह एक मसला है जिसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अधिक महत्ता नहीं मिली है, लेकिन अमेरिका और ब्रिटेन के कुछ नेता और राजनयिक इस पर अपने विचार व्यक्त करते रहे हैं। बलूचिस्तान पर चीन के रवैये को भी देखना होगा, मोदी ने पाक के साथ-साथ उसे भी संदेश दिया है।
(लेखक रक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं)(DJ)

विश्व व्यवस्था के लिए संकट बनता चीन (अवधेश कुमार)

चीनी विदेश मंत्री की हाल की भारत यात्रा के पहले चीन ने भारत को प्रकारांतर से यह चेतावनी दी कि वह उसके विदेश मंत्री वेंग येई की यात्र के दौरान दक्षिण चीन सागर पर कोई बात न करे। वेंग की यात्रा की जितनी खबर आई उसमें भारत ने संभवत: दक्षिण चीन सागर पर कोई बात नहीं की। हालांकि इसकी पुष्टि कठिन है। जो खबरें आई हैं उनके अनुसार एनएसजी से लेकर हाफिज सईद एवं मौलाना मसूद अजहर तक के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रस्ताव का विरोध करने का मामला अवश्य उठाया गया। इसके पहले विश्व कूटनीति में ऐसे अवसर शायद ही आए होंगे जब कोई देश अपने नेता के दौरे के पूर्व मेजबान देश को इस तरह की चेतावनी दे। चीन के मामलों में रुचि रखने वाले लोग सवाल उठा रहे हैं कि आखिर चीन कौन होता है यह तय करने वाला कि हम क्या बात करें और क्या न करें? भारत में जो भी भावना हो, दुनिया के लिए यह भले अशिष्टता हो या कूटनीतिक मर्यादाओं का अतिक्रमण, यह चीन की कूटनीति का नमूना है। उसे जो करना है करता है। जो कहना है उसे बिना लाग लपेट के व्यक्त करता है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विद्वानों के लिए भी कई बार चीन के ऐसे रवैये के बारे में उपयुक्त श}दावली ढूंढ़ना कठिन हो जाता है। प्रश्न है कि चीन के रवैये पर भारत को क्या करना चाहिए? क्या हम दक्षिण चीन सागर मसले पर खामोश रह सकते हैं?
ग्लोबल टाइम्स चीन का सरकारी अखबार है और उसकी बात सरकार की बात मानी जाती है। वह लिखता है कि अगर भारत आर्थिक सहयोग के लिए अनुकूल माहौल की इछा रखता है तो उसे वेंग की यात्रा के दौरान दक्षिण चीन सागर के मसले पर अनावश्यक रूप से उलझने से बचना होगा। उसकी एक पंक्ति देखिए, ‘यदि भारत चीन से उदार रवैया अपनाने की इच्छा रखता है तो ऐसे मौकों पर बीजिंग के साथ संबंधों को खराब करना मूर्खता होगी।’ स्पष्ट है कि चीन के वक्तव्य में कहीं कोई लाग-लपेट नहीं है। वह साफ कह रहा है कि अगर आपने दक्षिण चीन सागर का मामला किसी तरह उठाया तो फिर हमारे साथ आपके संबंध खराब हो जाएंगे। वह एक तरह से यह भी कह रहा कि दक्षिण चीन सागर मसले पर भारत की कोई भूमिका नहीं। दक्षिण चीन सागर पर चीन का ऐसा रवैया केवल भारत के साथ नहीं है। वह दुनिया भर को पहले से चेतावनी दे रहा है कि कोई देश वहां हस्तक्षेप न करे। अगर हस्तक्षेप किया तो फिर युद्ध के लिए तैयार रहे।
दक्षिण चीन सागर पर हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने अपने फैसले में स्पष्ट किया है कि उस पर चीन के दावे का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। इस फैसले के बाद उसका पक्ष दुनिया की नजर में कमजोर हुआ है, किंतु दूसरी ओर वस्तुस्थिति यह है कि चीन इस समुद्री क्षेत्र के 80 प्रतिशत से यादा भाग पर क}जा कर चुका है। इसके लिए वह युद्ध की सीमा तक जाने को तैयार है। उसने दक्षिण चीन सागर के द्वीपों पर तीन हजार मीटर का रनवे बनाया है ताकि वहां फाइटर जेट उतारे जा सकें। उसके यद्धक विमान वहां ठहरने और उड़ाने भरने की स्थिति में हैं। उसकी और भी तैयारी है। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का फैसला आने के कुछ ही दिन बाद उसने वहां रक्षा अभ्यास शुरू कर दिया। यह रक्षा अभ्यास दरअसल चीन का विरोध करने वाले सभी देशों को संदेश था कि अगर आपने कुछ किया तो फिर हमसे युद्ध करना होगा। ग्लोबल टाइम्स के माध्यम से उसने वियतनाम को भी यह कह कर चेतावनी दी कि इस इलाके में वियतनाम के सैनिकों की गतिविधि एक बहुत बड़ी गलती है। उसे इतिहास से सबक लेना चाहिए। वियतनाम भी दक्षिण चीन सागर के कुछ क्षेत्रों पर दावा करता है और उसका दावा वैध है। कुछ दिन पहले वियतनाम ने रॉकेट लांचर्स भेजे थे। ग्लोबल टाइम्स ने चीन को एक तरह से यह याद दिलाया कि कैसे उसने 1988 में वियतनाम नौसना को पराजित कर दक्षिण चीन सागर क्षेत्र के द्वीपों पर क}जा किया था।
चीन के तेवरों को देखते हुए भारत को दी गई चेतावनी आश्चर्यजनक नहीं है। दक्षिण चीन सागर चीन के दक्षिण में प्रशांत महासागर का एक भाग है जो सिंगापुर से लेकर ताइवान की खाड़ी तक लगभग 35 लाख वर्ग किमी में फैला हुआ है। पांच महासागरों के बाद यह दुनिया के सबसे बड़े जलक्षेत्रों में एक है। इस पर चीन के अलावा फिलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, ताइवान और ब्रूनेई दावा करते हैं। इसमें 213 अरब बैरल तेल और 900 खरब घनफीट प्राकृतिक गैस भंडार होने का अनुमान है। चीन ने 2013 में एक बड़ी परियोजना आरंभ की एवं पानी में डूबे रीफ क्षेत्र को कृत्रिम द्वीप में बदल दिया। चीन के ऐसे रवैये के चलते यह सवाल भारत के सामने है कि वह क्या करे? चीन की चेतावनी के बाद भारत इस मसले पर बिल्कुल चुप हो जाए या फिर विश्व समुदाय की भावनाओं और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले का ध्यान रखते हुए हिम्मत के साथ जो सच है वह बोले?
दक्षिण चीन सागर से भारत का भी हित जुड़ा है, क्योंकि वियतनाम ने अपने दावे वाले समुद्री क्षेत्र में तेल और गैस खोजने का ठेका भारतीय कंपनी को दिया हुआ है। अगर ऐसा न भी होता तब भी इतने बड़े जलक्षेत्र पर जबरन कोई देश अधिकार जमाए, उसके कुछ भाग को अपने सैन्य क्षेत्र में बदलकर अपनी सामरिक स्थिति मजबूत कर ले और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तक का फैसला मानने से इन्कार करे तो यह ठीक नहीं कि हम इस डर से बैठे रहें कि संबंध खराब हो जाएंगे। अगर हम ऐसा करेंगे तो फिर हमारा अस्तित्व क्या रह जाएगा? फिर ऐसे दूसरे मसलों पर भारत साहस के साथ कैसे अपनी बात रख सकेगा? संबंध ठीक रखने की आवश्यकता केवल भारत को नहीं है। चीन को भी भारत की आवश्यकता है। भारत के साथ व्यापार में चीन करीब 32 अरब डॉलर से यादा के लाभ में है। जिस आर्थिक संबंधों का हवाला चीनी नेता दे रहे हैं उनकी यादा जरूरत उनको है न कि भारत को। भारत की नीति किसी देश के साथ धौंसपट्टी से पेश आना नहीं है, किंतु कोई धौंसपट्टी से पेश आए तो क्या भारत चुपचाप सहन कर लेगा? चीन ने भारत की भावनाओं का कभी ध्यान नहीं रखा है। जब वह सरेआम अरुणाचल पर अपना दावा करता है तो क्या भारत की भावना का या संबंधों को ख्याल रखता है?
वह पाकिस्तान के साथ मिलकर पाक अधिकृत कश्मीर में आर्थिक गलियारा बना रहा है जिसका भारत ने इस कारण विरोध किया कि वह विवादित इलाका है और उस पर दावा हमारा है। जब चीन ने भारत की नहीं सुनी तो फिर भारत चीन की क्यों सुने? वह भी ऐसे मामले पर, जिसमें अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का फैसला आ चुका है। इस तरह अपनी सामरिक और आर्थिक मांसपेशियां दिखाकर कोई अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले तक को चुनौती देने लगे तो फिर यह विश्व व्यवस्था जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली हो जाएगी। ऐसा न होने देने का दायित्व भारत का भी है। इसलिए भारत को उचित अवसर पर वाजिब बात बोलनी ही चाहिए। चीन अगर अपनी जिद में सफल हो जाता है, उसका विरोध नहीं होता और दक्षिण चीन सागर से उसे पीछे हटने को मजबूर नहीं किया जाता तो उसके बाद भारत के लिए वह ज्यादा परेशानियां खड़ी करेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)(DJ)

मेडल से कहीं आगे है साक्षी की जीत (जगदीश कालीरमन, अंतरराष्ट्रीय पहलवान और कुश्ती कोच)

साक्षी मलिक की जीत कई मायने में उल्लेखनीय है। इसे सिर्फ इस रूप में नहीं देखा जा सकता कि उन्होंने रियो ओलंपिक में हमारे लिए पहला मेडल जीता और पहलवानी में यह उपलब्धि हासिल करने वाली वह देश की पहली महिला बनीं। उनकी यह जीत इससे कई ज्यादा महत्वपूर्ण है। याद कीजिए 2012 के लंदन ओलंपिक को। उसमें महज एक महिला पहलवान क्वालिफाई कर पाई थी, और हमारे हिस्से महिला पहलवानी से कोई पदक नहीं आया था। मगर इस बार तीन महिला पहलवान रियो पहुंचीं, जिनमें से एक ने तो हमें कांस्य दिला भी दिया है। यह स्थिति बताती है कि देश में महिला पहलवानी को लेकर किस कदर जागरूकता बढ़ रही है। साक्षी की जीत सुधार की इस प्रक्रिया को नई उड़ान देगी। यह एक शुरुआत है पदक जीतने की। अब यह उम्मीद की जा सकती है कि 2020 के टोक्यो ओलंपिक में महिला पहलवानी से हमारी झोली में कई और पदक आएंगे। एक बैरियर हमने पार कर लिया है। वही बैरियर, जिसे सुशील कुमार ने साल 2008 के बीजिंग ओलंपिक में तोड़ा और कांस्य जीता। नतीजतन, 2012 के लंदन ओलंपिक में हमारे हिस्से दो पदक आए- रजत पदक खुद सुशील कुमार ने जीता था, जबकि कांस्य योगेश्वर दत्त ने। साक्षी की यह जीत अब कई लड़कियों को इस खेल में आगे आने के लिए प्रोत्साहित करेगी।
साक्षी मलिक की जीत मौजूदा महिला पहलवानों के लिए भी प्रेरणादायी है। इससे उनका हौसला जरूर बढ़ा होगा। जिस तेवर से साक्षी ने जीत हासिल की, वह बताता है कि पहलवानी में महिलाएं पुरुषों से कतई कम नहीं। लगभग हर बाउट में वह पिछड़ रही थीं, मगर तब भी उन्होंने डटकर मुकाबला किया। यह उनकी हिम्मत को दर्शाता है। आप यदि बाउट हार भी रहे हैं, तो हिम्मत न हारें और डटकर सामना करें, सफलता निश्चय ही कदम चूमेगी। परसों दिन भर उन्होंने पांच बाउट लड़े, और वह भी सिर्फ छह से सात घंटे के भीतर। यह कितना मुश्किल होता है, इसे एक पहलवान ही समझ सकता है। हर एक-डेढ़ घंटे में एक बाउट लड़ना कोई आसान काम नहीं। हर बाउट के बाद मांसपेशियां काम करना बंद कर देती हैं, शारीर की क्षमता कम होने लगती है, मानसिक दबाव भी बढ़ता जाता है और दिमाग शून्य होने लगता है। रेपचेज में हर बाउट फाइनल जैसा होता है और सबमें जीत से ही आपके लिए पदक सुनिश्चित होता है, इसलिए खिलाड़ी काफी ज्यादा शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक दबाव में होता है। लिहाजा, यहां साक्षी की तैयारी की दाद देनी चाहिए कि ऐसी परिस्थिति में भी अपने आप को प्रोत्साहित करते हुए उन्होंने सभी बाउट में जीत हासिल की। पांच बाउट खेलने के लिए सक्षम बने रहना एक लड़की की हिम्मत और उसके जज्बे को बताता है कि अगर वह ठान ले कि कुछ कर गुजरना है, तो उसे कोई नहीं रोक सकता। फिर चाहे वह उपलब्धि ओलंपिक के मेडल से जुड़ी हो या फिर जीवन के किसी दूसरे क्षेत्र से।
साक्षी की जीत ने एक बार फिर हरियाणा को सुर्खियों में ला दिया है। पुरुष पहलवान तो यहां से आते ही हैं, अभी जो तीन महिला पहलवान रियो में हैं, वे सभी हरियाणा से ही हैं। हरियाणा में कुश्ती के खाद-पानी की वजह साफ है। वहां अव्वल तो यह खेल पहले से लोकप्रिय रहा है और फिर, वहां खिलाड़ियों को दूसरे राज्यों की तुलना में ज्यादा सुविधाएं मिलती हैं। हरियाणा में खिलाड़ियों के लिए नकद पुरस्कार ज्यादा है। राज्य सरकार खिलाड़ियों को लगातार प्रोत्साहित करती है। उनको नौकरी दी जाती है। और ऐसा सिर्फ आज की सरकार के समय में नहीं हो रहा है, बल्कि पूर्व की सरकारों ने भी ऐसा ही किया है। उन्होंने खिलाड़ियों को बराबर प्रोत्साहित किया है। राज्य में बुनियादी ढांचे को लेकर भी सरकारों ने काफी काम किया है। गांव-गांव में गद्दे उपलब्ध कराए गए हैं। तमाम ऐसे उपाय किए गए हैं कि खिलाड़ियों को पहचान मिले। ऐसे में, वहां लोग करियर के रूप में पहलवानी अपनाने लगे हैं। कुश्ती वहां कोई खेल नहीं रहा, बल्कि बच्चों को उसमें अपना सुनहरा भविष्य दिखता है। युवा सोचते हैं कि खेलना है, पदक जीतना है, देश व परिवार का नाम रोशन करना और अपना करियर बनाना है। यही सोच हरियाणा को दूसरे तमाम राज्यों से बेहतर बनाती है। राज्य सरकार किस कदर खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करती है, इसका एक नमूना भर है कि हरियाणा के खेल मंत्री अनिल विज रियो पहुंचकर खिलाड़ियों का हौसला अफजाई कर रहे थे।
कोई भी खिलाड़ी यूं ही पैदा नहीं हो जाता। पहलवानी में ही बुनियादी ढांचे की बात करें, तो एक रेसलिंग मैट की कीमत चार से पांच लाख रुपये आती है। फिर खिलाड़ियों को एक ऐसा हॉल चाहिए, जहां वे सर्दी, गरमी या बरसात में अभ्यास कर सकें। उनके रहने और व्यायाम करने की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए। हॉस्टल व जिम जैसी सुविधाओं की उन्हें दरकार होती है। स्वाभाविक है, अगर राज्य सरकारें ये सुविधाएं मुहैया कराएंगी, तो खिलाड़ी कहीं ज्यादा मन लगाकर मेहनत करेंगे। हरियाणा में सरकार ने गद्दे उपलब्ध कराए, कोच मुहैया कराए, कई स्टेडियम बनाए। इससे जाहिर तौर पर बुनियादी ढांचे में सुधार हुआ और अब नतीजा सुखद आने लगा। हरियाणा में तो शुरू में महिला खिलाड़ियों को प्रतिद्वंद्वी तक नहीं मिल पाता था। मगर अब यह तस्वीर बदल रही है। निवेश बढ़ाए गए हैं, जिससे सुविधाएं बढ़ी हैं। इसलिए यह उम्मीद बेमानी नहीं कि कई और महिला खिलाड़ी सामने आएगी। दूसरे तमाम राज्य भी अगर ठोस पहल करें, तो वहां से भी अच्छी खबर आ सकती है।
देश में महिला पहलवानी को बढ़ावा मिले, इसके लिए एक और चीज की जरूरत है, और वह है लोगों की सोच में बदलाव की। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश जैसी तमाम जगहों पर आज भी यही मानसिकता है कि पहलवानी मर्दों का खेल है। महिलाओं को अखाड़े में उतारने से माता-पिता हिचकते हैं। इस सोच को हमें बदलना होगा। साक्षी मलिक की जीत इस मायने में भी मील का पत्थर है, क्योंकि इससे लोगों का नजरिया बदलेगा। वे भी अपनी बेटी और बहनों को आगे बढ़ाएंगे। कोई खिलाड़ी जब जीतता है, तो वह सिर्फ तमगा ही नहीं जीतता, बल्कि वह सामाजिक व धार्मिक रूढ़ियों को तोड़ने का वाहक भी बनता है। चूंकि आज चीजें आर्थिक नजरिये से भी देखी जाती हैं और लोग देख रहे हैं कि विजेता खिलाड़ी को कई तरह की सुविधाएं मिलती हैं, लिहाजा हम उम्मीद करते हैं कि साक्षी की यह ऐतिहासिक जीत ज्यादा से ज्यादा लोगों को प्रोत्साहित करेगी और आने वाले दिनों में कई महिला पहलवान हमारे देश का नाम रोशन करेंगी।(Hindustaan )

टल सकता था भारत विभाजन (कुलदीप नैयर)

आजादी का पर्व मनाने के साथ ही हमें यह भी जानना चाहिए कि अंग्रेज इसके लिए जाने जाते रहे हैं कि जब उन्हें जबरदस्ती या किसी अन्य मजबूरी में अपना उपनिवेश छोड़ना पड़ा तो वे उसकी स्थिति गड़बड़ करके ही उसे छोड़ते हैं। उन्होंने एक तरीका यह अपनाया कि उस देश को बांट दिया जिस पर उनका शासन था। उन्होंने आयरलैंड, फलस्तीन-इजरायल और बेशक भारत में यही किया। मैं लार्ड रेडक्लिफ जिन्होंने भारत को दो देश-भारत और पाकिस्तान में बांटने वाली रेखा खींची थी, से अपनी बातचीत को आज भी याद करता हूं। अंतिम वायसराय माउंटबेटन उन्हें ब्रिटेन के वकील-समुदाय से चुना था और उपमहाद्वीप को बांटने के लिए हवाई उन्हें हवाईजहाज से भारत लाया गया था। इसके पहले रेडक्लिफ ने कभी भारत में पैर नहीं रखा था और न ही वह इस देश के बारे में यादा जानते थे। रेडिक्लिफ ने मुङो बताया कि माउंटबेटन ने उन्हें यह बताते हुए कि वह क्या चाहते थे, चेतावनी दी थी कि यह काम कठिन है और शायद वह इसे नहीं भी कर पाएं।
लंदन के एक नामी वकील के लिए रातोंरात अंतरराष्ट्रीय राजनेता बन जाने का विचार इतना आकर्षक था जिसे ठुकराया नहीं जा सकता था। रेडक्लिफ ने जिलों के मानचित्र मांगे, लेकिन एक भी उपल}ध नहीं था। उन्हें जो कुछ मिला वह साधारण नक्शा था जो ऑफिस और शिक्षण संस्थानों की दीवालों पर टंगा रहता था। रेडक्लिफ ने उसके आधार पर गणना की और एक अस्थायी रेखा मानचित्र पर ही खींच दी। उन्होंने मुङो बताया कि जिस आधार पर उन्होंने रेखा खींची थी उसे पर लाहौर भारत को दिया था। फिर उन्हें लगा कि वह पाकिस्तान को एक महत्वपूर्ण शहर से वंचित कर देंगे। इसलिए उसे ध्यान में रखते हुए लाहौर पाकिस्तान को स्थानांतरित कर दिया। इस धरोहर को गंवाने के लिए उस समय के पूर्वी पंजाब के लोगों ने उन्हें आज तक माफ नहीं किया। रेडक्लिफ ने 40 हजार रुपये की अपनी फीस, जो वायसराय ने उन्हें देने का वायदा किया था, कभी नहीं ली, क्योंकि उन्हें महसूस हुआ कि पलायन में जान गंवाने वाले दस लाख लोगों के लहू का बोझ उनके जमीर पर है। बंटवारे के बाद उन्होंने भारत का दौरा भी नहीं किया। लंदन में उनकी मौत हुई। उन्हें कभी कोई सम्मान नहीं मिला।
कई साल बाद पाकिस्तान के निर्माता कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना से उनके नौ सैनिक सहायक जिसने बंटवारे में अपना माता-पिता खो दिया था, ने गुस्से में सवाल किया ‘‘क्या पाकिस्तान हासिल करने लायक कोई अछी चीज थी?’’ बूढ़े जिन्ना कुछ देर के लिए खामोश रहे और फिर उन्होंने जवाब दिया, ‘‘नौजवान मुङो नहीं पता। यह सिर्फ भावी पीढ़ी ही बताएगी।’’ शायद अभी कोई फैसला सुनाना जल्दबाजी होगी, लेकिन एक चीज तो साफ है कि कायदे आजम ने दो देशों को बांटने वाली रेखा धर्म के आधार पर खींची थी। यह एक विडंबना ही है, क्योंकि जिन्ना ने कभी इसकी परवाह नहीं की वह क्या खाते हैं या क्या पीते हैं? यहां तक कि उन्होंने उर्दू को सरकारी भाषा बनाया, लेकिन वह खुद इसके कुछ श}द रुक-रुक कर बोल पाते थे। जब घटनाएं इस तरह तेजी से बढ़ रही थीं कि बंटवारे के अलावा कोई उपाय सामने नहीं रह गया था, महात्मा गांधी ने जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल को सलाह दी थी के वे दोनों जिन्ना के सामने संयुक्त भारत के प्रधानमंत्री पद का ऑफर रखें। दोनों भयभीत हो गए, क्योंकि दोनों ने अनेक सालों से इस पद पर अपनी नजरें टिका रखी थीं। इससे यही जाहिर होता है कि इसके बावजूद कि वे स्वतंत्रता आंदोलन की आग में तपे थे, पद के लालच से ऊपर नहीं उठ पाए थे।
वास्तव में बंटवारे का फामरूला नेहरू और पटेल ने स्वीकार किया था, महात्मा गांधी ने नहीं। जब माउंटबेटन ने बंटवारे का फामरूला तैयार कर लिया तो उन्होंने पहले महात्मा गांधी को बुलाया। गांधी ‘बंटवारा’ श}द सुनना नहीं चाहते थे और वह तब कमरे से बाहर निकल गए जब माउंटबेटन ने इसका नाम लिया, लेकिन पटेल और नेहरू ने बंटवारा स्वीकार कर लिया और खुद को समझा लिया कि उनकी जिंदगी के यादा दिन नहीं बचे हैं और देश का निर्माण करना है तो उन्हें माउंटबेटन की पेशकश स्वीकार कर लेनी चाहिए। जिन्हें बहुत यादा दानव के रूप में चित्रित किया गया वह जिन्ना उस पाकिस्तान से खुश नहीं थे जो उन्हें मिला था। वह उसे ‘कीड़े से कुतरा हुआ’ पाकिस्तान कहते थे, क्योंकि उनके सपनों का पाकिस्तान कम से कम पेशावर से दिल्ली तक फैला हुआ होता, लेकिन उनके सामने कोई विकल्प नहीं था। अंग्रेजों ने उनके सामने जो पेशकश की थी वह इतनी ही थी। वह इतने नाराज थे कि जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली के कहने से माउंटबेटन ने उन्हें दो नए स्वतंत्र देशों के बीच कोई जोड़ने वाली कड़ी रखने की सलाह दी तो जिन्ना का जवाब था, ‘‘मैं उन भारतीयों पर विश्वास नहीं करता।’’ जिन्ना ने माउंटबेटन को दोनों देशों का साझा गवर्नर जनरल बनाने का सुझाव भी स्वीकार नहीं किया। कुछ लोग आज तक मानते हैं कि जिन्ना एक अछे प्रधानमंत्री साबित होते और इस तरह भारत भी एक रह जाता। चूंकि पाकिस्तान एक ही व्यक्ति का किया-धरा था इसलिए उस देश का विचार उन्हीं के साथ खत्म हो जाता। उस समय तक किसी को पता नहीं था कि जिन्ना को घातक कैंसर था। यह संदेह किया जाता है कि ब्रिटिश जानते थे और उन्हें सिर्फ कुछ समय तक इंतजार करना था जिन्ना के दृश्य से गायब होने का।
नेहरू की यह भविष्यवाणी कि ‘पाकिस्तान यादा समय तक नहीं टिकेगा’ का संबंध जिन्ना की छिपी बीमारी से नहीं था। उनके और कांग्रेस के शीर्ष के नेताओं का विचार था कि पाकिस्तान आर्थिक रूप से टिकने लायक नहीं है। नेहरू या कांग्रेस यह कभी जान नहीं पाए कि विंस्टन चर्चिल ने जिन्ना से वायदा किया था कि वह जिन्ना के सफल होने और पाकिस्तान का बनना सुनिश्चित करेंगे। चर्चिल को हिंदुओं से पागलपन की हद तक नफरत थी। उन्होंने कहा था कि वह इस अनेक जुबान वाले धर्म को समझ नहीं पाए। इसकी तुलना में इस्लाम कितना सरल और आसानी से समझने लायक है। उनके दिमाग में सामरिक मामले भी थे। पाकिस्तान भौगोलिक रूप से ऐसी जगह पर था कि वह एक तरफ तेल-संपन्न इस्लामिक दुनिया और दूसरी तरफ विशाल सोवियत यूनियन का द्वार खोलता था। पाकिस्तान का आकर्षण काबू पाने लायक नहीं था।
अनेक सालों बाद जब मैं लंदन में रेडक्लिफ से मिला तो वह ब्रांड स्ट्रीट के संपन्न इलाके के एक फ्लैट में रहते थे। मेरे लिए यह सोचना स्वाभाविक था कि उनके इर्द-गिर्द कुछ नौकर होंगे। मुङो आश्चर्य हुआ जब उन्होंने खुद ही दरवाजा खोला और चाय बनाने के लिए खुद ही केतली लगाई। वह पाकिस्तान और अपनी जिम्मेदारी के बारे में बात करने में हिचकते थे, लेकिन जब मैं आमने-सामने था तो उन्हें जवाब देना पड़ा। उनके चेहरे पर हर जगह अफसोस लिखा था और वह ऐसे आदमी लगे जिसे महसूस हो रहा था कि बंटवारे के समय हुई हत्याएं उनकी जमीर पर बोझ बनी हुए थीं।
(लेखक जाने-माने स्तंभकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)(DJ)

जलवायु परिवर्तन और आबादी (ज्ञानेन्द्र रावत)

वैज्ञानिक वर्षो से चेता रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के चलते आने वाले दिनों में आदमी का जीना मुहाल हो जाएगा। मौजूदा हालात में जलवायु परिवर्तन के कारण वह हो रहा है, जो बीते एक लाख साल में भी नहीं हुआ है। माना जाता है कि एक लाख बीस हजार साल पहले आखिरी बार आर्कटिक की बर्फ खत्म हो गई थी। लेकिन अब ऐसा फिर हो रहा है। कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के पोलर ओसेन फिजिक्स ग्रुप के प्रोफेसर पीटर बडहम्स कहते हैं कि उन्होंने चार साल पहले ही आर्कटिक से बर्फ गायब होने की भविष्यवाणी की थी। उन्होंने दावा किया है कि इस साल या अगले साल आर्कटिक समुद्र की सारी बर्फ खत्म हो जायेगी। अमेरिका के नेशनल एंड आइस डाटा सेंटर की तरफ से ली गई हालिया सेटेलाइट तस्वीरें इस तय को प्रमाणित करती हैं। असलियत में ध्रुवीय इलाके में तेजी से बदलते तापमान को इसकी असली वजह बताया जा रहा है। माना जा रहा है कि इसी की वजह से ब्रिटेन में बाढ़ आ रही है और अमेरिका में बेमौसम तूफान आ रहे हैं। अब नए अध्ययनों और शोधों ने इस बात का खुलासा कर दिया है कि 21वीं सदी के आखिर तक उत्तरी अफ्रीका और मध्य एशिया जलवायु परिवर्तन के चलते आबादी के पलायन के कारण खाली हो सकता है। गौरतलब है कि तकरीब 50 करोड़ की आबादी वाला मध्य एशिया और उत्तरी अफ्रीका मूल रूप से गर्म क्षेत्र है। इस समूचे इलाके में सामान्य रूप से दिन का तापमान 40 डिग्री और रात का तापमान तकरीबन 26 डिग्री तक रहता है। जर्मनी की मैक प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ केमिस्ट्री में हुए एक अध्ययन के बाद इस तय का खुलासा हुआ है कि सदी के मध्य तक यहां रात का तापमान 30 डिग्री से नीचे नहीं जाएगा। लेकिन दिन का तापमान 46 डिग्री से ऊपर जाएगा। इसका सीधा असर खाद्यान्न, प्राकृतिक संसाधन, मुख्य रूप से जलापूर्ति यानी पेयजल पर सबसे ज्यादा पड़ेगा। अब यह साफ हो चुका है कि जलवायु परिवर्तन का घातक असर फसल पर पड़ने लगा है। अब फसल पर हाइड्रोजन सायनाइड जैसे रसायनों का असर दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। इसके कारण फसल जहरीली हो रही हैं। सूखा, तेज गर्मी व बेमौसम बारिश जैसे कठोर मौसम के दौरान पैदा होने वाली फसल में हाइड्रोजन सायनाइड जैसे खतरनाक रसायनों के अंश पाए गए हैं। दरअसल, जिस तरह लोग कठोर मौसम में खुद को बेहद असहज महसूस करते हैं, उसी तरह फसल भी सूखे की स्थिति में प्रतिक्रिया करती हैं। सामान्य हालात में होता यह है कि पौधे मिट्टी से नाइट्रेट लेकर उसे पोषक अमीनो अम्ल और प्रोटीन में तब्दील कर देते हैं।मगर सूखे के दौरान यह प्रक्रिया एकदम धीमी हो जाती है या लंबे समय तक सूखा रहने के कारण यह प्रक्रिया होती ही नहीं है। हालात यहां तक खराब हो चुके हैं कि मक्का, गेहूं, ज्वार, सोयाबीन, कसावा और पटसन जैसी फसल में इस बेहद जहरीले रसायन की पहुंच खतरनाक स्तर तक हो गई है। बहुतेरे देशों में इसका इस्तेमाल कीड़े, मकोड़े और पतंगों को मारने में किया जाता है। दरअसल सूखे से प्रभावित फसल अचानक बारिश आने के कारण तेज गति से बढ़ती हैं। उस दशा में उनमें मौजूद नाइट्रेट हाइडेजन साइनाइड में तब्दील हो जाता है। हाइड्रोजन साइनाइड जब मनुष्य के शरीर में पहुंचता है, तब वह ऑक्सीजन की संचार पण्राली को नुकसान पहुंचाता है। इसके साथ पौधों में आफ्ल्ॉाटाक्सीन नामक रसायन की मात्रा भी तेजी से बढ़ रही है। इससे प्रभावित खाद्यान्न के खाने से जिगर खराब हो सकता है, अंधेपन की बीमारी का प्रकोप बढ़ सकता है और गर्भस्थ शिशु के विकास में भी अवरोध पैदा करता है। ‘‘यूनाइटेड नेन्स एन्वायरमेंट असेम्बली’ में प्रस्तुत रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है कि आफ्लॉटाक्सीन रसायन से प्रभावित फसल की जद में विकासशील देशों की तकरीबन 4.5 अरब से ज्यादा आबादी है। यदि तापमान में इसी गति से बढ़ोतरी होती रही तो यूरोप में फसल, जहां अपेक्षाकृत कम तापमान रहता है, वे भी इस जहर से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगी। इस स्थिति के मुकाबले के लिए दुनिया भर में कठोर मौसम को सहने में सक्षम बीजों का विकास किया जा रहा है। इसके अलावा, मौसमी फसलें उगाने पर भी जोर दिया जा रहा है। ऐसे हालात में यह जरूरी है कि हम सब पर्यावरण को बचाने का संकल्प लें और इस दिशा में जी-जान से जुट जाएं। (rs)

70वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर जाने भारत देश की 70 उपलब्धियां

• 1947 में आज़ादी हासिल करने के एक साल बाद भारतीय पुरुष हॉकी टीम ने 1948 के लंदन ओलिंपिक्स में स्वर्ण पदक जीता.
• 1948 में मुथम्मा बेलियप्पा भारतीय प्रशासनिक परीक्षा पास करने वाली पहली महिला हुईं.
• 1950 में भारत पूर्ण रूप से गणतंत्र देश घोषित हुआ.
• 1951 में भारत ने एशियाई खेलों के पहले संस्करण की मेजबानी की.
• 1952 में भारत में स्वतंत्रता के बाद पहली बार चुनाव हुए जिसमें 17 करोड़ से ज्यादा लोगों ने मतदान दिया.
• 1953 में इंडियन एयरलाइन्स की स्थापना हुई.
• 1954 में भारत, ट्रॉम्बे में एटमी ऊर्जा कार्यक्रम को लॉन्च करने वाला पहला देश बना. 1955 में भारत ने अपना पहला कम्प्यूटर HEC 2M इन्सटॉल किया.
• 1956 में भारतीय पुरुष हॉकी टीम ने मेलबर्न ओलिंपिक्स में फिर गोल्ड जीता.
• 1957 में आरती साहा इंग्लिश चैनल पार करने वाली पहली एशियाई महिला बनीं. 1958 में भारतीय प्रोद्यौगिकी संस्थान (IIT)ने शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता की नई परिभाषा गढ़ी.
• 1959 में सत्यजीत रे की आपुर संसार ने भारतीय सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक नई पहचान दी. 1960 के ओलिंपिक में मिल्खा सिंह रिकॉर्ड तोड़ने वाले पहले भारतीय हुए.
• 1961 में भारत ने गुट निरपेक्ष देशों की पहली बैठक में नेतृत्व की कमान संभाली. एक साल बाद
• 1962 के एशियाई खेलों में भारतीय फुटबॉल टीम ने स्वर्ण जीतकर सबसे ऊंची रैंकिंग हासिल की.
• 1962 में प्रधानमंत्री नेहरू ने बाखरा-नंगल बांध प्रोजेक्ट को 'आधुनिक भारत का मंदिर' कहते हुए उसे देश के नाम समर्पित किया.
• 1964 में भारत का पहला जेट ट्रेनर HJT-16 ने उड़ान भरी. अनाज के लिए बाहरी निर्भरता से मुक्ति पाने के लिए 1965 में हरित क्रांति की शुरूआत हुई.
• 1966 में रीता फारिया विश्व सुंदरी का खिताब जीतने वाली पहली भारतीय हुईं.
• 1967 में पंडित रवि शंकर ने भारत की ओर से पहला ग्रैमी अवॉर्ड जीता.
• 1968 में डॉ प्रफुल्ल सेन, हृदय प्रत्यारोपण सर्जरी करने वाले दुनिया के तीसरे और एशिया के पहले डॉक्टर बने.
• 1969 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO)की स्थापना हुई.
• 1971 में भारत ने बांग्लादेश को पाकिस्तान से आज़ादी दिलवाने के लिए सैन्य हस्तक्षेप किया.
• भारत के सबसे सफल पशु बचाओ कार्यक्रम, प्रोजेक्ट टाइगर की शुरूआत 1973 में हुई थी.
• 1974 में भारत ने शांतिपूर्ण तरीके से परमाणु परिक्षण किया जिसने दुनिया को चकित कर दिया लेकिन इसने भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को एक गति दी.
• 1975 में आर्यभट्ट के प्रक्षेपण ने भारत को उन चुनिंदा देशों के समूह में शामिल कर दिया जिनका अपना सैटेलाइट है.
• भारत में सामाजिक न्याय को हासिल करने के लिए 1976 में बंधुआ मजदूर की प्रथा को समाप्त कर दिया गया.
• अगले साल मेलबर्न में माइकल फरेरा विश्व बिलियार्ड्स चैंपियनशिप जीती.
• 1978 में भारत की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी दुर्गा का जन्म हुआ.
• 1979 में भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिका को वैध करार दिया, यह दुनिया में न्यायिक नवीनता के महत्वपूर्ण उदाहरणों में से एक है.
• 1980 में चेचक की बीमारी से निपटने के लिए भारत ने सबसे लंबे टीकाकरण कार्यक्रम में से एक ही शुरूआत की.
• 16 साल की कड़ी मेहनत के बाद 1981 में भारतीय वैज्ञानिकों ने अपनी पहली दवा ट्रोमैरिल तैयार की.
• अगले साल नई दिल्ली में भारत ने एशियाड खेलों की मेज़बानी संभाली.
• 1983 में कपिल देव की अगुवाई में भारतीय टीम ने विश्व कप जीता.
• 1984 में राकेश स्पेस में कदम रखने वाले पहले भारतीय अंतरिक्ष यात्री बने.
• 1985 में भारत फास्ट ब्रीडर न्यूकलियर रिएक्टर हासिल करने वाला छठवां देश बना.
• 1986 के एशियाई खेलों में पीटी उषा ने ऐतिहासिक जीत दर्ज करने के दौरान रिकॉर्ड धराशायी किए.
• 1987 में सुनिल गावस्कर टेस्ट मैच में 10 हज़ार रन स्कोर करने वाले पहले क्रिकेटर बने.
• 1988 में एशिया का पहला रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट IRS-1A लॉन्च करके इसरो ने अपने आलोचकों का मुंह बंद किया.
• इसी के अगले साल केरल का कोट्टायम भारत का पहला पूर्ण साक्षर जिला घोषित किया गया.
• 1990 में कुवैत और इराक़ से 1 लाख 10 हज़ार भारतीयों को बाहर निकाला गया जो दुनिया का अब तक का सबसे बड़ा नागिरकों को बाहर निकालने का प्रयास माना जाता है.
• 1991 में भारत ने आर्थिक संकट से निपटने के लिए कई सुधार कार्यक्रमों की घोषणा की.
• इसके ठीक दो साल बाद 1993 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत को दुनिया की छठीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बताया.
• 1993 में फिल्मकार सत्यजीत रे को अपने सिनेमा के लिए ऑस्कर से नवाज़ा गया.
• अगले साल सुष्मित सेन और ऐश्वर्या राय ने भारत की ओर से मिस यूनिवर्स और मिस वर्ल्ड का ताज़ जीता.
• 1995 में भारत ने इंटरनेट पर पहली बार लॉग इन किया.
• 1996 के अटलांटा ओलिंपिक्स में 23 साल के लिएंडर पेस ने कांस्य पदक जीता. यह 44 साल में भारत का पहला एकल पदक था.
• अगले साल लेखक अरुंधती रॉय ने अपनी किताब 'दि गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स' के लिए बुकर पुरस्कार जीता.
• अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने 1998 में नोबल पुरस्कार जीता, वह यह सम्मान हासिल करने वाले छठें भारतीय थे.
• 1999 में न्यूयॉर्क के नास्डैक में लिस्ट होने वाली इंफोसिस पहली भारतीय कंपनी बनी.
• शंतरज के ग्रांडमास्टर विश्वनांथन आनंद ने 2000 में विश्व शतरंज चैंपियनशिप जीती.
• भारत में बने फाइटर जेट तेजस ने बैंगलुरू से अपनी पहली उड़ान भरी.
• अगले साल भारतीय क्रिकेट टीम ने लंदन में हुई नैटवेस्ट सीरिज़ का फायनल जीता.
• 2003 में सानिया मिर्ज़ा विंबलडन की डबल्स ट्रॉफी जीतने वाली पहली भारतीय बनी.
• राज्यवर्धन राटौर ने 2004 ओलिंपिक्स में सिल्वर जीता.
• 2005 में भारत ने सूचना के अधिकार कानून को पास किया.
• 2006 में परिमर्जन नेगी अंतरराष्ट्रीय चेस ग्रांडमास्टर बनने वाले सबसे युवा एशियाई बने.
• 2007 में प्रतिभा पाटिल देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनीं.
• अगले साल अभिनव बिंद्रा ने शूटिंग में बीजिंग ओलिंपिक्स में स्वर्ण पदक जीता. इस खेल में एकल स्वर्ण पदक जीतने वाले अभिनव पहले भारतीय हैं. वहीं भारत का सफल चंद्र अभियान चंद्रयान 1 ने दुनिया को चकित कर दिया.
• 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किया.
• 2010 में शिक्षा के अधिकार को संवैधानिक अधिकार घोषित किया गया.
• 2011 में 27 साल बाद एम एस धोनी की अगुवाई में टीम इंडिया ने क्रिकेट विश्व कप जीता.
• लंदन ओलिंपिक्स 2012 में भारत ने 6 मेडल जीते.
• 2013 में मंगलायन ने मंगल ग्रह पर चक्कर लगाया.
• 2014 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत को पोलियो मुक्त घोषित किया. 2015 में सानिया मिर्ज़ा और सायना नेहवाल अपने अपने खेलों में शीर्ष पर रहीं.
• जून 2016 में भारत ने महिला फाइटर पायलटों के पहले बैच को ट्रेनिंग दी.
• तीन अगस्त को भारत ने जीएसटी को हरी झंडी दिखाई जिसे 25 साल का देश का सबसे बड़ा कर सुधार कार्यक्रम बताया जा रहा है.

ढुलाई क्रांति का आगाज (रमेश कुमार दुबे)

आमतौर पर बनारस के घाट जीवन और मोक्ष के प्रतीक माने जाते हैं, लेकिन 12 अगस्त को बनारस का रामघाट देश के माल परिवहन क्षेत्र में होने वाली क्रांति का गवाह बना। केंद्रीय जहाजरानी व सड़क परिवहन मंत्री ने न सिर्फ आंतरिक जलमार्ग के नए टर्मिनल का शिलान्यास किया, बल्कि बनारस से हल्दिया के बीच चलने वाले दो मालवाहक जहाजों को हरी झंडी भी दिखाई। आगे चलकर इस जलमार्ग को इलाहाबाद व कानपुर तक ले जाया जाएगा। देश के राष्ट्रीय जलमार्ग-1 पर तीन स्थानों यानी वाराणसी, झारखंड के साहेबगंज व हल्दिया में टर्मिनल बनाया जाएगा। इस जलमार्ग के पूरी तरह चालू होने पर न सिर्फ पूवरेत्तर रायों, बल्कि बांग्लादेश व म्यांमार तक माल परिवहन होगा। सरकार की योजना देश की 11 नदियों में माल परिवहन शुरू करने की है, ताकि 2018 तक कुल माल भाड़े में जलमार्ग का हिस्सा बढ़कर सात फीसद तक पहुंच जाए, जो कि मौजूदा समय में 3.6 फीसद है। इससे न सिर्फ माल ढुलाई लागत में कमी आएगी, बल्कि विदेशी बाजारों में भारतीय सामान कीमत के मामले में प्रतिस्पर्धा में नहीं पिछड़ेंगे।
गौरतलब है कि उदारीकरण के दौर में जिस तरह विदेशी सामान भारतीय बाजार में छा गए उस तरह विदेशी बाजारों में भारतीय सामानों की धूम नहीं मची। इसका कारण है कि हमारे यहां लागत यादा आती है जिससे हमारे सामान प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाते हैं। बिजली, सड़क, जटिल कारोबारी माहौल, कौशल की कमी, खराब कानून व्यवस्था आदि के चलते हम देश में मौजूद सस्ते श्रम का पूरा फायदा उठाने में नाकाम रहे हैं। अब मोदी सरकार मेक इन इंडिया पहल के तहत देश को विनिर्माण धुरी बनाने के लिए इन बाधाओं को दूर कर रही है।
सरकार का सबसे यादा जोर लॉजिस्टिक्स (संचालन एवं माल व्यवस्था) लागत घटाने पर है, क्योंकि इसके चलते भारतीय सामान बाजार में पहुंचते-पहुंचते महंगे हो जाते हैं। उदाहरण के लिए किसी सामान की दिल्ली से मुंबई तक की परिवहन लागत मुंबई से लंदन तक के माल भाड़े से यादा होती है। रेल, सड़क, हवाई व समुद्री परिवहन में समन्वय की कमी के कारण ढुलाई में देरी होती है। जवाहरलाल नेहरू बंदरगाह, मुंबई देश का सबसे बड़ा कंटेनर पोर्ट है जो 55 फीसद राष्ट्रीय ट्रैफिक हैंडल करता है, लेकिन यहां पर भंडारण सुविधा, उपकरणों व कनेक्टिविटी की भारी कमी है। देश में 12 बड़े बंदरगाह हैं, लेकिन कोई भी बंदरगाह कोलंबो, दुबई, सिंगापुर की भाति बड़े लोड हैंडल नहीं कर पाता है। इन्हीं कारणों से माल ढुलाई में सड़क परिवहन का हिस्सा बढ़ता जा रहा है जो महंगा होने के कारण लागत बढ़ा देता है। उदाहरण के लिए 1980 के दशक में माल ढुलाई में रेलवे की हिस्सेदारी 60 फीसद थी, जो कि 90 के दशक में 48 फीसद और अब घटकर 31 फीसद रह गई। देश की सड़कों पर वाहनों की बढ़ती भीड़ के कारण यहां ट्रक औसतन 20 से 25 किलोमीटर की रफ्तार से चलते हैं और एक दिन में 250 से 300 किलोमीटर की दूरी तय कर पाते हैं। इसके विपरीत विकसित देशों में ट्रक रोजाना 700 से 800 किलोमीटर दूरी तय करते हैं।
भारत में लॉजिस्टिक्स लागत सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 14 फीसद है, जबकि विकसित देशों में यह सात फीसद है। भारी-भरकम लॉजिस्टिक्स खर्च की वजह से भारतीय कंपनियां अपने कारोबार का वैश्विक विस्तार नहीं कर पा रही हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि उदारीकरण के दौर में कारोबार में बढ़ोतोरी के बावजूद लॉजिस्टिक्स क्षमता में सुधार के उपाय नहीं हुए। विश्व बैंक की लॉजिस्टिक्स परफॉर्मेस रिपोर्ट 2014 में 160 देशों में भारत 54वें स्थान पर है। दूसरी ओर दक्षिण अफ्रीका 34वें, चिली 42वें, पनामा 45वें और वियतनाम 48वें पायदान पर है। एसोचैम के अध्ययन के मुताबिक यदि भारत अपनी लॉजिस्टिक्स लागत को जीडीपी के 14 फीसद से घटकार नौ फीसद कर ले तो हर साल 50 अरब डॉलर की बचत होने लगेगी।
सरकार लॉजिस्टिक्स लागत कम करने के लिए बहुआयामी उपाय कर रही है। 10 लाख करोड़ रुपये के निवेश से सागरमाला परियोजना शुरू की गई है। इसके तहत 37 आधारभूत ढांचा क्लस्टरों का विकास किया जाएगा। आने वाले 10 वर्षो में सरकार पोत एवं बंदरगाह आधारभूत ढांचे के विकास पर चार लाख करोड़ रुपये निवेश करेगी। सागरमाला परियोजना का लक्ष्य है लॉजिस्टिक्स लागत को जीडीपी के 14 फीसद से घटाकर 10 फीसद करना। देश के अंदरूनी इलाकों में आधारभूत ढांचा बेहतर करके लॉजिस्टिक्स लागत कम करने की नीति बनाई जा रही है। शहर, रेलवे यार्ड व बंदरगाह से गोदामों तक माल ढुलाई में जाम एक बड़ी समस्या है। इसे देखते हुए गोदामों को शहर से बाहर रिंग रोड पर स्थानांतरित किया जाएगा। केंद्र सरकार ने बंदरगाहों की मौजूदा क्षमता 140 करोड़ टन को 2025 तक बढ़ाकर 300 करोड़ टन करने की योजना तैयार की है।
लॉजिस्टिक्स लागत घटाने के लिए सरकार जलमार्ग के जरिये माल ढुलाई पर बल दे रही है। सरकार चाहती है कि जिस तरह चीन, जापान व कोरिया की तरक्की में जलमार्ग ढुलाई का योगदान रहा है उसी तरह की घटना भारत में भी घटे। गौरतलब है कि जलमार्ग से ढुलाई न केवल सस्ती पड़ती है, बल्कि इससे प्रदूषण भी नहीं फैलता है। जहां प्रति किलोमीटर माल ढुलाई की लागत सड़क से डेढ़ रुपये व रेल से एक रुपये आती है वहीं जल मार्ग से यह लागत महज 25 पैसा आती है। स्थापना व रखरखाव में भी जलमार्ग को कोई तोड़ नहीं है। एक किलोमीटर रेल मार्ग बनाने में जहां एक से डेढ़ करोड़ रुपये लगते हैं वहीं सड़क बनाने में 60 से 75 लाख रुपये खर्च होते हैं, लेकिन इतनी ही दूरी के जलमार्ग के विकास पर मात्र 10 लाख रुपयों की जरूरत पड़ती है। सबसे बढ़कर जलमार्गो के रखरखाव का खर्च न के बराबर होता है। अनाज, खाद्य तेल, दालों, कोयला आदि की कम लागत पर ढुलाई होने पर इसका असर महंगाई में कमी के रूप में सामने आएगा। स्पष्ट है, बनारस से शुरू हुई ढुलाई क्रांति के परवान चढ़ने पर कई समस्याओं का अपने आप समाधान हो जाएगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(DJ)

अंगदान दिवस : आंदोलन से बनेगी बात (आर.के. सिन्हा)

क्रि केटर गौतम गंभीर ने अपनी मृत्यु के बाद अपने अंगों को दान देने का फैसला किया है। गंभीर ने कहा, ‘‘हजारों लोग हर साल अंग न मिलने की वजह से मर जाते हैं। मुझे लगता है कि अंगदान देने से हम इस कमी को कुछ हद तक पूरा कर सकते हैं, जिससे समाज का भला होगा। मैं मौत के बाद अपने सभी अंगों को दान करने का वादा करता हूं। इसके साथ ही मैं अपने टीम के खिलाड़ियों के अलावा सबसे ऐसा ही करने की अपील करूंगा।’अंगदान को लेकर जागरूकता पैदा करने की जरूरत है। इसे आंदोलन का रूप दिया जाना चाहिए। गंभीर की ही तरह से आनंद गांधी की फिल्म ‘‘शिप ऑफ थीसस’ से प्रेरणा लेने के बाद आमिर खान की पत्नी और निर्देशक किरण राव ने भी अंग दान करने की घोषणा की है। उसने अपने एक हालिया इंटरव्यू में कहा कि पहले वह सोचती थी कि हम केवल अपनी आंखें दान कर सकते हैं। लेकिन तय यह है कि हमारे शरीर का हर अंग किसी का जीवन बचाने के काम आ सकता है। मैंने स्वयं 2010 में ही गंगाराम अस्पताल, दिल्ली को अपने सभी अंगों को दान करने का संकल्प किया है। स्वास्य मंत्रालय के अनुसार, भारत में हर साल करीब दो लाख गुर्दे दान करने की जरूरत होती है। मगर मौजूदा समय में 7,000-8,000 से भी कम गुर्दे मिल पाते हैं। भारत में 50,000 लोगों को दिल प्रतिरोपण की आवश्यकता है, जबकि उपलब्धता केवल 10 से 15 की ही है। दूसरी तरफ प्रतिवर्ष 50000 लोगों को लिवर प्रत्यारोपण की आवश्यकता है, जबकि 700 लोगों को ही डोनर मिल पाते हैं। भारत में प्रति दस लाख व्यक्ति में अंगदान करने वालों की संख्या सिर्फ 0.8 है। विकसित देशों, जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, नीदरलैंड्स और जर्मनी में यह संख्या औसतन 10 से 30 के बीच है। स्पेन में प्रति दस लाख लोगों में 35.1 अंगदान करते हैं। हमारे देश में अंगदाताओं की संख्या के इस कदर होने के पीछे कई कारण हैं, जैसे सही जानकारी का अभाव, धार्मिंक मान्यताएं, सांस्कृतिक भ्रांतियां और पूर्वाग्रह। किंतु यह भी सच है कि भारत मे अंगदान की परंपरा महर्षि दधीचि के समय से चली आ रही है। पुराणों की कथा के अनुसार देव-दानव संग्राम में देवता बार-बार हार रहे थे और ऐसा लग रहा था कि दानव ही अंतत: विजयी हो जाएंगे। घबराए हुए देवता सहायता के लिए ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी ने कहा कि पृवी पर एक ऋषि रहते हैं-दधीचि। उनकी तपस्या से उनकी हड्डियों में अनंत बल का प्रादुर्भाव हुआ है। उनसे, इनकी हड्डियों का दान मांगो। उससे ‘‘वग्र’ नामक शस्त्र बनेगा, वह शस्त्र दानवों को परास्त कर देवों को विजयी बनाएगा। इंद्र ने दधीचि से उनकी हड्डियां मांगी। पुलकित दधीचि ने ध्यानस्थ हो प्राण त्याग दिए। उनकी अस्थियों से बने वज्र ने देवताओं को विजय दिलवाई। पर इसी भारत में हर साल लाखों लोग किडनी, लीवर, हृदय और शरीर के अन्य अंगों के काम नहीं करने से कम उम्र में ही जान गंवा देते हैं या दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं। अंगदान से कइयों की जिंदगी बचाई जा सकती है। मगर, अंगदान के प्रति लोगों में न सिर्फ जागरूकता की कमी है, बल्कि इसके प्रति समाज में भ्रांतियां भी हैं। इन्हीं भ्रांतियों को दूर करने की आवश्यकता है। सरकार ने अंगदान को बढ़ावा देने के लिए कुछ निर्णायक पहल किए हैं और सभी प्रमुख सरकारी अस्पतालों में अंग प्रत्यारोपण की सुविधा शुरू की है। बेशक अंगदान मामले में सरकार की ओर से विलंब हुआ है। परंतु अब स्वास्य मंत्रालय सरकारी अस्पतालों में अंग एवं ऊतक प्रत्यारोपण में प्रशिक्षण देने का निर्णय लिया है। भारत में स्थिति चिंताजनक इसलिए भी है, क्योंकि ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं है कि अगर वं अंगदान करना चाहते हैं तो कहां जाएं और किससे संपर्क करें? मेडिकल साइंस के अनुसार जीवित व्यक्ति के दो गुदरे में से एक दान में दिया जा सकता है। जबकि, आंत और लीवर के अंश को किसी की जान बचाने के लिए दिया जा सकता है क्योंकि कटे हुए आंत और लीवर अपने आप बढ़ जाते हैं। एक मृत व्यक्ति द्वारा किए गए अंगदान से लगभग सात लोगोें को जीवनदान मिल सकता है। अंगदान में एक बड़ी समस्या अस्पतालों द्वारा समय से रोगी को ब्रेन डेड घोषित न कर पाना भी है, जिसके बाद मृतक के अंग खराब होने लगते हैं। कई देशों में अंगदान ऐच्छिक न होकर अनिवार्य है। सिंगापुर में हर नागरिक को स्वाभाविक अंगदाता मान लिया जाता है और ‘‘ब्रेन डेड’ घोषित किए जाने पर अस्पताल और सरकार का उसके अंगों पर अधिकार होता है। भारत में 1994 में मानवीय अंगों के प्रत्यारोपण के लिए कानून बनाया गया था, ताकि विभिन्न किस्म के अंगदान और प्रत्यारोपण को सुचारु रूप दिया जा सके। हालांकि, हमारे यहां अंगदान को लेकर तमाम अड़चने हैं, तो भी कई परिवार इस बाबत शानदार उदाहरण पेश कर रहे हैं। बेशक, एक इंसान के शरीर के किसी अंग को किसी दूसरे इंसान में प्रत्यारोपित करना मेडिकल साइंस की दुनिया का चमत्कार है। इसके चलते हजारों-लाखों लोग मौत को हराने में सफल हो गए। पर, अगर बात भारत की करें तो अभी हम कमजोर साबित हो रहे हैं। भारत में अंगदान और देह दान को लेकर माहौल नहीं बन पा रहा है। एक अनुमान के मुताबिक,भारत में हर साल करीब दो लाख लोगों को अंग प्रत्यारोपण की दरकार होती है। इनमें से ज्यादातर रोगी कम उम्र के होते हैं। इनकी जीने की उम्मीद इस बात पर निर्भर करती है कि इन्हें कोई कब अंगदान करेगा। भारत में 1994 में सरकार ने ब्रेनडेड को अंगदान की स्वीकृति दी। मगर, सच ये है कि बीमार लोगों की अंगों की जरूरत आज भी अंगदान करने वालों की संख्या से कहीं ज्यादा है। अंगदान की इसी बढ़ती जरूरत को समझते हुए ‘‘ब्रेनडेड’ इंसान के अंगदान करने के बारे में जागरूकता फैलाने की जरूरत है। इस लिहाज से जागरूकता बढ़ाने में सेलिब्रेटीज और फिल्मों की अहम भूमिका हो सकती है।(RS)

उपेक्षा की शिकार लौह महिला (सुभाष गाताडे )

इरोम शर्मिला, मणिपुर की ‘लौह महिला’ जिसने सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम यानी अफस्पा के खिलाफ सोलह साल से चला आ रहा अनशन समाप्त किया है। उसने इसका ऐलान कुछ समय पहले ही किया था कि वह नौ अगस्त को अनशन तोड़ेंगी। खबरों के मुताबिक उसने अपने दोस्त से शादी करने तथा चुनाव लड़ने की इछा जाहिर की है तथा इस जरिये संघर्ष को आगे बढ़ने का इरादा रखती है। फिलवक्त वह तमाम बातें इतिहास हो चुकी हैं कि मणिपुर की राजधानी इम्फाल से 15-16 किलोमीटर दूर मालोम नामक स्थान पर किस तरह सुरक्षा बलों की कार्रवाई के खिलाफ वह अनशन पर बैठी थी। दो नवंबर, 2000 को सुरक्षा बलों ने वहां बस स्टैंड पर अंधाधुंध गोलियां चला कर दस मासूमों को मार डाला था, जिस घटना से उद्विग्न इरोम अपने घर से सीधे मालोम बस स्टैंड पहुंची थी, जहां के रक्त के दाग अभी ठीक से सूखे भी नहीं थे। और वहीं पास बैठ कर उसने अपनी भूख हड़ताल की शुरुआत की थी। एक तटस्थ नजरिये से देखें तो यह समझा जा सकता है कि इरोम का यह फैसला अचानक नहीं आया है। इरोम के साथ नजदीकी से काम करनेवाले बताते हैं कि भले ही वह इस संघर्ष की आईकन बनी हो, जीते जी उसका संघर्ष दंतकथाओं में शुमार हुआ हो, देश के बाकी हिस्से में लोगों ने उससे प्रेरणा ली हो, मगर हाल के वर्षो में मणिपुर के अंदर उसके प्रति समर्थन में लगातार कमी दिखाई दी है। देश के राजनीतिक माहौल में आए बदलाव ने भी निश्चित ही इस फैसले को प्रभावित किया है।
भले ही यह कानून वापस न हुआ हो, मगर पिछले माह के सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने इस कानून के तहत सुरक्षा बलों को मिले असीमित अधिकारों की बात को कम से कम नए सिरे से सूर्खियों में भी ला दिया है। इस कानून के खिलाफ जो संघर्ष जारी रहा है, जिन फर्जी मुठभेड़ों का सवाल उठता रहा है, उसे सुप्रीम कोर्ट ने सही ठहराया है और जांच के आदेश दिए हैं। सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और यू यू ललित की द्विसदस्यीय पीठ के 85 पेज के फैसले ने इस इलाके में सुरक्षा बलों द्वारा अंजाम दी गई इन फर्जी मुठभेड़ों के सवाल पर मुहर लगाई है। गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय के सामने प्रस्तुत याचिका-जिस पर उसने अपना फैसला सुनाया-उन परिवारजनों द्वारा डाली गई थी जिनके आत्मीय इसी तरह फर्जी मुठभेड़ांे में मार दिए गए हैं, जिन्होंने अपने आप को एक संस्था ‘एक्स्ट्रा जुडिशियल एक्जिक्यूशन विक्टिम फैमिलीज एसोसिएशन’ के नाम पर संगठित किया है। प्रस्तुत संस्था की तरफ से जिन 1528 हत्याओं की सूची अदालत को सौंपी गई है उन ‘आरोपों की सचाई को स्वीकारते हुए’ अदालत ने इन फर्जी मुठभेड़ों की नए सिरे से जांच करने का आदेश दिया है। आला अदालत का फैसला इस मामले में ऐतिहासिक रहा है कि उसने सरकार की इन तर्को को सिरे से खारिज किया कि अगर सुरक्षा बलों को दंडमुक्ति प्रदान नहीं की गई तो उसका उन पर विपरीत असर पड़ेगा, उनका ‘मोराल डाउन’ हो सकता है। उलटे उसने केंद्र सरकार से इस स्थिति पर आत्ममंथन करने की सलाह दी है कि जनतंत्र में साधारण नागरिक को अगर बंदूक के साये में रहना पड़े तो उसका उस पर कितना विपरीत असर पड़ सकता है।
कहने का तात्पर्य सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम के खिलाफ जारी संघर्ष को एक मुकाम पर पहुंचा कर और बदली परिस्थितियों में बदली रणनीति की आवश्यकता को समझ कर इरोम ने अपने अनशन को वापस लिया है। अपना अनशन समाप्त करने के इरोम के फैसले के अपने तर्क देखे जा सकते हैं, समङो जा सकते हैं, लेकिन यह फैसला मणिपुर की जनता को रास नहीं आ रहा है। वह उसे उसी रूप में देखना चाहते रहे हैं, जैसी छवि बहुचर्चित रही है। अब जो खबरें छन-छन कर सामने आ रही हैं वह बताती हैं कि इरोम के इस फैसले से न केवल लोगों का एक हिस्सा गुस्से में है, यहां तक कि उसकी मां तथा अन्य आत्मीय जन भी खुश नहीं हैं। कुछ लोग इस वजह से भी नाराज बताए जाते हैं कि उन लोगों ने इरोम का तहेदिल से साथ दिया और आज भी दे रहे हैं, मगर इस फैसले की घड़ी में उसने उनसे सलाह मशविरा करना भी मुनासिब नहीं समझा।
कुछ कट्टर समूहों को यह भी लगता है कि उसने आंदोलन के साथ द्रोह किया है। यह अकारण नहीं कि अनशन समाप्त करने के उसके ऐलान के बाद मणिपुर में सक्रिय दो विद्रोही गुटों-कांगलाई यावोल कन्ना लूप और कांगलाई पाक कम्युनिस्ट पार्टी ने उसे एक तरह से अनशन वापस न लेने का अनुरोध किया था और संकेतों में यह धमकी दी थी कि अगर वह ऐसा करेगी तो वे उसे समाप्त भी कर सकते हैं। उनके अपने तर्क हैं-उनका मानना है कि एक ऐसे समय में जबकि सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम के खिलाफ संघर्ष नहीं हो पा रहा है उस वक्त इस मसले पर अंतरराष्ट्रीय ध्यान आकर्षित करने में उसका अनशन एक अछा प्रतीक रहा है और अब इरोम के ‘हट जाने से’ वह ध्यान हट जाएगा। उन्हें यह भी लगता है कि मणिपुर में अंतरनस्लीय विवाह करने या संमिश्र विवाह करने का जो प्रचलन बढ़ रहा है-जिससे देशज आंदोलन की पहचान मिटने की संभावना बन रही है-उसे एक नई गति मिलेगी, अगर इरोम भी गोवा में जन्मे ब्रिटिश नागरिक से शादी करेगी।
शायद यही असंतोष अंदर ही अंदर खदबदा रहा था जो अनशन समाप्ति की घोषणा तथा मीडिया के सामने उसके अमल के बाद बाकायदा उजागर हुआ, जो किसी के लिए भी अप्रत्याशित था। प्रेस कांफ्रेंस समाप्त होने के बाद वह पुलिस के वाहन में अपने उस दोस्त के घर जाने के लिए निकली, जिसने अपने यहां टिकने का उसे न्यौता दिया था। बाद में पता चला कि उस कालोनी के गेट इरोम के लिए बंद कर दिए गए हैं, यहां तक कि स्थानीय इस्कॉन मंदिर ने भी उसे शरण देने से इंकार किया। अंतत: उसे जवाहरलाल नेहरू अस्पताल के उसी कमरे में लौटना पड़ा जहां कड़ी सुरक्षा के बीच वह अपने इस अनशन को चला रही थी। ताजा समाचार के मुताबिक स्थानीय रेडक्रॉस ने उसे यह ऑफर दिया है कि वह उनके यहां रह सकती है, जब तक उसकी इच्छा हो वह वहां निवास कर सकती है।
इरोम के ताजा फैसले से सहमति-असहमति अपनी जगह हो सकती है, मगर एक वक्त महामानवी के तौर पर उसका महिमामंडन और अब खलनायिका के तौर पर उसे देखना या उससे यथासंभव दूरी बनाने जैसा लोगों का पेण्डुलम नुमा व्यवहार, अपने समाज को लेकर गहरे प्रश्न खड़ा करता है। क्या उसे अदद वीरों/वीरांगनाओं की हमेशा तलाश रहती है जिनका वह गुणगान करे, जिनके नाम पर वह कुर्बान होने की या मर मिटने की बात करे और जिस क्षण वही वीरांगना उनकी छवि की वीरांगना नहीं रहती या वीर उनकी कल्पना का रणबांकुरा साबित नहीं होता, तो उसे खारिज करने में उसे वक्त नहीं लगता। यह भी दिखता है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी अब भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की संकल्पना का उसके अंदर गहराई से स्वीकार नहीं हुआ है, वह व्यक्ति को भी समुदाय के साथ पूरी तरह से नत्थी कर देता है और इस बात की चिंता नहीं करता कि उसकी अपनी निजता, अपनी आकांक्षाओं का, कामनाओं का वह किस कदर हनन कर रहा है।
लाजिम है कि इरोम शर्मिला की कुछ मानवीय हसरतें उसे आगबबूला कर देती हैं और वह फिर कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। निश्चित ही लोगों के इस व्यवहार से-जिन्होंने उसे इतने सालों तक ‘लौह महिला’ के तौर पर देखा, सराहा, मगर जो उसके इस ताजा फैसले से क्षु}ध हैं-इरोम बेहद व्यथित हैं। एक पत्रकार से बात करते हुए उसने कहा कि ‘लोगों ने उसके इस कदम को गलत समझा। मैंने संघर्ष का परित्याग नहीं किया है, बस अपनी रणनीति बदली है। मैं चाहती हूं कि वह मुङो जानें। एक निरपराध व्यक्ति के प्रति उनकी तीखी प्रतिक्रिया-वह बहुत कठोर हैं।’ और वह मौन धारण कर लेती है।(DJ)

Friday 12 August 2016

कश्मीर में सैन्य और सूचना अभियान चाहिए (लेफ्टि. जन. (रिटायर्ड) सैयद अता हसनैन)

नेटवर्क वालीदुनिया में लीडरशिप' विषय पर हाल ही में हुए सेमीनार में कश्मीर का मुद्‌दा बार-बार आया। मध्यप्रदेश के महू में हुए सेमीनार में स्पष्ट रूप से यह बात सामने आई कि जम्मू-कश्मीर के छद्‌म युद्ध में कई बार सेना ने जटिल स्थिति को काबू में किया, जबकि प्रत्येक स्थिति में अन्य किसी पहल की जरूरत थी। सच है कि जम्मू-कश्मीर को कई आर्थिक पैकेज दिए गए, लेकिन कश्मीरी को हमारी सोच के निकट लाने की पेशेवर कोशिश कभी शिद्‌दत से नहीं की गई। यह सिर्फ शासन का मामला नहीं है। वहां जीवन की गुणवत्ता में सुधार इस बात की गारंटी नहीं है कि कश्मीरियों की नई पीढ़ी खुद को भारतीय समझने लगेगी। जरूरी यह है कि घाटी के कुछ हिस्से अौर शायद पीर पंजाल के दक्षिण से लगे क्षेत्रों में जो उदासीन-सी कश्मीरी आबादी है वह यह महसूस करे कि भारतीय होना उसका हक है और वह भारतीय बने रहना चाहती है। इसे करने का कोई शॉर्ट कट नहीं है।
पिछले 26 वर्षो से जिन्हें यह छद्‌म युद्ध लड़ने का अनुभव है वे शायद यह बता सकें कि सैन्य अभियानों से आतंकियों की संख्या 14-180 तक सीमित कर देने से ओवरऑल मिशन में जीत नहीं हुई है। यह तो तभी हो सकता है, जब हम भारत का हिस्सा होने के विरोधी हर कश्मीरी को यह यकीन दिला दें कि आखिरकार उसका उसके बच्चों का भविष्य केवल भारतीय राष्ट्र में ही सुरक्षित है। यह तब होगा जब सैन्य अभियान के साथ 'सूचना अभियानों' के मिश्रण का हो।
क्या हमारे पास पूरी तरह सूचना संपन्न रणीतिक नेतृत्व है? यदि होता तो चिदंबरम जैसे लोग कभी 1947 की स्थिति में लौट जाने या अफ्स्पा हटाने (1990 का जम्मू-कश्मीर) जैसी बात नहीं करते। वह भी सरकार की ओर से सूचना अभियान और राजनीतिक पहल के बगैर। दुर्भाग्य से बहुत सारे विश्लेषक मानते हैं कि सैन्य बलों का प्रयोग ही जीत का रास्ता है। मैं इस मामले में उनसे कुछ हद तक सहमत होता कि पाकिस्तान वे सारे जो भारत के खिलाफ हैं उन्हें चोट पहुंचाने के लिए बल प्रयोग किया जाए। इसमें भी मुकम्मल जीत नहीं मिल सकती। ऐसी विजय अस्थायी होती है। इसलिए तो भारत को पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध के लिए तैयार रहना होगा और यह मानकर चलना होगा कि ऐसी जीत हमारे एक-दो शहरों के विनाश और पाकिस्तान के सारे प्रमुख शहरों के नष्ट होने की कीमत पर ही प्राप्त होगी। पूर्ण युद्ध के हिमायती शायद ही अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर निगाह डालते हैं, जहां स्थिति वैसी दो ध्रुवीय नहीं है, जैसी 1971 में थी।
कई लोग श्रीलंका का उदाहरण देते हैं कि जहां राजपक्षा ने लिट्‌टे को खत्म करने के लिए हर सैन्य साधन अपनाने की छूट देकर जीत हासिल की। यह समझने के लिए आपको सैन्य संघर्षों का विद्यार्थी होने की जरूरत नहीं है कि लिट्‌टे को किसी देश का समर्थन नहीं था। सच तो यह है कि भारत ने श्रीलंकाई सरकार को समर्थन देने के लिए अागे रहकर अपनी गतिविधियों पर अंकुश लगाया। श्रीलंका में कोई छद्‌म युद्ध नहीं चल रहा था, जिसमें परमाणु हथियारों वाले पूर्ण युद्ध का खतरा मौजूद हो। फिर भी जब तक तमिलों का मुद्‌दा अंतिम रूप से तय नहीं होता, सैन्य विजय राष्ट्रीय रणनीतिक विजय नहीं मानी जा सकती। तमिलों को यह यकीन दिलाने के लिए पर्याप्त सूचना अभियान नहीं चलाया गया कि तमिल शत्रु नहीं हैं और उनके बिना श्रीलंका अधूरा है। यही तर्क जम्मू-कश्मीर में लागू होता है। श्रीलंकाई तमिल सड़कों पर उतरकर पत्थर फेंककर विरोध नहीं करने लगे, क्योंकि लिट्‌टे खत्म होने के बाद विरोध को प्रोत्साहन देने वाला कोई नहीं रहा। जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान का हाथ हमेशा रहा है और फिर वहां अलगाववादी नेतृत्व भी है, जिसे भारत ने ही एक तरह से पोसा है, उस उम्मीद में कि इसका दृष्टिकोण पूरी तरह बदल देंगे।
निश्चित ही रणनीति में पूर्ण बदलाव की जरूरत है। इसके लिए रणनीतिक नेतृत्व को यकीन दिलाकर निर्णायक दिशा देनी होगी। सैन्य अभियानों को एक समान रफ्तार से जारी रखा जाए, जबकि पुलिस बल सड़कों पर स्थिति काबू में करें, क्योंकि ऐसे विरोध की सीमा है पुलिस बलों को यह संदेश पहुंचा देना चाहिए। कुछ बदलाव के साथ उत्तरी आयरलैंड का मॉडल अपनाया जा सकता है। वहां सेना ने परिधि पर मजबूती से नियंत्रण रखा,जबकि ब्रिटेन सरकार ने सूचना, अार्थिक और प्रशासकीयअभियान चलाए। इसके लिए बेहतर सलाहकारों और प्रतिबद्ध नौकरशाहों के जरिये राज्य सरकार में ऊर्जा का संचार करना होगा।
कश्मीर में इस्लामी कट्‌टरपंथ ने आतंकवाद चलाया है। उप-राष्ट्रवाद से मज़हब का संबंध जिया-उल-हक की 1977 की दुष्ट योजना का हिस्सा था। पाकिस्तान आज भी उसी रणनीति पर चल रहा है, जबकि इसी विचारधारा ने उसे भीतर बहुत चोट पहुंचाई है। आईएसआई और पाकिस्तानी कट्‌टरपंथी जानते हैं कि मौजूदा पुरानी पीढ़ी को अधिक कट्‌टर बनाना बेकार है; अगले पीढ़ी उनका लक्ष्य है और बुरहान उनमें से एक था। इसका मुकाबला सूचना अभियान से ही किया जा सकता है, जिसे पहले खुद सूचना संपन्न होना पड़ेगा। खेद है कि भारत और खासतौर पर जम्मू-कश्मीर में थोड़े ही लोग है जिनमें जिया उल हक की तरह समझ, रणनीतिक बोध और नफासत हो कि वे सच्चे अर्थों में पेशेवर सूचना अभियान को जन्म दे सके।
सोचने की बात है कि प्रशांत किशोर भाजपा के लिए 2014 में सफल सूचना अभियान चला सकें और उसे जद (यू) के लिए बिहार में दोहरा भी सके। क्या उनके जैसे और लोग खोजकर तैयार करके एेसा कोई सूचना अभियान जम्मू-कश्मीर में नहीं चलाया जा सकता? सेना के पास मूलभूत जानकारी है और विभिन्न शाखाओं में सलाह देने वाले पर्याप्त योग्य लोग हैं। इसके लिए जम्मू-कश्मीर के आर्थिक पैकेज के एक हिस्से का उपयोग किया जा सकता है। यह लंबा चलने वाला अभियान होगा अौर जैसा की मैंने बार-बार कहा है पहला कदम- राष्ट्रीय रणनीतिक संचार आयोग की स्थापना से उठाया जा सकता है। वक्त गया है कि दिल्ली के रणनीतिक वर्ग को जम्मू-कश्मीर की स्थिति से निपटने की पूरी रणनीति का पुनर्परीक्षण करना चाहिए। जब सैनिकों को उस रणनीति पर भरोसा है तो शेष सभी को इसे गंभीरता से लेना चाहिए। (येलेखक के अपने विचार हैं।) (DB)

अस्थायी अनुच्छेद पर विचार का वक्त डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

जम्मू-कश्मीर से संबंधित संविधान का अनुछेद 370 सीमित अवधि के लिए बनाया गया अस्थायी अनुबंध है। जब यह घोषित तौर पर अस्थायी है तो फिर उसे संवैधानिक तरीके से हटाया जा सकता है। संविधान में जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा माना गया। अनुछेद 370 इसका अतिक्रमण नहीं कर सकता। अस्थायी अनुछेद केवल प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संविधान में शामिल किया गया था। अनुछेद 370 के तहत केंद्र ने अनेक कार्यकारी आदेश जारी किए। 1980 से 1989 तक वहां राष्ट्रपति शासन रहा। इसे कार्यकारी आदेश के द्वारा ही बढ़ाया जाता रहा था। 30 जुलाई 1986 को इसी अनुछेद के तहत राष्ट्रपति ने कार्यकारी आदेश पारित किया था। इसके तहत कश्मीर पर भी अनुछेद 249 प्रभावी हुआ। संसद को इस राय के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार मिला। कार्यकारी आदेश राष्ट्रपति की बड़ी संवैधानिक ताकत है। जम्मी-कश्मीर के भारत संघ में विलय संबंधी पत्र में रक्षा, विदेश और संचार विषय शामिल थे। इस मामले से जुड़े सोलह विषयों की एक अनुसूची तैयार की गयी थी। इसके अलावा संघीय चुनाव जैसे चार विषय भी जोड़े गए थे। 5 मार्च 1949 को महाराजा हरि सिंह ने संविधान निर्माण हेतु नेशनल असेंबली के गठन का आदेश दिया था। संविधान सभा के चुनाव की घोषणा मई 1951 में की गई। जम्मू-कश्मीर को शासन के लिए भारतीय संविधान के प्रावधानों से उन्मुक्ति प्रदान नहीं की गयी है। संविधान सभा संघ सूची के बाहर के जम्मू एवं कश्मीर संबंधित विषयों के निर्धारण तक सीमित थी। संविधानसभा विलय पर विचार हेतु भी नहीं बनी थी। 17 नवंबर 1956 को संविधान सभा विघटित हुई थी। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि 1952 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और शेख अ}दुल्ला के बीच हुए समझौते का कोई संवैधानिक या वैधानिक महत्व नहीं था, क्योंकि शेख अ}दुल्ला के पास महाराजा और उसके बाद रेजीडेंट बने कर्ण सिंह का कोई अनुमति या अधिकार पत्र नहीं था। संविधान के 395 में से 260 अनुछेद जम्मू कश्मीर पर लागू कर दिए गए हैं। संघ सूची के 97 में से 94 विषय और समवर्त्ती सूची के 47 में से 26 विषय कश्मीर में लागू हैं। भारतीय संविधान के अनुछेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है, जबकि जम्मू कश्मीर संविधान के अनुछेद 92 के तहत रायपाल शासन का प्रावधान किया गया है। 10 अप्रैल 1965 को राय संविधान में छठवां संशोधन किया गया। इसके अनुसार सदर-ए-रियासत की जगह रायपाल की नियुक्ति होने का रास्ता साफ हुआ। इसके पहले सदर-ए-रियासत का चुनाव राय विधानसभा करती थी। 9 अगस्त 1953 को सदर-ए-रियासत ने संविधान सभा को विधानसभा नाम दिया। बख्शी गुलाम मोहम्मद को वजीर-ए-आजम या प्रधानमंत्री बनाया गया। संविधान सभा में गोपाल स्वामी अयंगर और मौलाना हसरत मोहानी के अलावा अन्य कोई सदस्य अनुछेद 370 की बहस में शामिल नहीं हुआ। इतना ही नहीं जम्मू-कश्मीर से चुने गए चारों सदस्यों ने उपस्थित रहने के बावजूद बहस में हस्तक्षेप नहीं किया। ये सदस्य थे शेख अ}दुल्ला, मिर्जा मोहम्मद अफजल बेग, मौलाना मोहम्मद सईद मसूदी और मोती राम बगड़ा। संविधान सभा के गठन में भी धांधली के आरोप लगे थे। विपक्षी दलों के सभी उम्मीदवारों के आवेदन रद्द कर दिए गए थे। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में गोपाल स्वामी अयंगर ने यह मुद्दा उठाया, लेकिन वह इस पर अकेले पड़ गए। अ}दुल कलाम आजाद ने उनका विरोध करने वालों को चुप करा दिया। नेहरू जी बैठक के दौरान विदेश यात्रा पर चले गए। सरदार पटेल ने इस अनुच्छेद को शामिल कराया। जम्मू-कश्मीर का अलग संविधान अनुछेद 370 का ही परिणाम है। इसके कारण पश्चिम पाकिस्तान से आए शरणार्थी आज सत्तर वर्षो बाद भी नागरिक अधिकारों से वंचित हैं। भारतीय दंड संहिता की जगह अलग पीनल कोड लागू है। पंचायती राज संशोधन कानून यहां लागू नहीं है। कश्मीर के लोग भारत में जमीन खरीद सकते हैं, लेकिन शेष भारत के लोग वहां जमीन नहीं ले सकते। जम्मू-लद्दाख के लोगों के विरोध के बावजूद शेख अ}दुल्ला को नेता क्यों माना गया? जाहिर है अनुछेद 370 से जम्मू-कश्मीर का नुकसान हुआ है। इसको राष्ट्रपति के कार्यकारी आदेश मात्र से हटाया जा सकता है। एकात्मकता में बाधक इस अनुछेद को हटाने पर विचार होना चाहिए
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Wednesday 10 August 2016

देर तो हुई पर टिकाऊ होगा जीएसटी कानून (शशि थरूर )

पिछले हफ्तेसंसद के उच्च सदन ने एेतिहासिक सामान और सेवा कर (जीएसटी) विधेयक पारित कर दिया। 25 साल पहले आर्थिक उदारीकरण शुरू करने के बाद से अपनाया गया सबसे बड़ा आर्थिक सुधार कहकर इसका स्वागत किया जा रहा है। सोमवार को निचले सदन लोकसभा ने भी इसे हरी झंडी दे दी। भारतीय संविधान में हुए इस 112वें संशोधन का मीडिया ने जश्न मनाया और निचले सदन में एक भी ऐसा सदस्य नहीं था, जिसने विरोध में मत व्यक्त किया हो। इस गहमागहमी में परदे के पीछे राजनीतिक दलों राज्यों द्वारा जीएसटी के पक्ष में की गई बड़े पैमाने पर कवायद और उसकी गंभीरता की अनदेखी हो गई। उच्च सदन में ऐतिहािसक घटना के पहले 16 साल तक चार सरकारों, 6 केंद्रीय वित्त मंत्रियों (राज्यों के दर्जनों वित्त मंत्रियों की तो बात ही अलग) ने मेहनत की और जीएसटी के मसौदे का कई बार पुनर्लेखन हुआ।
बेशक, यह हमेशा रहस्य बना रहेगा कि भारत ने आंतरिक आर्थिक प्रतिरोध (ब्रिटिश राज की जटिल विरासत) हटाने में इतना लंबा वक्त क्यों लिया। यह आर्थिक तरक्की में बाधक था और सिर्फ राज्यों में बैठे नौकरशाहों को ही इससे फायदा था, जो चकराने देने वाले किस्म-किस्म के टैक्स, कई तरह के शुल्क और सामानों की आवाजाही पर विभिन्न पाबंदियों को लागू करने का लुत्फ उठा रहे थे। फिर वक्त की बर्बादी तो थी ही- राज्यों की सीमाएं पार करने वाले ट्रक अपना चौथाई समय चेकपॉइंट्स की कतारों में ही बर्बाद करते हैं। राजधानी दिल्ली में ही 122 चेकपॉइंट हैं, जहां रोज 20 हजार ट्रक नगर निगम स्तर का प्रवेश कर चुकाने के लिए कतार में घंटों बिता देते हैं। इसी तरह वस्तुओं के उत्पादक अपना सामान भारत के विभिन्न हिस्सों में पहुंचाने (और लालफीताशाही से निपटने ) में अपने कर्मचारियों को किए जाने वाले भुगतान से ज्यादा खर्च करते हैं। जाहिर है यह फायदा कर्मचारियों को पहुंचाकर कार्यक्षमता और उत्पादन की रफ्तार में इजाफा किया जा सकता है।
जीएसटी से जो बाधाएं दूर होने का वादा है, उसमें ये प्रवेश शुल्क शामिल हैं, जिससे देश के 29 राज्यों में माल परिवहन की बोझिलता कम होगी। लॉजिस्टिक और इनवेंटरी की लागत निश्चित ही कम होगी। भारत में बिज़नेस शुरू करने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को 29 पृथक कर नियामक संस्थाओं से जूझना नहीं होगा। इससे निश्चित ही निवेश निवेशकों को प्रोत्साहन मिलेगा। यहां तक कि छोटे अांत्रप्रेन्योर के लिए भी अन्य राज्यों के बाजार तक पहुंचना आसान हो जाएगा। उनके आर्थिक संसाधनों को खाने वाले दर्जनों करों की चिंता उन्हें नहीं रहेगी। और इस सबके बावजूद करों का आधार भी काफी बढ़ जाएगा। फिर एक बिंदु पर कर संग्रहण व्यवस्था से आई कार्यक्षमता का फायदा तो मिलेगा ही। जीएसटी के संभावित फायदे तो बहुत सारे हैं- अनुमान लगाया गया है कि जीएसटी के अमल में आते ही भारत के जीडीपी में 1-2 फीसदी इजाफा हो जाएगा। जहां माल एवं सेवा कर (जीएसटी) ने आकार लेने में वक्त लिया- और यह वह वक्त था, जो ऐसा देश बर्दाश्त नहीं कर सकता, जहां आबादी का पांचवां हिस्सा अब भी गरीबी रेखा के नीचे रह रहा है- लेकिन यह अनिवार्य रूप से उस तथ्य का अंग है, जिसे हम औपनिवेशकाल के बाद का प्रतिबद्ध लोकतंत्र कहते हैं। चीन जैसे एकाधिकारवादी व्यवस्थाओं में ऊपर से फैसले लेने की व्यवस्था में कानून- विरोध के बावजूद बलपूर्वक अपना रास्ता बना लेते हैं वहीं, भारत का विचार इसी सिद्धांत पर आधारित है कि सबकी सुनी जानी चाहिए और अंतिम फैसले में उसका समावेश होना चाहिए। जबर्दस्ती नहीं, आम सहमति भारतीय लोकतंत्र की आत्मा है और इसकी जीत होनी चाहिए चाहे फिर आर्थिक कुंठा हताशा ही क्यों पैदा हों। भारत की आत्मा को किसी कीमत पर नज़रअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
इसके पहले की जीएसटी जमीनी स्तर पर हकीकत बन जाए, कुछ रास्ता अब भी तय होना है और अनुमान लगाया गया है कि सरकार को इसका क्रियान्वयन करने के लिए दो साल का लंबा समय लगेगा। संसद के उच्च सदन, राज्यसभा ने पूरे देश में एक समान क्रांतिकारी कर ढांचे की नींव रख दी है। एक अलग विधेयक के जरिये लागू की जाने वाले कर की साझा दर तय होगी। राज्यों की आमदनी और भारत जैसे देश में आम नागरिक को इसकी जो कीमत चुकानी होगी, दोनों को ध्यान में रखते हुए इस विधेयक की अपनी अलग चुनौतियां होंग। हालांकि, यदि हम यह याद रखें कि इस राह की सबसे बड़ी बाधा तो हमने पार कर ही ली है तो पूरी उम्मीद है कि अगले कदम में विलंब नहीं होगा। दोनों सदनों में जीएसटी संशोधन विधेयक पारित होने से जो ऊर्जा गति पैदा हुई है वह अगले कदम के अनुकूल है। एक बार माहौल तैयार हो जाए तो कई चीजें अपने आप आकार लेने लगती हैं। तय है कि हम इसे अंतिम लक्ष्य तक ले जाएंगे।
जीएसटी भारत में एक ऐसे वक्त में आया है, जब अमेरिका राजनीतिक अनिश्चितता का सामना कर रहा है। संरक्षण वादी अवरोधों बाधाओं के आसन्न खतरे के साथ यूरोप बिखरा हुआ नज़र रहा है, जबकि चीन बलपूर्वक आर्थिक सफलता की राह निकाल रहा है और इसकी काफी कीमत भी चुका रहा है। भारत की रफ्तार चाहे धीमी हो, लेकिन हम जिस चीज का निर्माण कर रहे हैं वह टिकाऊ होने की परीक्षा में सफल सिद्ध होगी, क्योंकि हमने इतिहास से अपने सबक सीखे हैं। 1991 में भारत के सामने आर्थिक उदारीकरण के जरिये अपनी अर्थव्यवस्था को खोलने के अलावा कोई चारा नहीं था। वह विदेशी मुद्रा संकट और आर्थिक संकट का दौर था। वर्ष 2016 में भारत एक अलग ही जगह है- इसके सामने भविष्य की दूरदृष्टि, विज़न है। 21वीं सदी में राष्ट्रों के तारामंडल में अपनी सही जगह पाने की भूख है और अब वह आर्थिक अवसरों को बेकार नहीं जाने देगा। वह आर्थिक कठिनाई के गहनतम दौर से उबर रहा है।
जीएसटी भारत की कहानी में एक और मील का पत्थर है और निश्चित ही यह हमारे 1.30 अरब लोगों के लिए एक बड़ी छलांग की शुरुआत के रूप में रेखांकित होगा।
(येलेखक के अपने विचार हैं।)(DB)

गैरसंक्रामक रोगों का बढ़ता खतरा (डॉ. केनेथ ई. थोर्प)

कैंसर, मधुमेह और हृदय रोग जैसे गैर-संक्रामक रोगों (एनसीडीज) ने आज संक्रामक और संपर्कशीलता से फैलने वाले रोगों को पीछे छोड़ दिया है। इससे देश में जन स्वास्थ्य से संबंधित चुनौतियों में काफी इजाफा हो गया है। एक अनुमान के अनुसार देश में एनसीडी 53 प्रतिशत रोग भार एवं कुल मौतों के 60 प्रतिशत के लिए उत्तरदायी है, लेकिन इस बढ़ते हुए खतरे के प्रति किए जाने वाले उपाय काफी कमजोर हैं और एनसीडी से निपटने की रणनीतियां काफी सीमित हैं। वर्ष 2015-16 में राष्ट्रीय बजट का केवल तीन प्रतिशत हिस्सा ही एनसीडी के लिए आवंटित किया गया था। देश में मातृ-शिशु कार्यक्रमों एवं छूत की बीमारियों पर अब भी सबसे अधिक राशि खर्च की जाती है। एक स्वागतयोग्य कदम उठाते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने देश में गैर संक्रामक रोगों से मुकाबला करने के लिए स्वास्थ्य मंत्रलय की तरफ से उठाए जाने वाले नए उपायों की घोषणा की थी। ‘नेशनल कांफ्रेंस ऑन प्रीवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ मेजर नॉन-कम्यूनिकेबल डिजीज इन इंडिया’ के उद्घाटन के दौरान एक एम-डायबिटीज पहल के लांच के अतिरिक्त उन्होंने प्रशिक्षण संबंधी दिशा-निर्देशों को भी जारी किया, जिसका उद्देश्य स्वास्थ्य कर्मियों को एनसीडी के विषय में लोगों को जागरूक करने का प्रसार करने के लिए तैयार करना एवं स्वस्थ जीवनशैली के उपायों को प्रोत्साहित करने के लिए एक मीडिया कैंपेन चलाना है।
ये कदम सरकार के द्वारा एनसीडी के बढ़ते दबाव को कम करने के लिए स्थायित्वपूर्ण समाधान प्राप्त करने की दीर्घकालिक प्रतिबद्धता की ओर इंगित करते हैं। हालांकि अनेक मोर्चो पर तीव्र प्रगति करने के बावजूद भारत के 1.4 अरब लोगों को समग्रतापूर्ण स्वास्थ्य कवरेज प्रदान करने का राष्ट्रीय लक्ष्य अब भी स्वप्न ही बना हुआ है। इस संदर्भ में अब सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि सरकार स्वास्थ्य सेवा में निवेश में और अधिक वृद्धि करे। जब तक आज एनसीडी से संबद्ध खर्च को कम करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर निवेश नहीं किए जाएंगे, तब तक इससे होने वाला नुकसान कई गुणा बढ़ता चला जाएगा। स्वास्थ्य सेवा से संबंधित वित्तीयन की एक व्यापक प्रणाली के अभाव में लोगों को रोग से होने वाले खर्चे में वृद्धि का सामना करना पड़ता है। भारत जैसे विकासशील देश के लिए एक मात्र जन स्वास्थ्य सेवा वित्तीयन प्रणाली पर निर्भर रहना प्रासंगिक नहीं है, इससे इतनी बड़ी जनसंख्या को लाभ पहुंचाने के बजाय नीतिगत स्तर पर हानि की संभावना बनी रहेगी। इसके बजाय सरकार का ध्यान दूसरे विकल्पों पर केंद्रित होना चाहिए।
प्रत्येक व्यक्ति को गुणवत्ता युक्त स्वास्थ्य सेवा को सुनिश्चित करना नीति नियोजकों के लिए एक बेहद कठिन कार्य है, क्योंकि यहां पर निर्धनता और आर्थिक असमानता काफी अधिक है। यदि अंतरराष्ट्रीय मानदंडों की बात की जाए तो भारत द्वारा स्वास्थ्य सेवा पर किया जाने वाला खर्च जीडीपी का केवल एक प्रतिशत है, जो कि काफी कम है। इसके कारण जन स्वास्थ्य प्रणाली पूरी तरह से चरमराने लगी है और जीवन रक्षक औषधियों की आपूर्ति और चिकित्सकों की कमी जैसे नतीजे दिखाई देने लगे हैं।
गैर-संक्रामक रोगों का आर्थिक प्रभाव काफी व्यापक है, क्योंकि सरकार के द्वारा स्वास्थ्य सेवा पर समुचित खर्च न करने के कारण रोगियों एवं उनके परिवारों पर आर्थिक भार काफी अधिक आ जाता है। 80 प्रतिशत भारतीय चिकित्सकीय उपचारों पर अपने सामथ्र्य से अधिक खर्च करते हैं, जो कि विश्व में सर्वाधिक खर्चो में से एक है। यदि इन रोगों का शीघ्र ही पता लगा लिया जाए तो बाद की जटिल जांचों पर व्यर्थ में होने वाले खर्च को कम किया जा सकेगा, जिससे यह प्रक्रिया कम खर्चीली हो सकती है। मधुमेह, हृदय रोग, फेफड़े के रोग और कैंसर जैसे गैर-संक्रामक रोगों की विलंबित जांच और उपचार के कारण उपचार की लागत बढ़ जाती है एवं दीर्घकालिक स्तर पर स्वास्थ्य और वित्त पर गंभीर प्रभाव नजर आने लगता है। नीतियों को सुसाध्य बनाया जाना आवश्यक है, जो नागरिकों की स्वास्थ्य सेवा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम होना चाहिए। स्वास्थ्य वित्तीयन का उद्देश्य स्वास्थ्य के लिए फंड की उगाही के लिए सार्वभौमिक हेल्थ कवरेज की व्यवस्था करना है। स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में निजी निवेश के लिए निवेशकों को आकर्षित करने के लिए एक सकारात्मक परिवेश भी तैयार करना होगा।
स्वास्थ्य सेवा में दरपेश आने वाली वित्तीय रुकावटों को पूर्वभुगतान के जरिये कम किया जा सकता है और फंड की परवर्ती पूलिंग के जरिये सामथ्र्य से अधिक खर्च को नियंत्रित किया जा सकता है तथा साथ ही साथ सक्षमता व समानता को बढ़ावा देने के लिए फंड का बेहतर आवंटन बेहद आवश्यक है। केंद्र सरकार की राष्ट्रीय जन स्वास्थ्य स्कीम, जो आवश्यक सेवाओं के लिए निजी क्षेत्र की सहभागिता को समायोजित करती है, को प्रति व्यक्ति अथवा परिवार के लिए भिन्न-भिन्न होने के बजाय एक समान तरीके से निश्चित होना चाहिए। प्रभावी सार्वजनिक निजी भागीदारी (पीपीपी) पर निर्भर इस प्रकार का मिश्रित वित्तीयन और प्रावधान भारत के समान सामाजिक-आर्थिक बुनावट वाले अनेक देशों में सफल रहा है, इन देशों में फिलीपींस, वियतनाम, तुर्की और इंडोनीशिया शामिल हैं। भारत की युवा जनसंख्या चिकित्सा के भावी खर्च का सामना करने के लिए बाध्य हो गई है। इस प्रवृत्ति से बचने के लिए एनसीडी और उसके जोखिम संबंधी कारकों के प्रति लोगों में जागरूकता के प्रसार को गति प्रदान करने एवं एक प्रहरी के समान निगरानी प्रणाली की व्यवस्था करनी पड़ेगी। इससे रोग की शुरुआत में ही जांच व रोकथाम परक उपचार के अवसरों में वृद्धि होगी और अंतत: इससे रोग की अंतिम अवस्था में होने वाले उपचार में होने वाले भयानक खर्चो और उससे उत्पन्न होने वाली दरिद्रता को कम कर पाना संभव हो सकेगा। निजी क्षेत्र एक लाभदायक सहभागी साबित हो सकता है और सार्वजनिक संसाधनों के अधिकतम इस्तेमाल और फंडिंग के रास्तों को व्यापक बनाने में मददगार सिद्ध हो सकता है।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत के जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में व्यापक निवेश अवश्यंभावी हो गया है। स्वास्थ्य पर किए जाने वाले वैश्विक साक्ष्य यह दर्शाते हैं कि जब तक एक देश स्वास्थ्य पर अपनी जीडीपी का कम से कम पांच-छह प्रतिशत-सरकारी खर्च का एक बड़ा हिस्सा-नहीं खर्च करता, तब तक मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं की पूर्ति कतई भी संभव नहीं है। भारत को वर्ष 2025 तक स्वास्थ्य सेवाओं पर अपनी जीडीपी का कम से कम 2.5 से तीन प्रतिशत अवश्य ही खर्च करना पड़ेगा, इसके तहत एनसीडी की रोक-थाम व उपचार, स्वास्थ्य सेवा वित्तीयन के नए मॉडलों की खोज एवं व्यावसायिक बीमा की वृद्धि पर विशेष ध्यान केंद्रित करना होगा। इन सभी उपायों से इस साङोदारी में प्रगाढ़ता आएगी एवं इससे प्राथमिक, द्वितीयक और त्रितीयक स्तर पर स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता एवं कवरेज में सुधार होगा तथा सरकार और निजी क्षेत्र दोनों एक साथ मिल कर भारत पर एनसीडी के कारण पड़ने वाले मानवीय एवं आर्थिक दबाव को कम करने के लिए }लूप्रिंट को तैयार करने में सहायता कर सकते हैं।
(लेखक पार्टनरशिप टु फाइट क्रॉनिक डिजीज के चेयरमैन हैं)(Dj)