Monday 22 August 2016

विश्व व्यवस्था के लिए संकट बनता चीन (अवधेश कुमार)

चीनी विदेश मंत्री की हाल की भारत यात्रा के पहले चीन ने भारत को प्रकारांतर से यह चेतावनी दी कि वह उसके विदेश मंत्री वेंग येई की यात्र के दौरान दक्षिण चीन सागर पर कोई बात न करे। वेंग की यात्रा की जितनी खबर आई उसमें भारत ने संभवत: दक्षिण चीन सागर पर कोई बात नहीं की। हालांकि इसकी पुष्टि कठिन है। जो खबरें आई हैं उनके अनुसार एनएसजी से लेकर हाफिज सईद एवं मौलाना मसूद अजहर तक के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रस्ताव का विरोध करने का मामला अवश्य उठाया गया। इसके पहले विश्व कूटनीति में ऐसे अवसर शायद ही आए होंगे जब कोई देश अपने नेता के दौरे के पूर्व मेजबान देश को इस तरह की चेतावनी दे। चीन के मामलों में रुचि रखने वाले लोग सवाल उठा रहे हैं कि आखिर चीन कौन होता है यह तय करने वाला कि हम क्या बात करें और क्या न करें? भारत में जो भी भावना हो, दुनिया के लिए यह भले अशिष्टता हो या कूटनीतिक मर्यादाओं का अतिक्रमण, यह चीन की कूटनीति का नमूना है। उसे जो करना है करता है। जो कहना है उसे बिना लाग लपेट के व्यक्त करता है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विद्वानों के लिए भी कई बार चीन के ऐसे रवैये के बारे में उपयुक्त श}दावली ढूंढ़ना कठिन हो जाता है। प्रश्न है कि चीन के रवैये पर भारत को क्या करना चाहिए? क्या हम दक्षिण चीन सागर मसले पर खामोश रह सकते हैं?
ग्लोबल टाइम्स चीन का सरकारी अखबार है और उसकी बात सरकार की बात मानी जाती है। वह लिखता है कि अगर भारत आर्थिक सहयोग के लिए अनुकूल माहौल की इछा रखता है तो उसे वेंग की यात्रा के दौरान दक्षिण चीन सागर के मसले पर अनावश्यक रूप से उलझने से बचना होगा। उसकी एक पंक्ति देखिए, ‘यदि भारत चीन से उदार रवैया अपनाने की इच्छा रखता है तो ऐसे मौकों पर बीजिंग के साथ संबंधों को खराब करना मूर्खता होगी।’ स्पष्ट है कि चीन के वक्तव्य में कहीं कोई लाग-लपेट नहीं है। वह साफ कह रहा है कि अगर आपने दक्षिण चीन सागर का मामला किसी तरह उठाया तो फिर हमारे साथ आपके संबंध खराब हो जाएंगे। वह एक तरह से यह भी कह रहा कि दक्षिण चीन सागर मसले पर भारत की कोई भूमिका नहीं। दक्षिण चीन सागर पर चीन का ऐसा रवैया केवल भारत के साथ नहीं है। वह दुनिया भर को पहले से चेतावनी दे रहा है कि कोई देश वहां हस्तक्षेप न करे। अगर हस्तक्षेप किया तो फिर युद्ध के लिए तैयार रहे।
दक्षिण चीन सागर पर हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने अपने फैसले में स्पष्ट किया है कि उस पर चीन के दावे का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। इस फैसले के बाद उसका पक्ष दुनिया की नजर में कमजोर हुआ है, किंतु दूसरी ओर वस्तुस्थिति यह है कि चीन इस समुद्री क्षेत्र के 80 प्रतिशत से यादा भाग पर क}जा कर चुका है। इसके लिए वह युद्ध की सीमा तक जाने को तैयार है। उसने दक्षिण चीन सागर के द्वीपों पर तीन हजार मीटर का रनवे बनाया है ताकि वहां फाइटर जेट उतारे जा सकें। उसके यद्धक विमान वहां ठहरने और उड़ाने भरने की स्थिति में हैं। उसकी और भी तैयारी है। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का फैसला आने के कुछ ही दिन बाद उसने वहां रक्षा अभ्यास शुरू कर दिया। यह रक्षा अभ्यास दरअसल चीन का विरोध करने वाले सभी देशों को संदेश था कि अगर आपने कुछ किया तो फिर हमसे युद्ध करना होगा। ग्लोबल टाइम्स के माध्यम से उसने वियतनाम को भी यह कह कर चेतावनी दी कि इस इलाके में वियतनाम के सैनिकों की गतिविधि एक बहुत बड़ी गलती है। उसे इतिहास से सबक लेना चाहिए। वियतनाम भी दक्षिण चीन सागर के कुछ क्षेत्रों पर दावा करता है और उसका दावा वैध है। कुछ दिन पहले वियतनाम ने रॉकेट लांचर्स भेजे थे। ग्लोबल टाइम्स ने चीन को एक तरह से यह याद दिलाया कि कैसे उसने 1988 में वियतनाम नौसना को पराजित कर दक्षिण चीन सागर क्षेत्र के द्वीपों पर क}जा किया था।
चीन के तेवरों को देखते हुए भारत को दी गई चेतावनी आश्चर्यजनक नहीं है। दक्षिण चीन सागर चीन के दक्षिण में प्रशांत महासागर का एक भाग है जो सिंगापुर से लेकर ताइवान की खाड़ी तक लगभग 35 लाख वर्ग किमी में फैला हुआ है। पांच महासागरों के बाद यह दुनिया के सबसे बड़े जलक्षेत्रों में एक है। इस पर चीन के अलावा फिलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, ताइवान और ब्रूनेई दावा करते हैं। इसमें 213 अरब बैरल तेल और 900 खरब घनफीट प्राकृतिक गैस भंडार होने का अनुमान है। चीन ने 2013 में एक बड़ी परियोजना आरंभ की एवं पानी में डूबे रीफ क्षेत्र को कृत्रिम द्वीप में बदल दिया। चीन के ऐसे रवैये के चलते यह सवाल भारत के सामने है कि वह क्या करे? चीन की चेतावनी के बाद भारत इस मसले पर बिल्कुल चुप हो जाए या फिर विश्व समुदाय की भावनाओं और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले का ध्यान रखते हुए हिम्मत के साथ जो सच है वह बोले?
दक्षिण चीन सागर से भारत का भी हित जुड़ा है, क्योंकि वियतनाम ने अपने दावे वाले समुद्री क्षेत्र में तेल और गैस खोजने का ठेका भारतीय कंपनी को दिया हुआ है। अगर ऐसा न भी होता तब भी इतने बड़े जलक्षेत्र पर जबरन कोई देश अधिकार जमाए, उसके कुछ भाग को अपने सैन्य क्षेत्र में बदलकर अपनी सामरिक स्थिति मजबूत कर ले और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तक का फैसला मानने से इन्कार करे तो यह ठीक नहीं कि हम इस डर से बैठे रहें कि संबंध खराब हो जाएंगे। अगर हम ऐसा करेंगे तो फिर हमारा अस्तित्व क्या रह जाएगा? फिर ऐसे दूसरे मसलों पर भारत साहस के साथ कैसे अपनी बात रख सकेगा? संबंध ठीक रखने की आवश्यकता केवल भारत को नहीं है। चीन को भी भारत की आवश्यकता है। भारत के साथ व्यापार में चीन करीब 32 अरब डॉलर से यादा के लाभ में है। जिस आर्थिक संबंधों का हवाला चीनी नेता दे रहे हैं उनकी यादा जरूरत उनको है न कि भारत को। भारत की नीति किसी देश के साथ धौंसपट्टी से पेश आना नहीं है, किंतु कोई धौंसपट्टी से पेश आए तो क्या भारत चुपचाप सहन कर लेगा? चीन ने भारत की भावनाओं का कभी ध्यान नहीं रखा है। जब वह सरेआम अरुणाचल पर अपना दावा करता है तो क्या भारत की भावना का या संबंधों को ख्याल रखता है?
वह पाकिस्तान के साथ मिलकर पाक अधिकृत कश्मीर में आर्थिक गलियारा बना रहा है जिसका भारत ने इस कारण विरोध किया कि वह विवादित इलाका है और उस पर दावा हमारा है। जब चीन ने भारत की नहीं सुनी तो फिर भारत चीन की क्यों सुने? वह भी ऐसे मामले पर, जिसमें अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का फैसला आ चुका है। इस तरह अपनी सामरिक और आर्थिक मांसपेशियां दिखाकर कोई अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले तक को चुनौती देने लगे तो फिर यह विश्व व्यवस्था जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली हो जाएगी। ऐसा न होने देने का दायित्व भारत का भी है। इसलिए भारत को उचित अवसर पर वाजिब बात बोलनी ही चाहिए। चीन अगर अपनी जिद में सफल हो जाता है, उसका विरोध नहीं होता और दक्षिण चीन सागर से उसे पीछे हटने को मजबूर नहीं किया जाता तो उसके बाद भारत के लिए वह ज्यादा परेशानियां खड़ी करेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)(DJ)

No comments:

Post a Comment