Wednesday 10 August 2016

पुनः स्थापित होता होता प्राचीन विज्ञान अभिषेक कुमार

हमारा देश विज्ञान में आज जिस मुकाम पर है, उससे जुड़े तथ्य हरेक देशवासी को गौरव से भर सकते हैं। दो साल पहले 2014 में मंगलयान जैसी उपलब्धि को पूरी दुनिया ने सराहा है और ऊर्जा, परमाणु तकनीक, अंतरिक्ष आदि कई क्षेत्रों में भारतीय वैज्ञानिक दुनिया को टक्कर देने की हैसियत में हैं। विज्ञान संबंधी शोध में कमी और वैज्ञानिक प्रतिभाओं के पलायन जैसी कुछ समस्याएं जरूर एक चुनौती बनी हुई हैं, लेकिन विज्ञान की तरक्की का मामला अब इतना पिछड़ा हुआ नहीं है कि इसके लिए प्राचीन संदर्भों की ढूंढ़-खोज की कोई जरूरत पैदा हो। लेकिन जिस तरह से देश के उत्तरी पर्वतीय राय उत्तराखंड में इधर संजीवनी बूटी को खोज निकालने का अभियान शुरू करने का ऐलान वहां की सरकार ने किया है, उससे यह सवाल पैदा होना लाजिमी है कि यह कोशिश क्या सिर्फ एक महाआख्यान (रामचरित मानस) के कुछ प्रसंगों की सत्यता साबित करने के लिए हो रही है या फिर चिकित्सा जगत को एक नई औषधि दिलाने की भूमिका में प्राचीन वैदिक-वैज्ञानिक भारत की पुनस्र्थापना की जा रही है।
जहां तक संजीवनी बूटी की नए सिरे से खोज की बात है, तो उत्तराखंड सरकार के मुताबिक वह काफी पहले इसका प्रस्ताव वित्तीय मदद की आस में केंद्र सरकार के पास रख चुकी है, लेकिन वहां से कोई रुचि नहीं लिए जाने पर अब उत्तराखंड सरकार ने 25 करोड़ रुपये के खर्च से यह काम खुद ही करने का बीड़ा उठा लिया है। हालांकि इससे पहले 2009 में राज्य की तत्कालीन भाजपा सरकार ने इसके लिए कमेटी गठित की थी, उसी वर्ष शोध जर्नल करंट साइंस में कुछ शोधकर्ताओं ने उत्तराखंड में पाए जाने वाले कुछ पौधों में संजीवनी बूटी जैसे गुणों-लक्षणों का दावा किया था, वर्ष 2014 में लेह के डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ एटीट्यूड रिसर्च ने रोडियाला नामक पौधे में संजीवनी बूटी जैसी चमत्कारी जड़ी-बूटी जैसे गुणों की बात कही थी और रामदेव के पतंजलि योगपीठ ने उत्तराखंड की द्रोणागिरी पहाड़ियों में इस बूटी जैसे पौधों की मौजूदगी का दावा किया था। पर अब तक की कोशिशों से संजीवनी बूटी की प्रामाणिकता साबित नहीं हो सकी, लिहाजा उत्तराखंड सरकार इस दावे की सत्यता की थाह पाने का एक प्रयास और कर लेना चाहती है। वक्त ही बताएगा कि पांच सदस्यीय कमेटी वाले इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट का आखिर में क्या नतीजा निकलता है, पर यदि इसे प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान की पुनः स्थापना के प्रयासों की श्रृंखला में एक कड़ी के रूप में देखें तो इसका एक औचित्य अवश्य समझ में आता है। असल में इसकी एक शुरुआत पिछले साल (2015 में) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की 102वीं बैठक के दौरान ही हुई थी। यह पहला मौका था जब प्राचीन उल्लेखों के सहारे विकसित पश्चिमी मुल्कों की वैज्ञानिक प्रगति को बौना साबित करने के सिलसिले के रूप में इस सालाना जलसे में संस्कृत और विज्ञान के जानकारों की सलाह पर प्राचीन विज्ञान का विषय जोड़ा गया था। पर ऐसा करते ही देश में एक बड़ी बहस उठ खड़ी हुई। कहा गया कि मौजूदा संदर्भों में प्राचीन वैदिक भारतीय विज्ञान की बात उठाना बेमानी है। एक आक्षेप की तरह यह सवाल उठाया गया कि क्या विज्ञान के प्राचीन भारतीय या वैदिक संदर्भों में कोई सचाई है भी या फिर यह पूरा मामला दक्षिणपंथी सरकार के सत्ता में आने का नतीजा है? इसी आपत्ति के मद्देनजर साइंस कांग्रेस में ‘प्राचीन भारतीय वैमानिकी प्रौद्योगिकी’ पर लेक्चर को रोकने के प्रयास किए गए थे। अमेरिकी स्पेस एजेंसी- नासा में काम कर रहे भारतीय मूल के वैज्ञानिक डॉ. राम प्रसाद गांधीरमन ने एक ऑनलाइन मुहिम (पिटिशन) शुरू की थी, जिसे 200 से ज्यादा वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों का समर्थन भी मिला था। डॉ. गांधीरमन ने प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार, वैज्ञानिक सचिव और आइआइटी के निदेशकों को भी इस मामले में ईमेल भेजा था।
वहीं आइआइटी मुंबई और आइआइएससी के वैज्ञानिकों ने भी इस पर आपत्ति जताते हुए कहा था कि विशुद्ध वैज्ञानिक मंच पर गैरजरूरी और कपोल कल्पित विषयों की चर्चा करना इस मंच यानी साइंस कांग्रेस का अपमान है। समर्थन और विरोध के इस सिलसिले कुछ राजनेता भी कूद पड़े थे। जैसे, तत्कालीन वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा था कि प्राचीन भारत का विज्ञान तर्कसंगत है, इसलिए इसे सम्मान से देखा जाना चाहिए। उनका साथ केंद्रीय विज्ञान और तकनीक मंत्री हर्षवर्धन ने यह कहकर दिया था कि प्राचीन भारतीय ऋ षियों (वैज्ञानिकों) ने खुशी-खुशी अपनी खोज का श्रेय दूसरे देशों के वैज्ञानिकों को दे दिया।
वैदिक और पौराणिक उल्लेखों के सहारे देश के प्राचीन गौरव की पुनः स्थापना के प्रयासों की इस मुहिम में संजीवनी बूटी की खोज का यह नया अभियान निश्चय ही उस बहस को फिर उठाएगा- इसमें संदेह नहीं है। इन कोशिशों के समर्थक यह अवश्य कहेंगे कि प्राचीन काल में हमारा देश ज्ञान-विज्ञान के मामले में विकसित पश्चिमी देशों से आगे था, लेकिन अंग्रेजों की गुलामी और कई अन्य कारणों से हमारे आविष्कारक अपनी खोजों को आगे बढ़ाने में सफल नहीं हुए और इस कारण देश कई उपलब्धियां पाने से वंचित हो गया।
यह बात तो संदेह से परे है कि हमारे जीवन की कई उपयोगी चीजों की खोज और महत्वपूर्ण आविष्कार भारत में शेष दुनिया से काफी पहले हो चुके थे। शून्य भारत का आविष्कार है और सुश्रुत व चरक संहिताओं में चिकित्सा के नए आयामों की सबसे पहले खोज की गई थी। हो सकता है कि आगे चलकर कल्पित संजीवनी बूटी ही नहीं, आयुर्वेद को भी किसी और देश के साथ जोड़कर उसे आधुनिक शास्त्र का जामा पहनाने की कोशिश हो। तो समस्या क्या है जिसे लेकर गाहे-बगाहे हंगामा होता रहता है और जिसके समाधान की जरूरत है। असली दिक्कत यह है कि जिन प्राचीन वैदिककालीन उल्लेखों के सहारे भारतीय विज्ञान की महत्ता साबित करने की कोशिश की जा रही है, उनके समर्थन में अन्य दस्तावेजों या प्रत्यक्ष प्रमाणों का अभाव है। मसलन, संजीवनी बूटी को ही लें तो रामचरित मानस से बाहर इसकी कोई अन्य दस्तावेजी प्रामाणिकता नहीं है और यह बूटी तो अभी वजूद में ही नहीं मानी जाती है। इसी तरह प्राचीन भारतीय विमान के संबंध में वैमानिक प्रकरणम् में दर्ज दावों को न तो दूसरा कोई ग्रंथ प्रमाणित करता नजर आ रहा है और न ही उसमें सुझाई गई तकनीक से बनाया गया कोई प्राचीन विमान भारत के पास सबूत के तौर पर है। ये दावे अविश्वसनीय भी जान पड़ते हैं, क्योंकि पारे (मर्करी) को ईंधन बनाकर विमान की उड़ान संभव ही नहीं है और संजीवनी बूटी जैसी चमत्कारी औषधि भी नदारद है। प्रश्न यह है कि अब किया क्या जाए? निश्चय ही हमारी प्राथमिकता देश को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ाने की होनी चाहिए। देश में नई और कायदे की रिसर्च का माहौल बने और पश्चिमी की चुराई हुई या कॉपी की गई तकनीकों की बजाय आधुनिक-स्वदेशी तकनीकों का इस्तेमाल बढ़े। यह आधुनिक साइंस, मेडिकल, रक्षा, कंप्यूटर व चिकित्सा- यानी हर क्षेत्र में हो। ऐसा करके ही देश अपना पिछड़ापन दूर कर सकता है और विज्ञान के मोर्चे पर वह मुकाम हासिल कर सकेगा जिसका वह हकदार है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(DJ)

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