Wednesday 10 August 2016

सीमाओं का संवेदनशील सच (विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी)

एक औसत भारतीय नागरिक के मन में सरहद या सीमा शब्द को सुनकर कैसे बिंब उभरते हैं? अगर कहें कि सीमा उसके लिए काफी हद तक अमूर्त और मिथकीय प्रसंग है, तो इसे अन्यथा नहीं लिया जाना चाहिए। एक ऐसे समाज के लिए, जो अब भी आधुनिक अर्थों में राष्ट्र-राज्य बनने की प्रक्रिया से गुजर रहा है, यह बहुत अस्वाभाविक नहीं है कि राष्ट्रवाद के तमाम विमर्शों के बावजूद सीमा को लेकर अधिकांश भारतीय बहुत स्पष्ट नहीं हैं।
हाल में उत्तराखंड में कुछ चीनी सैनिकों द्वारा भारतीय सीमा के इस पार चले आने पर जो प्रतिक्रियाएं हुईं, वे इसी उलझन का प्रमाण हैं। उनकी इस हरकत को विपक्ष ने सीमा का अतिक्रमण कहा, तो रक्षा मंत्री के अनुसार, यह एक अस्पष्ट सीमा पर अक्सर और गलती से हो जाने वाले उल्लंघन से अधिक कुछ नहीं है।
सीमा पर किसी विमर्श की शुरुआत करने से पहले हमें इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए कि पड़ोसी राष्ट्रों से लगने वाली हमारी सीमाएं ब्रिटिश साम्राज्य की बनाई हुई हैं। सुगौली संधि (भारत-नेपाल), डूरंड लाइन (भारत-अफगानिस्तान, अब पाकिस्तान-अफगानिस्तान), मैकमोहन लाइन (भारत-चीन) या भारत और पाकिस्तान का बंटवारा करने वाला रेडक्लिफ अवार्ड गौरांग महाप्रभुओं की देन है। सीमा रेखाओं का निर्धारण करते समय अंग्रेज शासकों ने अपने सामरिक और आर्थिक हित ध्यान में रखे थे और जिन सरकारों से उन्होंने ये समझौते किए, उनके मुकाबले वे खुद बहुत ताकतवर थे और अक्सर समझौतों पर हस्ताक्षर करने के बाद दूसरा पक्ष असंतुष्ट ही अधिक नजर आता था। मैकमोहन लाइन और डूरंड लाइन इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं, जिनके कारण आज तक भारत व चीन और पाकिस्तान व अफगानिस्तान के रिश्तों में तनाव बना हुआ है।
भारत की थल सीमा चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार, भूटान और जल सीमा पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव व श्रीलंका से मिलती है। चीन और रूस के बाद यह तीसरी सबसे बड़ी अंतरराष्ट्रीय सीमा है। सर क्रीक को छोड़ दें, तो मुख्य समस्या थल सीमाओं को लेकर है, जो 15 हजार किलोमीटर से अधिक है। इनमें सारा कुछ विवादित नहीं है। अधिकांश संबंधित पक्षों को मान्य है और इसे राजनय में प्रचलित शब्दावली के अनुसार अंतरराष्ट्रीय सीमा या इंटरनेशनल बॉर्डर (आमतौर से आईबी) कहा जाता है। आईबी सीमा पर छोटे-बड़े खंभों या ऐसे ही किसी निशान से निर्धारित की जाती है और उसकी सुरक्षा सेना करती है। उन पर तैनात सेना की नफरी या अस्त्र-शस्त्र स्थानीय संवेदनशीलता पर निर्भर करते हैं।
भारत में सीमा-प्रबंधन के संदर्भ में आईबी बड़ी समस्या नहीं है। युद्धों ( 1962, 1965, 1971 ) के दौरान ही उनका उल्लंघन हुआ है। समस्या उस सीमा की है, जिसे लेकर दो पड़ोसियों में सहमति नहीं है।
सबसे पहले मैकमोहन लाइन को लें। 1914 के शिमला समझौते के अनुसार, पश्चिम में भूटान से पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी को छूने वाली 1,100 किलोमीटर से अधिक लंबी यह रेखा भारत और तत्कालीन तिब्बत व वर्तमान चीन के बीच सीमा का निर्धारण करती है। चीन का मानना है कि कमजोर तिब्बत के प्रतिनिधि को दबाकर और चीनी प्रतिनिधि की आपत्तियों को नजरअंदाज करके ब्रिटिश वार्ताकारों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर करा लिए थे। भारत और चीन की समझ में बुनियादी फर्क होने के कारण दोनों देश 1962 में युद्ध लड़ चुके हैं और अब इस सीमा को वास्तविक नियंत्रण रेखा या लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) कहते हैं और इस पर अक्सर उत्तराखंड जैसी स्थितियां उत्पन्न होती रहती हैं, जब भारतीय अखबारों की सुर्खियों में चीनी घुसपैठ की खबरें दिखने लगती हैं। इस सीमा पर शांति काल में सुरक्षा का दायित्व इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस (आईटीबीपी) के पास है। 1962 के अनुभवों की देन यह अपेक्षाकृत छोटा अद्र्धसैनिक बल मुश्किल परिस्थितियों में अपना काम अंजाम दे रहा है।
प्रतिष्ठित पत्रिका फॉरेन पॉलिसी में 2011 में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, दुनिया की सबसे संवेदनशील भारत-पाक सीमा को अलग-अलग नामों से जाना जाता है। यह गुजरात, राजस्थान, पंजाब और जम्मू से लगी आईबी है। सियाचिन-ग्लेशियर में 100 किलोमीटर से कुछ अधिक क्षेत्र को एक्चुअल ग्राउंड पोजीशन लाइन (एजीपीएल) कहा जाता है। यहां सीमा वहां है, जहां भारतीय और पाकिस्तानी जवान समय-समय पर बैठ जाते हैं। कश्मीर घाटी और जम्मू अंचल में 1948 की झड़पों के बाद हुए युद्ध-विराम ने पहले सीज फायर लाइन बनाई, जो 1965 के युद्ध के बाद एलएसी बनी और शिमला समझौते में इसे भारत ने आईबी का दर्जा दिलाने का प्रयास किया, पर सहमति हुई एक नए नामकरण एलओसी या लाइन ऑफ कंट्रोल (नियंत्रण रेखा) पर। आज पाकिस्तान इसे वर्किंग बाउंड्री और भारत आईबी कहता है। इस सीमा का भी जितना भाग अविवादित आईबी है, उसकी सुरक्षा का दायित्व सीमा सुरक्षा बल का है। यह एक चुनौतीपूर्ण दायित्व है, क्योंकि यहीं से सबसे अधिक घुसपैठ और तस्करी के प्रयास होते हैं।
इनके अतिरिक्त बांग्लादेश, म्यांमार, भूटान और नेपाल की सीमाओं पर विवाद न होने के कारण वहां अपेक्षाकृत शांति है। सीमा सुरक्षा बल, असम राइफल्स इनकी रखवाली करते हैं। इनमें सिर्फ बांग्लादेश के साथ कुछ विवाद थे। मोदी सरकार ने उनमें से अधिकतर सुलझा लिए हैं, इसलिए अब वहां भी कमोबेश सौहार्द है।
सीमा-प्रबंधन एक बहुत ही संवेदनशील, पेशेवर और धैर्य की मांग करने वाला क्षेत्र है, जिसमें अंध-राष्ट्रवादी पदावलियों से अक्सर काम नहीं चलता। मैंने ऊपर जिक्र किया है कि अपने पड़ोसियों से हमारी सभी आधुनिक सीमाएं ब्रिटिश साम्राज्य की देन हैं, जो अपने समय में विश्व की एक बड़ी ताकत था। हम अब भी एक राष्ट्र-राज्य बनने की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं और इसीलिए सीमा को लेकर हमारा रवैया काफी हद तक मिथकीय है। हमें समझना होगा कि पड़ोसियों से अच्छे संबंध ही सबसे अच्छे सीमा प्रबंधन की गारंटी है। ताजा उदाहरण बांग्लादेश का है। हालिया समझौते ने दोनों देशों के बीच रेल, बिजली, सड़क, दूरसंचार जैसे सहयोग के अनगिनत क्षेत्र खोल दिए हैं। मैकमोहन लाइन को लेकर हमें इसी तरह का लचीला रुख अपनाना होगा। एक बार चीन से सीमा विवाद समाप्त होने के बाद आर्थिक सहयोग के जो अवसर पैदा होंगे, उनकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है। पाकिस्तान के साथ भी सियाचिन व सर क्रीक जैसे विवाद, दोनों पक्षों के थोड़ी-सी जिद छोड़ने से हल हो सकते हैं। इन पर कई बार हल के करीब पहुंचकर बात उलझ गई है। कश्मीर जरूर समय लेगा, पर उसमें भी धैर्य से लगे रहने की जरूरत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)(हिंदुस्तान )

No comments:

Post a Comment