Monday 22 August 2016

यह बर्फ पिघल गई तो कहां रहेंगे हम (जॉन विडाल, पर्यावरण संपादक, द गार्जियन)

बर्फ का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक आमतौर पर हंसमुख और व्यावहारिक होते हैं। पीटर वदाम्स भी अपवाद नहीं हैं। स्कॉट पोलर रिसर्च इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक और कैंब्रिज में ओशन फिजिक्स के इस प्रोफेसर ने अपना पूरा जीवन बर्फ की दुनिया को जानने-समझने में बिताया है, और अपनी इस यात्रा में उन्होंने कई अकल्पनीय बदलाव देखे हैं। 1970 में जब वह पहली बार ध्रुवीय अभियान पर निकले, तब आर्कटिक महासागर सितंबर में कम से कमआठ मीटर बर्फ की परत से ढका था। आज यहां महज 3.4 मीटर की परत है, जो हर दशक 13 फीसदी की दर से पिघल रही है। नासा की नई किताब बताती है कि जुलाई, 2016 अब तक का सबसे गरम महीना था। जिस डर की ओर बाकी वैज्ञानिक दबी जुबान में इशारा कर रहे हैं, वदाम्स खुलेआम उसे कह रहे हैं। वह कहते हैं, आर्कटिक मौत का ऐसा कुचक्र बनता जा रहा है, जहां आने वाले दिनों में बर्फ की तमाम परतें गरमी में पूरी तरह पिघल जाएंगी। सितंबर में वहां बर्फ नहीं होगी, और ऐसा चार-पांच माह तक बना रहेगा। ग्रीनहाउस गैसों का अत्यधिक उत्सर्जन इसकी वजह बनेगा।
यह हमारे लिए तबाही से कम नहीं। आर्कटिक की बर्फ अप्रत्याशित या फिर असामान्य मौसम के कुप्रभावों से हमें बचाती है। और आज असामान्य मौसम से हम अपेक्षाकृत अधिक जूझ रहे हैं। आज धरती 19वीं सदी के मुकाबले 1.3 सेल्सियस अधिक गरम हो चुकी है, और साल 2016 अब तक का सबसे गरम साल साबित होने वाला है। ब्रिटेन और उत्तरी यूरोप में बेशक औसत तापमान रहे हैं, मगर पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका व दक्षिण-पूर्व एशिया की 50 करोड़ आबादी ने अल नीनो की वजह से अकाल और अपेक्षाकृत अधिक गरम दिन व रात झेले हैं। इतना ही नहीं, पिछले एक दशक में चीन, भारत और अमेरिका ने भी सबसे लंबी गरमी और बदतरीन बाढ़ को देखा है। अंदेशा गलत नहीं कि यहां आने वाले महीनों में बेमौसम व अप्रत्याशित बारिश की वजह से करीब 10 करोड़ लोग खाद्यान्न संकट से जूझेंगे।
पिछले वर्ष पेरिस में तमाम देशों ने एक लक्ष्य तय किया था कि वे वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित रखने की कोशिश करेंगे। हम इस खतरनाक स्तर के करीब हैं, और तेजी से तीन से चार डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि की ओर बढ़ रहे हैं। अगर ऐसा हुआ, तो यह दुनिया रहने के काबिल नहीं रह जाएगी। ऐसे में सवाल यही कि आखिर इससे कैसे बचा जाए? निश्चय ही तुरंत कदम उठाने की जरूरत है, मगर भू-इंजीनियरिंग में आगे बढ़ने से पहले विज्ञान, इंजीनियरिंग और शासन से जुड़े बड़े सवालों के भी जवाब तलाशने होंगे। असल में, जलवायु परिवर्तन अनदेखी व मूर्खता का परिणाम है, और महज भू-इंजीनियरिंग से इसका हल नहीं निकल सकता। इसका एकमात्र हल यही है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम किया जाए, और वह भी बहुत तेजी से। (हिन्दुस्तान )

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