Monday 22 August 2016

आतंकवाद के दौर में गांधी की याद (राजकिशोर )

महात्मा गांधी का संदेश अगर कहीं बहुत कमजोर और असहाय पड़ता नजर आता है, तो वह आतंकवाद का मुद्दा है। इसी मुद्दे पर गांधी जी का संदेश लाचार-सा दिखाईपड़ता है। गांधी जी का जन्म दिवस दो अक्टूबर कोईज्यादा दूर नहीं है। हर वर्ष की भांति उस दिन देश भर में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे और वक्तागण इस बात को असंख्यौवीं बार दुहराएंगे कि बापू ने सत्य और अहिंसा की जो महान विरासत छोड़ी है, वही मानवता की मुक्ति का एकमात्र मार्ग है। लेकिन उस अवसर पर कोई यह नहीं पूछेगा कि आतंकवाद का सामना करने के लिए गांधी जी क्या रास्ता दिखा गए हैं। संभवत: किसी के दिलोदिमाग में यह जानने की जिज्ञासा तक नहीं होगी कि गांधी जी का दिखाया गया यह रास्ता क्या है। अगर किसी ने पूछ दिया, तो वक्ता की घिग्घी बंध जाएगा। या तो वह बगले झांकने लग पड़ेगा या तो वह कोई अनाप-शनाप उत्तर देगा या बहुत स्मार्ट होगा तो कहेगा कि गांधी जी के समय में आतंकवाद नाम की समस्या ही नहीं थी, इसलिए इस विषय पर उनकी राय उपलब्ध नहीं है। लेकिन यह वंचना है या पलायन। गांधी जी अगर आज भी प्रासंगिक हैं, तो यह प्रासंगिकता हर क्षेत्र में नजर आनी चाहिए। यह स्वीकार्य नहीं है कि कुछ समाधान गांधी के पास हों और कुछ सेना के पास। हिटलर के उदय और द्वितीय विश्व युद्ध के समय में भी गांधी जी को निरु त्तर करने के लिए उनसे इस तरह के सवाल किए जाते थे। और हर बार महात्मा का जवाब अविश्वसनीय होता था। वे कहते थे कि अगर किसी आक्रमणकारी देश की सेना ने हम पर आक्रमण कर दिया है, तो हमारा कर्तव्य यह है कि हम निहत्थों की मानव दीवार बना कर उसके सामने खड़े हो जाएं। सेना आखिर कितने लोगों की जान लेगी? अंत में वह इस अहिंसक शक्ति के सामने हथियार डाल देगी और आक्रमण करने वाला तथा जिस पर आक्रमण हुआ है, वे दोनों फिर से भाई-भाई हो जाएंगे। जब फासिस्ट जर्मनी ने इंग्लैंड पर हमला किया था, तो अंग्रेजों को गांधी जी की सलाह यही थी। लेकिन इस पर किसी ने भी अमल नहीं किया। युद्ध का जवाब युद्ध से दिया गया। दरअसल, मानवीय स्वभाव में इस प्रकार की प्रवृत्ति, जिसे अहिंसा कह सकते हैं, हमेशा से विद्यमान होने के बावजूद गौण ही रहती है। बड़े जतन और साधना से ही इस मौलिक गुण को उभारा जा सकता है। तो क्या यही वजह है कि दूसरा महायुद्ध समाप्त होने के बाद से धरती से युद्ध और हथियार की समस्या खत्म नहीं हुई है। दुनिया उसी दोराहे पर खड़ी रह गई जहां हिंसा नित मानवीयता और मौलिक मानवीय गुण अहिंसा को चुनौती देती दिखती है। लेकिन आतंकवाद की समस्या युद्ध से भी अधिक जटिल है। युद्ध में दुश्मन प्रत्यक्ष होता है, जबकि आतंकवादी छिप कर वार करता है। इस सात परदे में छिपे हुए खूंखार जानवर के सामने अहिंसा की ताकत को कैसे आजमाया जाए? फिर, यह स्थानिक से कहीं ज्यादा सर्वस्थानिक है। इसके ओरछोर में इतना फैलाव है कि इंसान इस समस्या के सामने लाचार दिखने लगा है। एक बात और वह यह कि आतंकवाद के पनपने के लिए कुछखास परिस्थितियां होती हैं, जो इसे पाल-पोस कर पुष्ट कर देती रही हैं। इस संदर्भ में निवेदन यह है कि जब भी आतंकवाद के गांधीवादी समाधान के बारे में पूछा जाता है, तो इरादा यह होता है कि सारी वर्तमान व्यवस्था यूं ही चलती रहे और तब बताओ कि गांधीवाद आतंकवाद को खत्म करने का क्या तरीका सुझाता है। क्या यह सवाल कुछ इस तरह का सवाल नहीं है कि मैं अभी की ही तरह आगे भी खाता-पीता रहूं, मुझे अपनी जीवनर्चया में कोई परिवर्तन न करना पड़े, तब बताओ कि मधुमेह की मेरी बीमारी कैसे ठीक होगी? विनम्र उत्तर यह है कि यह कैसे संभव है? स्वास्य लाभ करने के लिए वह जीवन शैली कैसे उपयुक्त हो सकती है, जिससे बीमारी पैदा हुई है? जिन परिस्थितियों के चलते आतंकवाद पनपा है, उन परिस्थितियों के बरकरार रहते आतंकवाद से संघर्ष कैसे किया जा सकता है? गांधीवाद तो क्या, किसी भी वाद के पास ऐसा कैप्सूल नहीं हो सकता जिसे खाते ही हिंसा के दानव को परास्त किया जा सके।दरअसल, हिंसा के मौलिक इंसानी भाव ही आतंकवाद की खाद-पानी होता है, कुछविशेष परिस्थितियां बनने पर इसके उभरने के हालात बन जाता है। और इतना भयावह रूप धारण कर लेता है कि इंसानियत भी पानी भरती दिखने लगती है। लेकिन अगर हम गांधी जी द्वारा सुझाई गई जीवन व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत हैं, तो जो समाज हम बनाएंगे, उसमें आतंकवाद की समस्या पैदा हो ही नहीं सकती। आतंकवाद के दो प्रमुख उत्स माने जा सकते हैं। एक, किसी समूह के साथ अन्याय और उसके जवाब में हिंसा की सफलता में विास। दो, आबादी की सघनता, जिसका लाभ उठा कर विस्फोट से जानमाल की क्षति की जा सके और लोगों में डर फैलाया जा सके कि उनका जीवन कहीं भी सुरक्षित नहीं है। गांधीवादी मॉडल में जीवन की व्यवस्था इस तरह की होगी कि भारी-भारी जमावड़े वाली जगहें ही नहीं रह जाएंगी।(RS)

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