Wednesday 10 August 2016

बाल श्रम कानून : बढ़ेगी बाल मजदूरी (अनिल पांडेय)

देश के करोड़ो बचों के भविष्य को प्रभावित करने वाले द चाइल्ड लेबर (प्रोहीबीशन एंड रेगुलेशन) अमेडमेंट बिल-2016 रायसभा में पास होने के बाद 26 जुलाई को तमाम विपक्षी नेताओं के भारी विरोध के बावजूद लोकसभा में भी पास हो गया। इस विधेयक की खामियों को देखते हुए बाल मजदूरी के खिलाफ दुनिया भर में आंदोलन चलाने वाले नोबेल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी सहित सिविल सोसायटी के तमाम लोग इसका विरोध कर रहे थे। कैलाश सत्यार्थी ने तो केंद्रीय श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय और अनेक सासंदों से मिल कर उन्हें इस विधेयक की खामियों से अवगत भी कराया। लेकिन, उनकी मांगों को अनसूना करते हुए सरकार ने विधेयक को संसद में पास करा दिया। कहने को तो इस नए विधेयक के तहत बाल मजदूरी पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया है। लेकिन असल में ऐसा होगा नहीं।
बाल श्रम रोकने के लिए सन् 1986 में पहली बार द चाइल्ड लेबर (प्रोहीबीशन एंड रेगुलेशन) एक्ट बनाया गया। बाद में अनुभव हुआ कि यह एक कमजोर कानून है। इस कानून में कई खामियां और कमियां हैं। इसी खामियों को दूर करने के लिए कैलाश सत्यार्थी सहित तमाम लोग लंबे समय से इसमें संशोधन की मांग कर रहे थे। उनकी तीस साल की साधना सफल हुई और सरकार बाल श्रम के खात्में के लिए नया कानून बनाने के लिए राजी हुई। नया विधेयक 1986 में बनाए गए बाल श्रम अधिनियम का ही संशोधित रूप है। लेकिन जो नया बाल श्रम संशोधन विधेयक संसद में पास किया गया है, वह पहले से भी कमजोर है। संसद में पास नए विधेयक में सरकार ने बाल श्रम के लिए प्रतिबंधित खतरनाक उद्योगो की सूची 83 से घटा कर महज तीन कर दिया है। साथ ही बचों को ‘फैमिली इंटरप्राइजेज’ में काम करने की इजाजत भी दे दी है। बाल श्रम को ‘कंपाउंडेबल अफेंस’ बना दिया है। नए विधेयक के प्रावधानों के विश्लेषण के बाद तो यही निष्कर्ष निकलता है कि नया कानून एक तरह से बाल श्रम को मान्यता ही दे देता है।
सुनने में तो यह अछा लग रहा है कि भारत में अब बाल श्रम पूरी तरह से प्रतिबंधित हो गया है। लेकिन, नए विधेयक की बारीकियों में जाएंगे तो पाएंगे कि इस कानून से बाल श्रम को बढ़ावा देने वाले कई दरवाजे खुल जाएंगे। नए बाल श्रम विधेयक में सरकार ने बाल श्रम के लिए प्रतिबंधित खतरनाक उद्योगो की सूची 83 से घटा कर महज तीन कर दी है। इस विधेयक के मुताबिक पारिवारिक व्यवसायों में हाथ बंटाने के अलावा 14 साल तक के बचों के मामले में बाल श्रम पूरी तरह से प्रतिबंधित है। जबकि 15 से 18 साल तक के बचे खतरनाक उद्योगों व प्रक्रियाओं को छोड़ कर बाकी जगह मजदूरी कर सकते हैं। ये ऐसे खतरनाक उद्योग हैं जिनमें काम करने से बचों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा। अगर स्कूली शिक्षा के ड्राप आउट यानी स्कूल छोड़ने के आंकड़ों पर गौर करें तो पता चला है कि 14 से 18 साल के बचे ही स्कूल सबसे यादा छोड़ते हैं। किशोर वयस्कों की तुलना में सस्ते मजदूर होते हैं, लिहाजा 80 खतरनाक उद्योगों से प्रतिबंध हटाने पर यहां बड़े पैमाने पर किशोरों को मजदूरी पर रखा जाएगा। इससे स्कूलों में ड्राप आउट और बढ़ेगा।
शिक्षा, स्वास्थ्य और खेल बचों का बुनियादी अधिकार है। खुशहाल और आजाद बचपन से ही बचों का स्वस्थ मानसिक विकास होता है। जिससे वे बड़े होकर देश के लिए असेट्स बन पाते हैं। लेकिन नया कानून इसमें बाधक बनेगा। नए विधेयक में बाल श्रम पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने के साथ यह छूट दे दी गई की 14 साल तक के बचे पढ़ाई के साथ-साथ ‘फेमिली इंटप्राइजेज‘ में काम कर सकते हैं। यह परिवार के काम में हाथ बटाने के नाम पर किया जा रहा है। अब जरा विधेयक में ‘फैमिली’को किस तरह से परिभाषित किया गया है, इस पर गौर कीजिए। विधेयक के अनुसार बचे के माता-पिता के अलावा चाचा, ताऊ, मामा, बूआ, मौसी आदि सभी परिवार का हिस्सा माने जाएंगे। यानी इनमें से कोई भी उससे मजदूरी कराए तो यह गैरकानूनी नहीं है। गड़बड़ यहीं हैं। परिवार का दायरा माता-पिता तक ही सीमित रहना चाहिए। बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) करीब 35 वर्षो से बचों को बाल मजदूरी से मुक्त कराने का अभियान चलाए हुए हैं। उनकी रिपोर्ट और आंकड़े बताते हैं कि गरीब और वंचित तबकों के परिवारों में बचों से उनके रिश्तेदार ही बाल और बंधुआ मजदूरी कराते हैं। कई बार यह ‘काम सिखाने’ के नाम पर भी करवाया जाता है। बीबीए के पिछले पांच साल के आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं। बीबीए ने 2010 से 2014 के बीच बाल मजदूरी करने वाले 5,254 बचों को छापामारी अभियान के तहत छुड़ाया। इसमें से 21 फीसदी बाल मजदूर 14 साल से कम उम्र के थे, जो रिश्तेदारों के यहां काम करते थे। जबकि कुल छुड़ाए बाल मजदूरों में से 83 फीसदी रिश्तेदारों के घरेलू उद्योगों में ही काम करते थे। जो नए कानून में ‘फेमिली इंटप्राइजेज’ के तहत माने जाएंगे, जिनमें बाल मजदूरी कराना जायज माना जाएगा।
नए विधेयक में बाल श्रम को ‘कंपाउंडेबल अफेंस’ यानी क्षमा योग्य अपराध की श्रेणी में भी ला दिया गया है। इससे डीएम को यह अधिकार मिल गया है कि वह बाल श्रम कराने वाले को महज जुर्माना लगा कर भी छोड़ सकता है। अब ऐसे में गुनहगारों को सजा कैसे मिल पाएगी? पहले के कानून के तहत तो सजा पाने की दर महज 0.6 फीसदी ही है। नए विधेयक से तो यह आंकड़ा और भी नीचे चला जाएगा। नए कानून से तो बचों की गुलामी और बढ़ जाएगी।
भारत सरकार निवेश और उद्योगों को बढ़ावा देने के नाम पर जिस तरह से बचों की परिभाषा परिवर्तित कर रही है, वह भी खतरनाक है। ‘मेकिंग इंडिया’ का नारा देने वाली केंद्र सरकार की सोच यह है कि सस्ती मजदूरी से निवेश बढ़ेगा। किशोरों से सस्ती मजदूरी में काम कराया जा सके, नए विधेयक के जरिए इसका रास्ता बनाया जा रहा है। यूनाइटेड नेशंस कनवेंशन-138 कहता है कि 18 साल तक के बचों से रोजगार नहीं कराया जा सकता है। हालांकि भारत उन चंद देशों में से एक है जिसने इस कनवेंशन पर हस्ताक्षर नहीं किया है। जुनाइल जस्टिस एक्ट-2009 में भारत सरकार ने 18 साल से कम उम्र के लोगों को बचे के रूप में परिभाषित किया है। जबकि नए बाल श्रम विधेयक में बचे के परिभाषित करते हुए उसकी उम्र की सीमा 14 साल निर्धारित की गई है, जो कि अपने आप में विरोधाषाभी है। एक ही देश में दो कानूनों में बचे की परिभाषा अलग-अलग कैसे हो सकती है?
भारत की 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में 43.5 लाख बाल मजदूर हैं। लेकिन गैरसरकारी आंकड़ों के मुताबिक यह संख्या करीब 5 करोड़ है। बाल मजदूरी पर यूनीसेफ की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत में दुनिया के 12 फीसदी बाल मजदूर रहते हैं। यह एक चिंताजनक आकंड़ा है। इसलिए सरकार को अपने फैसले पर एक बार फिर से विचार करना चाहिए, क्योंकि नया बाल श्रम विधेयक बचपन को गुलामी की तरफ धकेलने वाला है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(DJ)

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