Wednesday 10 August 2016

गैरसंक्रामक रोगों का बढ़ता खतरा (डॉ. केनेथ ई. थोर्प)

कैंसर, मधुमेह और हृदय रोग जैसे गैर-संक्रामक रोगों (एनसीडीज) ने आज संक्रामक और संपर्कशीलता से फैलने वाले रोगों को पीछे छोड़ दिया है। इससे देश में जन स्वास्थ्य से संबंधित चुनौतियों में काफी इजाफा हो गया है। एक अनुमान के अनुसार देश में एनसीडी 53 प्रतिशत रोग भार एवं कुल मौतों के 60 प्रतिशत के लिए उत्तरदायी है, लेकिन इस बढ़ते हुए खतरे के प्रति किए जाने वाले उपाय काफी कमजोर हैं और एनसीडी से निपटने की रणनीतियां काफी सीमित हैं। वर्ष 2015-16 में राष्ट्रीय बजट का केवल तीन प्रतिशत हिस्सा ही एनसीडी के लिए आवंटित किया गया था। देश में मातृ-शिशु कार्यक्रमों एवं छूत की बीमारियों पर अब भी सबसे अधिक राशि खर्च की जाती है। एक स्वागतयोग्य कदम उठाते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने देश में गैर संक्रामक रोगों से मुकाबला करने के लिए स्वास्थ्य मंत्रलय की तरफ से उठाए जाने वाले नए उपायों की घोषणा की थी। ‘नेशनल कांफ्रेंस ऑन प्रीवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ मेजर नॉन-कम्यूनिकेबल डिजीज इन इंडिया’ के उद्घाटन के दौरान एक एम-डायबिटीज पहल के लांच के अतिरिक्त उन्होंने प्रशिक्षण संबंधी दिशा-निर्देशों को भी जारी किया, जिसका उद्देश्य स्वास्थ्य कर्मियों को एनसीडी के विषय में लोगों को जागरूक करने का प्रसार करने के लिए तैयार करना एवं स्वस्थ जीवनशैली के उपायों को प्रोत्साहित करने के लिए एक मीडिया कैंपेन चलाना है।
ये कदम सरकार के द्वारा एनसीडी के बढ़ते दबाव को कम करने के लिए स्थायित्वपूर्ण समाधान प्राप्त करने की दीर्घकालिक प्रतिबद्धता की ओर इंगित करते हैं। हालांकि अनेक मोर्चो पर तीव्र प्रगति करने के बावजूद भारत के 1.4 अरब लोगों को समग्रतापूर्ण स्वास्थ्य कवरेज प्रदान करने का राष्ट्रीय लक्ष्य अब भी स्वप्न ही बना हुआ है। इस संदर्भ में अब सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि सरकार स्वास्थ्य सेवा में निवेश में और अधिक वृद्धि करे। जब तक आज एनसीडी से संबद्ध खर्च को कम करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर निवेश नहीं किए जाएंगे, तब तक इससे होने वाला नुकसान कई गुणा बढ़ता चला जाएगा। स्वास्थ्य सेवा से संबंधित वित्तीयन की एक व्यापक प्रणाली के अभाव में लोगों को रोग से होने वाले खर्चे में वृद्धि का सामना करना पड़ता है। भारत जैसे विकासशील देश के लिए एक मात्र जन स्वास्थ्य सेवा वित्तीयन प्रणाली पर निर्भर रहना प्रासंगिक नहीं है, इससे इतनी बड़ी जनसंख्या को लाभ पहुंचाने के बजाय नीतिगत स्तर पर हानि की संभावना बनी रहेगी। इसके बजाय सरकार का ध्यान दूसरे विकल्पों पर केंद्रित होना चाहिए।
प्रत्येक व्यक्ति को गुणवत्ता युक्त स्वास्थ्य सेवा को सुनिश्चित करना नीति नियोजकों के लिए एक बेहद कठिन कार्य है, क्योंकि यहां पर निर्धनता और आर्थिक असमानता काफी अधिक है। यदि अंतरराष्ट्रीय मानदंडों की बात की जाए तो भारत द्वारा स्वास्थ्य सेवा पर किया जाने वाला खर्च जीडीपी का केवल एक प्रतिशत है, जो कि काफी कम है। इसके कारण जन स्वास्थ्य प्रणाली पूरी तरह से चरमराने लगी है और जीवन रक्षक औषधियों की आपूर्ति और चिकित्सकों की कमी जैसे नतीजे दिखाई देने लगे हैं।
गैर-संक्रामक रोगों का आर्थिक प्रभाव काफी व्यापक है, क्योंकि सरकार के द्वारा स्वास्थ्य सेवा पर समुचित खर्च न करने के कारण रोगियों एवं उनके परिवारों पर आर्थिक भार काफी अधिक आ जाता है। 80 प्रतिशत भारतीय चिकित्सकीय उपचारों पर अपने सामथ्र्य से अधिक खर्च करते हैं, जो कि विश्व में सर्वाधिक खर्चो में से एक है। यदि इन रोगों का शीघ्र ही पता लगा लिया जाए तो बाद की जटिल जांचों पर व्यर्थ में होने वाले खर्च को कम किया जा सकेगा, जिससे यह प्रक्रिया कम खर्चीली हो सकती है। मधुमेह, हृदय रोग, फेफड़े के रोग और कैंसर जैसे गैर-संक्रामक रोगों की विलंबित जांच और उपचार के कारण उपचार की लागत बढ़ जाती है एवं दीर्घकालिक स्तर पर स्वास्थ्य और वित्त पर गंभीर प्रभाव नजर आने लगता है। नीतियों को सुसाध्य बनाया जाना आवश्यक है, जो नागरिकों की स्वास्थ्य सेवा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम होना चाहिए। स्वास्थ्य वित्तीयन का उद्देश्य स्वास्थ्य के लिए फंड की उगाही के लिए सार्वभौमिक हेल्थ कवरेज की व्यवस्था करना है। स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में निजी निवेश के लिए निवेशकों को आकर्षित करने के लिए एक सकारात्मक परिवेश भी तैयार करना होगा।
स्वास्थ्य सेवा में दरपेश आने वाली वित्तीय रुकावटों को पूर्वभुगतान के जरिये कम किया जा सकता है और फंड की परवर्ती पूलिंग के जरिये सामथ्र्य से अधिक खर्च को नियंत्रित किया जा सकता है तथा साथ ही साथ सक्षमता व समानता को बढ़ावा देने के लिए फंड का बेहतर आवंटन बेहद आवश्यक है। केंद्र सरकार की राष्ट्रीय जन स्वास्थ्य स्कीम, जो आवश्यक सेवाओं के लिए निजी क्षेत्र की सहभागिता को समायोजित करती है, को प्रति व्यक्ति अथवा परिवार के लिए भिन्न-भिन्न होने के बजाय एक समान तरीके से निश्चित होना चाहिए। प्रभावी सार्वजनिक निजी भागीदारी (पीपीपी) पर निर्भर इस प्रकार का मिश्रित वित्तीयन और प्रावधान भारत के समान सामाजिक-आर्थिक बुनावट वाले अनेक देशों में सफल रहा है, इन देशों में फिलीपींस, वियतनाम, तुर्की और इंडोनीशिया शामिल हैं। भारत की युवा जनसंख्या चिकित्सा के भावी खर्च का सामना करने के लिए बाध्य हो गई है। इस प्रवृत्ति से बचने के लिए एनसीडी और उसके जोखिम संबंधी कारकों के प्रति लोगों में जागरूकता के प्रसार को गति प्रदान करने एवं एक प्रहरी के समान निगरानी प्रणाली की व्यवस्था करनी पड़ेगी। इससे रोग की शुरुआत में ही जांच व रोकथाम परक उपचार के अवसरों में वृद्धि होगी और अंतत: इससे रोग की अंतिम अवस्था में होने वाले उपचार में होने वाले भयानक खर्चो और उससे उत्पन्न होने वाली दरिद्रता को कम कर पाना संभव हो सकेगा। निजी क्षेत्र एक लाभदायक सहभागी साबित हो सकता है और सार्वजनिक संसाधनों के अधिकतम इस्तेमाल और फंडिंग के रास्तों को व्यापक बनाने में मददगार सिद्ध हो सकता है।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत के जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में व्यापक निवेश अवश्यंभावी हो गया है। स्वास्थ्य पर किए जाने वाले वैश्विक साक्ष्य यह दर्शाते हैं कि जब तक एक देश स्वास्थ्य पर अपनी जीडीपी का कम से कम पांच-छह प्रतिशत-सरकारी खर्च का एक बड़ा हिस्सा-नहीं खर्च करता, तब तक मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं की पूर्ति कतई भी संभव नहीं है। भारत को वर्ष 2025 तक स्वास्थ्य सेवाओं पर अपनी जीडीपी का कम से कम 2.5 से तीन प्रतिशत अवश्य ही खर्च करना पड़ेगा, इसके तहत एनसीडी की रोक-थाम व उपचार, स्वास्थ्य सेवा वित्तीयन के नए मॉडलों की खोज एवं व्यावसायिक बीमा की वृद्धि पर विशेष ध्यान केंद्रित करना होगा। इन सभी उपायों से इस साङोदारी में प्रगाढ़ता आएगी एवं इससे प्राथमिक, द्वितीयक और त्रितीयक स्तर पर स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता एवं कवरेज में सुधार होगा तथा सरकार और निजी क्षेत्र दोनों एक साथ मिल कर भारत पर एनसीडी के कारण पड़ने वाले मानवीय एवं आर्थिक दबाव को कम करने के लिए }लूप्रिंट को तैयार करने में सहायता कर सकते हैं।
(लेखक पार्टनरशिप टु फाइट क्रॉनिक डिजीज के चेयरमैन हैं)(Dj)

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