Wednesday 10 August 2016

देर तो हुई पर टिकाऊ होगा जीएसटी कानून (शशि थरूर )

पिछले हफ्तेसंसद के उच्च सदन ने एेतिहासिक सामान और सेवा कर (जीएसटी) विधेयक पारित कर दिया। 25 साल पहले आर्थिक उदारीकरण शुरू करने के बाद से अपनाया गया सबसे बड़ा आर्थिक सुधार कहकर इसका स्वागत किया जा रहा है। सोमवार को निचले सदन लोकसभा ने भी इसे हरी झंडी दे दी। भारतीय संविधान में हुए इस 112वें संशोधन का मीडिया ने जश्न मनाया और निचले सदन में एक भी ऐसा सदस्य नहीं था, जिसने विरोध में मत व्यक्त किया हो। इस गहमागहमी में परदे के पीछे राजनीतिक दलों राज्यों द्वारा जीएसटी के पक्ष में की गई बड़े पैमाने पर कवायद और उसकी गंभीरता की अनदेखी हो गई। उच्च सदन में ऐतिहािसक घटना के पहले 16 साल तक चार सरकारों, 6 केंद्रीय वित्त मंत्रियों (राज्यों के दर्जनों वित्त मंत्रियों की तो बात ही अलग) ने मेहनत की और जीएसटी के मसौदे का कई बार पुनर्लेखन हुआ।
बेशक, यह हमेशा रहस्य बना रहेगा कि भारत ने आंतरिक आर्थिक प्रतिरोध (ब्रिटिश राज की जटिल विरासत) हटाने में इतना लंबा वक्त क्यों लिया। यह आर्थिक तरक्की में बाधक था और सिर्फ राज्यों में बैठे नौकरशाहों को ही इससे फायदा था, जो चकराने देने वाले किस्म-किस्म के टैक्स, कई तरह के शुल्क और सामानों की आवाजाही पर विभिन्न पाबंदियों को लागू करने का लुत्फ उठा रहे थे। फिर वक्त की बर्बादी तो थी ही- राज्यों की सीमाएं पार करने वाले ट्रक अपना चौथाई समय चेकपॉइंट्स की कतारों में ही बर्बाद करते हैं। राजधानी दिल्ली में ही 122 चेकपॉइंट हैं, जहां रोज 20 हजार ट्रक नगर निगम स्तर का प्रवेश कर चुकाने के लिए कतार में घंटों बिता देते हैं। इसी तरह वस्तुओं के उत्पादक अपना सामान भारत के विभिन्न हिस्सों में पहुंचाने (और लालफीताशाही से निपटने ) में अपने कर्मचारियों को किए जाने वाले भुगतान से ज्यादा खर्च करते हैं। जाहिर है यह फायदा कर्मचारियों को पहुंचाकर कार्यक्षमता और उत्पादन की रफ्तार में इजाफा किया जा सकता है।
जीएसटी से जो बाधाएं दूर होने का वादा है, उसमें ये प्रवेश शुल्क शामिल हैं, जिससे देश के 29 राज्यों में माल परिवहन की बोझिलता कम होगी। लॉजिस्टिक और इनवेंटरी की लागत निश्चित ही कम होगी। भारत में बिज़नेस शुरू करने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को 29 पृथक कर नियामक संस्थाओं से जूझना नहीं होगा। इससे निश्चित ही निवेश निवेशकों को प्रोत्साहन मिलेगा। यहां तक कि छोटे अांत्रप्रेन्योर के लिए भी अन्य राज्यों के बाजार तक पहुंचना आसान हो जाएगा। उनके आर्थिक संसाधनों को खाने वाले दर्जनों करों की चिंता उन्हें नहीं रहेगी। और इस सबके बावजूद करों का आधार भी काफी बढ़ जाएगा। फिर एक बिंदु पर कर संग्रहण व्यवस्था से आई कार्यक्षमता का फायदा तो मिलेगा ही। जीएसटी के संभावित फायदे तो बहुत सारे हैं- अनुमान लगाया गया है कि जीएसटी के अमल में आते ही भारत के जीडीपी में 1-2 फीसदी इजाफा हो जाएगा। जहां माल एवं सेवा कर (जीएसटी) ने आकार लेने में वक्त लिया- और यह वह वक्त था, जो ऐसा देश बर्दाश्त नहीं कर सकता, जहां आबादी का पांचवां हिस्सा अब भी गरीबी रेखा के नीचे रह रहा है- लेकिन यह अनिवार्य रूप से उस तथ्य का अंग है, जिसे हम औपनिवेशकाल के बाद का प्रतिबद्ध लोकतंत्र कहते हैं। चीन जैसे एकाधिकारवादी व्यवस्थाओं में ऊपर से फैसले लेने की व्यवस्था में कानून- विरोध के बावजूद बलपूर्वक अपना रास्ता बना लेते हैं वहीं, भारत का विचार इसी सिद्धांत पर आधारित है कि सबकी सुनी जानी चाहिए और अंतिम फैसले में उसका समावेश होना चाहिए। जबर्दस्ती नहीं, आम सहमति भारतीय लोकतंत्र की आत्मा है और इसकी जीत होनी चाहिए चाहे फिर आर्थिक कुंठा हताशा ही क्यों पैदा हों। भारत की आत्मा को किसी कीमत पर नज़रअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
इसके पहले की जीएसटी जमीनी स्तर पर हकीकत बन जाए, कुछ रास्ता अब भी तय होना है और अनुमान लगाया गया है कि सरकार को इसका क्रियान्वयन करने के लिए दो साल का लंबा समय लगेगा। संसद के उच्च सदन, राज्यसभा ने पूरे देश में एक समान क्रांतिकारी कर ढांचे की नींव रख दी है। एक अलग विधेयक के जरिये लागू की जाने वाले कर की साझा दर तय होगी। राज्यों की आमदनी और भारत जैसे देश में आम नागरिक को इसकी जो कीमत चुकानी होगी, दोनों को ध्यान में रखते हुए इस विधेयक की अपनी अलग चुनौतियां होंग। हालांकि, यदि हम यह याद रखें कि इस राह की सबसे बड़ी बाधा तो हमने पार कर ही ली है तो पूरी उम्मीद है कि अगले कदम में विलंब नहीं होगा। दोनों सदनों में जीएसटी संशोधन विधेयक पारित होने से जो ऊर्जा गति पैदा हुई है वह अगले कदम के अनुकूल है। एक बार माहौल तैयार हो जाए तो कई चीजें अपने आप आकार लेने लगती हैं। तय है कि हम इसे अंतिम लक्ष्य तक ले जाएंगे।
जीएसटी भारत में एक ऐसे वक्त में आया है, जब अमेरिका राजनीतिक अनिश्चितता का सामना कर रहा है। संरक्षण वादी अवरोधों बाधाओं के आसन्न खतरे के साथ यूरोप बिखरा हुआ नज़र रहा है, जबकि चीन बलपूर्वक आर्थिक सफलता की राह निकाल रहा है और इसकी काफी कीमत भी चुका रहा है। भारत की रफ्तार चाहे धीमी हो, लेकिन हम जिस चीज का निर्माण कर रहे हैं वह टिकाऊ होने की परीक्षा में सफल सिद्ध होगी, क्योंकि हमने इतिहास से अपने सबक सीखे हैं। 1991 में भारत के सामने आर्थिक उदारीकरण के जरिये अपनी अर्थव्यवस्था को खोलने के अलावा कोई चारा नहीं था। वह विदेशी मुद्रा संकट और आर्थिक संकट का दौर था। वर्ष 2016 में भारत एक अलग ही जगह है- इसके सामने भविष्य की दूरदृष्टि, विज़न है। 21वीं सदी में राष्ट्रों के तारामंडल में अपनी सही जगह पाने की भूख है और अब वह आर्थिक अवसरों को बेकार नहीं जाने देगा। वह आर्थिक कठिनाई के गहनतम दौर से उबर रहा है।
जीएसटी भारत की कहानी में एक और मील का पत्थर है और निश्चित ही यह हमारे 1.30 अरब लोगों के लिए एक बड़ी छलांग की शुरुआत के रूप में रेखांकित होगा।
(येलेखक के अपने विचार हैं।)(DB)

No comments:

Post a Comment