Wednesday 10 August 2016

इसरो की साख पर सवाल (शशांक द्विवेदी)

अंतरिक्ष के क्षेत्र में अपनी सफलताओं से पूरी दुनियां को चमत्कृत कर देने वाला इसरो इस बार विवादों के घेरे में है, जिसकी वजह से उसकी साख पर भी सवाल उठ रहें है। उपग्रहों तथा उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले स्पेक्ट्रम से जुड़े एक समझौते को रद करने के मामले में हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय टि}यूनल ने देवास-एंटिक्स केस में भारत के खिलाफ फैसला सुनाया है। इसके साथ ही अब भारत को क्षतिपूर्ति के रूप में एक अरब अमेरिकी डॉलर यानी करीब 67 अरब रुपये की रकम चुकानी पड़ सकती है।
इससे भी यादा चिंताजनक बात यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को नुकसान पहुंचा है। जून 2011 में देवास मल्टीमीडिया ने हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में केस फाइल कर मुआवजे की मांग की थी। भारतीय अंतरिक्ष संस्थान इसरो की वाणियिक शाखा एंटिक्स ने देवास मल्टीमीडिया के साथ जनवरी 2005 में एक सौदा किया था। इस सौदे के तहत दो सैटेलाइट बनाने, उन्हें लांच करने और ऑपरेट करने थे। इन उपग्रहों पर स्पेक्ट्रम कैपेसिटी को लीज पर देना था। फरवरी 2011 में एंटिक्स ने फैसला किया कि वह सौदा खत्म कर देगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसे सैटेलाइट लांच और ऑपरेट करने के लिए ऑर्बिट में स्लॉट और फ्रिक्वेंसी नहीं मिल पा रही थी। कैबिनेट की कमेटी ने इसरो की वाणियिक शाखा एंटिक्स के इस फैसले को मंजूरी दी। देवास ने एंटिक्स पर आरोप लगाया कि उसने सैटेलाइट और स्पेक्ट्रम को आवंटित करने से पहले बोली नहीं लगाई थी। डील के मुताबिक पहले ऐंटिक्स एस-बैंड स्पेक्ट्रम में लंबी अवधि के दो सैटेलाइट्स ऑपरेट करने पर राजी हो गया था, लेकिन बाद में उसने डील रद कर दी। टि}यूनल ने कहा कि डील रद करके सरकार ने उचित नहीं किया, क्योंकि इससे देवास मल्टीमीडिया के निवेशकों को बड़ा नुकसान हुआ। वर्ष 2005 में देवास कंपनी से कहा गया था कि वह बेहद कम उपल}धता वाले एस-बैंड का इस्तेमाल कर सकती है और इसके लिए उसे दो भारतीय उपग्रहों पर स्थान उपल}ध करवाया गया था। देवास मल्टीमीडिया की योजना इन उपग्रहों तथा स्पेक्ट्रम का प्रयोग कर देशभर में सस्ते मोबाइल फोनों पर ब्रॉडबैंड सेवाएं उपल}ध करवाने की थी। एंटिक्स इस बात पर भी सहमत हो गया था कि इसके लिए आवश्यक उपग्रहों का निर्माण इसरो ही करेगा।
एंटिक्स को इसके लिए 12 साल के भीतर 600 करोड़ रुपये का भुगतान किया जाना था, लेकिन वर्ष 2011 में समझौता रद कर दिया गया। डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने कहा कि उसने उपग्रहों के निर्माण के लिए इसरो को मंजूरी नहीं दी है। एंटिक्स पर यह भी आरोप था कि उसने देवास को उपग्रह तथा स्पेक्ट्रम का आवंटन करने से पहले बोली प्रक्रिया का पालन नहीं किया। इस फैसले को बहुचर्चित 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले से प्रभावित माना गया था, जिसकी वजह से आखिरकार डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार को चुनाव में नुकसान हुआ। उनकी सरकार पर आरोप थे कि उन्होंने 2जी स्पेक्ट्रम आवंटित करने में फायदे के लिए टेलीकॉम कंपनियों से समझौते किए। जांचकर्ताओं का कहना है कि देवास ने पूर्व इसरो अधिकारियों की सेवाएं ली थीं और उन्होंने ही टेलीकॉम कंपनी के पक्ष में इस समझौते को करवाने में मदद की। देवास मल्टीमीडिया के साथ समझौता किए जाने के वक्त इसरो प्रमुख रहे माधवन नायर को कोई भी सरकारी भूमिका निभाने के लिए }लैकलिस्ट भी कर दिया गया और भ्रष्टाचार के आरोपों में उनके खिलाफ जांच की गई। एस-बैंड स्पेक्ट्रम व्यावसायिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। एस-बैंड स्पेक्ट्रम ऐसी रेडियो तरंगें हैं जिनको 2.5 मेगाहट्र्ज बैंड भी कहा जाता है। इन तरंगों का उपयोग संचार उपग्रहों, मौसम संबंधी रडार और जलयान के रडारों द्वारा किया जाता है। इसका उपयोग चौथी पीढ़ी यानी 4जी की मोबाइल सेवाओं के लिए किया जाता है।
इसरो की व्यावसायिक शाखा एंटिक्स और देवास मल्टीमीडिया के बीच हुए एस-बैंड स्पेक्ट्रम सौदे को सरकार द्वारा रद किए जाने के बाद सवाल उठता रहा कि पहले चरण में ही इस सौदे पर हस्ताक्षर क्यों किए गए और फिर इसे रद करने में इतना समय क्यों लगा। देवास के साथ करार करने के पूर्व निविदा जारी न होने के बारे में उसका जवाब है कि उसने कोई सरकारी संसाधन खरीदा नहीं है, सिर्फ प्रयोग के आधार पर ट्रांसपोंडर किराए पर लिया है। उसके अनुसार जिस तकनीक का वह उपयोग कर रहा है, वह नई है, इसलिए निविदा या अन्य को अवसर मिलने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। सचाई यह है कि एस-बैंड स्पेक्ट्रम के 70 मेगा हर्ट्ज को निजी कंपनी को देने का यह सौदा विवादों में घिर गया था, जिसके बाद ही इसे रद कर दिया गया। पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त प्रत्यूष सिन्हा की अध्यक्षता में गठित समिति की रिपोर्ट के अनुसार एंटिक्स-देवास सौदे में पारदर्शिता की कमी थी। इस मामले में गंभीर प्रशासनिक और प्रक्रियागत गलतियां भी थीं।
एंटिक्स इसरो की कारोबारी इकाई है, जो मुख्यत: उपग्रह के स्पेक्ट्रम निजी क्षेत्र की कंपनियों को किराए पर देने तथा सैटेलाइट इमेजरी को बेचने का काम करती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वर्ष 2005 में हुए इस सौदे को जब रद किया गया था तो इसकेपीछे सरकार ने प्राथमिकताएं बदल जाने जैसी कमजोर दलील दी थी और कहा था कि एस-बैंड की जरूरत उसे अब सेना के लिए पड़ रही है। कहीं भी इस सौदे की वैधता पर सवाल नहीं उठाए गए थे। इसरो ने यह सौदा अपनी व्यापारिक कंपनी एंटिक्स के माध्यम से उसी रूप में किया था, जिसके आधार पर वह पहले भी ट्रांसपोंडरों को निजी कंपनियों को दिया करती थी। ऐसे में जरूरी है कि प्रधानमंत्री खुद मामले में हस्तक्षेप करें, ताकि असलियत देश के सामने आए और इसरो के वैज्ञानिकों का मनोबल भी न टूटे। फिलहाल देश यह जानना चाहता है कि ऐसा क्या गलत हुआ जिससे समझौता रद किया गया। चूंकि यह मामला अब अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भी पहुंच चुका और इससे भारत की छवि भी खराब हुई है इसलिए इस मामलें से जुड़े सभी तथ्यों का बाहर आना बहुत जरूरी है ।
(लेखक राजस्थान के मेवाड़ यूनिवर्सिटी में डिप्टी डायरेक्टर हैं)(DJ)

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