Monday 22 August 2016

जलवायु परिवर्तन और आबादी (ज्ञानेन्द्र रावत)

वैज्ञानिक वर्षो से चेता रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के चलते आने वाले दिनों में आदमी का जीना मुहाल हो जाएगा। मौजूदा हालात में जलवायु परिवर्तन के कारण वह हो रहा है, जो बीते एक लाख साल में भी नहीं हुआ है। माना जाता है कि एक लाख बीस हजार साल पहले आखिरी बार आर्कटिक की बर्फ खत्म हो गई थी। लेकिन अब ऐसा फिर हो रहा है। कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के पोलर ओसेन फिजिक्स ग्रुप के प्रोफेसर पीटर बडहम्स कहते हैं कि उन्होंने चार साल पहले ही आर्कटिक से बर्फ गायब होने की भविष्यवाणी की थी। उन्होंने दावा किया है कि इस साल या अगले साल आर्कटिक समुद्र की सारी बर्फ खत्म हो जायेगी। अमेरिका के नेशनल एंड आइस डाटा सेंटर की तरफ से ली गई हालिया सेटेलाइट तस्वीरें इस तय को प्रमाणित करती हैं। असलियत में ध्रुवीय इलाके में तेजी से बदलते तापमान को इसकी असली वजह बताया जा रहा है। माना जा रहा है कि इसी की वजह से ब्रिटेन में बाढ़ आ रही है और अमेरिका में बेमौसम तूफान आ रहे हैं। अब नए अध्ययनों और शोधों ने इस बात का खुलासा कर दिया है कि 21वीं सदी के आखिर तक उत्तरी अफ्रीका और मध्य एशिया जलवायु परिवर्तन के चलते आबादी के पलायन के कारण खाली हो सकता है। गौरतलब है कि तकरीब 50 करोड़ की आबादी वाला मध्य एशिया और उत्तरी अफ्रीका मूल रूप से गर्म क्षेत्र है। इस समूचे इलाके में सामान्य रूप से दिन का तापमान 40 डिग्री और रात का तापमान तकरीबन 26 डिग्री तक रहता है। जर्मनी की मैक प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ केमिस्ट्री में हुए एक अध्ययन के बाद इस तय का खुलासा हुआ है कि सदी के मध्य तक यहां रात का तापमान 30 डिग्री से नीचे नहीं जाएगा। लेकिन दिन का तापमान 46 डिग्री से ऊपर जाएगा। इसका सीधा असर खाद्यान्न, प्राकृतिक संसाधन, मुख्य रूप से जलापूर्ति यानी पेयजल पर सबसे ज्यादा पड़ेगा। अब यह साफ हो चुका है कि जलवायु परिवर्तन का घातक असर फसल पर पड़ने लगा है। अब फसल पर हाइड्रोजन सायनाइड जैसे रसायनों का असर दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। इसके कारण फसल जहरीली हो रही हैं। सूखा, तेज गर्मी व बेमौसम बारिश जैसे कठोर मौसम के दौरान पैदा होने वाली फसल में हाइड्रोजन सायनाइड जैसे खतरनाक रसायनों के अंश पाए गए हैं। दरअसल, जिस तरह लोग कठोर मौसम में खुद को बेहद असहज महसूस करते हैं, उसी तरह फसल भी सूखे की स्थिति में प्रतिक्रिया करती हैं। सामान्य हालात में होता यह है कि पौधे मिट्टी से नाइट्रेट लेकर उसे पोषक अमीनो अम्ल और प्रोटीन में तब्दील कर देते हैं।मगर सूखे के दौरान यह प्रक्रिया एकदम धीमी हो जाती है या लंबे समय तक सूखा रहने के कारण यह प्रक्रिया होती ही नहीं है। हालात यहां तक खराब हो चुके हैं कि मक्का, गेहूं, ज्वार, सोयाबीन, कसावा और पटसन जैसी फसल में इस बेहद जहरीले रसायन की पहुंच खतरनाक स्तर तक हो गई है। बहुतेरे देशों में इसका इस्तेमाल कीड़े, मकोड़े और पतंगों को मारने में किया जाता है। दरअसल सूखे से प्रभावित फसल अचानक बारिश आने के कारण तेज गति से बढ़ती हैं। उस दशा में उनमें मौजूद नाइट्रेट हाइडेजन साइनाइड में तब्दील हो जाता है। हाइड्रोजन साइनाइड जब मनुष्य के शरीर में पहुंचता है, तब वह ऑक्सीजन की संचार पण्राली को नुकसान पहुंचाता है। इसके साथ पौधों में आफ्ल्ॉाटाक्सीन नामक रसायन की मात्रा भी तेजी से बढ़ रही है। इससे प्रभावित खाद्यान्न के खाने से जिगर खराब हो सकता है, अंधेपन की बीमारी का प्रकोप बढ़ सकता है और गर्भस्थ शिशु के विकास में भी अवरोध पैदा करता है। ‘‘यूनाइटेड नेन्स एन्वायरमेंट असेम्बली’ में प्रस्तुत रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है कि आफ्लॉटाक्सीन रसायन से प्रभावित फसल की जद में विकासशील देशों की तकरीबन 4.5 अरब से ज्यादा आबादी है। यदि तापमान में इसी गति से बढ़ोतरी होती रही तो यूरोप में फसल, जहां अपेक्षाकृत कम तापमान रहता है, वे भी इस जहर से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगी। इस स्थिति के मुकाबले के लिए दुनिया भर में कठोर मौसम को सहने में सक्षम बीजों का विकास किया जा रहा है। इसके अलावा, मौसमी फसलें उगाने पर भी जोर दिया जा रहा है। ऐसे हालात में यह जरूरी है कि हम सब पर्यावरण को बचाने का संकल्प लें और इस दिशा में जी-जान से जुट जाएं। (rs)

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