Wednesday 10 August 2016

पाकिस्तान से निपटने के हमारे हथियार (जोरावर दौलत सिंह, रिसर्च फेलो, किंग्स कॉलेज, लंदन)

कश्मीर की हालिया घटनाओं ने भारत के लोगों को एक बार फिर यह स्मरण कराया है कि आतंकवाद उसकी सरजमीं से बहुत दूर पश्चिम एशिया का ही मसला नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी समस्या है, जिससे उनका एक सूबा और लोग दशकों से जूझ रहे हैं। मोदी सरकार में ऊंचे पदों पर बैठे लोगों के अनेक बयान इस बात के संकेत दे रहे हैं कि नई दिल्ली एक बार फिर यह मान रही है कि इस क्षेत्र में आतंकी चुनौती मौजूद है।
हालांकि, हमारे इरादे स्पष्ट हैं, लेकिन जिन नीतियों पर हम टिके हुए हैं, उनसे जमीनी हालात में कोई सुधार नहीं होने वाला। भारत पाकिस्तान प्रायोजित दहशतगर्दी का मुकाबला तो कर रहा है, मगर उसने अपना एक हाथ पीछे खींच रखा है। विभिन्न कारणों से एक के बाद दूसरी सरकारों ने अपनी ही सीमा क्षेत्र में छद्म आतंकवाद से मुकाबले पर अपना ध्यान केंद्रित रखा, उन्होंने ऐसी कोई नीति नहीं तैयार की, जिसमें इस समस्या की सीमा पार की जड़ से निपटने की बात भी शामिल हो।
इस संघर्ष में पारंपरिक सैन्य विकल्पों और कूटनीति, दोनों के प्रभाव सीमित हैं। जैसे, पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए कभी-कभी सीमा पार चिह्नित लक्ष्यों पर हवाई या मिसाइल हमलों के विकल्प पेश किए जाते हैं। लेकिन ये विकल्प शायद ही पाकिस्तानी फौज को कोई ऐसी चोट दे पाएंगे, जो उसे लंबे वक्त तक महसूस हो, बल्कि बहुत मुमकिन है कि ऐसी घटनाओं का इस्तेमाल वह अपने समर्थन-आधार को मजबूत बनाने में कर ले। इसमें कोई दोराय नहीं कि सीमित पारंपरिक विकल्प साल 2008 के मुंबई हमले जैसे आतंकी दुस्साहसों को रोक सकते हैं। एक सीमित युद्ध का विकल्प या सीमा पार करके तेजी से हवाई हमला बोलने की क्षमता पाकिस्तानियों को अपनी सीमा से अधिक घातक व अखिल भारतीय स्तर पर छद्म युद्ध छेड़ने से रोकने का काम करती है, लेकिन छोटे छद्म युद्धों और कश्मीर में और उसके बाहर परदे के पीछे से जारी उसकी शातिर जंग के लिए पारंपरिक सक्रियता एक अरुचिकर विकल्प है।
बड़ी ताकतों पर केंद्रित कूटनीति की सीमाएं भी दिख चुकी हैं। पाकिस्तान का संरक्षक कोई भी देश किसी भी सार्थक कार्रवाई में भारत के साथ सहयोग को तैयार नहीं है। हमने देखा है कि चीन का सत्ता प्रतिष्ठान सार्वजनिक रूप से पाकिस्तान की निंदा करने से बचता रहा है। बल्कि अमेरिका जैसे हमारे रणनीतिक साझीदार देश भी जब भारत केंद्रित आतंकवाद की बात आती है, तो जबानी हमले बोलने में ज्यादा मुस्तैदी दिखाता है, वास्तविक कदम उठाने में नहीं। हाल के अमेरिकी बयानों पर जरा गौर कीजिए। प्रभावशाली अमेरिकी सीनेटर जॉन मैक्केन ने हाल ही में एक लेख में लिखा है कि ‘आतंकवाद के मुकाबले, परमाणु सुरक्षा और क्षेत्रीय स्थिरता के लिहाज से अमेरिका व पाकिस्तान के हित जुड़े हुए हैं और वे बेहद महत्वपूर्ण हैं।’ मैक्केन ने आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तानी फौज के प्रयासों की भी बढ़-चढ़कर तारीफ की है।
और भारत-पाकिस्तान द्विपक्षीय कूटनीति की स्थिति क्या है? इस मामले में एक निरंतरता दिखाई देती है। भारत की कई सरकारों ने तरह-तरह के उपायों के जरिये पाकिस्तानी सियासत और सिविल-मिलिट्री रिश्तों को प्रभावित करने का प्रयास किया। कई सरकारों ने आशावादी रुख अपनाते हुए यह सोचा कि लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित एक सरकार के साथ बातचीत का मतलब होगा पाकिस्तानी फौज की हैसियत को कम करना। लेकिन ऐसा कोई प्रमाण नहीं है, जो यह साबित करे कि इस दृष्टिकोण का भारत को कोई फायदा मिला। बल्कि सबूत इस बात की तस्दीक करते हैं कि पाकिस्तानी फौज ने विदेश नीति और सुरक्षा संबंधी नीतियों पर अपना दबदबा बनाए रखा है और भारत-पाक के बीच उच्चस्तरीय संवादों का इस्तेमाल उसने भारत में घातक आतंकी हमलों के लिए ही किया। अब यह एक पैटर्न बन चुका है: भारत जनता से जनता की कूटनीति में बंधता है और अपने यहां छद्म युद्ध का विस्तार कर लेता है!
बहरहाल, पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने के उत्साही प्रयासों के हिंसक विपरीत परिणामों को एक तरफ रख दें, तो भारतीय नीति-नियंताओं को अपने आप से जरूर पूछना चाहिए कि पाकिस्तान को लेकर वाकई उनकी रणनीति क्या है? निस्संदेह, सौदेबाजी की मेज पर हरेक पार्टी अपने साथ कुछ न कुछ लेकर आती है।
नकारात्मक रूप में यह चीज कोई दबाव या प्रतिबंध हो सकती है; या फिर सकारात्मक रूप में आर्थिक सहयोग या पूंजी हो सकती है। लेकिन भारत और पाकिस्तान के मामले में इस लिहाज से भी असंतुलन दिखता है। पाकिस्तान के लिए आतंकवाद एक ऐसा औजार है, जिसके जरिये वह भारत को उलझाए रखता है, इसके सरहदी सूबों में अस्थिरता पैदा करता है और कश्मीर व दूसरे विवादों में वह इसे अपने लिए रियायत झटकने के दबाव बिंदु के तौर पर इस्तेमाल करता रहा है। पाकिस्तान के लिए दहशतगर्दी उसकी ताकत बढ़ाने वाली चीज है। यह उसकी विदेश नीति का स्वाभाविक हिस्सा है, और कुल मिलाकर सौदेबाजी का तरीका है। लेकिन भारत की तरफ से कुछ भी नहीं हो रहा, क्योंकि जाहिर-सी बात है कि वह न तो कश्मीर घाटी में किसी क्षेत्र के साथ अलग होने जा रहा है, या न किसी दबाव में अपनी विदेश नीति में कोई तब्दीली ही करने जा रहा है। हम सिर्फ आर्थिक गतिविधियों और व्यापार में दिलचस्पी दिखाते रहे हैं। लेकिन हमारी ये कवायदें पाकिस्तानी फौज को लुभाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, ताकि वह दहशतगर्दी को तवज्जो देना कम कर दे। मैं यहां यह भी कहना चाहता हूं कि पाकिस्तानी इलाकों में चीन की बढ़ती आर्थिक भूमिका भारत के आर्थिक रिश्तों के जरिये संबंध सुधारने की संभावना को और कम कर देगी।
हम जिस तरह के आतंकवाद से मुकाबिल हैं, वह एक देश प्रायोजित, विचारधारा-प्रेरित और काफी निर्मम किस्म का है, और इसका मुकाबला हम गैर-पारंपरिक तरीके से ही कर सकते हैं। मगर चूंकि आज भी गैर-पारंपरिक विकल्पों को लेकर हम मौन हैं, इसलिए हमारा पूरा जोर कूटनीति या फिर अपनी ही जमीन पर आतंकियों से लड़ने पर है। यह रक्षात्मक रणनीति दरअसल हमारी रणनीतिक कल्पनाशीलता की नाकामी और हमारे कमजोर निश्चय की परिचायक है।
लेकिन अगर हम दबाव के बिंदुओं को बदल दें, जो पाकिस्तानी फौज और उसके आतंकी मोहरों के लिए महंगे साबित हो सकें, तब क्या होगा? बलूच और पख्तून, दो स्वाभिमानी कबीलाई समूह दशकों से पंजाबी दबदबे वाली फौज के उत्पीड़न के शिकार हैं। उन्हें नैतिक और संसाधन, दोनों तरह के समर्थन की दरकार है। पाकिस्तान के साथ किसी बातचीत से पहले बलूचों और पख्तूनों की जरूरतों को संतुलित रूप से उठाकर पाकिस्तान के रवैये में फर्क पैदा किया जा सकता है। भारत को पाकिस्तान से सौदेबाजी करते समय कुछ ठोस चीजें अपने साथ लेकर मेज पर बैठनी चाहिए। उनके पास तो सीमा पार आतंकवाद का रणनीतिक अस्त्र है, हमारे पास क्या है?(Hindustaan )

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