Thursday 28 December 2017

अपराध के दलदल में किशोर (अंजलि सिन्हा)

खबर आई है कि रेयान स्कूल वाले मामले में किशोर न्याय बोर्ड ने पहली बार ऐसा फैसला सुनाया है कि 16 साल के आरोपी पर वयस्कों की तरह मुकदमा चलेगा। इस स्कूल में 11वीं के उपरोक्त छात्र ने दूसरी कक्षा के छात्र प्रद्युम्न की हत्या की थी। वहीं गौड़ सिटी हत्याकांड मामले में समाचार आया था कि अल्प वयस्क छात्र ने अपनी मां और बहन की हत्या कर शांत भाव से वह अपार्टमेंट के बाहर निकला और फरार हो गया। बाद में पुलिस ने उसे पकड़ा।
पिछले कुछ सालों में हत्या,बलात्कार और इस तरह के बड़े अपराधों में किशोरवय बच्चों की संलिप्तता पर समाज के हर तबकों में चिंता व्यक्त की गई है। अपराध के आंकड़े भी ऐसे ही दशा दिखा रहे हैं। इसके मद्देनजर किशोर अधिनियम में बदलाव की भी मांग उठी और 2014 में संशोधित अधिनियम के अनुसार जघन्य अपराध में शामिल किशोरों पर वयस्कों के जैसे मुकदमा चलाने की बात चली, लेकिन यह अधिकार का इस्तेमाल किशोर न्याय बोर्ड ही कर सकता है। अब भी कानूनन उम्र कैद या मौत की सजा नहीं हो सकती है। इस संशोधन से पहले नाबालिग को तीन साल तक सुधार गृह में रखने की अधिकतम सजा दी जा सकती थी। सोचना तो यह चाहिए कि आखिर ये बड़े होते बच्चे और किशोर इतने हिंसक क्यों बन रहे हैं? पुलिस को यह भी रिकॉर्ड के आधार पर बताना चाहिए किस प्रकार के परिवेश में रहने वाले लोग ऐसे अपराध में अधिक लिप्त पाए जाते दिखते हैं ताकि दूरगामी रूप से हल निकालने की नीति बनाई जा सके। सामाजिक विज्ञान के अध्यताओं को भी इस दिशा में काम करने की जरूरत है।
यह सही है कि बच्चे यदि जल्दी बड़े होने लगे हैं और उन्हें खेल-कूद, पढ़ाई-लिखाई से इतर दुनिया ज्यादा आकर्षित करने लगी है तो इन्हें इसका खामियाजा भी भुगतने को तैयार रहना होगा, लेकिन इसके पहले दो बातों पर विचार करना चाहिए। एक तो क्या कोई भी व्यक्ति चाहे-बच्चा हो या बड़ा-अपराध करने से पहले यह सोचता होगा कि उसे कैसा अंजाम भुगतना होगा? सभी अपने को समझदार ‘समझते’ हैं कि वे तो बच जाएंगे तो ऐसा बच्चे क्यों नहीं सोचेंगे? तब सख्त सजा दूसरों को अपराध की दुनिया में कदम रखने से कैसे रोकेगा और दूसरा सवाल कि बच्चे बच्चों की तरह बड़े क्यों नहीं बन रहे हैं? सोचना चाहिए कि बच्चों में आपराधिक प्रवृत्ति कहां से आ रही है? यह एक बड़ा सवाल है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है।
मीडिया तथा अन्य संचार माध्यमों पर तो लगातार विशेषज्ञों एवं जानकारों की राय आती रहती है कि कैसे आक्रमकता एवं यौनिक कुंठाएं पैदा हो रही हैं। पिछले दिनों दिल्ली के एक अग्रणी अस्पताल ने बच्चों की हिंसात्मक प्रवृत्ति पर कराए गए एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट पेश की थी। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि हिंसात्मक फिल्में देखने के कारण बच्चों में हथियार रखने की परिपाटी बढ़ रही है। सर्वेक्षण रिपोर्ट बताती है कि 14 से 17 वर्ष के किशोर हिंसात्मक फिल्में देखने के शौकीन हो गए हैं। दिल्ली, गुड़गांव और नोएडा के एक हजार छात्रों पर केंद्रित यह सर्वेक्षण किशोरों के मानसिक दृष्टिकोण पर आधारित है। 44 फीसद छात्रों ने माना कि उन्होंने किसी न किसी को चोट पहुंचायी है तथा 32 फीसद छात्राओं ने इसमें हामी भरी है। 35 फीसद छात्रों के मुताबिक उन्होंने दोस्त बनाने के लिए दादागिरी तथा बल प्रयोग किया। मगर सवाल है कि हमारे समाज में परत-दर-परत बैठी हिंसा और हिंसात्मक प्रवृत्ति बच्चों को ही क्यों अपराध करने के लिए क्यों अधिक प्रेरित करती है। टीवी पर जिस तरह अपराध की खबरें प्रसारित होती हैं, प्रस्तुतकर्ता जिस तरह चीख-चीख कर और भयावह मुद्रा बनाकर पेश करता है उससे क्या कोई असर ग्रहण करेगा?
ध्यान रहे यह समस्या कुछ घटनाओं तक सीमित नहीं है और न ही जघन्य अपराधों तक जोकि अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं बल्कि लड़ाकू-झगड़ालू दूसरों को तंग करना, बुलिंग आदि की शिकायतें आए दिन स्कूल परिसरों की सरदर्दी बनती जा रही हैं। हाल में दिल्ली में प्रशासनिक स्तर पर जिला विद्यालय निरीक्षक विभाग ने स्कूलों में गुस्सैल और झगड़ालू बच्चों की सूचि तैयार करने को भी कहा ताकि उनकी काउंसलिंग की जा सके तथा विशेषज्ञों की राय ली जा सके।
अब कुछ बिगड़े हुए छात्रों को 6वीं और 7वीं के बाद क्लास में काबू करना शिक्षकों के लिए भारी चुनौतिपूर्ण काम बन गया है। स्कूलों में गैंग की तरह ऐसे बच्चों का समूह दूसरे बच्चों पर दबाव बनाते हैं। कुछ माता पिता को भी अपनी संतान को स्नेह प्यार करने का मतलब उनकी हर मांग को पूरी करना रह जाता है। वे अपने बच्चों में एक जिम्मेदार नागरिक की मानसिकता नहीं बना पाते जो फिर उन पर ही भारी पड़ता है क्योंकि ऐसे बच्चे बड़े होकर अच्छे इन्सान भी तो नहीं बनते। अगर ऐसे बच्चों को कोई शिक्षक नैतिक शिक्षा की तरफ मोड़ने की कोशिश करता है तो उसे दिक्कत का सामना करना पड़ता है। यानी एक उम्र के बाद बच्चे शिक्षकों की बात मानना बंद कर दे रहे हैं और इसकी प्रवृत्ति बढ़ रही है। बच्चों पर बाहरी प्रभावों के संदर्भ में सोशल मीडिया के असर पर काफी चर्चा होती रही है, लेकिन इस से बच्चों को बचा पाना या खुद बच पाना अब लगभग नामुमकिन सा लगने लगा है।
बच्चों में आक्रामकता बढ़ने, गुस्सा भड़कने, बात बात पर हिंसक हो जाना या नाराज होकर घर से भाग जाना, अपनी जान जोखिम में डाल लेना आदि व्यवहार का कारण तलाशना इतना मुश्किल भी नहीं है। यदि हम समाज में इस मुद्दे पर पहल और हस्तक्षेप नहीं करते हैं कोई भी घर बच्चों को दुरुस्त नहीं रख पाएगा। बच्चों की नियमित निगरानी होनी चाहिए।(दैनिक जागरण )
(लेखिका स्त्री अधिकार कार्यकर्ता हैं)

उपनिवेशी मिजाज से मुक्त हो सिविल सेवा (प्रेमपाल शर्मा)

देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवाओं के लिए आयोजित की जाने वाली सिविल सेवा परीक्षा में अधिकतम उम्र सीमा, परीक्षा के विषय, माध्यम और कितनी बार अभ्यर्थी परीक्षा दे सकता है. आदि मसलों पर गठित बीएस बासवान समिति की जो सिफारिशें छनकर बाहर आ रही हैं उनसे एक उम्मीद बनती है। संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा में सुधार के लिए अगस्त 2016 में गठित भारतीय प्रशासनिक सेवा के अनुभवी अधिकारी बीएस बासवान ने अपनी रिपोर्ट हाल में सरकार को सौंप दी है। अब कार्मिक मंत्रलय को संघ लोक सेवा आयोग यानी यू्पीएससी के साथ विचार-विमर्श के बाद इन सिफारिशों पर तुरंत अंतिम निर्णय लेना है। सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश है अधिकतम उम्र सीमा कम करना। फिलहाल सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों के लिए यह 21 वर्ष से 32 वर्ष है और एससी/एसटी के लिए 21 से 37 वर्ष तक और ओबीसी के लिए 21 से 35 वर्ष। पूर्व सैनिक आदि को दी जाने वाली रियायतों को जोड़ दें तो अधिकतम उम्र 42 वर्ष तक हो जाती है। आप इस तथ्य पर चकित हो सकते हैं। प्रशासनिक सुधार आयोग, प्रोफेसर वाईपी अलघ के नेतृत्व वाली कई उच्च स्तरीय समितियों, आयोगों ने अधिकतम उम्र को घटाने की जोरदार सिफारिश की, लेकिन राजनीतिक हानि-लाभ के गणित के चलते ऐसी हर सिफारिश ठंडे बस्ते में पड़ी रही।
विशद अध्ययन, अनुभव के बाद इन सिफारिशों में बार-बार यह कहा गया है कि इतनी बड़ी उम्र में भर्ती अधिकारियों को न तो सामाजिक एवं प्रशासनिक जरूरतों के हिसाब से सिखाना, मोड़ना संभव होता है और न ही तंत्र को उनकी सेवाओं का पूरा फायदा मिलता है।
ब्रिटिश भारत में इंडियन सिविल सेवा से शुरू हुई और अब भारतीय प्रशासनिक सेवा से जानी जाने वाली इस सेवा में भर्ती की मूल भावना यही थी कि मेधावी अफसर कम उम्र में भर्ती होकर पर्याप्त ऊर्जा के साथ उच्च पदों पर जिम्मेदारी संभालें। यही कारण था कि अधिकतम उम्र शुरू में 19 थी जो बढ़ाकर 21 की गई। फिर आजादी के बाद कई बार के उलटफेर के बाद 24 हुई फिर 26। वर्ष 1979 में भर्ती प्रक्रिया में ऐतिहासिक परिवर्तन हुए। भारतीय प्रशासनिक, पुलिस, विदेश, राजस्व, रेलवे समेत सभी 20 सेवाओं की भर्ती को सिविल सेवा परीक्षा नाम दिया गया और उम्र 26 से बढ़ाकर 28 वर्ष की गई। अनुसूचित जातियों के लिए अधिकतम उम्र 33 रखी गई, इस तर्क के साथ कि वंचित तबके के ग्रामीण नौजवानों को ज्यादा मौका मिलें। भारतीय भाषाओं में उत्तर देने का विकल्प भी पहली बार मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार के समय मिला। सच्चे मायने में प्रशासनिक सेवाओं का लोकतांत्रीकरण हुआ। अपनी भाषाओं में परीक्षा के विकल्प से परीक्षा में बैठने वालों की संख्या वर्ष 1979 में इसीलिए दस गुनी ज्यादा हो गई। आजादी के बाद पहली बार गरीब वंचित, पहली पीढ़ी के शिक्षित छात्र प्रशासनिक सेवाओं में आए।
वर्ष 1989 में सतीश चंद्र समिति ने भी मामूली फेरबदल के साथ इन सभी सुधारों पर मुहर लगाई, लेकिन 1990 के मंडल आंदोलन की राजनीतिक लपटों से यह परीक्षा भी प्रभावित हुई और अधिकतम उम्र बढ़ाकर 30 वर्ष कर दी गई। इतना ही नहीं मनमोहन सरकार के समय एक और अतार्किक और वोट बैंक से प्रेरित निर्णय ने इसे बढ़ाकर 32 वर्ष कर दिया।
बासवान समिति ने इन सभी मुद्दों पर देश भर के लोगों से विमर्श किया है। वह स्वयं लाल बहादुर शास्त्री अकादमी, मसूरी के निदेशक रहे हैं और देश की जरूरतें, शिक्षा प्रणाली और नौजवानों की आकांक्षाओं को बेहतर समझते हैं। इसलिए उनकी सिफारिश अधिकतम उम्र 26 या 28 को तुरंत प्रभाव से लागू करना राष्ट्रीय हित में होगा। ध्यान रहे कि कमजोर वर्गो को अतिरिक्त पांच वर्ष की रियायत तो रहेगी ही।
इस प्रश्न पर विचार किया ही जाना चाहिए कि जिस देश में दुनिया की सबसे ज्यादा नौजवान आबादी हो, वहां उसकी सर्वोच्च सेवा में ‘बूढ़ों’ की भर्ती से कौन से सामाजिक न्याय का हित हो सकेगा? 25 वर्ष के आसपास की यही नौजवान पीढ़ी नए से नए स्टार्ट-अप, उद्यमों के जरिये दुनियाभर में डंका बजा रही है। कुछ ने तो कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही सफलता के करिश्में कर डाले हैं। बासवान समिति की दूसरी महत्वूपर्ण सिफारिश है पूरी परीक्षा में हर उम्मीदवार के लिए एक समान प्रश्न पत्र। कोई वैकल्पिक विषय नहीं। वर्ष 2011 से पहले सिविल सेवा परीक्षा में दो वैकल्पिक विषय होते थे। बाद में एक ही रहने दिया गया। हालांकि तब भी इसे हटाने की सिफारिश की गई थी, लेकिन भाषाई निहित स्वाथोर्ं के चलते उसे टाल दिया गया। क्या गणित, संस्कृत, मलयालम, उर्दू, मैथिली, भौतिकी के विषय एक पलड़े में रखे जा सकते हैं? हमें सिविल सेवा परीक्षा के जरिये सर्वश्रेष्ठ मेधा को चुनना होता है न कि किसी भाषा, प्रांत के उम्मीदवार को। इंजीनियरिंग, नीट, जी मैट, कैट में भी तो यही एकसमान प्रणाली लागू है। भारतीय भाषाओं की राजनीति से इसे जोड़ने की जरूरत नहीं है। इसके बावजूद भारतीय भाषाओं के पक्ष में देश को कुछ अपेक्षाएं भी हैं।
वर्ष 1979 में जब सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं में उत्तर देने की शुरुआत की गई थी तो शिक्षाविद कोठारी को यह उम्मीद थी कि जल्द ही दूसरी अखिल भारतीय सेवाओं- वन सेवा, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, आर्थिक, रक्षा सेवाओं में भी भारतीय भाषाओं में पढ़ने वालों को मौका मिलेगा, लेकिन आज लगभग 40 वर्ष बाद भी अपनी भाषाओं में पढ़ने वाले दर-दर भटक रहे हैं और अंग्रेजी निरंतर हावी होती जा रही है। यह निर्णय भी यही सरकार ले सकती है, क्योंकि अनुभव बताता है कि कांग्रेसी सरकारें कभी भी भारतीय भाषाओं के पक्ष में नहीं रहीं। देश को एक और अपेक्षा है इस समिति से और वह यह कि भर्ती के बाद प्रशिक्षण प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाए। इन सेवाओं में आने वाले नौजवानों को अनंत सुविधाओं और लाटसाहबी से पहले जन सेवक के दायित्वों के साथ-साथ उस समाज, संस्कृति, भाषा को समझना होगा जिसकी सेवा के लिए उन्हें तमाम सुविधाएं दी जाती हैं।
जन-जन को यह संदेश देना होगा कि कलक्टरी, हाकिम के पद सिर्फ सुविधाएं अर्जित करने के लिए नहीं हैं। ब्रिटिश उपनिवेशी मिजाज से पूरी मुक्ति चाहिए और वह भी तुरंत। बासवान समिति की कुछ सिफारिशें कड़वी गोली की तरह हो सकती हैं, लेकिन उन्हें लागू करने में ज्यादा देर नहीं की जानी चाहिए। उम्मीद की जाती है कि मोदी सरकार देश हित में एक और कठोर फैसला लेने में हिचकेगी नहीं। (Dainik Jagran)
(लेखक रेल मंत्रलय में संयुक्त सचिव रहे हैं)

Wednesday 27 December 2017

नया दौर मल्टी मॉडल इलेक्ट्रिक वाहनों का (भाविश अग्रवाल ) (को-फाउंडरएवं सीईओ, ओला )


इस बातमें कोई संदेह नहीं कि भारत दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से है। विकास के ताने-बाने में गतिशीलता महत्वपूर्ण सूत्र है। हमारे देश की आवाजाही की जरूरतें अनूठी हैं। हमारे यहां कार ओनरशिप कम है और परिवहन का बुनियादी ढांचा पिछले दो दशकों में तेजी से हो रहे शहरीकरण के साथ नहीं बढ़ सका है। अब जब ऑटोरिक्शा और टैक्सी जैसे मौजूदा विकल्प टेक्नोलॉजी का फायदा उठाने के लिए ओला के प्लेटफॉर्म पर गए हैं, तो परिवहन का भविष्य ट्रैफिक जाम, प्रदूषण और सबसे महत्वपूर्ण घर से गंतव्य तक एक ही प्लेटफॉर्म पर समाधान देने में है। 2017 इस अर्थ में घटनापूर्ण रहा कि लाखों भारतीयों ने राइड शेयरिंग और शेयर्ड मोबिलिटी के जादू का पहली बार अनुभव लिया। इससे किफायती परिवहन सुविधा 10 करोड़ से ज्यादा लोगों की पहुंच के दायरे में गई।
अब लोगों के पास जरूरत उपयोग के अनुसार ऑटो रिक्शा से बस और लग्ज़री कार की सवारी तक के विकल्प हैं। शेयर्ड मोबिलिटी प्लेटफॉर्म का एक वाहन 10 से 44 कारों को सड़क से हटा देता है। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टिट्यूट के मुताबिक अकेले ओला की शेयर्ड मोबिलिटी ने 80 लाख लीटर ईंधन, 1.40 करोड़ किलोग्राम कार्बन डायऑक्साइड उत्सर्जन घटाया है।
दस लाख से ज्यादा ड्राइव पार्टनर और साल में करोड़ों राइड के साथ जो डेटा इकट्‌टा होता है उससे अंतर्दृष्टि लेकर बेहतर शहरी नियोजन और बुनियादी ढांचे का अधिकतम संभव इस्तेमाल किया जा सकता है। सड़क का जो बुनियादी ढांचा हमारे यहां है वह लगातार एक जैसा बना हुआ है। इसी के साथ आसन्न समस्या है मास ट्रांजिट के साथ राइड शेयरिंग को जोड़ने की। हमने एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन, बस टर्मिनल, अस्पताल और मॉल जैसे ऊंची डिमांड के क्षेत्रों में इनोवेशन किए हैं।
जहां तक राइड शेयरिंग से भविष्य में शहरी परिवहन के तय होने की बात है तो भारत की जरूरतें ऐसी हैं कि कोई भी एक समाधान सबको सेवा नहीं दे सकता। बड़े शहरों और छोटे कस्बों की अपनी भिन्न जरूरतें हैं। बड़े शहरों में भी किस तरह के परिवहन का इस्तेमाल होगा यह उपयोग, उपलब्धता और कीमत से तय होगा। प्लेटफॉर्म आधारित परिवहन नई सुविधा देने के साथ ही ऑटोरिक्शा, बस, टैक्सी जैसे मौजूदा साधनों में सुधार में भी मददगार है। शहरी भारत में हर दिन 30 करोड़ ट्रिप लगती हैं और प्रत्येक यात्रा के अनुभव को नई टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से बदला जा सकता है।
लोगों को लाने-ले जाने के कई तरीके हो सकते हैं और इसलिए यह सही है कि यूरोप या अमेरिका की तुलना में भारत में परिवहन का भविष्य एकदम अलग हो सकता है। यूरोप-अमेरिका में कार की ओनरशिप बहुत ज्यादा है और इसलिए उसका अधिकतम इस्तेमाल जरूरी है। भारत में रचनात्मक परिवहन समाधान राष्ट्रीय निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। भविष्य में टेक्नोलॉजी की मदद से लोगों के लिए परिवहन का टिकाऊ ढांचा निर्मित किया जा सकता है। इलेक्ट्रिक वाहनों जैसे नए आयाम भी खुल रहे हैं। इसका भी बहुत गहरा असर होगा।
तेजी से बढ़ते शहरीकरण को देखते हुए लोकल मेट्रो रेल सेवाएं व्यावहारिक समाधान है। शहरी रिहायशी इलाकों और केंद्रीय क्षेत्रों के बीच सुगम परिवहन व्यवस्था से आबादी का घनत्व कम होकर वह अपेक्षतया दूर के हिस्सों में फैलेगी। इससे रियल इस्टेट की कीमतों पर भी असर पड़ेगा। इस जरूरत को समझते हुए हमने मेट्रो रेल संगठनों से अंतिम बिंदु तक सेवा देने के लिए भागीदारी भी की है।
जहां शहरों के बीच लंबी दूरी की बात है लंबे समय से हवाई यात्रा का प्रभुत्व है लेकिन, अब एयर टैक्सी का विचार रहा है। टेक्नोलॉजी छलांगे मार रही है और किसी भी साधन का मौजूदा प्लेटफॉर्म के कुशल उपयोग से दोहन करना चाहिए। ओला आउटस्टेशन जैसी सुविधा से हजार शहरों कस्बों को समानांतर प्लेटफॉर्म से जोड़ा जा सकता है पर शहरों के बीच अधिक तेज कुशल समाधान की काफी संभावना है। कई शहरों में तो एयरपोर्ट से शहर के केंद्र तक पहुंचने में ढाई घंटे तक लग जाते हैं। निकट भविष्य में शेयर्ड टैक्सी की तर्ज पर शेयर्ड हेलिकॉप्टर सेवा से यह समय घटाया जा सकता है। लेकिन, ऐसी किसी पहल को संभव बनाने के लिए सरकार और निजी क्षेत्र दोनों को साथ आना होगा।
इलेक्ट्रिक वाहन भी अच्छी संभावना है, क्योंकि यह प्रदूषण जैसी समस्या ा समाधान देते हैं। इससे कच्चे तेल पर हमारी निर्भरता भी घटेगी। इसलिए हमने पहला मल्टीमॉडल इलेक्ट्रिक वाहन प्लेटफॉर्म बनाया है जिसमें इलेक्ट्रिक बसें, ई-कैब रिक्शा हैं। नागपुर में इसका उद्‌घाटन मई 2017 में केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने किया। यह सफल रहा और इसे देश के अन्य शहरों में भी शुरू किया जाना है। हम आगामी दशक में शत-प्रतिशत इलेक्ट्रिक वाहनों के सरकार के मिशन के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं। (DB)

शीघ्र न्याय के लिए गतिरोध दूर हो (अनूप भटनागर) (दैनिक ट्रिब्यून )


न्यायपालिका के कामकाज में पारदर्शिता लाने के लिये अदालतों और न्यायाधिकरणों में सीसीटीवी कैमरे लगाने का काम हो रहा है। दूसरी ओर देश के 24 उच्च न्यायालयों, उच्चतम न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने से संबंधित मसौदे को 2017 में भी मंजूरी नहीं मिलने से उच्चतर न्यायपालिका में नियुक्तियों की प्रक्रिया गति नहीं पकड़ रही है।
उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों के नामों के चयन, उनके तबादले और नियुक्तियों के बारे में प्रस्तावित मेमोरैंडम आॅफ प्रोसीजर के कुछ बिन्दुओं को लेकर न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच अभी भी गतिरोध बना हुआ है। यह गतिरोध अगर जल्द दूर नहीं किया गया तो नये साल में न्यायाधीशों के रिक्त पदों की वजह से लंबित मुकदमों के निपटारे की समस्या खड़ी हो सकती है।
यह भी विचित्र स्थिति है कि एक ओर कार्यपालिका के साथ ही न्यायपालिका भी अदालतों में लंबित मुकदमों की बढ़ती संख्या और इनके निपटारे की धीमी रफ्तार पर चिंता व्यक्त करती रहती है। वहीं इन्हें गति प्रदान करने के उपायों पर विचार भी होता रहता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को गति प्रदान करने के लिये इससे संबंधित मसौदे को अंतिम रूप देने के मामले में व्याप्त गतिरोध दूर नहीं हो पा रहा है। हालांकि उच्चतम न्यायालय की कोलेजियम ने न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाने के इरादे से कार्यपालिका के पास भेजे गये नामों को अपनी वेबसाइट पर अपलोड करने का महत्वपूर्ण कदम उठाया है, लेकिन इसे लेकर कोलेजियम के कुछ सदस्यों की असहमति चर्चा में है। वैसे मेमोरैंडम आॅफ प्रोसीजर के मसौदे पर गतिरोध मुख्यतया दो मुद्दों पर हैः पहला तो राष्ट्रीय सुरक्षा का है। यह प्रावधान सरकार को न्यायाधीश पद के लिये मिले किसी भी नाम की सिफारिश अस्वीकार करने का अधिकार दे देगा। दूसरा मुद्दा न्यायाधीशों के बारे में मिलने वाली शिकायतों के समाधान के लिये अलग समिति बनाने का है।
अक्तूबर, 2015 में पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून और इससे संबंधित संविधान संशोधन निरस्त करते हुये न्यायाधीशों की नियुक्तियों के बारे में मेमोरैंडम आॅफ प्रोसीजर को नया रूप देने की सिफारिश की थी। केन्द्र सरकार ने इस पर तत्काल अमल करते हुये इसका मसौदा तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर को भेजा था। लेकिन मेमोरैंडम आॅफ प्रोसीजर को अभी तक अंतिम रूप नहीं दिया जा सका है।
उच्चतम न्यायालय में एक दिसंबर की स्थिति के अनुसार प्रधान न्यायाधीश सहित 31 न्यायाधीशों के पदों में से छह रिक्त हैं। वर्ष 2018 में प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति जे चेलामेश्वर, न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर, न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ, न्यायमूर्ति आर के अग्रवाल, न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और न्यायमूर्ति अमिताव राय सेवानिवृत्त होंगे। वहीं 24 उच्च न्यायालयों में से नौ उच्च न्यायालयों में फिलहाल कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ही काम देख रहे हैं।
इनमें तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, मुंबई, कलकत्ता, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल औ्र मणिपुर उच्च न्यायालय शामिल हैं। उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों की संख्या 1079 है। इनमें 771 स्थाई और 308 अतिरिक्त न्यायाघीशों के पद हैं।
हालांकि 2017 के दौरान सरकार ने न्यायधीशों की कोलेजियम की सिफारिशों पर अनेक अतिरिक्त न्यायाधीश नियुक्त किये हैं लेकिन अभी भी उच्च न्यायालयों में स्थाई न्यायाधीशों के 272 और अतिरिक्त न्यायाधीशों के 120 पद रिक्त हैं। यानी उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के करीब 35 प्रतिशत पद अभी भी रिक्त हैं। संख्या की दृष्टि से सबसे अधिक 51 पद इलाहाबाद उच्च न्यायालय में रिक्त हैं। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के 50 में से 35 पद रिक्त हैं। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में भी पांच पद रिक्त हैं। इसी तरह, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के 61 में से 30, कलकत्ता उच्च न्यायालय में 72 में से 39, दिल्ली उच्च न्यायालय में 60 में से 23, कर्नाटक उच्च न्यायालय में 62 में से 37, पटना उच्च न्यायालय में 53 में से 20 और गुजरात उच्च न्यायालय में 52 में से 21 पद रिक्त हैं। ऐसी स्थिति में उच्च न्यायालयों में लंबित मुकदमों के तेजी से निपटारे की बात करना बेमानी ही लगता है।
उम्मीद है कि 2018 में मेमोरैंडम आॅफ प्रोसीजर के मसौदे के कुछ बिन्दुओं को लेकर व्याप्त गतिरोध दूर हो जायेगा और न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया गति पकड़ेगी।

अमेरिका के खिलाफ मतदान के मायने (लोकमित्र)‘

वे हमसे अरबों डॉलर की मदद लेते हैं और संयुक्त राष्ट्र में हमारे खिलाफ मतदान भी करते हैं, करने दो, हमें इससे फर्क नहीं पड़ेगा, हम बड़ी बचत करेंगे।’ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह बात संयुक्त राष्ट्र में यरुशलम को इजरायल की राजधानी मानने के विरोध में लाए जा रहे प्रस्ताव पर मतदान से पहले कही थी। उनका यह वक्तव्य उन देशों को सीधे-सीधे चुनौती थी, जो आर्थिक सहायता के लिए अमेरिका की तरफ देखते रहते हैं, लेकिन मतदान का नतीजा गवाह है कि दुनिया अमेरिका की इस धौंसपट्टी में नहीं आई। दुनिया ने संयुक्त राष्ट्र के मंच से यरुशलम को इजरायल की राजधानी मानने से इन्कार कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने उस प्रस्ताव को भारी समर्थन से पारित कर दिया, जिसमें यरुशलम को इजरायल की राजधानी का दर्जा रद करने की मांग की गई थी। संयुक्त राष्ट्र के इस इस गैर बाध्यकारी प्रस्ताव के समर्थन में 128 देशों ने मतदान किया जबकि खिलाफ या कहें अमेरिका के पक्ष में सिर्फ नौ वोट पड़े। इससे पता चलता है कि ट्रंप की यह कितनी बड़ी हार है। दरअसल अमेरिका ने इसे नाक का बाल इसलिए बना लिया था; क्योंकि इसी महीने अंतरराष्ट्रीय आलोचना को दरकिनार कर ट्रंप ने यरुशलम को इजरायल की राजधानी के तौर पर मान्यता दी थी।
व्हाइट हाउस में पत्रकारों से बात करते हुए ट्रंप ने कहा था, अतीत में असफल नीतियों को दोहराने से हम अपनी समस्याएं हल नहीं कर सकते। हालांकि ट्रंप के इस एलान से फलस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास के प्रवक्ता ने चेतावनी दी थी कि इस कदम के खतरनाक नतीजे हो सकते हैं। मगर ट्रंप नहीं रुके। उन्होंने कहा, आज मेरी घोषणा इजरायल और फलस्तीन के बीच विवाद के प्रति नए नजरिये की शुरुआत है।
बहरहाल यरुशलम पर अमेरिका के मौजूदा रुख का सारा दोष ट्रंप के सिर पर मढ़ने की जरूरत नहीं है। ट्रंप ने यरुशलम को इजरायल की राजधानी मानने का यह जो फैसला लिया है, उससंबंध में अमेरिकी कांग्रेस ने 22 साल पहले ही कानून पास कर दिया था। वास्तव में अमेरिकी राष्ट्रपति अपनी एक्जीक्यूटिव पावर का इस्तेमाल करके इसे बस टालते आ रहे थे या यूं कहें रोकते आ रहे थे। ट्रंप ने बस इतना किया है कि जो फैसला कभी अमेरिकी कांग्रेस ने किया था, उसे उन्होंने अमली जामा भर पहना दिया है। शायद इसीलिए अमेरिकी प्रतिनिधि निकी हेली ने सुरक्षा परिषद में कहा कि यह विदेश नीति नहीं है, उनके लिए यह एक घरेलू मसला है।
यरुशलम शहर को लेकर इजरायल और फलस्तीनी क्षेत्र के बीच 1948 से ही विवाद है। दुनिया के पवित्र शहरों में शुमार यरुशलम को इजरायल हमेशा से अपनी राजधानी मानता रहा है, लेकिन पिछले 70 सालों में अमेरिका को छोड़कर आज तक किसी दूसरे देश ने इसे इजरायल की राजधानी नहीं मानी। शायद इसी की भरपाई इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने अमेरिकी विदेश विभाग से दूतावास को तेल अवीव से यरुशलम लाने के लिए कह दिया है और दुनिया में अलग-थलग पड़ गए हैं।
दरअसल ऐसा होना स्वाभाविक था; क्योंकि इजरायल की यरुशलम को राजधानी बनाने के पीछे जो आक्रामक मनोविज्ञान है, उसके केंद्र में फलस्तीन ही नहीं बल्कि समूचे मध्यपूर्व को कमतर दिखाने की मंशा काम करती है। 1967 के छह दिवसीय युद्ध में विजय हासिल करने के क्रम में इजरायल ने पूर्वी यरुशलम पर भी कब्जा कर लिया था, जिस पर पहले जॉर्डन का नियंत्रण था। तब से इजरायल समूचे यरुशलम को ही अपनी राजधानी मानता है। जबकि फलस्तीनी भी अपने प्रस्तावित राष्ट्र की राजधानी के रूप में पूर्वी यरुशलम को ही देखते हैं। असल में, यरुशलम को लेकर इजरायल-फलस्तीन के बीच होने वाला कोई समझौता ही मान्य होगा। 1जाहिर है यह समझौता शांति वार्ताओं में ही संभव है, लेकिन इजरायल के पास इस समस्या का दूसरा पाठ फलस्तीन को मनोवैज्ञानिक रूप से कुचल डालने का है। अमेरिका इसमें अप्रत्यक्ष तरीके से उसे सहयोग दे रहा है, लेकिन दुनिया इतना अमानवीय हथकंडा सफल नहीं होने देगी। इसलिए यरुशल पर अपने रुख के चलते अमेरिका को संयुक्त राष्ट्र में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। दुनिया इस बात को समझती है। इसीलिए सभी देशों के दूतावास फिलहाल तेल अवीव में ही हैं। राष्ट्रपति ट्रंप अपनी जिद के चलते हो सकता है कि एलान के मुताबिक अपने दूतावास को यरुशलम ले जाएं। मगर इससे बुरी तरह हारा अमेरिका जीत नहीं जाएगा।
अमेरिका और इजरायल की इस गैर कूटनीतिक जिद ने भारतीय कूटनीतिक कौशल की भी परीक्षा ली है, लेकिन कहना होगा कि भारत ने दुनिया को तात्कालिक तौर पर दिख रही इजरायल के साथ अपनी नजदीकी के बजाय इस गंभीर मसले पर राष्ट्रीय विवेक से काम लिया है जो नि:संदेह हमारी विदेश नीति के लिए महत्वपूर्ण रहा। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के समर्थन में यानी अमेरिकी फैसले के खिलाफ मतदान किया। वैसे तो हम पिछले सात दशकों से फलस्तीन और इजरायल के बीच एक संतुलन बनाकर चलते रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों से अमेरिका और इजरायल से करीबी ने दुनिया को हमारे बारे में भ्रम में डाल दिया था।
संयुक्त राष्ट्र में फलस्तीन पर 16 बार मतदान हुआ है और इसमें 15 बार भारत ने फलस्तीन के पक्ष में मतदान किया है। फलस्तीन मुद्दे पर भारत ने इस बार भी पारंपरिक नीति को अपनाते हुए अरब देशों के साथ वोट किया है। बकौल विदेश सचिव एस जयशंकर, ‘हमने अमेरिका या इजरायल के खिलाफ वोट नहीं किया, बल्कि भारत ने अरब देशों के प्रस्ताव का समर्थन किया है। दुनिया यह मानती है कि इजरायल फलस्तीन विवाद का समाधान दो राष्ट्र सिद्धांत के तहत ही मुमकिन है।
भारत स्पष्ट कर चुका है कि अगर फलस्तीन और इजरायल के बीच सर्वमान्य समझौता में यरुशलम, इजरायल को सौंपा जाता है तो वह उसका स्वागत करेगा। ऐसे में भारत की ओर से फलस्तीन के पक्ष में संयुक्त राष्ट्र में मतदान करना मूलत: स्वतंत्र विदेश नीति का ही परिचायक है। अंतरराष्ट्रीय मामलों में भी इस फैसले से साफ हो गया है कि भारत हमेशा अंतरराष्ट्रीय मूल्यों बढ़ावा देना चाहता है। (दैनिक जागरण )
(लेखक इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में 1वरिष्ठ संपादक हैं)

Tuesday 26 December 2017

2जी पर क्या कहता है अदालती फैसला (अवधेश कुमार)


2जी स्पेक्ट्रम मामले में सीबीआइ की विशेष अदालत द्वारा सभी आरोपियों को बरी करने पर कांग्रेस ने जिस तरह का हमला केंद्र सरकार पर बोला है वह स्वाभाविक है। आखिर इस मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों का दंश आज तक ङोल रही है तो न्यायालय के फैसले का वह राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करेगी ही। वैसे भी जिसे उस समय तक आजादी के बाद का सबसे बड़ा घोटाला कहा गया उस मामले में न्यायालय का ऐसा फैसला लोगों को हैरत में तो डालता ही है। इससे लोगों के अंदर भी तत्काल यही संदेश गया है कि सारे आरोप गलत थे और 2जी मामले में कोई घोटाला हुआ ही नहीं। किंतु क्या यही सच है? क्या वाकई न्यायालय ने मान लिया है कि 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में कोई भ्रष्टाचार हुआ ही नहीं है? क्या उसने यह कहा है कि जितने और जिनको लाइसेंस दिए गए वे सब नियमों के अनुरूप थे तथा उनसे लिया गया भुगतान का दर सही था?
यहां यह बताना आवश्यक है कि विशेष न्यायालय ने कहा है कि पैसों का लेनदेन साबित नहीं हो सका इसलिए मैं सभी आरोपियों को बरी कर रहा हूं। ध्यान रखने की बात है कि न्यायालय ने यह नहीं कहा है कि घोटाला नहीं हुआ है। उसने केवल यह कहा है कि आरोपों के हिसाब से जांच एजेंसियां सुबूत पेश करने में बुरी तरह नाकाम रहीं। न्यायालय की यह टिप्पणी सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय के खिलाफ एक कड़ी टिप्पणी है। हालांकि दोनों एजेंसियों के पास अभी उच्च न्यायालय जाने का विकल्प खुला हुआ है और उसके फैसले का भी हमें इंतजार करना होगा। लेकिन जब न्यायालय ने 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में घोटाला हुआ या नहीं इस पर साफ शब्दों में कुछ कहा ही नहीं है तो फिर कोई निष्कर्ष निकाल लेना कहां तक उचित है? अगर इसमें गड़बड़ी होती ही नहीं तो उच्चतम न्यायालय 2012 में एक साथ 122 2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस रद क्यों करता? उस फैसले को पढ़िए तो उसमें काफी कड़ी टिप्पणियां की गई हैं। उसमें कानून और प्रक्रियाओं के उल्लंघन को स्वीकार किया गया है।
उच्चतम न्यायालय ने जिन 9 कंपनियों को दिए गए 2जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस रद किए वे सारे संप्रग सरकार के कार्यकाल में सितंबर-अक्टूबर 2008 में प्रदान किए गए थे। हालांकि उच्चतम न्यायलय ने भी इसमें भ्रष्टाचार या कितने का लेनदेन हुआ आदि पर न विचार किया और न कोई टिप्पणी ही की। न्यायालय ने केवल यह कहा था कि 2जी लाइसेंस देने का निर्णय मनमाने और असंवैधानिक तरीके से किया गया। दूसरे शब्दों में कहें तो न्यायालय ने इसमें नियम, कानून के पालन पर प्रश्न उठाया, अंतिम सीमा के निर्धारण को गलत कहा। इस तरह अनियमितता हुई इसे तो उच्चतम न्यायालय मान चुका था, भ्रष्टाचार हुआ इसका फैसला सीबीआइ की विशेष अदालत को करना था।
2जी मामले की सुनवाई 2011 में शुरू हुई थी। 30 अप्रैल, 2011 को सीबीआइ ने अपने आरोप पत्र में राजा और अन्य पर 30 हजार 984 करोड़ रुपये के नुकसान का आरोप लगाया था। विशेष अदालत ने राजा और कनीमोझी के अलावा अन्य आरोपियों के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक कानून, आपराधिक षड्यंत्र रचने, धोखाधड़ी, फर्जी दस्तावेज बनाने, पद का दुरुपयोग करने और घूस लेने जैसे आरोप लगाए गए थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि सीबीआइ और प्रवर्तन न्यायालय के सुबूत इनको सजा देने के लिए नाकाफी थे। न्यायालय के फैसले पर हम कोई टिप्पणी नहीं कर सकते। उसने जो तथ्य सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय ने उसके सामने रखे उसके आधार पर अपना फैसला दिया है।
यह तो सच है कि ए राजा के मंत्री रहते दूरसंचार मंत्रलय ने पहले आवेदन करने की अंतिम तिथि 1 अक्टूबर, 2007 तय की। इसके बाद आवेदन प्राप्त करने की कट-ऑफ डेट बदलने से 575 में से 408 आवेदक रेस से बाहर हो गए। दूसरा आरोप यह था और इसमें सच्चाई भी थी कि पहले आओ पहले पाओ की नीति का उल्लंघन किया गया। तीसरे आरोप में उन कंपनियों की योग्यता पर सवाल उठाए गए, जिनके पास कोई अनुभव नहीं था। चौथा आरोप नए ऑपरेटरों के लिए प्रवेश शुल्क का संशोधन नहीं किए जाने का था। राजा ने कहा था कि ट्राई ने अनुभव वाले प्रावधान को खत्म कर दिया था। उनका दावा था कि ट्राई ने कहा था कि जो भी फर्म 1650 करोड़ रुपये जमा करेगी वह स्पेक्ट्रम की नीलामी में शामिल होने के योग्य होगी। यानी पहले आओ पहले पाओ की नीति पहले पैसा दो और लाइसेंस ले जाओ तथा जितने ग्राहक हों उसके अनुसार स्पेक्ट्रम लो की नीति में बदल गई। उसके पूर्व सरकार यानी राजग सरकार के कार्यकाल में 2जी खरीदने वालों की संख्या कम थी इसलिए पहले आओ पहले पाओ की नीति समझ में आती है। उस समय दर कम रखना भी स्वाभाविक था, लेकिन 2001 की दर को 2008 में बनाए रखने का कोई मतलब नहीं था। प्रवर्तन निदेशालय का कहना था कि कलाइगनर टीवी और डीबी रियल्टी के बीच 200 करोड़ रुपये के लेनदेन हुए।
तो सवाल है कि इतना सब कुछ सामने होते हुए सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय मामला साबित क्यों नहीं कर सके? हम न भूलें कि वह समय संप्रग सरकार का ही था। सीबीआइ के बारे में उच्चतम न्यायालय ने 2013 में पिंजड़े का तोता होने का जो शब्द प्रयोग किया उसमें यह उम्मीद कम ही थी कि वह ईमानदारी और दृढ़ता से मामले की छानबीन करता या सजा देने लायक सुबूत पेश करता। यही बात प्रवर्तन निदेशालय के बारे में कहा जा सकता है। ध्यान रखिए जो धाराएं आरोपियों पर लगाए गए उनमें यह साबित करना जरूरी था कि घूस में आई रकम कहां-कहां गई। यह दोनों एजेंसियां प्रमाणित नहीं कर सकीं। इसलिए प्रशासनिक निर्णय में गलतियों का तो मामला हो सकता है, लेकिन अपराध नहीं। यह आश्चर्य का विषय है कि सरकार बदलने के बावजूद इस मामले पर सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय ने नए सिरे से काम नहीं किया। मामले की गंभीरता को देखते हुए इसे नए सिरे से आरंभ करना चाहिए था। इसमें पूरक आरोप पत्र दाखिल किया जा सकता था और सुबूत रखे जा सकते थे। कुछ भी सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय ने नहीं किया। इसका परिणाम वर्तमान फैसला है। (dainik jagran se aabhar sahit )
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

विश्व पटल पर उभरता भारत (डॉ. श्रीश पाठक )


भारत के मित्र समङो जाने वाले मालदीव से अभी चीन ने मुक्त व्यापार संधि संपन्न की, लेकिन फिर भी कहना होगा कि वैश्विक पटल पर और खासकर एशियाई क्षेत्र में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण होती जा रही है। दरअसल चीन के बढ़ते प्रभावों के उत्तर में अमेरिका के पास भारत के अलावा कोई दूसरा ऐसा विकल्प नहीं है, जिसकी भू राजनीतिक स्थिति कमाल की हो, बाजार के लिए अवसर प्रचुर हों और वैश्विक लोकतांत्रिक साख भी विश्वसनीय हो। अपने कार्यकाल के पहले राष्ट्रीय सुरक्षा कार्यनीति में ट्रंप सरकार ने जहां पाकिस्तान के लिए सख्त रवैया अपनाया, वहीं एक ‘विश्वशक्ति’ के तौर पर भारत का जिक्र आठ बार किया और भारत के साथ सामरिक-आर्थिक हितों की वकालत की।
हाल ही में हुए आठवें वैश्विक उद्यमिता शीर्ष सम्मलेन के आयोजन के लिए भी अमेरिका के स्टेट विभाग ने भारत को चुना, जो कि दक्षिण एशिया का पहला ऐसा आयोजन था। अपने यहूदी पति जेरेड कुशनर की तरह ही डोनाल्ड ट्रंप की पुत्री इवांका ट्रंप परिवार की एक प्रभावशाली व्यक्तित्व मानी जाती हैंै। इस वैश्विक उद्यमिता शीर्ष सम्मलेन में इवांका की फैशन कूटनीति की भी चर्चा हुई।
वाशिंगटन की अपनी प्रेसवार्ता में डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी हाल ही में हुई दक्षिण-पूर्व एशियाई यात्र को ‘जबर्दस्त सफल’ करार दिया था। उन्होंने पत्रकारों से बिना कोई सवाल लिए एक लंबा उद्बोधन दिया और कहा कि एक वैश्विक नेता के तौर पर अपनी भूमिका में अमेरिका वापस आ गया है और उनके प्रयासों ने उन्मादी उत्तर कोरिया के खिलाफ विश्व को एकजुट कर दिया है। उत्तर कोरिया ने अभी अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्र का परीक्षण किया जिसमें उसका दावा है कि अब अमेरिका का पूरा भू-भाग उसके आक्रमण-क्षेत्र में आ गया है। ट्रंप ने एक ट्वीट में इस पर चिंता जताते हुए अपनी सरकार और सेना के लिए और अधिक वित्त की आवश्यकता पर बल दिया।
उसी दिन के एक ट्वीट में ट्रंप ने इवांका की भारत यात्रा की प्रशंसा भी की। ट्रंप की एशिया-प्रशांत यात्रा एक ऐसे क्षेत्र में हुई जहां तेजी से चीन की दखलंदाजी बढ़ी है और एक ऐसे समय में हुई जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के 19वें अधिवेशन में राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने अपने 3 घंटे 23 मिनट के लंबे भाषण में चीन की वैश्विक और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को पुन: दोहराया।
माना जा रहा है कि इवांका की मंत्रणा से ही ट्रंप की इस यात्रा में चीन का समावेशन अमेरिका के आर्थिक हितों के सुचारू संचलन के लिए किया गया था। समझा जा सकता है कि इस यात्रा के अन्य पड़ावों के रूप में बाकी देशों जापान, दक्षिण कोरिया, फिलीपींस और वियतनाम का चुनाव इसलिए किया गया, क्योंकि वे सभी चीन के संतुलन में अलग-अलग दृष्टिकोण से अमेरिका के मजबूत स्तंभ हैं। जापान जहां सामरिक और आर्थिक रूप से अमेरिकी कूटनीति में भागीदारी कर रहा, वहीं दक्षिण कोरिया दरअसल उत्तर कोरिया के संतुलन में है। वियतनाम और फिलीपींस की भू राजनीतिक स्थिति दक्षिण-चीन सागर के लिहाज से अहम है और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में एपेक और आसियान सहयोग के मद्देनजर भी दोनों देश अमेरिकी हितों को आकर्षित करते हैं। चीन पर इस अमेरिकी घेराव को और धार मिल जाती है जब ट्रंप द्वारा इस क्षेत्र को ही भारत-प्रशांत क्षेत्र कहा जाता है। चर्चित जापान-भारत-अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया चतुष्क (क्वाड) के साथ ही यहां बहरहाल पाकिस्तान-चीन-रूस-उत्तर कोरिया के प्रतिचतुष्क (एंटीक्वाड) को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
ट्रंप कारोबारी हैं और अमेरिका का चुनाव अमेरिकी हितों की प्राथमिकताओं को वरीयता देने के वादे से जीत कर आए हैं। चीन के साथ उनके देश के सर्वाधिक व्यापारिक हित जुड़े हैं, जिसे उन्होंने इस बार की यात्र में भी महत्ता दी। ट्रंप ने ‘आर्थिक सुरक्षा ही राष्ट्रीय सुरक्षा है’ का नारा देकर अपना मंतव्य भी स्पष्ट कर दिया। साथ ही हिंद महासागर से प्रशांत महासागर के व्यापारिक समुद्री मार्गो की मुक्तता एवं सुरक्षा के लिए वे भारत की महत्ता को रेखांकित करने से नहीं चुके। उन्हें अमेरिका का दबदबा कम तो नहीं होने देना है, किंतु ट्रंप चाहते हैं कि जिन देशों को अमेरिकी वैश्विक संलग्नता से फायदा है, वे इसे मिलकर वहन करें। 1आर्थिक दृष्टिकोण से हिन्द महासागर से लेकर प्रशांत महासागर के बीच की समुद्री मार्ग को ट्रंप सुगम व व्यवधान रहित बनाना चाहते हैं। चतुष्क के तीनों देशों ने दरअसल अमेरिकी इशारों के अनुरूप जवाब देना शुरू भी कर दिया है। डोकलाम विवाद में भारत ने जताया कि अब वह कूटनीतिक चुप्पी से कहीं अधिक की भूमिका में आने को तत्पर है और वहीं एक्ट ईस्ट पॉलिसी का इजहार करते हुए दक्षिण-एशियाई क्षेत्र में भी भारत ने अपनी बढ़ती सक्रियता के सुबूत दिए हैं। गौरतलब है कि भारत की एक्ट ईस्ट पॉलिसी में म्यांमार एक मजबूत स्तंभ है और हालिया रोहिंग्या विवाद में भारत ने म्यांमार के खिलाफ निष्क्रिय रहना ही उचित समझा। इस प्रकार भारत की एक्ट एशिया पॉलिसी ट्रंप की पोस्ट पॉलिसी के साथ सुसंगति में है।
ट्रंप प्रत्येक सहयोगी देशों से एक कुशल व्यापारी की तरह अलग-अलग सुनिश्चित प्रतिबद्धता चाहते हैं।1एशिया की बदलती परिस्थितियों में भारत के लिए भी अनुकूल हालात निर्मित हुए हैं। यदि भारत विश्व में और क्षेत्र में महत्वपूर्ण शक्तियों के राष्ट्रहित को समझते हुए स्वयं के राष्ट्रहित की गुंजाइश खंगाल सके तो इनका लाभ सुनिश्चित कर सकता है। हालांकि यह इतना सरल नहीं है, क्योंकि वैश्विक राजनीतिक व्यवस्था में कोई एक स्वयंभू केंद्र नहीं है, यहां राष्ट्र-राज्यों को स्वयं ही अपने हित सुरक्षित रखने होते हैं। ऐसे में तात्कालिक और दूरगामी दोनों ही संदर्भ में अधिकाधिक राष्ट्र-राज्यों से संबंधों की ऐसी बुनावट करनी होती है, जिससे अधिकतम राष्ट्रहित सधे। अब यह आने वाला समय ही बताएगा कि मौजूदा सरकार इन परिस्थितियों का कितना लाभ देश को पहुंचाने में सफल हो सकी। (दैनिक जागरण से आभार सहित )
(लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं)

ग्लोबलाइजेशन से वापसी के दौर में (भरत झुनझुनवाला)


वर्ष 1995 में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) का गठन हुआ था। उस समय भारत में डब्ल्यूटीओ का भारी विरोध हुआ था, विशेषकर लेफ्ट पार्टियों एवं स्वदेशी जागरण मंच द्वारा। तमाम विद्वानों का आकलन था कि डब्ल्यूटीओ से जुड़ने पर हमारे उद्योगों का सफाया हो जाएगा और हम आर्थिक दासता के नए दलदल में फंस जाएंगे। ये भय सही सिद्ध हुए हैं। बीते 20 सालों में भारत की यूपीए तथा एनडीए सरकारों ने डब्ल्यूटीओ की छत्रछाया तले ग्लोबलाइजेशन को पुरजोर बढ़ाया है। लेकिन ग्लोबलाइजेशन से न हमें और न ही दुनिया के दूसरे लोगों को वांछित लाभ मिले हैं। अब इससे वापसी हो रही है। प्रमाण डब्ल्यूटीओ की हाल में सम्पन्न हुई मंत्री-स्तरीय सभा का फुस्स होना है। वर्तमान सभा को समझने के लिए हमें कुछ पीछे जाना होगा।
डब्ल्यूटीओ के बनने के पहले हर देश की अपनी पेटेंट व्यवस्था थी। ‘पेटेंट’ कानून में बौद्धिक सम्पदा का संरक्षण किया जाता है। किसी व्यक्ति द्वारा आविष्कार की गई वस्तु का दूसर‍े व्यक्ति द्वारा डुप्लीकेट बनाने पर पेटेंट कानून में रोक रहती है। डब्ल्यूटीओ के बनने के बाद हमारे पेटेंट कानून को बदल कर वैश्विक नियमों के अनुसार बनाया गया। पूर्व में हमें छूट थी कि दूसरे द्वारा किए गए आविष्कार का हम डुप्लीकेट बना सकते थे यदि हम किसी दूसरी उत्पादन प्रक्रिया (प्रोसेस) से उसी माल को बनाएं। डब्ल्यूटीओ के बाद यह छूट समाप्त हो गई है। इसलिए डब्ल्यूटीओ हमारे लिए हानिप्रद रहा है।
डब्ल्यूटीओ के अंतर्गत दूसरी प्रमुख व्यवस्था उच्चतम आयात करों के निर्धारण की है। पूर्व में हर देश अपनी मर्जी के अनुसार किसी भी वस्तु पर मनचाही दर से आयात कर वसूल सकता था। जैसे हम आयातित कारों पर 200 प्रतिशत तक वसूल करते थे। डब्ल्यूटीओ के अंतर्गत आयात करों की अधिकतम सीमा निर्धारित कर दी गई। इससे अपने देश में चीन का माल भारी मात्रा में प्रवेश करने करने लगा है और घरेलू उद्यमियों को नुकसान हुआ। डब्ल्यूटीओ के इन नुकसानदेह प्रभावों का परिणाम है कि सब दुनिया के देश डब्ल्यूटीओ का और विस्तार नहीं करना चाहते हैं।
इस समय डब्ल्यूटीओ के विस्तार की कई संभावनाएं थीं। वर्तमान में डब्ल्यूटीओ के दायरे में माल का व्यापार आता है जैसे गेहूं, कार तथा मशीनों का। सेवाओं का व्यापार डब्ल्यूटीओ के बाहर है जैसे सॉफ्टवेयर, ट्रान्सलेशन, मेडिकल ट्रान्सक्रिप्शन, हेल्थ टूरिज्म, इत्यादि। डब्ल्यूटीओ के विस्तार की दूसरी संभावना ई-कॉमर्स की जैसे आज आप चीन की किसी कंपनी को ऑनलाइन ऑर्डर देकर माल मंगवा सकते हैं। इस व्यापार को सुनियोजित करने के लिए कोई वैश्विक कानून नहीं है। हाल में हुई डब्ल्यूटीओ की मंत्री स्तरीय वार्ता में इन विषयों पर चर्चा नहीं हुई, जो कि बताता है कि दुनिया के लोग डब्ल्यूटीओ से परेशान हो गए हैं और अब वैश्वीकरण से पीछे हट रहे हैं।
वैश्वीकरण का विस्तार तथा इससे पीछे हटना इतिहास में बार-बार होता रहा है। अपने ही 400 वर्ष पुराने इतिहास का स्मरण करें। भारत पर मुगलों का शासन था। अरब सागर के दस्युओं द्वारा हमारे जहाजों को लूटा जा रहा था। ऐसे में ब्रिटिश व्यापारियों ने मुगल शासकों को प्रस्ताव दिया कि यदि उन्हें भारत में खुलकर व्यापार करने की छूट दी जाए तो शुल्क के रूप में वे भारतीय जहाजों को समुद्री सुरक्षा उपलब्ध करा देंगे। ब्रिटिश व्यापारियों की नाविक सेना हमारी तुलना में ताकतवर थी और वे दस्युओं के सामने झुकते नहीं थे। हमारे मुगल शासकों ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। बस भारत का ग्लोबलाइजेशन हो गया। ब्रिटिश व्यापारियों ने अपने पैर पसारे। समय क्रम में हमारे तमाम राजाओं ने स्वेच्छा से ब्रिटिश लोगों को अपनी संप्रभुता दे दी। उन्होंने आकलन किया कि ब्रिटिश शासन के नीचे द्वितीय स्तर पर भागीदार बने रहना उनके लिए लाभदायक रहेगा। कमोबेश्ा देश की जनता ने भी ब्रिटिश शासकों का स्वागत किया। राजस्थान के डूंगरपुर के आदिवासियों ने बताया कि घरेलू राजाओं के आतताई व्यवहार से बचने को वे अजमेर को ब्रिटिश प्रेजीडेन्सी को भाग जाते थे।
आज डब्ल्यूटीओ द्वारा ग्लोबलाइजेशन उसी प्रकार लागू किया जा रहा है जैसे ब्रिटिश शासकों द्वारा भारत में लागू किया गया था। ब्रिटिश माल को भारत में न्यून आयत कर पर प्रवेश करने की छूट दी गई थी जैसा कि वर्तमान में डब्ल्यूटीओ के अन्तर्गत चीन के माल को भारत में न्यून आयात कर पर प्रवेश करने की छूट है। ब्रिटिश कंपनियों ने भारत में निवेश किया जैसा कि आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा किया जा रहा है। भारत के घरेलू कानूनों को ब्रिटिश कानूनों के अनुसार बदला गया जैसे आज हमने अपने पेटेन्ट कानून को डब्ल्यूटीओ के अनुरूप बदल दिया है। समय क्रम में भारतीयों ने पाया कि उनके द्वारा स्वेच्छा से ब्रिटिश शासकों को हस्तान्तरित की गई स्वतंत्रता का प्रभाव विपरीत पड़ रहा है। तब देश ने लाला लाजपत राय और महात्मा गांधी के नेतृत्व में उस ग्लोबलाइजेशन को चुनौती दी। पूरे देश में स्वतंत्रता का आन्दोलन छिड़ गया। हमारे राजाओं द्वारा ब्रिटिश शासकों के साथ की गई संधियों का कोई अर्थ नहीं रह गया। अंत में भारत ग्लोबलाइजेशन के फंदे से बाहर निकला, जिसे हमारे शासकों ने स्वेच्छा से अपने गले में हीरे का हार समझ कर डाल लिया था। इसी प्रकार की ग्लोबलाइजेशन से वापसी आज डब्ल्यूटीओ की मंत्री स्तरीय सभा में दिखती है।
अंततः ग्लोबलाइजेशन तब टिकेगा जब किसी देश के लोगों को यह लाभप्रद दिखेगा। जब शासक जनता के हितों के विरुद्ध ग्लोबलाइजेशन को अपनाते हैं तो जनता उस देश के शासकों को उखाड़ फेंकती है जैसे हमारे शासकों द्वारा ब्रिटिश शासकों को सौंपी गई संप्रभुता को हमारी जनता ने उखाड़ फेंका था। हर हाल में अंतिम संप्रभुता जनता की होती है। अतः ग्लोबलाइजेशन से डरने की जरूरत नहीं है। जरूरत इस बात की है कि शासकों द्वारा लागू किए गए ग्लोबलाइजेशन के लाभ हानि का स्वतंत्र आकलन करके जनता को बताया जाए जिस प्रकार लाजपत राय ने ब्रिटिश शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ रहे प्रभाव का आकलन कर जनता को जाग्रत किया। देश के बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी बनती है कि ग्लोबलाइजेशन के लाभ-हानि का सही ब्योरा जनता को बताएं। उदाहरणतः आज हमारी सरकार चीन से आयात किए जा रहे माल के विरुद्ध कदम उठाने को तैयार नहीं है। किन्तु जनता कहने लगी है कि इसे रोका जाना चाहिए।
आने वाले समय में हम ग्लोबलाइजेशन से पीछे हटेंगे क्योंकि इससे आम आदमी के रोजगार का भक्षण हो रहा है। उसे चीन में बना सस्ता माल उपलब्ध है किन्तु उसे खरीदने के लिए जेब में पैसा नहीं है। ग्लोबलाइजेशन का लाभ आज हमारी बड़ी कम्पनियों और मध्यम वर्ग मात्र को हो रहा है। जैसे-जैसे जनता को यह वास्तविकता समझ में आएगी, हमारे नेताओं को ग्लोबलाइजेशन से पीछे हटना ही होगा। इसी क्रम में हमे ‘मेक इन इंडिया’ जैसे कार्यक्रमों की विफलता को शीघ्र स्वीकार कर अपने घरेलू उद्यमियों को बढ़ावा देना चाहिए।(Dainik tribune )
(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)

Monday 25 December 2017

अमेरिका की नजर में भारत की अहमियत (गौरीशंकर राजहंस)

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने पहली बार भारत को ‘ग्लोबल पावर’ यानी ‘वैश्विक शक्ति’ के रूप में मान्यता दी है। हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी नई राष्ट्रीय सुरक्षा नीति का एलान करते हुए कहा कि भारत संसार में वैश्विक शक्ति के रूप में उभर चुका है। अभी तक भारत के बारे में यही कहा जाता था कि वह दक्षिण एशिया की क्षेत्रीय ताकत है, लेकिन सच कहा जाए तो अमेरिका कभी भारत को महत्व नहीं देता था। परन्तु पहली बार अमेरिका ने माना है कि भारत पूरी तरह बदल गया है और उसे हर हालत में वैश्विक शक्ति माना जाना चाहिए।
पीछे मुड़कर देखने से लगता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद और शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका का रवैया हमेशा भारत के खिलाफ रहा। असल में अंग्रेजों ने भारत को आजादी तो दे दी थी परंतु इस सच से समझौता नहीं कर पाए थे कि भारत अब उनका गुलाम देश नहीं रहा। इसलिए मनमाने तरीके से उन्होंने भारत का विभाजन कर दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका एक सर्वशक्तिमान देश के रूप में उभरा था। उसे उकसा दिया कि वह पाकिस्तान का पक्ष ले और भारत को परेशान करे। हुआ भी यही। अमेरिका ने जी भरकर भारत को परेशान किया और सुरक्षा परिषद में तथा अन्यत्र पाकिस्तान का साथ दिया। 1शीतयुद्ध के दौरान संसार दो खेमों में बंटा हुआ था। एक की अगुआई अमेरिका कर रहा था और दूसरे की सोवियत रूस। इस दौरान भारत ने ‘गुटनिरपेक्ष नीति’ का प्रतिपादन किया था जिसकी खिल्ली अमेरिका ने उड़ाई थी। अमेरिका कहता था कि यह गुटनिरपेक्ष नीति निर्थक है।
असल में भारत सोवियत रूस का पिछलग्गू है। भारत ने ऐसे अनेक प्रमाण दिए जब यह कहा गया कि उसने रूस और अमेरिका से बराबर की दूरी बना रखी है, लेकिन अमेरिका इस बात को मानने को ही तैयार नहीं होता था। 50 के दशक में अमेरिका ने पाकिस्तान को भरपूर आधुनिकतम हथियारों से लैस कर दिया और उसे भरपूर आर्थिक सहायता देता रहा। भारत ने बार बार कहा कि यह हथियारों और पैसों की मदद पाकिस्तान भारत के खिलाफ इस्तेमाल करेगा। मगर अमेरिका ने बार बार भारत को आश्वस्त किया कि यह मदद अमेरिका पाकिस्तान को चीन और रूस के खिलाफ कर रहा है। जब 1965 का भारत-पाक युद्ध हुआ तब यह साबित हो गया कि पाकिस्तान ने आधुनिकतम अमेरिकी हथियारों से भारत पर चढ़ाई की थी। यह अलग बात है कि भारत के बहादुर सैनिकों ने पाकिस्तान को मुंह तोड़ जवाब देते हुए उसके छक्के छुड़ा दिए। भारत की फौज पाकिस्तान के अंदर बहुत दूर तक चली गई थी। परन्तु रूस के समझाने के बाद भारत ने पाकिस्तान से समझौता कर लिया और जीते हुए क्षेत्र को वापस कर दिया। दुर्भाग्यवश तासकंद में हुए इस समझौते में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की असमय मृत्यु हो गई। परन्तु इस समझौते के दौरान पाकिस्तान ने वायदा किया था कि वह कभी भारत के खिलाफ कोई जंग नहीं छेड़ेगा। पाकिस्तान शीघ्र ही अपनी बातों से मुकर गया और तभी से उसने भारत के खिलाफ आतंकवादी हरकतें शुरू कर दीं।
भारत बार बार अमेरिका को समझाता था कि पाकिस्तान जो उसका सहयोगी है, उसने भारत के खिलाफ शत्रुतापूर्ण रवैया अपना लिया है। परन्तु अमेरिका यह मानने को तैयार नहीं था। 1971 में जब बांग्लादेश युद्ध हुआ तो भारत को डराने धमकाने के इरादे से अमेरिका ने अपना एक जंगी जहाज का बेड़ा बंगाल की खाड़ी तक भेज दिया था, लेकिन जब उसे पता चला कि भारत पाकिस्तान के मुकाबले बहुत ही सशक्त देश है तो उसने अपने जंगी जहाज के बेड़े को वापस ले लिया। तभी से अमेरिका का रुख और उसकी सहानुभूति पाकिस्तान के साथ ही रही।
भारत और अमेरिका के रिश्तों में एक सुखद बदलाव तब आया था जब जॉन एफ कैनेडी अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे, लेकिन उनके असामयिक मौत के बाद दोनों देशों के संबंध बिगड़ने लगे। संबंधों में महत्वपूर्ण बदलाव तब आया जब बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति हुए और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उन्होंने दोस्ती का हाथ बढ़ाया। दोनों प्रगाढ़ मित्र हो गए और लगता था कि भारत और अमेरिका के संबंधों में सुखद बदलाव आएगा। परन्तु जब डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने तब भारत में लोगों को यह आशंका होने लगी कि संभवत: उनका रवैया भारत के प्रति बहुत मित्रवत नहीं हो। परन्तु भारतीय प्रधानमंत्री के प्रयासों से अमेरिका के साथ भारत के संबंध सुधरने लगे और ट्रंप मान गए कि आतंकवादी भारत को परेशान कर रहे हैं। उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में पाकिस्तान को चेता दिया कि उसकी जमीन से भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों हो रही हैं। यदि इसे तुरन्त नहीं रोका गया तो पाक को इसका खामियाजा भुगतना होगा। उन्होंने यह भी कहा कि यदि यह रवैया नहीं बदला तो अमेरिका पाक को मदद नहीं देगा।
अपनी रक्षा नीति में ट्रंप ने चीन की विस्तारवादी नीति की कटु आलोचना की और कहा कि भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका मिल कर चीन की विस्तारवादी नीति का मुकाबला करेंगे। दक्षिण चीन सागर में चीन जिस तरह अपनी दादागिरी दिखा रहा है उसकी भी आलोचना की गई और कहा गया कि अमेरिका चीन की इस तरह की दादागिरी को बर्दाश्त नहीं करेगा जिसकी वजह से कई देशों की संप्रभुता का हनन हो रहा है। भारत ने पाकिस्तान के ‘वन बेल्ट वन रोड’ का कड़ा विरोध किया है। क्योंकि वह पाक अधिकृत कश्मीर से निकलता है जिसे भारत अपना हिस्सा मानता है। जब अमेरिका ने पाकिस्तान से कहा कि वह मुंबई हमले के मास्टर माइंड हाफिज सईद को गिरफ्तार करे तो पाकिस्तान बौखला गया। उसने अमेरिका को तो कुछ नहीं कहा परन्तु पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार लेफ्टीनेंट जनरल नसीर खान ने भारत और पाकिस्तान में परमाणु युद्ध की धमकी तक दे डाली। पाकिस्तान चाहे जो भी धमकियां दे, अब यह स्पष्ट हो गया है कि अमेरिका के साथ मजबूत होते रिश्तों के कारण भारत दुनिया में एक नई वैश्विक शक्ति के रूप में उभर गया है और पाकिस्तान के लाख चिल्लाने के बावजूद इस स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होने वाला है।(dainik jagran)
(लेखक पूर्व सांसद एवं राजदूत हैं)

सुशासन के अटल मार्गदर्शक (स्वदेश सिंह)


सरकारें आएंगी, सरकारें जाएंगी, पार्टियां बनेंगी, बिगड़ेंगी, लेकिन देश का लोकतंत्र जिंदा रहना चाहिए। भारत का लोकतंत्र अमर रहना चाहिए। 28 मई 1996 को लोकसभा में विश्वास मत प्रस्ताव पर बोलते हुए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ये उद्घोषणा की थी। उनकी यह सरकार सिर्फ 13 दिन ही चली थी।1सभी के बीच अटलजी के नाम से प्रसिद्ध अटल बिहारी वाजपेयी पर राजनीति में करीब छह दशक गुजारने के बाद एक भी दाग नहीं है। राजनीतिक शुचिता, प्रामाणिकता, वाकपटुता और लोगों के बीच जगह बनाने की कला की अनूठी मिसाल हैं अटल बिहारी वाजपेयी। जवाहरलाल नेहरू के अलावा लगातार तीन लोकसभा चुनाव जीतने वाले वह अकेले राजनेता हैं। 1990 के अंतिम वर्षो और नई शताब्दी के शुरुआती वर्षो में जब अटलजी ने देश के नेतृत्व किया तो विकास और सुशासन को राजनीतिकी न सिर्फ एजेंडा बनाया बल्कि एक ऐसा मापदंड तय कर दिया जिससे अब हर राजनेता को होकर गुजरना ही पड़ता है। देश में एक नए राजनीतिक वातावरण का निर्माण हुआ। जो नेता अब तक सिर्फ जाति, धर्म और क्षेत्र की राजनीति कर रहे थे उन्होंने भी विकास को अपने एजेंडे में शामिल किया। अटलजी की ही देन है कि लोग आज सुशासन और विकास को बड़ा मुद्दा मानकर वोट कर रहे हैं।1नवंबर 995 में भाजपा का मुंबई अधिवेशन हुआ जहां पार्टी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने घोषणा की कि अटल बिहारी वाजपेयी आगामी लोकसभा चुनाव में पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। भाजपा 1996 के लोकसभा चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और अटल जी देश के प्रधानमंत्री बने। यह सरकार ज्यादा दिन न चल सकी क्योंकि भाजपा के पास बहुमत के लिए जरूरी सांसद नहीं थे। सरकार के विश्वास मत प्रस्ताव पर अटलजी ने जोरदारभाषण दिया जिसमें उन्होंने कहा, मैं भ्रष्टाचार को चिमटे से भी नहीं छूना चाहूंगा। अटलजी ने 1998 से 2004 तक राजग सरकार का नेतृत्व किया। हालांकि एक बार सरकार एक वोट से गिर भी गई, लेकिन दोबारा चुनाव होने पर भी भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार ही बनी। अटलजी के छह साल के इस कार्यकाल ने भारतीय राजनीति की दिशा ही बदल दी। अटल बिहारी वाजपेयी ने सबसे पहले एक स्थिर सरकार दी जो उस समय की पहली जरूरत थी। भाजपा ने चुनाव ही इस मुद्दे पर लड़ा था कि वह एक स्थिर सरकार और योग्य नेतृत्व देश को देगी। लोगों ने इस संकल्प को सच मानते हुए अटलजी के नेतृत्व में भाजपा को देश की सबसे बड़ी पार्टी बना दिया। 1अटलजी के नेतृत्व में एक स्थिर सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया और ऐसे कई काम किए जो अपने आप में मिसाल बन गए। वाजपेयी सरकार ने 1998 में परमाणु परीक्षण किए। कई देशों ने अमेरिका की अगुवाई में देश पर तमाम प्रतिबंध लगा दिए, लेकिन अटल सरकार के कारण इनका कोई भी असर देश के जनमानस पर नहीं हुआ। भारत की बढ़ती ताकत को देखते हुए पहले अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन और फिर दूसरे राष्ट्रध्यक्ष भारत के दौर पर आए और तमाम समझौतों पर हस्ताक्षर किए। अटलजी के कार्यकाल में किए गए आर्थिक सुधारों द्वारा देश की आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत हुई। बड़े पैमाने पर रोजगारों का सृजन हुआ। आर्थिक वृद्धि दर बढ़कर 6-7 फीसद हो गई जिसका लाभ नीचे तक पहुंचते हुए दिखाई दिया। देश में विदेशी निवेश बढ़ा, आधारभूत सुविधाएं बढ़ीं और भारत एक आईटी सुपरपॉवर के रूप में भी उभरा। सरकार ने कई टैक्स सुधार किए, बड़ी सिंचाई और आवासीय योजनाएं शुरू की गईं। पूरे देश में और खासतौर पर मध्यवर्ग के जीवन स्तर में बदलाव साफ दिखाई देने लगा। लोगों को विकास और सुशासन अपने आस-पास होता दिखाई दिया। देश के हर हिस्से को जोड़ने के लिए एक बहुत ही महात्वाकांक्षी परियोजना स्वर्णिम चतुभरुज की शुरुआत की गई जिसके तहत दिल्ली, कोलकाता, मुंबई और चेन्नई को चार लेन सड़कों से जोड़ा गया। इससे अर्थव्यवस्था को बहुत लाभ हुआ। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क रोजगार योजना के तहत हर गांव को सड़क से जोड़ा गया। सर्वशिक्षा अभियान के तहत सभी बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा की सुविधा उपलब्ध कराई गई। किसानों, युवाओं, महिलाओं, कामगारों के लिए बहुत सी अलग-अलग योजना शुरू की गई। इस तरह अटलजी ने भारत में सुशासन की राजनीति की शुरुआत की। 15 अप्रैल, 2000 को हुई भाजपा कार्यकारिणी बैठक में उन्होंने कहा, ‘राजनीतिक सफलता के बाद क्या हम केंद्र और कई राज्यों में सत्ता में हैं। हमें अपने प्रयास सुशासन की गुणवत्ता को सुधारने में केंद्रित करना चाहिए। सुशासन की राजनीतिक करते समय लोगों की सेवा और राष्ट्रीय हितों को सवरेपरि रखना चाहिए।’1अटलजी ने 2002 में गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को देश का उप प्रधानमंत्री बना दिया। तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष वेंकैया नायडू ने एक कार्यक्रम में अटलजी को विकास पुरुष और लालकृष्ण आडवाणी को लौह पुरुष की संज्ञा दी। अटलजी ने कहा करते थे कि दोस्त बदले जा सकते हैं पड़ोसी नहीं। इसी नीति का पालन करते हुए उन्होंने पाकिस्तान से दोस्ती का हाथ बढ़ाया। भारत-पाकिस्तान के बीच बस सेवा शुरू की। अटलजी पहली बस लेकर खुद लाहौर गए, लेकिन पाकिस्तान अपनी हरकत से बाज नहीं आया और उसने भारत के कुछ इलाकों पर कब्जा कर लिया। वाजपेयी सरकार ने इस का मुंह तोड़ जवाब दिया और कारगिल की लड़ाई में जीत हुई। 2005 में अटलजी ने राजनीतिक जीवन से सन्यास ले लिया। 2014 में भारत सरकारने उन्हें भारत रत्न देने का निश्चय किया। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी खुद उनके घर भारत रत्न से सम्मानित करने गए। भारत सरकार ने अटलजी के 25 दिसबंर को अब सुशासन दिवस के रूप में मनाती है। एक जननायक, सांसद, ओजस्वी वक्ता, लेखक, विचारक, पत्रकार होने के साथ जब अवसर आया तो अटलजी ने विकास और सुशासन की एक नई इबारत लिखी। आज सामाजिक और राजनीतिक जीवन में काम करने वाले लाखों के लिए प्रेरणा का काम कर रही है। 1(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)

हकीकत से आंखें मूंदने वाला साल (डब्ल्यू पी एस सिद्धू, प्रोफेसर, न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी )


अस्वीकार करना एक मनोवैज्ञानिक रक्षा कवच है, जिसका इस्तेमाल लोग तब करते हैं, जब वे विभिन्न घटनाओं से असहज महसूस करते हैं और अपनी चिंता कम करना चाहते हैं। इन दिनों, जब ऐसा लग रहा है कि आने वाले दिनों में तर्कशील लोग भी सच्चाई को सिरे से खारिज कर देंगे, तब वैकल्पिक तथ्यों के सामने आने से लोगों में नकारने की प्रवृत्ति बढ़ी है। कभी-कभार ऐसे तथ्य हकीकत व फसाने के बीच की खाई को गहरा कर देते हैं और उनमें अंतर कर पाना मुश्किल बना देते हैं। साल 2017 में नकारने की यह प्रवृत्ति देश और क्षेत्र के स्तर पर ही नहीं, वैश्विक फलक पर भी साफ-साफ देखी गई है।
इस साल अमेरिका से लेकर जापान तक हुए तमाम चुनावों में, यानी ब्रिटेन, फ्रांस और तुर्की में भी, मतदाताओं ने खंडित जनादेश को नकारते हुए दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी पार्टियों का मजबूती से साथ दिया। मगर चुनाव के बाद ज्यादातर नेताओं की लोकप्रियता में तेजी से आई गिरावट इस बात का भी संकेत है कि ये जनादेश काफी क्षीण हैं।
फ्रांस में नए राष्ट्रपति इमैनुअल मैकरॉन की लोकप्रियता शुरुआती 100 दिनों में ही इतनी गिर गई, जितनी वहां के किसी पूर्व राष्ट्रपति की नहीं गिरी होगी। यहां तक कि वहां के सबसे अलोकप्रिय राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद से भी उन्हें कमतर आंका गया। महज 36 फीसदी मतदाताओं ने मैकरॉन के प्रदर्शन को सराहा। वहीं इंग्लैंड में, मध्यावधि चुनाव का दांव खेलने वाली प्रधानमंत्री थेरेसा मे का समर्थन घटकर 34 फीसदी रह गया। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो पद संभालने के महज आठ दिनों के बाद ही अपनी लोकप्रियता में 51 फीसदी की कमी दर्ज कराके मानो रिकॉर्ड बना डाला। उनके प्रति नाराजगी ‘नॉट माइ प्रेसिडेंट’ (मेरे राष्ट्रपति नहीं) नाम से हुई रैलियों में स्पष्ट दिखी। जाहिर है कि 2017 में हुए ज्यादातर चुनाव यही बता रहे हैं कि मतदाताओं में गहरे मतभेद हैं। वे अपनी समस्याओं का तुरंत समाधान चाहते हैं, भले वे हल अस्थाई ही क्यों न हों। साथ ही, वे ऐसे नेताओं की भी कल्पना पाल रहे हैं, जो खंडित जनादेश के बावजूद वादा निभाने में सक्षम हो। इस साल लोकतांत्रिक रूप से स्वतंत्र देशों के मुखिया भले अपनी सत्ता बरकरार रखने को संघर्ष करते दिखे हैं, मगर चीन में शी जिनपिंग ने 19वीं कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के माध्यम से अलोकतांत्रिक ढंग से अपनी पकड़ मजबूत बना ली है। उन्हें पुराने निर्विवाद नेता माओत्से तुंग की तरह अभूतपूर्व अधिकार मिल गए हैं।
ऐसे ही हालात क्षेत्रवार भी रहे। इंग्लैंड में ब्रेग्जिट को लेकर हुआ मतदान और यूरोपीय संघ के साथ उसके दर्दभरे अलगाव की प्रक्रिया में सामूहिक रूप से नकारने की प्रवृत्ति देखी गई। हालांकि यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के लिए ब्रिटेन ने खुशी-खुशी वोट दिए, पर यह भी उम्मीद जताई कि इंग्लैंड और आयरलैंड सहित यूरोपीय संघ के तमाम सदस्य देशों के बीच लोगों व उत्पादों की पूर्व की भांति स्वतंत्र आवाजाही बनी रहे। दरअसल, हैरान मीडियाकर्मियों ने यूरोपीय संघ पर ब्रिटेन की आलोचनात्मक टिप्पणियों को ‘यूरोपीय संघ ने आखिर हमारे लिए क्या किया है’ के रूप में पेश किया, जबकि तमाम ऐसी सूचनाएं जगजाहिर थीं, जो गवाही दे रही थीं कि कौन-कौन सी सार्वजनिक परियोजनाओं में यूरोपीय संघ का पैसा लगा है। अब इस बात का एहसास होने पर कि भारी कीमत (अनुमानित 50 अरब पौंड से ज्यादा की राशि) चुकाने के बाद ही ब्रिटेन यूरोपीय संघ का साथ छोड़ सकता है, आम लोगों की मानसिकता साफ-साफ समझी जा रही है। इसके दो राजनीतिक नतीजे भी सामने आए हैं- पहला, टेरेसा मे की लोकप्रियता गिरी है और दूसरा, एक संसदीय फैसला लिया गया है कि ब्रेग्जिट पर आखिरी मतदान संसद में होगा।
दक्षिण एशिया में सच्चाई को नकारने का भाव पाकिस्तान में दिखा। वह खुद को उप-महाद्वीप में अलग-थलग करने में जुटा रहा। उसने उभरते क्षेत्रीय रेलवे व सड़क संबंधों और उपग्रह सेवाओं से जान-बूझकर बाहर निकलने की राह चुनी। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि दक्षिण एशिया को एकजुट करने के ऐसे प्रयासों से बाहर निकलना इस्लामाबाद के लिए कितना फायदेमंद रहेगा या इससे अपनी उस बुनियादी सोच पर वह कितना आगे बढ़ पाएगा कि उप-महाद्वीप में भारत के नेतृत्व की भूमिका को खारिज किया जाए? मगर आर्थिक रूप से फायदेमंद होने पर संदेह के बावजूद चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे पर उसका आगे बढ़ना यह बताता है कि दक्षिण एशिया में नई दिल्ली के बढ़ते दबदबे को वह समझ रहा है, इसीलिए चीन से राजनीतिक व आर्थिक संरक्षण पाने की जुगत में है।
नकारने की प्रवृत्ति वैश्विक फलक पर भी व्यापक तौर पर देखी गई। मसलन, संयुक्त राष्ट्र में सुधार के संदर्भ में भारत के खिलाफ इनकार की मुद्रा जारी है। नई दिल्ली की सुरक्षा परिषद् में स्थाई सदस्यता की मंशा और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में बतौर सदस्य शामिल होने की चाहत तमाम उच्च स्तरीय कोशिशों के बाद भी उसी तरह असंभव दिखी, जिस तरह खराब मानसून में अच्छी बारिश की उम्मीद। उधर, ट्रंप प्रशासन ने जलवायु परिवर्तन को गंभीर समस्या मानने से इनकार कर दिया। उसका यही रवैया ईरान के साथ परमाणु समझौता को लेकर भी रहा। ट्रंप प्रशासन यह सोचकर दुबला होता रहा कि क्या वाकई यह समझौता काम कर रहा है? ‘अमेरिका फस्र्ट’ की अलगाववादी नीति को लेकर भी वाशिंगटन में नकारने का भाव रहा। वहीं, वैश्विक जनमत को नकारता हुआ वह यरुशलम को इजरायल की राजधानी की मान्यता देने पर भी तुल गया।
संभवत: नकारने की यही प्रवृत्ति सामूहिक रूप से इतनी गहरी होती गई कि विश्व बिरादरी ने उत्तर कोरिया को परमाणु शक्ति संपन्न देश मानने से इनकार कर दिया, जबकि आज उसके परमाणु हथियारों की जद में चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, यहां तक कि अमेरिका जैसे देश भी हैं। इसी तरह, परमाणु हथियार निषेध संधि की हकीकत को स्वीकार करने की परमाणु ताकत संपन्न देशों की अक्षमता के भी गंभीर नतीजे सामने आ सकते हैं। अगर इस संधि को लेकर समर्थक व विरोधी, दोनों पक्षों में सकारात्मक समझ नहीं बन सकी, तो परमाणु मुक्त दुनिया की कल्पना बेमानी हो जाएगी।
बहरहाल, मनोवैज्ञानिकों की मानें, तो नकारात्मक प्रवृत्ति से पार पाने का एकमात्र तरीका यही है कि सबसे पहले इसके वजूद को स्वीकार किया जाए। सिर्फ हकीकत को स्वीकार करके ही अस्वीकार की स्थिति खत्म की जा सकती है। लिहाजा सवाल यही है कि क्या देशों में, क्षेत्रों में अथवा विश्व में 2018 हकीकत स्वीकार करने वाला साल साबित होग(Hindustan)
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Sunday 24 December 2017

ट्रंप तो औंधे मुंह गिर पड़े (डॉ. दिलीप चौबे)

यरूशलम को इस्रइल की राजधानी के तौर पर मान्यता देने के एकतरफा फैसले पर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप विश्व समुदाय से अलग-थलग पड़ गए हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव पर भारत समेत 128 देशों ने एक स्वर से अमेरिकी फैसले को खारिज कर दिया कि फिलिस्तीन-इस्रइल विवाद को बातचीत के जरिये ही सुलझाया जा सकता है। ताज्जुब की बात है कि फ्रांस और ब्रिटेन जैसे मित्र राष्ट्रों ने भी ट्रंप का साथ छोड़ दिया। हालांकि संयुक्त राष्ट्र का यह प्रस्ताव बाध्यकारी नहीं है। यह प्रतीकात्मक है। फिर भी इस प्रस्ताव ने ट्रंप की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को धक्का पहुंचाया है, जो अपनी ताकत के बलबूते सात दशक पुराने और अति उलझावपूर्ण विवाद को महज चुटकी में सुलझा कर एक बड़ी वैश्विक उपलब्धि हासिल करने का सपना देख रहे थे। इसको पाने के लिए उन्होंने धमकियां भी दीं कि अमेरिकी मान्यता को खारिज करने के लिए महासभा में लाये जा रहे प्रस्ताव का समर्थन करने वाले देशों की आर्थिक मदद रोक देंगे। उनकी धमकी बेअसर साबित हुई। अमेरिका पर निर्भर सात-आठ छोटे देशों ने ही ट्रंप का समर्थन किया। नियंतण्र समुदाय का यरूशलम पर रुख बहुत साफ है। वह इसे दो हिस्सों में बांट कर देखता है। पश्चिम यरूशलम इस्रइल के हिस्से और पूर्वी यरूशलम फिलिस्तीन को देने का पक्षधर है। लेकिन इस्रइल यरूशलम को एकीकृत के तौर पर देखता है और सम्पूर्ण हिस्से पर अपना अधिकार जताता है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र महासभा के इस प्रस्ताव के बाद इस्रइल पर शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का दबाव बढ़ेगा और इस बात की पूरी संभावना है कि उसे फिलिस्तीन को रियायत देनी पड़ेगी।
दरअसल, इस्रइल-फिलिस्तीन के बीच द्विपक्षीय वार्ता से ही यरूशलम के भाग्य का निर्धारण मुमकिन हो सकता है।भारत ने प्रस्ताव का समर्थन करके अपनी पारम्परिक नीति के प्रति दृढ़ता जाहिर की है जो बातचीत के जरिये इस विवाद के हल का पक्षधर है। हालांकि अमेरिका और इस्रइल के साथ बढ़ती नजदीकियों के कारण यह कयास लगाया जा रहा था कि नई दिल्ली-वाशिंगटन के समर्थन में अपना वोट देगा। अगले साल जनवरी में इस्रइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू भारत आने वाले हैं। लेकिन भारत विश्व समुदाय के साथ खड़ा हो कर यह दर्शा दिया है कि फिलिस्तीन के प्रति भारत का रुख स्वतंत्र है और कोई अन्य देश इसे प्रभावित नहीं कर सकता। सैद्धांतिक और व्यावहारिक दृष्टि से भी भारत के लिए यह आवश्यक था कि अमेरिका-इस्रइल के विरुद्ध और विश्व समुदाय के साथ दिखाई दे। इस्रइल के पक्ष में खड़ा होने से अरब देशों के साथ संबंध खराब होने का अंदेशा रहता, जो हमारी अस्सी फीसद तेल की आपूर्ति करते हैं। कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान का शत्रुतापूर्ण रवैया को ध्यान में रखते हुए भी यह भारत के राष्ट्रीय हितों के अनुकूल नहीं था। इस्रइल हमारे लिए अब अछूत नहीं है। 1992 से दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध है। इन 25 सालों में दोनों के बीच रक्षा और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सहयोग बढ़ा है। लेकिन ट्रंप के फैसले के साथ खड़े होने का मतलब फिलिस्तीन व उसकी आकांक्षाओं के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को कमजोर करना होता।(RS)

Saturday 23 December 2017

कैसे 2जी घोटाले के फैसले से निकला प्रॉसिक्यूशन घोटाला (कल्पेश याग्निक ) (dainik bhaskar)


2जी फैसले से हैरान समूचा राष्ट्र इसे सरल रूप से समझना चाहता है। किन्तु कानून और न्याय की उलझी, जटिल भाषा, प्रक्रिया और तरीके आसान नहीं हैं।
फिर भी एक प्रयास।
क्या सारे आरोपी नेता, अफ़सर, पूंजीपति सुबूतों-गवाहों के अभाव में छोड़ दिए गए हैं?
- हां। क्या कोर्ट ने इन्हें 'बेनिफिट ऑफ डाउट' देकर छोड़ा है? - नहीं। फिर?
- अन्य मुकदमों से हटकर है इसीलिए यह केस।
कोर्ट ने सुबूत-गवाह पेश कर पाने पर सीबीआई को कड़ी फटकार लगाई है। किन्तु फैसले के कई बिन्दु बताते हैं कि वह संदेह का लाभ नहीं दे रही। कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि कोई घोटाला हुआ ही नहीं। समूचे प्रॉसिक्यूशन को कोर्ट ने बुरी तरह लताड़ा है।
वास्तव में देखा जाए तो 2जी घोटाला, निश्चित ही घोटाला था। आने वाले समय में ऊंची अदालतों में सबकुछ सामने आएगा।
किन्तु इस मुकदमें में यह प्रॉसिक्यूशन घोटाला बनकर सामने आया है।
कैसे?
एक-एक कर देखते हैं :
जो सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष फैसले से निकले हैं वे हैं -
कोर्ट ने कहा - इसमें इतनी विरोधाभासी बातें, इतना भ्रम, इतनी अस्पष्ट पॉलिसी थी कि कोई कुछ समझ ही नहीं पा रहा था। इसी कारण कुछ अफ़सरों ने 'कुछ चुनिंदा तथ्यों को बढ़ाचढ़ा कर पेश किया। जिससे लगा कि यह महाघोटाला है। '...व्हाइल देयर वॉज़ नन।'
सीबीआई और ईडी क्यों 80 हजार पन्नों की चार्जशीट में भी इसे घोटाला सिद्ध नहीं कर पाए - यह तो आश्चर्य का विषय है ही किन्तु इस निष्कर्ष को थोड़ा और समझना होगा।
आखिर ऐसा क्या भ्रम पैदा कर दिया था टेलीकॉम मंत्रालय के अफ़सरों ने?
फैसले में ही उदाहरण हंै :
1. ये यूनीफाइड एक्सेस लाइसेंस थे। जो बंटने थे। उनका परिचय और जो जोड़ा गया (एडेन्डम) वो फाइल डी 591 में थे।
2. सारा झगड़ा 'फर्स्ट कम, फर्स्ट सर्व' की पॉलिसी पर था। इनका विस्तृत वर्णन डी 592 फाइल में था।
3. ट्राई की सिफारिशों की फाइल डी 5 थी।
4. किन्तु जिन लाइसेंस आवेदकों को ट्राई की सिफारिशों के इंतज़ार में प्रक्रिया से रोकना है, वह सब फाइल डी 44 में था। इसमें अहम निर्णय थे।
5. सॉलिसिटर जनरल को क्या भेजा क्या भेजना है, यह डी 7 फाइल में था।
6. घोटाले का सबसे बड़ा आधार कट-ऑफ तारीख को पिछली तारीख में बदलना था। इस कट ऑफ डेट की फाइल डी 6 थी।
7. टेलीकॉम मंत्री ए. राजा और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के बीच चला पत्र-व्यवहार -जो राजा के निजी सचिव और आरोपी आर.के. चांदौलिया ने भेजा था- वह डी 598 फाइल में था।
यानी इतनी सारी फाइलें अलग-अलग बना दी गई थीं कि कोई भी किसी एक पॉलिसी पर निर्णय नहीं ले सकता था। सबकुछ 'मेस्ड-अप' था।
यही नहीं, कई ऐसे शब्द थे, जो कोर्ट ने पकड़े हैं कि हर अफ़सर उन शब्दों का अलग अर्थ समझ रहा था। कोई एक अर्थ नहीं बताया गया था। जबकि वही स्पैक्ट्रम-लाइसेंस देने का महत्वपूर्ण आधार था। जैसे-क्लाॅज़ 8 था। इसमें शब्द था : सब्सटेंशियल इक्विटी। ऐसे ही असोसिएट, प्रमोटर, स्टेक- कई शब्द थे। कंपनियों की पात्रता इस घोटाले का बड़ा मुद्दा रहा है। इन शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने से पात्रता बन सकती थी। बिगड़ सकती थी।
यहां एक बड़ा प्रश्न है।
इतना सारा भ्रमजाल क्या केवल ग़लती से फैल गया? क्या कोई एक-दो अफ़सर इन पर काम कर रहे थे? क्या कभी किसी ने इनका अर्थ जानने की कोशिश नहीं की?
कोर्ट सुबूत-गवाह मांगती है। जो सौ प्रतिशत ठोस बात है। कानून यही है।
किन्तु न्याय यहां चीखकर कहता है कि इतना भ्रम फैलाया ही इसलिए गया ताकि घोटाला किया जा सके! कोई भी निर्णय ले सके। हर बात के लिए मंत्री या उनके द्वारा तय किए गए एक-दो अफ़सरों के पास ही जाना पड़े।
अब सीबीआई-ईडी इसे सिद्ध करने में विफल रहीं - यह उसकी ग़लती है। उसकी कमजोरी है।
और भी देखना चाहिए -
कट-ऑफ डेट का मामला। टेलीकॉम मंत्रालय ने 24 सितंबर 2007 को सार्वजनिक प्रेस ोट जारी किया था। कि 1 अक्टूबर 2007 अंतिम तारीख रहेगी स्पैक्ट्रम के आवेदन की। 10 जनवरी 2007 को दो प्रेस नोट जारी किए गए। पहले में कहा अंतिम तारीख 25 सितंबर 2007 तय की गई है। दूसरा प्रेस नोट दोपहर में जारी किया। कहा - इच्छुक कंपनियां आज ही 3.30 से 4.30 बजे के बीच सारी कागज़ी कार्रवाई कर लें। इस पर शुरू से निगाह रखे फाइनेंशियल एक्सप्रेस के सुनील जैन ने विस्तार से बताया है कि कैसे उसी दिन जमा कराए गए कुछ डिमांड ड्राफ्ट तो बहुत पुरानी तारीखों में, एडवांस बने पड़े थे। स्पष्ट है, उन्हें पहले ही सूचना लीक हो गई होगी!
अब सीबीआई उन ड्राफ्ट की कॉपियां क्यों नहीं निकाल पाईं? क्यों इन प्रेस नोट्स को कोर्ट में नहीं रख पाई? कोई तो पूछेगा उन से? जज ने पूछा तो प्रॉसिक्यूशन जवाब दे सका।
कोर्ट ने तो कट-ऑफ डेट पर लम्बी कार्रवाई की। राजा, जो इस पर चारों ओर से घिरे हुए थे, ने तीन कारण गिनाए - पहला कि फालतू प्लेयर्स को हटाने के लिए। दूसरा कि लम्बी लाइन लग चुकी थी, और बढ़े। तीसरा कि ट्राई ने कहा था कि आवेदन की तारीख से एक माह पहले।
पाठकों के लिए जानना महत्वपूर्ण होगा कि कोर्ट ने राजा की इस सफाई पर क्या कहा?
कोर्ट ने कहा : दीज़ वर गुड रीज़न्स। सीबीआई ने इसे 'अपराधिक षड्यंत्र कहा था। कोर्ट ने कहा : यह षड्यंत्र नहीं, बल्कि प्रशासनिक पहल थी।
अब सीबीआई या प्रॉसिक्यूशन उन तमाम अफ़सरों की गवाही और तारीख बदलकर शाहिद बल्वा और अन्य पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने की बात क्यों सिद्ध नहीं कर पाई, वही बता सकती है। किन्तु कुछ तथ्य हैं जो हैरान कर देने वाले हैं -
राजा के निजी सचिव रहे आचार्य ने गवाही दी थी कि डीबी ग्रुप के बल्वा- गोयनका राजा से तब से संपर्क में थे जब वे पर्यावरण मंत्री थे। आचार्य ने कहा - वे दोनों कोई 20 बार राजा से मिले थे।
आश्चर्यजनक है कि सीबीआई या प्रॉसिक्यूशन क्यों पर्यावरण मंत्रालय के रेकॉर्ड पेश नहीं कर सके। क्योंकि यह सामान्य प्रक्रिया है कि मंत्री से मिलने जाने वालों का मंत्रालय और सरकारी बंगले-दोनों में रेकॉर्ड होता ही है। जैसा कि सीबीआई डायरेक्टर रहे रंजीत सिन्हा का मिला था।
हां, बाद में टेलीकॉम मंत्री रहते राजा से मिलने जाने वाले लाइसेंस आवेदकों के लिए यह सुविधा की जाना कोई बड़ी बात नहीं है कि एंट्री की ही जाए। या अन्य नाम से की जाए।
किन्तु कानून में ऐसा नहीं चलेगा। बल्कि कानून तो इस पर भी कुछ सिद्ध नहीं कर सकता कि कोई 20 बार मिला, इसलिए ही उसे स्पैक्ट्रम मिल गया।
'पहले आओ, पहले पाओ' पर घोटाले का दारोमदार है। आरोप पत्र में है कि राजा ने इसे पहले आओ, पहले फीस जमा कराओ तो पाओ कर दिया। इस पर कोर्ट ने कहा - किसी भी गवाह ने ऐसा नहीं कहा कि जानबूझकर, किसी को फ़ायदा पहुंचाने के लिए ऐसा किया गया।
कोर्ट ने प्रॉसिक्यूशन की भर्त्सना करते हुए कहा कि सिंगल-स्टेज पॉलिसी को उसने मल्टी-स्टेज बनाकर पेश किया।
यहां वैसा ही प्रश्न है।
पॉलिसी में जानबूझकर इतना भ्रम पैदा किया गया। ताकि कोई इसे आसानी से लागू कर सके। अन्यथा 'पहले आओ' की जगह नीलामी वाली पारदर्शी नीति की सलाह तो कानून मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय से भी दी गई थी। वो लागू क्यों नहीं की राजा या अफ़सरों ने?
सीबीआई या प्रॉसिक्यूशन क्यों सिद्ध नहीं कर पाया इतनी सी बात कि मात्र कट ऑफ तारीख पीछे करने से ही राजा ने कुल 575 आवेदकों में से एक झटके में 408 बाहर कर दिए। और इसीलिए पहले आओ में जैसे ही पहले फीस भरो का क्लॉज़ आया, कई बाहर हो गए।
कोर्ट क्यों प्रॉसिक्यूशन की बातें मानेगा? कानून में परिस्थितिजन्य साक्ष्य तभी मानने की विवशता होती है जब सारे साक्ष्य अनुपस्थित हों। और अपराध हुआ दिख ही रहा हो।
यहां तो अपराध का 'अ' भी नहीं सिद्ध कर पाया प्रॉसिक्यूशन।
जबकि पहले फीस से एक और आरोप याद आया। एंट्री फीस बढ़ाई नहीं। इस पर यह कानूनन माना गया कि 2003 में सिर्फ 51 लाइसेंस बंटे थे। फीस बढ़ाते इस बार तो और कम हो जाते। यदि स्पर्धा बढ़ानी ही थी -जो कि कोर्ट भी मान रही है- तो राजा कम क्यों कर रहे थे? ये तो विरोधाभासी तथ्य हैं। प्रॉसिक्यूशन इसे क्यों नहीं उठा पाया?
वास्तव में सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स, सबकी दिशा अलग-अलग हो गई थी। कैग विनोद राय 1.76 लाख करोड़ के नुकसान के आंकड़े पर अड़े रहे - जो खुद सीबीआई ने 30 हजार करोड़ कर दिया। जो इसलिए समझ में आता है चूंकि कानून विचार या अनुमान पर नहीं चल सकता।
गवाह-सुबूत हैं। जनरल सीनियर पब्लिक प्रॉसिक्यूटर अनेक कागज़ों पर हस्ताक्षर करने से बचते रहे। कहा स्पेशल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर करेंगे। उनसे पूछा तो वो कहने लगे - सीबीआई करेगी।
इस ग़ैर-जिम्मेदारी

पाक का हताशा में परमाणु युद्ध पैंतरा (रमेश नैयर) (Dainik tribune)


कट्टरपंथी आतंकवादियों के जुनून के सामने बेबस पाकिस्तान दक्षिण एशिया में परमाणु युद्ध भड़कने का हौवा खड़ा कर रहा है। भारत, ईरान, अफगानिस्तान और अमेरिका तक हो रही दहशतगर्द हिंसा की वारदातों के तार पाकिस्तान से जुड़े हुए पाए गये हैं। यहां तक कि वे देश भी जो इससे प्रभावित हैं, बीते कुछ वर्षों से पाकिस्तान के प्रति मैत्री भाव जताते आ रहे हैं। रूस के कान भी पिछले हफ्ते अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए द्वारा दी गई महत्वपूर्ण जानकारी से खड़े हो गये। उस जानकारी के कारण रूस एक बड़ी आतंकी वारदात को टालने में सफल हो सका। इसके लिए राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने डोनाल्ड ट्रम्प को व्यक्तिगत तौर पर धन्यवाद भी दिया। भू-सामरिक रणनीति के तहत रूस और चीन एक-दूसरे के बहुत निकट हैं। इसी रणनीति के तहत चीन के लिए पाकिस्तान की कुछ उपयोगिता है। लेकिन पाकिस्तान में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण पिछले हफ्ते चीन ने एक बड़ी आर्थिक सहायता को रोक दिया। यह भी पाकिस्तानी हताशा का एक कारण है।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने तो इधर पाकिस्तान की मुश्कें ही कस दी हैं। ट्रम्प ने दो टूक कह दिया कि अफगानिस्तान में इस्लामी दहशतगर्दी रोकने में पाकिस्तान से जो उम्मीद की गई थी, वह रत्तीभर भी पूरी नहीं हो पाई। लगे हाथ अमेरिकी राष्ट्रपति ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि अफगानिस्तान में भारत द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका निभाने पर उन्हें भरोसा है। अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति की पहली घोषणा ने पाकिस्तान के जले पर नमक छिड़कने से कोई गुरेज नहीं किया। इस रणनीति में भारत को अतिरिक्त महत्व दिया गया है। अफगानिस्तान में भारत से महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की अपेक्षा की गई है। भारत के नीति निर्माता और रणनीतिकार निश्चय ही जानते होंगे कि किस सीमा तक अमेरिकी अपेक्षाओं को पूरा करने का यत्न किया जाए।
भारत को इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होगा कि ईरान के साथ अमेरिका के रिश्ते अच्छे नहीं हैं, जबकि हमारे लिए ईरानी मित्रता का विशेष महत्व है। हाल ही में भारत के सक्रिय सहयोग से ईरान में बना चाबहार बंदरगाह भारत के लिये बहुत उपयोगी है। उसके अगले चरण के निर्माण को तीव्र गति देना भारत के हितों के विस्तार में सहायक होगा। पहले ही स्पष्ट हो चुका है कि इस बंदरगाह से होकर भारत अपनी व्यापारिक और सामरिक उपस्थिति अफगानिस्तान में बढ़ा ही सकेगा, उससे एशिया एवं अन्य देशों के लिए भी नई राह मिलेगी।
इन संभावनाओं ने भी पाकिस्तान की भारत के प्रति तल्खी में इजाफा किया है। पाकिस्तान की अतिरिक्त चिंता का सबब उसकी भीतरी राजनीतिक अस्थिरता बन चुकी है। लोकतंत्र का गला वहां की फौज तो पहले से ही घोंट रही थी, लेकिन हाफिज सईद और अन्य आतंकवादी सरगनाओं के दबाव से उसका दम फूल रहा है। सिंध के हिन्दुओं और सीमा प्रांत में सिखों के जबरिया धर्मांतरण से भारत का चिंतित होना स्वाभाविक है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने खैबर-पख्तूनवा में पाकिस्तानी अफसरशाही द्वारा सिखांे को जबरिया इस्लाम कुबूल करवाने के लिए डाले जा रहे दबाव के खिलाफ पाकिस्तान से बात करने का निर्णय लिया है। पाकिस्तानी सिखों द्वारा शिकायत की गई है कि ताल तहसील का असिस्टेंट कमिश्नर याकूब उन पर मुसलमान बनने के लिए दबाव बना रहा है, इस घटना की प्रतिक्रिया हमारे पंजाब में भी हुई है। सिख समुदाय के प्रतिनिधियों के अलावा मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह द्वारा इस पर गंभीर चिंता व्यक्त की गई है, कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन सहित अनेक देशों में रह रहे सिखों में इससे आक्रोश उत्पन्न हुआ है। कनाडा में सिख समुदाय पर्याप्त प्रभावशाली है। वहां रक्षामंत्री के अलावा तीन अन्य मंत्री सिख हैं, उनके दबाव से पाकिस्तान सरकार परेशानी महसूस कर रही है।
सिखों के अलावा ईसाई समुदाय भी पाकिस्तान में लगातार उत्पीड़ित हो रहा है। वहां आए दिन ईसाई नागरिकों और उनके गिरजाघरों पर आतंकी हमले होते रहते हैं। पिछले सप्ताह के अंत में एक चर्च पर बड़ा हमला हुआ, जिससे जान,माल की भारी क्षति हुई। पश्चिमी देशों में इन घटनाओं की तीखी प्रतिक्रिया होती है। अमेरिकी राष्ट्रपति तो इससे आग बबूला होकर वाणी का संयम खोते हुए यहां तक कह बैठे कि मुसलमान सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं। अमेरिका द्वारा इस्लामी बिरादरी के सबसे समृद्ध देश सऊदी अरब के माध्यम से भी पाकिस्तान पर दबाव डलवाया जा रहा है। चौतरफा भर्त्सनाओं और दबावों से बौखलाई पाकिस्तान सरकार को न भीतर चैन है और न ही बाहर कोई सुकून। इससे पाकिस्तान हताश है। मंगलवार को पाकिस्तानी हताशा उसके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नसीर खान जंजुआ की इस धमकी से फूट पड़ी कि दक्षिण एशिया में परमाणु युद्ध भड़कने की प्रबल संभावना है। लेफ्टिनेंट जनरल जंजुआ ने नाभिकीय युद्ध भड़क उठने का हौवा खड़ा करते हुए यहां तक कह दिया कि यह खतरा अटकलों के मचान से उतरकर हकीकत की जमीन तक पहुंच गया है। जंजुआ के शब्दों में दक्षिण एशिया क्षेत्र की स्थिरता बहुत नाजुक दौर में पहुंच चुकी है और परमाणु युद्ध भड़क उठने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। इस खतरे का ठीकरा भारत के सिर पर फोड़ते हुए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहिद खान अब्बासी के सुरक्षा सलाहकार जंजुआ ने लगे हाथ यहां तक कह दिया कि अमेिरकी संरक्षण में भारत बेहद खतरनाक हथियारों का जखीरा जुटा चुका है। इससे पूरे क्षेत्र में खतरनाक हालात पैदा हो गये हैं। जंजुआ के अनुसार दक्षिण एशिया में चीन और रूस के प्रभाव को कम करने के लिए अमेरिका द्वारा भारत को घातक हथियारों से लैस किया जा रहा है।
पाकिस्तान द्वारा दक्षिण एशिया में परमाणु युद्ध भड़क उठने का हौवा खड़ा करने का बुनियादी मकसद है अमेरिकी चिंता में इजाफा करना क्योंकि डोनाल्ड ट्रम्प, उत्तर कोरिया के सनकी तानाशाह किम जोंग उन की परमाणु मिसाइलों और परमाणु बम के परीक्षणों से पहले ही बेचैन हैं। उन्हें मालूम है कि उत्तर कोरिया को परमाणु शक्ति से लैस करने में पाकिस्तान की बड़ी भूमिका रही है। इसलिए अमेरिका को इस बात का भी पूरा एहसास होगा कि जंजुआ के बयान के बहाने पाकिस्तान उसकी दुखती रग पर हाथ रख रहा है। लेकिन इससे पाकिस्तान को कुछ हासिल होने वाला नहीं है। न ही इससे दुनिया की सिरमौर सामरिक शक्ति बनने का अमेरिकी संकल्प भी रत्तीभर प्रभावित होने वाला है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

बदलते दक्षिण अफ्रीका में नई उम्मीद (रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार)


बिरादरी के तमाम अन्य लोगों के विपरीत मेरे मन में पश्चिम में जाकर बसने का ख्याल दूर-दूर तक कभी नहीं आया। इस देश ने मुझे बहुत कुछ दिया है। यहं रहने और काम करने के लिए इतना कुछ है कि जीवन पर्यंत यहीं रहने का इरादा है। एक बार भारत छोड़ने का खयाल आया था। तब भी यह आकर्षण यूरोप या उत्तरी अमेरिका के लिए नहीं, बल्कि अफ्रीका के लिए था। 1994-95 में मैं बर्लिन में अध्ययन कर रहा था। पत्नी और बच्चे भी साथ में ही थे। बर्लिन प्रवास के दौरान ही नाटाल विश्वविद्यालय के पीटरमारित्सबर्ग स्थित इतिहास विभाग के अध्यक्ष का पत्र मिला, जिसमें उन्होंने वहां काम करने के प्रति मेरी इच्छा के बारे में जानना चाहा था। वह पर्यावरणीय इतिहास पर मेरे लिखे से प्रभावित थीं।
बर्लिन हमारे लिए बेंगलुरु और दिल्ली के बीच एक अंतरिम ठिकाने जैसा था। दिल्ली में हम छह साल रहे थे और जर्मनी से वापसी के बाद गृहनगर बेंगलुरु में बसने की मंशा थी। नब्बे के दशक की शुरुआत में मैंने उत्तर भारत में सांप्रदायिक हिंसा के दौर देखे थे। तमाम करीबियों, पुराने दोस्तों को हिंदुत्व का झंडा उठाते देखा था। आजादी के बाद के सबसे भयावह 1989 के भागलपुर दंगों के बाद मैं वहां गया भी था। इसके तीन वर्ष बाद ही बाबरी ध्वंस की घटना हुई, जिस पर टाइम मैगजीन ने लिखा- ‘464 साल पुरानी बाबरी मस्जिद के तीन गुंबदों का भीड़ द्वारा ढहाया जाना भारतीय लोकतंत्र के तीन स्तंभों लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और कानून के शासन पर धार्मिक राष्ट्रवाद रूपी खतरे के तौर पर सामने आया है।’
मुझे अपने देश के भविष्य को लेकर चिंता हुई। एक तरफ भारत अपनी लोकतांत्रिक और बहुरंगी विरासत से विमुख होता दिख रहा था, तो दक्षिण अफ्रीका श्वेत शासन से लोकतंत्र की ओर जाते हुए अपने इतिहास में एक नया गौरवशाली पन्ना जोड़ने जा रहा था। नस्लभेदी शासन का यह खात्मा हालिया इतिहास में उत्थान की सबसे बड़ी गाथा है। कमोबेश इन्हीं मानसिक हालात में पीटरमारित्सबर्ग का निमंत्रण मिला। ऐसे में, दक्षिण अफ्रीका जाने का ख्याल, खासतौर से जब वह मुक्ति की सांसें ले रहा था, एक रोमांचक संभावना की तरह था। मेरी ग्राफिक डिजाइनर पत्नी को भी वहां अपने अनुकूल काम तलाशने में ज्यादा मुश्किल नहीं दिख रही थी। खैर, नाटाल यूनिवर्सिटी में नौकरी वाला अध्याय तो अंतत: पूरा नहीं हुआ, लेकिन 1997 में एक मित्र से मिलने मैं पहली बार दक्षिण अफ्रीका गया। इसके कुछ ही दिनों बाद महात्मा गांधी की आत्मकथा के सिलसिले में कई यात्राएं करनी पड़ीं, जिसने वहां की राजनीति को करीब से देखने-समझने का मौका दिया। 23 साल पहले, जब मन में दक्षिण अफ्रीका में बसने के विचार आ-जा रहे थे, तब नेल्सन मंडेला राष्ट्रपति थे। इतिहास उन्हें महात्मा गांधी की तरह ही पेश करता है। ऐसा महान इंसान, जो अपने शानदार आचरण और व्यवहार के साथ असीम नैतिक और शारीरिक साहस की प्रतिमूर्ति तो था ही, अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों और उत्पीड़कों के प्रति कोई दुराव भी नहीं रखता था। मंडेला की इस छवि में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन यह भी सही है कि मंडेला गांधी से कहीं ज्यादा नेहरू की प्रशंसा करते थे। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को ज्यादा बारीकी से समझा था। वह मानते थे कि नेहरू अत्यधिक लंबे समय तक सरकार के मुखिया रहे। शायद यही कारण रहा कि मंडेला ने राष्ट्रपति के रूप में पहला कार्यकाल पूरा होते ही राजनीति से संन्यास लेना उचित समझा।
मंडेला के उत्तराधिकारी थाबो मबेकी योग्य तो थे, लेकिन उनके अंदर वैसी करिश्माई शख्सियत नहीं थी। वह कई अंतर्विरोधों का शिकार भी रहे। उनके दोहरे शासनकाल के बाद कुछ समय के लिए गलेमा मोटलांथे और फिर जैकब जुमा राष्ट्रपति बने। जुमा करिश्माई तो थे, लेकिन चारित्रिक पतन का शिकार हुए और कई महाभियोग झेले, हालांकि हर बार वह खुद को बचा ले गए। जुमा अगले साल कार्यकाल पूरा कर रहे हैं। सत्तारूढ़ अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) सिरिल रामाफोसा को उनका उत्तराधिकारी घोषित कर चुकी है। वही रामाफोसा, जो नस्लभेद विरोधी आंदोलन में खासे चर्चित रहे थे। उन्हें 1998 में ही मंडेला का उत्तराधिकारी बन जाना चाहिए था। एएनसी अध्यक्ष पद के लिए जैकब जुमा की पूर्व पत्नी नकोसाजाना जुमा को हराकर वह आगे आ चुके हैं और कोई संदेह नहीं है कि रामाफोसा ही देश के पांचवें राष्ट्रपति होंगे।एएनसी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में कुछ महत्वपूर्ण समानताएं हैं। कांग्रेस की तरह ही एएनसी ने वहां आजादी की लंबी लड़ाई लड़ी और लंबे समय तक सत्ता सुख लेने का स्वाभाविक अधिकार भी हासिल कर लिया। कांग्रेस की तरह ही लंबे समय तक सत्ता में रहते तमाम ऐब और अहंकार भी उसमें आ गया। हालांकि केप टाउन में लोकतांत्रिक गठबंधन के कड़े प्रतिरोध को छोड़कर बाकी देश में इसकी मजबूत पकड़ बनी हुई है।
नब्बे के दशक में जब थोड़ी ही देर के लिए सही, नेल्सन मंडेला की धरती पर बसने का ख्याल आया था, तब मुझे अपना देश अपनी स्थापना के आदर्शों से विमुख होता दिख रहा था। लेकिन 23 साल बाद दक्षिण अफ्रीका के बारे में मैं क्या कहूं? यह आज भ्रष्टाचार, अपराध, प्रतिभा पलायन और नए तरह के नस्लभेद जैसी हर तरह की मुश्किलों से जूझ रहा है। हालांकि अब भी वहां बहुत कुछ अच्छा है, जो बचा हुआ है।
जैकब जुमा राष्ट्रपति के रूप में दक्षिण अफ्रीका के लिए किसी आपदा से कम नहीं साबित हुए। विकल्प के रूप में दो नाम सामने आए, लेकिन दोनों दो छोर पर। रामाफोसा अगर खुद को व्यावहारिक सुधारक के रूप में पेश करते हैं, तो दलमिनी जुआना एक लोकप्रियतावादी क्रांतिकारी हैं। रामाफोसा जीत चुके हैं, लेकिन जीत का अंतर इतना कम है कि आगे चलकर पार्टी के अंदर से ही विरोध भी तय है। नए राष्ट्रपति को पार्टी के बाहर भी सामाजिक दरार के साथ जातीय व नस्लीय असमानताओं की उन बुराइयों से टकराना होगा, जो बीते ढाई दशक में धीरे-धीरे अपनी जड़ें जमा चुकी हैं। सच है कि 1994 में मन में घर करने वाली उस झिझक के बाद फिर कभी अपना देश छोड़ने का ख्याल नहीं आया। मैं अंतिम सांस तक भारत में ही रहना चाहूंगा। लेकिन तमाम भावनात्मक और ऐतिहासिक कारणों से, भारत के बाद दक्षिण अफ्रीका वह दूसरा देश है, जिसके भविष्य को लेकर मुझे चिंता होती है। सच है कि मैं उनके या उनकी पार्टी के लिए वोट तो नहीं कर सकता, लेकिन जब भी एएनसी के मुखिया बनेंगे, सिरिल रामाफोसा इस भारतीय को अपने लिए खुश होता पाएंगे।(Hindustan)
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

चीनी कर्ज के फंदे में फंसती दुनिया (ब्रह्मा चेलानी)


यह किसी से छिपा नहीं कि चीन दूसरे देशों को कर्ज के जाल में फंसाकर अपने हितों की पूर्ति करता है। हाल में इसकी एक और मिसाल तब देखने को मिली जब वह श्रीलंका के सामरिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण बंदरगाह हंबनटोटा को हथियाने में कामाब रहा। चीन ने श्रीलंका को बड़े पैमाने पर कर्ज दिया था। श्रीलंका उसे अदा नहीं कर पाया और इसके एवज में उसे बंदरगाह की कमान चीन को सौंपनी पड़ी। हिंद महासागर स्थित इस बंदरगाह के लिए चीन को मिली 99 साल की लीज एक तरह से इतिहास को ही आईना दिखा रहा है। एक समय चीन को अपने तमाम बंदरगाह पश्चिम के उपनिवेशवादी देशों को सौंपने पड़े थे। इसे चीन ‘सदी की सबसे बड़ी प्रताड़ना’ मानकर संताप करता है। इसकी शुरुआत 1839 से 1860 के बीच चले अफीम युद्ध के साथ हुई और 1949 में साम्वादियों के सत्ता संभालने तक जारी रही। अब चीन भी वही दोहरा रहा है। क्या हंबनटोटा को चीन को सौंपकर श्रीलंका के लिए भी उसी ‘प्रताड़ना के दौर’ की शुरुआत हो चुकी है? चीन के लिए हंबनटोटा को हड़पना उसकी वन बेल्ट वन रोड यानी ओबोर नीति का बहुप्रतीक्षित फल है। बुनियादी ढांचे से जुड़ी इस परियोजना को चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ‘सदी की सबसे बड़ी परियोजना’ करार दे चुके हैं। गरीब देशों की कुछ बुनिादी ढांचागत जरूरतों को पूरा करने की आड़ में चीन अपने पैसों और इंजीनिरिंग कौशल के दम पर ओबोर जैसी योजनाओं के माध्म से अपने सामरिक चंगुल में फंसा रहा है। मदद के बदले साझेदार देशों को अपने प्राकृतिक संसाधनों की पहुंच चीन के लिए सुनिश्चित करनी पड़ती है। इसमें खनिज संसाधनों से लेकर बंदरगाह तक शामिल होते हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन ने हाल में ओबोर के बारे में कहा कि इसका मकसद अपने खुद के कानून और प्रावधान तय करना है।
हंबनटोटा पर चीन की कुदृष्टि दोहरी विडंबना को जाहिर करती है। 1997 में उसे हांगकांग पर अपने अधिकार वापस मिले और वहां चीनी प्रभुसत्ता पुन: स्थापित हुई। 19वीं सदी में चीन इसे ब्रिटेन को लीज पर देने के लिए मजबूर हुआ था जिसे वह ऐतिहासिक अन्य बताता आया है, लेकिन वही चीन अब हांगकांग शैली वाली औपनिवेशिक व्यवस्था बनाने पर आमादा है। एक नए ‘हांगकांग’ के तौर पर हंबनटोटा चीनी राष्ट्रपति चिनफिंग के उसी वादे को दर्शाता है कि वह ‘चीनी राष्ट्र का पुनरोत्थान’ करेंगे जिसमें दूसरे अन्य छोटे देशों की संप्रुभता पर आघात होगा। चीन अब युरोपी औपनिवेशिक काल में सीखी तिकड़मों का ही इस्तेमाल कर रहा है। उस समय चीनी राष्ट्रवादी क्रांति के नेता सनयात सेन ने कहा था, ‘जहां भारत ब्रिटेन की पसंदीदा पत्नी है तो चीन सभी बड़ी ताकतों की साझा रखैल।’ 99 साल लीज की अवधारणा भी यूरोपी औपनिवेशिक विस्तार से निकली है। चीन ने बहुत दूर की सोचते हुए यह रणनीति अपनाई है। श्रीलंका ने 1.1 अरब डॉलर की कर्ज माफी के एवज में हंबनटोटा बंदरगाह चीन को सौंप दिया। इससे कुछ वक्त पहले चीन की ही एक कंपनी ने ऑस्ट्रेलिया के डीप वाटर पोर्ट डार्विन का अधिग्रहण किया जो 1,000 से अधिक अमेरिकी मरीन्स का ठिकाना है। चीनी कंपनी ने 2015 में यह सौदा 38.8 करोड़ डॉलर में किया जिसमें उसे 99 साल की लीज मिली।
बीजिंग ने अपनी कंपनियों को इसके लिए खूब प्रोत्साहित किया है कि वे रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण बंदरगाहों को खरीदने की हरसंभव कोशिश करें। बुरी तरह से कर्ज के बोझ तले ग्रीस ने भी भूमध्य सागर में स्थित पिरास का अपना प्रमुख बंदरगाह पिछले साल चीन को बेच दिया । अब चीन इस बंदरगाह को यूरोप में ओबोर के प्रवेश के ‘ड्रैगन हेड’ के रूप में विकसित कर रहा है। हंबनटोटा हिंद महासागर के प्रमुख व्यापारिक मार्गों के बीच में है। यह ध्या न रहे कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं द्वारा दिए जाने वाले कर्ज के उलट चीन से मिलने वाले कर्ज का गणित एकदम अलग है। चीनी अनुबंध उसी की एकतरफा शर्तों पर होते हैं। चीन किसी देश के रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण संसाधनों के दीर्घावधिक उपोग को ध्यान में रखकर ही कर्ज देता है। हंबनटोटा बंदरगाह का चीन को हस्तांतरण श्रीलंका के आत्मसम्मान और संप्रभुता पर भी आघात है। हय पुराने जमाने की बॉलीवुड फिल्मों की तरह है जहां कर्ज न चुका पाने के चलते कर्जदार को अपनी बेटी क्रूर साहूकार को सौंपनी पड़ती थी। चीन रियायती दरों पर कर्ज नहीं, बल्कि परियो जना आधारित कर्ज देता है, जिसमें न तो पारदर्शिता होती है और न ही पर्यावरण प्रभाव का आकलन।
चीन एक तीर से दो शिकार करने की रणनीति पर काम कर रहा है। उसने घरेलू स्तर पर उत्पादन की असीम क्षमताएं हासिल कर ली हैं। वह बड़े पैमाने पर निर्यात करके अपने रणनीतिक हितों को साध रहा है। इसमें कूटनीतिक प्रभाव बढ़ाना, प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच बनाना, अपनी मुद्रा को बढ़ावा देना और प्रतिद्वंद्वी देशों के मुकाबले बढ़त हासिल करने जैसे पहलू शामिल हैं। ओबोर इसे अमली जामा पहनाने का मुख्य जरिया है जो मुख्त: एक साम्राज्वादी परियोजना है। जहां यूरोपी औपनिवेशिक ताकतें नए बाजारों तक पहुंचने और उपनिवेश बनाने के लिए बाहुबल वाली कूटनीति का सहारा लेती थीं वहीं चीन बिना एक भी गोली दागे अपने कर्ज के जाल में फंसाकर दूसरे देशों को अपना दास बनाने पर तुला है। एक वक्त अंग्रेज चीन को अफीम का निर्यात करते थे। चीन से आसानी से मिलने वाले कर्ज की तासीर भी कुछ वैसी ही नशीली है। कोई देश एक बार कर्ज में फंसा तो फिर उस पर चीन का शिकंजा लगातार कसता ही जाता है।
अपनी आक्रामक अर्थनीति के माध्म से चीन तेजी से दुनिा भर में पांव पसार रहा है। मिसाल के तौर पर जिबूती जब चीन के भीमकाय कर्ज के बोझ तले दब गाय तो चीन ने वहां अपना पहला विदेशी सैन् अड्डा स्थापित कर लिया। जिबूती भले ही छोटा सा देश हो, लेकिन इसकी सामरिक महत्ता है। यहां से कुछ ही दूरी पर अमेरिका का एक बड़ा नौसैनिक अड्डा है। चीनी कर्ज के भंवर में फंसे जिबूती को सालाना दो करोड़ डॉलर के बदले में चीन को जमीन लीज पर देनी पड़ी। तुर्कमेनिस्तान से गैस आपूर्ति के लिए भी चीन ने कर्ज का ही जाल बुना। तमाम अन्य देश भी चीन के कर्ज-जाल में फंसे हैं जिनमें अर्जेंटीना , वेनेजुएला, केन्या , नामीबिया , जिम्बॉब्वे, कंबोडिाया और लाओस जैसे देश शामिल हैं। जल्द ही इस सूची में और कई नाम जुड़ सकते हैं। जैसे अगर केन्या की वित्तीय नैया डगमगाती है तो उसके सबसे व्यस्त बंदरगाह मोंबासा का हश्र भी हंबनटोटा की तरह होगा। ऐसे देश निर्णय लेने की अपनी आजादी से लेकर अपनी बहुमूल् प्राकृतिक संपदा को भी गंवा रहे हैं। ऐसे में सबक ही है कि जो भी देश अभी तक चीनी कर्ज के मायाजाल में नहीं फंसे हैं वे उसके साथ साझेदारी करने से पहले उसकी शर्तों पर पुनर्विचार अवश् करें। (दैनिक जागरण )
(लेखक सामरिक मामलों के जानकार और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फेलो हैं)

Friday 22 December 2017

कट्टरता की राह छोड़ता सऊदी अरब (शंकर शरण)

चंद दिनों पहले सऊदी अरब की राजधानी रियाद में लेबनानी गायिका हिबा तवाजी का कंसर्ट हुआ। हजारों सऊदी लड़कियों ने उसे लाइव देखा-सुना ही नहीं, बल्कि साथ-साथ पश्चिमी पॉप गायिका सेलीन डियन की धुन पर नाची भीं। सऊदी इतिहास में यह पहला अवसर था जब किसी गायिका ने सार्वजनिक एकल कार्यक्रम पेश किया। जो लोग इस घटना का मर्म समझना चाहें उन्हें प्रसिद्ध फिल्म ‘साउंड ऑफ म्यूजिक’ (1965) की नायिका को याद करना चाहिए। बंद कॉन्वेंट में रहने वाली नन के लिए लोगों के साथ उन्मुक्त गीत-नृत्य का अवसर पाना जैसा आह्लादकारी था, हिबा का ऐतिहासिक कार्यक्रम भी सऊदी स्त्रियों के लिए वैसा ही था। भारत जैसे खुले समाज में हिंदू क्या, मुस्लिम भी उस रोमांच को महसूस नहीं कर सकते जो सऊदी अरब में महसूस किया जा रहा है। यह सब वहां के नए युवा शासक प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान के साथ शुरू हुआ है। उन्होंने धार्मिक और आर्थिक सुधार का महत्वाकांक्षी कार्य शुरू किया है। उन्हें राजपरिवार के अधिकांश लोगों और युवा सऊदी आबादी का समर्थन प्राप्त है।
अभी वहां 65 प्रतिशत आबादी 30 वर्ष से कम की है। वे दुनिया के साथ चलना और किसी सऊदी युवक की संभावित आतंकी वाली छवि तोड़ना चाहते हैं। प्रिंस सलमान के पक्ष में सामाजिक वातावरण इतना सशक्त है कि मौलानाओं ने भी सुधारों को सहमति दे दी है।1एक और निर्णय यह हुआ है कि महिलाएं स्टेडियम जाकर फुटबॉल मैच देख सकती हैं। जल्द ही महिलाएं अकेले गाड़ी चला सकेंगी। देशभर में सैकड़ों सिनेमा और कंसर्ट हॉल खोले जा रहे हैं, जहां दुनिया भर की फिल्में और नृत्य-संगीत कार्यक्रम देखे जा सकेंगे। यह सब बहुत बड़े फैसले हैं। सऊदी अरब की आधी से अधिक आबादी इनके लिए उत्कंठित है। प्रिंस सलमान के अधिकांश मंत्री युवा हैं। शुद्धतावादी इस्लाम के दमघोंटू दबाव से मुक्त होने के कारण उन्हें नया सोचने और करने की आजादी मिली है। यदि ये सुधार सफल होते हैं तो पूरी दुनिया पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। स्वयं इस्लाम में वास्तविक सुधार होगा। इसलिए प्रिंस सलमान के अभियान का महत्व वैश्विक है।
आरंभ आर्थिक सुधारों से हुआ है जिसमें सर्वोच्च राजकीय लोगों के भ्रष्टाचार को कड़ाई से खत्म किया जा रहा है। इसकी सफलता निश्चित है, क्योंकि यह ऊपर से शुरू हुआ, न कि नीचे से। लगभग 100 अरब डॉलर की अवैध राशि सरकार के अधीन लाई गई। विशेषज्ञों की सलाह से इन सुधारों, धन-जब्ती आदि को इस तरीके से किया गया जिससे किसी प्रतिष्ठान या व्यवसाय का काम न रुके और रोजगारों पर दुष्प्रभाव न पड़े, लेकिन सबसे अधिक महत्वपूर्ण सुधार धार्मिक हैं। प्रिंस सलमान सऊदी अरब को 1979 से पहले वाली स्थिति में लाना चाहते हैं, जब धार्मिक कट्टरपंथ का दबदबा न था। तब सऊदी अरब में भी काफी हद तक उदार सामाजिकता थी। प्रिंस सलमान वही स्थिति बहाल करना चाहते हैं। उनके शब्दों में वहां ‘संतुलित, संयत इस्लाम होना चाहिए जो दुनिया और सभी धर्मो, परंपराओं और लोगों के प्रति खुला हो।’ इसमें बड़ी युगांतरकारी संभावनाएं छिपी हैं। 1 सऊदी अरब में मजहबी पुलिस के अधिकारों पर अंकुश लगा है। शिक्षा में भी सुधार हो रहे हैं। सालाना 1700 सऊदी शिक्षक विश्व स्तरीय प्रशिक्षण के लिए फिनलैंड भेजे जा रहे हैं। सऊदी लड़कियों के लिए शारीरिक शिक्षण की कक्षाएं शुरू हो रही हैं। स्कूलों में बच्चों के लिए विज्ञान व सामाजिक विषयों में रुचि अनुसार खोज-बीन और प्रोजेक्ट करने की सुविधा देने के उपाय किए जा रहे हैं। मतलब साफ है कि केवल इस्लाम शिक्षा की कसौटी नहीं रहेगा। प्रिंस सलमान ने कट्टरपंथी इस्लामियों को वैचारिक चुनौती भी दी है। वे ‘इस्लाम की पुनव्र्याख्या’ वाली छद्म-शब्दावली या घुमा-फिरा कर नहीं, बल्कि खुल कर कहते हैं कि ‘हम उग्रवाद खत्म करेंगे।’ वे साफ कहते हैं कि समाज में खुलापन होना चाहिए, संगीत-कला की आजादी और दूसरे धर्म के लोगों के प्रति आदर होना चाहिए। वे याद दिलाते हैं कि पैगंबर मोहम्मद के जमाने में मदीना में महिला न्यायाधीश होती थीं। इस प्रकार सलमान इस्लामी सिद्धांत के बदले वास्तविक उदार व्यवहार को कसौटी बना रहे हैं। यदि सऊदी अरब में ऐसे धार्मिक-सामाजिक सुधारों ने गति पकड़ी तो घर-घर इंटरनेट, यू-ट्यूब और सोशल मीडिया के जमाने में संपूर्ण मुस्लिम विश्व में वही गति कोई रोक न सकेगा, क्योंकि सऊदी अरब दुनिया भर के मुसलमानों की आदर्श भूमि है। यदि वहां लोग दूसरे समाजों की तरह सहज हंसने-गाने, खाने-पीने, घूमने-फिरने, जीने और भावनाएं साझा करने लगेंगे तो देखते ही देखते बिना किसी बहस के सारी दुनिया के मुसलमान वैसा ही करने लगेंगे। इसलिए नहीं कि उन्हें नकल करनी है, बल्कि इसलिए कि धर्मगुरुओं ने उन पर जो मजहबी अंकुश लगा रखा है, वह स्वत: हटने लगेगा। नि:संदेह प्रिंस सलमान के लिए परिस्थितियां अनुकूल हैं। दुनिया में इस्लाम में सुधार की मांग जोर पकड़ रही है, जो हर चीज में इस्लाम लागू करने के बजाय इस्लाम को ही समय अनुरूप बदलने की जरूरत समझती है। संयुक्त अरब अमीरात में ऐसे कुछ सुधार पहले ही हो चुके हैं, लेकिन इस्लाम के केंद्र सऊदी अरब में यह होना संपूर्ण मुस्लिम जगत में सुधार लाएगा।
तेल-संसाधनों का मूल्य घटने और चौतरफा इस्लामी आतंकवाद से अरब मौलानाओं को भी दबाव महसूस हो रहा है। उस आतंकवाद के कारण दुनिया भर में मारे गए और तबाह लोगों में 95 प्रतिशत लोग मुसलमान ही रहे हैं। इस सच्चाई का निहितार्थ अब झुठलाया नहीं जा सकता। यही कारण है कि जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने गत 21 मई सऊदी अरब की राजधानी में पचास से अधिक मुस्लिम देशों के शासकों के सामने ‘इस्लामी आतंकवाद’ और ‘इस्लामी उग्रवाद’ खत्म करने का आह्वान किया तो किसी मुस्लिम नेता या मौलाना ने एक शब्द न कहा। यह अपने-आप में बहुत बड़ी घटना और बदलते समय का संकेत था। सऊदी अरब में सुधार की नई हवा का महत्व तभी ठीक-ठीक समझा जा सकता है जब गत चार दशक से मुस्लिम जगत की तमाम उथल-पुथल को ध्यान में रखा जाए।
1979 से सऊदी अरब और ईरान, यानी इस्लाम की दोनों बड़ी धाराओं के केंद्र ने कट्टरता की प्रतियोगिता-सी आरंभ की। आज उसका जोर और उत्साह, दोनों खत्म हो चुके हैं। ईरान में अभी कट्टरपंथी प्रभावी हैं, लेकिन कुछ वर्ष पहले वहां राष्ट्रपति सैयद खातमी ने भी खुलकर इस्लाम में सुधार और सर्व-धर्म आदर की जरूरत बताई थी। अर्थात वहां भी सच्चाई समझी जा चुकी है और केवल समय की बात है कि तदनुरूप सामाजिक परिवर्तन किए जाएं।(दैनिक जागरण )(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर हैं)

संख्या बढ़े, लेकिन छोटे करदाताओं को राहत मिले (जयंतीलाल भंडारी, अर्थशास्त्री )

नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च की रिपोर्ट के अनुसार, देश में मध्यम वर्ग के 17 करोड़ लोग हैं, जबकि आयकरदाताओं की संख्या महज 6.26 करोड़ है। माना जाता है कि सामान्य तौर पर वेतनभोगी वर्ग ही निर्धारित आयकर चुकाता है, लेकिन देश में सेवा क्षेत्र और स्वयं का कारोबार करने वाला एक ऐसा बड़ा वर्ग है, जो आयकर के दायरे से दूर है। 20 दिसंबर को आयकर विभाग ने आयकरदाताओं से संबंधित जो आंकड़े प्रस्तुत किए हैं, उनके अनुसार 2014-15 में 3.65 करोड़ लोगों ने टैक्स रिटर्न फाइल किया था। इनमें 1.37 करोड़ लोग 2.5 लाख रुपसे से कम आय वाले थे। वहीं 2015-16 में देश में कुल 4.07 करोड़ लोगों ने रिटर्न फाइल किया, जिनमें से 82 लाख लोग ऐसे थे, जिनकी आय 2.5 लाख रुपये से कम दिखी।
देश में आयकरदाताओं की कम संख्या का कारण आयकर कानून की कमियां हैं, जिनका अनुचित लाभ करदाता उठाते हैं। वेतनभोगी वर्ग निर्धारित आयकर चुकाता है, लेकिन सेवा क्षेत्र और स्वयं का कारोबार करने वाला बड़ा वर्ग आयकर के दायरे से दूर है। सर्वविदित है कि देश की विकास दर के साथ-साथ शहरीकरण की ऊंची वृद्धि दर के बूते भारत में मध्यम वर्ग के लोगों की संख्या तेजी से बढ़ी है। नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, देश में मध्यम वर्ग के 17 करोड़ लोगों में 46 फीसदी क्रेडिट कार्ड, 49 फीसदी कार, 52 फीसदी एसी तथा 53 फीसदी कंप्यूटर के मालिक तो हैं, लेकिन इनमें से बड़ी तादाद आयकर नहीं चुकाती है। हालांकि बीते एक वर्ष में नोटबंदी के दबाव में कालाधन जमा करने वालों में घबराहट बढ़ी, तो वे नए आयकरदाताओं के रूप में दिखाई भी दिए हैं। विश्व के कर विशेषज्ञों का मानना है कि विभिन्न विकासशील देशों की तुलना में भारत में अब भी छिपे हुए आयकरदाताओं की संख्या बहुत ज्यादा है। ऐसे में, वास्तविक आय पर आयकर देने वालों की संख्या बढ़ाने और ईमानदारी से आयकर देने वाले करदाताओं को राहत देने के मद्देनजर देश के करोड़ों लोगों की निगाहें नई प्रत्यक्ष कर संहिता (डायरेक्ट टैक्स कोड-डीटीसी) तथा नए आयकर अधिनियम (इनकम टैक्स ऐक्ट) का मसौदा तैयार करने के लिए गठित किए गए सात सदस्यीय कार्यबल की ओर लगी हुई हैं। यह कार्यबल नए आयकर कानून व प्रत्यक्ष कर संहिता लागू किए जाने के लिए छह महीने के भीतर सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप देगा।
देश में आयकर का इतिहास देखें, तो पता चलता है कि इसकी शुरुआत अंग्रेजों ने 1922 में की थी। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पटरी से उतरी देश की अर्थव्यवस्था के लिए राजस्व जुटाने के मद्देनजर आयकर अस्थाई रूप से लागू किया गया था। तभी से यह सरकार की आय का महत्वपूर्ण आधार बना हुआ है। यद्यपि देश की आजादी के बाद वर्ष 1961 तक देश की प्रत्यक्ष कर नीति और आयकर कानून में कुछ सुधार हुए, फिर 1961 में आयकर अधिनियम लागू किया गया। पर इस अधिनियम में एक ओर कार्यान्वयन संबंधी जटिलताएं रहीं, तो दूसरी ओर रियायतों व छूटों के कारण कर अनुपालन में मुश्किलें बढ़ती गईं। ऐसे में, केंद्र सरकार का सन 1961 के आयकर अधिनियम की समीक्षा के लिए कार्यबल बनाने का निर्णय मौजूदा समय की जरूरत ही कहा जाना चाहिए।
यद्यपि समय-समय पर बनाई गई विशेषज्ञ समितियों की बहुत सी सिफारिशों और प्रस्तावों को वर्तमान प्रत्यक्ष कर प्रणाली में पहले ही शामिल किया जा चुका है। इनमें जनरल एंटी-अवॉइडेंस रूल्स (गार), प्रभावी प्रबंधन व्यवस्था, शेयरों के अप्रत्यक्ष हस्तांतरण पर करों की सख्ती कम करना आदि शामिल हैं। कई अहम बदलाव भी आयकर अधिनियम में शामिल किए जा चुके हैं। जैसे कॉरपोरेट टैक्स को 50 करोड़ रुपये तक के कारोबार वाली फर्म के लिए कम करके 25 फीसदी कर दिया गया था। उस विधेयक में मुनाफा संबंधी कटौती के खात्मे की जो बात कही गई थी, उसे भी आयकर अधिनियम में शामिल किया जा चुका है। आशा की जानी चाहिए कि नया कानून ऐसी आदर्श आयकर प्रणाली को आकार दे सकेगा, जहां कर की दरें कम होंगी, करदाताओं का दायरा बढ़ेगा और ईमानदारी से आयकर देने वालों को राहत मिलेगी। (Hindustan )
(ये लेखक के अपने विचार हैं)