खबर आई है कि रेयान स्कूल वाले मामले में किशोर न्याय बोर्ड ने पहली बार ऐसा फैसला सुनाया है कि 16 साल के आरोपी पर वयस्कों की तरह मुकदमा चलेगा। इस स्कूल में 11वीं के उपरोक्त छात्र ने दूसरी कक्षा के छात्र प्रद्युम्न की हत्या की थी। वहीं गौड़ सिटी हत्याकांड मामले में समाचार आया था कि अल्प वयस्क छात्र ने अपनी मां और बहन की हत्या कर शांत भाव से वह अपार्टमेंट के बाहर निकला और फरार हो गया। बाद में पुलिस ने उसे पकड़ा।
पिछले कुछ सालों में हत्या,बलात्कार और इस तरह के बड़े अपराधों में किशोरवय बच्चों की संलिप्तता पर समाज के हर तबकों में चिंता व्यक्त की गई है। अपराध के आंकड़े भी ऐसे ही दशा दिखा रहे हैं। इसके मद्देनजर किशोर अधिनियम में बदलाव की भी मांग उठी और 2014 में संशोधित अधिनियम के अनुसार जघन्य अपराध में शामिल किशोरों पर वयस्कों के जैसे मुकदमा चलाने की बात चली, लेकिन यह अधिकार का इस्तेमाल किशोर न्याय बोर्ड ही कर सकता है। अब भी कानूनन उम्र कैद या मौत की सजा नहीं हो सकती है। इस संशोधन से पहले नाबालिग को तीन साल तक सुधार गृह में रखने की अधिकतम सजा दी जा सकती थी। सोचना तो यह चाहिए कि आखिर ये बड़े होते बच्चे और किशोर इतने हिंसक क्यों बन रहे हैं? पुलिस को यह भी रिकॉर्ड के आधार पर बताना चाहिए किस प्रकार के परिवेश में रहने वाले लोग ऐसे अपराध में अधिक लिप्त पाए जाते दिखते हैं ताकि दूरगामी रूप से हल निकालने की नीति बनाई जा सके। सामाजिक विज्ञान के अध्यताओं को भी इस दिशा में काम करने की जरूरत है।
यह सही है कि बच्चे यदि जल्दी बड़े होने लगे हैं और उन्हें खेल-कूद, पढ़ाई-लिखाई से इतर दुनिया ज्यादा आकर्षित करने लगी है तो इन्हें इसका खामियाजा भी भुगतने को तैयार रहना होगा, लेकिन इसके पहले दो बातों पर विचार करना चाहिए। एक तो क्या कोई भी व्यक्ति चाहे-बच्चा हो या बड़ा-अपराध करने से पहले यह सोचता होगा कि उसे कैसा अंजाम भुगतना होगा? सभी अपने को समझदार ‘समझते’ हैं कि वे तो बच जाएंगे तो ऐसा बच्चे क्यों नहीं सोचेंगे? तब सख्त सजा दूसरों को अपराध की दुनिया में कदम रखने से कैसे रोकेगा और दूसरा सवाल कि बच्चे बच्चों की तरह बड़े क्यों नहीं बन रहे हैं? सोचना चाहिए कि बच्चों में आपराधिक प्रवृत्ति कहां से आ रही है? यह एक बड़ा सवाल है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है।
मीडिया तथा अन्य संचार माध्यमों पर तो लगातार विशेषज्ञों एवं जानकारों की राय आती रहती है कि कैसे आक्रमकता एवं यौनिक कुंठाएं पैदा हो रही हैं। पिछले दिनों दिल्ली के एक अग्रणी अस्पताल ने बच्चों की हिंसात्मक प्रवृत्ति पर कराए गए एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट पेश की थी। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि हिंसात्मक फिल्में देखने के कारण बच्चों में हथियार रखने की परिपाटी बढ़ रही है। सर्वेक्षण रिपोर्ट बताती है कि 14 से 17 वर्ष के किशोर हिंसात्मक फिल्में देखने के शौकीन हो गए हैं। दिल्ली, गुड़गांव और नोएडा के एक हजार छात्रों पर केंद्रित यह सर्वेक्षण किशोरों के मानसिक दृष्टिकोण पर आधारित है। 44 फीसद छात्रों ने माना कि उन्होंने किसी न किसी को चोट पहुंचायी है तथा 32 फीसद छात्राओं ने इसमें हामी भरी है। 35 फीसद छात्रों के मुताबिक उन्होंने दोस्त बनाने के लिए दादागिरी तथा बल प्रयोग किया। मगर सवाल है कि हमारे समाज में परत-दर-परत बैठी हिंसा और हिंसात्मक प्रवृत्ति बच्चों को ही क्यों अपराध करने के लिए क्यों अधिक प्रेरित करती है। टीवी पर जिस तरह अपराध की खबरें प्रसारित होती हैं, प्रस्तुतकर्ता जिस तरह चीख-चीख कर और भयावह मुद्रा बनाकर पेश करता है उससे क्या कोई असर ग्रहण करेगा?
ध्यान रहे यह समस्या कुछ घटनाओं तक सीमित नहीं है और न ही जघन्य अपराधों तक जोकि अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं बल्कि लड़ाकू-झगड़ालू दूसरों को तंग करना, बुलिंग आदि की शिकायतें आए दिन स्कूल परिसरों की सरदर्दी बनती जा रही हैं। हाल में दिल्ली में प्रशासनिक स्तर पर जिला विद्यालय निरीक्षक विभाग ने स्कूलों में गुस्सैल और झगड़ालू बच्चों की सूचि तैयार करने को भी कहा ताकि उनकी काउंसलिंग की जा सके तथा विशेषज्ञों की राय ली जा सके।
अब कुछ बिगड़े हुए छात्रों को 6वीं और 7वीं के बाद क्लास में काबू करना शिक्षकों के लिए भारी चुनौतिपूर्ण काम बन गया है। स्कूलों में गैंग की तरह ऐसे बच्चों का समूह दूसरे बच्चों पर दबाव बनाते हैं। कुछ माता पिता को भी अपनी संतान को स्नेह प्यार करने का मतलब उनकी हर मांग को पूरी करना रह जाता है। वे अपने बच्चों में एक जिम्मेदार नागरिक की मानसिकता नहीं बना पाते जो फिर उन पर ही भारी पड़ता है क्योंकि ऐसे बच्चे बड़े होकर अच्छे इन्सान भी तो नहीं बनते। अगर ऐसे बच्चों को कोई शिक्षक नैतिक शिक्षा की तरफ मोड़ने की कोशिश करता है तो उसे दिक्कत का सामना करना पड़ता है। यानी एक उम्र के बाद बच्चे शिक्षकों की बात मानना बंद कर दे रहे हैं और इसकी प्रवृत्ति बढ़ रही है। बच्चों पर बाहरी प्रभावों के संदर्भ में सोशल मीडिया के असर पर काफी चर्चा होती रही है, लेकिन इस से बच्चों को बचा पाना या खुद बच पाना अब लगभग नामुमकिन सा लगने लगा है।
बच्चों में आक्रामकता बढ़ने, गुस्सा भड़कने, बात बात पर हिंसक हो जाना या नाराज होकर घर से भाग जाना, अपनी जान जोखिम में डाल लेना आदि व्यवहार का कारण तलाशना इतना मुश्किल भी नहीं है। यदि हम समाज में इस मुद्दे पर पहल और हस्तक्षेप नहीं करते हैं कोई भी घर बच्चों को दुरुस्त नहीं रख पाएगा। बच्चों की नियमित निगरानी होनी चाहिए।(दैनिक जागरण )
(लेखिका स्त्री अधिकार कार्यकर्ता हैं)
(लेखिका स्त्री अधिकार कार्यकर्ता हैं)