Friday 1 December 2017

समुद्र में बढ़ती भारत की ताकत (सी उदय भास्कर, निदेशक, सोसाइटी ऑफ पॉलिसी स्टडीज

भारत और सिंगापुर ने बुधवार को नई दिल्ली में दूसरी मंत्री-स्तरीय वार्ता में नौसैन्य सहयोग बढ़ाते हुए एक द्विपक्षीय करार किया है। यह समझौता तब हुआ है, जब सिम्बेक्स (सिंगापुर-भारत समुद्री द्विपक्षीय अभ्यास) 25वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। अगले साल 2018 में 25वें सिम्बेक्स का आयोजन किया जाएगा। यह बताता है कि दोनों देशों के बीच नौसैन्य सहयोग में कितनी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। बुधवार को हुआ समझौता कई मामलों में अलहदा है। इस समझौते से समुद्री सुरक्षा और संयुक्त अभ्यास में द्विपक्षीय सहयोग तो बढे़गा ही, अब दोनों देशों के नौसैनिक एक-दूसरे के यहां अस्थाई रूप से तैनात हो सकेंगे और रक्षा सामान भी साझा कर सकेंगे। जाहिर है, यह अपनी तरह का पहला समझौता है। यह सिंगापुर के नजदीकी समुद्री क्षेत्र में भारतीय नौसेना की और बंगाल की खाड़ी में सिंगापुर की नौसेना की पहुंच को बढ़ाने में मददगार साबित होगा।
किसी भी नौसेना की विशेषता इसी से आंकी जाती है कि महासागर और समुद्र में उसकी ‘मौजूदगी’ किस हद तक है? इससे राष्ट्रीय हित तो सधते ही हैं, क्षेत्रीय या वैश्विक उद्देश्यों की पूर्ति में भी मदद मिलती है। समुद्र के अच्छे प्रबंधन की संकल्पना इसी क्षेत्रीय या वैश्विक उद्देश्यों का एक हिस्सा है। नौसेना की ‘मौजूदगी’ का अर्थ यह भी है कि उस खास जगह तक जहाजों, पनडुब्बियों व विमानों जैसे नौसैनिक साजो-सामान पहुंचाए जा सकते हैं और वहां उन्हें तैनात किया जा सकता है। यानी नौसेना के पास यदि अपने टैंकर व रसद के जहाज हैं, तो वह उन्हें वहां तैनात कर सकती है और किसी कार्रवाई या परिचालन संबंधी जरूरत को देखते हुए तैनाती की उसकी अवधि बढ़ा भी सकती है। और यदि दूसरे देशों में रसद संबंधी मदद मिल जाती है, तो इससे नौसेना को लंबे समय तक समुद्र में अपनी उपस्थिति बनाए रखने में मदद मिलती है।
सीमा पार से मिलने वाली रसद संबंधी मदद परिचालन के कामों में कितनी कारगर होती है, इसका ताजा उदाहरण चीन का जिबूती में बनाया गया ‘लॉजिस्टिक हब’ यानी नौसैन्य ठिकाना है। ‘हॉर्न ऑफ अफ्रीका’ के जिबूती में यह ठिकाना बनाकर और फारस की खाड़ी वाले क्षेत्रों में अन्य बुनियादी सुविधाएं बढ़ाकर बीजिंग ने अब हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत कर ली है।
हालांकि इस तरह हुबहू तो नहीं, पर भारत और सिंगापुर में हुआ यह समझौता दोनों मुल्कों को अपने साझा हितों को आगे बढ़ाने के लिए सैन्य व नौसैन्य विकल्पों को मुहैया कराने में मददगार साबित होगा। इसमें क्षेत्रीय सुरक्षा की बात तो है ही, अंतरराष्ट्रीय कानूनों के मुताबिक समुद्री स्वतंत्रता बनाए रखते हुए बेरोकटोक आवाजाही और कारोबार को भी महत्व दिया गया है। समुद्र में अनियोजित तरीके से होने वाले टकराव को रोकने के लिए बने कायदे-कानूनों की जद में भी अब सभी आसियान देश आ जाएंगे। इस करार के शब्द समान विचार वाले राष्ट्रों को एक ऐसे समझौते तक पहुंचने पर जोर देते हैं, जिसके तहत वे वैश्विक समुद्री क्षेत्र का प्रबंधन न्यायोचित और आपसी सहमति से करने के लिए आम राय बना सकें।
इस मौके पर सिंगापुर के रक्षा मंत्री ऐंग इंग हेन ने हिंद महासागर में भारत की भूमिका की सराहना की और अपने साझा समुद्री क्षेत्र में अनवरत व संस्थागत नौसैन्य सहयोग के दिल्ली के प्रस्ताव का समर्थन दिया, जिसमें समान विचारधारा वाले क्षेत्रीय अथवा आसियान सहयोगी देशों के साथ समुद्री सैन्य अभ्यास करना भी शामिल है। सिंगापुर के साथ हुआ यह समझौता तीन क्षेत्रों में भारत के लिए खासा महत्वपूर्ण है। पहला, यह सिंगापुर के साथ द्विपक्षीय सैन्य रिश्ते को और अधिक मजबूत बनाता है। सिंगापुर की वायु व थल सेना पहले से ही भारतीय सेनाओं के साथ अभ्यास करती रही है और दोनों में करीबी रिश्ता रहा है। मगर नौसैन्य समझौता होने से एक समग्र सैन्य संबंध बनेगा और सिंगापुर के साथ हुए उन द्विपक्षीय समझौतों को मजबूती मिलेगी, जिसमें उसे भारत की ‘एक्ट-ईस्ट’ नीति के तहत विशेष दर्जा दिया गया है। उल्लेखनीय है कि 1990 के दशक की शुरुआत में जब नरसिंह राव की सरकार थी, तो अपेक्षाकृत कमतर होने के बावजूद उसने भारत को आसियान में शामिल कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। जाहिर है, अब क्षेत्रीय रक्षा और कूटनीति के मामले में कई परस्पर फायदेमंद क्षमताएं हासिल की जा सकती हैं।
इस समझौते की दूसरी प्रासंगिकता चीन से जुड़ी है। चीन का बढ़ता कद और उसकी मुखरता ने आसियान को बांट दिया है। यह इस उप-महाद्वीप के लिए चिंता की बात है। ऐसे में, भारत को ही वह विकल्प माना जाता है, जो सामरिक संतुलन बना सकता है। नई दिल्ली भी सावधानी से और बिना किसी उत्तेजक बयानबाजी से इस दिशा में आगे बढ़ रही है। वह एक तय तरीके से समुद्री व नौसैन्य द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत बना रही है। यह उप-महाद्वीप में मोदी की कूटनीति का एक हिस्सा है और इसके निहितार्थ अब वैश्विक सामरिक स्तर पर भी स्पष्ट तौर पर देखे जा सकेंगे। मेरा मानना है कि यही इस समझौते का तीसरा बड़ा महत्व है। साल 2014 के मध्य में जब नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभाली थी, उसके तुरंत बाद उन्होंने ‘सागर’ (क्षेत्र में सभी के लिए सुरक्षा व विकास) की संकल्पना पेश की थी और हिंद महासागर पर ध्यान लगाया था, जो प्रेरक था। हालांकि इसे अपने बूते सफल बनाना भारत के लिए संभव नहीं है, मगर बीज तो डाल ही दिए गए हैं। समान सोच वाले राष्ट्रों के साथ साझेदारी करके और पारस्परिक रूप से लाभकारी नीति पर आगे बढ़ने से भारत की विश्वसनीयता एक सुरक्षा साझेदार के रूप में बढ़ेगी, और यह चीन की धारणा के विपरीत होगा।
इससे इनकार नहीं कि भारत और सिंगापुर अब भी चीन को एक मजबूत द्विपक्षीय सहयोगी के रूप में देखते हैं और बीजिंग के साथ स्थाई व गर्मजोशी भरे संबंध के हिमायती हैं। मगर दोनों मुल्क यही चाहेंगे कि चीन के साथ यह रिश्ता संप्रभुता, कूटनीतिक शिष्टता और राजनीतिक-सैन्य संवेदनशीलता की धरातल पर हो। रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण को सिंगापुर के साथ ऐसे ही रिश्ते को प्राथमिकता देनी चाहिए और इसे अन्य द्विपक्षीय रिश्ते के आदर्श के रूप में पेश करना चाहिए।(हिंदुस्तान )
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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