Friday 1 December 2017

अपनी ही सेना से शर्मसार पाकिस्तान (विवेक काटजू)

धार्मिक उन्माद का दानव पाकिस्तान को लगातार अपने शिकंजे में कस रहा है। हाल में इसका नमूना फिर से तब देखने को मिला जब तीन कट्टर धार्मिक संगठनों ने पहले इस्लामाबाद और रावलपिंडी और फिर पूरे पाकिस्तान की रफ्तार रोक दी। तहरीके लब्बैक यारसूलअल्लाह यानी टीएलवाई, तहरीके खातमे नबुवत और सुन्नी तहरीक ने इस्लामाबाद में फैजाबाद क्रॉसिंग पर तीन हफ्तों तक धरना प्रदर्शन आयोजित किया। यह क्रॉसिंग ही पाकिस्तान की राजधानी को सेना मुख्यालय वाले शहर रावलपिंडी से जोड़ता है। इस धरना प्रदर्शन से आम जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया जिससे लोगों को तकलीफें झेलनी पड़ीं। धरने के लिए इन संगठनों ने न केवल अदालती आदेश को ताक पर रखा, बल्कि अन्य धार्मिक नेताओं और सरकार के अनुरोध को भी पूरी तरह ठुकरा दिया। वे देश के कानून मंत्री जाहिद हामिद के इस्तीफे की मांग पर अड़े थे। वे इसमें सफल भी हुए जब सरकार ने समर्पण करते हुए उनकी सभी मांगें मान लीं। इससे पहले पुलिस ने उन पर बल प्रयोग किया,लेकिन मामला सुलझने के बजाय और उलझ ही गया, क्योंकि पुलिसिया सख्ती में छह लोगों की जान चली गई और प्रदर्शनकारियों के विरोध की आग पाकिस्तान के कई शहरों में फैल गई। आखिरकार सरकार को 26 नवंबर को वह शर्मनाक समझौता करना पड़ा जिसकी मध्यस्थता सेना ने की। इस पूरी कवायद में पाकिस्तान की विभाजक रेखाएं भी पूरी तरह उजागर हो गईं। आखिर यह हुआ कैसे?
पाकिस्तान का संविधान कहता है कि प्रत्येक मुसलमान को सभी मत-मजहब से ऊपर यही मानना होगा कि मोहम्मद ही अल्लाह के भेजे आखिरी पैगंबर हैं। पाकिस्तान में इसी आर पर 1974 में अहमदिया मुसलमानों को गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया गया था। तबसे पाकिस्तानी धार्मिक समूह हमेशा इस बात को लेकर आग्रही रहे हैं कि इस मान्यता पर किसी तरह की रियायत नहीं दी जानी चाहिए। यह भी एक वजह है कि 1986 में पाकिस्तानी फौजदारी कानून में ऐसे किसी भी बयान पर मृत्युदंड का प्रावधान किया गया जिससे पैगंबर का अपमान होता प्रतीत हो। पाकिस्तानी संसद ने अभी हाल में चुनाव कानूनों में संशोधन किया। एक कानूनी प्रावधान में ‘मैं दृढ़तापूर्वक शपथ लेता हूं’ की जगह पर ‘मैं घोषणा करता हूं’ शब्द जोड़ा गया। इससे गफलत पैदा हुई और धार्मिक संगठनों द्वारा यह आरोप लगाया जाने लगा कि सरकार देश को सेक्युलर बनाने की कोशिश कर रही है। हालांकि सरकार ने समझाने का प्रयास किया कि शपथ में बदलाव से पैगंबर के प्रति किसी मुस्लिम की प्रतिबद्धता में कोई कमी नहीं आएगी, लेकिन विरोध शांत नहीं हुआ। सरकार दबाव में आ गई और उसने तुरंत पुरानी व्यवस्था बहाल की। टीएलवाई इतने से संतुष्ट नहीं हुआ। उसने कहा कि शपथ में बदलाव एक साजिश थी, जिसके चलते हामिद को इस्तीफा देना चाहिए।
कानून मंत्री हामिद के इस्तीफे की मांग राजनीतिक मंशा के कारण ही की जा रही थी। टीएलवाई और दोनों अन्य धार्मिक समूह बरेलवी धारा के हैं। पाकिस्तान में अधिकांश बरेलवी ही हैं। वहीं पाकिस्तानी फौज और आतंकी समूह की कमान देवबंदियों और वहाबियों के हाथ में है। लश्कर जैसी आंतकी तंजीमें देवबंदी या वहाबी ही हैं। बरेलवी धार्मिक नेताओं को महसूस हुआ कि बरेलवी युवा भी इन कट्टर विचारराओं की ओर आकर्षित हो रहे हैं। ऐसे में यह मुद्दा उन्हें एक तरह से तश्तरी में सजा हुआ मिल गया। उन्हें मौका मिला कि वे आखिरी पैगंबर के दर्जे को जोर-शोर से उठाकर अपने आक्रामक तेवरों को नई धार देकर अपनी पैठ बढ़ाएं।
पाकिस्तान में इस समय पीएमएल-एन की सरकार है जो पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पार्टी है। फिलहाल पीएमएल-एन तमाम संकटों में घिरी है। शरीफ और उनका परिवार अपना राजनीतिक वजूद बचाए रखने की चुनौती से जूझ रहा है। हालांकि पंजाब प्रांत में अभी भी उनकी लोकप्रियता में कमी नहीं आई है, पर पार्टी और सरकार में खेमेबंदी बढ़ी है। ऐसे में तनिक भी संदेह नहीं है कि धरने प्रदर्शन में वे अपने हितों और नफा-नुकसान का भी आकलन कर रहे होंगे। सरकार की भद पिटने का विपक्षी दलों ने खूब उपहास उड़ाया जो इस मामले को संभालने में जड़वत सी हो गई। सेना ने मौका भांपकर नवाज शरीफ और उनकी पार्टी की सरकार को झटका देते हुए फिर साबित किया कि किसी भी राष्ट्रीय संकट को केवल वही सुलझा सकती है, भले ही यह संविधान उल्लंघन की कीमत पर हो।
धरना जारी होने रहने पर अदालत ने भी दखल दिया। उसने टीएलवाई को धरना बंद करने का आदेश दिया। जब उसके आदेश की अवहेलना हुई तो उसने धरना रुकवाने के लिए सरकार को कार्रवाई करने का निर्देश दिया। इसके चलते 25 नवंबर को पुलिस को बल प्रयोग करना पड़ा जिसमें प्रदर्शनकारियों पर हथियारों के साथ-साथ आंसू गैस का भी इस्तेमाल किया, पर पुलिस को कदम पीछे खींचने पड़े। ऐसे में सरकार ने सेना को याद किया। संविधान के तहत सेना सरकारी आदेश मानने के लिए प्रतिबद्ध है, पर सेना प्रमुख ने सरकार को इस मसले का शांतिपूर्ण समान ढूंढ़ने की सलाह दी। 26 नवंबर को जिस बैठक में सरकार और सैन्य नेतृत्व, दोनों मौजूद थे उसमें सेना प्रमुख ने कहा कि अगर सेना बल प्रयोग करेगी तो जनता का भरोसा खो बैठेगी। जिस सेना को सरकार का मददगार होना चाहिए था वही सरकार और टीएलवाई के बीच बिचौलिया बन गई। इससे फिर साबित हुआ कि पाकिस्तान में सेना ही सबसे ऊपर है। सेना की मध्यस्थता से समझौता हुआ जिसमें टीएलवाई की सभी मांगें मान ली गईं। इनमें हामिद का इस्तीफा हुआ और प्रदर्शनकारियों को आश्वस्त किया गया कि उन पर कार्रवाई नहीं होगी और पुलिस कार्रवाई के पीड़ितों को मुआवजा दिया जाएगा। इससे सरकार की साख तार-तार हुई। सेना यही चाहती भी थी। समझौते पर पाकिस्तान के आंतरिक मामलों के मंत्री और टीएलवाई मुखिया हुसैन रिजवी ने आइएसआइ अधिकारी मेजर जनरल फैज हामिद की मौजूदगी में दस्तखत किए। जाहिर है कि इससे धार्मिक समूहों को ताकत मिलेगी कि वे अलगाववाद, असहिष्णुता और हिंसा को बढ़ावा देकर अपने हितों की पूर्ति करें। सेना ने भी इन धार्मिक समूहों के साथ सांठगांठ कर रखी है और तहरीके तालिबान जैसे संगठनों को छोड़ दें तो वह उनकी बड़ी पैरोकार बनी हुई है। लश्कर जैसे संगठन इसी दुरभिसंधि की देन हैं जिनका इस्तेमाल भारत के खिलाफ किया जाता है। इस पर हैरत नहीं कि पूर्व सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ लश्कर का गुणगान करते दिखे।
पाकिस्तान में कई ऐसे अतिवादी संगठन भी हैं जिनका इस्तेमाल सेना अपनी ही सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर करने के लिए करती है। टीएलवाई के मामले में भी ऐसा ही हुआ। पाकिस्तानी चैनलों पर फौज से जुड़े अधिकारी टीएलवाई के लोगों को पैसे देते हुए दिखाए गए। पाकिस्तान में अगले साल चुनाव होने हैं। तब तक देश अधर में ही रहेगा। इससे भी अहम यह कि दीर्घावधि में भारत को और अधिक कट्टर पाकिस्तानी लोगों के साथ निपटना होगा। यह उन भारतीय उदारवादियों के लिए भी शुभ संकेत नहीं जो पाकिस्तानी लोगों के साथ निजी स्तर पर बेहतर रिश्तों की हिमायत करते हैं।(दैनिक जागरण से आभार सहित)
(लेखक विदेश मंत्रलय में सचिव रहे हैं)

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