Saturday 2 December 2017

बोल्शेविक के उपरांत विश्व (डॉ. सुबोध कुमार)

उदारीकरण के सिद्धांत को लेकर संकट है क्योंकि मानवीयता के नये मूल्य बंधुत्व संबंधी विचारों को मूर्ताकार नहीं किया जा सका है। हालांकि संवैधानिक लोकतांत्रिक सरकारें स्वतंत्रता और समानता को हासिल कर सकती हैं, लेकिन बंधुत्व को हासिल करने के लिए ज्यादा उच्च मूल्यों की दरकार है। यह कि स्व-त्याग के माध्यम से समूची मानवता से प्यार किया जाए
बोल्शेविक एक क्रांतिकारी पार्टी थे, जो कार्ल मार्क्‍स के विचारों के हामी थे। उनका मानना था कि कामगार एकजुट होंगे और वर्चस्व वाले वगरे के आर्थिक और राजनीतिक चंगुल से स्वयं को मुक्त करा लेंगे। सत्ता पर काबिज होने के एक वर्ष बाद ही व्लादिमीर आई. लेनिन ने बोल्शेविज्म का नाम बदल कर कम्युनिज्म रख लिया। हम बोल्शेविक क्रांति के सौ वर्ष पश्चात इसके वैचारिक प्रसार का विश्लेषण करते हैं, तो पाते हैं कि कम्युनिज्म 1914-60 के दौरान खासा फैला और इसे विश्व भर की तमाम विचारधाराओं से समर्थन मिला। दो विश्व युद्धों और आर्थिक महामंदी ने पूंजीवाद को मरणासन्न कर दिया और कम्युनिज्म को एक विकल्प के रूप में देखा जाने लगा। लेकिन जल्द ही कम्युनिज्म बड़े स्तर पर दमन, भुखमरी, बड़े पैमाने पर हत्याओं, नरसंहार और आतंक के चलते अपना ताब खो बैठा। इन घटनाओं ने मानवमात्र की बुनियाद के सामने चुनौतियां पेश कर दीं। इतना ही नहीं, सोवियत संघ में संघर्ष, चीन में माओ त्से तुंग, इथियोपिया में मेंगिस्तु हेले मरियम, क्यूबा में फिदेल कास्त्रो और कंबोडिया में पोल पोट के समय में विपक्षियों के खात्मे पर आमादा तथा सत्ता पर पूरी तरह काबिज होने की ललक पाले दमनात्मक एकदलीय पण्राली के लोगों ने लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इसके अलावा, कम्युनिस्टों के तौर-तरीकों से भी बहुत ज्यादा लोग मारे गए।
स्तालिन के यूक्रेन में भुखमरी ने मारा तो चीन में माओ और आज के उत्तर कोरिया में भी लेगों को मौत का ग्रास बनना पड़ा। पिछली सदी में वियतनाम, कोरिया, मलयेशिया, ग्रीस, निकारागुआ, अल साल्वाडोर, अंगोला और यहां तक कि रूस में भी कम्युनिज्म से मुक्ति चाहने वालों को मौत लील गई। लेनिन का मानना था,‘‘अस्तित्व में जो है, उसका नष्ट होना तय है।’ कम्युनिलज्म फ्रेंच क्रांति (1789) के दो सौ साल बाद छिन्न-भिन्न हो गया। स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे फ्रेंच क्रांति के सिद्धांत को समूची दुनिया ने माना। केंद्रीय आयोजन की अवधारणा से विलगाव के चलते नकारात्मक स्वतंत्रता का रास्ता निकल आया जहां बाजार पारंपरिक उदारतावाद पर आधारित होता है, और सरकार की भूमिका न्यूनतम होती है। मार्गरेट थैचर और रोनाल्ड रीगन के नव अधिकार के विचार ने अर्थव्यवस्था प्रबंधन के नये युग का सूत्रपात किया। परिणामस्वरूप, 1989 के बाद हमें सोवियत संघ का विघटन देखने को मिला। खाड़ी युद्ध की समाप्ति हुई। जर्मनी का एकीकरण हुआ। बाल्टिक देशों और पूर्वी मध्य यूरोपीय देशों तानाशाही हुकूमतें धराशायी हो गई। फिलीपींस, अजेंटाइना और ब्राजील ने तानाशाही के स्थान पर लोकशाही का उदय हुआ।
वैचारिक सीमाओं और मनमानी करने वाले योजनाकारों के चलते कम्युनिज्म ने बौद्धिकता आधारित बाजार व्यवस्था के रास्ते को आसान बना दिया। फ्रेडरिक हायक, नकारात्मक स्वतंत्रता के बड़े समर्थक, का तर्क है कि बाजार व्यवस्था एक मशीन की भांति है, जो हमेशा समाज से निकलने वाली मांग पर टकटकी लगाए रहती है और विनिर्माताओं की क्षमता संबंधी योजनाएं तैयार करती हैं। यहां उत्पादक और उपभोक्ता, दोनों के लिए माकूल स्थिति होती है। लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियां जब हम नये नियंतण्र आर्थिक परिदृश्य का विश्लेषण करते हैं, तो पाते हैं कि कुछ देशों में सरकारें लोगों की जरूरतों, सुरक्षा, साझे आर्थिक विकास और बुनियादी सार्वजनिक सेवाएं, जो व्यक्तिगत अवसरों को हासिल करने के लिए बुनियादी तत्व हैं, मुहैया कराने में नाकाम रहती हैं। इतना ही नहीं, बल्कि विश्व में मध्यम वर्ग के उभार से उदारवादी लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियां भी बढ़ जाती हैं। मध्य वर्ग मानता है कि संभ्रांतों ने उसके साथ छलावा किया है। इसके अलावा, किसी समय विशेष धार्मिक कट्टरवाद और नस्लीय प्रतिबद्धताएं भी विचारधाराओं को दरकिनार करके सभ्यताओं के मध्य अनंतकाल से चले आ रहे संघर्ष को सतह पर ले आती हैं।
न्यूयॉर्क में र्वल्ड ट्रेड सेंट पर हमले के रूप में हमें यह देखने को मिला। 11 सितम्बर, 2001 के हमले के बाद सैम्युल पी. हंटिग्टन का विचार ‘‘सभ्यताओं का संघर्ष’ ठोस प्रतीत हुआ, लेकिन जल्द ही आधुनिकता ने उसे परे धकेल दिया। उदार लोकतंत्र को मध्यकाल के दौर के इस्लामाबाद से कुछ चुनौतियां पेश आई। लेकिन इसकी कुछ सीमाएं हैं, और ये भी उन्हीं क्षेत्रों में देखने को मिलीं जहां मुसलमानों में साक्षरता की दर नीची है, और जहां मुसलमान मताधिकार या नागरिकता से वंचित हैं। रूस और चीन भी उदार लोकतंत्रको चुनौती देते हैं क्योंकि चीन एक-दलीय सरकार है, और रूस में वस्तुत: तानाशाही ही है। इन कुछेक चुनौतियों के बावजूद उदार लोकतंत्र समूचे विश्व में सर्वाधिक माकूल समझा जाता है।बदलाव के परिदृश्य वैचारिक ता की प्रकृति में भी कुछबदलाव आए और इसका स्थान सौदेबाजी की राजनीति और मानवीय मूल्यों आधारित समझौतों ने ले लिया। इससे सामाजिक मूल्यों के लिहाज से एक ठोस एवं व्यापक सहमति का पता चलता है। अनेक मूल्य सामाजिक व्यवहार को परिभाषित कर रहे हैं, जिनसे नये विमर्श के हालात बने हैं, और विश्व भर की सरकारों के लिए ये विचार दिशा-निर्देशक का कार्य कर रहे हैं।
उदार लोकतंत्र को सार्वभौमिक नियम के तौर पर अंगीकार करने के लिए जरूरी है कि विचार मानवमात्र के भविष्य के मद्देनजर तमाम संभावनाओं को खंगाले। युवल नोह हरारी ने 2011 में अपनी पुस्तक ‘‘सेपियंस, अ बिग हिस्ट्री ऑफह्यूमन काइंड’ में बताया है कि हमारा व्यवहार सांस्कृतिक रुझानों से नियंत्रित होता है, जिसके चलते मानवीयता का ध्वंस भी हो सकता है, और औद्योगिकीकरण इसी रुझान का एक उत्पाद है। इतना ही नहीं, बल्कि राजनीतिक क्षरण के चलते अमेरिका जैसे प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देशों पर खासा प्रभाव पड़ता है। इन देशों में रसूखी पूंजीवाद और भ्रष्टाचार ने स्वतंत्रता और समान अवसरों पर कुप्रभाव डाला है। उदारतावाद में यह खासियत होती है कि वह आलोचना और आगे बढ़ने के मौकों को बढ़कर स्वीकार करता है। उन्नीस सौ के दशक में सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाच्योव राजनीतिक एवं आर्थिक उदारीकरण के माध्यम से केंद्रीय आयोजन के तरीके को बदलने का प्रयास किया, लेकिन सफल नहीं हो सके। जबकि चीन के डेंग ने राजनीतिक केंद्रीकरण को तरजीह दी, लेकिन बाजार सुधार पर भी तवज्जो दी और आज इसी के चलते चीन वैश्विक अर्थव्यवस्था के 14.8 प्रतिशत हिस्से पर काबिज है। उदारीकरण की सफलता का राजनीतिकों के मन-मस्तिष्क पर बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ा। फ्रांसिस फुकुयामा (1989) ने लिखा था कि यह मात्र शीत युद्धका अंत नहीं है, बल्कि इतिहास पर भी विराम लगा है। इसका तात्पर्य था कि यह समय मानवीय वैचारिकी के प्रसार का विराम बिंदु था, और पश्चिमी उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था के सार्वभौमिकरण का समय था।लेकिन मुक्त अर्थव्यवस्था के जरिए पाशविक प्रवृत्ति और दोहन करने के लालच और ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने का वह दौर चला कि उदारवाद की ही आलोचनाएं होने लगीं। इतना ही नहीं, रवांडा और अफ्रीका के अन्य हिस्सों में होने वाले नरसंहार से उदारीकरण के नैतिक रूप से पराजित होने का पता भी चलता है।
यह भी पता चलता है कि सरकार चलाने की हमारी प्राथमिकताओं और आधारभूत सिद्धांतों में खामियां किस कदर गहरे धंसी हैं। तो भी, उदारीकरण के सामने कोईवास्तविकता प्रतिस्पर्धा नहीं है। खासकर उक्रेन में ऑरेंज क्रांति के नाकाम रहने, अरब स्पिनिंग और थाईलैंड, तुर्की और निकारागुआ में लोकतंत्र के पुन:पतन को देखते हुए ऐसा कहा जा सकता है। उदारीकरण के सिद्धांत को लेकर संकट है क्योंकि मानवीयता के नये मूल्य बंधुत्व संबंधी विचारों को मूर्ताकार नहीं किया जा सका है। हालांकि संवैधानिक लोकतांत्रिक सरकारें स्वतंत्रता और समानता को हासिल कर सकती हैं, लेकिन बंधुत्व को हासिल करने के लिए ज्यादा उच्च मूल्यों की दरकार है। यह कि स्व-त्याग के माध्यम से समूची मानवता से प्यार किया जाए। इतना ही नहीं, बल्कि तकनीकी नवोन्मेषण ने विश्व भर में दूरियों को कम कर दिया है, जिसके चलते विचार का स्वरूप चरमराया है, और यह अनेक रूपों में ढल चुका है, जो आम मानवता पर वर्चस्व कायम कर चुके हैं। इस तरह से समायोजित करने की प्रवृत्ति और तालमेल बिठा लेने की खूबी के चलते उदारीकरण भावी मानवता के लिए दिशा-बोधक सिद्धांत के रूप में उभरा है। फुकुयामा ने स्वयं कहा है कि ‘‘आधुनिक सहज विज्ञान और तकनीक का अंत हुए बिना इतिहास का अंत नहीं हो सकता।’ (RS)

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