Friday 8 December 2017

आग में घी डालने वाला कदम (हर्ष वी पंत प्रोफेसर, किंग्स कॉलेज, लंदन )

ऐसे दौर में, जब बात-बात पर स्थितियां तनावपूर्ण बन जाती हों, अमेरिका का यह कदम आग में घी डालने वाला है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दशकों से जारी अमेरिकी कूटनीति की दिशा को बदलते हुए यरुशलम को इजरायल की राजधानी घोषित कर दिया है। इस कारण पश्चिम एशिया में तनाव की एक नई पटकथा तैयार हो गई है, जबकि यह इलाका पहले से ही कम अशांत नहीं है। ट्रंप प्रशासन का यह फैसला आने वाले वर्षों में क्षेत्रीय राजनीति की दशा-दिशा पर भी दूरगामी असर डाल सकता है।
राजधानी के रूप में यरुशलम के काम करने में अभी कई वर्ष लगेंगे। हालांकि उसे राजधानी की मान्यता देने की घोषणा करते समय राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि वह ‘अतीत की असफल नीतियों’ को किनारे कर रहे हैं। देश-दुनिया से मिल रही तमाम चेतावनियों को नजरअंदाज करते हुए उन्होंने कहा कि उनकी नजर में ‘यह कदम अमेरिका के हित में है और इससे इजरायल व फलस्तीनियों के बीच शांति की राह आसान होगी’। उन्होंने यह भी कहा कि ‘हम अतीत की विफल नीतियों और धारणाओं को दोहराकर समस्याओं का समाधान नहीं निकाल सकते’। ट्रंप ने इस मौके पर इजरायल-फलस्तीन विवाद के निपटारे के लिए ‘दो राष्ट्रों’ के समाधान की फिर से वकालत भी की।
अमेरिका के इस कदम पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं आई हैं। इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा है कि यह एक ऐतिहासिक दिन है और इजरायल तहे दिल से राष्ट्रपति ट्रंप का आभारी है। वहीं, फलस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने दोहराया है कि यरुशलम ‘फलस्तीन की अखंड राजधानी था और है’। उन्होंने यह भी कहा कि ‘इस तरह के निंदनीय व अस्वीकार्य कदमों से शांति स्थापना की कोशिशों को जान-बूझकर कमजोर किया जा रहा है और यह दशकों से चली आ रही मध्यस्थता के बाद शांति समझौते में अमेरिकी भूमिका से पीछे हटने की शुरुआत के घोषणापत्र जैसा है।’ अमेरिकी हितों के खिलाफ पश्चिम एशिया के मुसलमानों को एकजुट होने का आह्वान करते हुए हमास ने भी ट्रंप पर ‘खतरनाक आक्रामकता’ का आरोप लगाया है।
अमेरिका के सहयोगी देशों ने भी इस फैसले की मुखालफत की है। यूरोपीय संघ की विदेश नीति मामलों की प्रमुख फेडरिका मोगहेरिनी ने यूरोप के दौरे पर आए अमेरिकी विदेश मंत्री से बात की और अमेरिकी दूतावास के यरुशलम लाने के फैसले की कड़ी आलोचना की। ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने भी अमेरिकी फैसले पर खुलकर नाराजगी जाहिर की और कहा कि यह कदम ‘क्षेत्र में शांति कायम करने में कतई मददगार नहीं है’। फ्रांस के प्रधानमंत्री इमैन्युएल मैक्रां भी इस फैसले में अमेरिका के साथ नहीं हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के कुल 15 सदस्यों में से आठ ने तो इस हफ्ते के अंत में इसे लेकर एक आपात बैठक भी बुलाई है।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि पूरी अमेरिकी हुकूमत खुद इस फैसले पर एकजुट नहीं दिखती। रक्षा मंत्रालय पेंटागन और विदेश मंत्रालय पूरी तरह इस फैसले के साथ नहीं हैं। अमेरिकी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हीथर नॉर्ट ने साफ-साफ इस फैसले का बचाव करने से इनकार कर दिया और कहा कि ‘यह मसला राष्ट्रपति पर निर्भर करता है’। चूंकि ऐसे हालात में हिंसा हो सकती है, इसलिए पेंटागन आकस्मिक योजनाओं के तहत बढ़ते सैन्य खतरों से निपटने की तैयारी में जुट गया है। एहतियातन अमेरिकी मरीनों की अतिरिक्त टीमें पश्चिम एशिया के कई अमेरिकी दूतावासों पर भेजी जा चुकी हैं।
आखिर ऐसा फैसला लेने के पीछे मंशा क्या है? इसका जवाब उतना ही जटिल है, जितना यह मसला। यही वजह थी कि एक के बाद आई दूसरी तमाम अमेरिकी सरकारों ने यथास्थिति में कभी, किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं की। यरुशलम यहूदी, इस्लाम और ईसाई धर्मावलंबियों का एक पवित्र स्थान है। इसकी स्थिति क्या रहनी चाहिए, यही इजरायल-फलस्तीन विवाद का सबसे संवेदनशील पहलू है। फलस्तीनी नेताओं की नजर में शांति तभी संभव है, जब पूर्वी यरुशलम में उनकी अपनी राजधानी हो। वर्ष 1967 में छह दिनों के युद्ध के बाद पूर्वी यरुशलम पर इजरायल ने कब्जा भले कर लिया था, पर इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इजरायल के हिस्से के रूप में कभी मान्यता नहीं मिली। सभी देशों ने भी अपने दूतावास तेल अवीव में ही बना रखे हैं।
अमेरिकी संसद कांग्रेस ने 1995 में ‘यरुशलम एम्बेसी ऐक्ट’ पारित किया था, जिसमें एक तय समय सीमा के अंदर अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से यरुशलम ले जाने की बात है। मगर अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने ‘अमेरिका के राष्ट्रीय हितों की रक्षा में’ अब तक इसका अमल टालने में ही भलाई समझी और इसे रोकने के हर छह महीने पर एक अस्थाई प्रावधान लाया जाता रहा है। लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप ने यरुशलम को राजधानी का दर्जा देकर सब कुछ बदल डाला है। शायद उनके लिए यह अपने चुनाव अभियान के दौरान किए गए एक वादे को पूरा करने जैसा है। हालांकि उन्होंने ‘दो राष्ट्रों’ के सिद्धांत पर इस मसले का हल निकालने की अमेरिकी प्रशासन की प्रतिबद्धता पर जोर दिया है, मगर अब यह दोनों पक्षों के आपसी समझौते पर निर्भर हो गया है। अमेरिकी इसी वजह से इसे शांति प्रक्रिया में अमेरिका के तटस्थ खिलाड़ी बने रहने की नीति को कमजोर करने के रूप में देख रहे हैं। संभव है, चीन और रूस इस शून्य को भरने की दौड़ में कूद पड़ें।
व्यापक क्षेत्रीय स्तर पर देखें, तो सऊदी अरब के शहंशाह सलमान ने कहा है कि यह कदम ‘दुनिया भर के मुसलमानों के अंदर आक्रोश बढ़ाएगा’। हालांकि यह अभी तक साफ नहीं हुआ है कि
सऊदी अरब और अमेरिका के रिश्तों में इससे किस तरह की खटास आने वाली है। अतीत में, अमेरिका के अरब सहयोगियों का इजरायल के साथ आधिकारिक या गुप्त संबंध रहा है। आज भी, ईरान से मिलने वाली कथित चुनौती का सामना करने के लिए सऊदी-इजरायल और अमेरिका का गठजोड़ परवान चढ़ रहा है। तमाम बयानबाजियों के बावजूद, फलस्तीन का मसला अरब दुनिया के लिए प्राथमिकता में नहीं रहा है। वे घरेलू नाराजगी को शांत करने के लिए बेशक कुछ शोर मचाएं, पर इससे ज्यादा वे शायद ही कुछ करें। इससे कहीं बड़ी समस्याएं उनके सामने खड़ी हैं।
अब नई दिल्ली को अलग ही चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। उसे न सिर्फ इजरायल के साथ अपने सामरिक हितों के बारे में सोचना होगा, बल्कि फलस्तीनियों को समर्थन देने की अपनी नीतियों पर भी आगे बढ़ना होगा। (हिंदुस्तान )
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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