Tuesday 12 December 2017

कुंभ मेला : मानवता की अमूर्त विरासत (शास्त्री कोसलेंद्रदास)

यूनेस्को ने हाल ही में कुंभ मेले को ‘मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत’ का दर्जा दिया है। दक्षिण कोरिया के जेजू शहर में हुई बैठक में यूनेस्को ने यह घोषणा की है। यूनेस्को ने विश्व के सबसे पुराने कुंभ मेले के बारे में यह भी कहा कि ‘कुंभ मेला तीर्थयात्रियों की एक शांतिपूर्ण ढंग से होने वाली पवित्र धार्मिक सभा है। यह परंपरा भारत की आध्यात्मिक एकता में गहरी भूमिका निभाती है, जो विभिन्न सांस्कृतिक रीति-रिवाजों को आपस में जोड़ती है। कुंभ मेला लुप्तप्राय वैदिक ज्ञान को बढ़ाने में प्राचीनतम गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से धार्मिक रीतियों के संरक्षण को सुनिश्चित करता है।’1सनातन वैदिक संस्कृति अनेक प्रकार के विश्वासों का समन्वय है। जाति और वर्ग की कठोरता होने के बाद भी आज तक जिन उपायों से हमारी एकता बनी हुई है, उनमें प्रमुख हैं तीर्थ, व्रत, त्योहार और मेले। इन चारों का एक जगह संपूर्ण स्वरूप कुंभ मेले में प्रकट होता है। कुंभ मेला हमारे पुरातन सांस्कृतिक इतिहास का निर्देशक ही नहीं है, वह विभिन्न जाति-पांति और संप्रदायों में गुंथे भारत देश की मिलनभूमि भी है। भारत की एकता के रहस्य के सूत्र इस मेले में छिपे हैं। कुंभ में विभिन्न जातियों के धार्मिक विश्वासों को अपनाने और सर्वात्मना ग्रहण करने की प्रवृत्ति है। इसके सांस्कृतिक सर्वेक्षण से महिमामयी संस्कृति के विभिन्न स्तरों को समझने में मदद मिलती है।
हमारे देश में ‘अनेक में एक’ को प्रतिष्ठित करने में मेलों की बड़ी भूमिका है। कुंभ इस दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। अर्थ की लोलुपता, भोगों का तांडव, प्रचंड राजनीतिक दंभ, मायावी सामाजिक प्रदर्शन तथा क्षुद्र मनोरंजन से दूर कुंभ मेला भीतरी अध्यात्म को समेटे सदियों से निश्चित कालखंड में निर्धारित भूभाग में जुटता है। यह अच्छी बात है कि मेले का बाहरी और भीतरी स्वरूप सतत समृद्धि की ओर हैं। इसे देखकर भारत के प्राचीन बौद्धिक विकास की सनातन कल्पना को समझा जा सकता है। आज भी संसार के भौतिक चमत्कार इसके सामने बौने और अर्थहीन प्रतीत होते हैं। लोक कल्याण के सारे साधनों का प्रयोग इस मेले की खासियत है। यह कितना आश्चर्य है कि बिना किसी प्रचार-प्रसार और शोर के कुंभ मेले का इतने बड़े स्तर पर आयोजन हो जाता है। पंचांग में ज्योतिषियों के लिखे एक वाक्य से विशाल मेला प्रकट हो जाता है। दूसरे किसी विज्ञापन की कोई जरूरत ही नहीं पड़ती। इससे पता चलता है कि लोग तीर्थ, धर्म, परमेश्वर, ज्ञान और भक्ति के माध्यम से ‘आनंद’ को पाना चाहते हैं। अन्यथा ऐसा आकर्षण कभी संभव नहीं है। यह ‘आनंद’ भी कहीं ओर नहीं, बल्कि हमारे भीतर बैठा परमात्मा है।
पौराणिक मान्यतानुसार मेलों के चार प्रकार हैं। धर्म मेला, अर्थ मेला, काम मेला और मोक्ष मेला। इनमें मोक्ष मेले का माहात्म्य सर्वाधिक है। कुंभ मोक्ष मेला है। इसमें जप-तप और स्नान-दान से मोक्ष प्राप्त करने के लिए आने वालों की विशाल संख्या देख पाना रोमांचकारी है। तपस्वी, नागा, जंगम-जोगड़े, नाथपंथी तथा संन्यासी और रामानंदी वैरागियों समेत अनेक गृहस्थी भी कुंभ में अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष पाने के लिए शामिल होते हैं। 1कुंभ एक आध्यात्मिक पर्व है। इसका इतिहास पुराना है। कुंभ शब्द का निहितार्थ समुद्र मंथन से निकले अमृत घट से है। इस घट को आरोग्य के देवता धन्वंतरि जब लेकर चले तो यह चार जगह छलक पड़ा था। जहां-जहां ये अमृत कण गिरे, वहीं यह मेला लगता है। हरिद्वार में गंगा किनारे, प्रयाग के त्रिवेणी संगम पर, उज्जैन में क्षिप्रा तट पर और नासिक में गोदावरी की गोद में एक निश्चित अंतराल से कुंभ मेला आयोजित होता है। अनेक विद्वान इसका उद्गम वेदों में खोजते हैं तो दूसरे विद्वानों का मानना है कि कुंभ मेला पौराणिक है। पद्म पुराण और स्कंद पुराण में अमृत कुंभ की कथा है।
ज्योतिष शास्त्र के विद्वानों के अनुसार कुंभ पर्व का संबंध अमावस्या और पूर्णिमा से है। ग्रहों की गतिविधि से कुंभ में स्नान करने की तिथि तय होती है। इनमें सूर्य, चंद्र और बृहस्पति की गति मुख्य है। कुछ विद्वानों का मत यह भी है कि जगद्गुरु शंकराचार्य ने नौवीं शताब्दी में कुंभ मेले के आयोजन की नींव रखी। वैदिक धर्म की रक्षा और उसके प्रचार के लिए चार पीठों की स्थापना के बाद शंकराचार्य ने लोगों को धर्म चर्चा के लिए एकत्रित करने के लिए कुंभ मेले को चुना। चौदहवीं सदी में स्वामी रामानंदाचार्य ने इसे और मजबूती दी। उन्होंने बाहर से आए आततायियों से मोर्चा लेने के लिए नागा साधुओं की एक लंबी-चौड़ी फौज बनाई। यह शस्त्र और शास्त्र से सुसज्जित साधुओं की जमात थी। इनके दल ‘अनी’ और ‘अखाड़े’ कहे जाते हैं। आज भी कुंभ में इनकी प्रधानता है। अभी भी सर्वप्रथम स्नान करने का अवसर नागा साधुओं को देकर इन्हें सम्मान दिया जाता है। संन्यासी और वैरागी कुंभ पर्व की सबसे बड़ी शोभा है, जिन्हें देखने लाखों लोग इकट्ठे होते हैं।
यह अप्रिय सत्य जरूर है कि अभी कुंभ मेले को परिष्कार की जरूरत है। अमृत बांटने वाले कुंभ का स्वरूप अब विकृत एवं धूमिल होता दिख रहा है। मेले में अमृत पान के आकांक्षी अनायास ही विभिन्न कारणों और परिस्थितियों के चलते विषदायी अनुभवों की मरणांतक पीड़ाओं का साक्षात करने लगे हैं। तीर्थ स्नान बदलकर शाही स्नान बन गया है। मठों और आश्रमों की गद्दियों के झगड़े आम बात हो गए हैं। असली और नकली साधुओं का भेद कर पाने में स्वयं संत समाज दुविधा का अनुभव कर रहा है। धर्म के भीतर नैतिक और अनैतिक के बीच की भेद रेखा का क्षरण आधुनिक दौर में उभरती त्रासदी है। जगद्गुरु और महामंडलेश्वर जैसे श्रद्धा और आस्था के पदों की हकदारी न्यायालयों में विचाराधीन है। कुंभ साधुओं की राजनीति का कुरुक्षेत्र-सा बन गया है। मंदिरों की संपदा के विवाद नए काले अध्याय रचते जा रहे हैं। ऐसे हालात में जितना जल्दी हो संतों तथा आचार्यो को अपने ऐतिहासिक दायित्व को समझना चाहिए कि वे एक अमर परंपरा के हिस्से हैं। पूरी दुनिया कुंभ को देख रही है। वह ‘अमृत’ की खोज में कुंभ में ‘डुबकी’ लगाना चाह रही है। ऐसे में अहंकार, विद्वेष और दंभ ‘अमृत कुंभ’ को ‘युद्ध कुंभ’ में बदल रहा है, जो गहरी चिंता का विषय है। इसलिए यह आवश्यक है कि साधु समाज के बहुमुखी अनुभव से जुड़कर सरकार यह प्रयत्न करे कि कुंभ मेला ओर बेहतर कैसे बने।(साभार दैनिक जागरण )
(लेखक राजस्थान संस्कृत विवि में दर्शनशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)

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