Sunday 10 December 2017

एक विचित्र कानून की तैयारी (राजकिशोर)

संसद की एक स्थायी समिति एक विचित्र कानून पर विचार कर रही है। सरकार ने एक विधेयक बनाया है, जिसे ‘फाइनेंशियल रिजोल्यूशन एंड डिपॉजिट इंश्योरेंस ऐक्ट’ की संज्ञा दी गई है। इस कानून का लक्ष्य सरकारी बैंकों के लिए बेल-इन की व्यवस्था करना है। अभी तक हम बेल-आउट ही जानते थे, जिसके तहत किसी फेल हो रहे बैंक या डूब रहे उद्योग या कंपनी को दिवालियेपन की स्थिति से बाहर लाने के लिए सरकार अपनी ओर उन्हें वित्तीय सहायता देती है। अमेरिका में जब कुछ वर्ष पूर्व भयानक आर्थिक संकट आया था, जिसमें वहां के बड़े-बड़े बैंक लुढ़क गए थे या लुढ़कने वाले थे, अमेरिकी सरकार ने प्रचुर मात्र में वित्तीय अनुदान उपलब्ध करा कर उन्हें बचा लिया था। भारत में भी इस साल बैंकिंग उद्योग को एक भारी रकम दे कर उसे बचाने की कोशिश की गई है। यह बेल-आउट है। यानी किसी को संकट से उबारने के लिए वित्तीय सहायता देना।
भारत सरकार जो एक नया कानून बनाने जा रही है, उसमें यह सहायता बैंक के भीतरी संसाधनों से ही की जाएगी। इसे ही बेल-इन कहा जा रहा है। बेल-इन कानून की विचित्रता यह है कि अगर यह लागू हो गया तो जिन लोगों ने बैंकों में रुपया जमा कर रखा है, अपनी जमा राशि पर उनका अधिकार कम हो जाएगा।
व्यवस्था यह की जा रही है कि अगर किसी बैंक की वित्तीय स्थिति खराब होती है तथा उसे और ज्यादा पूंजी या वर्किग पूंजी की जरूरत होती है, तो इस जरूरत के पूरा करने के लिए उस बैंक की जमा राशि के चरित्र को बदला जा सकता है। एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाएगी। किसी डूब रहे बैंक के पास यदि उसके ग्राहकों ने 40 लाख करोड़ रुपये जमा कर रखे हैं तो बैंक के लिए और ज्यादा धन उपलब्ध कराने की खातिर इस रकम के एक निश्चित प्रतिशत- पांच प्रतिशत, दस प्रतिशत, पंद्रह प्रतिशत, कुछ भी जो इस उद्देश्य के लिए सरकार द्वारा स्थापित रिजोल्यूशन कॉरपोरेशन तय करे-को उस बैंक के शेयरों में बदला जा सकता है। कुछ प्रतिशत रकम को ब्याज वाहक बांड की शक्ल भी दी जा सकती है। शायद ऐसे ही अवसरों का वर्णन करने के लिए ‘बंदर की बला तबेले के सर’ की कहावत बनी है। गलती करेंगे बैंक के निदेशक व उच्च अधिकारी और इसकी सजा भुगतेंगे उस बैंक के ग्राहक। इस समय भारत के सरकारी क्षेत्र के बैंकों का करीब आठ लाख करोड़ रुपया तेल लेने गया हुआ है। यानी यह रकम वह है जो औद्योगिक संस्थानों को कर्ज के रूप में दी गई है और इस रकम के वापस लौटने की उम्मीद बहुत कम है। विजय माल्या ऐसे ही मामले में भारत से भाग कर लंदन में रह रहे हैं। उन पर सरकारी बैंकों का 9000 करोड़ रुपया बकाया है। इसमें से 4000 करोड़ रुपया मूल का है और बाकी ब्याज और ब्याज पर ब्याज का।
भारत में सफल माने जाने वाले अनेक उद्योगपति ऐसे हैं जिनके पास इसकी कई गुनी राशि बकाया है, मगर सरकार उन्हें छेड़ नहीं रही है। सरकार का खयाल है कि यदि सभी बड़े-बड़े बकायादारों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की गई तो देश का औद्योगिक ढांचा ही बैठ जाएगा, लेकिन सच्चाई यह है कि अगर कार्रवाई नहीं होती है, तो सरकारी बैंक बैठ जाएंगे। चूंकि डिफाल्टर उद्योगपतियों के खिलाफ कार्रवाई करने की इच्छा नहीं है और डूबने को तैयार बैठे बैंकों को डूबने देना स्वीकार नहीं है, इसलिए सरकार द्वारा बेल-आउट और बेल-आउट योजनाओं को अंजाम दिया जा रहा है। दोनों का मतलब जनता का पैसा विफल प्रबंधकों को सौंप देना, ताकि उनकी दुकान खुली रहे।
पूंजीवाद के शास्त्र में कहीं नहीं लिखा है कि किसी आर्थिक इकाई को बंद मत होने दो। यह तो ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ की दुनिया है। एक उठेगा तो दो गिरेंगे। बचेगा वह जिसमें बचने की आंतरिक शक्ति हो। प्रतिद्वंद्विता के इसी नियम से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का विकास होता है। समाजवाद के शास्त्र में भी कहीं यह लिखा हुआ नहीं है कि जो आर्थिक इकाई विफल हो रही है, उसमें और पूंजी फंसा कर उसे जारी रखा जाए। प्रबंधकों को उनकी विफलता का दंड अवश्य मिलना चाहिए, नहीं तो एक के बाद दूसरे क्षेत्र में प्रबंधन विफल होता रहेगा और अर्थव्यवस्था की दुर्दशा का दिन आ जाएगा। रूस की अर्थव्यवस्था के चरमराने का एक बड़ा कारण यह भी माना जाता है। मगर भारत में निजी क्षेत्र और सरकारी क्षेत्र, दोनों में इस आधारभूत आर्थिक नियम की अवहेलना की जा रही है। जो सरकारी उद्योग लगातार घाटे में हैं, उन्हें भी सरकारी सहायता दे कर जीवित रखा जा रहा है और विफल निजी क्षेत्र को भी उसकी विफलता के लिए दंडित नहीं किया जा रहा है। इन विवेकहीन निर्णयों का बोझ इतना ज्यादा है कि सरकारी बैंकों का पूंजीगत-ढांचा कमजोर हो गया है। यह अर्थशास्त्र पर राजनीति की तानाशाही है।
नि:संदेह अर्थशास्त्र को मनमानी करने की छूट नहीं दी जा सकती, पर उस पर इतना राजनैतिक अंकुश भी नहीं लगाया जाना चाहिए कि विवेक और सूझबोझ को ताक पर रख कर जनता के पैसे को नाली में बहाना पड़ जाए। प्रकृति के नियमों की तरह जीवन के भी कुछ नियम सार्वभौमिक हैं और उनकी अवहेलना भावी नुकसान का जोखिम उठा कर ही किया जा सकता है। जहां तक बेल-इन की प्रस्तावित योजना का संबंध है, वह तो और भी ज्यादा गलत और अन्यायपूर्ण है। जो व्यक्ति अपना रुपया बैंक में न रख कर अपने घर पर रखता है, उसे तो सरकारी बैंकों की पूंजी बढ़ाने के लिए अपना रुपया देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, लेकिन जिस व्यक्ति ने अपना धन बैंक में जमा कर रखा है, उसका कुछ प्रतिशत सरकार जरूरत पड़ने पर उससे छीन सकती है, जिसके विरुद्ध वह कुछ नहीं कर सकता। बेशक छीनी गई रकम के बदले उसे उसी फेल हो रहे बैंक के शेयर दिए जाएंगे, लेकिन जो प्रतिष्ठान मुनाफा नहीं कमा पा रहा है, जो अपने को बाजार में टिकाये रखने में भी असमर्थ है, उसके शेयरों का मूल्य ही क्या है।
अत: इस प्रावधान को तो निरस्त किया ही जाना चाहिए। अगर बहुत जरूरी हो, तो यह प्रावधान किया जा सकता है कि जिन्होंने एक खास सीमा-50 लाख, 1 करोड़, पांच करोड़-से ज्यादा रकम फिक्स्ड डिपाजिट में रखी हुई है, उन्हें उस रकम से ज्यादा की रकम अपने द्वारा चुनी गई कंपनी या कंपनियों के शेयरों की खरीद में खर्च करनी ही होगी। इस तरह जो ढेर सारा रुपया बैंकों के जमा खातों में निष्क्रिय पड़ा रहता है, उसका प्रयोग औद्योगिक विकास के लिए किया जा सकेगा। (DJ)
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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