Thursday 7 December 2017

एक चाबहार से कई हित सधे (शशांक, पूर्व विदेश सचिव ) (हिंदुस्तान )

कोई दसेक साल पहले की घटना है। भारत बतौर उपहार अफगानिस्तान को अनाज भेजना चाह रहा था। चूंकि हमारी अफगानिस्तान के साथ कोई सीधी सीमा नहीं जुड़ती, इसलिए अनाज पाकिस्तान के रास्ते भेजने की कोशिश की गई। मगर तब हमारे इस पड़ोसी देश ने अपनी जमीन के इस्तेमाल की इजाजत नहीं दी। एक रास्ता ईरान होकर भी था, मगर इसमें परिवहन लागत तीन गुना तक बढ़ जाती। लिहाजा अनाज को बिस्कुट बनाकर हवाई जहाज से अफगानिस्तान भेजा गया। मगर आज आलम यह है कि पाकिस्तान के किसी सहयोग के बिना ही 1.1 लाख टन गेहूं की पहली खेप अफगानिस्तान पहुंच चुकी है। यह किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं, और इसका वाहक चाबहार बंदरगाह है। इसीलिए चाबहार के पहले चरण के उद्घाटन को मैं इस साल की बड़ी घटनाओं में एक मान रहा हूं। उद्घाटन समारोह में भारत और अफगानिस्तान, दोनों देशों के मंत्री भी मौजूद थे। यह देखकर लगा कि बंदरगाह विहीन देश अफगानिस्तान और अपने पश्चिम में पाकिस्तान से घिरा भारत अब चाबहार के माध्यम से आपस में जुड़ रहे हैं। जाहिर है, अफगानिस्तान की विभिन्न आर्थिक व सामाजिक परियोजनाओं में भारत ने करीब दो अरब डॉलर का जो निवेश किया है, उसमें अब काफी तेजी आ सकेगी।
चाबहार बंदरगाह जैसी-जैसी मुश्किलों से लड़कर आकार ले पाया, वह भी काफी उल्लेखनीय है। भारत के दोनों पड़ोस, ईरान व म्यांमार के ऊपर हमारे मित्र राष्ट्रों व संयुक्त राष्ट्र के ऐसे प्रतिबंध लगे थे कि परिवहन संपर्क से जुड़ी भारत की कोई भी परियोजना शायद ही सफल हो पाती। म्यांमार पर तो अब भी बंदिशें बढ़ाने की बातें चल रही हैं। खासकर बांग्लादेश या पूर्वी पाकिस्तान से वहां गए मुस्लिमों के साथ जैसा बर्ताव किया गया, उससे संयुक्त राष्ट्र की अलग-अलग संस्थाओं में म्यांमार पर प्रतिबंध बढ़ाने की बहस चल रही है। मगर ईरान पर प्रतिबंध को लेकर अमेरिका, सऊदी अरब व इजरायल की रजामंदी के बावजूद अच्छी बात यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी अफगान नीति में भारत के योगदान की पुरजोर वकालत की है। इतना ही नहीं, अमेरिकी विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन के भारत दौरे में जब पत्रकारों ने उनसे भारत, ईरान व अफगानिस्तान के बीच त्रिपक्षीय गठबंधन को लेकर सवाल पूछे, तो उनका स्पष्ट जवाब था कि ऐसी परियोजनाएं चलती ही रहनी चाहिए। स्पष्ट है, अमेरिकी नेतृत्व ने अतीत में भले ही कभी ईरान के माध्यम से अफगानिस्तान जाने वाली भारतीय कंपनियों पर पाबंदी लगाने की बात कही हो, पर अब तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है। ट्रंप कार्यकाल में भारत-अमेरिका दोस्ती का यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है।
चाबहार बंदरगाह से हमें आर्थिक फायदे तो होंगे ही, चीन व पाकिस्तान पर भी ग्वादर बंदरगाह को लेकर अपनी नीतियों की समीक्षा करने का दबाव बनेगा। उन्हें अब इस सवाल से जूझना होगा कि ग्वादर में लगाई जा रही पूंजी से उन्हें कितना फायदा मिलने जा रहा है? चीन भ्रष्टाचार संबंधी खबरों को देखकर पाकिस्तान में अपनी तीन परियोजनाओं की फंडिंग पहले ही रोक चुका है। जाहिर है, चाबहार से हमारे विकास में पंख लगने की उम्मीद बढ़ी है। यह बताता है कि भारत खाड़ी देशों को लेकर सिर्फ अपनी नीतियों की घोषणा नहीं कर रहा, उन पर तेजी से काम भी कर रहा है। इसके लिए मौजूदा केंद्र सरकार वाकई बधाई की पात्र है।
चाबहार के पहले चरण का उद्घाटन चीन के लिए कहीं बड़ा धक्का है। एक समय उसने ईरान पर दबाव बनाने की कोशिश की थी कि चूंकि भारत वहां सीधे नहीं पहुंच सकता, इसलिए ईरान को चाहिए कि चाबहार उसे सौंप दे। वह ग्वादर व चाबहार, दोनों बंदरगाहों को संभालने के मंसूबे पाले हुए था। मगर लगता है कि भारत के पश्चिम दोस्तों ने हकीकत समझ ली कि ऐसा होने से चीन तेजी से आगे बढ़ जाएगा। पहले भी ऐसा हो चुका था, जब म्यांमार से एक पाइपलाइन पर भारत विचार कर रहा था, पर म्यांमार पर संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध के चलते भारत ने देर कर दी और चीन ने वह परियोजना हथिया ली। जबकि परियोजना के गैस क्षेत्रों में 30 फीसदी हिस्सा भारत का था।
मुमकिन है कि हमारे मित्र देशों ने महसूस किया हो कि भारत के पड़ोसी देशों में लोकतंत्र को बढ़ावा देने के लिए भारत पर बनाए जा रहे दबाव का नकारात्मक असर हो रहा है। इतना ही नहीं, भारत ने सीमा विवाद का समझदारी से हल निकालकर एशिया में उभरने की अपनी संभावना भी तेज कर दी। नतीजतन, चीन को अपने कदम वापस खींचने पड़े। अब जिस तरह भारत, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका व जापान के बीच ‘क्वाड्रीलेटरल कॉलिशन’ यानी चतुष्कोणीय गठबंधन की बात हो रही है, उससे उम्मीद रखनी चाहिए कि अब म्यांमार की तरफ परिवहन जुड़ाव को लेकर भारत अपने कदम आगे बढ़ा पाएगा।
चाबहार महज भारत और अफगानिस्तान को जोड़ने का जरिया नहीं है, इसके कई अन्य सुखद नतीजे भी सामने आएंगे। यह मध्य एशिया व उत्तर एशिया की तरफ जाने वाले रास्तों के लिए एक ‘डेडिकेटेड पोर्ट’ बन सकता है। इससे परिवहन लागत में तो कमी आएगी ही, समय में भी 15-20 दिनों का अंतर आएगा। एक समय में चाबहार एशिया में अमेरिका का सबसे महत्वपूर्ण बंदरगाह माना जाता था। इसे लेकर हमारा भी कोई समझौता हो सकता है, उस समय शायद ही यह ख्याल आया हो। ईरान, अफगानिस्तान, आर्मेनिया, अजरबैजान, रूस, मध्य एशिया व यूरोप के साथ हमारा एक पुराना समझौता ‘नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर’ (उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा) है, पर इसमें बंदर अब्बास बंदरगाह की बात थी। जबकि बंदर अब्बास काफी भीड़-भाड़ वाला बंदरगाह है। ग्वादर बंदरगाह से चाबहार की दूरी 80 किलोमीटर के आसपास है। ऐसे में, वह ऐसा बंदरगाह बन सकता है, जो भारत की परिवहन राह आसान कर दे। अब जरूरत इस बात की है कि भारत, अफगानिस्तान और ईरान के बीच कस्टम अथवा आव्रजन संबंधी जटिलताओं को सरल बना दिया जाए। इस बंदरगाह का असली व पूरा लाभ हम तभी उठा सकेंगे। इस लिहाज से एक-दूसरे देशों की ट्रान्जिट प्रक्रियाओं को समझना व इसके लिए प्रशिक्षण प्रक्रिया का अपनाया जाना बहुत जरूरी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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