Tuesday 26 December 2017

2जी पर क्या कहता है अदालती फैसला (अवधेश कुमार)


2जी स्पेक्ट्रम मामले में सीबीआइ की विशेष अदालत द्वारा सभी आरोपियों को बरी करने पर कांग्रेस ने जिस तरह का हमला केंद्र सरकार पर बोला है वह स्वाभाविक है। आखिर इस मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों का दंश आज तक ङोल रही है तो न्यायालय के फैसले का वह राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करेगी ही। वैसे भी जिसे उस समय तक आजादी के बाद का सबसे बड़ा घोटाला कहा गया उस मामले में न्यायालय का ऐसा फैसला लोगों को हैरत में तो डालता ही है। इससे लोगों के अंदर भी तत्काल यही संदेश गया है कि सारे आरोप गलत थे और 2जी मामले में कोई घोटाला हुआ ही नहीं। किंतु क्या यही सच है? क्या वाकई न्यायालय ने मान लिया है कि 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में कोई भ्रष्टाचार हुआ ही नहीं है? क्या उसने यह कहा है कि जितने और जिनको लाइसेंस दिए गए वे सब नियमों के अनुरूप थे तथा उनसे लिया गया भुगतान का दर सही था?
यहां यह बताना आवश्यक है कि विशेष न्यायालय ने कहा है कि पैसों का लेनदेन साबित नहीं हो सका इसलिए मैं सभी आरोपियों को बरी कर रहा हूं। ध्यान रखने की बात है कि न्यायालय ने यह नहीं कहा है कि घोटाला नहीं हुआ है। उसने केवल यह कहा है कि आरोपों के हिसाब से जांच एजेंसियां सुबूत पेश करने में बुरी तरह नाकाम रहीं। न्यायालय की यह टिप्पणी सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय के खिलाफ एक कड़ी टिप्पणी है। हालांकि दोनों एजेंसियों के पास अभी उच्च न्यायालय जाने का विकल्प खुला हुआ है और उसके फैसले का भी हमें इंतजार करना होगा। लेकिन जब न्यायालय ने 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में घोटाला हुआ या नहीं इस पर साफ शब्दों में कुछ कहा ही नहीं है तो फिर कोई निष्कर्ष निकाल लेना कहां तक उचित है? अगर इसमें गड़बड़ी होती ही नहीं तो उच्चतम न्यायालय 2012 में एक साथ 122 2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस रद क्यों करता? उस फैसले को पढ़िए तो उसमें काफी कड़ी टिप्पणियां की गई हैं। उसमें कानून और प्रक्रियाओं के उल्लंघन को स्वीकार किया गया है।
उच्चतम न्यायालय ने जिन 9 कंपनियों को दिए गए 2जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस रद किए वे सारे संप्रग सरकार के कार्यकाल में सितंबर-अक्टूबर 2008 में प्रदान किए गए थे। हालांकि उच्चतम न्यायलय ने भी इसमें भ्रष्टाचार या कितने का लेनदेन हुआ आदि पर न विचार किया और न कोई टिप्पणी ही की। न्यायालय ने केवल यह कहा था कि 2जी लाइसेंस देने का निर्णय मनमाने और असंवैधानिक तरीके से किया गया। दूसरे शब्दों में कहें तो न्यायालय ने इसमें नियम, कानून के पालन पर प्रश्न उठाया, अंतिम सीमा के निर्धारण को गलत कहा। इस तरह अनियमितता हुई इसे तो उच्चतम न्यायालय मान चुका था, भ्रष्टाचार हुआ इसका फैसला सीबीआइ की विशेष अदालत को करना था।
2जी मामले की सुनवाई 2011 में शुरू हुई थी। 30 अप्रैल, 2011 को सीबीआइ ने अपने आरोप पत्र में राजा और अन्य पर 30 हजार 984 करोड़ रुपये के नुकसान का आरोप लगाया था। विशेष अदालत ने राजा और कनीमोझी के अलावा अन्य आरोपियों के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक कानून, आपराधिक षड्यंत्र रचने, धोखाधड़ी, फर्जी दस्तावेज बनाने, पद का दुरुपयोग करने और घूस लेने जैसे आरोप लगाए गए थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि सीबीआइ और प्रवर्तन न्यायालय के सुबूत इनको सजा देने के लिए नाकाफी थे। न्यायालय के फैसले पर हम कोई टिप्पणी नहीं कर सकते। उसने जो तथ्य सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय ने उसके सामने रखे उसके आधार पर अपना फैसला दिया है।
यह तो सच है कि ए राजा के मंत्री रहते दूरसंचार मंत्रलय ने पहले आवेदन करने की अंतिम तिथि 1 अक्टूबर, 2007 तय की। इसके बाद आवेदन प्राप्त करने की कट-ऑफ डेट बदलने से 575 में से 408 आवेदक रेस से बाहर हो गए। दूसरा आरोप यह था और इसमें सच्चाई भी थी कि पहले आओ पहले पाओ की नीति का उल्लंघन किया गया। तीसरे आरोप में उन कंपनियों की योग्यता पर सवाल उठाए गए, जिनके पास कोई अनुभव नहीं था। चौथा आरोप नए ऑपरेटरों के लिए प्रवेश शुल्क का संशोधन नहीं किए जाने का था। राजा ने कहा था कि ट्राई ने अनुभव वाले प्रावधान को खत्म कर दिया था। उनका दावा था कि ट्राई ने कहा था कि जो भी फर्म 1650 करोड़ रुपये जमा करेगी वह स्पेक्ट्रम की नीलामी में शामिल होने के योग्य होगी। यानी पहले आओ पहले पाओ की नीति पहले पैसा दो और लाइसेंस ले जाओ तथा जितने ग्राहक हों उसके अनुसार स्पेक्ट्रम लो की नीति में बदल गई। उसके पूर्व सरकार यानी राजग सरकार के कार्यकाल में 2जी खरीदने वालों की संख्या कम थी इसलिए पहले आओ पहले पाओ की नीति समझ में आती है। उस समय दर कम रखना भी स्वाभाविक था, लेकिन 2001 की दर को 2008 में बनाए रखने का कोई मतलब नहीं था। प्रवर्तन निदेशालय का कहना था कि कलाइगनर टीवी और डीबी रियल्टी के बीच 200 करोड़ रुपये के लेनदेन हुए।
तो सवाल है कि इतना सब कुछ सामने होते हुए सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय मामला साबित क्यों नहीं कर सके? हम न भूलें कि वह समय संप्रग सरकार का ही था। सीबीआइ के बारे में उच्चतम न्यायालय ने 2013 में पिंजड़े का तोता होने का जो शब्द प्रयोग किया उसमें यह उम्मीद कम ही थी कि वह ईमानदारी और दृढ़ता से मामले की छानबीन करता या सजा देने लायक सुबूत पेश करता। यही बात प्रवर्तन निदेशालय के बारे में कहा जा सकता है। ध्यान रखिए जो धाराएं आरोपियों पर लगाए गए उनमें यह साबित करना जरूरी था कि घूस में आई रकम कहां-कहां गई। यह दोनों एजेंसियां प्रमाणित नहीं कर सकीं। इसलिए प्रशासनिक निर्णय में गलतियों का तो मामला हो सकता है, लेकिन अपराध नहीं। यह आश्चर्य का विषय है कि सरकार बदलने के बावजूद इस मामले पर सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय ने नए सिरे से काम नहीं किया। मामले की गंभीरता को देखते हुए इसे नए सिरे से आरंभ करना चाहिए था। इसमें पूरक आरोप पत्र दाखिल किया जा सकता था और सुबूत रखे जा सकते थे। कुछ भी सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय ने नहीं किया। इसका परिणाम वर्तमान फैसला है। (dainik jagran se aabhar sahit )
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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