Friday 1 December 2017

खतरनाक नशों ने जगाई मन के लिए नई उम्मीद (चंद्रभूषण,NBT)

मन से जुड़ी बीमारियों शिजोफ्रेनिया, पीटीएसडी (किसी बड़े मानसिक आघात से पैदा हुए तनाव से जुड़ा मनोरोग- पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसॉर्डर ) और डिप्रेशन (अवसाद) आदि के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि एक बार जमकर जकड़ लेने के बाद इनका कोई स्थायी इलाज नहीं हो पाता। मनोचिकित्सक के साथ बातचीत के कुछ सेशन और तनाव कम करने वाले कुछ सामान्य केमिकल ही इनमें दिए जाते हैं, जो खासकर डिप्रेशन के शुरुआती मामलों में काम कर जाते हैं। बाकी बीमारियों में और गंभीर डिप्रेशन की स्थिति में भी डॉक्टर भगवान भरोसे ही काम करते हैं।
बाकी सभी बीमारियों में डॉक्टरों को कार्य-कारण संबंध पता होता है। यानी अमुक केमिकल अमुक अंग पर अमुक तरीके से असर डालता है। लेकिन मन और मस्तिष्क, माइंड और ब्रेन का रिश्ता कभी सीधा नहीं होता। मानसिक बीमारियों के लिए मान्य केमिकल्स ब्रेन पर असर करते हैं। यानी इसे बनाने वाली नर्व्स और मसल्स पर। सभी मनोचिकित्सक पहले दिन से ही यह अच्छी तरह जानते हैं कि माइंड यानी मन की मस्तिष्क यानी ब्रेन से बिल्कुल अलहदा, एक अलग सत्ता भी है। लेकिन उलझे हुए, बीमार मन को सीधे प्रभावित कर सके, ऐसा कोई केमिकल या तो अभी खोजा नहीं जा सका है, या हाल तक दुनिया में कहीं भी उस पर रिसर्च करने की सरकारी मान्यता नहीं रही है।
कुछ मनोचिकित्सकों का मानना है कि साइकेडेलिक पदार्थों की मन तक सीधी पहुंच होती है। इन पदार्थों की तीन प्रमुख श्रेणियां रही हैं कनाबिनॉयड्स (भांग-गांजे से बनने वाली दवाइयां), ओपिऑयड्स (अफीम से बनने वाली दवाइयां) और कोकीनॉयड्स (कोकीन या लैटिन अमेरिका में पाए जाने वाले कोका पौधों से निकाले जाने वाले केमिकल्स)। एक चौथी श्रेणी 1912 में लैब में बनाई गई कृत्रिम नशीली दवा एमडीएमए की है जो रेव पार्टीज में जाने वालों के बीच एक्सटेसी या म्याऊं-म्याऊं के नाम से चर्चित है।
ये सभी पदार्थ बुरी तरह लत पैदा करने वाले हैं और ओपियॉयड्स को छोड़कर बाकी किसी को दवा की तरह इस्तेमाल करने की इजाजत मुश्किल से ही मिल पाती है। इन सारे पदार्थों के साथ लत पैदा करने के अलावा एक और खामी जुड़ी है। ये एक छोर पर मरीज को आराम देते हैं और उसके मन में उत्साह पैदा करते हैं तो दूसरे छोर पर उसे बुरी तरह निचोड़ भी लेते हैं। इसलिए किसी भी मौजूदा रूप में इन्हें दवा की तरह लेने की सलाह कोई भी डॉक्टर नहीं देगा।
दरअसल, मेडिकल साइंस में लेटेस्ट रिसर्च इस बिंदु के इर्द-गिर्द की जा रही है कि इन केमिकल्स की पहुंच अगर सीधे मन तक है तो इनके जरिए यह पता लगाया जाना चाहिए कि यह मन नाम की चीज आखिर है क्या। मस्तिष्क के किन-किन इलाकों के बीच कैसा समन्वय या कैसा टकराव किसी खास मानसिक उलझाव को जन्म देता है, या किन्हीं विशेष स्थितियों में उससे राहत का सबब बनता है।
यह अच्छी बात है कि दशकों के टालमटोल के बाद अमेरिकी हुकूमत ने नवंबर 2016 में एक्सटेसी ड्रग को पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर में थर्ड फेज क्लिनिकल ट्रायल के तौर पर आजमाने की इजाजत दे दी और अभी तीन महीने पहले अगस्त 2017 में इसे ब्रेकथ्रू थेरेपी का दर्जा भी दे दिया। यानी अन्य सारे उपायों से लाइलाज साबित हो चुकी बीमारी में वहां इसको दवा के तौर पर आजमाया जा सकता है।
ब्रिटेन के प्रतिष्ठित मेडिकल इंस्टीट्यूट इंपीरियल कॉलेज, लंदन में डॉक्टर डेविड नट और डॉक्टर रॉबिन कारहर्ट हैरिस अलग से एक्सटेसी और मन के रिश्तों पर काम कर रहे हैं और हाल में उन्होंने इस वैज्ञानिक निष्कर्ष को मोहरबंद किया है कि यह केमिकल ‘सकारात्मक स्मृतियों के प्रति मन का रुझाना बढ़ाता है और नकारात्मक स्मृतियों के प्रति उसके रुझान को कमजोर करता है।’

No comments:

Post a Comment