Tuesday 5 December 2017

माननीयों की योग्यता तय करें (गौरव कुमार )

वर्तमान में यह एक मजबूत तर्क स्थापित हुआ है कि पंचायतों और स्थानीय निकाय चुनाव लड़ने की पात्रता शैक्षणिक योग्यता से निर्धारित हो सकती है, तो संसद और विधान सभाओं के लिए क्यों नहीं? गुजरात निकाय चुनाव, राजस्थान और हरियाणा पंचायत चुनाव में प्रत्याशी की शैक्षणिक योग्यता तय किए जाने के पश्चात अब संसद और विधान सभाओं में चुनाव लड़ने के लिए भी उम्मीदवारों की शैक्षणिक योग्यता तय करने की मांग बलवती होने लगी, क्योंकि इन प्रावधानों का लाभ उन सभी राज्यों के पंचायत और निकाय चुनावों में देखने को मिला है, जहां इस तरह की व्यवस्था की गई है। बीते कुछ वर्षो से सांसदों और विधायकों के लिए शैक्षणिक योग्यता तय करने की मांग विभिन्न मंचों से लगातार उठती रही है। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर कहा है कि देश में विधायक और सांसद पढ़े-लिखे लोग बनेंगे तो देश का अभूतपूर्व विकास संभव होगा। लेकिन देश की अधिकांश आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, और अधिकांश ग्रामीण निरक्षर हैं। इसलिए पहले यह जरूरी है कि हम शिक्षा व्यवस्था को दुरु स्त और गुणवत्तापूर्ण कर लें। कई सांसद ऐसे भी हैं, जो संसद की कार्यवाई में बिल्कुल शांत और निरीव बने रहते हैं। संसद को बौद्धिक और आदर्श स्थिति में लाने के लिए कई संस्थान और संगठन लगातार प्रयास कर रहे हैं। फलस्वरूप निजी विधेयक पेश करने की संख्या बढ़ी है, और संसदीय प्रश्नों की गुणवत्ता भी बढ़ी है। इन सबके बावजूद बहुत सारे हितबद्ध समूहों द्वारा शैक्षणिक योग्यता के प्रावधानों के खिलाफ इस तरह की दलीलें भी दी जाती हैं कि ऐसा जरूरी होता तो संविधान निर्माण के समय ही ऐसा प्रावधान किया जाता। किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय के भारत की तुलना आज के वैश्वीकृत भारत से करें तो इसका उत्तर हमें मिल जाएगा। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत विश्व मानिचत्र पर अपनी सशक्त उपस्थिति दशर्ता है, ऐसे में हमें अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था को निरंतर परिष्कृत करते रहना होगा। लंबे समय से लोकतांत्रिक सुधारों के प्रति जनता बेहतर प्रावधानों की मांग करती रही है। इनमें राजनीति में अपराधियों को रोकने से लेकर जनप्रतिनिधियों के बारे में जानकारी प्राप्त करने का अधिकार और उनसे नाखुश होने की स्थिति में उन्हें वापस बुलाने का अधिकार तक शामिल हैं। तमाम प्रयासों के बावजूद लोकतंत्र की इस पवित्र व्यवस्था में अपराधियों के प्रवेश को पूरी तरह से रोक पाने में हम सफल नहीं हो सके हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के मुताबिक 16 वीं लोक सभा में चुने गए कुल प्रत्याशियों में से 34 प्रतिशत यानि कुल 185 सांसदों पर आपराधिक मामले लंबित हैं। हालांकि राजनीति में दागियों के प्रवेश और प्रभाव को रोकने के प्रति सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग काफी गंभीर रहे हैं। विस्तृत रूप से लोकतांत्रिक सुधारों की बात करें तो काफी कुछ करने की जरूरत है। राजनीति में अपराधियों को आने से रोकने का आरंभिक प्रयास एडीआर ने किया। उसने जनिहत याचिका दायर की जिस पर 2 नवम्बर, 2001 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक फैसला दिया कि लोक सभा या राज्य विधानसभा के प्रत्याशी सार्वजनिक रूप से इस बात की घोषणा करें कि उन पर कोई आपराधिक मामला है कि नहीं। फैसले को भारत सरकार ने उच्चतम न्यालय में चुनौती दी। 2 मई, 2002 को सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसले में चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि संसद और राज्य विधान सभाओं के चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों से नामांकन पत्र के साथ हलफनामा दायर करने को कहे जिसमें उनकी आपराधिक, आर्थिक, शैक्षणिक, देनदारियों आदि की जानकारी रूप से अंकित हो। न्यायालय के इन फैसलों से भारत में वास्तविक और जिम्मेदार लोकतंत्र की वापसी का संकेत मिला है। किंतु यह काफी नही है, वर्तमान की राजनीतिक दशा और दिशा को ध्यान में रखते हुए हमें और भी व्यापक प्रयास करने की जरूरत है। जनता को भले ही नकारात्मक मत देने का अधिकार दे दिया जाए किन्तु जब तक जनता अपने इन अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं होगी, यह अधिकार किसी काम का नहीं है। वर्तमान में लोकतंत्र के मार्ग की बाधाओं और मतदाताओं के अधिकारों को सुनिश्चित करना भी हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसी कड़ी में सांसदों के लिए तय शैक्षणिक योग्यता का मानक स्थापित हो तो इन समस्याओं का भी समाधान संभव है।(RS)

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