Wednesday 27 December 2017

अमेरिका के खिलाफ मतदान के मायने (लोकमित्र)‘

वे हमसे अरबों डॉलर की मदद लेते हैं और संयुक्त राष्ट्र में हमारे खिलाफ मतदान भी करते हैं, करने दो, हमें इससे फर्क नहीं पड़ेगा, हम बड़ी बचत करेंगे।’ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह बात संयुक्त राष्ट्र में यरुशलम को इजरायल की राजधानी मानने के विरोध में लाए जा रहे प्रस्ताव पर मतदान से पहले कही थी। उनका यह वक्तव्य उन देशों को सीधे-सीधे चुनौती थी, जो आर्थिक सहायता के लिए अमेरिका की तरफ देखते रहते हैं, लेकिन मतदान का नतीजा गवाह है कि दुनिया अमेरिका की इस धौंसपट्टी में नहीं आई। दुनिया ने संयुक्त राष्ट्र के मंच से यरुशलम को इजरायल की राजधानी मानने से इन्कार कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने उस प्रस्ताव को भारी समर्थन से पारित कर दिया, जिसमें यरुशलम को इजरायल की राजधानी का दर्जा रद करने की मांग की गई थी। संयुक्त राष्ट्र के इस इस गैर बाध्यकारी प्रस्ताव के समर्थन में 128 देशों ने मतदान किया जबकि खिलाफ या कहें अमेरिका के पक्ष में सिर्फ नौ वोट पड़े। इससे पता चलता है कि ट्रंप की यह कितनी बड़ी हार है। दरअसल अमेरिका ने इसे नाक का बाल इसलिए बना लिया था; क्योंकि इसी महीने अंतरराष्ट्रीय आलोचना को दरकिनार कर ट्रंप ने यरुशलम को इजरायल की राजधानी के तौर पर मान्यता दी थी।
व्हाइट हाउस में पत्रकारों से बात करते हुए ट्रंप ने कहा था, अतीत में असफल नीतियों को दोहराने से हम अपनी समस्याएं हल नहीं कर सकते। हालांकि ट्रंप के इस एलान से फलस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास के प्रवक्ता ने चेतावनी दी थी कि इस कदम के खतरनाक नतीजे हो सकते हैं। मगर ट्रंप नहीं रुके। उन्होंने कहा, आज मेरी घोषणा इजरायल और फलस्तीन के बीच विवाद के प्रति नए नजरिये की शुरुआत है।
बहरहाल यरुशलम पर अमेरिका के मौजूदा रुख का सारा दोष ट्रंप के सिर पर मढ़ने की जरूरत नहीं है। ट्रंप ने यरुशलम को इजरायल की राजधानी मानने का यह जो फैसला लिया है, उससंबंध में अमेरिकी कांग्रेस ने 22 साल पहले ही कानून पास कर दिया था। वास्तव में अमेरिकी राष्ट्रपति अपनी एक्जीक्यूटिव पावर का इस्तेमाल करके इसे बस टालते आ रहे थे या यूं कहें रोकते आ रहे थे। ट्रंप ने बस इतना किया है कि जो फैसला कभी अमेरिकी कांग्रेस ने किया था, उसे उन्होंने अमली जामा भर पहना दिया है। शायद इसीलिए अमेरिकी प्रतिनिधि निकी हेली ने सुरक्षा परिषद में कहा कि यह विदेश नीति नहीं है, उनके लिए यह एक घरेलू मसला है।
यरुशलम शहर को लेकर इजरायल और फलस्तीनी क्षेत्र के बीच 1948 से ही विवाद है। दुनिया के पवित्र शहरों में शुमार यरुशलम को इजरायल हमेशा से अपनी राजधानी मानता रहा है, लेकिन पिछले 70 सालों में अमेरिका को छोड़कर आज तक किसी दूसरे देश ने इसे इजरायल की राजधानी नहीं मानी। शायद इसी की भरपाई इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने अमेरिकी विदेश विभाग से दूतावास को तेल अवीव से यरुशलम लाने के लिए कह दिया है और दुनिया में अलग-थलग पड़ गए हैं।
दरअसल ऐसा होना स्वाभाविक था; क्योंकि इजरायल की यरुशलम को राजधानी बनाने के पीछे जो आक्रामक मनोविज्ञान है, उसके केंद्र में फलस्तीन ही नहीं बल्कि समूचे मध्यपूर्व को कमतर दिखाने की मंशा काम करती है। 1967 के छह दिवसीय युद्ध में विजय हासिल करने के क्रम में इजरायल ने पूर्वी यरुशलम पर भी कब्जा कर लिया था, जिस पर पहले जॉर्डन का नियंत्रण था। तब से इजरायल समूचे यरुशलम को ही अपनी राजधानी मानता है। जबकि फलस्तीनी भी अपने प्रस्तावित राष्ट्र की राजधानी के रूप में पूर्वी यरुशलम को ही देखते हैं। असल में, यरुशलम को लेकर इजरायल-फलस्तीन के बीच होने वाला कोई समझौता ही मान्य होगा। 1जाहिर है यह समझौता शांति वार्ताओं में ही संभव है, लेकिन इजरायल के पास इस समस्या का दूसरा पाठ फलस्तीन को मनोवैज्ञानिक रूप से कुचल डालने का है। अमेरिका इसमें अप्रत्यक्ष तरीके से उसे सहयोग दे रहा है, लेकिन दुनिया इतना अमानवीय हथकंडा सफल नहीं होने देगी। इसलिए यरुशल पर अपने रुख के चलते अमेरिका को संयुक्त राष्ट्र में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। दुनिया इस बात को समझती है। इसीलिए सभी देशों के दूतावास फिलहाल तेल अवीव में ही हैं। राष्ट्रपति ट्रंप अपनी जिद के चलते हो सकता है कि एलान के मुताबिक अपने दूतावास को यरुशलम ले जाएं। मगर इससे बुरी तरह हारा अमेरिका जीत नहीं जाएगा।
अमेरिका और इजरायल की इस गैर कूटनीतिक जिद ने भारतीय कूटनीतिक कौशल की भी परीक्षा ली है, लेकिन कहना होगा कि भारत ने दुनिया को तात्कालिक तौर पर दिख रही इजरायल के साथ अपनी नजदीकी के बजाय इस गंभीर मसले पर राष्ट्रीय विवेक से काम लिया है जो नि:संदेह हमारी विदेश नीति के लिए महत्वपूर्ण रहा। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के समर्थन में यानी अमेरिकी फैसले के खिलाफ मतदान किया। वैसे तो हम पिछले सात दशकों से फलस्तीन और इजरायल के बीच एक संतुलन बनाकर चलते रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों से अमेरिका और इजरायल से करीबी ने दुनिया को हमारे बारे में भ्रम में डाल दिया था।
संयुक्त राष्ट्र में फलस्तीन पर 16 बार मतदान हुआ है और इसमें 15 बार भारत ने फलस्तीन के पक्ष में मतदान किया है। फलस्तीन मुद्दे पर भारत ने इस बार भी पारंपरिक नीति को अपनाते हुए अरब देशों के साथ वोट किया है। बकौल विदेश सचिव एस जयशंकर, ‘हमने अमेरिका या इजरायल के खिलाफ वोट नहीं किया, बल्कि भारत ने अरब देशों के प्रस्ताव का समर्थन किया है। दुनिया यह मानती है कि इजरायल फलस्तीन विवाद का समाधान दो राष्ट्र सिद्धांत के तहत ही मुमकिन है।
भारत स्पष्ट कर चुका है कि अगर फलस्तीन और इजरायल के बीच सर्वमान्य समझौता में यरुशलम, इजरायल को सौंपा जाता है तो वह उसका स्वागत करेगा। ऐसे में भारत की ओर से फलस्तीन के पक्ष में संयुक्त राष्ट्र में मतदान करना मूलत: स्वतंत्र विदेश नीति का ही परिचायक है। अंतरराष्ट्रीय मामलों में भी इस फैसले से साफ हो गया है कि भारत हमेशा अंतरराष्ट्रीय मूल्यों बढ़ावा देना चाहता है। (दैनिक जागरण )
(लेखक इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में 1वरिष्ठ संपादक हैं)

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