Monday 4 December 2017

कैसे हुई सुखोई-ब्रह्मोस की जुगलबंदी (डॉ. आरके त्यागी)

वह एक मई, 2013 का दिन था। स्थान था दिल्ली। गर्मियां परवान चढ़ने जा रही थीं। उसी दिन ब्रह्मोस एयरोस्पेस के सीईओ के साथ दिल्ली के किर्बी प्लेस में मेरी खास मंत्रणा हुई। तब हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) की कमान मैं संभाल रहा था। उनके दफ्तर में चल रही बातचीत के दौरान उन्होंने पूछा कि क्या हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड के पास ब्रह्मोस मिसाइल को सुखोई-30 विमान से जोड़ने की तकनीकी क्षमता है? उन्होंने यह भी बताया कि रूस की मूल निर्माता कंपनी इस काम के लिए 20 करोड़ डॉलर (लगभग 1,300 करोड़ रुपये) की मांग कर रही है। उन्हें यह भी नहीं लग रहा था कि इतनी भारी रकम खर्च करने के बावजूद देश को इस काम की तकनीक सीखने का लाभ मिल पाएगा भी या नहीं।
उस समय अरूप राहा वायुसेना के सह अध्यक्ष थे जो दिसंबर 2013 में वायुसेना अध्यक्ष बने। उन्होंने एक अन्य बैठक में बताया कि यदि ब्रह्मोस का सुखोई से जुड़ाव हो जाता है तो वायुसेना को संभावित युद्धों का पासा पलटने में खासी मदद मिलेगी। यही नहीं, इससे देश में तकनीक के मामले में आत्मविश्वास बढ़ेगा। बाद में कुल 40 सुखोई विमानों में ब्रह्मोस लगाने के लिए बदलाव करने होंगे।
हमारे नासिक स्थित परिसर के डिजाइनरों ने इस चुनौती का गहराई से अध्ययन किया और कुछ महीने बाद हमने ब्रह्मोस एयरोस्पेस को बताया कि एचएएल और वायुसेना को भरोसा है कि यह काम किया जा सकता है, लेकिन ब्रह्मोस के सीईओ डॉ. शिवथनु पिल्लै ने एक और चुनौती सामने रख दी कि उनके पास इस काम पर खर्च करने के लिए मूल निर्माताओं की 1,300 करोड़ रुपये की मांग के मुकाबले सिर्फ 80 करोड़ रुपये का बजट है। उन्होंने एचएएल से अनुरोध किया कि वह 80 करोड़ रुपये के बजट में ही यह काम करे। ब्रह्मोस एयरोस्पेस की वित्तीय सीमाओं को ध्यान में रखते हुए मेरी अध्यक्षता में 26 नवंबर, 2013 को हुई एचएएल बोर्ड की बैठक में यह ऐतिहासिक फैसला लिया गया कि भले ही एचएएल को इस परियोजना में मुनाफा न हो, लेकिन राष्ट्रीय हित से जुड़ी इस परियोजना को पूरा कर एचएएल यह दिखा सकेगा कि उसके पास कितने उच्चस्तर की तकनीकी क्षमता है।
एचएएल के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि हमने इस काम से जुड़े डिजाइन और विकास का खर्च खुद उठाने का फैसला किया और मुनाफे को एक किनारे रखते हुए आकस्मिक लागत को भी छोड़ दिया तथा मात्र 80 करोड़ रुपये में इस परियोजना को पूरा करने की ठान ली। इस फैसले से साफ होता है कि जब भारतीय वायुसेना और उद्योगों के बीच सही और सकारात्मक तालमेल बैठता है तब लागत, खर्च आदि पहलू गौण हो जाते हैं और राष्ट्रीय गौरव, क्षमता और तकनीक महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
मुझे खुशी है कि बीते 22 नवंबर को भारतीय वायुसेना के एक एसयू-30एमकेआइ विमान ने ढाई टन वजनी ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल के साथ कलाईगुंडा अड्डे से उड़ान भरी और बंगाल की खाड़ी में 260 कि.मी. दूर रखे एक लक्ष्य पर पहले ही वार में अभेद्य निशाना लगाकर अपनी उपयोगिता साबित की। हम इस सफलता का जश्न दो तरह से मना सकते हैं। एक तो हम ब्रह्मोस एयर लांच क्रूज मिसाइल को सुखोई विमान से जोड़कर विमान दुश्मन के सुरक्षित और काफी दूर स्थित यानी 2100 किमी. दूर (उड़ान के दौरान ईंधन भर कर 3900 कि.मी.) तक के लक्ष्य को ध्वस्त कर सकते हैं। यहां तक कि सुखोई विमान भारतीय सीमा के अंदर उड़ते हुए भी दुश्मन की सीमा में लगभग 300 किमी. तक तबाही मचा सकते हैं।
दूसरे, ब्रह्मोस की इस लाइव फायरिंग के प्रदर्शन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अब देश में ही कितने उच्च स्तर की तकनीकी क्षमता विकसित हो चुकी है। ब्रह्मोस के उत्पादन और तकनीकी बदलाव के काम में आज देश की 100 से अधिक कंपनियां और लगभग 20 हजार विशेषज्ञ, इंजीनियर और तकनीशियन जुटे हुए हैं। मौजूदा परियोजना में, एसयू-30 विमान और ब्रह्मोस को जोड़ने के लिए सुरक्षित स्टोर विभाजन विश्लेषण में सीएफडी विश्लेषण और विंड टनल परीक्षण शामिल हैं। विमान के जलरोधी (वॉटर टाइट) एनएमजी को 2डी ड्रॉइंग से तैयार करना था। विमान के ढांचे में ब्रह्मोस के लिए बदलाव करते हुए सुनिश्चित किया कि बदलाव विमान के गुरुत्वाकर्षण केंद्र के दायरे से बाहर न जाए। साथ ही ध्यान रखा गया कि मिसाइल दागने के दौरान विमान कंपन स्थिति न गड़बड़ाए। मिसाइल का भार सहने वाला कैरिएज और मिसाइल को रिलीज करने वाला एक्चुएशन तथा इलेक्टिकल और एवियॉनिक्स इंटिग्रेशन एक और चुनौती थी। परिचालन के लिए फ्लाइट टेस्ट इंस्ट्रुमेशन मिसाइल सिस्टम सॉफ्टवेयर में बदलाव भी किया जाना था। ये सभी काम एचएएल की अगुआई में कई कंपनियों ने मिल कर किया। किसी देश की आर्थिक समृद्धि और तकनीकी शक्ति इस बात पर निर्भर करती है कि उस देश का वैज्ञानिक और तकनीक कुशल समाज महत्वपूर्ण सामरिक परियोजनाओं पर किस तरह मिल कर जुट सकता है। एसयू-30- ब्रह्मोस इंटिग्रेशन परियोजना में एचएएल, वायुसेना और ब्रह्मोस एयरोस्पेस के अलावा तमाम अन्य एजेंसियों ने मिलकर कार्य किया और इस कार्य को सफलतापूर्वक संपन्न किया। एसयू-30- ब्रह्मोस का एकीकरण तो शुरुआत भर है जो तकनीक और अनुभव इस परियोजना से हासिल हुआ, उसका इस्तेमाल एसयू-30 (सुपर एसयू-30) के मजबूत ढांचे के साथ अपग्रेड, बेहतर एवियॉनिक्स और रडार तथा और अधिक घातक जंगी क्षमता विकसित करने में किया जा सकेगा। जंगी क्षमता को इस तरह विकसित किया जाना चाहिए कि देश की सीमाओं और दूर समुद्र में कम से कम 1500 किमी. का दायरा अभेद्य हो सके।
इसके साथ ही ब्रह्मोस मिसाइल ने अपने थलसेना, नौसेना और वायुसेना संस्करणों से जुड़ाव की चुनौती पूरी कर ली है। सेना के पास ब्रह्मोस की तीन रेजिमेंट हैं और अब इस मिसाइल के स्टीप डाइव क्षमता वाले ब्लॉक-3 को भी शामिल करने की तैयारी चल रही है। नौसेना ने भी अपने अग्रणी जंगी पोतों पर इन मिसाइलों को तैनात कर लिया है। अब भारतीय वायुसेना अपने 40 सुखोई विमानों को इस मिसाइल से लैस करने की योजना पर काम कर रही है। मैं समझता हूं कि अब ब्रह्मोस एयरोस्पेस 600 किमी. रेंज की ध्वनि से पांच गुना अधिक रफ्तार से वार करने वाली हाइपरसोनिक मिसाइल के विकास पर काम कर रहा है। हम यही कामना करते है कि ब्रह्मोस एयरोस्पेस को भविष्य में तमाम कामयाबियां मिले। साथ ही इस परियोजना से जुड़ी तमाम एजेंसियों को भी इस बड़ी कामयाबी के लिए बधाई। हम सभी देशवासी आप सभी पर गर्व करते हैं।(DJ)
(लेखक एचएएल के पूर्व चेयरमैन हैं)

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