Friday 15 December 2017

पड़ोस में राजनीतिक स्थिरता का जनादेश (अनंत मित्तल)


नेपाल में वामपंथी गठबंधन की जबरदस्त जीत को भले ही राजनयिक दृष्टि से भारत के लिए चुनौती माना जा रहा हो, मगर इससे हिमालयी गणतंत्र में राजनीतिक स्थिरता आने की नई उम्मीद जगी है। नेपाली संसद के लिए हुए सीधे चुनाव में वाम गठबंधन अभी तक 165 में से 113 यानी दो तिहाई से अधिक सीटें जीत चुका है। उसके मुकाबले भारत समर्थक माने जाने वाली नेपाली कांग्रेस महज 21 सीटें ही जीत पाई है। इसके अलावा 19 सीटें मधेस दलों ने भी जीती हैं। वाम गठबंधन 275 सदस्यीय संसद में स्पष्ट बहुमत की ओर बढ़ रहा है। वामपंथी गठबंधन की ऐतिहासिक जीत ने पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली के नेतृत्व में इस महीने के अंत तक वामपंथी सरकार बनने की राह खोल दी है।
फैसलाकुन जनादेश के साथ नई सरकार का राजपाट संभालना इस लिहाज से ऐतिहासिक होगा कि यह नेपाल के गणतांत्रिक संविधान के तहत निर्वाचित और गठित पहली सरकार होगी। इस संविधान को नेपाल ने साल 2015 में अपनाया था, जिसके खिलाफ मधेस दलों के आंदोलन को भारत सरकार का परोक्ष समर्थन होने की धारणा ने नेपाल में भारत विरोधी माहौल बनाया हुआ है। वामपंथी गठबंधन को भी भारत विरोधी इसी भावना को भुनाने का दाव माना जा रहा है। इस चाल का फायदा उठाने में कम से कम प्रत्यक्ष चुनाव में तो वामपंथी सफल रहे हैं। संसदीय चुनावों में दो मधेशी दल 19 सीटों पर जीत दर्ज कर चुके हैं। राष्ट्रीय जनता पार्टी नेपाल के खाते में 10 और फेडरल सोशलिस्ट फोरम नेपाल की झोली में नौ सीटें आई हैं। देखना यही है कि 111 सीटों पर परोक्ष चुनाव के परिणाम नेपाल की संसद में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच संतुलन बना पाएंगे अथवा उनमें भी वामपंथियों की ही पौ बारह रहेगी।
इस निर्णायक जनादेश के साथ ही नेपाल में पिछले 11 साल से चल रही राजनीतिक उठापटक थमने के पुख्ता आसार बन रहे हैं। ऐसी संभावना ने गरीबी और प्राकृतिक संकटों के दोहरे जाल में फंसे इस पहाड़ी देश के आर्थिक लाभ के लिए नई आशा जगा दी है। इन चुनावों के पूरे परिणाम आने के साथ ही नवंबर 2006 में चालू हुई राजनीतिक प्रक्रिया पूरी हो जाएगी। यह प्रक्रिया प्रचंड के नेतृत्व वाले माओवादियों के साथ समग्र शांति समझौते के साथ शुरू हुई थी। इसके तहत नेपाल को हिंदू राष्ट्र के बजाय संघीय गणतांत्रिक देश घोषित करके राजशाही को हमेशा के लिए खत्म कर दिया गया था। तब से शुरू हुई 11 साल लंबी राजनीतिक प्रक्रिया के दौरान नेपाल ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं।
इसके तहत साल 2008 में पहली संविधान सभा चुनी गई। इसका कार्यकाल दो साल के लिए था। राजनीतिक असहमति के कारण बार-बार कार्यकाल बढ़ाने के बावजूद नया संविधान देने में संविधान सभा नाकाम रही। अंतत: नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2012 में निर्णायक दखल दिया। इसी वजह से 2013 में नई संविधान सभा चुनी गई। इस दूसरी संविधान सभा ने दो साल के भीतर 2015 में ही नया संविधान बना कर देश को सौंप दिया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख के मद्देनजर देश के राजनीतिक दलों ने संविधान सभा के सामने पेश आए अधिकतर विवादित मुद्दों को चुनाव के बाद निपटाने के लिए टाल दिया था। इस लिहाज से देखें तो नवनिर्वाचित सरकार को संविधान संशोधन संबंधी अनेक चुनौतियां ङोलनी पड़ सकती हैं। संशोधनों की यह मांग उन तमाम नस्लीय एवं भाषाई समूहों द्वारा की जा सकती है जो साल 2015 में अंगीकृत नए संविधान के विरुद्ध आंदोलन करते रहे हैं।1इन मुद्दों में गणतंत्र के राज्यों का पुनर्गठन एवं उनका नामकरण भी शामिल है। इस चुनाव में नेपाली जनता ने बढ़-चढ़कर शिरकत की है। सात दिसंबर को संपन्न हुए इस तीन स्तरीय चुनाव में स्थानीय निकायों के लिए 75 फीसद मतदान हुआ और संसदीय एवं प्रांतीय विधानसभाओं के लिए 68 फीसद वोट पड़े हैं। हालांकि कुछ निहित स्वार्थो ने अंतिम क्षणों में चुनाव में अड़ंगा डालने की कोशिश की, मगर नेपाली प्रशासन की दृढ़ता के आगे उनकी एक नहीं चली। मतों की गिनती इसी हफ्ते पूरे होने के आसार हैं। स्थानीय निकाय चुनाव इसी साल 14 मई, 28 जून और 18 सितंबर को हुए थे। इनके तहत छह मेट्रोपॉलिटन शहरों, 11 उपमहानगरों, 276 नगर पालिकाओं और 460 ग्रामीण नगर पालिकाओं के लिए वोट पड़े थे।
पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली की अगुआई वाली सीपीएन-यूएमएल और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल उर्फ प्रचंड की पार्टी सीपीएन-माओवादी ने संसदीय और प्रांतीय चुनावों के लिए हाथ मिलाया है। इस गठबंधन को पिछले दो दशकों से राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहे नेपाल के लिए अहम माना जा रहा है। माना जाता है कि नेपाल के वामपंथी दलों का झुकाव चीन की ओर रहता है, जबकि असल में भारत की मध्यस्थता से ही 2006 में नेपाल में प्रचंड के नेतृत्व में सरकार बनी थी। उनकी सरकार को समर्थन देने के लिए भारत ने ही अपनी समर्थक मानी जाने वाली नेपाली कांग्रेस को तैयार किया था। बहरहाल नेपाल में वामपंथी गठबंधन की भारी जीत भारत के लिए नई कूटनीतिक चुनौती साबित हो सकती है। चुनौती की गहराई नेपाल के वामपंथी गठबंधन के रवैये पर निर्भर करेगी। यदि उनका झुकाव चीन की ओर रहा तो नेपाल में चीन की गतिविधियां बढ़ेंगी, जिसकी भारत को ठोस काट करनी पड़ेगी।
मालदीव और चीन के बीच व्यापारिक नजदीकी भारत के लिए अलग राजनयिक चुनौती है। इसके अलावा श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह पर भी चीन को कब्जा मिल गया है। उधर पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में स्थित ग्वादार बंदरगाह को चीन के इंजीनियर तेजी से बना रहे हैं। ऐसे में केपी ओली की नई सरकार द्वारा भारत को नजरअंदाज करके चीन के साथ व्यापारिक-सामरिक सहयोग बढ़ाने की आशंका पर भारत को पैनी निगाह रखनी होगी। वैसे नेपाल में चीन को रोके रखने की मुहिम में भारत अकेला नहीं होगा। अमेरिका, जापान और यूरोपीय संघ का समर्थन भारत के साथ रहने से नेपाल हमारी अनदेखी नहीं कर पाएगा। इसके बावजूद भारत को सतर्कता के साथ अपने इस पड़ोसी देश की नब्ज थाम कर आपसी संबंधों को नया आयाम देना होगा।DJ

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