Tuesday 26 December 2017

ग्लोबलाइजेशन से वापसी के दौर में (भरत झुनझुनवाला)


वर्ष 1995 में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) का गठन हुआ था। उस समय भारत में डब्ल्यूटीओ का भारी विरोध हुआ था, विशेषकर लेफ्ट पार्टियों एवं स्वदेशी जागरण मंच द्वारा। तमाम विद्वानों का आकलन था कि डब्ल्यूटीओ से जुड़ने पर हमारे उद्योगों का सफाया हो जाएगा और हम आर्थिक दासता के नए दलदल में फंस जाएंगे। ये भय सही सिद्ध हुए हैं। बीते 20 सालों में भारत की यूपीए तथा एनडीए सरकारों ने डब्ल्यूटीओ की छत्रछाया तले ग्लोबलाइजेशन को पुरजोर बढ़ाया है। लेकिन ग्लोबलाइजेशन से न हमें और न ही दुनिया के दूसरे लोगों को वांछित लाभ मिले हैं। अब इससे वापसी हो रही है। प्रमाण डब्ल्यूटीओ की हाल में सम्पन्न हुई मंत्री-स्तरीय सभा का फुस्स होना है। वर्तमान सभा को समझने के लिए हमें कुछ पीछे जाना होगा।
डब्ल्यूटीओ के बनने के पहले हर देश की अपनी पेटेंट व्यवस्था थी। ‘पेटेंट’ कानून में बौद्धिक सम्पदा का संरक्षण किया जाता है। किसी व्यक्ति द्वारा आविष्कार की गई वस्तु का दूसर‍े व्यक्ति द्वारा डुप्लीकेट बनाने पर पेटेंट कानून में रोक रहती है। डब्ल्यूटीओ के बनने के बाद हमारे पेटेंट कानून को बदल कर वैश्विक नियमों के अनुसार बनाया गया। पूर्व में हमें छूट थी कि दूसरे द्वारा किए गए आविष्कार का हम डुप्लीकेट बना सकते थे यदि हम किसी दूसरी उत्पादन प्रक्रिया (प्रोसेस) से उसी माल को बनाएं। डब्ल्यूटीओ के बाद यह छूट समाप्त हो गई है। इसलिए डब्ल्यूटीओ हमारे लिए हानिप्रद रहा है।
डब्ल्यूटीओ के अंतर्गत दूसरी प्रमुख व्यवस्था उच्चतम आयात करों के निर्धारण की है। पूर्व में हर देश अपनी मर्जी के अनुसार किसी भी वस्तु पर मनचाही दर से आयात कर वसूल सकता था। जैसे हम आयातित कारों पर 200 प्रतिशत तक वसूल करते थे। डब्ल्यूटीओ के अंतर्गत आयात करों की अधिकतम सीमा निर्धारित कर दी गई। इससे अपने देश में चीन का माल भारी मात्रा में प्रवेश करने करने लगा है और घरेलू उद्यमियों को नुकसान हुआ। डब्ल्यूटीओ के इन नुकसानदेह प्रभावों का परिणाम है कि सब दुनिया के देश डब्ल्यूटीओ का और विस्तार नहीं करना चाहते हैं।
इस समय डब्ल्यूटीओ के विस्तार की कई संभावनाएं थीं। वर्तमान में डब्ल्यूटीओ के दायरे में माल का व्यापार आता है जैसे गेहूं, कार तथा मशीनों का। सेवाओं का व्यापार डब्ल्यूटीओ के बाहर है जैसे सॉफ्टवेयर, ट्रान्सलेशन, मेडिकल ट्रान्सक्रिप्शन, हेल्थ टूरिज्म, इत्यादि। डब्ल्यूटीओ के विस्तार की दूसरी संभावना ई-कॉमर्स की जैसे आज आप चीन की किसी कंपनी को ऑनलाइन ऑर्डर देकर माल मंगवा सकते हैं। इस व्यापार को सुनियोजित करने के लिए कोई वैश्विक कानून नहीं है। हाल में हुई डब्ल्यूटीओ की मंत्री स्तरीय वार्ता में इन विषयों पर चर्चा नहीं हुई, जो कि बताता है कि दुनिया के लोग डब्ल्यूटीओ से परेशान हो गए हैं और अब वैश्वीकरण से पीछे हट रहे हैं।
वैश्वीकरण का विस्तार तथा इससे पीछे हटना इतिहास में बार-बार होता रहा है। अपने ही 400 वर्ष पुराने इतिहास का स्मरण करें। भारत पर मुगलों का शासन था। अरब सागर के दस्युओं द्वारा हमारे जहाजों को लूटा जा रहा था। ऐसे में ब्रिटिश व्यापारियों ने मुगल शासकों को प्रस्ताव दिया कि यदि उन्हें भारत में खुलकर व्यापार करने की छूट दी जाए तो शुल्क के रूप में वे भारतीय जहाजों को समुद्री सुरक्षा उपलब्ध करा देंगे। ब्रिटिश व्यापारियों की नाविक सेना हमारी तुलना में ताकतवर थी और वे दस्युओं के सामने झुकते नहीं थे। हमारे मुगल शासकों ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। बस भारत का ग्लोबलाइजेशन हो गया। ब्रिटिश व्यापारियों ने अपने पैर पसारे। समय क्रम में हमारे तमाम राजाओं ने स्वेच्छा से ब्रिटिश लोगों को अपनी संप्रभुता दे दी। उन्होंने आकलन किया कि ब्रिटिश शासन के नीचे द्वितीय स्तर पर भागीदार बने रहना उनके लिए लाभदायक रहेगा। कमोबेश्ा देश की जनता ने भी ब्रिटिश शासकों का स्वागत किया। राजस्थान के डूंगरपुर के आदिवासियों ने बताया कि घरेलू राजाओं के आतताई व्यवहार से बचने को वे अजमेर को ब्रिटिश प्रेजीडेन्सी को भाग जाते थे।
आज डब्ल्यूटीओ द्वारा ग्लोबलाइजेशन उसी प्रकार लागू किया जा रहा है जैसे ब्रिटिश शासकों द्वारा भारत में लागू किया गया था। ब्रिटिश माल को भारत में न्यून आयत कर पर प्रवेश करने की छूट दी गई थी जैसा कि वर्तमान में डब्ल्यूटीओ के अन्तर्गत चीन के माल को भारत में न्यून आयात कर पर प्रवेश करने की छूट है। ब्रिटिश कंपनियों ने भारत में निवेश किया जैसा कि आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा किया जा रहा है। भारत के घरेलू कानूनों को ब्रिटिश कानूनों के अनुसार बदला गया जैसे आज हमने अपने पेटेन्ट कानून को डब्ल्यूटीओ के अनुरूप बदल दिया है। समय क्रम में भारतीयों ने पाया कि उनके द्वारा स्वेच्छा से ब्रिटिश शासकों को हस्तान्तरित की गई स्वतंत्रता का प्रभाव विपरीत पड़ रहा है। तब देश ने लाला लाजपत राय और महात्मा गांधी के नेतृत्व में उस ग्लोबलाइजेशन को चुनौती दी। पूरे देश में स्वतंत्रता का आन्दोलन छिड़ गया। हमारे राजाओं द्वारा ब्रिटिश शासकों के साथ की गई संधियों का कोई अर्थ नहीं रह गया। अंत में भारत ग्लोबलाइजेशन के फंदे से बाहर निकला, जिसे हमारे शासकों ने स्वेच्छा से अपने गले में हीरे का हार समझ कर डाल लिया था। इसी प्रकार की ग्लोबलाइजेशन से वापसी आज डब्ल्यूटीओ की मंत्री स्तरीय सभा में दिखती है।
अंततः ग्लोबलाइजेशन तब टिकेगा जब किसी देश के लोगों को यह लाभप्रद दिखेगा। जब शासक जनता के हितों के विरुद्ध ग्लोबलाइजेशन को अपनाते हैं तो जनता उस देश के शासकों को उखाड़ फेंकती है जैसे हमारे शासकों द्वारा ब्रिटिश शासकों को सौंपी गई संप्रभुता को हमारी जनता ने उखाड़ फेंका था। हर हाल में अंतिम संप्रभुता जनता की होती है। अतः ग्लोबलाइजेशन से डरने की जरूरत नहीं है। जरूरत इस बात की है कि शासकों द्वारा लागू किए गए ग्लोबलाइजेशन के लाभ हानि का स्वतंत्र आकलन करके जनता को बताया जाए जिस प्रकार लाजपत राय ने ब्रिटिश शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ रहे प्रभाव का आकलन कर जनता को जाग्रत किया। देश के बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी बनती है कि ग्लोबलाइजेशन के लाभ-हानि का सही ब्योरा जनता को बताएं। उदाहरणतः आज हमारी सरकार चीन से आयात किए जा रहे माल के विरुद्ध कदम उठाने को तैयार नहीं है। किन्तु जनता कहने लगी है कि इसे रोका जाना चाहिए।
आने वाले समय में हम ग्लोबलाइजेशन से पीछे हटेंगे क्योंकि इससे आम आदमी के रोजगार का भक्षण हो रहा है। उसे चीन में बना सस्ता माल उपलब्ध है किन्तु उसे खरीदने के लिए जेब में पैसा नहीं है। ग्लोबलाइजेशन का लाभ आज हमारी बड़ी कम्पनियों और मध्यम वर्ग मात्र को हो रहा है। जैसे-जैसे जनता को यह वास्तविकता समझ में आएगी, हमारे नेताओं को ग्लोबलाइजेशन से पीछे हटना ही होगा। इसी क्रम में हमे ‘मेक इन इंडिया’ जैसे कार्यक्रमों की विफलता को शीघ्र स्वीकार कर अपने घरेलू उद्यमियों को बढ़ावा देना चाहिए।(Dainik tribune )
(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)

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