Monday 18 December 2017

दागी नेताओं पर कानून का शिकंजा (रीता सिंह )


यह स्वागत योग्य है कि सर्वोच्च अदालत और सरकार दोनों ने दागी नेताओं के मुकदमों को शीघ्र निपटाने पर अपनी सहमति जता दी है। सरकार ने सर्वोच्च अदालत को आश्वस्त किया है कि वह सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों के तेज निपटारे के लिए 12 विशेष अदालतों का गठन और इसके लिए 7.80 करोड़ आवंटित करने को तैयार है। नि:संदेह इस पहल से दागी माननीयों पर शिकंजा कसेगा और राजनीति के आपराधीकरण पर लगाम लगेगा। उल्लेखनीय है कि गत एक नवंबर को सर्वोच्च अदालत ने सरकार से जानना चाहा था कि उसके 10 मार्च, 2014 के फैसले के पालन के लिए सरकार क्या कर रही है। गौरतलब है कि उस समय सर्वोच्च अदालत ने सरकार को ताकीद किया था कि जनप्रतिनिधियों के खिलाफ मुकदमों का निपटारा एक साल के भीतर होना चाहिए। समझना आवश्यक है कि इस मामले की सुनवाई के दौरान जब सरकर ने सजायाफ्ता जनप्रतिनिधियों के चुनाव लड़ने पर आजीवन पाबंदी की मांग पर सहमति जतायी तब अदालत ने सरकार से यह भी पूछ लिया कि लंबित मुकदमों के तेज निपटारे के लिए उसकी क्या योजना है। अब जब सरकार ने अपनी राय स्पष्ट कर दी है तो उम्मीद किया जाना चाहिए कि अब दागी नेताओं से जुड़े मुकदमों का निपटारा एक साल के भीतर हो जाएगा। दागी नेताओं के मामले का शीघ्र निपटारा इसलिए भी आवश्यक है कि संसद और विधानसभाओं में दागी और आपराधिक चरित्र वाले नेताओं की तादाद बढ़ती जा रही है। अगर ऐसे दागी नेताओं के मामले का तेजी से निपटारा होगा तो इससे संदेश जाएगा कि कानून की नजर में सभी बराबर हैं।
अगर चुनाव आयोग के आंकड़ों पर गौर करें तो 2014 में कुल 1,581 सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित थे। इसमें लोकसभा के 184 और राज्यसभा के 44 सांसद शामिल थे। इनमें महाराष्ट्र के 160, उत्तर प्रदेश के 143, बिहार के 141 और पश्चिम बंगाल के 107 विधायकों पर मुकदमें लंबित थे। सभी राज्यों के आंकड़े जोड़ने के बाद कुल संख्या 1,581 थी। यहां ध्यान देना होगा कि चुनाव दर चुनाव दागी जनप्रतिनिधियों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। उदाहरण के तौर पर 2009 के आमचुनाव में 158 यानी 30 प्रतिशत नेताओं ने अपने खिलाफ आपराधिक मामलों की घोषणा की थी।
आम चुनाव 2014 के आंकड़ों पर गौर करें तो 2009 के मुकाबले इस बार दागियों की संख्या बढ़ गई। दूसरी ओर ऐसे नेताओं की भी संख्या बढ़ी है जिन पर हत्या, हत्या के प्रयास और अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2009 के आम चुनाव में ऐसे सदस्यों की संख्या तकरीबन 77 यानी 15 प्रतिशत थी जो अब 16वीं लोकसभा में बढ़कर 112 यानी 21 प्रतिशत हो गई है। याद होगा गत वर्ष पहले सर्वोच्च अदालत ने दागी नेताओं पर लगाम कसने के मकसद से प्रधानमंत्री एवं राज्य के मुख्यमंत्रियों को ताकीद किया था कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले दागी लोगों को मंत्री पद न दिया जाए क्योंकि इससे लोकतंत्र को क्षति पहुंचती है। तब सर्वोच्च अदालत ने दो टूक कहा था कि संविधान की संरक्षक की हैसियत से पीएम से अपेक्षा की जाती है कि वे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को मंत्री नहीं चुनेंगे, लेकिन विडंबना है कि अदालत के इस नसीहत का पालन नहीं हो रहा है।
ऐसा इसलिए कि सर्वोच्च अदालत ने दागी सांसदों और विधायकों को मंत्री पद के अयोग्य मानने में हस्तक्षेप के बजाय इसकी नैतिक जिम्मेदारी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के विवेक पर छोड़ दिया है। दरअसल प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों का अपना मंत्रिमंडल चुनने का हक संवैधानिक है और उन्हें इस मामले में कोई आदेश नहीं दिया जा सकता। ऐसा इसलिए भी संविधान के अनुच्छेद 75(1) की व्याख्या करते समय उसमें कोई नई अयोग्यता नहीं जोड़ी जा सकती। जब कानून में गंभीर अपराधों या भ्रष्टाचार में अभियोग तय होने पर किसी को चुनाव लड़ने के अयोग्य नहीं माना गया है तो फिर अनुच्छेद 75(1) और 164(1) जो केंद्रीय और राज्य मंत्रिमंडल के चयन से संबंध है, के मामले में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के अधिकारों की व्याख्या करते हुए उसे अयोग्यता के तौर पर शामिल नहीं किया जा सकता। मगर हर बार यही देखा गया कि राजनीतिक दल अपने दागी जनप्रतिनिधियों को बचाने के लिए कुतर्क गढ़ते नजर आए।
याद होगा गत वर्ष पहले जब सर्वोच्च अदालत ने जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के जरिए दोषी सांसदों व विधायकों की सदस्यता समाप्त करने और जेल से चुनाव लड़ने पर रोक लगाई तो राजनीतिक दलों ने किस तरह वितंडा खड़ा किया। तब उनके हैरतअंगेज दलील से देश हैरान रह गया। बता दें कि उस समय सर्वोच्च अदालत में एक याचिका दायर किया गया था जिसमें कैबिनेट से आपराधिक पृष्ठभूमि वाले मंत्रियों को हटाने की मांग की गई थी। शुरू में न्यायालय ने इस याचिका को खारिज कर दिया, लेकिन याचिकाकर्ता द्वारा पुनर्विचार याचिका दाखिल किए जाने पर 2006 में इस मामले को संविधान पीठ के हवाले कर दिया। इससे पहले भी सर्वोच्च अदालत ने अपने एक फैसले में राजनीतिकों और अतिविशिष्ट लोगों के खिलाफ लंबित मुकदमें एक साल के भीतर निपटाने का आदेश दिया था। दूसरे फैसले में उसने कानून के उस प्रावधान को निरस्त कर दिया था जो दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों को अपील लंबित रहने के दौरान विधायिका का सदस्य बनाए रखता है। अब चूंकि केंद्र सरकार ने दागी जनप्रतिनिधियों के मामले की सुनवाई के लिए विशेष अदालत के गठन को हरी झंडी दिखा दी है ऐसे में राजनीति के शुद्धीकरण की उम्मीद बढ़ गई है।
अगर दोषी नेताओं पर कानून का शिकंजा कसता है तो फिर राजनीतिक दल तमाम मामलों में दोषी नेताओं को चुनावी मैदान में उतारने से परहेज करेंगे। उचित होगा कि केंद्र सरकार सर्वोच्च अदालत के सुझाव पर अमल करते हुए अति शीघ्र विशेष न्यायालयों का गठन करे ताकि दागी जनप्रतिनिधियों के मुकदमों का निपटारा हो सके।(दैनिक जागरण से आभार सहित )
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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