Thursday 7 December 2017

जर्मनी : अनिश्चितता के बावजूद भरोसा (अपूर्वा अग्रवाल )

इन दिनों जर्मनी के लगभग हर शहर में क्रिसमस मार्केट की धूम है। क्रिसमस मार्केट अमूमन भारत के शहरों,कस्बों में लगने वाले छोटे मेलों की तरह ही होता है। हर शाम यहां भी लोग खाते पीते और बातचीत करते हुए दुकानों पर नजर आ जाते हैं, लेकिन भारत के मुकाबले इनकी बातों में एक बड़ा अंतर नजर आता है। अंतर यही कि भारत की हर दुकान-चौपाल पर राजनीतिक चर्चाएं होती हैं जो यहां नदारद है। वह भी तब जब देश में चुनाव हुए दो महीने से भी अधिक का समय हो गया और सरकार के गठन पर अब तक कोई सहमति ही नहीं बन सकी है। जर्मनी में आम जनता से ज्यादा नेता परेशान हैं कि अब क्या होगा..। राष्ट्रपति पूरी ताकत लगा रहे हैं कि देश में दोबारा चुनाव जैसी स्थिति को टाला जा सके और जैसे तैसे सरकार बन जाए। राजनीतिक दल भी कई बार सहमति बनाने के लिए मिल चुके हैं, लेकिन गठबंधन को लेकर वार्ता सफल ही नहीं हो रही।
सवाल है कि अगर सरकार नहीं बनी तो क्या होगा? बहरहाल यह स्थिति जर्मनी में पहली बार पैदा हुई है। इस साल 24 सितंबर को हुए आम चुनाव में साफ हो गया था कि देश की अगली चांसलर एंजेला मर्केल ही होंगी। उनकी पार्टी सीडीयू (क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी) को चुनावों में बड़ा नुकसान तो हुआ, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं थी कि सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी सीएसयू अपनी सहोदर पार्टी सीएसयू (क्रिश्चियन सोशल यूनियन) और अन्य राजनीति दलों के साथ गठबंधन बना कर सत्ता पर काबिज होगी, लेकिन विवाद शुरू हुआ गठबंधन वार्ता से, जिन संभावित दलों की गठबंधन वार्ता में शामिल होकर सरकार बनाने की उम्मीद थी, उनकी आपसी असहमतियां ही अब तक खत्म नहीं हो पाई हैं।
चुनावों में पहले स्थान पर मर्केल की सीडीयू/सीएसयू थी, दूसरे स्थान पर पिछली सरकार में सीडीयू के साथ काम कर चुकी एसपीडी (सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी) थी। मगर एसपीडी ने चुनाव बाद फौरन साफ कर दिया था कि वह अब सीएसयू के साथ सरकार में शामिल नहीं होगी। तीसरे स्थान पर रही थी संसद में पहली बार पहुंचने वाली धुर दक्षिणपंथी पार्टी एएफडी(अल्टरनेटिव फॉर डॉयचलैंड)। एएफडी सरकार की शरणार्थी नीति का विरोध करती रही है। वहीं वामपंथी दल मजबूत विपक्ष की बात करता है। ऐसे में सीडीयू के सामने दो ही विकल्प थे, पर्यावरण मुद्दों के साथ चुनाव लड़ने वाली ग्रीन पार्टी और कारोबारियों की पार्टी माने जानी वाली एफडीपी (फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी)। एफडीपी इन चुनाव में चौथे स्थान पर थी, और ग्रीन पार्टी, वामपंथी दल डी लिंके के बाद छठे स्थान पर रही थी। ऐसा लगने लगा की चुनावों में मशहूर हुआ ‘जमैका गठबंधन’ ही यहां सरकार बनाएगा, लेकिन उम्मीदों से अलग और चौंकाते रहना ही राजनीति की खूबसूरती है। यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ। गठबंधन वार्ता में शामिल दलों मसलन सीडीयू/सीएसयू, एफडीपी और ग्रीन के बीच भयंकर असहमति सामने आई। एफडीपी को लगने लगा है कि गठबंधन में शामिल इन दलों के साथ तकरीबन 85 फीसद मुद्दों पर उसकी असहमति है। वहीं सीडीयू/सीएसयू को भी महसूस होने लगा कि उसके लिए भी बेहतर साङोदार एसडीपी है।
बहरहाल अगर गठबंधन वार्ता सफल नहीं होती तो देश में अल्पमत में सरकार बनाई जा सकती है। अगर ये भी सफल नहीं होता है तो देश में एक बार फिर चुनाव होंगे। जर्मनी के राष्ट्रपति फ्रांक वाल्टर श्टाइनमायर इसके पक्ष में नजर नहीं आते। कई मौकों पर वह कह चुके हैं कि देश में सरकार बनाना राजनीतिक दलों का काम है और वे इसे जनता पर नहीं थोप सकते। अगर गठबंधन वार्ता नाकाम रहती है तो नए चुनावों के लिए एक लंबी प्रक्रिया अपनानी होगी। जर्मन के संविधान के मुताबिक राष्ट्रपति, चांसलर पद के लिए मर्केल का नाम सामने रख संसदीय मत का सुझाव पेश करेंगे। अगर मर्केल इसमें जीतती हैं तो वह चांसलर नियुक्त होंगी, लेकिन अगर वह बहुमत पाने में असफल रहती हैं तो 14 दिन के भीतर दोबारा इसी मतदान प्रक्रिया से गुजरना होगा। अगर दोबारा भी वह बहुमत नहीं जुटा पाती हैं तो संसद में फिर मतदान होगा और सबसे अधिक मत पाने वाला उम्मीदवार जीत जाएगा।
अगर ऐसा नहीं होता है तो दूसरे विकल्प के तहत राष्ट्रपति संसद भंग कर सकते हैं, जिसके बाद 60 दिन के भीतर नए सिरे से चुनाव कराने होंगे। बहरहाल, देश को चुनावों में कोई पार्टी नहीं ढकेलना चाहती। राजनीतिक दलों को दो डर सता रहा है। पहला, पार्टियों को लग रहा है कि अगर चुनाव दोबारा होते हैं तो संभव है कि एएफडी को एक बार फिर फायदा हो जाए। दूसरा, चुनाव एक खर्चीली प्रक्रिया है। इसलिए कोई भी पार्टी खजाने पर पड़ने वाले इस बोझ की बदनामी अपने सिर नहीं लेना चाहती।
यूरोपीय संघ की भूमिका जर्मनी की सरकार पर बहुत कुछ निर्भर करती है। यूरोपीय संघ में जिन नए सुधारों की बात फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों करते हैं उसका रास्ता भी जर्मनी से होकर जाता है। मैक्रों और मर्केल की कई मुद्दों पर सहमति है, लेकिन अगर कोई और देश का चांसलर बनता है तो यूरोपीय संघ पर असर पड़ना लाजिमी है। जर्मनी में बेशक अब तक सरकार न बनी हो, लेकिन मौजूदा स्थिति लोकतंत्र की व्यापकता की कहानी बयां करती है। अच्छी बात यह है कि आज भी इन देशों में सरकार बनाने से पहले गठबंधन को लेकर वार्ता में मुद्दों को तरजीह दी जा रही है ताकि अगली सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर सके। कोई खींचतान न हो। इसलिए जिम्मेदारी लेने से पहले उस पर चर्चा करना बेहतर माना जा रहा है।
यह सियासी दलों की उन प्रतिबद्धताओं को भी दिखाता है जहां वह सरकार तो बनाना चाहते हैं, पर आपसी सहमति से। गठबंधन सरकार का दौर भारत में भी लंबे समय से जारी है, लेकिन इन प्रतिबद्धताओं की कमी साफ नजर आती है। मगर जर्मनी में सरकार बनाने की जल्दबाजी के बजाय धीरज रख दूसरे को आमंत्रित किया जाता है। इसलिए चाहे देश में नई सरकार न हो लोगों को भरोसा है कि अंत में सब ठीक होगा। सभी संस्थान अपना काम कर ही रहे हैं।(आभार सहित दैनिक जागरण )
(जर्मनी में रह रहीं लेखिका पत्रकार हैं)

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