Wednesday 20 December 2017

बांग्लादेश की मुश्किल राह (कुलदीप नैयर)


छियालीस साल के बाद भी बांग्लादेश की मुक्ति मेरी याददाश्त में पूरी तरह जीवंत है। मैं भारत का पहला पत्रकार था, जो मुक्ति के बाद ढाका उतरा। मैं पहले प्रेस क्लब गया, जहां मैंने भारत विरोधी टिप्पणियां सुनीं। मैंने एक स्वादिष्ट सेंकी हुई हिलसा का ऑर्डर किया तो पत्रकारों में से एक ने टिप्पणी की हिलसा अब कोलकाता में मिलता है, ढाका में नहीं। इसने मुङो वास्तव में आहत किया।
मैंने प्रेस क्लब में की गई टिप्पणी के बारे में बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान से शिकायत की। उन्होंने मेरी भावना को समझा और जब मैंने इस ओर ध्यान दिलाया कि मुक्ति वाहिनी के समर्थकों के साथ छह हजार भारतीय जवानों ने भी अपनी जान गंवाई तो शेख ने मेरी निराशा को हंसी में उड़ा दिया। उन्होंने कहा कि बंगाली उसे दिए गए एक गिलास पानी को भी नहीं भूलता। भारतीय जवानों ने जो जान दी है, उसे वह कैसे भूल सकता है? यही वह समय था जब सैयद मोहम्मद अली जिन्होंने बाद में डेली स्टार की स्थापना की, ने मुझे टेलीफोन किया और शिकायत की कि भारत पाकिस्तान की हार के बारे में लिख रहा है, लेकिन अपने देश को आजाद कराने के लिए बांग्लादेशियों ने जो साहस और बलिदान दिखाए हैं उसके बारे में एक भी शब्द नहीं। स्वदेश वापस आने के बाद मैंने दिल्ली स्थित प्रेस क्लब में पत्रकारों की एक मीटिंग बुलाई और सदस्यों को बताया कि बांग्लादेश कितना निराश है।
यह चूक क्यों हुई? मुक्ति संघर्ष में शामिल बंगाली पत्रकारों ने ढाका में बांग्लादेश का झंडा लहराने के साथ ही इस मुद्दे को छोड़ दिया। कई साल बाद मुङो पता चला कि भारत सरकार ने यह सुनिश्चित किया था कि मुक्ति के बाद कुछ नहीं किया जाए। वह इस बात से डरी थी कि भावनाएं फिर जिंदा न हो जाएं कि दोनों बंगाल एक हो जाएं। यही कारण था कि बांग्लादेश के नाम लेने को भी हतोत्साहित किया जाता था। बेशक बांग्लादेश को आजाद देखने का बंगाली पत्रकारों को मिशन पूरा हो गया था, लेकिन उन्हें मुक्ति संघर्ष के बाद खबरें देनी चाहिए थी कि किस तरह बांग्लादेशी लोगों ने अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया था और भारतीय सेना मुक्ति वाहिनी के साथ मिलकर लड़ी।
मुक्ति संघर्ष के दौरान डीपी धर, जो भारतीय कैबिनेट में बांग्लादेश मामलों को देखते थे, ने मेरी यह धारणा बनाई कि भारत अपनी पंचवर्षीय योजना को बांग्लादेश के विकास से जोड़ेगा, लेकिन यह नहीं हुआ और जाहिर है बांग्लादेश निराश हुआ। धर सिर्फ इसी में दिलचस्पी रखते थे कि अवामी लीग को सत्ता से बाहर करने के लिए तख्तापलट न हो। धर ने यह सुनिश्चित किया कि भारतीय सेना जल्द हट जाए। सेना वापस आ गई। जब तख्तापलट हो गया और टैंकों का इस्तेमाल हुआ तो नई दिल्ली को अफसोस हुआ कि इसने अपने निश्चय पर आगे काम नहीं किया। ये टैंक मिस्न से आए थे। इनका इस्तेमाल मुजीबुर रहमान को हटाने और उनके परिवार का सफाया करने के लिए किया गया। सिर्फ शेख हसीना बच गईं क्योंकि वह उस समय जर्मनी में थीं। इसके बाद की कहानी सभी को अच्छी तरह पता है।
एक बार बांग्लादेश आजाद हो गया तो नई दिल्ली ने ढाका से दूर रहने की कोशिश की क्योंकि वह पाकिस्तान से अपने रिश्ते सुधारना चाहता था, लेकिन रावलपिंडी पश्चिम पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान को अलग करने की बात कभी नहीं भूला और न ही उसने भारत को माफ किया। पाकिस्तान ने लंबे समय तक बांग्लादेश को मान्यता नहीं दी। भारत-पाकिस्तान विभाजन की रेखा खींचने वाले रेडक्लिफ ने मुङो बताया कि उन्हें पूरब में मामला तय करने में कोई कठिनाई नहीं हुई थी, लेकिन पश्चिम में काफी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। ढाका में आई विभिन्न सरकारों को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने पिछले 30 साल में विकास दर को छह प्रतिशत बनाए रखा है। इसके वस्त्र उद्योग का पूरी दुनिया में सम्मान किया जाता है। फिर भी गरीबी की समस्या का फायदा हसीना-विरोधी ताकतें उठा रही है। जिसमें पाकिस्तान समर्थक तथा कट्टरपंथी दोनों शामिल हैं।
खुद पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था अच्छी हालत में नहीं है, लेकिन वह बांग्लादेशियों को बता रहा है कि उस समय उनकी हालत बेहतर थी जब वे पाकिस्तान का हिस्सा थे। कुछ लोग इस प्रचार के प्रभाव में आ गए हैं। इसने भारत विरोध भावना को ही बढ़ाया है क्योंकि दिल्ली को शोषक के रूप में देखा जाता है।आर्थिक रूप से टिकाऊ बनने का बांग्लादेशियों का सपना आंशिक रूप से भी पूरा नहीं हो पाया है। शिक्षित बेरोजगारों का प्रतिशत 40 है और अच्छा नहीं कर पाने को लेकर देश में गहरी निराशा है, लेकिन इसके बदले संतोष की एक भावना है कि पाकिस्तान बांग्लादेश की तुलना में अधिक कठिनाइयों में है। मुङो यह जानकार हैरत हुई है कि अवामी लीग और खालिद जिया के नेतृत्व वाली बांग्लादेश नेशनलिस्ट के बीच की दुश्मनी के परिणामों से दिल्ली सिर्फ बचना चाहती है।
दो बेगमों, शेख हसीना तथा खालिद जिया के बीच चल रही लड़ाई का असर बांग्लादेश की तरक्की पर भी पड़ रहा है। सौभाग्य से प्रधानमंत्री शेख हसीना को नापसंद खालिदा जिया की अब ज्यादा गिनती नहीं है, खासकर उस समय से जब उन्होंने चुनाव का बहिष्कार करना शुरू किया। अब उनकी पार्टी बंटी हुई भी है और देश में बीएनपी तीसरे नंबर पर आ गई है। हालांकि वह इससे इन्कार करती हैं, खालिदा ने चुनावी फायदे के लिए मजहब का इस्तेमाल किया। दोनों कट्टरपंथी संगठन, जमायते-इस्लामी तथा इस्लामी ओकिया जोत उसके चुनाव सहयोगी हैं। मेरी पार्टी में अवामी लीग से ज्यादा मुक्ति योद्धा हैं, खालिदा ने मुझसे एक बार कहा, लेकिन, इसमें कोई शक नहीं कि उनके साथ मुक्ति-विरोधी ज्यादा आ रही है।
यह आमतौर पर माना जाता है कि अगर खालिदा सत्ता में आ गईं तो उग्रपंथी तथा पाकिस्तान समर्थक ताकतें आगे आएंगी। भारत के लिए यह बेहतर संभावना नहीं है, खासकर उस समय जब पाकिस्तान की आइएसआइ बांग्लादेश को भारत के पूर्वोत्तर में बखेड़ा खड़ा करने के एक जरिया के रूप में इस्तेमाल करती है। इससे बांग्लादेश की उदारवादी ताकतें भी आहत होंगी क्योंकि वे मुक्ति-विरोधी को नहीं चाहते।(DJ)
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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