Sunday 26 June 2016

गांधी की नैतिकता और चम्पारण सत्याग्रह (दीपंकर श्री ज्ञान)

हम समय के लिहाज से चम्पारण सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं। चम्पारण सत्याग्रह भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। इसने तत्कालीन भारतीय राजनीति की न सिर्फ दिशा बदली बल्कि आने वाले समय में जो स्वतंत्रता आन्दोलन का संघर्ष था, उसकी रूपरेखा भी खींच दी।गांधी ने पूरी दुनिया को सत्य-अहिंसा का पाठ पढ़ाया। सत्य-अहिंसा को गांधी ने अपने सनातन मूल्यों से लिया, जिसका प्रतिफलन संपूर्ण भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के संघर्ष के दौरान दिखाई पड़ता है। गांधी जी के व्यक्तित्व का हम दो स्वरूप देखते हैं। एक स्वतंत्रता संघर्ष के लिए रणनीतिकार के रूप में जिससे हमें राजनीतिक आजादी मिली। दूसरा स्वरूप था नैतिकतावादी गांधी का। दरअसल, उनकी सारी राजनीति नैतिकता के संबल पर टिकी थी। गांधी की नैतिकता सत्य-अहिंसा और आध्यात्मिकता पर आधारित थी। छोटी-छोटी घटनाओं में गांधी जी की नैतिक पराकाष्ठा का दर्शन होता है। गांधी के लिए नैतिकता सिर्फ दिखावे के लिए नहीं है। वह वरण करने की चीज है। गांधी जी का यह रूप संत-संन्यासियों सा दिखाई पड़ता है। गांधी की नैतिकता सिर्फ वाचिक नहीं थी। उनकी राजनीति और नैतिकता, दोनों अलग-अलग नहीं थीं। दोनों समानांतर चलती थीं। उन्होंने कई बार राजनीति से ज्यादा महत्व अपने नैतिक विचारों को दिया। चौरीचौरा हत्याकांड इसका बेहतर उदाहरण हो सकता है। इस मुद्दे पर गांधी जी की आलोचना आज भी होती है। 1917 के चम्पारण सत्याग्रह के दौरान महात्मा गांधी को नैतिक मूल्यों के प्रति आग्रह कई बार देखा जा सकता है।आज गांधी सत्य के पर्याय हैं। उनकी आलोचना करने वाले भी उनकी सत्यनिष्ठा पर कभी सवाल नहीं कर सकते। गांधी के विरोधियों का भी उन पर अटल विास था। बिल्कुल सामान्य सी दिखने वाली बात में भी गांधी कैसे अपने मूल्यों से नहीं डिगते थे, यह काबिलेगौर है कि गांधी जी को भी चम्पारण में नीलवरों के खिलाफ जांच का सदस्य बनाया गया था। जांच से संबंधित रिपोर्ट अंग्रेजों द्वारा गांधी जी के पास भेजी गई। गांधी के सहयोगी ने उस रिपोर्ट को पढ़ लिया और इससे संबंधित बातें कुछ लोगों को जाहिर कर दीं। गांधी जी को इस बात की जानकारी हुई और वे बहुत बिगड़े। उन्होंने कहा अंग्रेजी सरकार ने सत्यनिष्ठा और विास पर हमें यह रिपोर्ट भेजी है। इस रिपोर्ट को पढ़कर इसे दूसरों पर जाहिर करना विासघात होगा। गांधी के लिए यह सिर्फ एक रिपोर्ट नहीं थी। यह विरोधी के भरोसे की बात थी, जिसे तोड़ना उनके लिए अपराध था। यहां गांधी की नैतिकता ही उनके आचरण को शुद्धि देती है। एक दूसरी घटना का उदाहरण भी उनके नैतिक बल को दिखाता है। हुआ यूं कि चम्पारण के जिला कलक्टर के स्टेनोग्राफर ने जांच रिपोर्ट की एक कॉपी चोरी से अनुग्रह नारायण सिंह के पास भेजी। अनुग्रह नारायण सिंह ने स्वयं उस रिपोर्ट को पढ़कर अपने साथियों को पढ़ने के लिए दिया। सबने तय किया कि यह जरूरी कागजात है, जो विरोधियों से मुकाबला करने यानी जवाब तैयार करने में हमारी मदद करेगा। खुशी से भाव-विह्वल सहयोगी रिपोर्ट लेकर गांधी जी के पास पहुंचे। रिपोर्ट कैसे मिली गांधी जी ने पूछा और बिना पढ़े उस रिपोर्ट को लौटा दिया। असत्य के साधन द्वारा सफल साध्य के प्राप्ति की कल्पना गांधी जी नहीं कर सकते थे।गांधी जी को उनका नैतिक बल भय मुक्त बनाता था। उन्होंने किसी भी तरह के अनैतिक अवलंब को स्वीकार नहीं किया। अपने और सहयोगियों के सामर्य पर उन्होंने भरोसा किया। चम्पारण में सहयोग के लिए सीएफ एन्ड्रूज को भी तार देकर बुलाया गया। अंग्रेज सहयोगी को अपने बीच पाकर सहयोगियों ने बड़ी राहत की सांस ली। आखिर, मुकाबला अंग्रेजों से जो था। स्थानीय प्रशासन द्वारा गांधी पर से मुकदमा उठा लिया गया। एंड्रूज साहब का फिजी जाने का कार्यक्रम निर्धारित था। वहां के सहयोगी एंड्रूज को अभी रोकना चाहते थे। विनती लेकर सभी लोग गांधी जी के पास पहुंचे। गांधी जी एंड्रूज साहब को रोकने के पीछे की मंशा भांप गए और कहा, ‘‘एक अंग्रेज रहेगा तो तुम लोग उसकी ओट में काम करोगे, इसकी वजह से कुछ मुरौवत मिलेगी ही।’ अब तो गांधीजी भय की कमजोरी को दूर कर ही देना चाहते थे। एंड्रूज साहब फिजी जरूर जाएंगे। यहां गांधी अपने सहयोगियों के मन से अंग्रेजी साम्राज्य का भय निकालना चाहते थे, वैसा ही उन्होंने किया भी। दूसरी तरफ गांधी को चम्पारण के किसानों के मन से साम्राज्य का भय दूर करना था। चम्पारण के भोले-भाले किसान थे। अंग्रेजों के लाल टोपी वाले सिर्फ एक सिपाही को देखकर पूरा का पूरा गांव छिप जाया करता था। लोगों में आतंक का भय था। दरअसल, किसानों के लिए अंग्रेजी सत्ता का पर्याय था लाल टोपीवाला अंग्रेज सिपाही। जाने-माने वकील धरणीधर बाबू भी नील किसानों का बयान ले रहे थे। अंग्रेजी सरकार का दारोगा वहां आ पहुंचा। धरणीधर बाबू के पास खड़ा हो गया। धरणीधर बाबू किसानों के मन में भय ना हो इसके ख्याल से जगह बदल दी। वह दारोगा वहां भी आ पहुंचा। तीसरी बार जगह बदलने पर भी नहीं माना तो धरणीधर बाबू ने उसे डांटा। दारोगा शिकायत लेकर गांधी जी के पास पहुंचा। गांधी जी आए और कहा, ‘‘जब उतने किसानों के बैठने से आपको काई हर्ज नहीं तो सिर्फ एक और आदमी के आ जाने से क्यों घबराते हैं? इस बेचारे को किसानों के साथ क्यों नहीं बैठने देते।’ गांधी जी द्वारा दारोगा का इस तरह सामान्यीकरण कर देने से किसानों के मन पर गहरा साकारात्मक प्रभाव पड़ा। किसानों के मन से अंग्रेजों का भय जाता रहा। गांधी जानते थे कि अहिंसक लड़ाई में लोगों का निर्भय होना आवश्यक है। पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी जी ने अहिंसा की मजबूत शक्ति का पाठ पढ़ाया और लोग अभय होकर लाखों की संख्या में घर से निकल पड़े थे। इसकी शुरुआत चम्पारण सत्याग्रह से हो चुकी थी। दरअसल, गांधी जी ने संपूर्ण स्वाधीनता आंदोलन में जनमानस को लड़ाई लड़ने के लिए तैयार किया। स्वाधीनता आंदोलन अहिंसक था। इसलिए सबसे पहले गांधी जी ने लोगों को अहिंसा की शक्ति से परिचय कराया। इसके लिए यह और जरूरी था कि लोगों के मन से भय की मुक्ति हो। यही गांधी का आत्मबल भी था।अनुशासनप्रिय गांधी का हृदय बहुत कोमल था। गांधी एक तरफ पिता की तरह कठोर दिखते हैं, तो दूसरी तरफ माता की तरह भावुक। मां के समान उनमें भावनाएं थीं। यह चम्पारण सत्याग्रह के दौरान ही दिखाई पड़ता है। एंड्रूज साहब को चम्पारण से जाना था। सुबह के समय एंड्रूज साहब के भोजन की थाली में उबले आलू और कच्ची-पक्की रोटी थी, जिसे वे बड़े चाव से खा रहे थे। गांधी जी स्नान करके बाहर निकले ही थे कि उनकी नजर भोजन की थाली पर पड़ी। गांधी जी बहुत बिगड़े। वे खुद रसोईघर में जाकर रोटी बेलने लगे और रोटी को अच्छी तरह सेंक कर एंड्रूज साहब की थाली में डालते रहे, वे खाते रहे। यह घटना गांधी के इस पक्ष को रूपायित करने के लिए काफी है। चम्पारण सत्याग्रह को आज हम सिर्फ इसलिए याद न करें कि यह भारत में गांधी का पहला सत्याग्रह था, और इस घटना को सौ वर्ष पूरा होने जा रहे हैं। हमें गांधी के सत्य, अहिंसक, मानवीय और कोमल रूप को याद करने की जरूरत है। गांधी के इस रूप की पूरी मानवीयता की जरूरत है। आज गांधी में इस रूप की ज्यादा जरूरत है, जिसके आधार पर उन्होंने भारत को स्वाधीनता दिलाई। उनके नैतिकता को जानने-समझने की आवश्यकता है।(RS)

Saturday 25 June 2016

ब्रिटेन का बड़ा फैसला (मनीषा प्रियम)

ब्रिटेन के यूरोपीय संघ (ईयू) से नाता तोड़ने के मामले पर हुए जनमत संग्रह के नतीजे को देखते हुए यह तो स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि ब्रिटेन के निवासियों ने मामूली ही सही लेकिन बहुमत से यह स्वीकारा है कि वे बदलाव चाहते हैं। यूरोपीय संघ के भूगोल में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह सबसे बड़ा भूचाल माना जा सकता है। दो दशक से भी ज्यादा समय से यूरोपीय देशों के बीच साझा कारोबार और एक से दूसरे देश में बिना किसी रोकटोक के आना-जाना अब पुरानी बात हो जाएगी। इसका मतलब है कि यूरोप के अन्य राष्ट्रों के लोग नौकरी की तलाश में स्वतंत्र रूप से ब्रिटेन नहीं जा पाएंगे और इसी तरह ब्रिटेन के लोग स्वतंत्र रूप से यूरोप के दूसरे राष्ट्रों में नहीं जा पाएंगे। कहीं न कहीं इस पूरी अभिव्यक्ति में ब्रिटेन की यह मंशा स्पष्ट दिखाई देती है कि उस राष्ट्र का बहुमत अब ब्रिटेन की सीमाओं को संरक्षण में देखना चाहता है। ब्रिटेन के लोग खुली हुई सीमा को बंद कराना चाहते हैं और रोमानिया, स्पेन आदि ईयू के अन्य राष्ट्रों (जहां आर्थिक खुशहाली ब्रिटेन की तरह नहीं है) के लोगों को अपने दायरे में निर्बाध नहीं आने देना चाहते हैं। ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर होने से ब्रिटेन के दूसरे देशों से राजनीतिक समीकरण पूरी तरह से बदलेंगे और उसे एक बार फिर से दुनिया के दूसरे देशों से नए समझौते करने पड़ेंगे, जो आसान नहीं है। इस फैसले ने ब्रिटेन के लोगों में उभर रही राष्ट्रवाद की भावना को दर्शाया है। इससे जाहिर होता है कि यूरोप के देशों में संघवाद की भावना कमजोर पड़ रही है। जब-जब राष्ट्रवाद की भावना मजबूत हुई है तब-तब संघवाद ढीला पड़ा है। 1यूरोपीय देश इन दिनों आर्थिक मुद्दों से ज्यादा राजनीतिक मुद्दों को तरजीह देने लगे हैं। ब्रिटेन ने यूरोप के दूसरे देशों को रास्ता दिखा दिया है। यूरोप के अन्य देश राजनीतिक कारणों से ब्रिटेन का अनुसरण कर यूरोपीय संघ से बाहर जाने की मांग कर सकते हैं। ऐसे में यह संघ कमजोर राष्ट्रों का समूह रह जाएगा। ऐसा भी हो सकता है कि एक यूरोप का सपना ज्यादा दिनों तक न चले।1ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने का असर भारत सहित सभी दक्षिण एशियाई देशों पर पड़ेगा। भारतीय अर्थव्यवस्था यूरोपीय संघ से गहराई से जुड़ी हुई है। ब्रिटेन के साथ भी इसके मजबूत संबंध हैं। यही वजह है कि जनमत संग्रह के नतीजे आने के तुरंत बाद भारत की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव दिखाई देने लगा। शेयर बाजार में भारी गिरावट हुई। डॉलर और पाउंड के मुकाबले रुपया गिर गया। इससे साफ है कि आने वाले दिनों में डॉलर की मांग बढ़ जाएगी। लिहाजा निवेश भी अमेरिका का रुख करेगा। तेल की कीमतों पर भी असर देखने को मिलेगा, हालांकि उसमें कमी की संभावना है। आइटी सेक्टर का बड़ा नुकसान हो सकता है, क्योंकि उसकी बड़ी कमाई का हिस्सा ब्रिटेन से आता है। एक तरह से ब्रिटेन भारत के लिए यूरोप का प्रवेश द्वार है। ब्रिटेन में रहकर भारतीय कंपनियां यूरोप के दूसरे देशों में अपना कारोबार करती थीं। अब उन्हें सभी देशों से अलग-अलग नए करार करने होंगे। यह कठिन कार्य है। वहां भारतीय कंपनियों के लिए टैक्स फ्री सरीखी सुविधाएं थीं। अब यदि टैक्स लगता है तो उन्हें नुकसान होगा। कुल मिलाकर ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर जाने से अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ना तय है। विश्व अर्थव्यवस्था का हिस्सा होने के कारण भारत की अर्थव्यवस्था इसकी मार से बच नहीं पाएगी। इस जनमत संग्रह के नतीजे का दूसरा महत्वपूर्ण आयाम यह है कि प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने त्यागपत्र देने का ऐलान किया है। उन्होंने ब्रिटेन के यूरोपीय संघ में बने रहने के पक्ष में जोर-शोर से आवाज उठाई थी। वहीं उनके विरोधी खेमे के सबसे बड़े नेता लंदन के पूर्व मेयर बोरिस जॉनसन और यूनाइटेड किंगडम इंडिपेंडेंस पार्टी के नेता निक फराज का मानना था कि अब ब्रिटेन को ईयू से बाहर आ जाना चाहिए। हालांकि कैमरन कुछ समय तक प्रधानमंत्री बने रहेंगे, लेकिन अब उनके दल को नया प्रधानमंत्री चुनना होगा, जो लोगों के फैसले पर अमल की रूपरेखा बनाएगा। 1ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से निकलने के फैसले के बाद वहां की अर्थव्यवस्था में होने वाले परिवर्तन दिखाई देने में अभी कुछ समय लगेगा, लेकिन यह गौर करने लायक है कि नतीजे आने के कुछ ही मिनटों के अंदर ब्रिटिश पाउंड नौ फीसद गिर गया। यही हाल दुनिया के तमाम शेयर बाजारों का भी रहा। यानी आशंका के माहौल में दुनियाभर के शीर्ष बाजारों में गिरावट का ही रुख बना रहा। आर्थिक क्षेत्र के कई विशेषज्ञों का मानना रहा है कि ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर जाने से यूरोप के दूसरे देशों की कंपनियां और उससे संबंधित नौकरियां भी ब्रिटेन से बाहर चली जाएंगी। इसका सीधा मतलब है कि आने वाले दिनों में ब्रिटेन में नौकरियों में बड़े पैमाने पर कटौती देखने को मिलेगी। इसके सामाजिक दुष्परिणाम भी सामने आएंगे। यह समझना कठिन है कि दुनिया में आर्थिक उथलपुथल और मंदी के दौर में ब्रिटेन के लोगों ने ऐसा फैसला क्यों लिया जिससे आने वाले दिनों में उनकी नौकरियों पर खतरा मंडराने लगे? जाहिर है, ब्रिटेन के इस फैसले की सबसे ज्यादा मार वहां के लोगों को ही ङोलनी पड़ेगी। 1इस नतीजे के बाद ब्रिटेन का उद्योग जगत भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह जाएगा। अब देखना है कि ब्रिटेन का उद्योग जगत किस तरह आगे अंतरराष्ट्रीय व्यापार करता है। ब्रिटेन को निर्यात में जर्मनी आगे है। अब जर्मनी की मध्यम और छोटी इकाइयों के मालिक भयभीत हैं कि ब्रिटेन के अलग होने से उनका क्या होगा? वहीं ब्रिटेन अपने उत्पादों में से 17 फीसद अमेरिका को निर्यात करता है। अब तक यह निर्यात ईयू के नियमों के आधार पर किया जाता रहा है। ईयू से निकलने के बाद ब्रिटेन को विश्व व्यापार संगठन द्वारा स्थापित व्यापार के नियमों का पालन करना पड़ सकता है। यह ब्रिटेन के लिए घाटे का सौदा साबित होगा। इससे ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को कई नई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे में फिर वही सवाल दोहराया जा रहा है कि सब कुछ जानते हुए भी ब्रिटेन के लोगों ने ऐसा फैसला क्यों लिया? अर्थशास्त्रियों का मानना है कि ब्रिटेन शायद ईयू को मानने वाली संधि के अनुच्छेद-50 का हवाला दे और यह कोशिश करे कि ईयू में नहीं रहने के बाद भी वह अपना कामकाज ईयू के इकोनॉमिक एसोसिएशन के नियमों के तहत कर सके, लेकिन यह सब भविष्य के गर्भ में है। ब्रिटेन को अब यूरोपीय संघ से अलग होने के नतीजों, खासकर आर्थिक परिणामों को ङोलने के लिए तैयार रहना चाहिए। 1(लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में रिसर्च स्कॉलर रहीं लेखिका आर्थिक-राजनीतिक मामलों की विशेषज्ञ हैं)(DJ)

एकजुट यूरोप का सपना भंग करता ब्रिटेन (वेदप्रताप वैदिक) भारतीयविदेश नीति परिषद के अध्यक्ष

ब्रिटेन अब यूरोपीय संघ से अलग हो गया है। यह फैसला तो यूरोपीय संघ के 28 सदस्य-राष्ट्रों ने किया है और ही ब्रिटेन की सरकार ने। यह फैसला किया है, ब्रिटेन की जनता ने। 48 प्रतिशत मतदाता चाहते थे कि ब्रिटेन यूरोपीय संघ में बना रहे, लेकिन 52 प्रतिशत मतदाताओं ने उससे बाहर निकलने का समर्थन कर दिया। सिर्फ चार प्रतिशत मतदाताओं ने बाजी पलट दी। ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड केमरन ने पूरी ताकत झोंक दी, इसके बावजूद जनता ने यूरोपीय संघ छोड़ने का फैसला कर लिया। इसका नतीजा क्या हुआ? जैसे ही जनमत-संग्रह के परिणाम सामने आए, प्रधानमंत्री ने इस्तीफे की घोषणा कर दी। उनके विरोधी भी हिल गए। वे आग्रह कर रहे हैं कि प्रधानमंत्री पद पर बने रहें और यूरोपीय संघ को ब्रिटेन को बाहर निकालने की प्रक्रिया का संचालन करें, लेकिन स्वाभिमानी केमरन कह रहे हैं कि अब नई स्थिति को संभालने के लिए नया प्रधानमंत्री ही चुना जाना चाहिए।
इस जनमत-संग्रह का जबर्दस्त असर हुआ है। ब्रिटिश मुद्रा का जितना तगड़ा अवमूल्यन आज हुआ है, पिछले 31 साल में कभी नहीं हुआ। भारत का सेंसेक्स 1000 अंक नीचे ढह गया। कई अन्य देशों की मुद्राएं भी नीचे लुढ़क गई हैं। यूरोपीय संघ के बाकी 27 सदस्यों में भी उहा-पोह शुरू हो गई है। इटली, हॉलैंड, फ्रांस, डेनमार्क आदि देशों के तथाकथित राष्ट्रवादी तत्व मांग करने लगे हैं कि वे भी जनमत-संग्रह करवाएं और यूरोपीय संघ छोड़ें। पहले भी कुछ देशों ने यूरोपीय संघ की सदस्यता छोड़ी है, लेकिन वह छोड़ना छोटा-मोटा धक्का था। ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से निकलना भूकंप की तरह है। अब स्काॅटलैंड दुबारा जनमत-संग्रह की मांग करने लगा है। वह ब्रिटेन को छोड़कर यूरोपीय संघ में शामिल होना चाहता है। ब्रिटेन के निकलने ने यूरोपीय संघ की मूल अवधारणा पर भी प्रश्न-चिह्न लगा दिया है। इतना ही नहीं, दुनिया के अन्य महाद्वीपों में बने क्षेत्रीय संगठनों के भविष्य के बारे में भी शक पैदा होने लगा है।
जिन कारणों से ब्रिटेन अलग हो रहा है, उन्हीं कारणों से ऐसे क्षेत्रीय संगठनों से अन्य सबल राष्ट्रों को भी अलग होना पड़ सकता है। अभी तो हमारा दक्षेस (सार्क) लंगड़ा है। वह यूरोपीय संघ बनने से काफी दूर है, लेकिन उसमें भारत की स्थिति काफी मजबूत है। यूरोपीय संघ में जितनी ब्रिटेन की स्थिति है, उससे कहीं ज्यादा मजबूत। किंतु जैसे ब्रिटेन को यूरोपीय संघ छोड़ना पड़ रहा है, क्या भारत को भी दक्षेस छोड़ना पड़ सकता है? यह भयावह संभावना मुझे तभी से व्यथित कर रही है, जबसे ब्रिटिश जनमत-संग्रह की बात मैंने सुनी है। ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ आखिर क्यों छोड़ा, यह सवाल सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
यूरोपीय संघ की स्थापना 1957 में हुई थी और ब्रिटेन इसमें 1973 में शामिल हुआ। 16 साल तक वह शामिल क्यों नहीं हुआ? क्योंकि वह अपने आपको यूरोपीय नहीं मानता। उनसे अलग और ऊपर मानता रहा है। शामिल होने के बावजूद उसने 'यूरो' मुद्रा को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया। उसने पाउंड को ही अपनी मुद्रा बनाए रखा। इसी तरह अन्य सदस्य-राष्ट्रों की तरह शेन-जेन वीज़ा के आधार पर उसने अपने देश में मुक्त यात्रा की सुविधा नहीं दी। 1975 में भी मांग उठी थी कि ब्रिटेन यूरोपीय संघ छोड़े, लेकिन प्रधानमंत्री हेराल्ड विल्सन को जनमत-संग्रह में 67 प्रतिशत लोगों ने समर्थन दिया और ब्रिटेन यूरोपीय संघ में टिका रहा। किंतु अब केमरन के जमाने में 43 साल के अनुभव ने ब्रिटिश जनता का मोहभंग कर दिया। यूरोपीय संघ में पूर्वी यूरोप के लगभग दर्जन भर देश मिले। इन देशों का जीवन-स्तर पश्चिमी यूरोपीय देशों के मुकाबले बहुत नीचा था। संघ में मिलने वाली छूट का फायदा उठाकर लाखों पूर्वी यूरोपीय मजदूर ब्रिटेन में भरा गए। ब्रिटेन के अपने मजदूरों के रोजगार छिनने लगे, जीवन-स्तर गिरने लगा और अपराध बढ़ने लगे। आतंकियों को ब्रिटेन में डेरा जमाने की सुविधा मिल गई। यूरोपीय संघ के कानूनों को ब्रिटिश व्यापार, खेती, कारखानों और मछली-संग्रह आदि पर लागू करने पर ब्रिटेन को काफी नुकसान होने लगा था। ब्रिटेन इस संघ का दूसरा सबसे मालदार और शक्तिशाली देश है। वह सांस्कृतिक दृष्टि से अपने आप को सर्वश्रेष्ठ समझता है। यदि वह यूरोपीय संघ पर निर्भर रहा है तो यूरोपीय संघ भी उस पर निर्भर रहा है। उसका 4 प्रतिशत व्यापार संघ के साथ होता है। अभी-अभी दोनों का अलगाव ब्रिटेन के लिए काफी हानिकर होगा, ऐसा लगता है पर धीरे-धीरे स्थिति सामान्य होती जाएगी, क्योंकि सभी यूरोपीय देश ब्रिटेन के साथ अपनी द्विपक्षीय संबंधों की पुनर्परिभाषा में जुट जाएंगे। इसी स्थिति को ये देश यूरोपीय सपने का भंग होना मान रहे हैं।
क्या कभी भारत के साथ भी यही हो सकता है? क्यों नहीं? यूरोपीय संघ में तो ब्रिटेन की टक्कर के दो देश हैं- फ्रांस और जर्मनी, लेकिन भारत की टक्कर में कौन है? अकेला भारत दक्षेस के अन्य सातों देशों को मिला दें तो उनसे भी बड़ा है। पूरे दक्षिण एशिया में कहीं कुछ बवाल होता है, चाहे बांग्लादेश हो, म्यांमार हो, श्रीलंका हो, अफगानिस्तान हो, लाखों लोग जबर्दस्ती भारत में घुसे चले आते हैं। यदि यूरोपीय संघ की तरह दक्षेस-राष्ट्रों में वीज़ा हट जाएं, नौकरियां खुल जाएं, आवागमन मुक्त हो जाए तो यह भय तो है ही कि भारत करोड़ों शरणार्थियों से पट सकता है। ऐसे में भारत क्या करेगा, इस प्रश्न पर सोचने का मसाला हमें ब्रिटेन ने अभी से दे दिया है। शायद ऐसी नौबत आए, क्योंकि यूरोप के देशों में कच्चा माल नहीं है और उनकी जमीन भी छोटी है, जबकि दक्षिण एशिया और मध्य एशिया के राष्ट्रों के पास अथाह कच्चा माल है और उनके पास इतनी ज्यादा खाली जमीन पड़ी हुई है कि वहां वे लाखों नहीं, करोड़ों नए आगंतुकों को बसा सकते हैं और उन्हें रोजगार दे सकते हैं।
यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने का भारत पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस प्रश्न पर अभी तक गहरी पड़ताल नहीं हुई है। उसका कारण है। भारत का दोनों से ही अच्छा संबंध है। ब्रिटेन में लगभग 30 लाख भारतीय मूल के लोग रहते हैं। लाखों भारतीय वहां पर्यटक, छात्र, व्यापारी आदि के तौर पर जाते रहते हैं। यूरोप से ज्यादा। ब्रिटेन में भारत की 800 से ज्यादा कंपनियां सक्रिय हैं। यूरोप में जितनी हैं, उनसे कहीं ज्यादा। अंग्रेजी में काम करने पर उन्हें ज्यादा सुविधा होती है। अब उन्हें अपने दफ्तर शायद यूरोप में खोलने पड़े। यों भी ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से अलग होने में अभी कम से कम दो साल लगेंगे। इस अवधि में भारतीय हित-रक्षा का समुचित प्रबंध हो जाएगा। भारत को अभी थोड़ी और दूरंदेशी से काम लेना होगा। अभी तो सिर्फ ब्रिटेन टूटा है, कल इटली, फ्रांस और जर्मनी आदि देश भी अलग होने लगे तो भारत की नीति क्या होगी? यूरोपीय संघ के अध्यक्ष डोनल्ड टस्क की यह चेतावनी ध्यान देने लायक है कि 'ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से अलग होना, केवल यूरोपीय संघ के विसर्जन की शुरुआत हो सकता है बल्कि पश्चिमी सभ्यता के विनाश का प्रारंभ हो सकता है।' यह प्रतिक्रिया जरा भावुकताभरी है, लेकिन इसमें शक नहीं है कि रूस के ब्लादिमीर पुतिन से ज्यादा खुश आज कौन होगा?
(येलेखक के अपने विचार हैं।)(DB)

राजन का हिसाब-किताब (कपिल अग्रवाल )

देश के मीडिया और उद्योग जगत का एक वर्ग अयोग्य को योग्य और योग्य को अयोग्य सिद्ध करने की ताकत रखता है। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की बात हो या आगामी सितंबर माह में अपना कार्यकाल पूरा करने जा रहे भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन की-दोनों के ही मामलों में यह साफ नजर आता है। निरंतर दस साल तक राज करने के बावजूद मनमोहन सिंह न तो देश की अर्थव्यवस्था, महंगाई और बैंकों आदि की दशा सुधार पाए और न ही तीन साल में रघुराम राजन ने ऐसा कुछ करिश्मा किया कि उन्हें दूसरे कार्यकाल के लिए मनाया जाए। राजन यह जरूर कह रहे हैं कि बैंकों की खस्ताहालत के लिए उच्च ब्याज दरें नहीं, बल्कि खराब कर्जे यानी एनपीए जिम्मेदार है, पर यह स्वीकार नहीं करते कि इन पर लगाम कसने में वह खुद विफल रहे हैं। बैंकों की स्वच्छंदता पर अंकुश लगाने में भी वह असफल रहे हैं। मीडिया और उद्योग जगत के एक वर्ग में इनके कामकाज और योग्यता को नापने का पैमाना एक ही है कि शेयर बाजार चढ़ा या उतरा।
सवाल यह है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर की नियुक्ति शेयर बाजार को संभालने के लिए की जाती है या बैंकिंग व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए? मीडिया के एक वर्ग ने शेयर बाजार के आंकड़े तो खूब बढ़ा-चढ़ाकर दे दिए, पर यह नहीं बताया कि राजन के गवर्नर बनने के समय बैंकों की क्या स्थिति थी और अब छोड़ते वक्त क्या है। पूरे तीन साल मुद्रास्फीति और भारतीय मुद्रा की क्या हालत रही, इस पर भी किसी ने गौर करने की जरूरत नहीं महसूस की। वो तो भला हो कच्चे तेल की नरम कीमतों का, वरना क्या हालत होती बस कल्पना ही की जा सकती है। एक वर्ग ने यह प्रचार कर रखा है कि राजन की वजह से देश की अर्थव्यवस्था निरंतर तरक्की पर है, जीडीपी में सुधार है और निवेश प्रस्तावों की निरंतर बरसात हो रही है। वे बैंकों की अत्यंत दयनीय स्थिति, डूबते कर्जो, सरकारी कंपनियों की हालत, वास्तविक निवेश और मुद्रास्फीति आदि मुद्दों को गोल कर जाते हैं।
उद्योग जगत के फायदे के लिए नीतिगत ब्याज दरों में कटौती की परिपाटी दशकों से चली आ रही है, पर इससे न केवल आम जनता, बल्कि स्वयं सरकार और बैंकों को हर साल कई खरब रुपये का नुकसान ङोलना पड़ता है। दरअसल राजन के कामकाज से बैंकिंग जगत और वित्त मंत्रलय संतुष्ट नहीं थे, क्योंकि बैंकों की वास्तविक स्थिति को उजागर करने के पक्ष में राजन नहीं थे। भारतीय अर्थव्यवस्था तथा बैंकिग जगत और आइएमएफ के कामकाज, उद्देश्यों, लक्ष्यों आदि में जमीन आसमान का फर्क है। शायद इसीलिए राजन वह सब नहीं कर पाए, जिसके लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार के वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने उन्हें गवर्नर बनाया था। हकीकत में बैंकों की काली करतूतों का पर्दाफाश जनहित याचिकाओं और देश की सर्वोच्च अदालत के सख्त रुख के चलते हुआ है, न कि आरबीआइ गवर्नर की बदौलत। खुद रिजर्व बैंक ने अपनी लगातार दो सालाना रिपोर्टो में यह स्वीकार किया है कि बैंकों के डूबते कर्जे चिंताजनक स्थिति में पहुंच चुके हैं।
यह मान लेना ठीक नहीं है कि राजन के बिना भारतीय उद्योग जगत और रिजर्व बैंक नहीं चल पाएगा। बदहाल बैंकिंग जगत को इस समय एक ऐसे मुखिया की जरूरत है जो भारतीय परिवेश में ढला हो, भारतीय अर्थव्यवस्था का जानकार हो और बैंकिंग जगत से ही ताल्लुक रखता हो। सबसे बड़ी बात यह कि उसे शेयर बाजारों को चमकाने से ज्यादा रुचि बैंकिंग जगत का उद्धार करने में हो और वह भी बगैर सरकारी मदद के।1(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(DJ)

Friday 24 June 2016

अंतरिक्ष : इसरो ने रचा इतिहास (ओउम प्रकाश शर्मा)

बूधवार की सुबह जब भारतीय ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण वाहन यानी पोलर सैटेलाइट लॉंच व्हीकल यानी पीएसएलवी-सी34 ने विभिन्न देशों के 20 उपग्रहों को लेकर अपनी उड़ान भरी तो भारतीय अन्तरिक्ष विज्ञान के इतिहास में एक और अध्याय जुड़ गया। पीएसएलवी-सी34 द्वारा प्रक्षेपित किए गए 20 उपग्रहों में तीन भारतीय उपग्रह ‘‘कार्टोसैट’, ‘‘सत्यभामासैट’ और ‘‘स्वयं’ हैं; 13 अमेरिकी उपग्रह हैं; 2 उपग्रह कनाडा के हैं तथा एक-एक उपग्रह इंडोनेशिया और जर्मनी का है। पीएसएलवी-सी34 पर ले जाए गए सभी 20 उपग्रहों का वजन लगभग 1288 किलोग्राम है। पीएसएलवी दुनिया का सबसे अधिक भरोसेमंद प्रक्षेपण यान है और इसकी यह 36 वीं उड़ान थी। 320 टन वजन वाले पीएसएलवी-सी34 ने उड़ान भरने के 17 मिनट बाद 7.7 किलोमीटर की गति से 90 मिनट में पृवी का चक्कर लगाया और फिर इसने उपग्रहों को उनकी निर्धारित कक्षाओं में छोड़ना प्रारम्भ किया। सबसे पहले 727.5 किलोग्राम वजन वाले भारतीय उपग्रह ‘‘कार्टोसैट-2सी’ को 505 किलोमीटर पर स्थित पोलर सन सिंक्रोनस यानी सूर्य समकालिक कक्षा में स्थापित किया। ‘‘कार्टोसैट-2सी’ पृवी की निगरानी करने वाला भारतीय रेमोट सेन्सिंग सैटिलाइट है, जो सब-मीटर रिसॉल्यूशन में तस्वीरें खींच सकता है। इस उपग्रह में पेंक्रोमेटिक तथा मल्टीस्पेक्ट्रल कैमरे लगे हुए हैं, जिनकी मदद से ली गई तस्वीरें कार्टोग्राफिक उपयोग, शहरी व ग्रामीण उपयोग, तटीय भूमि उपयोग, तथा सड़क नेटवर्क प्रवंधन, जल वितरण एवं जमीन के इस्तेमाल की मैपिंग जैसे अनेक अनुप्रयोगों के लिए मददगार होंगी। उसके बाद अन्य उपग्रहों को उनकी पूर्व निर्धारित कक्षाओं में स्थापित किया। चेन्नई की सत्यभामा यूनिर्वसटिी का 1.5 किलोग्राम वजन वाला ‘‘सत्यभामासैट’ नामक उपग्रह ग्रीन हाउस गैसों से सम्बन्धित आंकड़े एकत्र करेगा, जबकि पुणो के कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों द्वारा तैयार किया गया ‘‘स्वयं’ उपग्रह हैम रेडियो कम्यूनिटी को संदेश भेजने का कार्य करेगा, जिससे सुदूर क्षेत्रों में भी पॉइंट-टू-पॉइंट कम्युनिकेशन हो सकता है। पीएसएलवी द्वारा ‘‘स्वयं’ को 515.3 किलोमीटर की ऊंचाई पर इसकी कक्षा में छोड़ा गया। यहां विद्यार्थियों द्वारा तैयार किए गए उपग्रह ‘‘स्वयं’ के बारे में कुछ और जानना उचित होगा। एक किलोग्राम वजन वाला घनाकार उपग्रह ‘‘स्वयं’ कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, पुणो के लगभग 170 विद्यार्थियों द्वारा 8 वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद तैयार किया गया है। इसकी खास बात यह है कि इसमें एक ऐसा पैसिव सिस्टम लगा हुआ है, जिसके कारण इसे स्टेबलाइज होने यानी संयत होने के लिए तथा पृवी के चुम्बकीय क्षेत्र की ओर मुड़ने के लिए किसी विद्युत ऊर्जा की आवश्यकता भी नहीं होती है। दरअसल, इसमें अपने आप को स्टेबलाइज करने के लिए दो हिस्टेरेसिस रॉड तथा एक चुंबक लगी हैं। विद्यार्थियों द्वारा बनाई गई इस विशेष युक्ति को इसरो ने भी सराहा है। दरअसल, ‘‘स्वयं’ का पैसिव एटिट्यूड कंट्रोल सिस्टम भारत में पहली बार इस्तेमाल किया गया है। इस उपग्रह का डिजाइन इस तरह किया गया है कि इसका जीवन काल एक वर्ष का होगा, जिसे जरूरत पड़ने पर दो वर्षो तक बढ़ाया भी जा सकता है। विद्यार्थियों द्वारा तैयार किए गए इस स्वदेशी उपग्रह की सफलता के बाद लगने लगा है कि अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान के लिए विद्यार्थियों की अहम भूमिका हो सकती है। पीएसएलवी-सी34 द्वारा प्रक्षेपित किए गए अमेरिका-निर्मिंत 13 छोटे उपग्रहों में गूगल की एक कंपनी टेरा बेला द्वारा बनाया गया पृवी की तस्वीरें खींचने वाला हाई-टेक उपग्रह स्काईसैट जेन-2 भी शामिल है। 110 किलोग्राम वजन वाला यह स्काईसैट जेन-2 सब-मीटर रिसॉल्यूशन की तस्वीरें खींचने तथा हाई-डेफिनिशन वीडियो बनाने में सक्षम है। एक ही बार में प्रक्षेपित किए गए 20 उपग्रहों में से प्रत्येक एक-दूसरे से बिल्कुल अलग और स्वतंत्र है। यह पहली बार है जब कि किसी भारतीय प्रक्षेपण यान द्वारा इतनी बड़ी संख्या में उपग्रह अंतरिक्ष में छोड़े गए हैं। इससे पहले वर्ष 2008 में 28 अप्रैल को इसरो ने पीएसएलवी के द्वारा एक साथ 10 उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेज कर एक विश्व रिकॉर्ड बनाया था, लेकिन इसके पांच वर्ष बाद वर्ष 2013 में अमेरिका ने मिनोटॉर-1 रॉकेट द्वारा एक साथ 29 उपग्रह भेजकर यह रिकॉर्ड तोड़ दिया। लेकिन अगले ही वर्ष रूस ने डीएनईपीआर रॉकेट द्वारा एक साथ 33 उपग्रह भेजकर एक साथ सबसे अधिक उपग्रह भेजकर यह रिकॉर्ड अपने नाम कर लिया। इस प्रक्षेपण की खास बात है मल्टी पॉइंट डिलीवरी यानी एक ही प्रक्षेपण यान द्वारा कई उपग्रहों को अलग-अलग ऊंचाई की अलग-अलग कक्षाओं में स्थापित करना। इससे पहले इसरो ने एक से अधिक उपग्रह तो छोड़े थे लेकिन वे लगभग एक ही ऊंचाई की कक्षाओं में थे। इसके अलावा, अन्य अंतरिक्ष एजेंसियों की तुलना में इसकी लागत भी 10 गुना तक कम है। यही नहीं, इसरो अब तक लगभग 20 अलग-अलग देशों के 57 उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित कर चुका है, और इस तरह भारत ने अब तक लगभग 10 करोड़ अमेरिकी डॉलर कमाए हैं। 2016 से 2017 तक इसरो का लक्ष्य 25 से ज्यादा उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजना है। उपग्रह प्रक्षेपण के लिए इसरो द्वारा तैयार की गई सस्ती और स्वदेशी तकनीक के कारण अभी भी लगभग 20 देश अपने उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए इसरो के संपर्क में हैं। ऐतिहासिक उपलब्धियों से यह बात तो स्पष्ट है कि भारतीय वैज्ञानिकों की क्षमता और प्रतिभा विश्व के किसी भी देश के वैज्ञानिकों से कम नहीं है। यही नहीं, जब भारतीय विद्यार्थी भी ‘‘सत्यभामासैट’ और ‘‘स्वयं’ जैसे हल्के एवं सस्ते उपग्रह तैयार कर सकते हैं, तो यदि उन्हें उचित साधन, सुविधाएं और मार्गदर्शन दिया जाए तो ये नन्हें वैज्ञानिक भी दुनिया में भारत का नाम रौशन करेंगे।(RS)

अर्थव्यवस्था का मजबूत आधार (अवधेश कुमार)

भारत की अर्थव्यवस्था को लेकर नरेंद्र मोदी सरकार जब यह कहती है कि हम दुनिया की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था हैं तो विरोधी कई आंकड़ों से उसे काटने की कोशिश करते हैं। कुछ अर्थशास्त्री भी इस पर प्रश्न उठा देते हैं। कुल मिलाकर इस समय देश में भारत की अर्थव्यवस्था को लेकर दो पक्ष है। एक पक्ष वाकई यह मानता है कि मोदी सरकार ने विरासत में मिली लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को संभाला है और यह इस समय दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं में सुस्ती के बावजूद गतिशीलता की पटरी पर है। नरेंद्र मोदी तो अपने यादातर भाषणों में यह चर्चा करते ही है कि भारत को हमने दुनिया की सबसे तीव्र गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था बना दिया है और इसकी चारों ओर प्रशंसा हो रही है। तो सच क्या है? क्या सरकार केवल दावा करती है और सच कुछ दूसरा है? या उसके दावे में सचाई है?
कुछ समय पहले अमेरिका में भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने यह कह दिया था कि हम अंधों में काना राजा जैसे हैं। यानी जब दुनिया की अर्थव्यवस्था संघर्ष कर रही है, तेज विकास के सारे यत्न विफल हो रहे हैं उसमें भारत की सामान्य विकास दर सबसे तेज बन गई है। इसकी व्याख्या हम अपने तरीके से कर सकते हैं। किंतु इसमें भी यह सचाई तो है कि भारत की अर्थव्यवस्था वाकई वर्तमान दुनिया में सबसे तेज गति से दौड़ लगा रही है। भले वह उतनी तेज न हो जितनी की होनी चाहिए, लेकिन है। हमारे सामने आंकड़ें भी इसे सत्यापित करने के लिए उपस्थित है। अब इसमें कोई दो राय नहीं कि देश की विकास दर 2015-16 में 7.6 प्रतिशत रही है। 2015-16 वर्ष की जो आखिरी तिमाही थी उसमें विकास दर 7.9 प्रतिशत रही। इसका अर्थ यह हुआ कि 2016-17 में विकास दर 2015-16 के मुकाबले ज्यादा तेज होगा। अंतिम तिमाही की तीव्रता का तो यही संकेत है। ध्यान रखिए कि वित्त वर्ष 2014-15 में विकास दर 7.2 प्रतिशत रही थी। तो यह सतत वृद्धि या तीव्र गति को दर्शाता है। 2015-16 की तीसरी तिमाही में विकास दर 7.2 प्रतिशत ही थी।
ध्यान रखिए यह आर्थिक गति अनुमान से ज्यादा है। वर्तमान विकास दर की वृद्वि में विनिर्माण, ऊर्जा और खनन क्षेत्र की सबसे बड़ी भूमिका रही। विनिर्माण क्षेत्र में विकास दर 9.3 प्रतिशत रही। हालांकि इसका अनुमान 9.5 प्रतिशत का लगाया गया था जिसे स्पर्श नहीं किया जा सका किंतु यदि संप्रग सरकार में विनिर्माण के पीछे भागने की दशा को देखें तो यह विकास दर वाकई संतुष्ट करता है। खनन क्षेत्र में विकास दर 7.4 प्रतिशत रही। यह अनुमान से यादा है। खनन क्षेत्र का विकास दर 6.9 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया था। विनिर्माण वाली बात समग्र औद्योगिक विकास के संदर्भ में भी कही जा सकती है जो वित्त वर्ष 2016 में 2.4 प्रतिशत रहा है। अप्रैल में देश के 8 प्रमुख उद्योगों (कोर इंडस्ट्री) में उत्पादन 8.5 प्रतिशत बढ़ा है। ध्यान रखिए मार्च में इसकी वृद्वि दर केवल 6.4 प्रतिशत रही थी। हम जानते हैं कि तमाम उद्योगों में प्रमुख उद्योगों की हिस्सेदारी करीब 38 प्रतिशत है। इसमें इस तरह की वृद्वि और बेहतर औद्योगिक विकास की निश्चयात्मक उम्मीद पैदा करती है। कृषि, फिशिंग सेक्टर में 1.2 प्रतिशत की विकास रही है।
दुनिया में सबसे तेजी से विकास करने वाले देश के रुप में चीन को माना जाता था। लेकिन भारत की विकास दर के इन आंकड़ों में चीन हमसे पिछड़ गया है और यह एक बड़ी उपलब्धि है। 2015-16 की चौथी तिमाही के दौरान चीन की विकास दर 6.7 प्रतिशत रही। यह पिछले 7 साल में सबसे कम विकास दर है। चीन की विकास दर कैलेंडर वर्ष 2015 की आखिरी तिमाही में भी 6.8 प्रतिशत ही दर्ज की गई थी, जो 2009 के बाद सबसे कम है। दुनिया भारत की तुलना चीन से ही करती है। दोनों देशों को दुनिया के विकास का ईंजन माना जाने लगा है। उसमें यदि हमने चीन से बेहतर प्रदर्शन किया है तो फिर सरकार के दावों को गलत साबित करना उचित नहीं है। इस समय तक ऐसी कोई नकारात्मक पहलू सामने नहीं है जिनके आधार पर हम यह कह सकें कि आगे विकास दर नीचे आ सकता है। इसके उलट आगे मांग भी बढ़ने की संभावना है। ऐसे में इस बात की गुंजाइश बढ़ रही है कि जल्द निजी क्षेत्र के कैपेक्स यानी बाजार पूंजीकरण में रिकवरी आएगी। दरअसल, तीसरी तिमाही से कृषि क्षेत्र का सकारात्मक असर पड़ेगा। लगातार दो साल सूखे के बाद इस बार अछे मॉनसून की भविष्यवाणी की बदौलत कृषि क्षेत्र अच्छा प्रदर्शन कर सकता है। निरंतर दो वर्ष तक सूखा पड़ने के कारण कृषि वृद्धि वित्त वर्ष 2015-16 में 1.2 प्रतिशत रही जबकि 2014-15 में कृषि उत्पाद 0.25 प्रतिशत घटा था। कृषि के अच्छा प्रदर्शन का मतलब है गांवों के लोगों की क्रय शक्ति में वृद्धि। उनकी जेब में धन आने का मतलब है बाजार मे उद्योग और सेवा, दोनों में मांग तेज होना। जब मांग तेज होगी तो फिर आर्थिक विकास की गति और तेज होगी।
विकास का असर देश की कुल अर्थव्यवस्था तथा प्रति व्यक्ति आय पर पड़ता है। तो यह देखें कि प्रति व्यक्ति आय में भारत की क्या स्थिति है? क्या इसमें बढ़ोतरी हुई है? वास्तव में जिस दौरान के आंकड़े हम दे रहे हैं उस दौरान वास्तविक प्रति व्यक्ति आय भी 6.2 प्रतिशत बढ़कर 77,435 रुपये हो गई। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा राष्ट्रीय आय पर जारी आंकड़े के अनुसार 2015-16 में देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 113.50 लाख करोड़ रुपये रहा, जो एक साल पहले यानी 2014-15 में 105.52 लाख करोड़ रुपये था। यानी कुल अर्थव्यवस्था में भी करीब 8 लाख करोड़ रुपये की बढ़ोतरी हुई है। अगर विकास ही नहीं होता तो यह बढ़ोतरी कहां से होती? प्रति व्यक्ति आय कहां से बढ़ता? भारतीय रिजर्व बैंक के संदर्भ मूल्य 67.20 रुपये प्रति डॉलर के मुताबिक, कुल अर्थव्यवस्था का मूल्य 1,690 अरब डॉलर है। जब सारे आंकड़े सरकार के दावों की पुष्टि ही कर रहे हैं तो फिर उस पर प्रश्न उठाने का कोई मतलब नहीं है। हमें उस पर विश्वास करना ही चाहिए।
फिक्की ने हाल में जो सर्वेक्षण प्रकाशित किया है उसके अनुसार 2016-17 में कृषि क्षेत्र की औसत विकास दर 2.8 प्रतिशत रहने की उम्मीद है। इसके अनुसार यह न्यूनतम 1.6 प्रतिशत और अधिकतम 3.5 प्रतिशत रह सकती है। इस दौरान औद्योगिक विकास दर 7.1 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है। सेवा क्षेत्र की विकास दर को 9.6 प्रतिशत रहने के अनुमान लगाए गए हैं। यह सर्वे अप्रैल/मई 2016 के दौरान किया गया, जिसमें उद्योग, बैंकिंग और वित्तीय सेवा के अर्थशास्त्रियों को शामिल किया गया। इन्हें 2016-17 के साथ पहली तिमाही और बीते वित्त वर्ष की चौथी तिमाही के प्रमुख मैक्रो-इकोनॉमिक वैरिएबल के लिए अनुमान जाहिर करने को कहा गया था। फिक्की के अलावा क्रेडिट सुइस ने भी भारतीय अर्थव्यवस्था पर रिपोर्ट जारी की है। स्विट्जरलैंड की इस प्रमुख वित्तीय कंपनी ने उम्मीद जताई है कि चालू वित्त वर्ष में भारत की आर्थिक विकास दर 7.8 प्रतिशत रहेगी। यह विकास दर भारत सरकार के अनुमान के आसपास ही है। सुइस का मानना है कि कृषि और निजी उपभोग में सुधार की संभावना के चलते ऐसा होगा। यानी लोगों की खरीद शक्ति बढ़ेगी और वो यादा उपभोग करेंगे जिससे मांग बढ़ेगी और इसके साथ हर क्षेत्र का उत्पादन।
क्रेडिट सुइस इस प्रकार का अनुमान लगाने वाला अकेला नहीं है। ज्यादातर रेटिंग एजेंसियों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं का आकलन ऐसा ही है। हम यह तो नहीं कह सकते कि मोदी सरकार ने सारी संस्थाओं को प्रभावित कर लिया है ताकि वे भारत के बेहतर आर्थिक विकास दर की भविष्यवाणी कर सकें। सिंगापुर के पूर्व प्रधानमंत्री गोह चोक टोंग ने हाल के एक बयान में कहा है कि वैश्विक सुस्ती की चिंताओं के बीच भारत एक आशा की किरण है। गोह चोक टोंग का सम्मान दुनिया भर में है। उन्होंने कहा है कि भारत में अगले 10 साल तक वैश्विक अर्थव्यवस्था की गाड़ी को आगे खींचने की क्षमता मौजूद है। भारत इस समय उसी स्थिति में है जहां चीन 10 साल पहले था। तो दुनिया हमें इस समय चीन के स्थान पर मान रही है। इसमें नकारत्मकता खोजने की बजाय पूरे देश को एकजुट होकर विकास का हाथ बनने की कोशिश करनी चाहिए। (DJ)

प्रशासनिक सुधार का वक्त (हृदयनारायण दीक्षित)

विचार पर्याप्त नहीं होता। उनका क्रियान्वयन ही परिणामदायी होता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बातूनी कहने वाले लोग निराश हो रहे हैं। प्रधानमंत्री जो कह रहे हैं वही करके भी दिखा रहे हैं। मोदी सरकार ने आर्थिक सुधारों के काम में नई छलांग लगाई है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए तमाम नियमों और शर्तो में ढील देने का संदेश सारी दुनिया में गया है। इस फैसले से सरकार ने आर्थिक सुधारों की प्रतिबद्धता भी व्यक्त की है। ऊंची विकास दर के बावजूद सरकार का यह कदम प्रशंसनीय है, लेकिन प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सहित सरकार की सभी नीतियों और संकल्पों का क्रियान्वयन प्रशासन तंत्र को ही करना है। प्रशासन तंत्र ही लोक कल्याणकारी कामों का लाभ आमजनों तक ले जाता है। मोदी ने बेशक प्रशासन तंत्र को सक्रिय किया है। कामटालू प्रशासनिक लत भी घटी है, पर प्रशासन तंत्र की प्रकृति और प्रवृत्ति में मूलभूत बदलाव नहीं आया है। प्रधानमंत्री नीति और निर्णयों में तेज रफ्तार गतिशील हैं। वह सारी कार्यसंस्कृति बदल रहे हैं। बावजूद इसके प्रशासन तंत्र की गति ढीली है। राज्यों का प्रशासन केंद्र के निर्णयों और कार्यक्रमों के प्रति उदासीन रुख अपना रहा है। सभी सुधारों का अंतिम उपकरण प्रशासन तंत्र है। सो आर्थिक सुधारों के साथ प्रशासनिक सुधारों की भी फौरी आवश्यकता है। 
निष्ठावान और कार्यकुशल प्रशासन आधुनिक भारत की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। हमारे संविधान तंत्र में सरकारें जवाबदेह हैं और जनप्रतिनिधि भी, लेकिन प्रशासन तंत्र की कोई जवाबदेही नहीं। प्रशासन तंत्र की ढिलाई और भ्रष्टाचार का खामियाजा निर्वाचित सरकारों को भुगतना पड़ता है। प्रशासन तंत्र संवेदनहीन और निष्क्रिय है और सरकारें सक्रिय। भारतीय प्रशासन का इतिहास पुराना है। यहां के प्राचीन प्रशासन की प्रशंसा फाह्यान ने भी शासन प्रबंध सुव्यवस्थित, उदार और सौम्य बताकर की है। मौर्यकाल (340 ईसा पूर्व) में भी सुगठित राष्ट्रनिष्ठ शासन तंत्र था। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में प्रशासन तंत्र का खूबसूरत विवरण है। सिंधुघाटी सभ्यता (2200 ईसा पूर्व से 1750 ईसा पूर्व तक) के प्रशासन को ह्वीलर और पिगाट जैसे विद्वानों ने भी सुगठित बताया है। अंग्रेजी शासकों ने अपने साम्राज्य को मजबूत करने का प्रशासन तंत्र बनाया था। अंग्रेज सरकारों ने भी समय-समय पर प्रशासनिक सुधारांे के लिए कई आयोग बनाए थे। प्रशासन ही सत्ता चलाने का उपकरण था। स्वतंत्र भारत में लंबे समय तक सत्ता में रही कांग्रेस ने प्रशासनिक सुधारों पर कोई ठोस काम नहीं किया। 1संविधान की उद्देशिका और नीति निदेशक तत्व सरकार और प्रशासन तंत्र के मार्गदर्शी हैं। वे सुस्थापित विधि नहीं, बल्कि सरकार और प्रशासन के कामकाज की आत्मा है। प्रशासन तंत्र इन सूत्रों से नहीं जुड़ता। स्वतंत्र भारत (1951) में प्रशासन की कार्यशैली पर एनडी गोरेवाला की रिपोर्ट ‘लोक प्रशासन पर प्रतिवेदन’ नाम से आई। रिपोर्ट के अनुसार कोई भी लोकतंत्र स्पष्ट, कुशल और निष्पक्ष प्रशासन के अभाव में सफल नियोजन नहीं कर सकता। इस रिपोर्ट में अनेक उपयोगी सुझाव थे, लेकिन क्रियान्वयन नहीं हुआ। 1952 में केंद्र ने प्रशासनिक सुधारों पर विचार करने के लिए पाल एपिलबी की नियुक्ति की। उन्होंने ‘भारत में लोक प्रशासन सर्वेक्षण का प्रतिवेदन’ प्रस्तुत किया। रिपोर्ट में अनेक महत्वपूर्ण सुझाव थे, लेकिन जड़ता नहीं टूटी। स्वाधीनता के 19 बरस बाद पहला प्रशासनिक सुधार आयोग (1966) बना। मोरारजी देसाई अध्यक्ष थे, वह मंत्री हो गए। आयोग ने हनुमंतैया की अध्यक्षता में काम बढ़ाया। आयोग का पहला प्रतिवेदन नागरिकों की व्यथा दूर करने की समस्या शीर्षक से 20 अक्टूबर 1966 में आया। प्रशासन बनाम आमजन की व्यथा से पूरा देश पीड़ित है, लेकिन इस महत्वपूर्ण बिंदु की उपेक्षा हुई। आयोग ने केंद्रीय प्रशासन और राज्य प्रशासन पर अलग-अलग सुझाव दिए। रिपोर्ट में आर्थिक नियोजन को आर्थिक प्रशासन के रूप में पहचानने के भी उल्लेख थे। 
प्रशासन का रूप रंग और कार्य व्यवहार जस का तस बना रहा। पहले प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट (1970) के 35 साल बाद सितंबर 2005 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग बना। इस आयोग ने भी केंद्रीय प्रशासन के ढांचे के साथ राज्य प्रशासन और जिला प्रशासन को सक्षम बनाने की भी महत्वपूर्ण संस्तुतियां कीं। आयोग की सिफारिशों के अंत में कहा गया था, सरकार के दृष्टिकोण में आवंटन आधारित विकास कार्यक्रमों से पात्रता आधारित विकास कार्यक्रमों की ओर अंतरण हुआ है। सभी क्षेत्रों में विकास पर जोर है। केंद्रीय बजट बढ़ा है। इस सबके कारण संस्थागत प्रशासनिक और वित्तीय प्रबंधन का सुदृढ़ीकरण जरूरी है। यहां विकास के कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए प्रशासनिक प्रबंधन पर जोर है, लेकिन असली दिक्कत दूसरी है। सभी कार्यक्रमों को अंतिम परिणति तक पहुंचाने वाले प्रशासन तंत्र की वरीयता परिणाम देना नहीं, अपितु अपनी सेवा सुरक्षा है।1संविधान विशेषज्ञ मंत्रिपरिषद को अस्थाई और प्रशासन को स्थाई सरकार कहते हैं। यह उचित भी है। सरकारें दंगा-फसाद नहीं चाहतीं, लेकिन वास्तविक क्रियान्वयन की शक्ति प्रशासन में निहित है। सरकारें पेयजल की समस्या पर बजट देती हैं। हैंडपंप या अन्य व्यवस्था प्रशासन के हाथ में है। उप्र सरकार के अंतिम बजट के दौरान पहले बजट का बड़ा भाग खर्च नहीं हुआ। प्रशासन तंत्र चाहता तो खर्च हो जाता। योजनाएं बनती हैं, क्रियान्वित नहीं होतीं। उत्तरदायित्व किसका? प्रधानमंत्री ने रोजगार की तमाम योजनाएं घोषित कीं, लेकिन तमाम बैंक अधिकारियों ने बेरोजगारों को टाल दिया। कई राज्यों में प्रशासन का भयावह राजनीतिकरण हुआ है।
प्रधानमंत्री विलक्षण स्वप्नद्रष्टा हैं। केंद्र की नीति और नीयत की प्रशंसा हो रही है। नीति और नीयत को क्रियान्वित करने वाले मुख्य उपकरण प्रशासन की जड़ता और यथास्थितिवादी चरित्र में बदलाव का भी यही सही समय है। प्रशासन को नए आर्थिक सुधारों के क्रियान्वयन का सक्रिय उपकरण बनाना ही होगा। इसी तरह समाज कल्याण से जुड़ी योजनाओं, कृषि, स्वरोजगार और गरीबी से संघर्ष के काम में ढिलाई करने वाले प्रशासन तंत्र की मनोदशा में बदलाव जरूरी हो गया है। भारत की चुनौतियां सर्वथा नई हैं। नई चुनौतियों के बरक्स प्रशासन के सामने भी चुनौतियों का नया स्वरूप आया है। इसलिए भारत को अब तीसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की आवश्यकता है। प्रशासनिक सुधारों के अभाव में इच्छित लक्ष्य प्राप्त करना बहुत कठिन हो गया है।(DJ)

अंतरिक्ष में इसरो की पताका (शुकदेव प्रसाद)

आखिरकार इंतजार पूरा हुआ और हमारे ध्रुवीय रॉकेट मिशन (पीएसएलवी-सी-34) ने श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से सफल उड़ान भरी और इसी के साथ उसने एक साथ 20 उपग्रहों का सफल प्रक्षेपण करके एक अभिनव रिकॉर्ड बना दिया। उपग्रहों के इस बेड़े में तीन स्वदेशी और 17 विदेशी उपग्रह थे। इससे पूर्व भी इसरो ऐसा चमत्कार कर चुका है जब हमारे ध्रुवीय रॉकेट (पीएसएलवी-सी 9) ने 28 अप्रैल, 2008 को एक साथ 10 उपग्रहों को ध्रुवीय कक्षा में सफल प्रक्षेपण किया था। ऐसा कहा जाता है कि रूस ने कभी 13 उपग्रहों का एक साथ सफल प्रक्षेपण किया था, लेकिन इसके बारे में इसरो के तत्कालीन अध्यक्ष जी. माधवन नायर की टिप्पणी थी कि हमें जानकारी नहीं है कि अंत में इसका क्या परिणाम रहा? इस प्रक्षेपण में सबसे प्रमुख भारतीय उपग्रह ‘काटरेसैट-2सी’ है। ध्रुवीय रॉकेट ने ‘काटरेसैट-2सी’ के साथ इस सफल प्रक्षेपण में अन्य 19 उपग्रहों को 514 किलोमीटर की ऊंचाई वाली ध्रुवीय कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया। सभी उपग्रहों का कुल भार 1288 किलोग्राम है। इन उपग्रहों में इंडोनेशिया का एक उपग्रह (लापान-ए 3), कनाडा के दो उपग्रह (एम3 एम सैट, जीएचजीसैट-डी), जर्मन उपग्रह बीरोस, अमेरिका के 13 उपग्रहों (स्काई सैट जेन 2-1 और 12 डोव उपग्रह) के साथ दो भारतीय मिनी उपग्रह ‘सत्यभामा’ और ‘स्वयं’ भी हैं जिन्हें सत्यभामा विश्वविद्यालय, चेन्नई और कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग पुणो के छात्रों ने बनाया है जो मात्र डेढ़ और एक किलोग्राम वजनी हैं। इसरो पहले भी कई मौकों पर भारतीय विद्यार्थियों को प्रोत्साहित कर चुका है। कदाचित वे कल इसरो की टोली के अभिन्न अंग बन जाएं और हमारे सपनों में रंग भर सकें। ध्रुवीय रॉकेट की यह उड़ान उस अमेरिका के लिए एक सबक है जिसने कभी अपनी सीनेट से एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें कहा गया था कि अमेरिका कभी भी भारत भूमि से अपने उपग्रहों का प्रक्षेपण नहीं करेगा। मगर वक्त का मिजाज तो देखिए वही अमेरिका इसरो के सामने नतमस्तक है। वैसे भी इससे पहले भी हम अमेरिका का दर्प दमन करके उसे सबक सिखा चुके हैं जब उसने 2015 में चार समरूप ‘लीमर’ नैनो उपग्रहों का इसरो द्वारा प्रक्षेपण कराया था। यह अमेरिकी इतिहास की पहली घटना थी। 1ध्रुवीय रॉकेट (मिशन पीएसएलवी-सी30) ने 28 सितंबर, 2015 को भारतीय उपग्रह एस्ट्रोसैट के साथ ही कनाडा के एक उपग्रह इंडोनेशिया के एक उपग्रह के साथ ही चार अमेरिकी नैनो उपग्रहों का सफल प्रक्षेपण किया था। रही बात काटरेसैट-2सी की तो इसका प्रक्षेपण वक्त का तकाजा था, क्योंकि पिछले तीन वर्षो में हमने किसी भू-प्रेक्षण उपग्रह का प्रक्षेपण नहीं किया था। वे उपग्रह अब अवसान की ओर अग्रसर हैं, क्योंकि इनकी कार्यकारी अवधि मात्र पांच वर्ष की होती है। काटरेसैट श्रृंखला का पहला उपग्रह ‘काटरेसैट-1’ ध्रुवीय रॉकेट (मिशन पीएसएलवी-सी6) से छोड़ा गया था। आगे चलकर 10 जनवरी, 2007 को पीएसएलवी-सी9 ने ‘काटरेसैट-2’ का सफल प्रक्षेपण किया जो सही अर्थो में भारत का दूसरा सैन्य उपग्रह था। भारत का पहला सैन्य जासूसी उपग्रह ‘टेस’ (टेक्नोलॉजी एक्सपेरिमेंट सैटेलाइट) था जिसे ध्रुवीय रॉकेट ने 22 अक्टूबर, 2001 (पीएसएलवी-सी 3) ने लांच किया था। ‘काटरेसैट-2’ के पैन कैमरे 70 वर्ग सेंटीमीटर दायरे की तस्वीर लेने में सक्षम थे जिससे न सिर्फ सीमा पार, अपितु पड़ोसी मुल्कों के संपूर्ण भू-भाग और समुद्री इलाकों में चल रही सैन्य गतिविधियों की सटीक जानकारी हमें मिल रही थी। इसकी कार्यकारी पांच वर्षीय अवधि समाप्त हो चुकी है। इस क्रम में ‘काटरेसैट-2ए’ का प्रक्षेपण 28 अप्रैल, 2008 को, ‘काटरेसैट-2बी’ का प्रक्षेपण 12 जुलाई, 2010 को सकुशल संपन्न हुआ। ‘काटरेसैट-2सी’ का सफल प्रक्षेपण संपन्न हुआ। ‘काटरेसैट-2सी’ की विशिष्टता यह है कि इसमें जो पैन (पैनक्रोमेटिक कैमरे) लगे हैं उनकी क्षमता 70 वर्ग सेंटीमीटर से बढ़ाकर 60 वर्ग सेंटीमीटर कर दी गई है। इसका तात्पर्य यह है कि उपग्रह 60 वर्ग सेंटीमीटर के दायरे की भारत भूमि की चप्पे-चप्पे पर अपनी पैनी नजर रख सकता है। यह अपने आप में एक महती उपलब्धि है जिससे सशस्त्र बलों की सैन्य क्षमता में और इजाफा होगा। यूं तो हम इसे काटरेसैट (नक्शा नवीशी) कहते हैं, लेकिन यह भारत का सैन्य जासूसी उपग्रह है।1अब हमारी ध्रुवीय रॉकेट की प्रौद्योगिकी परिपक्व हो चुकी है और इसकी विश्वसनीयता ही वह आधार है कि दूसरे राष्ट्र भी हमसे प्रक्षेपण कराते हैं। इतनी सस्ती लांचिंग कॉस्ट में कोई भी स्पेस एजेंसी ऐसा साहस कर ही नहीं सकती। दरअसल यही इसरो का कमाल है। अब इसरो अपने आप में एक महाशक्ति देश वाली संस्था बन गया है। उसकी रॉकेट प्रणाली दुनिया भर में अद्वितीय है। इसरो ने 1963 में जो सफर शुरू किया था उसमें कई मील के पत्थर गाड़े हैं। हालांकि अभी हमारी जीएसएलवी रॉकेट प्रणाली पूरी तरह परिपक्व नहीं हुई है, लेकिन यह इसरो के तकनीकविदो का कमाल है कि हमारा ध्रुवीय रॉकेट जो मात्र नौ सौ किमी तक जा सकता है उसी की मदद से हमने अपना चंद्रयान भी भेजा और मगंलयान भी। मंगलयान का अभियान जितना अपनी सटीकता के लिए चर्चा में रहा उतना ही मितव्ययिता के लिए भी। इसरो हाल में अपना एक रिकवरी कैपसूल भी भेज चुका है। इसे 12 दिनों तक अंतरिक्ष में रखने के बाद सकुशल बंगाल की खाड़ी में उतार लिया गया था। यह स्पेस शटल बनाने करे दिशा में पहला प्रयास था। 1(लेखक विज्ञान मामलों के जानकार हैं)(DJ)

कृत्रिम बुद्धि के खतरे (मुकुल व्यास )

आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआइ) अथवा कृत्रिम बुद्धि को लेकर पिछले कुछ समय से तीखी बहस चल रही है। कुछ लोग इसके उज्ज्वल पक्ष को रेखांकित कर रहे हैं, जबकि कुछ अन्य लोग इसके अनियंत्रित होने की आशंका व्यक्त कर रहे हैं। बिल गेट्स ने पिछले दिनों अमेरिका में कोड कांफ्रेंस के दौरान कहा कि एआइ के क्षेत्र में अब तक हुई प्रगति को देख कर लगता है कि अगले दस वर्षो में ड्राइविंग और माल गोदामों के संचालन और रखरखाव का कार्य रोबोट करेंगे। हमें एक ऐसा सॉफ्टवेयर मिल सकता है जो हमारे रोजमर्रा के ई-मेल और अन्य पत्रचार का ध्यान रखेगा। गूगल, फेसबुक और एपल ने एआइ की दिशा में काम भी शुरू कर दिया है। हालांकि लोगों में बुद्धिमान मशीनों को लेकर भय भी बढ़ रहा है। एक नए सर्वे से पता चलता है कि तीन में से एक आदमी को लगता है कि अगली सदी में एआइ कंप्यूटिंग की ताकत बढ़ने से मानवता के समक्ष गंभीर खतरा उत्पन्न हो सकता है। करीब 60 प्रतिशत लोगों का मानना है कि अगले 10 वर्षो में रोबोट के हावी होने के बाद बहुत कम नौकरियां बचेंगी, जबकि 27 प्रतिशत का मानना है कि इससे नौकरियों की संख्या में गिरावट आ जाएगी। प्रशासन और सर्विस सेक्टर के कर्मचारियों पर इसका सबसे बुरा असर पड़ेगा। जिन नौकरियों पर सबसे ज्यादा खतरा है उनमें एकाउंटेंट, कानूनी सहायक, अपांयर और रेफरी, वेटर और वेट्रेस तथा फैशन मॉडल शामिल हैं। इन सबके काम रोबोट अथवा स्वचालित मशीनों द्वारा छीने जा सकते हैं। 1 ब्रिटिश साइंस एसोसिएशन द्वारा कराए गए सर्वे के मुताबिक करीब एक-चौथाई लोग यह मानते हैं कि रोबोट अगले 11-20 वर्षो में रोजमर्रा की जिंदगी का अहम हिस्सा बन जाएंगे, जबकि 18 प्रतिशत लोग सोचते हैं कि ऐसा अगले दशक में ही हो जाएगा। सर्वे में शामिल आधे से ज्यादा लोगों ने रोबोट में भावनाएं डालने या उन्हें अलग व्यक्तित्व देने के विचार का विरोध किया। इसका अर्थ यह हुआ कि फिल्मों में दिखाए जाने वाले लोकप्रिय रोबोट वास्तविक जिंदगी में अलोकप्रिय हो सकते हैं।1जानेमाने वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग पहले ही कृत्रिम बुद्धि से युक्त मशीनों के बारे में चिंता व्यक्त कर चुके हैं। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि ये मशीनें मनुष्य से पालतू जानवर जैसा व्यवहार करेंगी। हॉकिंग ने हाल ही में कहा कि यह लगभग निश्चित है कि अगले 1000 से 10000 वर्षो में एक तकनीकी विपदा मानव जाति के अस्तित्व के लिए खतरा बन जाएगी। इजरायली इतिहासकार और लेखक युवाल नोह हरारी ने एआइ के उदय का और भी भयावह चित्रण किया है। उन्होंने सितंबर में प्रकाशित होने वाले अपने नए उपन्यास होमो डियुस में मानवता के अंधकारमय भविष्य की चर्चा की है। हरारी के अनुसार रोबोट अपनी बढ़ती हुई क्षमताओं से मानव जाति का सफाया नहीं करेंगे, बल्कि उसे एक अनुपयुक्त और निर्रथक वर्ग में परिवर्तित कर देंगे। 1उन्होंने कहा कि एआइ ने कई क्षेत्रों में मनुष्य को पीछे छोड़ दिया है। यदि उसकी प्रगति जारी रही तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि हम उसकी बराबरी कर पाएंगे। आज के बच्चों को बड़े होने पर इसके दुष्परिणाम ङोलने पड़ सकते हैं। आज स्कूलों और कॉलेजों में जो पढ़ाया जा रहा है वह 40 -50 की उम्र में पहुंचने पर प्रासंगिक नहीं रहेगा। अमेरिकी कंप्यूटर वैज्ञानिक रोमन यमपोल्स्कीय और उद्यमी फेडरिको पिस्टोनो के मुताबिक एआइ से लैस रोबोट एक दिन धन, जल और जमीन जैसे संसाधनों, स्थानीय और केंद्रीय सरकारों तथा अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का नियंत्रण अपने हाथ में ले सकते हैं और अंतत: मानव जाति को अपना गुलाम बना सकते हैं। 1(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(DJ)

Wednesday 22 June 2016

सस्ती दवाओं की आस (भरत झुनझुनवाला )

बाजार में बिकने वाली कुछ दवाएं पेटेंटीकृत होती हैं। किसी कंपनी ने भारी खर्च करके इन दवाओं की खोज की है। पेटेंट कानून के अंतर्गत कंपनी को छूट होती है कि 20 वर्ष तक इन दवाओं को मनचाहे मूल्य पर बेचकर लाभ कमाए। रिसर्च में किए गए निवेश पर इस प्रकार लाभ कमाया जाता है। दूसरी दवाएं जेनरिक होती हैं। पेटेंट की 20 वर्ष की अवधि पूरी हो जाने के बाद किसी भी कंपनी को छूट होती है कि उस दवा का उत्पादन करे। वर्तमान में पेनसिलिन तथा पैरासिटामोल जैसी दवाएं इस वर्ग में आती हैं। इन दवाओं के उत्पादन में कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा होती है। अत: आशा की जाती है कि इनके दाम कम होंगे। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है, क्योंकि चुनिंदा कंपनियां इन दवाओं को अपने ब्रांड के नाम से बेचती हैं। जैसे पैरासिटामोल को एक कंपनी सेरिडान और दूसरी कंपनी क्रोसिन के नाम से बेचती है। अपने ब्रांड को बढ़ाने के लिए इन कंपनियों द्वारा भारी खर्च किए जाते हैं। एडवरटाइजमेंट के अतिरिक्त सेल्स रिप्रेजेंटेटिव नियुक्त किए जाते हैं। इनके माध्यम से डॉक्टरों को गिफ्ट, फ्री पर्यटन तथा अन्य प्रलोभन दिए जाते हैं। दुकानदारों के माध्यम से नगद कमीशन भी दिया जाता है। जैसे कोई दवा एक कंपनी द्वारा 100 रुपये में बेची जा रही है। दूसरी कंपनी इसे 500 रुपये में बेचती है। इस 500 रुपये में से 100 रुपये डॉक्टर को कमीशन दिया जाता है। अपने कमीशन के चक्कर में डॉक्टर 500 रुपये की महंगी इवा लिख देते हैं यद्यपि उसी क्वालिटी की दूसरी दवा 100 रुपये में उपलब्ध है। 1इस मुनाफाखोरी पर नियंत्रण करने के लिए सरकार विचार कर रही है कि निर्माता, डिस्ट्रीब्यूटर तथा विक्रेता के अधिकतम मार्जिन निर्धारित कर दे। जैसे यदि दवा बनाने में लागत 25 रुपये आती है तो निर्माता का मार्जिन 15 रुपये, डिस्ट्रीब्यूटर का मार्जिन 20 रुपये तथा विक्रेता का मार्जिन 40 रुपये अधिकतम निर्धारित कर दिया जाए। तब मरीज को दवा 100 रुपये में उपलब्ध हो जाएगी। डॉक्टर को कमीशन देकर दवा को 500 में नहीं बेचा जा सकेगा। सरकार के इस मंतव्य का स्वागत है।
इस प्रयास में खतरा नौकरशाही द्वारा शोषण का है। ड्रग इंस्पेक्टर को घूस खाने का एक और रास्ता मिल जाएगा। ईमानदार और जनहितकारी शासन उपलब्ध कराने के सरकार के संकल्प में बाधा आएगी। इस समस्या पर नियंत्रण के दूसरे रास्ते उपलब्ध हैं। एक रास्ता है कि जेनरिक दवाओं पर ब्रांड लगाने पर रोक लगाई जाए। जैसे पैरासिटामोल को अलग-अलग नाम से बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। डॉक्टरों को कानूनन आदेश दिया जाए कि मूल दवा पैरासिटामाल का नाम ही पर्चे पर लिखें। तब मरीज के ऊपर निर्भर करेगा कि वह किस निर्माता द्वारा बनाई गई दवा को खरीदना चाहता है। साथ-साथ विभिन्न निर्माताओं द्वारा बनाई गई दवाओं की गुणवत्ता की जांच कराई जाए और इनके परिणाम को स्वास्थ्य मंत्रलय की वेबसाइट पर डाला जाये। विक्रेता के लिए अनिवार्य बना दिया जाए कि इन जांच परिणामों को वह खरीददार को उपलब्ध कराए। ऐसा करने से खरीददार उस दवा को खरीदेगा जो अच्छी और सस्ती होगी। डॉक्टर को कमीशन देकर लिखाई गई महंगी दवा से उसे छुटकारा मिल जाएगा। ड्रग इंस्पेक्टर को घूस लेने का अतिरिक्त अवसर भी नहीं मिलेगा। पेटेंटीकृत दवाओं पर भी सरकार के हस्तक्षेप की जरूरत है। पेटेंट कानून में व्यवस्था है कि जनस्वास्थ्य की रक्षा के लिए अथवा किसी कंपनी द्वारा दवा को बहुत महंगा बेचने पर सरकार द्वारा पेटेंट की अनदेखी करते हुए उस दवा को दूसरे को बनाने देने का अनिवार्य लाइसेंस दिया जा सकता है। जाहिर है कि पेटेंट धारक कंपनी को स्वीकार नहीं होगा कि उसके पेटेंट को तोड़कर कंपलसरी लाइसेंस दिया जाए। जिस दवा को वह 500 रुपये में बेच रहा है उसी दवा को कंपलसरी लाइसेंस के अंतर्गत 100 रुपये में दूसरी कंपनी द्वारा बेचा जाएगा। यह पेटेंट धारक के लाभ कमाने के अवसर पर सीधी चोट है। आज दवाओं के अधिकतर पेटेंट विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास हैं। अत: कंपलसरी लाइसेंस देने से इन देशों की कंपनियां नाराज होती हैं।
इन कंपनियों के नाराज होने का सीधा दुष्प्रभाव भारत सरकार के मेक इन इंडिया प्रोग्राम पर पड़ता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में निवेश करने से विमुख होती हैं। लेकिन कंपलसरी लाइसेंस के आधार पर घरेलू कंपनी द्वारा उत्पादन बढ़ता है और घरेलू मेक इन इंडिया बढ़ता है। भारत सरकार के सामने संकट है। कंपलसरी लाइसेंस देने से जनता को सस्ती दवा मिलती है, परंतु विदेशी मेक इन इंडिया प्रभावित होता है। विदेशी कंपनियों के आने से भारत में उत्पन्न होने वाले रोजगार तथा तकनीकों के हस्तांतरण से देश वंचित होता है। दूसरी तरफ कंपलसरी लाइसेंस न देने से देश की जनता को महंगी दवा मिलती है, परंतु घरेलू मेक इन इंडिया को सफलता मिलती है। मेरा मानना है कि हाथ की एक चिड़िया मंडी में बैठी दो चिड़िया से उम्दा है। कंपलसरी लाइसेंस देने से जनता को सस्ती दवा और घरेलू मेक इन इंडिया में विस्तार सुनिश्चित है। तुलना में कंपलसरी लाइसेंस न देने से जनता को महंगी दवा खरीदना निश्चित है, जबकि बहुराष्ट्रीय मेक इन इंडिया अनिश्चित रहता है।
भारतीय जेनरिक दवा बनाने की कंपनियों पर आरोप है कि उनके द्वारा विकसित देशों में अनुचित दाम वसूले जा रहे हैं। कुछ दवाओं के दाम एक वर्ष के अंदर दस गुना हो गए हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, जापान तथा कोरिया में इस बात को लेकर उद्वेलन है। यहां समस्या विकसित देशों के कानूनों की है। उन देशों में दवा बेचने की प्रक्रिया बहुत जटिल है। भारतीय कंपनियों को उनके नियमों की शर्ते पूरा करने में बहुत खर्च उठाना पड़ता है। जिस प्रकार विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां रिसर्च में निवेश करके पेटेंट के माध्यम से ऊंचे दाम वसूलती हैं उसी प्रकार विकसित देशों के कानून के अनुपालन में निवेश करके भारतीय कंपनियां विकसित देशों में ऊंचे दाम वसूल कर रही हैं। इस समस्या का हल विकसित देशों के कानून का सरलीकरण है बिल्कुल उसी तरह जैसे पेटेंट कानून का सरलीकरण हमारे देश के लिए महंगी दवाओं का हल है। विकसित देशों में भारतीय जेनरिक दवाओं के विरोध से विचलित नहीं होना चाहिए और उन देशों पर कानूनों के सरलीकरण का दबाव बनाना चाहिए। 1(लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं और आइआइएम बेंगलूर में प्रोफेसर रह चुके हैं)(DJ)

परेशानी का सबब बनता एनपीए (प्रो. लल्लन प्रसाद)

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने दूसरा कार्यकाल लेने से मना कर दिया है। हाल के दिनों में भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी और उनके बीच विवाद बढ़ गया था। सुब्रमण्यम स्वामी ने सार्वजनिक रूप से उन्हें पद से हटाने की बात कही थी। राजन और स्वामी दोनों ही प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री हैं। राजन ने 2005 में 2008 के विश्वव्यापी मंदी की भविष्यवाणी की थी जो सच निकली। स्वामी की भूमिका 2जी घोटाले में संप्रग सरकार को कटघरे में लाने में अहम रही। राजन के समर्थकों का मानना है कि उन्होंने महंगाई पर लगाम लगाने के लिए }याज दर पर नियंत्रण रखा जिसमें वे सफल रहे। 2013 में जब उन्होंने पदभार संभाला था तब महंगाई चरम पर थी। भारतीय रुपये की कीमत भी तेजी से गिर रही थी जिसे उन्होंने रोका। विदेशी निवेशकों के मन में विश्वास पैदा किया, विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाया। दूसरी ओर राजन के विरोधियों का मानना है कि इस सफलता के पीछे मोदी सरकार की नीतियों और प्रशासनिक सुधारों की बड़ी भूमिका थी। रेपो रेट को लेकर राजन ने अड़ियल रुख अपनाया जो औद्योगिक विकास के रास्ते का रोड़ा बना रहा। बैंकों के एनपीए (दिया हुआ कर्ज, जिसके वापस आने की संभावना न के बराबर है) को लेकर उन्होंने बहुत समय लिया, अन्यथा स्थिति में सुधार आ सकती थी। मार्च 2017 तक बैंकों को अपने बैलेंस शीट साफ करने का निर्देश उन्होंने संप्रग सरकार के समय में क्यों नहीं दिया? स्थिति तो तब भी ऐसी ही थी। बहरहाल राजन का जाना तय होने पर नए गवर्नर की नियुक्ति को लेकर अटकलों का बाजार गर्म है। वहीं दूसरी ओर बढ़ते एनपीए का संकट जस का तस बना हुआ है।
सरकारी बैंक घाटे में जा रहे हैं, उनका एनपीए तेजी से बढ़ रहा है। वित्त वर्ष 2015-16 के अंत में कुल एनपीए 5.81 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया जो पिछले वर्ष 3.01 लाख करोड़ रुपये था। रिजर्व बैंक ने जबसे निर्देश दिया है कि मार्च 2017 तक सभी बैंक अपने बैलेंस सीट साफ करें और एनपीए समायोजित करके सही वित्तीय स्थिति दिखाएं तबसे अधिकांश सरकारी बैंक सकते में हैं। बैंकों का कहना है कि अधिकांश डिफाल्टर्स ने कर्ज देने में असमर्थता दिखाई है। लोहा और इस्पात, टेक्सटाइल, पावर और इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्रों में बैंकों का काफी धन फंसा है। इन उद्योगों की स्थिति कुछ दिनों से अछी नहीं रही। खेती की पैदावार सूखे के कारण देश के बड़े हिस्से में कम हुई और किसानों की आमदनी में भारी गिरावट आई। इसके साथ ही उत्पादित वस्तुओं की मांग में भी गिरावट आई और औद्योगिक उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ। निर्यात विश्व के बड़े हिस्से में मंदी के कारण गिरा हुआ है। कर्ज में डूबी कंपनियां पुनस्र्थापना के बावजूद आर्थिक मंदी के चलते कर्ज वापस करने में असमर्थता दिखाती रहीं। एनपीए का बड़ा हिस्सा वर्षो से चला आ रहा अदेय कर्ज है। समस्या पुरानी है और दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। एनपीए बढ़ते जाने से बैंकों की पूंजी खिसकती जा रही है। कर्ज देने की उनकी क्षमता गिरी है। सरकारी बैंकों की प्रबंध व्यवस्था, नेताओं और प्रशासन का हस्तक्षेप भी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है।
देश जब आजाद हुआ तब 1000 से अधिक कॉमर्शियल बैंक निजी क्षेत्र में कार्यरत थे, अधिकांश छोटे बैंक थे। इम्पीरियल बैंक जो सबसे बड़ा था उसे 1955 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में परिवर्तित कर दिया गया। 14 बड़े कॉमर्शियल बैंकों का राष्ट्रीयकरण जुलाई 1969 में हुआ। इंदिरा गांधी ने यह साहसपूर्ण कदम उठाया। वित्तमंत्री मोरारजी देसाई इसके पक्ष में नहीं थे। उन्होंने इस्तीफा दे दिया, सरकार से अलग हो गए। राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य था बैंकिंग व्यवस्था का लाभ गरीबों तक पहुंचाना, किसानों और छोटे उद्योगों के हितों को ध्यान में रखना, बड़े उद्योगपतियों और कंपनियों का एकाधिकार समाप्त करना एवं क्षेत्रीय विषमता दूर करना। राष्ट्रीयकरण का दूसरा दौर 1980 में शुरू हुआ। राष्ट्रीयकरण के बाद कुछ वर्षो तक बैंकिंग व्यवस्था का विकास तेजी से हुआ। बड़ी संख्या में नए ब्रांच खोले गए। सरकार ने बैंकों को निर्देश दिया कि 40 प्रतिशत कर्ज किसानों, ग्रामीण, लघु और मध्यम उद्योगों को दें, किंतु कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप, आधुनिकीकरण का अभाव और कमजोर प्रशासन के चलते बैंक राष्ट्रीयकरण के उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पाए। अधिकांश बैंकों की वित्तीय स्थिति बहुत अछी नहीं रही। लागत के अनुसार लाभ देने में सरकारी बैंक असमर्थ रहे।
एनपीए में लगातार वृद्धि से बैंकों की पूंजी का ह्रास होता रहा, जिसकी पूर्ति के लिए सरकारों ने समय-समय पर समितियां बनाईं और बैंकिंग व्यवस्था में स्थिरता के लिए सरकारी खजाने से धन उपल}ध कराए। एनपीए की वृद्धि का सिलसिला फिर भी रुका नहीं। 1998 में एनपीए बैंकों की संपत्ति का 16 प्रतिशत तक पहुंच चुका था। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सरकार ने नरसिम्हन कमेटी बैठाई। कमेटी का मत था कि एनपीए को 2002 तक तीन प्रतिशत तक लाने के प्रयास होने चाहिए और उसके बाद जीरो प्रतिशत। कमेटी के सुझाव पर पुन: बैंकों को भारी मात्र में पूंजी उपल}ध कराई गई। बैंकों की नाकामी करदाताओं को भुगतनी पड़ी। 1999 में सरकार ने वर्मा कमेटी बैठाई। कमेटी ने बैंकों की कार्यशैली में बदलाव, बैंकों द्वारा आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल और एक एआरएफ फंड (एस्टेट रीकंस्ट्रक्शन फंड) की स्थापना के सुझाव दिए। वित्तीय स्थिति में सुधार के लिए रीकैपिटलाइजेशन और कर्ज रिकवरी से संबंधित कानून में भी सुधार के सुझाव वर्मा कमेटी ने दिए। बढ़ते एनपीए के मद्देनजर सरकार बराबर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को अतिरिक्त पूजी उपल}ध कराती रही, बैंकिंग व्यवस्था को स्थिर रखने के लिए दूसरे विकल्पों पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया। स्थिति अब इतनी गंभीर हो चुकी है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को कहना पड़ा रहा है कि सरकारी बैंकों की सर्जरी की आवश्यकता है।
सरकारी बैंकों के बड़े कर्जदार निजी एवं सार्वजनिक कंपनियां हैं, जिनको 60 प्रतिशत से अधिक कर्ज जाता है जो कर्ज एनपीए हो गए हैं। किसानों, छोटे-मध्यम उद्योगों और समाज के पिछड़े लोगों को दिए गए कर्ज का एनपीए मात्र 34 प्रतिशत है। एनपीए के संकट से सरकारी बैंकों को उबारने के लिए मोदी सरकार ने भी कई कदम उठाए हैं। सितंबर 2015 में केंद्र सरकार ने 13955 करोड़ रुपये का प्रावधान किया। 2018-19 तक बैंकों की पूंजी बढ़ाने के लिए सरकार 70,000 करोड़ रुपये देगी, जिसमें से 25,000 करोड़ रुपये दिए जा चुके हैं। रिजर्व बैंक ने बैंकों को एनपीए की समस्या से राहत देने के लिए एक नई योजना पेश की है, जिसके अंतर्गत अदेय कर्ज को बैंक शेयरों में बदल सकते हैं। सरकारी बैंक स्वयं साधन जुटाने में अक्षम हैं, यही वजह है कि सरकार हर बार उनकी मदद के लिए आगे आती रही। बैंकों के राष्ट्रीयकरण की आधी शता}दी पूरी होने को है, यह सवाल मौजूं है कि सरकारी बैंक कब आत्मनिर्भर और व्यावसायिक वित्तीय संस्थान के रूप में काम करने योग्य होंगे?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के बिजनेस इकोनॉमिक्स विभाग के प्रमुख रहे हैं)(DJ)

Tuesday 21 June 2016

नाजुक मोड़ पर ब्रिटेन (हर्ष वी. पंत)

ग्रेट ब्रिटेन की विपक्षी लेबर पार्टी की संसद सदस्य जो कॉक्स की हत्या उनके संसदीय क्षेत्र उत्तरी इंग्लैंड में उस वक्त हुई है जब उसके यूरोपीय संघ (ईयू) में बने रहने या यूरोपीय संघ से हटने पर जनमत संग्रह होने में कुछ ही दिन बचे हैं। जांच करने वाले अधिकारियों ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि हमलावर हमले के दौरान ब्रिटेन फस्र्ट बोल रहा था। इस घटना से स्पष्ट है कि ब्रिटेन में जनमत संग्रह को लेकर तनाव चरम पर है और जैसे-जैसे इसकी तिथि (23 जून) नजदीक आ रही है इसमें इजाफा होता जा रहा है। ब्रिटेन इस समय उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है। प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने 2015 के आम चुनाव में जीत दर्ज करने के बाद जनमत संग्रह कराने का वादा किया था। दरअसल उनकी अपनी कंजरवेटिव पार्टी के सांसदों और यूके इंडिपेंडेंस पार्टी (यूकेआइपी) की ओर से इसकी मांग हो रही थी। उनका तर्क था कि 1975 में हुए जनमत संग्रह के बाद से वहां के हालात बहुत बदल गए हैं। परिणाम स्वरूप अब इसी सप्ताह ब्रिटेन के ईयू में रहने या बाहर निकलने पर जनमत संग्रह होना है। 1 ईयू 28 यूरोपियन देशों का एक समूह है, जिनमें आर्थिक और राजनीतिक संबंध हैं। इन देशों में आर्थिक सहयोग को गति देने के उद्देश्य से यह समूह वजूद में आया था। इसके पीछे विचार था कि यदि यूरोपीय देश आपस में तालमेल बना कर कारोबार को बढ़ावा दें तो एक-दूसरे से युद्ध से बचा जा सकता है। उसके बाद से इस दिशा में हुए समझौतों के उपरांत ईयू में शामिल देश एक बाजार में तब्दील हो गए। एक सदस्य देश के नागरिक या उत्पाद दूसरे सदस्य देश में बेरोकटोक कहीं भी आ जा सकते हैं। इसकी एक अपनी मुद्रा है, जिसका नाम यूरो है। अभी इस मुद्रा का प्रयोग ईयू के 19 सदस्य देश करते हैं। इसकी अपनी संसद है और यह पर्यावरण, परिवहन और उपभोक्ता अधिकार आदि तमाम विषयों पर नियम-कायदे तय करती है। ईयू में ब्रिटेन का एक अलग स्थान है। दरअसल ग्रेट ब्रिटेन की अपनी अलग मुद्रा और वीजा नियम हैं। हालांकि ईयू के साथ ब्रिटेन के संबंधों की शर्तो की लगातार चर्चा होती रही है। इस साल के आरंभ में ही कैमरन ने ईयू के दूसरे नेताओं से कहा था कि वे ब्रिटेन की सदस्यता से जुड़े नियमों को बदलें। कैमरन का कहना है कि यदि जनमत संग्रह के नतीजे ईयू में बने रहने के पक्ष में आते हैं तो वह 28 देशों के समूह में ब्रिटेन को विशेष दर्जा देने संबंधी समझौते और ब्रिटेन के लोगों को दिक्कत देने वाली नीतियों को बदलवाने में मदद करेंगे। जबकि उनके आलोचकों का कहना है कि इससे ब्रिटेन के लोगों का बहुत भला नहीं होने वाला है। 
यदि जनमत संग्रह के नतीजे ईयू से बाहर होने के पक्ष में आते हैं तो इससे ग्रेट ब्रिटेन और शेष यूरोप की अर्थव्यवस्था के सामने अनिश्चितता की स्थिति पैदा होगी। अब तक जो स्थिति नजर आ रही है उसमें ईयू से ब्रिटेन के बाहर निकलने की मांग कर रहे लोगों की संख्या तेजी से बढ़ी है। इससे न सिर्फ बाजार, बल्कि ब्रिटेन की राजनीति में भी परेशानी पैदा हुई है। हालांकि हाल के दिनों में ग्लोबल इकोनामी की तस्वीर कुछ सुधरी है और ब्रिटेन के औद्योगिक उत्पादन में भी कुछ बढ़ोतरी दर्ज की गई है, लेकिन ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को जनमत संग्रह के नतीजों से अभी खतरा है। बैंक ऑफ इंग्लैंड ने जनमत संग्रह के खतरों के प्रति आगाह किया है कि इससे ग्लोबल वित्तीय बाजार को सबसे बड़े तात्कालिक जोखिम का सामना करना पड़ रहा है। ब्रिटिश ट्रेजरी ने दावा किया है कि यदि ब्रिटेन ईयू से बाहर जाता है तो यह देश फिर मंदी के दौर में फंस जाएगा। वहीं ब्रिटिश चांसलर जॉर्ज ओसबर्न ने कहा है कि खतरों से निपटने के लिए ब्रिटेन को एक आपातकालीन बजट रखना होगा। उन्होंने उन कदमों की सूची भी गिना दी है जिन्हें तत्काल उठाना होगा जैसे कि आयकर में बढ़ोतरी और नेशनल हेल्थ सर्विस यानी एनएचएस में कटौती। उनके अनुसार यदि ब्रिटेन ईयू से निकलने का फैसला करता है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा। इससे वित्तीय अस्थिरता पैदा होगी और ब्रिटेन के सामने आर्थिक रूप से असमंजस की स्थिति पैदा हो जाएगी। बड़े कारोबारी भी ब्रिटेन के ईयू में बने रहने के पक्ष में हैं, क्योंकि इससे उन्हें पूरे विश्व में अपनी पूंजी, श्रम और उत्पाद को भेजने में आसानी होती है। 1दूसरी तरफ ब्रिटेन को ईयू से बाहर होते देखने वाले बैंक ऑफ इंग्लैंड और टेजरी की लोगों को जानबूझकर भयभीत करने के लिए आलोचना कर रहे हैं। ब्रिटेन पलायन के मुद्दे से भी जूझ रहा है। यह मुद्दा तब केंद्र में आया है जब मध्य इंग्लैंड की जनसांख्यिकी में तेजी से बदलाव महसूस किया जा रहा है। कुछ लोगों का तर्क है कि ब्रिटेन की बहुनस्ली और बहुजातीय समाज की पहचान कायम रखने के लिए ईयू छोड़ना जरूरी है। उनका विचार है कि अभी की व्यवस्था के अनुसार सरकार ईयू से आने वाले लोगों की संख्या को सीमित नहीं कर सकती है। ब्रेक्जिट यानी ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के दूरगामी परिणाम होंगे। आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत सरकार जनमत संग्रह के संभावित नतीजों पर करीबी नजर बनाए हुए है। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने भी कहा है कि ब्रेक्जिट के बाद विश्व अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। हालांकि उन्होंने कहा है कि भारत इससे प्रभावित नहीं होगा, क्योंकि उसके पास अच्छी नीति, दीर्घकालिक देनदारी और विदेशी मुद्रा का बड़ा भंडार है।1अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग सहित अन्य विश्व नेताओं की तरह मोदी ने भी ब्रिटेन को ईयू से बाहर नहीं जाने के लिए सलाह दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ब्रिटेन को यूरोपीय संघ का प्रवेश द्वार बताया है और कहा है कि भारत हमेशा एक मजबूत और एकजुट यूरोप का समर्थन करता है। भारतीय कंपनियां ब्रिटेन में निवेश करती रही हैं और वहीं से यूरोप के दूसरों देशों में अपना कारोबार फैलाती रही हैं। भारतीय कारोबारी समुदाय भी ब्रिटेन को ईयू में बने रहना देखना चाहता है। फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ने कहा है कि ईयू से ब्रिटेन के बाहर जाने का फैसला भारतीय कारोबार के लिए अनिश्चितता पैदा करेगा। जाहिर है कि ब्रेक्जिट का ग्लोबल अर्थव्यवस्था और खासकर भारत पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेगा। यह पूरी तरह स्पष्ट है कि वैश्विक स्तर पर इससे वित्त का प्रवाह और मुद्रा विनिमय प्रभावित होगा। अब 23 जून को जनमत संग्रह के जो भी नतीजे आएंगे, एक बात साफ है कि ब्रिटेन पहले वाला ब्रिटेन नहीं रह जाएगा।1(लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर हैं)(DJ)

निर्यात को गति जरूरी जयंतीलाल भंडारी

यकीनन पिछले दो वर्षो में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा दुनिया के विभिन्न देशों की यात्राओं के दौरान भारत से निर्यात बढ़ाने के प्रयासों के बावजूद निर्यात घट गए। लेकिन आयात में भी कमी से विदेश व्यापार घाटा भी कम हुआ है। हाल ही में वाणिज्य मंत्रालय के द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2015-16 में देश से कुल 261 अरब डॉलर मूल्य के माल और सेवाओं का निर्यात किया गया जबकि 379 अरब डॉलर का आयात किया गया। परिणामस्वरूप वित्त वर्ष 2015-16 में देश का व्यापार घाटा कम होकर 118 अरब डॉलर रहा, जो इससे पिछले साल 137 अरब डॉलर था। वर्ष 2015-16 का निर्यात निर्धारित निर्यात लक्ष्य से 16 फीसद कम रहा है। चिंताजनक यह भी है कि 13 मई 2016 को प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार देश से वस्तुओं का निर्यात लगातार 17वें महीने घटा है। विचारणीय यह है कि पिछले दो वर्षो में जहां नियंतण्र व्यापार और निर्यात मांग के क्षेत्र में कमी आई है। वहीं भारत जैसे ही कई निर्यातक देश पिछले वर्ष 2015-16 में निर्यात डगर पर आगे बढ़े हैं। खासतौर से वियतनाम, बांग्लादेश और मलयेशिया ऐसे देश हैं,जहां औसतन निर्यात 7-8 फीसद बढ़ा है। यद्यपि कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट के कारण देश का आयात बिल निर्यात के मुकाबले कम है। लेकिन कुछ बड़े जोखिम अभी बरकरार हैं। यदि देश में औद्योगिक वृद्धि उम्मीद के मुताबिक गति पकड़ती है तो आयात में इजाफा होगा। इसी तरह यदि तेल कीमतों में बढ़ोतरी हुई तो भी आयात बिल एकदम बढ़ेगा। निसंदेह निर्यात के नए चिंताजनक आंकड़ों ने देश के ऊंचे निर्यात लक्ष्य के सामने प्रश्नचिह्न लगा दिया है। इस समय भारत को विश्व निर्यात बाजार में विभिन्न देशों से मिल रही निर्यात चुनौतियों का सामना करने के लिए नई रणनीति बनानी होगी। भारत को सबसे बड़ी निर्यात चुनौती चीन से मिल रही है। जिन देशों के साथ भारत के मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) हुए हैं, उनमें से अधिकांश देशों के साथ चीन के भी एफटीए हैं। इतना ही नहीं, भारत के मुकाबले कई छोटे-छोटे देश मसलन बांग्लादेश, वियतनाम, थाईलैंड जैसे देशों ने अपने निर्यातकों को सुविधाओं का ढेर देकर भारतीय निर्यातकों के सामने कड़ी प्रतिस्पर्धा खड़ी कर दी है। निर्यात चुनौतियों के तहत एक चुनौती यह भी है कि देश में विदेशों से माल लेकर भारत आने वाले जहाजों के पास सामान्यतया वापस ले जाने के लिए बहुत कम सामान होता है। इसके चलते समुद्री माल ढुलाई की दरें बढ़ जाती हैं। साथ ही भारतीय बंदरगाह शुल्क के मामले में भी पड़ोसी देशों से महंगे हैं।निश्चित रूप से भारत को निर्यात का गढ़ बढ़ाने का सपना साकार करने के लिए मोदी सरकार को ऐसी रणनीति पर काम करना होगा, जिसके तहत निर्यात की मुश्किलें कम हों। सरकार द्वारा निर्यात वृद्धि के दीर्घकालिक प्रयासों के तहत निर्यात कारोबार का कमजोर बुनियादी ढांचा सुधारा जाना होगा। खासतौर से समुद्री व्यापार से संबंधित बुनियादी ढांचे पर विशेष ध्यान देना होगा। स्थिति यह है कि चीन का 10वां सबसे बड़ा बंदरगाह भी भारत के सबसे बड़े बंदरगाह से 50 प्रतिशत तक बड़ा है। इतना ही नहीं, देश के कुल 12 बड़े बंदरगाहों का जितना कारोबार है, उससे अधिक अकेले सिंगापुर की पोर्ट सिटी का है। साथ ह,ी कोलंबो बंदरगाह अकेले ही भारत के सभी बंदरगाहों की तुलना में अधिक कंटेनर ट्रैफिक संभालता है। ऐसे में भारतीय बंदरगाहों की क्षमता वृद्धि की जाए। भारत से निर्यात बढ़ाने के लिए निर्यातक इकाइयों के लिए ऋण पर ब्याज दर में कमी की जाए। निर्यात उद्योगों से संबंधित कच्चे माल पर कम आयात शुल्क लगाया जाए। जीएसटी को शीघ्र लाया जाए। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि पिछले दो वर्षो से लगातार निर्यात में गिरावट के रुख को रोकने के लिए कम-से-कम कुछ ऐसे देशों के बाजार भी जोड़े जाने होंगे, जहां गिरावट अधिक नहीं है। निर्यात में जिन क्षेत्रों में गिरावट देखी गई उनमें पेट्रोलियम उत्पाद (47.88 फीसद), इंजीनियरिंग (29 फीसद), चमड़ा और चमड़ा उत्पाद (12.78 फीसद) और कालीन (22 फीसद) है। निर्यातकों ने लगातार गिरावट पर चिंता जाहिर की है।वस्तुत: इस समय निर्यात बढ़ाने वाले कई महत्त्वपूर्ण आधारों का पूरा लाभ भारत द्वारा उठाया जा सकता है। जिस तरह अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम घट गए हैं, साथ ही कच्चे तेल की कीमतों में कमी से विदेशी मुद्राकोष, मुद्रास्फीति, भुगतान संतुलन और सब्सिडी के मानकों पर भारत की सकारात्मक स्थिति हो गई है, उसका लाभ निर्यात बढ़ाने में लिया जा सकता है। आर्थिक एवं श्रम सुधारों की डगर पर आगे बढ़ने का लाभ भी लिया जा सकता है। ऐसे में अब देश के नीति-निर्माताओं को चाहिए कि वे भारत के लिए निर्यात के वर्तमान सकारात्मक अवसर को हाथ से न जाने दें। जरूरी है कि निर्यातकों को उपयुक्त प्रोत्साहन दिए जाएं। साथ ही, सरकार द्वारा बेहतर विदेशी बाजार पहुंच उपलब्ध कराने का पूरा प्रयास किया जाए। भारतीय निर्यात संगठनों का परिसंघ (फियो) ने निर्यात में गिरावट को लेकर चिंता जाहिर करते हुए सरकार से मांग की है कि सरकार निर्यात को गति देने के लिए प्रोत्साहनमूलक उपायों की घोषणा करे। संगठन ने कर्ज के मकसद से निर्यात को प्राथमिकता वाले क्षेत्र में शामिल करने और सभी निर्यातकों के लिए ब्याज सब्सिडी बहाल करने की मांग की है। हम आशा करें कि मोदी सरकार अपने कार्यकाल के तीसरे वर्ष में प्रवेश करने के साथ भारत को निर्यात का नया नियंतण्र केंद्र बनाने के लिए शीघ्र ही उपयोगी नई निर्यात रणनीतिप्रस्तुत करेगी और उसके कारगर क्रियान्वयन पर ध्यान देगी। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को निर्यात में गिरावट को रोकने के लिए तत्काल ब्याज अनुदान स्कीम जैसे कुछ कदम उठाने चाहिए। हमारी इंडस्ट्री में निर्यातक तो खुश हैं, लेकिन बहुत ऐसी खामियां हैं जिनके कारण बाहर के पूंजीपति यहां आकर निवेश करना नहीं चाहते या जो करना चाहते हैं उन्हें तमाम तरह की समस्याएं आती हैं, दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ते हैं, रिश्वतखोरी है। ‘‘मेक इन इंडिया’ को सफल बनाने के लिए इन कमियों को दूर करना होगा।(RS)

Sunday 19 June 2016

क्यों जरूरी है योग पर पेटेंट (अभिषेक कुमार)

अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा कि अमेरिका में भारतीय योग के महत्व को स्वीकार करने वाले
और इसकी प्रैक्टिस करने वालों की संख्या तीन करोड़ है, लेकिन फिर भी भारत ने इस पर पेटेंट लेने और इस पर अपना अधिकार जताने का प्रयास नहीं किया। निश्चय ही यह प्रधानमंत्री की नेकनीयती का सबूत है कि उनकी इछा भारतीय योग के ग्लोबल विस्तार की है, पर ध्यान रखना होगा कि भविष्य में इस पर पेटेंट नहीं लेने की हमें भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। असल में, यह एक विडंबना है कि एक ओर भारत और उस जैसे गरीब मुल्कों को बौद्धिक अधिकारों की रक्षा के मामले में कड़ी चौकसी बरतने और कार्रवाई करने को मजबूर किया जाता है, तो दूसरी ओर उसके पारंपरिक बौद्धिक ज्ञान पर लगातार डाका डालने की कोशिशें होती रहती हैं। खास तौर से अमेरिका जैसे मुल्कों का इस मामले में रवैया बेहद विभेदकारी और पक्षपातपूर्ण रहा है, क्योंकि वे अपने यहां तो भारतीय वस्तुओं और पारंपरिक ज्ञान की चोरी रोकने की बजाय उन पर स्थानीय पेटेंट तक जारी कर देते हैं, जबकि भारत में गरीबों के लिए बेहद जरूरी दवाओं की नकल पर कॉपीराइट के उलंघन का शोर मचाकर यहां कड़े कानूनों को लागू करने और उन पर कार्रवाई की मांग करते हैं।
उल्लेखनीय है कि अमेरिका में कई मामलों में कानूनी कार्रवाई का सामना कर रहे भारतीय मूल के योग गुरु बिक्रम चौधरी (जो हाल में भारत लौट आए हैं) ने अब से आठ साल पहले वर्ष 2007 में तमाम भारतीय योगासनों, उनकी पद्धतियों और उनसे जुड़े जरूरी उपकरणों पर अमेरिकी कॉपीराइट कार्यालय से अपने नाम पेटेंट हासिल लिए थे। हालांकि उस समय दावा किया गया था कि ये पेटेंट बिक्रम योग, पावर योग जैसी योग की नई पद्धियों और बिक्रम चौधरी द्वारा विकसित योग पैंट जैसे उत्पादों पर दिया गया था, लेकिन सवाल है कि आखिर उन्होंने पारंपरिक भारतीय योगासनों में कौन से ऐसे सुधार कर लिए जो हजारों वषों के अंतराल में भारतीय योग गुरुओं ने नहीं किए होंगे और जिसके आधार पर उन्हें पेटेंट दे दिया गया। इधर पिछले कुछ वर्षो में अमेरिका, ब्रिटेन और चीन जैसे मुल्कों में भारतीय योग की लोकप्रियता बढ़ी है और वहां योग सिखाने के बाकायदा कार्यक्रम व सत्र चलने लगे हैं और इनके स्कूल खोले जा चुके हैं। इसलिए जरूरी है कि इस प्राचीन भारतीय ज्ञान की विशिष्टता बचाने का प्रयास किया जाए।
उल्लेखनीय है कि आचार्य पतंजलि के हठयोग से लेकर बाबा रामदेव तक ने प्राचीन भारतीय योगविद्या के तहत आने वाले योग, प्राणायाम और आसनों के लिए आम जनों को एक स्वस्थ जीवनशैली अथवा जीवन पद्धति मुहैया कराई है। हालांकि बिक्रम चौधरी ने दावा किया था कि उनके द्वारा विकसित किए गए योगासन विशिष्ट प्रकार के हैं (जैसे कि बिक्रम योग 40 डिग्री सेल्सियस से यादा तापमान पर कराया जाता है और वे न्यूड योग भी कराते हैं!), पर मूल सवाल यही है कि आखिर इनमें नयापन क्या था, जिसके आधार पर उन्हें पेटेंट जारी कर दिए गए थे। उल्लेखनीय है कि किसी प्रचलित रीति अथवा पारंपरिक पद्धति या ज्ञान पर कोई नया पेटेंट तभी जारी किया जा सकता है, जब उसमें कोई मौलिक सुधार किया हो और उसमें पारंपरिक जानकारी से पर्याप्त भिन्नता हो। यह भी गौरतलब है कि इससे पहले अमेरिका में कभी तो बासमती की नई किस्म ‘राइसटेक’ के नाम पर, तो कभी नीम, हल्दी, जामुन से बनाई गई नई दवा के नाम पर पेटेंट लेने की कोशिशें होती रही हैं, जिन्हें भारत ने अथक प्रयासों से रद्द कराया है। ऐसे में इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है कि विकसित मुल्कों में भारतीय योग की सभी प्रक्रियाओं का किसी दिन पेटेंट करा लिया जाए और हम हाथ मलते रह जाएं।
यह आशंका निराधार नहीं है। वर्ष 2014 में ऐसे कुछ प्रयास जर्मनी में हो चुके हैं, जहां योग की तरह ही एक अन्य भारतीय ज्ञान-उत्पाद खादी को जर्मनी की देन बताया गया था। वहां जर्मनी की एक कंपनी- खादी नेचरप्रोडक्ट यूरोपीय बाजारों में शैंपू, साबुन और तेलों आदि हर्बल सामानों की बिक्री उन्हें खादी उत्पाद बताकर बेचने लगी थी। जबकि यह स्पष्ट है कि खादी आजादी आंदोलन के समय से ही भारतीय ट्रेडमार्क है। इसके पीछे के आंदोलन की भूमिकाओं को पूरी दुनिया जानती है पर चूंकि इस पर कभी पेटेंट यानी बौद्धिक अधिकार हासिल करने की प्रक्रिया नहीं की गई, लिहाजा जर्मनी की कंपनी इसका फायदा उठाने लगी। इस पर भारत ने ऐतराज जताया। देश के खादी एवं ग्रामीण उद्योग आयोग(केवीआईसी) ने इस ट्रेडमार्क के नाजायज इस्तेमाल की बात उठाते हुए बेल्जियम स्थित संगठन-हार्मोनीजेशन इन इंटरनल मार्केट से इस मामले में दखल देने की मांग की और लाखों डॉलर के खर्च के बाद उस कंपनी को ऐसा करने से रोका गया। भारतीय बौद्धिक संपदाओं पर डाका डालने यानी पेटेंट या ट्रेडमार्क चुराने की यह कोई पहली कोशिश नहीं है। भारत इससे पहले हल्दी और नीम के पेटेंट में दखल का सामना कर चुका है और इनसे संबंधित मुकदमों में भारत को ही जीत मिली है, हालांकि ऐसे मामलों में भारत को काफी बड़ी रकम खर्च करनी पड़ जाती है। उल्लेखनीय है कि नब्बे के दशक में अमेरिका की एक कंपनी ने हल्दी पर अपना दावा ठोंक दिया था। इसे बचाने में भारत को पांच साल लग गए और अमेरिकी वकीलों को फीस के रूप में करीब 12 लाख डॉलर का भुगतान करना पड़ा था। इसी तरह 1995 में अमेरिका की ही एक अन्य फर्म ने भारत की नीम पर अपना दावा जता दिया था। भारत को इसके अमेरिकी पेटेंट को रद्द कराने में 10 साल लग गए। इस पूरी मशक्कत पर 10 लाख अमेरिकी डॉलर खर्च हो गए थे। इसी तरह का एक विवाद 1997 में भारतीय चावल की एक अहम किस्म- बासमती का उठा था। टेक्सास स्थित अमेरिकी कंपनी- राइसटेक सितंबर, 1997 में बासमती चावल के उत्पादन और विक्रय का बौद्धिक अधिकार यानी पेटेंट (संख्या 5663484) प्रदान किया गया था। राइसटेक को बासमती चावल पर पेटेंट दिए जाने की घटना को ‘बायोपाइरेसी’ का उत्कृष्ट उदाहरण बताया गया था। यह पेटेंट दिए जाने के बाद भारत ने अपनी आपत्ति जताई थी। भारत ने वे तथ्य मुहैया कराए, जिनसे पता चलता था कि भारत में तकरीबन 10 लाख हेक्टेयर और पाकिस्तान में 7.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में बासमती चावल की खेती होती है। यह भी साबित किया कि भारत और पाकिस्तान में पड़ने वाले ग्रेटर पंजाब के विशाल भूभाग पर वहां के किसान सदियों से बासमती चावल की उम्दा किस्म की पैदावार करते रहे हैं, इसलिए अमेरिकी कंपनी को दिया गया पेटेंट रद्द किया जाए। ध्यान रखना होगा कि एक बार योग पर किसी और मुल्क में पेटेंट दे दिए जाने पर उसे रद्द कराना और उसे भारतीय मूल का साबित करना एक टेढ़ा काम है और इस पर भारी-भरकम पूंजी खर्च होती है।
हाला हालांकि हमारी सरकार को इसका अहसास है कि भारतीय योग पर कब्जे का खतरा मंडरा रहा है। पिछले ही साल (वर्ष 2015 में) इसी आशंका के मद्देनजर सरकार ने 1500 से अधिक योगासनों को चिह्न्ति कर लिया था। करीब 250 आसनों के वीडियो भी तैयार कर लिए थे। कहा गया कि एक बार यह प्रक्रिया पूरी हो जाए तो भारतीय योगासनों पर पेटेंट के दावे के किसी भी प्रयास को नाकाम किया जा सकता है। सरकार का यह कदम ‘पारंपरिक ज्ञान डिजिटल पुस्तकालय’ (टीकेडीएल) के तहत उठाया जा रहा है।
वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद की एक इकाई- टीकेडीएल के विशेषज्ञों ने 1500 से अधिक योगासनों को चिह्न्ति किया है जो देश के प्राचीन ग्रंथों में वर्णित हैं। इसलिए अब जरूरत है कि भारतीय योगसनों के बाजार के महत्व को भी समझा जाए और सूचीबद्ध किए गए योगासनों पर अपना पेटेंट हासिल कर लिया जाए। ()DJ(

Friday 17 June 2016

बांग्लादेश में मुक्त विचारकों और अल्पसंख्यकों की हत्या : हम लज्जित नहीं भयभीत हैं (तसलीमा नसरीन)

मैंने दिसंबर 1992 में ‘लज्जा’ लिखी थी। सोचा था कि धीरे-धीरे बांग्लादेश की परिस्थिति अच्छी होगी। पंथनिरपेक्षता का माहौल लौटेगा। हिन्दू , मुसलमान, बौद्ध, ईसाई फिर से एक साथ सुख-शांति से रहेंगे। फिर से गाया जा सकेगा-‘हम सब बंगाली’। प्रतिबंधित किए जाने से पहले मेरी इस किताब की 50 हजार प्रतियां बिकी थीं। प्रतिबंध के बाद किताब की नकली प्रतियां पड़ोसी देशों में भी फैल गई थीं। यूरोप, अमेरिका के प्रकाशक ‘लज्जा’ के प्रकाशन की अनुमति चाह रहे थे। करीब 30 भाषाओं में उसका अनुवाद हुआ, पर ‘लज्जा’ लिखने, प्रकाशित करने और बेचने का क्या लाभ हुआ? जिस ‘लज्जा’ को लिखने पर सांप्रदायिक तत्वों की घृणा मिली, सरकार ने आंखें तरेरी, प्रतिबंधित लेखिका के रूप में निर्वासित हुई, पुस्तक मेले में मुस्लिम कट्टरपंथियों के हमले का शिकार हुई और अल्पसंख्यक (हिन्दू ) कट्टरपंथियों की स्वार्थ रक्षा के झूठे आरोप लगे उसी ‘लज्जा’ को पढ़कर सांप्रदायिक लोगों का विवेक नहीं जगा। ‘लज्जा’ पढ़ने के बाद भी हिन्दू विरोधी मुसलमानों को लज्जा नहीं आई। उलटे वे और आक्रामक हो गए। सत्य बोलने के अपराध में 22 वर्षो से निर्वासन की सजा काट रही हूं। इसके बावजूद बांग्लादेश में कहीं भी सांप्रदायिकता के खिलाफ आंदोलन होता है तो उसका समर्थन करती हूं।
इस समय बांग्लादेश से जो खबरें मिल रही हैं उससे मैं बेहद चिंतित हूं। उम्मीद की जो किरण दिखाई दे रही थी वह बुझ चुकी है। देश में मुक्त विचारधारा वाले ब्लॅागरों, लेखकों की हत्या हो रही है। धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी मारा जा रहा है। कुछ दिन पहले ही ङिानाइदह में तीन आतंकियों ने 70 वर्षीय हिन्दू पुरोहित अनंत कुमार गांगुली की हत्या कर दी। गांगुली साइकिल से नलडांगा बाजार के मंदिर जा रहे थे। बाइक सवार हत्यारों ने धारदार हथियारों से उनकी हत्या कर दी। गांगुली नास्तिक नहीं थे। इस्लाम की आलोचना करते हुए ब्लॅाग या किताब भी नहीं लिखते थे। उनकी हत्या की एक मात्र वजह यह थी कि वह अल्पसंख्यक धार्मिक समूह से थे। इसके बाद पाबना के हिमायतपुर में अनुकूल ठाकुर के सत्संग आश्रम के नित्यरंजन पांडे की हत्या कर दी गई। नित्यरंजन ने इस्लाम की निंदा नहीं की थी। उनका एक ही अपराध था कि वह भी अल्पसंख्यक थे। इसके पहले हिंदू दर्जी निखिल चंद्र की हत्या कर दी गई थी। सिर्फ अल्पसंख्यक नहीं, कुछ दिन पहले सुनील गोमेज नामक एक ईसाई किराना दुकानदार की भी धारदार हथियार से हत्या की गई। एक बौद्ध भिक्षु को भी मार डाला गया। कुछ विदेशियों की भी हत्या हुई, जिनमें एक जापानी तो दूसरा इतालवी था। सुन्नी आतंकी उस मुस्लिम को भी मार दे रहे हैं जिन्हें वह मुसलमान नहीं मानते। सूफी, शिया, अहमदिया किसी को भी बख्शा नहीं जा रहा। पंचगढ़ में एक अल्पसंख्यक धार्मिक हिन्दू पुरोहित को ग्रेनेड व गोली मारने के बाद उसका गला भी काटा गया। अल्पसंख्यक धार्मिक सुरक्षा के अभाव में पैतृक घर-बार छोड़कर जान बचाने के लिए गुप्त रूप से देश छोड़ रहे हैं। अल्पसंख्यक को जमीन और घर से बेदखल करने का लाभ कई मुसलमानों को मिल रहा है। जमीन व घर पर कब्जे के लिए हंिदूू पर तब तक अत्याचार किया जा रहा जब तक कि वह घर-बार छोड़कर भाग न जाए। 1‘लज्जा’ उपन्यास की अच्छाई ठीक उसी तरह चली गई जिस तरह आज अल्पसंख्यक धार्मिक देश छोड़ रहे हैं। भारत के विभाजन के वक्त से ही अल्पसंख्यक धार्मिक देश छोड़ रहे हैं। जनगणना के अनुसार 1941 में अल्पसंख्यकों की आबादी 28 फीसद थी। 1951 में 22.05, 1961 में 18.5, 1974 में 13.5, 1981 में 12.13,1991 में 11.62, 2001 में 9.2 और 2011 में 8.5 प्रतिशत रह गई। 2016 में तो और भी कम हो गई होगी। बांग्लादेश में जिस तरह जेहादियों का आतंक व अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़ रहे हैं और सरकार मूकदर्शक है उससे लगता है कि यहां अल्पसंख्यक खासकर अल्पसंख्यक धार्मिक नहीं बचेंगे। सिर्फ जेहादी और उनके समर्थक ही रहेंगे। वे शरिया या अल्लाह का कानून ले आएंगे। नारी को यौन इच्छापूर्ति की नजर से देखा जाएगा। वाक् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अस्तित्व नहीं रहेगा।
आज जो पार्टी सत्ता में है उसे लोग पंथनिरपेक्ष मानते हैं, पर अब उसके ही शासन में हंिदूुओं के घर जलाए जा रहे, मंदिर तोड़े जा रहे और अल्पसंख्यक धार्मिक लड़कियों से दुष्कर्म हो रहे हैं। प्रधानमंत्री शेख हसीना ने हाल में घोषणा की कि काबा शरीफ की सुरक्षा के लिए वह सऊदी अरब में बांग्लादेशी सेना भेजेंगी। हसीना को सबसे पहले देश की रक्षा के बारे में सोचना चाहिए। जेहादियों के हाथों से देश की रक्षा नहीं होने पर मुल्क की मौत हो जाएगी। जेहादी सरेराह और यहां तक कि घर में घुसकर मुक्त विचारधारा वाले लेखक-ब्लॅागरों, संस्कृति की रक्षा को आवाज उठाने वाले छात्र-शिक्षकों, प्रगतिशील मुसलमानों, अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की हत्या कर रहे हैं। इस खून-खराबे को रोकने और मुल्कको बचाने के लिए प्रतिज्ञा न कर शेख हसीना अल्लाह के घर को बचाने के लिए उस सऊदी अरब के बादशाह को आश्वासन दे आईं जहां से आए पैसे से बांग्लादेश में बड़ी संख्या में कट्टरपंथियों की संस्थाएं खुल गई हैं। उनमें जेहादी तैयार किए जा रहे हैं। अब तो माइंड वॉश के लिए मदरसे की भी जरूरत नहीं है। कट्टरपंथियों के पैसे से स्थापित प्री प्राइमरी स्कूलों में अच्छे से माइंड वॉश का कार्य हो रहा है। बांग्लादेश में धारदार हथियारों से लोगों को मारने के बाद इस्लामिक स्टेट की ओर से गर्व के साथ घोषणा की जाती है कि उन्होंने हत्या कराई है। उन्हें कोई भय नहीं है। वे निश्चिंत हैं कि उन्हें सजा नहीं मिलेगी। इस्लाम के नाम पर शरिया कानून लागू कराने के लिए जो हत्याएं हो रही हैं उनके बारे में यही लगता है कि सरकार मानती है कि वे अन्य कारणों से हुई हैं। इन हत्याओं के खिलाफ सरकार किसी तरह की चेतावनी नहीं दे रही है। जो भी चेतावनी दी गई है वह लेखकों को दी गई है कि वे इस्लाम की आलोचना न करें। यदि कोई करता है तो उसे जेल में ठूंस दिया जाएगा। मुक्त विचारधारा वालों को सजा देने के लिए 57 आइसीटी एक्ट तैयार किया गया है, लेकिन जेहादियों को सजा देने के लिए किसी तरह का नया कानून नहीं बनाया गया है। 1बांग्लादेश में आम तौर पर अल्पसंख्यक धार्मिक अवामी लीग को वोट देते हैं। चुनाव के समय विरोधी हंिदूुओं को धमकी देते हैं। चूंकि उन्हें सुरक्षा देने वाला कोई नहीं होता इसलिए अधिकांश अल्पसंख्यक धार्मिक मतदान के दिन घर से बाहर नहीं निकलते। यदि अल्पसंख्यक धार्मिक की हत्या होती है तो किसी का कुछ नहीं आता-जाता। न खालिदा जिया का, न शेख हसीना का और न ही अन्य किसी दल का। हम लोगों को अब और लज्जा नहीं आ रही है, देश की करूण हालत देखकर हम भयभीत हैं।1(बांग्लादेश मूल की लेखिका मुक्त विचारों की प्रबल समर्थक एवं मानवाधिकारवादी हैं)(DJ)

Wednesday 15 June 2016

एनएसजी में मज़बूत होती भागीदारी (रवि शंकर)

परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) की सदस्यता के लिए वैश्विक स्तर पर समर्थन जुटाने की भारत की मुहिम को हाल में एक बड़ी कामयाबी मिली। अमेरिका, स्विट्जरलैंड और मेक्सिको ने एनएसजी की सदस्यता के लिए भारत का समर्थन किया है, लेकिन पाकिस्तान 48 सदस्यीय इस समूह में शामिल होने के भारत के प्रयास को रोकने के लिए लगातार प्रयास कर रहा है। भारत और पाकिस्तान दोनों ने वैश्विक परमाणु व्यापार को नियंत्रित करने वाले 48 सदस्यीय एनएसजी की सदस्यता के लिए आवेदन दिया है। हालांकि भारत के प्रयास को अमेरिका सहित एनएसजी के कई प्रमुख सदस्यों का समर्थन प्राप्त है। वहीं चीन पाकिस्तान का समर्थन कर रहा है। पाकिस्तान और चीन का तर्क है कि बिना परमाणु अप्रसार संधि यानी एनपीटी पर हस्ताक्षर किए बिना भारत कैसे एनएसजी की सदस्यता हासिल कर सकता है? चीन का कहना है कि परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं करने वाले भारत को यदि सदस्यता दी जा सकती है तो पाकिस्तान को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए। माना जाता है कि चीन तब तक भारत की सदस्यता का समर्थन नहीं करेगा जब तक पाकिस्तान को भी यही दर्जा नहीं दिया जाए। पिछले महीने पाकिस्तान ने एनएसजी की सदस्यता के लिए औपचारिक आवेदन दाखिल किया था, जबकि भारत ने परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में शामिल होने का औपचारिक आवेदन 2008 में किया था, तब से वह विभिन्न देशों का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है।
हालांकि चीन सहित न्यूजीलैंड, आयरलैंड, तुर्की, दक्षिण अफ्रीका और ऑस्टिया एनएसजी में भारत के शामिल होने का विरोध कर रहे हैं। दूसरी तरफ परमाणु अप्रसार के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए अमेरिका सहित कई अन्य देश एनएसजी की सदस्यता के लिए भारत का समर्थन कर रहे हैं और अमेरिका ने एनएसजी के अन्य सदस्यों से भी भारत की उम्मीदवारी का समर्थन करने को कहा है। परमाणु प्रसार को लेकर गहरी चिंता जताने वाले यूरोपीय देश स्विट्जरलैंड ने भी परमाणु व्यापार क्लब में शामिल होने के लिए भारत की दावेदारी का समर्थन करने की घोषणा की है। उल्लेखनीय है कि भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के आधार पर चीन के नहीं चाहने के बावजूद एनएसजी ने असैन्य परमाणु प्रौद्योगिकी तक पहुंच के लिए वर्ष 2008 में भारत को विशेष छूट दी थी।
भारत का प्रवेश अगर एनएसजी में होता है तो इससे यूरेनियम आपूर्ति की संभावनाएं बनेंगी और इससे विभिन्न देशों में भारतीय आपूर्तिकर्ताओं और नाभिकीय संघटकों के लिए भी राह खुलेगी। इसके अलावा भारत को इससे नई तकनीक मिलेगी। दरअसल भारत एनएसजी की सदस्यता सिर्फ इसलिए चाहता है कि वो अन्य सदस्य देशों के साथ मिलकर परमाणु मसलों पर नियम बना सके। हालांकि भारत को साल 2008 से ही परमाणु पदार्थो के आयात के लिए सहूलियत मिली हुई है, लेकिन यदि भारत को एनएसजी की सदस्यता मिल जाती है तो सबसे बड़ा फायदा ये होगा कि इसका मान बढ़ जाएगा। एनएसजी वर्ष 1974 में भारत के परमाणु परीक्षण के बाद ही साल 1975 में बना था। यानी जिस क्लब की शुरुआत भारत का विरोध करने के लिए हुई थी, अगर भारत उसका मेंबर बन जाता है तो ये उसके लिए एक बड़ी उपल}िध होगी। साथ ही भारत ये चाहता है कि उसे एक परमाणु हथियार संपन्न देश माना जाए, क्योंकि सिर्फ परमाणु अप्रसार संधि ये कहती है कौन देश परमाणु हथियार संपन्न है और कौन नहीं।
गौरतलब है कि एनएसजी में शामिल होते ही भारत परमाणु से जुड़ी सारी तकनीक और यूरेनियम सदस्य देशों से बिना किसी समझौते के हासिल कर सकेगा। भारत में दुनिया का हर सातवां व्यक्ति रहता है, लेकिन दुनिया के कुल ऊर्जा उत्पादन का महज दो से तीन फीसद यहां पैदा होता है। लिहाजा भारत के लिए ऊर्जा की बढ़ती समस्या से निपटने के लिए इसे एनएसजी का सदस्य बनना बेहद जरूरी है। देश में मौजूदा वक्त में शहरों का विस्तार हुआ है, इसके बढ़ने के बाद लोगों की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने में यह सदस्यता कारगर साबित होगी। भारत के ऊर्जा संकट को खत्म करने और तरक्की की तरफ जाने का यह एक सफल प्रयोग साबित होगा और अब तक भविष्य को लेकर इसकी जो समस्याएं थीं, इस संगठन से जुड़कर उस पर भी निजात पाया जा सकता है। गौरतलब है कि जब 1974 में यह समूह बना था तब इसमें महज सात देश थे-कनाडा, पश्चिम जर्मनी, फ्रांस, जापान, सोवियत संघ, ग्रेट ब्रिटेन और अमेरिका। बाकी देशों को धीरे-धीरे इस समूह में जगह मिलती रही है।
इतना ही नहीं भारत और अमेरिका के बीच जिन मुद्दों पर वार्ता हुई उसमें एक मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजीम (एमटीसीआर) का सदस्य बनने का प्रस्ताव भी था। अमेरिक में भारत के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया। इसके किसी सदस्य देश ने भारत की दावेदारी का विरोध नहीं किया है। इस समूह की सदस्यता से भारत की उच स्तरीय मिसाइल प्रौद्योगिकी तक पहुंच हो सकेगी। औपचारिक रूप से भारत को इस साल के अंत में एमटीसीआर की सदस्यता मिल जाएगी और उसके बाद भारत मिसाइल से संबंधित और अन्य कई सामरिक और वैज्ञानिक महत्व की तकनीक की खरीद-फरोख्त कर पाएगा। एमटीसीआर 35 देशों का एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है, जिसका काम दुनिया भर में मिसाइल द्वारा रासायनिक, जैविक, नाभिकीय हथियारों के प्रसार पर नियंत्रण रखना है। हालांकि इस टेक्नोलॉजी का प्रयोग कोई भी देश केवल अपनी सुरक्षा के लिए कर सकता है। एमटीसीआर का सदस्य बनने से भारत के लिए एनएसजी की सदस्यता हासिल करने में आसानी होगी। एमटीसीआर का गठन 1997 में दुनिया के सात बड़े विकसित देशों ने किया था। बाद में 27 अन्य देश भी इसमें शामिल हुए। भारत एमटीसीआर का सबसे नया और 35वां सदस्य बन चुका है।
हालांकि संप्रग सरकार के समय ही अमेरिका के साथ भारत का परमाणु करार हुआ था और उसी आधार पर भारत को यूरेनियम आदि मिलना शुरू हो गया था, पर अब बराक ओबामा और नरेंद्र मोदी के बीच पिछले दो सालों में हुई करीब सात बार की मुलाकातों से न सिर्फ दोनों देशों के रिश्ते प्रगाढ़ हुए हैं, बल्कि अमेरिकी प्रशासन का भारत पर भरोसा भी बढ़ा है। गत दिनों अमेरिकी कांग्रेस को संबोधित करते हुए मोदी की कोशिश भारत से संबंध के प्रति अमेरिका में राजनीतिक आम-सहमति बढ़ाने पर रही। उनकी निगाह इस पर थी कि अमेरिका में अगले राष्ट्रपति चुनाव का परिणाम चाहे जो हो, उससे भारत-अमेरिका संबंधों की वर्तमान गति प्रभावित ना हो। अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती नजदीकी की बड़ी वजह यह भी है कि एशिया में दोनों देशों की चिंताएं लगभग समान हैं। आतंकवाद पर नकेल कसना तो अहम मुद्दा है ही, चीन की विस्तारवादी नीतियों पर काबू पाना भी जरूरी है। इसलिए वाशिंगटन नई दिल्ली से औपचारिक गठजोड़ करना चाहता है, जबकि चीन पाकिस्तान को अपने करीब लाकर एशिया में अपना वर्चस्व कायम रखना चाहता है।
बहरहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताजा अमेरिका यात्र की उपल}िधयों से स्वाभाविक ही चीन और पाकिस्तान के माथे पर शिकन उभरी है। दोनों देशों के बीच बढ़ती साङोदारी के पीछे सिर्फ व्यापारिक हित ही नहीं हैं। रणनीतिक साङोदारी की नई दास्तां भी लिखी जा रही है, जिसके केंद्र में चीन भी है। वहीं भारत इस साङोदारी के जरिए कुछ और देशों के साथ अपने रिश्तों को संतुलित करना चाहता है। भारत का विरोध करने के पीछे चीन की रणनीतिक दिलचस्पी है, पर भारत के साथ अछे संबंधों की जरूरत चीन को भी है। चीन नहीं चाहेगा कि भारत हिंद महासागर और एशिया प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी रणनीति का पूरी तरह हिस्सा बन जाए, इसके लिए उसे भी भारत के हक में कुछ फैसले करने पड़ेंगे। आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि चीन अपने रुख को कितना लचीला बनाता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)(DJ)

Tuesday 14 June 2016

न्याय में देरी की मुख्य वज़ह (शिवानंद द्विवेदी)

शासन के तीन अंगों में न्यायपालिका को बेहद अहम एवं विश्वसनीय अंग के रूप देखा जाता है। न्यायपालिका का प्रमुख दायित्व कानून के मुताबिक न्याय व्यवस्था को हर आम और खास के लिए समान रूप प्रतिष्ठित करना है। लेकिन वर्तमान भारतीय न्यायपालिका लंबित मामलों के बोझ और मामलों की तुलना में जजों की संख्या एवं आधारभूत ढांचा नाकाफी साबित हो रहा है। न्यायपालिका पर बढ़ते बोझ और लंबित मामलों की तुलना में जजों की संख्या में भारी कमी का हवाला देते हुए माननीय सवरेच न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति टीएस ठाकुर भी पिछले दिनों एक कार्यक्रम में भावुक हो गये। बड़ी बात यह थी कि उस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उपस्थित थे। आंकड़ों के मुताबिक़ निचली अदालतों में 3 करोड़ मामले लंबित हैं। मात्र बीस हजार जजों के कंधों पर दो करोड़ मामलों की सुनवाई का दबाव है। लाखों लोग इसलिए जेलों में हैं क्योंकि जज उनके मामले ही नहीं सुन पा रहे हैं, लेकिन इसके लिए जजों को दोष न दीजिये। देश के उच न्यायालयों में 38 लाख से यादा मामले आज भी लंबित हैं। इन मामलों को निपटाने के लिए जजों की संख्या कम पड़ रही है। हाईकोर्ट में कुल 434 जजों की आवश्यकता है। आश्चर्यजनक तथ्य है कि केवल उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद उच न्यायलय में ही लगभग 10 लाख के आसपास मामले लंबित हैं, जिनकी सही ढंग से समय पर सुनवाई नहीं हो पा रही है। अगर देखा जाय तो आजादी के समय न्यायालयों एवं न्यायधीशों की तुलना में मामले भी संतुलित थे। लेकिन धीरे-धीरे दोनों में असंतुलन की स्थिति पैदा होती गयी। एक आंकड़े के मुताबिक1950 में जब सवरेच न्यायलय का गठन हुआ था तब कुल आठ जज थे और 1000 मामले थे फिर 1960 में जजों की संख्या 14 हुई और मामले 2247 हुए। 1977 में जब मामले 14501 हुए तब कुल 18 जज काम कर रहे थे। जबकि 2009 में जज 31 हुए तो केस बढकर 77151 हो गए। 2014 में जजों की संख्या नहीं बढ़ी पर केस 81553 हो गए। उस कार्यक्रम में माननीय न्यायमूर्ति ठाकुर की बात का मजमून भी लगभग यही था कि अदालत में रखे गये मामलों की तुलना में जजों की संख्या लगातार कम होती जा रही है।
जरुरत के अनुरूप नाकाफी साबित हो रहे भारतीय न्यायिक ढॉचे की मूल वजहों को समङो बिना इस समस्या का समाधान बिलकुल नहीं किया जा सकता है। न्यापालिका से जुड़े इस समस्या के संदर्भ में अब बड़ा सवाल यह है कि आखिर भारतीय न्याय व्यवस्था में पैदा हुई इस बड़ी खामी की वजह क्या है? इस समस्या के मूल वजह पर बात की जानी इस लिहाज से जरुरी है क्योंकि अगर इस समस्या के समाधान के लिए समस्या का मूल समझना सबसे जरुरी है। न्यायपालिका के क्षेत्र में आधारभूत संरचना से लगाये जजों की पर्याप्त संख्या एवं वर्गीकृत रूप से अदालतों का गठन नहीं होने की वजह से आज लंबित मामलों के बोझ तले हमारी न्याय प्रणाली कछुवे की रफ़्तार से काम करती नजर आ रही है। आईजस्टिस के लिए काम कर रहे सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता प्रशांत नारंग एवं रिसर्च टीम ने इस मामले पर व्यापक रिसर्च किया एवं एक रिपोर्ट तैयार की है। इस रिसर्च डॉक्यूमेंट में न्यायिक प्रणाली में सुधार न हो पाने की कुछ ठोस वजहों को रखा गया है, जिन पर गंभीरता से विचार किये जाने की जरूरत है। रिपोर्ट के अनुसार लगभग 18 ऐसे राय है जो न्यायिक सुधारों के लिए आवंटित कुल बजट का 1 फीसद भी खर्च नहीं कर पाए हैं। इन आंकड़ों का अगर रायवार विश्लेषण करें तो दिल्ली, हरियाणा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक एवं उड़ीसा में आवंटित बजट का 1 फीसद से भी कम हिस्सा खर्च हो रहा है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि आखिर वो कौन-सी वजहें हैं कि न्यायिक सुधारों के लिए आवंटित बजट को हमारी व्यवस्था खर्च तक नहीं कर पा रही है! इसमें कोई कोई शक नहीं कि न्यायपालिका एवं राय सरकारें न्यापालिका के आधारभूत संरचना को तैयार करने एवं नए कोर्ट रूम बनाने के लिए आवंटित कुल बजट का 80 फीसद खर्च करने में पूरी तरह से नाकामयाब साबित हुई है। यहां तक कि सायंकालीन अदालतों के गठन संबंधी व्यवस्था के लिए आवंटित बजट का बड़ा हिस्सा भी इस्तेमाल नहीं हो सका है। सीसीएस की रिपोर्ट के मुताबिक़ 13वें वित्त आयोग की सिफारिशों को आधार बनाकर सरकार द्वारा 5000 करोड़ की धनराशि सिर्फ कोर्ट के आधारभूत संरचना के निर्माण कार्य के लिए दिया गया था। पिछले पांच वर्षो में केन्द्रीय कानून मंत्रलय द्वारा उस बजट से मात्र 1775 करोड़ रायों को दिया गया लेकिन आश्चर्य की बात ये है कि इस राशि का भी पूरा इस्तेमाल रायों द्वारा नहीं किया जा सका है। कानून मंत्रलाय द्वारा जब इसका मूल्यांकन किया गया तो पता चला कि सरकार द्वारा जारी इस राशि से मात्र 867 करोड़ की राशि ही रायों द्वारा न्यायपालिका के आधारभूत संरचना के लिए खर्च की जा सकी है। विशेष सांध्य एवं प्रात:कालीन अदालतों के लिए सरकार द्वारा 2500 करोड़ रुपये आवंटित हुए जिसमें से मात्र 215 करोड़ खर्च किया जा सका है। 13वें वित्त आयोग की सिफारिशों के बाद आवंटित हुए बजट की बड़ी धनराशि खर्च नहीं हो सकी है फिर 14वें वित्त आयोग में सरकार ने सौ से यादा विशेष अदालतों को बनाने का प्रस्ताव रखा है।
उपरोक्त आंकड़ों को देखने के बाद यह समझना बिलकुल भी मुश्किल नहीं है कि आखिर हमारी न्यायिक व्यवस्था की कार्य-प्रणाली इतनी ढुलमुल क्यों है? यह बात समझ से परे हैं कि संबंधित अधिकृत विभाग द्वारा जरूरतों के अनुरूप आवंटित बजट तक को इस्तेमाल न कर पाने की वजह क्या है? क्या वाकई हम न्याय व्यवस्था को हाशिये का विषय मानकर बैठे हैं? और इस दिशा में सुधार के प्रति जरा भी चिंतित नहीं हैं? आंकड़े तो कम से कम इसी बात को दर्शाते हैं। अब जब न्यायमूर्ति ठाकुर द्वारा भावुक अंदाज में जजों की कमी को बताया गया तो इस सवाल पर भी बहस होनी चाहिए कि बजट आवंटन के बावजूद न्यायिक क्षेत्र में आधारभूत संरचना को तैयार करने में कहां परेशानी आ रही है। जजों के रिक्त पदों को भरना तो नितांत आवश्यक है ही साथ में अदालतों की संख्या और उनके काम करने के समय-सारणी को भी और दुरुस्त करने की जरुरत है। तय बजट का सही उपयोग अगर किया जाय तो सायंकालीन अदालतों, प्रात: कालीन सुनवाई आदि की व्यवस्था विशेष अदालतों के तहत की जा सकती है। साथ ही मामलों को फिल्टर करने के उपायों पर भी और विचार करने की जरुरत है। वादी और प्रतिवादी के बीच अगर बिना अदालत गये समझौते के विकल्पों पर सोचा जाय तो काफी हद तक न्यायपालिका से बोझ हल्का हो सकता है। आदालती कार्यो के अलावा प्रक्रिया में बहुत सारे ऐसे तकनीकी कार्य आते हैं जिनका अदालती प्रक्रिया से लेना-देना यादा नहीं होता। मसलन, रजिस्ट्री इत्यादि। इन कार्यो का बोझ अदालतों पर सीधे डालने की बजाय आउटसोर्स की प्रणाली विकसित करने की दिशा में काम करने की जरूरत है। इससे अदालतों पर बोझ कम होगा और कार्य की प्रगति तेज होगी। बैंकिंग क्षेत्रों में भी चेक बाउंस जैसे मामलों के लिए प्रथम दृष्टया बैंकों को यह अधिकार दिए जाने की जरूरत है कि वे खुद इस किस्म के अपराध में कठोर आर्थिक दंड का प्रावधान तय कर सकें। अगर बैंकों के पास यह अधिकार होगा तो मामलों में न सिर्फ कमी आएगी बल्कि अदालतों में जाने वाले मामलों में भी कमी आएगी।
कुल मिलाकर अगर देखा जाय तो अदालतों के ऊपर बढ़े बोझ की दो वजहें सामने आती हैं। पहली वजह यह कि अदालतों के आधारभूत संरचना के विकास में हमारा प्रशासन सुस्ती बरत रहा है और दूसरी वजह यह है कि हर मामले (जिनको अलग स्तरों पर सुलझाया जा सकता है) के लिए हम अदालतों का रुख कर रहे हैं। इन दोनों बिंदुओं पर विचार करते हुए ही उस समस्या का हल निकल सकता है जो माननीय मुख्य न्यायाधीश की चिंता है।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फेलो हैं)(DJ)